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वैदेही-वनवास था संध्या का समय भवन मणिगण दमक। दीपक-पुंज समान जगमगा रहे थे॥ तोरण पर अति-मधुर-वाद्य था बज रहा। सौधों में स्वर सरस-स्रोत से बहे थे॥1॥ काली चादर ओढ़ रही थी यामिनी। जिसमें विपुल सुनहले बूटे थे बने॥ तिमिर-पुंज के अग्रदूत थे घूमते। दिशा-वधूटी के व्याकुल-दृग सामने॥2॥ सुधा धवलिमा देख कालिमा की क्रिया। रूप बदल कर रही मलिन-बदना बनी॥ उतर रही थी धीरे कर से समय के। सब सौधों में तनी दिवासित चाँदनी॥3॥ तिमिर फैलता महि-मण्डल में देखकर। मंजु-मशालें लगा व्योमतल बालने॥ ग्रीवा में श्रीमती प्रकृति-सुन्दरी के। मणि-मालायें लगा ललक कर डालने॥4॥ हो कलरविता लसिता दीपक-अवलि से। निज विकास से बहुतों को विकसित बना॥ विपुल-कुसुम-कुल की कलिकाओं को खिला। हुई निशा मुख द्वारा रजनी-व्यंजना॥5॥
इसी समय अपने प्रिय शयनागार में। सकल भुवन अभिराम राम आसीन थे॥ देख रहे थे अनुज-पंथ उत्कंठ हो। जनक-लली लोकोत्तरता में लीन थे॥6॥ तोरण पर का वाद्य बन्द हो चुका था। किन्तु एक वीणा थी अब भी झंकृता॥ पिला-पिला कर सुधा पिपासित-कान को॥ मधुर-कंठ-स्वर से मिल वह थी गुंजिता॥7॥ उसकी स्वर लहरी थी उर को वेधिता। नयन से गिराती जल उसकी तान थी॥ एक गायिका करुण-भाव की मूर्ति बन। आहें भर-भर कर गाती यह गान थी॥8॥ गान आकुल ऑंखें तरस रही हैं। बिना बिलोके मुख-मयंक-छवि पल-पल ऑंसू बरस रही हैं॥ दुख दूना होता जाता है सूना घर धर-धर खाता है। ऊब-ऊब उठती हूँ मेरा जी रह-रह कर घबराता है। दिन भर आहें भरती हँ मैं तारे गिन-गिन रात बिताती। आ अन्तस्तल मध्य न जानें कहाँ की उदासी है छाती॥ शुक ने आज नहीं मुँह खोला नहीं नाचता दिखलाता है। मैना भी है पड़ी मोह में उसके दृग से जल जाता है॥ देवि! आप कब तक आएँगी ऑंखें हैं दर्शन की प्यासी। थाम कलेजा कलप रही है पड़ी व्यथा-वारिधि में दासी॥9॥ तिलोकी रघुकुल पुंगव ने पूरा गाना सुना। धीर धुरंधर करुणा-वरुणालय बने॥ इसी समय कर पूजित-पग की वन्दना। खड़े दिखाई दिये प्रिय-अनुज सामने॥10॥
कुछ आकुल कुछ तुष्ट कुछ अचिन्तित दशा। देख सुमित्रा-सुत की प्रभुवर ने कहा॥ तात! तुम्हें उत्फुल्ल नहीं हूँ देखता। क्यों मुझको अवलोक दृगों से जल बहा॥11॥ आश्रम में तो सकुशल पहुँच गयी प्रिया? वहाँ समादर स्वागत तो समुचित हुआ॥ हैं मुनिराज प्रसन्न? शान्त है तपोवन। नहीं कहीं पर तो है कुछ अनुचित हुआ?॥12॥ सविनय कहा सुमित्रा के प्रिय-सुअन ने। मुनि हैं मंगल-मूर्ति, तपोवन पूततम॥ आर्य्या हैं स्वयमेव दिव्य देवियों सी। आश्रम है सात्तिवक-निवास सुरलोक सम॥13॥ वह है सद्व्यवहार-धाम सत्कृति-सदन। वहाँ कुशल है 'कार्य-कुशलता' सीखती॥ भले-भाव सब फूले फले मिले वहाँ। भली-भावना-भूति भरी है दीखती॥14॥ किन्तु एक अति-पति-परायणा की दशा। उनकी मुख-मुद्रा उनकी मार्मिक-व्यथा॥ उनकी गोपन-भाव-भरित दुख-व्यंजना। उनकी बहु-संयमन प्रयत्नों की कथा॥15॥ मुझे बनाती रहती है अब भी व्यथित। उसकी याद सताती है अब भी मुझे। उन बातों को सोच न कब छलके नयन। आश्वासन देतीं कह जिन्हें कभी मुझे॥16॥ तपोभूमि का पूत-वायुमण्डल मिले। मुनि-पुंगव के सात्तिवक-पुण्य-प्रभाव से॥ शान्ति बहुत कुछ आर्य्या को है मिल रही। तपस्विनी-गण सहृदयता सद्भाव से॥17॥ किन्तु पति-परायणता की जो मूर्ति है। पति ही जिसके जीवन का सर्वस्व है॥ बिना सलिल की सफरी वह होगी न क्यों। पति-वियोग में जिसका विफल निजस्व है॥18॥ सिय-प्रदत्ता-सन्देश सुना सौमित्रा ने। कहा, भरी है इसमें कितनी वेदना॥ बात आपकी चले न कब दिल हिल गया। कब न पति-रता ऑंखों से ऑंसू छना॥19॥ उनको है कर्तव्य ज्ञान वे आपकी। कर्म-परायण हैं सच्ची सहधार्मिणी॥ लोक-लाभ-मूलक प्रभु के संकल्प पर। उत्सर्गी कृत होकर हैं कृति-ऋण-ऋणी॥20॥ फिर भी प्रभु की स्मृति, दर्शन की लालसा। उन्हें बनाती रहती है व्यथिता अधिक॥ यह स्वाभाविकता है उस सद्भाव की। जो आजन्म रहा सतीत्व-पथ का पथिक॥21॥ जिसने अपनी वर-विभूति-विभुता दिखा। रज समान लंका के विभवों को गिना॥ जिसके उस कर से जो दिव-बल-दीप्त था। लंकाधिप का विश्व-विदित-गौरव छिना॥22॥ कर प्रसून सा जिसने पावक-पुंज को। दिखलाई अपनी अपूर्व तेजस्विता॥ दानवता आतपता जिसकी शान्ति से। बहुत दिनों तक बनती रही शरद सिता॥23॥ बड़े अपावन-भाव परम-भावन बने। जिसकी पावनता का करके सामना॥ चौदह वत्सर तक जिसकी धृति-शक्ति से। बहु दुर्गम वन अति सुन्दर उपवन बना॥24॥ इष्ट-सिध्दि होगी उसका ही बल मिले। सफल बनेगी कठिन-से-कठिन साधना॥ भव-हित होगा भय-विहीन होगी धरा। होवेगी लोकोत्तर लोकाराधाना॥25॥ यह निश्चित है पर आर्य्या की वेदना। जितनी है दुस्सह उसको कैसे कहूँ॥ वे हैं महिमामयी सहन कर लें व्यथा। उन्हें व्यथा है, इसको मैं कैसे सहूँ॥26॥ कुलपति आश्रम-गमन किसे प्रिय है नहीं। इस मांगलिक-विधान से मुदित हैं सभी॥ पर न आज है राज-भवन ही श्री-रहित। सूना है हो गया अवध सा नगर भी॥27॥ मुनि-आश्रम के वास का अनिश्चित समय। किसे बनाता है नितान्त-चिन्तित नहीं॥ मातायें यदि व्यथिता हैं वधुओं-सहित। पौर-जनों का भी तो स्थिर है चित नहीं॥28॥ मुझे देख सबके मुख पर यह प्रश्न था। कब आएँगी पुण्यमयी-महि नन्दिनी॥ अवध पुरी फिर कब होगी आलोकिता। फिर कब दर्शन देंगी कलुष-निकन्दिनी॥29॥ प्राय: आर्य्या जाती थीं प्रात:समय। पावन-सलिला-सरयू सरिता तीर पर॥ और वहाँ थीं दान-पुण्य करती बहुत। वारिद-सम-वर-वारि-विभव की वृष्टि कर॥30॥ समय-समय पर देव-मन्दिरों में पहुँच। होती थीं देवी समान वे पूजिता॥ सकल-न्यूनताओं की करके पूर्तियाँ। सत्प्रवृत्ति को रहीं बनाती ऊर्जिता॥31॥ वे निज प्रिय-रथ पर चढ़ कर संध्या-समय। अटन के लिए जब थीं बाहर निकलती॥ तब खुलते कितने लोगों के भाग्य थे। उन्नति में थी बहु-जन अवनति बदलती॥32॥ राज-भवन से जब चलती थीं उस समय। रहते उनके साथ विपुल-सामान थे॥ जिनसे मिलता आर्त्त-जनों को त्राण था। बहुत अकिंचन बनते कंचनवान थे॥33॥ दक्ष दासियाँ जितनी रहती साथ थीं। वे जनता-हित-साधन की आधार थीं॥ मिले पंथ में किसी रुग्न विकलांग के। करती उनके लिए उचित-उपचार थीं॥34॥ इसीलिए उनके अभाव में आज दिन। नहीं नगर में ही दुख की धारा बही॥ उदासीनता है कह रही उदास हो। राज-भवन भी रहा न राज-भवन वही॥35॥ आर्य्या की प्रिय-सेविका सुकृतिवती ने। अभी गान जो गाया है उद्विग्न बन॥ अहह भरा है उसमें कितना करुण-रस। वह है राज-भवन दुख का अविकल-कथन॥36॥ गृहजन परिजन पुरजन की तो बात क्या। रथ के घोड़े व्याकुल हैं अब तक बड़े॥ पहले तो आश्रम को रहे न छोड़ते। चले चलाए तो पथ में प्राय: अड़े॥37॥ घुमा-घुमा शिर रहे रिक्त-रथ देखते। थे निराश नयनों से ऑंसू ढालते॥ बार-बार हिनहिना प्रकट करते व्यथा। चौंक-चौंक कर पाँव कभी थे डालते॥38॥ आर्य्या कोमलता ममता की मूर्ति हैं। हैं सद्भाव-रता उदारता पूरिता॥ हैं लोकाराधन-निधि-शुचिता-सुरसरी। हैं मानवता-राका-रजनी की सिता॥39॥ फिर कैसे होतीं न लोक में पूजिता। क्यों न अदर्शन उनका जनता को खले॥ किन्तु हुई निर्विघ्न मांगलिक-क्रिया है। हित होता है पहुँचे सुर पादप तले॥40॥ कहा राम ने आज राज्य जो सुखित है। जो वह मिलता है इतना फूला फला॥ जो कमला की उस पर है इतनी कृपा। जो होता रहता है जन-जन का भला॥41॥ अवध पुरी है जो सुर-पुरी सदृश लसी। जो उसमें है इतनी शान्ति विराजती॥ तो इसमें है हाथ बहुत कुछ प्रिया का। है यह बात अधिकतर जनता जानती॥42॥ कुछ अशान्ति जो फैल गयी है इन दिनों। वे ही उसका वारण भी हैं कर रही॥ विविधि-व्यथाएँ सह बह विरह-प्रवाह में। वे ही दुख-निधि में हैं अहह उतर रही॥43॥ भला कामना किसको है सुख की नहीं। क्या मैं सुखी नहीं रहना हूँ चाहता॥ क्या मैं व्यथित नहीं हूँ कान्ता-व्यथा से। क्या मैं सद्व्रत को हूँ नहीं निबाहता॥44॥ तन, छाया-सम जिसका मेरा साथ था। आज दिखाती उसकी छाया तक नहीं॥ प्रवह-मान-संयोग-स्रोत ही था जहाँ। अब वियोग-खर-धारा बहती है वहीं॥45॥ आज बन गयी है वह कानन-वासिनी। जो मम-आनन अवलोके जीती रही॥ आज उसे है दर्शन-दुर्लभ हो गया। पूत-प्रेम-प्याला जो नित पीती रही॥46॥ आज निरन्तर विरह सताता है उसे। जो अन्तर से प्रियतम अनुरागिनी थी॥ आह भार अब उसका जीवन हो गया। आजीवन जो मम-जीवन-संगिनी थी॥47॥ तात! विदित हो कैसे अन्तर्वेदना। काढ़ कलेजा क्यों मैं दिखलाऊँ तुम्हें॥ स्वयं बन गया जब मैं निर्मम-जीव तो। मर्मस्थल का मर्म क्यों बताऊँ तुम्हें॥48॥ क्या माताओं की मुझको ममता नहीं। क्या होता हूँ दुखित न उनका देख दुख॥ क्या पुरजन परिजन अथवा परिवार का। मुझे नहीं वांछित है सच्चा आत्म-सुख॥49॥ सुकृतिवती का विह्नलतामय-गान सुन। क्या मेरा अन्तस्तल हुआ नहीं द्रवित॥ कथा बाजियों की सुन कर करुणा भरी। नहीं हो गया क्या मेरा मानस व्यथित॥50॥ किन्तु प्रश्न यह है, है धार्मिक-कृत्य क्या? प्रजा-रंजिनी-राजनीति का मर्म क्या? जिससे हो भव-भला लोक-अराधना। वह मानव-अवलम्बनीय है कर्म क्या॥51॥ अपना हित किसको प्रिय होता है नहीं। सम्बन्धी का कौन नहीं करता भला॥ जान बूझ कर वश चलते जंजाल में। कोई नहीं फँसाता है अपना गला॥52॥ स्वार्थ-सूत्र में बँधा हुआ संसार है। इष्ट-सिध्दि भव-साधन का सर्वस्व है॥ कार्य-क्षेत्र में उतर जगत में जन्म ले। सबसे प्यारा सबको रहा निजस्व है॥53॥ यह स्वाभाविक-नियम प्रकृति अनुकूल है। यदि यह होता नहीं विश्व चलता नहीं॥ पलने पर विधि-बध्द-विधानों के कभी। जगतीतल का प्राणि-पुंज पलता नहीं॥54॥ किन्तु स्वार्थ-साधन, हित-चिन्ता-स्वजन-की। उचित वहीं तक है जो हो कश्मल-रहित॥ जो न लोक-हित पर-हित के प्रतिकूल हो। जो हो विधि-संगत, जो हो छल-बल-रहित॥55॥ कर पर का अपकार लोक-हित का कदन। निज-हित करना पशुता है, है अधमता॥ भव-हित पर-हित देश-हितों का ध्यान रख। कर लेना निज-स्वार्थ-सिध्दि है मनुजता॥56॥ मनुजों में वे परम-पूज्य हैं वंद्य हैं। जो परार्थ-उत्सर्गी-कृत-जीवन रहे॥ सत्य, न्याय के लिए जिन्होंने अटल रह। प्राण-दान तक किये, सर्व-संकट सहे॥57॥ नृपति मनुज है अत: मनुजता अयन है। सत्य न्याय का वह प्रसिध्द आधार है॥ है प्रधान-कृति उसकी लोकाराधना। उसे शान्तिमय शासन का अधिकार है॥58॥ अवनीतल में ऐसे नृप-मणि हैं हुए। इन बातों के जो सच्चे-आदर्श थे॥ दिव्य-दूत जो विभु-विभूतियों के रहे। कर्म्म-पूततम जिनके मर्म-स्पर्श थे॥59॥ हरिश्चन्द्र, शिवि आदि नृपों की कीर्तियाँ। अब भी हैं वसुधा की शान्ति-विधायिनी॥ भव-गौरव ऋषिवर दधीचि की दिव्य-कृति। है अद्यापि अलौकिक शिक्षा-दायिनी॥60॥ है वह मनुज न, जिसमें मिली न मनुजता। अनीति रत में कहाँ नीति-अस्तित्व है॥ वह है नरपति नहीं जो नहीं जानता। नरपतित्व का क्या उत्तरदायित्व है॥61॥ कोई सज्जन, ज्ञानमान, मतिमान, नर। यथा-शक्ति परहित करना है चाहता॥ देश, जाति, भव-हित अवसर अवलोक कर। प्राय: वह निज-हित को भी है त्यागता॥62॥ यदि ऐसा है तो क्या यह होगा विहित। कोई नृप अपने प्रधान-कर्तव्य का॥ करे त्याग निज के सुख-दुख पर दृष्टि रख। अथवा मान निदेश मोह-मन्तव्य का॥63॥ जिसका जितना गुरु-उत्तरदायित्व है। उसे महत उतना ही बनना चाहिए॥ त्याग सहित जिसमें लोकाराधन नहीं। वह लोकाधिप कहलाता है किसलिए॥64॥ बात तुम्हें लोकापवाद की ज्ञात है। मुझे लोक-उत्पीड़न वांछित है नहीं॥ अत: बनूँ मैं क्यों न लोक-हित-पथ-पथिक। जहाँ सुकृति है शान्ति विलसती है वहीं॥65॥ मैं हूँ व्यथित अधिकतर-व्यथिता है प्रिया। क्योंकि सताती है आ-आ सुख-कामना॥ है यह सुख-कामना एक उन्मत्तता। भरी हुई है इसमें विविध-वासना॥66॥ यह सरसा-संस्कृति है यह है प्रकृति-रति। यह विभाव संसर्ग-जनित-अभ्यास है॥ है यह मूर्ति मनुज के परमानन्द की। वर-विकास, उल्लास, विलास, निवास है॥67॥ त्याग-कामना भी नितान्त कमनीय है। मानवता-महिमा द्वारा है अंकिता॥ बन कर्तव्य परायणता से दिव्यतम। लोक-मान्य-मन्त्रों से है अभिमन्त्रिता॥68॥ मैंने जो है त्याग किया वह उचित है। ऐसा ही करना इस समय सुकर्म्म था॥ इसीलिए सहमत विदेहजा भी हुई। क्योंकि यही सहधार्मिणी परम धर्म था॥69॥ कितने सह साँसतें बहुत दुख भोगते। कितने पिसते पड़ प्रकोप तलवों तले॥ दमन-चक्र यदि चलता तो बहता लहू। वृथा न जाने कितने कट जाते गले॥70॥ तात! देख लो साम-नीति के ग्रहण से। हुआ प्राणियों का कितना उपकार है॥ प्रजा सुरक्षित रही पिसी जनता नहीं। हुआ लोक-हित मचा न हाहाकार है॥71॥ हाँ! वियोगिनी प्रिया-दशा दयनीय है। मेरा उर भी इससे मथित अपार है॥ किन्तु इसी अवसर पर आश्रम में गमन। दोनों के दुख का उत्तम-प्रतिकार है॥72॥ जब से सम्बन्धित हम दोनों हुए हैं। केवल छ महीने का हुआ विनियोग है॥ रहीं जिन दिनों लंका में जनकांगजा। किन्तु आ गया अब ऐसा संयोग है॥73॥ जो यह बतलाता है अहह वियोग यह। होगा चिरकालिक बरसों तक रहेगा॥ अत: सताती है यह चिन्ता नित मुझे। पतिप्राणा का हृदय इसे क्यों सहेगा॥74॥ पर मुझको इसका पूरा विश्वास है। हो अधीर भी तजेंगी नहीं धीरता॥ प्रिया करेंगी मम-इच्छा की पूर्ति ही। पूत रहेगी नयन-नीर की नीरता॥75॥ सहायता उनके सद्भाव-समूह की। सदा करेगी तपोभूमि-शुचि-भावना॥ उन्हें सँभालेगी मुनि की महनीयता॥ कुल-दीपक संतान-प्रसव-प्रस्तावना॥76॥ इसीलिए मुझको अशान्ति में शान्ति है। और विरह में भी हूँ बहुत व्यथित न मैं। चिन्तित हूँ पर अतिशय-चिन्तित हूँ नहीं। इसीलिए बनता हूँ विचलित-चित न मैं॥77॥ किन्तु जनकजा के अभाव की पूर्तियाँ। हमें तुम्हें भ्राताओं भ्रातृ-वधू सहित॥ करना होगा जिससे माताएँ तथा। परिजन, पुरजन, यथा रीति होवें सुखित॥78॥ तात! करो यह यत्न दलित दुख-दल बने। सरस-शान्ति की धरा घर-घर में बहे॥ कोई कभी असुख-मुख अवलोके नहीं। सुखमय-वासर से विलसित वसुधा रहे॥79॥ दोहा सीता का सन्देश कह, सुन आदर्श पवित्र। वन्दन कर प्रभु-कमल-पग चले गये सौमित्रा॥80॥
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