ग्रंथ के लिए दो शब्द यह ग्रंथावली महाकवि संत कबीरदास के विराट काव्य-सर्जना संसार का
प्रामाणिक एवं समेकित प्रकाशन है। बल्कि, कहा जाए तो इसमें महाकवि का
विद्रोही, सत्य उद्घोषक, जीवन-द्रष्टा तथा सिद्ध संत का स्वरूप बड़े
व्यापक तौर पर उद्घाटित हुआ है। इस ग्रंथावली में महाकवि की ज्वलंत
एवं बहुआयामी साखियाँ, ललित ‘पदावली’ तथा रागबद्ध मधुर ‘रमैणी’ की
त्रिवेणी सुधी पाठकों तथा विज्ञजनों को अपनी अद्भुत प्राणवत्ता एवं
विलक्षण उद्घोषणाओं के प्रभापाश में बाँधे रखती है। सच कहा जाए तो इस
ग्रंथावली में महाकवि कबीर की सर्जना-प्रतिभा, अन्वेषण-सामर्थ्य,
रूढ़ि-भंजक आक्रामकता तथा सिद्ध संत-दृष्टि का एक साथ साक्षात्कार
होता है। इस ग्रंथावली से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है, मानो
महामानव संत कबीर से हम रू-ब-रू हो रहे हैं। सुधी पाठक, विज्ञजन और
शोधार्थी इस ग्रंथावली से कबीर के प्राणद जीवन-दर्शन तथा उनके उदात्त
काव्य-सर्जना से पूर्णतः परिचित हो सकेंगे।
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डॉ.
श्यामसुन्दर दास (परिचय)
महान भाषाविद् तथा मूर्द्धन्य साहित्यकार डॉ. श्यामसुन्दर दास का
जन्म सन् 1875 ई. में काशी (वाराणसी) में हुआ था। एक प्रतिभाशाली
विद्यार्थी के रूप में सन् 1897 ई. में बी. ए. पास करने के उपरान्त
उन्होंने कुछ समय तक काशी के हिंदू स्कूल में अध्यापन का काम किया
तथा बाद में लखनऊ के कालीचरण स्कूल में बहुत दिनों तक प्रधानाध्यापक
के पद पर कार्यरत रहे। आगे चलकर वे सन् 1921 ई. में काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के अध्यक्ष पद पर प्रतिष्ठित हुए।
उन्होंने सन् 1893 ई. में अपने कुछ साहित्य प्रेमी सहयोगियों से
मिलकर ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना की। ‘हिंदी शब्द सागर’ का
संपादन, ‘आर्य भाषा पुस्तकालय’ की स्थापना, प्राचीन महत्वपूर्ण
ग्रंथों का संपादन, सभा-भवन का निर्माण, ‘सरस्वती’ पत्रिका संपादन,
उच्चस्तरीय शिक्षा-पुस्तकों का लेखन-प्रकाशन जैसे भाषाई रचनात्मक
कार्य उनके हिंदी-उन्नयन एवं सर्वतोमुखी विकास में किए गए ऐतिहासिक
कार्य थे। वस्तुतः जीवनपर्यंत वे हिंदी साहित्य एवं हिंदी भाषा के
उन्नयन एवं विकास में पूरे समर्पण भाव से लगे रहे।
मौलिक कृतियाँ: नागरी वर्णमाला, साहित्यालोचन, भाषाविज्ञान, हिंदी
भाषा का विकास, हिंदी कोविद ग्रंथमाला, गद्यकुसुमावली, भारतेंदु
हरिश्चंद्र, हिंदी भाषा और साहित्य, गोस्वामी तुलसीदास, भाषा रहस्य,
मेरी आत्मकहानी।
संपादित कृतियाँ: चंद्रावली, छत्रा प्रकाश, रामचरितमानस, पृथ्वीराज
रासो, हिंदी वैज्ञानिक कोश, हम्मी रासो, शकुंतला नाटक, रत्नाकर,
नागरी प्रचारिणी पत्रिका, सरस्वती।
भूमिका
आज इस बात को पाँच-छह वर्ष हुए होंगे, जब काशी नागरीप्रचारिणी सभा
में रक्षित हस्तलिखित हिंदी पुस्तकों की जाँच की गयी थी और उनकी सूची
बनाई गयी थी। उस समय दो ऐसी पुस्तकों का पता चला जो बड़े महत्त्व की
थीं पर जिनके विषय में किसी को पहले कोई सूचना नहीं थी। इनमें से एक
तो सूरसागर की हस्तलिखित प्रति थी और दूसरी कबीरदासजी के ग्रंथों की
दो प्रतियाँ थीं। कबीरदासजी के ग्रंथों की इन दो प्रतियों में से एक
तो संवत् 1561 की लिखी है और दूसरी संवत् 1881 की। दोनों प्रतियों को
देखने पर यह प्रकट हुआ कि इस समय कबीरदास जी के नाम से जितने ग्रंथ
प्रसिद्ध हैं उनका कदाचित् दशमांश भी इन दोनों प्रतियों में नहीं है।
यद्यपि इन दोनों प्रतियों के लिपिकाल में 320 वर्ष का अंतर है पर फिर
भी दोनों में पाठ भेद बहुत ही कम है। संवत् 1881 की प्रति में संवत्
1561 वाली प्रति की अपेक्षा केवल 131 दोहे और 5 पद अधिक हैं। उस समय
यह निश्चित किया गया कि इन दोनों हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर
कबीरदासजी के ग्रंथों का एक संग्रह प्रकाशित किया जाए। यह कार्य पहले
पंडित अयोध्यासिंह जी उपाध्याय को सौंपा गया और उन्होंने इसे सहर्ष
स्वीकार भी कर लिया। पर पीछे से समयाभाव के कारण वे यह न कर सके। तब
यह मुझे सौंपा गया। मैंने यथासमय यह कार्य आरंभ कर दिया। मेरे दो
विद्यार्थियों ने इस कार्य में मेरी सहायता करने की तत्परता भी प्रकट
की, पर इस तत्परता का अवसान दो ही तीन दिन में हो गया। धीरे-धीरे
मैंने इस काम को स्वयं ही करना आरंभ किया। संवत् 1983 के भाद्रपद मास
में बहुत बीमार पड़ जाने तथा लगभग दो वर्ष तक निरंतर अस्वस्थ रहने और
गृहस्थी संबंधी अनेक दुर्घटनाओं और आपत्तियों के कारण मैं यह कार्य
शीघ्रतापूर्वक न कर सका। बीच-बीच में जब-तब अन्य झंझटों से कुछ समय
मिला और शरीर ने कुछ कार्य करने में समर्थता प्रकट की तब-तब मैं यह
कार्य करता रहा। ईश्वर की कृपा है कि यह कार्य अब समाप्त हो गया।
जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, इस संस्करण का मूल आधार संवत् 1561 की
लिखी हस्तलिखित प्रति है। यह प्रति खेमचंद के पढ़ने के लिए मलूकदास ने
काशी में लिखी थी। यह पता नहीं लगा कि ये खेमचंद और मलूकदास कौन थे।
क्या ये मलूकदास जी कबीरदासजी के वही शिष्य तो नहीं थे जो
जगन्नाथपुरी में जाकर बसे और जिनकी प्रसिद्ध खिचड़ी का वहाँ अब तक भोग
लगता है तथा जिसके विषय में कबीरदासजी ने स्वयं कहा है ‘मेरा गुरु
बनारसी चेला समुंदर तीर’। यदि ये वही मलूकदास हैं तो इस प्रति का
महत्व बहुत अधिक है। यदि यह न भी हो, तो भी इस प्रति का मूल्य कम
नहीं है। जैसा कि इस संस्करण की प्रस्तावना में सिद्ध किया गया है,
कबीरदासजी का निधन संवत् 1575 में हुआ था। यह प्रति उनकी मृत्यु के
14 वर्ष पहले की लिखी हुई है। अंतिम 14 वर्षों में कबीरदासजी ने जो
कुछ कहा था यद्यपि वह उसमें सम्मिलित नहीं है, तथापि इसमें संदेह
नहीं कि संवत् 1561 तक की कबीरदास जी की समस्त रचनाएँ इसमें संगृहीत
हैं। यह प्रति (क) मानी गयी है। इसके प्रथम और अंतिम दोनों पृष्ठों
के चित्र इस (पुस्तकीय) संस्करण के साथ प्रकाशित किए जाते हैं।
दूसरी प्रति (ख) मानी गयी है। यह संवत् 1881 की लिखी है अर्थात् इस
प्रति के और (क) प्रति के लिपिकाल में 320 वर्षों का अंतर है। पर (क)
और (ख) दोनों प्रतियों में पाठभेद बहुत कम है। (ख) प्रति में (क)
प्रति की अपेक्षा 131 दोहे और 5 पद अधिक हैं।
यह बात प्रसिद्ध है कि संवत् 1661 में अर्थात् (क) प्रति के लिखे
जाने के 100 वर्ष पीछे गुरुग्रंथसाहब का संकलन किया गया। उसमें अनेक
भक्तों की वाणी सम्मिलित की गयी है। गुरुग्रंथसाहब में कबीरदासजी की
जितनी वाणी सम्मिलित की गयी है, वह सब मैंने अलग करवाई और तब (क) तथा
(ख) प्रतियों में सम्मिलित पदों आदि से उसका मिलान कराया। जो दोहे और
पद मूल अंश में आ गये थे उनको छोड़कर शेष सब दोहे और पद परिशिष्ट में
दे दिए गये हैं। ग्रंथसाहब तथा दोनों हस्तलिखित प्रतियों का मिलान
करने पर नीचे लिखे दोहे और पद दोनों प्रतियों में मिले- इन दोहों का
क्रम प्रस्तुत संस्करण में निम्नलिखित है-
साखी (1) दोहा
10
साखी (2)
दोहा 9,
11-13, 16, 24
साखी (3)
दोहा 44
साखी (10)
दोहा 3
साखी (11)
दोहा 3,
14
साखी (12)
दोहा 1,
33, 43, 46, 54
साखी (13)
दोहा 7
साखी (19)
दोहा 1
साखी (22)
दोहा 2,
9
साखी (23)
दोहा 7
साखी (24)
दोहा 1
साखी (28)
दोहा 7
साखी (29)
दोहा 2,
6 |
साखी (31) दोहा, 5, 9, 11
साखी (37)
दोहा 9
साखी (38)
दोहा 4,
5
साखी (41)
दोहा 5,
6, 11, 14
साखी (43)
दोहा 5
साखी (45)
दोहा 13,
33
साखी (46)
दोहा 10
साखी (47)
दोहा 7
साखी (48)
दोहा 2
साखी (49)
दोहा 3
साखी (54)
दोहा 6
साखी (56)
दोहा 6
तथा पद संख्या 27, 39, 359,362 और 400 |
इनके अतिरिक्त
पादटिप्पणियों में जो (ख) प्रति में अधिक दोहे दिए गये हैं, उनमें से साखी (41) के दोहे 18, 19 और 20 तथा साखी (46) का दोहा 38 उस प्रति और गुरुग्रंथसाहब दोनों में
समान है। इस प्रकार दोनों हस्तलिखित प्रतियों और गुरुग्रंथसाहब में 48
दोहे और 5 पद ऐसे हैं जो दोनों में समान हैं। इनको छोड़कर
ग्रंथसाहब में जो दोहे या पद अधिक मिले हैं वे परिशिष्ट में दे दिए गये हैं। इनमें 192
दोहे और 222 पद हैं। इस प्रकार इस संस्करण में कबीरदासजी के
दोहों और पदों का अत्यंत प्रामाणिक संग्रह दिया गया है। यह कहना तो कठिन है कि इस संग्रह में
जो कुछ दिया गया है, उसके
अतिरिक्त और कुछ कबीरदासजी ने कहा ही नहीं, पर इतना अवश्य है कि इनके अतिरिक्त और
जो कुछ
कबीरदासजी के नाम पर मिले उसे सहसा उन्हीं का कहा हुआ तब तक स्वीकार नहीं कर लेना चाहिए
जब तक उसके प्रक्षिप्त न होने का कोई दृढ़ प्रमाण न मिल जाए।
इस संबंध में ध्यान रखने योग्य एक और
बात यह है कि इस संग्रह में दिए हुए दोहों आदि की भाषा और कबीरदासजी के
नाम पर बिकनेवाले ग्रंथों में के पदों आदि की भाषा में अकाशपाताल का अंतर
है। इस संग्रह के दोहों आदि की भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से कबीरदासजी
के समय के लिए बहुत उपयुक्त है और वह हिंदी के 16वीं तथा 17वीं शताब्दी के रूप के ठीक अनुरूप है
और इसीलिए इन पदों और दोहों को कबीरदासजी रचित मानने में आपत्ति नहीं हो
सकती। परंतु कबीरदासजी के नाम पर आजकल जो बड़े ग्रंथ देखने में आते हैं,
उनकी भाषा बहुत ही आधुनिक और कहीं-कहीं तो बिलकुल
आजकल की खड़ी बोली ही जान पड़ती है। आज के प्रायः तीन-साढ़े तीन सौ वर्ष पूर्व
कबीरदासजी आजकल की सी भाषा लिखने में किस प्रकार समर्थ हुए होंगे, यह बहुत ही विचारणीय है।
इस संस्करण में कबीरदासजी के जो दोहे
और पद सम्मिलित किए गये हैं उन्हें मैंने आजकल की प्रचलित परिपाटी के
अनुसार खराद पर चढ़ाकर सुडौल, सुंदर
और पिंगल
के नियमों से शुद्ध बनाने का कोई उद्योग नहीं किया। वरन् मेरा उद्देश्य यही रहा
है कि हस्तलिखित प्रतियों या ग्रंथसाहब में जो पाठ मिलता है, वही ज्यों का त्यों प्रकाशित कर दिया
जाए। कबीरदासजी के पूर्व के किसी भक्त की वाणी नहीं मिलती। हिंदी
साहित्य के इतिहास में वीरगाथा काल की समाप्ति पर मध्यकाल का आरंभ कबीरदासजी
से होता है, अतएव
इस काल के वे आदि कवि हैं। उस समय भाषारूप परिमार्जित और संस्कृत नहीं हुआ था।
तिस पर कबीरदासजी
स्वयं पढ़े-लिखे नहीं थे। उन्होंने जो कुछ कहा है, वह अपनी प्रतिभा तथा भावुकता के वशीभूत होकर
कहा है। उनमें कवित्व उतना नहीं था जितनी भक्ति और भावुकता थी। उनकी अटपट
वाणी हृदय में चुभने वाली है। अतएव उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर देना
ही उचित जान पड़ा और यही किया भी गया है। हाँ, जहाँ मुझे स्पष्ट लिपिदोष देख पड़ा,
वहाँ मैंने सुधार दिया है, और वह भी कम से कम उतना ही जितना उचित और
नितान्त आवश्यक था।
एक और बात विशेष ध्यान देने योग्य है।
कबीरदासजी की भाषा में पंजाबीपन बहुत मिलता है। कबीरदास ने स्वयं कहा है कि
मेरी बोली बनारसी है। इस अवस्था में पंजाबीपन कहाँ से आया? ग्रंथसाहब में कबीरदासजी की वाणी का
जो संग्रह किया गया है, उसमें
जो पंजाबीपन देख पड़ता है, उसका
कारण तो स्पष्ट रूप से समझ में आ सकता है, पर मूल भाग में अथवा दोनों हस्तलिखित
प्रतियों में जो पंजाबीपन देख पड़ता है, उसका कुछ कारण समझ में नहीं आता। या
तो यह लिपिकर्ता की कृपा का फल है अथवा पंजाबी साधुओं की संगति का प्रभाव है।
कहीं-कहीं तो स्पष्ट पंजाबी प्रयोग और मुहावरे आ गये हैं जिनको बदल देने
से भाव तथा शैली में परिवर्तन हो जाता है। यह विषय विचारणीय है। मेरी समझ में
कबीरदासजी की वाणी में जो पंजाबीपन देख पड़ता है उसका कारण उनका पंजाबी
साधुओं से संसर्ग ही मानना समीचीन होगा।
इस संस्करण के साथ कबीरदासजी के दो
चित्र प्रकाशित किए जाते हैं, एक
तो कलकत्ता
म्यूजियम से प्राप्त हुआ है और दूसरा कबीरपंथी स्वामी युगलानंदजी से मिला है। दोनों
में से किसी चित्र का कोई ऐसा प्रामाणिक इतिहास नहीं मिला जिसकी कुछ जाँच की जा सकती पर
जहाँ तक मैं समझता हूँ, वृद्धावस्था
का चित्र
ही जो कबीरपंथी साधु युगलानंदजी से प्राप्त हुआ है अधिक प्रामाणिक जान पड़ता है।
इस ग्रंथ का परिशिष्ट प्रस्तुत करने
में मेरे छात्रा पंडित अयोध्यानाथ शर्मा एम. ए. ने बड़ा परिश्रम किया है।
यदि वे यह कार्य न करते तो मुझे बहुत कुछ कठिनता का सामना करना पड़ता। इसी
प्रसार प्रस्तावना के लिए सामग्री एकत्रा करने और उसे व्यवस्थित रूप
देने में मेरे दूसरे छात्रा पंडित पीताम्बरदत्त बड़थ्वाल एम.ए. ने मेरी
जो सहायता की है वह बहुत ही अमूल्य है। सच बात तो यह है कि यदि मेरे ये दोनों
प्रिय छात्रा इस प्रकार मेरी सहायता न करते, तो अभी इस संस्करण के प्रकाशित होने
में और भी अधिक समय लग जाता। इस सहायता के लिए मैं इन दोनों के
प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ। इनके अतिरिक्त और भी दो- तीन
विद्यार्थियों ने मेरी सहायता करने में कुछ-कुछ तत्परता दिखाई पर किसी का तो
काम ही पूरा न उतरा, किसी
ने टालमटूल कर
दी और किसी ने कुछ कर-कराकर अपने सिर से बला टाली। अस्तु, सभी ने कुछ न कुछ करने का उद्योग किया और मैं उन
सबके प्रति कृतज्ञता प्रगट करता हूँ।
(श्यामसुंदरदास)
काशी -
ज्येष्ठ कृष्ण 13, 1985
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