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वैदेही-वनवास षष्ठ सर्ग
कातरोक्ति प्रवहमान प्रात:-समीर था। उसकी गति में थी मंथरता॥ रजनी-मणिमाला थी टूटी। पर प्राची थी प्रभा-विरहिता॥1॥ छोटे-छोटे घन के टुकड़े। घूम रहे थे नभ-मण्डल में॥ मलिना-छाया पतित हुई थी। प्राय: जल के अन्तस्तल में॥2॥ कुछ कालोपरान्त कुछ लाली। काले घन-खण्डों ने पाई॥ खड़ी ओट में उनकी ऊषा। अलस भाव से भरी दिखाई॥3॥ अरुण-अरुणिमा देख रही थी। पर था कुछ परदा सा डाला॥ छिक-छिक करके भी क्षिति-तल पर। फैल रहा था अब उँजियाला॥4॥ दिन-मणि निकले तेजोहत से। रुक-रुक करके किरणें फूटीं॥ छूट किसी अवरोधक-कर से। छिटिक-छिटिक धरती पर टूटीं॥5॥ राज-भवन हो गया कलरवित। बजने लगा वाद्य तोरण पर॥ दिव्य-मन्दिरों को कर मुखरित। दूर सुन पड़ा वेद-ध्वनि स्वर॥6॥ इसी समय मंथर गति से चल। पहुँची जनकात्मजा वहाँ पर॥ कौशल्या देवी बैठी थीं। बनी विकलता-मूर्ति जहाँ पर॥7॥ पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी। उनके पास बैठ कर बोलीं॥ धीरज धार कर विनत-भाव से। प्रिय-उक्तियाँ थैलियाँ खोलीं॥8॥ कर मंगल-कामना प्रसव की। जनन-क्रिया की सद्वांछा से॥ सकल-लोक उपकार-परायण। पुत्र-प्राप्ति की आकांक्षा से॥9॥ हैं पतिदेव भेजते मुझको। वाल्मीक के पुण्याश्रम में॥ दीपक वहाँ बलेगा ऐसा। जो आलोक करेगा तम में॥10॥ आज्ञा लेने मैं आयी हूँ। और यह निवेदन है मेरा॥ यह दें आशीर्वाद सदा ही। रहे सामने दिव्य सबेरा॥11॥ दुख है अब मैं कर न सकूँगी। कुछ दिन पद-पंकज की सेवा॥ आह प्रति-दिवस मिल न सकेगा। अब दर्शन मंजुल-तम-मेवा॥12॥ माता की ममता है मानी। किस मुँह से क्या सकती हूँ कह॥ पर मेरा मन नहीं मानता। मेरी विनय इसलिए है यह॥13॥ मैं प्रति-दिन अपने हाथों से। सारे व्यंजन रही बनाती॥ पास बैठ कर पंखा झल-झल। प्यार सहित थी उन्हें खिलाती॥14॥ प्रिय-तम सुख-साधन-आराधन। में थी सारा-दिवस बिताती॥ उनके पुलके रही पुलकती। उनके कुम्हलाये कुम्हलाती॥15॥ हैं गुणवती दासियाँ कितनी। हैं पाचक पाचिका नहीं कम॥ पर है किसी में नहीं मिलती। जितना वांछनीय है संयम॥16॥ जरा-जर्जरित स्वयं आप हैं। है क्षन्तव्य धृष्टता मेरी॥ इतना कह कर जननि आपकी। केवल दृष्टि इधर है फेरी॥17॥ कहा श्रीमती कौशल्या ने। मुझे ज्ञात हैं सारी बातें॥ मंगलमय हो पंथ तुम्हारा। बनें दिव्य-दिन रंजित-रातें॥18॥ पुण्य-कार्य है गुरु-निदेश है। है यह प्रथा प्रशंसनीय-तम॥ कभी न अविहित-कर्म करेगा। रघुकुल-पुंगव प्रथित-नृपोत्तम॥19॥ आश्रम-वास-काल होता है। कुलपति द्वारा ही अवधरित॥ बरसों का यह काल हुए, क्यों? मेरे दिन होंगे अतिवाहित॥20॥ मंगल-मूलक महत्कार्य है। है विभूतिमय यह शुभ-यात्रा॥ पूरित इसके अवयव में है। प्रफुल्लता की पूरी मात्र॥21॥ किन्तु नहीं रोके रुकता है। ऑंसू ऑंखों में है आता॥ समझाती हूँ पर मेरा मन। मेरी बात नहीं सुन पाता॥22॥ तुम्हीं राज-भवनों की श्री हो। तुमसे वे हैं शोभा पाते॥ तुम्हें लाभ करके विकसित हो। वे हैं हँसते से दिखलाते॥23॥ मंगल-मय हो, पर न किसी को। यात्रा-समाचार भाता है॥ ऐसी कौन ऑंख हैं जिसमें। तुरंत नहीं ऑंसू आता है॥24॥ गृह में आज यही चर्चा है। जावेंगी तो कब आवेंगी॥ कौन सुदिन वह होगा जिस दिन। कृपा-वारि आ बरसावेंगी॥25॥ हो अनाथ-जन की अवलम्बन। हृदय बड़ा कोमल पाया है॥ भरी सरलता है रग रग में। पूत-सुरसरी सी काया है॥26॥ जब देखा तब हँसते देखा। क्रोध नहीं तुमको आता है॥ कटु बातें कब मुख से निकलीं। वचन सुधा-रस बरसाता है॥27॥ जैसी तुम में पुत्री वैसी। किस जी में ममता जगती है॥ और को कलपता अवलोके। कौन यों कलपने लगती है॥28॥ बिना बुलाए मेरा दुख सुन। कौन दौड़ती आ जाती थी॥ पास बैठकर कितनी रातें। जगकर कौन बिता जाती थी॥29॥ मेरा क्या दासी का दुख भी। तुम देखने नहीं पाती थीं। भगिनी के समान ही उसकी। सेवा में भी लग जाती थीं॥30॥ विदा माँगते समय की कही। विनयमयी तब बातें कहकर॥ रोईं बार-बार कैकेयी। बनीं सुमित्रा ऑंखें निर्झर॥31॥ उनकी आकुलता अवलोके। कल्ह रात भर नींद न आई॥ रह-रह घबराती हूँ, जी में। आज भी उदासी है छाई॥32॥ तुम जितनी हो, कैकेयी को। है न माण्डवी उतनी प्यारी॥ बंधुओं बलित सुमित्रा में भी। देखी ममता अधिक तुमारी॥33॥ फिर जिसकी ऑंखों की पुतली। लकुटी जिस वृध्दा के कर की॥ छिनेगी न कैसे वह कलपे। छाया रही न जिसके सिर की॥34॥ जिसकी हृदय-वल्लभा तुम हो। जो तुमको पलकों पर रखता॥ प्रीति-कसौटी पर कस जो है। पावन-प्रेम-सुवर्ण परखता॥35॥ जिसका पत्नी-व्रत प्रसिध्द है। जो है पावन-चरित कहाता॥ देख तुमारा अरविन्दानन। जो है विकच-वदन दिखलाता॥36॥ जिसकी सुख-सर्वस्व तुम्हीं हो। जिसकी हो आनन्द-विधाता॥ जिसकी तुम हो शक्ति-स्वरूपा। जो तुम से पौरुष है पाता॥37॥ जिसकी सिध्दि-दायिनी तुम हो। तुम सच्ची गृहिणी हो जिसकी॥ सब तन-मन-धन अर्पण कर भी। अब तक बनी ऋणी हो जिसकी॥38॥ अरुचिर कुटिल-नीति से ऊबे। जिसको तुम पुलकित करती हो॥ जिसके विचलित-चिन्तित-चित में। चारु-चित्तता तुम भरती हो॥39॥ कैसे काल कटेगा उसका। उसको क्यों न वेदना होगी॥ होते हृदय मनुज-तन-धर वह। बन पाएगा क्यों न वियोगी॥40॥ रघुनन्दन है धीर-धुरंधर। धर्म प्राण है भव-हित-रत है॥ लोकाराधन में है तत्पर। सत्य-संध है सत्य-व्रत है॥41॥ नीति-निपुण है न्याय-निरत है। परम-उदार महान-हृदय है॥ पर उसको भी गूढ़ समस्या। विचलित करती यथा समय है॥42॥ ऐसे अवसर पर सहायता। सच्ची वह तुमसे पाता था॥ मंद-मंद बहते मारुत से। घिरा घन-पटल टल जाता था॥43॥ है विपत्ति-निधि-पोत-स्वरूपा। सहकारिणी सिध्दियों की है॥ है पत्नी केवल न गेहिनी। सहधार्मिणी मन्त्रिणी भी है॥44॥ खान पान सेवा की बातें। कह तुमने है मुझे रुलाया॥ अपनी व्यथा कहूँ मैं कैसे। आह कलेजा मुँह को आया॥45॥ जिस दिन सुत ने आ प्रफुल्ल हो। आश्रम-वास-प्रसंग सुनाया॥ उस दिन उस प्रफुल्लता में भी। मुझको मिली व्यथा की छाया॥46॥ मिले चतुर्दश-वत्सर का वन। राज्य श्री की हुए विमुखता॥ कान्ति-विहीन न जो हो पाया। दूर हुई जिसकी न विकचता॥47॥ क्यों वह मुख जैसा कि चाहिए। वैसा नहीं प्रफुल्ल दिखाता॥ तेज-वन्त-रवि के सम्मुख क्यों। है रज-पुंज कभी आ जाता॥48॥ आत्मत्याग का बल है सुत को। उसकी सहन-शक्ति है न्यारी॥ वह परार्थ-अर्पित-जीवन है। है रघुकुल-मुख-उज्ज्वलकारी॥49॥ है मम-कातरोक्ति स्वाभाविक। व्यथित हृदय का आश्वासन है॥ शिरोधार्य गुरु-देवाज्ञा है। मांगलिक सुअन-अनुशासन है॥50॥ रोला जाओ पुत्री परम-पूज्य पति-पथ पहचानो। जाओ अनुपम-कीर्ति वितान जगत में तानो॥ जाओ रह पुण्याश्रम में वांछित फल पाओ। पुत्र-रत्न कर प्रसव वंश को वंद्य बनाओ॥51॥ जाओ मुनि-पुंगव-प्रभाव की प्रभा बढ़ाओ। जाओ परम-पुनीत-प्रथा की ध्वजा उड़ाओ॥ जाओ आकर यथा-शीघ्र उर-तिमिर भगाओ। निज-विधु-वदन समेत लाल-विधु-वदन दिखाओ॥52॥ इतना कह कर मौन हुई कौशल्या माता। किन्तु युगल-नयनों से उनके था जल जाता॥ विविध-सान्त्वना-वचन कहे प्रकृतिस्थ हुईं जब। पग-वन्दन कर जनक-नन्दिनी विदा हुईं तब॥53॥ सखी जब घर आई तब देखा। बहनें आकर हैं बैठी॥ हैं खिन्न मना दुख-मग्ना। उद्वेगांबुधि में पैठी॥54॥ देखते माण्डवी बोली। क्या सुनती हूँ मैं जीजी॥ वह निठुर बनेगी कैसे। जो रही सदैव पसीजी॥55॥ तुम कहाँ चली जाती हो। क्यों किसी को न बतलाया॥ इतनी कठोरता करके। क्यों सब को बहुत रुलाया॥56॥ हम सब भी साथ चलेंगी। सेवाएँ सभी करेंगी॥ पर घर पर बैठी रह कर। नित आहें नहीं भरेंगी॥57॥ वाल्मीकाश्रम में जाकर। कब तक तुम वहाँ रहोगी॥ यह ज्ञात नहीं तुमको भी। कुछ कैसे भला कहोगी॥58॥ दस पाँच बरस तक तुमको। जो रहना पड़ जाएगा॥ 'विच्छेद' बलाएँ कितनी। हम लोगों पर लाएगा॥59॥ कर अनुगामिता तुमारी। सुखमय है सदन हमारा॥ कलुषित-उर में भी बहती। रहती है सुर-सरि-धरा॥60॥ जो उलझन सम्मुख आई। उसको तुमने सुलझाया॥ जो ग्रंथि न खुलती, उसको। तुमने ही खोल दिखाया॥61॥ अवलोक तुमारा आनन। है शान्ति चित्त में होती॥ हृदयों में बीज सुरुचि का। है सूक्ति तुमारी बोती॥62॥ स्वाभाविक स्नेह तुमारा। भव-जीव-मात्र है पाता॥ कर भला तुमारा मानस। है विकच-कुसुम बन जाता॥63॥ प्रति दिवस तुमारा दर्शन। देवता-सदृश थीं करती॥ अवलोक-दिव्य-मुख-आभा। निज हृदय-तिमिर थीं हरती॥64॥ अब रहेगा न यह अवसर। सुविधा दूरीकृत होगी॥ विनता बहनों की विनती। आशा है स्वीकृत होगी॥65॥ माण्डवी का कथन सुन कर। मुख पर विलोक दुख-छाया॥ बोलीं विदेहजा धीरे। नयनों में जल था आया॥66॥ जर्जरित-गात अति-वृध्दा। हैं तीन-तीन माताएँ॥ हैं जिन्हें घेरती रहती। आ-आ कर दुश्चिन्ताएँ॥67॥ है सुख-मय रात न होती। दिन में है चैन न आता॥ दुर्बलता-जनित- उपद्रव। प्राय: है जिन्हें सताता॥68॥ मेरी यात्रा से अतिशय। आकुल वे हैं दिखलाती॥ हैं कभी कराहा करती। हैं ऑंसू कभी बहाती॥69॥ बहनों उनकी सेवा तज। क्या उचित है कहीं जाना॥ तुम लोग स्वयं यह समझो। है धर्म उन्हें कलपाना?॥70॥ है मुख्य-धर्म पत्नी का। पति-पद-पंकज की अर्चा॥ जो स्वयं पति-रता होवे। क्या उससे इसकी चर्चा॥71॥ पर एक बात कहती हूँ। उसके मर्मों को छू लो॥ निज-प्रीति-प्रपंचों में पड़। पति-पद सेवा मत भूलो॥72॥ अन्य स्त्री 'जा', न सकी यह। है पूत-प्रथा बतलाती॥ नृप-गर्भवती-पत्नी ही। ऋषि-आश्रम में है जाती॥73॥ अतएव सुनो प्रिय बहनो। क्यों मेरे साथ चलोगी॥ कर अपने कर्तव्यों को। कल-कीर्ति लोक में लोगी॥74॥ है मृदु तुम लोगों का उर। है उसमें प्यार छलकता॥ मुझसे लालित पालित हो। है मेरी ओर ललकता॥75॥ जैसा ही मेरा हित है। तुम लोगों को अति-प्यारा॥ वैसी ही मेरे उर में। बहती है हित की धरा॥76॥ तुम लोगों का पावन-तम। अनुराग-राग अवलोके॥ है हृदय हमारा गलता। ऑंसू रुक पाया रोके॥77॥ क्यों तुम लोगों को बहनो। मैं रो-रो अधिक रुलाऊँ॥ क्यों आहें भर-भर करके। पत्थर को भी पिघलाऊँ॥78॥ इस जल-प्रवाह को हमको तुम लोगों को संयत रह॥ सद्बुध्दि बाँध के द्वारा। रोकना पड़ेगा सब सह॥79॥ दस पाँच बरस आश्रम में। मैं रहूँ या रहूँ कुछ दिन॥ तुम लोग क्या करोगी इन। आश्रम के दिवसों को गिन॥80॥ जैसी कि परिस्थिति होगी। वह टलेगी नहीं टाले॥ भोगना पड़ेगा उसको। क्या होगा कंधा डाले॥81॥ मांडवी कहो क्या तुमने। यौवन-सुख को कर स्वाहा॥ पति-ब्रह्मचर्य को चौदह। सालों तक नहीं निबाहा॥82॥ इस खिन्न उर्मिला ने है। जो सहन-शक्ति दिखलाई॥ जिसकी सुधा आते, मेरा। दिल हिला ऑंख भर आई॥83॥ क्या वह हम लोगों को है। धृति-महिमा नहीं बताती॥ क्या सत्प्रवृत्ति की शिक्षा। है सभी को न दे जाती॥84॥ ऑंसू आयेंगे आवें। पर सींच सुकृत-तरु-जावें॥ तो उनमें पर-हित द्युति हो। जो बूँद बने दिखलावें॥85॥ श्रुतिकीर्ति मांडवी जैसी। महनीय-कीर्ति तू भी हो॥ मत बिचल समझ मधु-मारुत। चल रही अगर लू भी हो॥86॥ उर्मिला सदृश तुझ में भी। वसुधवलम्बिनी-धृति हो॥ जिससे भव-हित हो ऐसी। तीनों बहनों की कृति हो॥87॥ मत रोना भूल न जाना। कुल-मंगल सदा मनाना॥ कर पूत-साधना अनुदिन। वसुधा पर सुधा बहाना॥88॥ दोहा इसी समय आये वहाँ, धीर-वीर-रघुबीर। बहनें विदा हुईं बरसा नयनों से बहु-नीर॥89॥
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