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शहरयार की ग़जलें

 
Shaharyar शहरयार
शहरयार
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ग़जलें

मूल नाम   अख़लाक़ मुहम्मद ख़ान

जन्म

:

16 जून 1936, आँवला, बरेली, उत्तर प्रदेश

भाषा : उर्दू
विधाएँ : ग़ज़ल, नज़्म
प्रमुख कृतियाँ : इस्मे आज़म, सातवाँ दरे-हिज्र के मौसम, ख़्वाब का दर बंद है, शाम होने वाली है, मिलता रहूँगा ख़्वाब में, सैरे-जहाँ, कहीं कुछ कम है, नींद की किरचें, फ़िक्रो-नज़र, शेअरो-हिकमत

सम्मान

:

साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार, फ़िराक सम्मान, शरफ़ुद्दीन यहिया मुनीरी इनाम, इक़बाल सम्मान

निधन : 13 फरवरी 2012, अलीगढ़, उत्तर प्रदेश
जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया
दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं , बदला नहीं हूँ मैं
सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
 

 

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने

जुस्तजू जिसकी थी उसको तो न पाया हमने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हमने

तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने

कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
ज़िन्दगी तुझ को तो बस ख़्वाब में देखा हमने

ऐ 'अदा' और सुनाए भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तनहा हमने


इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम

इसे गुनाह कहें या कहें सवाब का काम
नदी को सौंप दिया प्यास ने सराब का काम

हम एक चेह्रे को हर ज़ाविए से देख सकें
किसी तरह से मुकम्मल हो नक्शे-आब का काम

हमारी आँखें कि पहले तो खूब जागती हैं
फिर उसके बाद वो करतीं है सिर्फ़ ख़्वाब का काम

वो रात-कश्ती किनारे लगी कि डूब गई
सितारे निकले तो थे करने माहताब का काम

फ़रेब ख़ुद को दिए जा रहे हैं और ख़ुश हैं
उसे ख़बर है कि दुश्वार है हिजाब का काम

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं

ऐसे हिज्र के मौसम अब कब आते हैं
तेरे अलावा याद हमें सब आते हैं

जज़्ब करे क्यों रेत हमारे अश्कों को
तेरा दामन तर करने अब आते हैं

अब वो सफ़र की ताब नहीं बाक़ी वरना
हमको बुलावे दश्त से जब-तब आते हैं

जागती आँखों से भी देखो दुनिया को
ख़्वाबों का क्या है वो हर शब आते हैं

काग़ज़ की कश्ती में दरिया पार किया
देखो हम को क्या-क्या करतब आते हैं

 

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ

कटेगा देखिए दिन जाने किस अज़ाब के साथ
कि आज धूप नहीं निकली आफ़ताब के साथ

तो फिर बताओ समंदर सदा को क्यूँ सुनते
हमारी प्यास का रिश्ता था जब सराब के साथ

बड़ी अजीब महक साथ ले के आई है
नसीम, रात बसर की किसी गुलाब के साथ

फ़िज़ा में दूर तक मरहबा के नारे हैं
गुज़रने वाले हैं कुछ लोग याँ से ख़्वाब के साथ

ज़मीन तेरी कशिश खींचती रही हमको
गए ज़रूर थे कुछ दूर माहताब के साथ

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था

कहीं ज़रा सा अँधेरा भी कल की रात न था
गवाह कोई मगर रौशनी के साथ न था

सब अपने तौर से जीने के मुद्दई थे यहाँ
पता किसी को मगर रम्ज़े-काएनात न था

कहाँ से कितनी उड़े और कहाँ पे कितनी जमे
बदन की रेत को अंदाज़-ए-हयात न था

मेरा वजूद मुनव्वर है आज भी उससे
वो तेरे क़ुब का लम्हा जिसे सबात न था

मुझे तो फिर भी मुक़द्दर पे रश्क आता है
मेरी तबाही में हरचंद तेरा हाथ न था

 

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का

किया इरादा बारहा तुझे भुलाने का
मिला न उज़्र ही कोई मगर ठिकाने का

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का

ये आँख है कि नहीं देखा कुछ सिवा तेरे
ये दिल अजब है कि ग़म है इसे ज़माने का

वो देख लो वो समंदर ख़ुश्क होने लगा
जिसे था दावा मेरी प्यास को बुझाने का

ज़मीं पे किस लिये ज़ंजीर हो गए साए
मुझे पता है मगर मैं नहीं बताने का

 

किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया

किस-किस तरह से मुझको न रुसवा किया गया
ग़ैरों का नाम मेरे लहू से लिखा गया

निकला था मैं सदा-ए-जरस की तलाश में
भूले से इस सुकूत के सहरा में आ गया

क्यों आज उसका ज़िक्र मुझे ख़ुश न कर सका
क्यों आज उसका नाम मेरा दिल दुखा गया

इस हादसे को सुनके करेगा यक़ीं कोई
सूरज को एक झोंका हवा का बुझा गया

 

दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं , बदला नहीं हूँ मैं

दुश्मन-दोस्त सभी कहते हैं, बदला नहीं हूँ मैं
तुझसे बिछड़ के क्यों लगता है, तनहा नहीं हूँ मैं

उम्र-सफश्र में कब सोचा था, मोड़ ये आएगा
दरिया पार खड़ा हूँ गरचे प्यासा नहीं हूँ मैं

पहले बहुत नादिम था लेकिन आज बहुत खुश हूँ
दुनिया-राय थी अब तक जैसी वैसा नहीं हूँ मैं

तेरा लासानी होना तस्लीम किया जाए
जिसको देखो ये कहता है तुझ-सा नहीं हूँ मैं

ख्वाबतही कुछ लोग यहाँ पहले भी आए थे
नींद-सराय तेरा मुसाफिश्र पहला नहीं हूँ मैं

 

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढ़े
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हमने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हममें
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है

 

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के

हम पढ़ रहे थे ख़्वाब के पुर्ज़ों को जोड़ के
आँधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के

आग़ाज़ क्यों किया था सफ़र उन ख़्वाबों का
पछता रहे हो सब्ज़ ज़मीनों को छोड़ के

इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के

कुछ भी नहीं जो ख़्वाब की तरह दिखाई दे
कोई नहीं जो हम को जगाए झिंझोड़ के

इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में

जाने क्या देखा था मैंने ख़्वाब में
फँस गया फिर जिस्म के गिरदाब में

तेरा क्या तू तो बरस के खुल गया
मेरा सब कुछ बह गया सैलाब में

मेरी आँखों का भी हिस्सा है बहुत
तेरे इस चेहरे की आब-ओ-ताब में

तुझमें और मुझमें तअल्लुक़ है वही
है जो रिश्ता साज़ और मिज़राब में

मेरा वादा है कि सारी ज़िंदगी
तुझसे मैं मिलता रहूँगा ख़्वाब में

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है

ज़िंदगी जैसी तवक्को थी नहीं, कुछ कम है
हर घडी होता है एहसास कहीं कुछ कम है


घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक्शे के मुताबिक़ यह ज़मीन कुछ कम है

बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफी है, यकीन कुछ कम है

अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ ज़्यादा है, कहीं कुछ कम है

आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
यह अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है

 



 

 

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