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हरिऔध समग्र खंड-5

श्रीरुक्मिणीरमणो विजयते
(नाटक)
अयोध्या सिंह उपाध्याय
'हरिऔध'
 

द्वितीयांक

हरिऔध समग्र-अनुक्रम | प्रार्थना | प्रथमांक | द्वितीयांक | तृतीयांक | चतुर्थांक | पंचमांक | षष्ठांक | सप्तमांक | अष्टमांक | नवमांक | अतिरिक्त अंक

 ( स्थान-राजसभा)

( महाराज भीष्मक , रुक्म , रुक्मकेश , मंत्री और सभासद्गण
यथास्थान बैठे हैं)

भीष्मक- (चिन्ता से स्वगत) ईश्वर की रचना क्या ही अपूर्व है। वह एक ही जठर है, जिससे कन्या पुत्र दोनों उत्पन्न होते हैं, पर एक की अपेक्षा दूसरे के प्रसव का हर्ष और उत्साह विलक्षण होता है। यद्यपि कन्या जायमान होने पर खेद प्रगट करना संकीण्र्हृदयों का काम है, ईश्वरप्रदत्त वस्तु पर अरुचि प्रगट करना है, तथापि मनुष्य कन्या से कभी सुखी नहीं होता। जब वे समर्थ होती हैं, उस समय योग्य घर बर मिलने के लिए जो चिन्ता माँ-बाप को आ लगती है, उसको वे ही जानते हैं, जब मेरे चित्त को परमात्मा ने किसी भाँति असमर्थ नहीं बनाया है, रुक्मिणी को समर्थ देख यह दशा है। तो मैं नहीं जानता घर में समर्थ कन्या देखकर असमर्थों की क्या दशा होती होगी। राजा जनक से विभवसम्पन्न जन को स्वप्यारी पुत्री जनकनन्दिनी को समर्थ देख कितनी चिन्ता थी, जो राजाओं की सभा में भी छिपी न रह सकी और भीषणमुर्ति धारण करके प्रगट हुई। यद्यपि रुक्मिणी अभी अधिक समर्थ नहीं है, तथापि वायु संचलित चलदल पत्तों समान मेरा मन कैसा चंचल है। नेत्रों से निद्रा बिल्कुल जाती रही है, चित्त सदा उद्विग्न रहता है, चिन्ता शरीर को दुर्बल किए देती है। किन्तु अब इस विषय में अधिक मीमांसा की आवश्यकता नहीं, जो कुछ कर्तव्य हो, सभावालों के परामर्शानुसार स्थिर कर देना ही उत्तम है। (प्रगट मंत्री से) मंत्री! रुक्मिणी विवाहयोग्य हो गयी, पर अब तक मेरी दृष्टि में कोई ऐसा राजकुमार नहीं पड़ा है, जो उसके योग्य हो; सब में किसी-न-किसी विषय की त्रुटि अवश्य दीखती है, इससे हमारा चित्त परम आकुल हो रहा है। क्या तुम कोई उपाय सोच सकते हो? अथवा किसी रूप गुणकुलसम्पन्न राजकुमार को बतला सकते हो? जिसके समाचार वायु की सहायता से मेरा मनमयंक जो अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क घनपटल में समाच्छन्न है, बाहर निकल आवे?

मं.- (विचारकर) यों तो निजोदरपरायण मदांध बहुतेरे राजकुमार हैं, पर जैसी आपकी अभिलाषा है, वैसे बहुत थोड़े और महान अन्वेषण से मिलेंगे? क्योंकि कुल गुणरूपादि जो अपूर्वमणि है, सब मनुष्यों में ऐसे नहीं होते, जैसे सब गजराज के मस्तकों में मुक्ता और सम्पूर्ण गहवनों में चन्दन नहीं होता।

ए.स.- फिर यदि इन गुणों से रहित है, और बड़ा धनमान और प्रतापी ही है तो किस काम का। मतिमानों ने बैर प्रीति विवाह समान से करना कहा है, असमान से तीनों भयंकर है। गृद्धराज के मारे जाने का, नहुष के सर्प शरीरधारण् करने का, शकुन्तला के महत् क्लेशभागी होने का कारण, केवल उक्त वस्तुओं का असमानत्व ही था। इससे हम लोगों का मुख्य कर्तव्य है कि जैसे हो सके राजतनया के लिए योग्य वर और समान पति मिलने के लिए परिकरबद्ध होकर प्रयत्न करें, क्योंकि संसार की यह रीति है, कि मनुष्य जिस कार्य के लिए हृदय से यत्नवान होता है (चाहे वह अलभ्य ही क्यों न होवे) उसको अवश्य प्राप्त करता है। वायुतनय वीर केशरी हनुमान ने अपने साहस से ही जनकराजदुहिता का पता लगाया। महात्मा आसुरि ने अपने उद्योग से ही अगम्य राजस्थल में प्रवेश करके भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन किया। फिर क्या कारण है कि यदि हम लोग सच्चे हृदय और पूर्ण अध्वसाय से राजदुहितार्थ योग्य पति खोजने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ होंगे और न खोज सकेंगे!

दू.स.- यद्यपि भवदीय सभ्य विज्ञवर का विचार अति प्रशंसनीय है, किन्तु महाराज! जहाँ तक यह अल्पमति विचारता है, यही निश्चित होता है, कि सम्प्रति इस भारतवर्ष में दुर्योधन, जरासंध, शाल्व, अर्जुन, धृष्टद्युम्न, से अधिक प्रतापी कोई राजा नहीं है, ए अपनी भुजाबल से इन्द्र को जीत सकते हैं। दशों दिक्पाल के मान को दूर कर सकते हैं, इनके धनुष की उग्रता सन्मुख बज्री का बज्र, पिनाकी का पिनाक, दण्डी का दण्ड शोभा मात्र हैं। इनके प्रताप के सम्मुख निदाघांशु शीतल, शीतलांशु मलीन, नृपसमाज अगौरव, और त्रिलोकविजयी विगतधर्य दिखलाई पड़ते हैं। यदि इनका कुलकुमुदबन्धु किसी लांच्छन द्वारा लांछनित न हो और ये पृथ्वीनाथ की दृष्टि में सुयोग्य परिगणित हों तो इस कृपापात्र की दृष्टि में इनसे प्रतापी, गुणज्ञ, और सुयोग्य वर पृथ्वी में दूसरा कदापि निश्चित नहीं हो सकता।

रुक्म- (झुँझलाकर) बस! अब आगे किसी दूसरे को कुछ कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। और न इस विषय में अधिक विचार और कथनानुकथन का कोई प्रयोजन है, क्योंकि महाराज शिशुपाल को छोड़ जो सब भाँति कुल गुणरूपादि में रुक्मिणी के समान है ''जिसकी धन्वा की टंकार से पृथ्वी चलायमान हो जाती है, सूर्य के घोडे पथ भूल जाते हैं, शेषनाग बधिर हो जाते हैं,सह्स्त्राक्ष के सह्स्त्रों, षड़ानन के द्वादशों नेत्र बन्द हो जाते हैं, लोक का हृदय काँपने लगता है'' दूसरा कोई योग्य वर पृथ्वी में नहीं है, और न अब इस शुभकार्य में विशेष विलम्ब करने का प्रयोजन है।

रुक्मकेश- पूजनीय पिता, माननीय श्रेष्ठभ्राता, अथच सकलसभासदों की जो अनुमति होवे सोई उत्तम और शिरोधार्य है। किन्तु मेरी समझ में रुक्मिणी के योग्य और सकलकुलगुणरूपादि सांसारिक अमूल्य मणि रत्नाकर इस समय त्रिलोक में भगवान वासुदेव के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं है।

पद

तेहि कुल कहा बड़ाई कीजै।

जेहि कुल प्रगट भये श्री जदुपति जासु नाम भवसेतु कहीजै ,

जाहि स्वास ते प्रगट भये जग चार बेद जे गुन उपजाये।

ताके गुन अपार अगनित को अस जग को बरनि बताये।

जेहि प्रकास ते रवि ससि मन्मथ जोति सरूप मान जगगावै।

ताको रूप अलौकिक अनुपम किमि इक लघुजन पै कहिआवै।

भृकुटिबिलास जासुमाया के अखिल विश्व छन माँहिं नसावै।

इदमित्थं असीम बल ताको भूलि कबौं कहिबो न सुहावै।

अपर कहा बन तृनहुं न कबहूँ बिन निदेस जाके जग डोलै।

तासु प्रताप कथन हित कैसे हरीऔध पामर मुख खोलै।

विशेष कहने की कोई आवश्यकता नहीं, सूर्य अपने गुणों से आप ही प्रकाशित है, मृगांक अपने सौन्दर्य से आप ही जगतप्रिय है, ऐसे ही महात्मा श्रीकृष्ण भी अपने सच्चरित्रों और अद्भुत कर्मों से आप ही लोकविख्यात और प्रिय हैं, उनके परिचय के लिए मुझको किसी वस्तु विशेष का निर्देश अयुक्त जान पड़ता है। क्या इस शैलसागरसंकुला पृथ्वी में कोई ऐसा भी होगा, जो उक्त महात्मा के सत्कर्मवारिजकाष्टपद न हो, और जिसके हृदयागार में भगवान के सच्चरित्र के चित्र न खिंचे हों ? कदापि नहीं।

भी.- (सानन्द) प्रिय पुत्र! आज तुमारे युक्तिसंगत इन कोमल अथच मधुर वचनों को श्रवण कर चित्त अति आनन्दित हुआ, इतनी थोड़ी अवस्था में तुमारी ऐसी विलक्षण मति निरीक्षण कर हम अति सन्तुष्ट हुए। निसन्देह रुक्मिणी श्रीकृष्ण को ही पाणिगृहीता होने योग्य है, क्योंकि रमा की शोभा रमानाथ के ही अंक में है!

एक.स.- (एक स्वर से) महाराज! राजकुमार के इस उत्तम परामर्श को श्रवण कर ऐसा कौन होगा, जिसके हृदय में आनन्द का संचार न हुआ होगा। कुमार जैसे स्वयं तेजमान और दीप्तिसम्पन्न हैं, वैसी ही इनकी बुध्दि भी है। सत्य है! अमरावती के ही सुवर्ण में सुगन्धि होती है।

ए.स.- (आप ही आप रुक्मा की ओर देखकर) अहा! राजकुमार रुक्म का क्रोध सभासदों के वाक्यों को सुनकर कैसा बढ़ रहा है। जैसा पूर्णिमा को समुद्र की तरंगें बढ़ती हैं। ऑंखें प्रात:काल अथवा सायंकाल के नभोमण्डल की भाँति कैसी अरुण हो गयी हैं, अधार कैसे फरक रहे हैं, भौंहें कुटिल पुरुषों के मन की भाँति कैसी टेढ़ी हुई जाती हैं, मुख प्रात:काल के सूर्य बिम्ब समान कैसा आरक्त हो गया है! यद्यपि जन का कथन कुमार की क्रोधग्नि में घृत का काम दे रहा है, तथापि उनका वाक्य आद्योपान्त श्रवण करने के लिए उन्होंने उसको कैसा रोक रखा है। मानो युगान्त भगवान रुद्र ने लोकान्त की अभिलाषा करके जीवधारियों के चित्र विचित्र कथनोपकथन सुनने की इच्छा से कुछ काल के लिए स्वकर्तव्य का परित्याग किया है।

रु.- (क्रोध से) आज इन सद्विवेचकों को क्या हो गया, जो इन्होंने एक अज्ञ बालक के अनुचित परामर्श पर अपनी अनुमति प्रगट की। आज इस सकल सभ्य विद्वज्जनमण्डली की बुध्दि क्या हो गयी, जिससे इन शिष्ट महाशयों ने एक अति अयोग्य विचार का अनुमोदन किया। बड़े खेद का स्थल है, बड़ी लज्जा की बात है, बड़ी स्पर्धा का विषय है, बड़े शोक का समाचार है। जो आपलोगों ने ऐसे अकरणीय कर्म की समालोचना करने में थोड़ा भी अनुशीलन नहीं किया, क्या यज्ञहवि काक के योग्य हो सकती है? क्या सुरसरी अकूपार त्याग छुद्र नद सहवास कर सकती है? क्या रोहिणी राहु समागम में शोभा पा सकती है? क्या सुधा असुरों के योग्य कही जा सकती है? इसी भाँति क्या रुक्मिणी कुटिल कृष्ण के योग्य निश्चित हो सकती है? कदापि नहीं। कृष्ण को कौन नहीं जानता, यदुवंशियों की कुलीनता किससे छिपी है? क्या हुआ जो आज उन्नतिशाली हो गये, विधुन्तुद ग्रहों में परिगणित होने से देवता नहीं हो सकता, फिर जिस के माता-पिता का आज तक नाम ही न ज्ञात हुआ, उसको किस वंश का कहैं, कैसे उसके कुल की विवेचना करें, उसका ग्वालों में रहना, दुग्धदि का चुराना, गोवादि को चराना, मातुलादि को मारना, किस पर अप्रगट है। वह जिसकी उग्रसेन के भृत्यों में गणना है, हमसे क्षत्रियों की समानता कब कर सकता है, कब हमसे कुलीनों की कुलोद्भूत कन्या के पाणिग्रहण करने योग्य कहा जा सकता है? शिशुपाल जो उससे सब भाँति उत्तम और श्रेष्ठ है, जिसका प्रताप अखिल भूमण्डल में व्याप्त है, रुक्मिणी के विवाह योग्य है। उचित है, रुक्मिणी उन्हीं को ब्याह दी जावे, और मेरे सामने फिर कृष्ण का नाम न लिया जावे, क्योंकि अयोग्य पति मिलने से केवल कन्या ही को कष्ट नहीं होता, वरन उसके दूसरे सम्बन्धियों और पितु भ्रातादि को भी बड़ा क्लेश भोगना पड़ता है। देवयानी की कथा से कौन अनिभज्ञ है, अयोग्य पति मिलने से वह अपने अपमान का जितना ध्यान रखती थी, उतनी ही दुखी रहती थी, इस कारण् उसके पिता असुर गुरु महात्मा शुक्र को जो संकट हुआ करता वह किस पर अविदित है।

स.स- राजकुमार की जैसी इच्छा।

(महाराज भीष्मक सभासदों के साथ उठ जाते हैं)

(जवनिका पतन होता है)

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