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वैदेही-वनवास
तृतीय सर्ग मन्त्रणा गृह में प्रात:काल। भरत लक्ष्मण रिपुसूदन संग॥ राम बैठे थे चिन्ता-मग्न। छिड़ा था जनकात्मजा प्रसंग॥1॥ कथन दुर्मुख का आद्योपान्त। राम ने सुना, कही यह बात॥ अमूलक जन-रव होवे किन्तु। कीर्ति पर करता है पविपात॥2॥ हुआ है जो उपकृत वह व्यक्ति। दोष को भी न कहेगा दोष॥ बना करता है जन-रव हेतु। प्रायश: लोक का असन्तोष॥3॥ प्रजा-रंजन हित-साधन भाव। राज्य-शासन का है वर-अंग॥ है प्रकृति प्रकृत नीति प्रतिकूल। लोक आराधन व्रत का भंग॥4॥ क्यों टले बढ़ा लोक-अपवाद। इस विषय में है क्या कर्तव्य॥ अधिक हित होगा जो हो ज्ञात। बन्धुओं का क्या है वक्तव्य॥5॥ भरत सविनय बोले संसार। विभामय होते हैं, तम-धाम॥ वहीं है अधम जनों का वास। जहाँ हैं मिलते लोक-ललाम॥6॥ तो नहीं नीच-मना हैं अल्प। यदि मही में हैं महिमावान॥ बुरों को है प्रिय पर-अपवाद। भले हैं करते गौरव गान॥7॥ किसी को है विवेक से प्रेम। किसी को प्यारा है अविवेक॥ जहाँ हैं हंस-वंश-अवतंस। वहीं पर हैं बक-वृत्ति अनेक॥8॥ द्वेष परवश होकर ही लोग। नहीं करते हैं निन्दावाद॥ वृथा दंभी जन भी कर दंभ। सुनाते हैं अप्रिय सम्वाद॥9॥ दूसरों की रुचि को अवलोक। कही जाती है कितनी बात॥ कहीं पर गतानुगतिक प्रवृत्ति। निरर्थक करती है उत्पात॥10॥ लोक-आराधन है नृप-धर्म। किन्तु इसका यह आशय है न॥ सुनी जाए उनकी भी बात। जो बला ला पाते हैं चैन॥11॥ प्रजा के सकल-वास्तविक-स्वत्व। व्यक्तिगत उसके सब-अधिकार॥ उसे हैं प्राप्त सुखी है सर्व। सुकृति से कर वैभव-विस्तार॥12॥ कहीं है कलह न वैर विरोध। कहाँ पर है धन धरा विवाद॥ तिरस्कृत है कलुषित चितवृत्ति। त्यक्त है प्रबल-प्रपंच-प्रमाद॥13॥ सुधा है वहाँ बरसती आज। जहाँ था बरस रहा अंगार॥ वहाँ है श्रुत स्वर्गीय निनाद। जहाँ था रोदन हाहाकार॥14॥ गौरवित है मानव समुदाय। गिरा का उर में हुए विकास॥ शिवा से है शिवता की प्राप्ति। रमा का है घर-घर में वास॥15॥ बन गये हैं पारस सब मेरु। उदधि करते हैं रत्न प्रदान॥ प्रसव करती है वसुधा स्वर्ण। वन बने हैं नन्दन उद्यान॥16॥ सुखद-सुविधा से हो सम्पन्न। सरसता है सरिता का गात॥ बना रहता है पावन वारि। न करता है सावन उत्पात॥17॥ सदा रह हरे भरे तरु-वृन्द। सफल बन करते हैं सत्कार दिखाते हैं उत्फुल्ल प्रसून। बहन कर बहु सौरभ संभार॥18॥ लोग इतने हैं सुख-सर्वस्व। विकच इतना है चित जलजात॥ वार हैं बने पर्व के वार। रात है दीप-मालिका रात॥19॥ हुआ अज्ञान का तिमिर दूर। ज्ञान का फैला है आलोक॥ सुखद है सकल लोक को काल। बना अवलोकनीय है ओक॥20॥ शान्ति-मय-वातावरण विलोक। रुचिर चर्चा है चारों ओर॥ कीर्ति-राका-रजनी को देख। विपुल-पुलकित है लोक चकोर॥21॥ किन्तु देखे राकेन्दु विकास। सुखित कब हो पाता है कोक॥ फूटती है उलूक की ऑंख। दिव्यता दिनमणि की अवलोक॥22॥ जगत जीवनप्रद पावस काल। देख जलते हैं अर्क जवास॥ पल्लवित होते नहीं करील। तन लगे सरस-बसंत-बतास॥23॥ जगत ही है विचित्रता धाम। विविधता विधि की है विख्यात॥ नहीं तो सुन पाता क्यों कान। अरुचिकर परम असंगत बात॥24॥ निंद्य है रघुकुल तिलक चरित्र। लांछिता है पवित्रता मूर्ति॥ पूत शासन में कहता कौन। जो न होती पामरता पूर्ति॥25॥ आप हैं प्रजा-वृन्द-सर्वस्व। लोक आराधन के अवतार। लोकहित-पथ-कण्टक के काल। लोक मर्यादा पारावार॥26॥ बन गयी देश काल अनुकूल। प्रगति जितनी थी हित विपरीत॥ प्रजारंजन की जो है नीति। वही है आदर सहित गृहीत॥27॥ जानते नहीं इसे हैं लोग। कहा जाता है किसे अभाव॥ विलसती है घर-घर में भूति। भरा जन-जन में है सद्भाव॥28॥ रही जो कण्टक-पूरित राह। वहाँ अब बिछे हुए हैं फूल॥ लग गये हैं अब वहाँ रसाल। जहाँ पहले थे खड़े बबूल॥29॥ प्रजा में व्यापी है प्रतिपत्ति। भर गया है रग-रग में ओज॥ शस्य-श्यामला बनी मरु-भूमि। ऊसरों में हैं खिले सरोज॥30॥ नहीं पूजित है कोई व्यक्ति। आज हैं पूजनीय गुण कर्म॥ वही है मान्य जिसे है ज्ञात। मानसिक पीड़ाओं का मर्म॥31॥ इसलिए है यह निश्चित बात। प्रजाजन का यह है न प्रमाद॥ कुछ अधम लोगों ने ही व्यर्थ। उठाया है यह निन्दावाद॥32॥ सर्व साधारण में अधिकांश। हुआ है जन-रव का विस्तार॥ मुख्यत: उन लोगों में जो कि। नहीं रखते मति पर अधिकार॥33॥ अन्य जन अथवा जो हैं विज्ञ। विवेकी हैं या हैं मतिमान॥ जानते हैं जो मन का मर्म। जिन्हें है धर्म कर्म का ज्ञान॥34॥ सुने ऐसा असत्य अपवाद। मूँद लेते हैं अपने कान॥ कथन कर नाना-पूत-प्रसंग। दूर करते हैं जन-अज्ञान॥35॥ ज्ञात है मुझे न इसका भेद। कहाँ से, क्यों फैली यह बात॥ किन्तु मेरा है यह अनुमान। पतित-मतिका है यह उत्पात॥36॥ महानद-सबल-सिंधु के पार। रहा जो गन्धर्वों का राज॥ वहाँ था होता महा-अधर्म। प्रायश: सध्दर्मों के व्याज॥37॥ कहे जाते थे वे गन्धर्व। किन्तु थे दानव सदृश दुरंत॥ न था उनके अवगुण का ओर। न था अत्याचारों का अन्त॥38॥ न रक्षित था उनसे धन धाम। न लोगों का आचार विचार॥ न ललनाकुल का सहज सतीत्व। न मानवता का वर व्यवहार॥39॥ एक कर में थी ज्वलित मशाल। दूसरे कर में थी करवाल॥ एक करता नगरों का दाह। दूसरा करता भू को लाल॥40॥ किये पग-लेहन, हो, कर-बध्द। कुजन का होता था प्रतिपाल॥ सुजन पर बिना किये अपराध। बलायें दी जाती थीं डाल॥41॥ अधमता का उड़ता था केतु। सदाशयता पाती थी शूल॥ सदाचारी की खिंचती खाल। कदाचारी पर चढ़ते फूल॥42॥ राज्य में पूरित था आतंक। गला कर्तन था प्रात:-कृत्य॥ काल बन होता था सर्वत्र। प्रजा पीड़न का ताण्डव नृत्य॥43॥ केकयाधिप ने यह अवलोक। शान्ति के नाना किये प्रयत्न॥ किन्तु वे असफल रहे सदैव। लुटे उनके भी अनुपम-रत्न॥44॥ इसलिए हुए वे बहुत क्रुध्द। और पकड़ी कठोर तलवार॥ हुआ उसका भीषण परिणाम। बहुत ही अधिक लोक संहार॥45॥ छिन गये राज्य हुए भयभीत। बचे गंधर्वों का संस्थान॥ बन गया है पांचाल प्रदेश। और यह अन्तर्वेद महान॥46॥ इस समर का संचालन सूत्र। हाथ में मेरे था अतएव॥ आप से उसका बहु सम्पर्क। मानता है उनका अहमेव॥47॥ अत: यह मेरा है सन्देह। इस अमूलक जन-रव में गुप्त॥ हाथ उन सब का भी है क्योंकि। कब हुई हिंसा-वृत्ति विलुप्त॥48॥ उचित है, है अत्यन्त पुनीत। लोक आराधन की नृप-नीति॥ किन्तु है सदा उपेक्षा योग्य। मलिन-मानस की मलिन प्रतीति॥49॥ भरा जिसमें है कुत्सित भाव। द्वेष हिंसामय जो है उक्ति॥ मलिन करने को महती-कीर्ति। गढ़ी जाती है जो बहु युक्ति॥50॥ वह अवांछित है, है दलनीय। दण्डय है दुर्जन का दुर्वाद॥ सदा है उन्मूलन के योग्य। अमौलिक सकल लोक अपवाद॥51॥ जो भली है, है भव हित पूर्ति। लोक आराधन सात्तिवक नीति॥ तो बुरी है, है स्वयं विपत्ति। लोक - अपवाद - प्रसूत - प्रतीति॥52॥ फैल कर जन-रव रूपी धूम। करेगा कैसे उसको म्लान॥ गगन में भूतल में है व्याप्त। कीर्ति जो राका-सिता समान॥53॥ चौपदे बड़े भ्राता की बातें सुन। विलोका रघुकुल-तिलकानन॥ सुमित्रा सुत फिर यों बोले। हो गया व्याकुल मेरा मन॥54॥ आपकी भी निन्दा होगी। समझ मैं इसे नहीं पाता॥ खौलता है मेरा लोहू। क्रोध से मैं हूँ भर जाता॥55॥ आह! वह सती पुनीता है। देवियों सी जिसकी छाया॥ तेज जिसकी पावनता का। नहीं पावक भी सह पाया॥56॥ हो सकेगी उसकी कुत्सा। मैं इसे सोच नहीं सकता॥ खड़े हो गये रोंगटे हैं। गात भी मेरा है कँपता॥57॥ यह जगत सदा रहा अंधा। सत्य को कब इसने देखा॥ खींचता ही वह रहता है। लांछना की कुत्सित रेखा॥58॥ आपकी कुत्सा किसी तरह। सहज ममता है सह पाती॥ पर सुने पूज्या की निन्दा। आग तन में है लग जाती॥59॥ सँभल कर वे मुँह को खोलें। राज्य में है जिनको बसना। चाहता है यह मेरा जी। रजक की खिंचवा लूँ रसना॥60॥ प्रमादी होंगे ही कितने। मसल मैं उनको सकता हूँ॥ क्यों न बकनेवाले समझें। बहक कर क्या मैं बकता हूँ॥61॥ अंधा अंधापन से दिव की। न दिवता कम होगी जौ भर॥ धूल जिसने रवि पर फेंकी। गिरी वह उसके ही मुँह पर॥62॥ जलधि का क्या बिगड़ेगा जो। गरल कुछ अहि उसमें उगलें॥ न होगी सरिता में हलचल। यदि बँहक कुछ मेंढक उछलें॥63॥ विपिन कैसे होगा विचलित। हुए कुछ कुजन्तुओं का डर॥ किए कुछ पशुओं के पशुता। विकंपित होगा क्यों गिरिवर॥64॥ धरातल क्यों धृति त्यागेगा। कुछ कुटिल काकों के रव से॥ गगन तल क्यों विपन्न होगा। केतु के किसी उपद्रव से॥65॥ मुझे यदि आज्ञा हो तो मैं। पचा दूँ कुजनों की बाई॥ छुड़ा दूँ छील छाल करके। कुरुचि उर की कुत्सित काई॥66॥ कहा रिपुसूदन ने सादर। जटिलता है बढ़ती जाती॥ बात कुछ ऐसी है जिसको। नहीं रसना है कह पाती॥67॥ पर कहूँगा, न कहूँ कैसे। आपकी आज्ञा है ऐसी॥ बात मथुरा मण्डल की मैं। सुनाता हूँ वह है जैसी॥68॥ कुछ दिनों से लवणासुर की। असुरता है बढ़ती जाती॥ कूटनीतिक उसकी चालें। गहन हों पर हैं उत्पाती॥69॥ लोक अपवाद प्रवर्त्तन में। अधिक तर है वह रत रहता॥ श्रीमती जनक-नंदिनी को। काल दनु-कुल का है कहता॥70॥ समझता है यह वह, अब भी। आप सुन कर उनकी, बातें॥ दनुज-दल विदलन-चिन्ता में। बिताते हैं अपनी रातें॥71॥ मान लेना उसका ऐसा। मलिन-मति की ही है माया॥ सत्य है नहीं, पाप की ही- पड़ गयी है उस पर छाया॥72॥ किन्तु गन्धर्वों के वध से। हो गयी है दूनी हलचल॥ मिला है यद्यपि उनको भी। दानवी कृत्यों का ही फल॥73॥ लवण अपने उद्योगों में। सफल हो कभी नहीं सकता॥ गए गंधर्व रसातल को। रहा वह जिनका मुँह तकता॥74॥ बहाता है अब भी ऑंसू। याद कर रावण की बातें॥ पर उसे मिल न सकेंगी अब। पाप से भरी हुई रातें॥75॥ राज्य की नीति यथा संभव। उसे सुचरित्र बनाएगी॥ अन्यथा दुष्प्रवृत्ति उसकी। कुकर्मों का फल पाएगी॥76॥ कठिनता यह है दुर्जनता। मृदुलता से बढ़ जाती है॥ शिष्टता से नीचाशयता। बनी दुर्दान्त दिखाती है॥77॥ बिना कुछ दण्ड हुए जड़ की। कब भला जड़ता जाती है॥ मूढ़ता किसी मूढ़ मन की। दमन से ही दब पाती है॥78॥ सत्य के सम्मुख ठहरेगा। भला कैसे असत्य जन-रव॥ तिमिर सामना करेगा क्यों। दिवस का, जो है रवि संभव॥79॥ कीर्ति जो दिव्य ज्योति जैसी। सकल भूतल में है फैली॥ करेगी भला उसे कैसे। कालिमा कुत्सा की मैली॥80॥ बन्धुओं की सब बातें सुन। सकल प्रस्तुत विषयों को ले॥ समझ, गंभीर गिरा द्वारा। जानकी-जीवन-धन बोले॥81॥ राज पद कर्तव्यों का पथ। गहन है, है अशान्ति आलय॥ क्रान्ति उसमें है दिखलाती। भरा होता है उसमें भय॥82॥ इसी से साम-नीति ही को। बुधों से प्रथम-स्थान मिला॥ यही है वह उद्यान जहाँ। लोक आराधन सुमन खिला॥83॥ दमन या दण्ड नीति मुझको। कभी भी रही नहीं प्यारी॥ न यद्यपि छोड़ सका उनको। रहे जो इनके अधिकारी॥84॥ चतुष्पद रहेगी भव में कैसे शान्ति। क्रूरता किया करें जो क्रूर॥ तो हुआ लोकाराधन कहाँ। लोक-कण्टक जो हुए न दूर॥85॥ लोक-हित संसृति-शान्ति निमित्त। हुआ यद्यपि दुरन्त-संग्राम॥ किन्तु दशमुख, गन्धर्व-विनाश। पातकों का ही था परिणाम॥86॥ है क्षमा-योग्य न अत्याचार। उचित है दण्डनीय का दण्ड॥ निवारण करना है कर्तव्य। किसी पाषण्डी का पाषण्ड॥87॥ आर्त्त लोगों का मार्मिक-कष्ट। बहु-निरपराधों का संहार॥ बाल-वृध्दों का करुण-विलाप। विवश-जनता का हाहाकार॥88॥ आहवों में जो हैं अनिवार्य। मुझे करते हैं व्यथित नितान्त॥ भूल पाए मुझको अब भी न। लंक के सकल-दृश्य दु:खान्त॥89॥ अत: है वांछनीय यह नीति। हो यथा-शक्ति न शोणितपात॥ सामने रहे दृष्टि के साम। रहे महि-वातावरण प्रशान्त॥90॥ विप्लवों के प्रशमन की शक्ति। राज्य को पूर्णतया है प्राप्त॥ धाक उसकी बन शान्ति-निकेत। सकल-भारत-भू में है व्याप्त॥91॥ अत: है इसकी आशंका न। मचायेगी हलचल उत्पात॥ क्यों प्रजा-असन्तोष हो दूर। सोचनी है इतनी ही बात॥92॥ दमन है मुझे कदापि न इष्ट। क्योंकि वह है भय-मूलक-नीति॥ चाह है लाभ करूँ, कर त्याग। प्रजा की सच्ची प्रीति-प्रतीति॥93॥ किसी सम्भावित की अपकीर्ति। है रजनि-रंजन-अंक-कलंक॥ किन्तु है बुध-सम्मत यह उक्ति। कब भला धुला पंक से पंक॥94॥ जनकजा में है दानव-द्रोह। और मैं उनकी बातें मान॥ कराया करता हूँ यद्यपि। लोक-संहार कृतान्त समान॥95॥ यह कथन है सर्वथा असत्य। और है परम श्रवण-कटु-बात॥ किन्तु उसको करता है पुष्ट। विपुल गंधर्वों पर पविपात॥96॥ पठन कर लोकाराधन-मन्त्र। करूँगा मैं इसका प्रतिकार॥ साधकर जनहित-साधन सूत्र। करूँगा घर-घर शान्ति-प्रसार॥97॥ बन्धु-गण के विचार विज्ञात- हो गए, सुनीं उक्तियाँ सर्व॥ प्राप्त कर साम-नीति से सिध्दि। बनेगा पावन जीवन-पर्व॥98॥ करूँगा बड़े से बड़ा त्याग। आत्म-निग्रह का कर उपयोग॥ हुए आवश्यक जन-मुख देख। सहूँगा प्रिया असह्य-वियोग॥99॥ मुझे यह है पूरा विश्वास। लोक-हित-साधन में सब काल॥ रहेंगे आप लोग अनुकूल। धर्म-तत्तवों पर ऑंखें डाल॥100॥ दोहा इतना कह अनुजों सहित, त्याग मन्त्रणा-धाम। विश्रामालय में गए, राम-लोक-विश्राम॥101॥
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