1.राग गौड़ी
दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥1॥
बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाये, भाग बड़े घरि
बैठे आये॥टेक॥
मंगलाचार माँहि मन राखौं, राम रसाँइण रमना चाषौं।
मंदिर माँहि भयो उजियारा, ले सुतो अपना पीव पियारा॥
मैं रनि राती जे निधि पाई, हमहिं कहाँ यह तुमहि बड़ाइ।
कहै कबीर मैं कछु न कीन्हा सखी सुहाग मोहि दीन्हा॥2॥
अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे, ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥टेक॥
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर करहु मति घोषैं॥3॥
मन के मोहन बिठुला, यह मन लागौ तोहि रे।
चरन कँवल मन मानियाँ, और न भावै मोहि रे॥टेक॥
षट दल कँवल निवासिया, चहु कौं फेरि मिलाइ रे।
दहुँ के बीचि समाधियाँ, तहाँ काल न पासैं आइ रे॥
अष्ट कँवल दल भीतरा, तहाँ श्रीरंग केलि कराइ रे।
सतगुर मिलै तौ पाइए, नहिं तौ जन्म अक्यारथ जाइ रे॥
कदली कुसुम दल भीतराँ, तहाँ दस आँगुल का बीच रे।
तहाँ दुवारस खोजि ले जनम होत नहीं मीच रे॥
बंक नालि के अंतरै, पछिम दिसाँ की बाट रे।
नीझर झरै रस पीजिये, तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥
त्रिवेणी मनाइ न्हवाइए सुरति मिलै जो हाथि रे।
तहाँ न फिरि मघ जोइए सनकादिक मिलिहै साथि रे॥
गगन गरिज मघ जोइये, तहाँ दीसै तार अनंत रे।
बिजुरी चमकि घन बरषिहै, तहाँ भीजत हैं सब संत रे॥
षोडस कँवल जब चेतिया, तब मिलि गये श्री बनवारि रे।
जुरामरण भ्रम भाजिया, पुनरपि जनम निवारि रे॥
गुर गमि तैं पाइए झषि सरे जिनि कोइ रे।
तहीं कबीरा रमि रह्या सहज समाधी सोइ रे॥4॥
टिप्पणी:
ख-जन्म अमोलिक।
गोकल नाइक बीठुला, मेरौ मन लागै तोहि रे।
बहुतक दिन बिछुरै भये, तेरी औसेरि आवै मोहि रे॥टेक॥
करम कोटि कौ ग्रेह रच्यो रे, नेह कये की आस रे।
आपहिं आप बँधाइया, द्वै लोचन मरहिं पियास रे॥
आपा पर संमि चीन्हिये, दीसैं सरब सँमान।
इहि पद नरहरि भेटिये, तूँ छाड़ि कपट अभिमान रे॥
नाँ कलहूँ चलि जाइये नाँ सिर लीजै भार।
रसनाँ रसहिं बिचारिये, सारँग श्रीरँग धार रे॥
साधै सिधि ऐसी पाइये, किंवा होइ महोइ।
जे दिठ ग्यान न ऊपजै, तौ आहुटि रहै जिनि कोइ रे॥
एक जुगति एकै मिलैं किंबा जोग कि भोग।
इन दून्यूँ फल पाइये, राम नाँम सिधि जोग रे॥
प्रेम भगति ऐसी कीजिये, मुखि अमृत अरिषै चंद रे।
आपही आप बिचारिये, तब कंता होइ अनंद रे॥
तुम्ह जिनि जानौं गीत है, यहू निज ब्रह्म विचार।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे।
चरन कँवल चित लाइये, राम नाम गुन गाइ॥
कहै कबीर मंसा नहीं, भगति मुकति गति पाइ रे॥5॥
टिप्पणी:
ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आन कहूँ तौ राम दुहाई॥टेक॥
इहि विधि बसि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा।
और रस ह्नै कफगाता, हरिरस अधिक अधिक सुखराता॥
दूजा बणज नहीं कछु वाषर, राम नाम दोऊ तत आषर।
कहै कबीर हरिस भोगी, ताकौं मिल्या निरंजन जोगी॥6॥
अब मैं पाइबो रे पाइबो ब्रह्म गियान,
सहज समाधें सुख में रहिबो, कोटि कलप विश्राम॥टेक॥
गुर कृपाल कृपा जब कीन्हौं, हिरदै कँवल बिगासा।
भाग भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा॥
मृतक उठ्या धनक कर लीयै, काल अहेड़ी भाषा।
उदय सूर निस किया पयाँनाँ, सोवत थैं जब जागा॥
अविगत अकल अनुपम देख्या, कहताँ कह्या न जाई।
सैन करै मन हो मर रहसैं, गूँगैं जाँनि मिठाई॥
पहुप बिनाँ एक तरवर फलिया, बिन कर तूर बजाया।
नारी बिना नीर घट भरिया, सहज रूप सौ पाया॥
देखत काँच भया तन कंचन, बिना बानी मन माँनाँ।
उड़îा बिहंगम खोज न पाया, ज्यूँ जल जलहिं समाँनाँ॥
पूज्या देव बहुरि नहीं पूजौं, न्हाये उदिक न नाउँ।
आपे मैं तब आया निरष्या, अपन पै आपा सूझ्या।
आपै कहत सुनत पुनि अपनाँ, अपन पै आपा बूझ्या॥
अपनै परचै लागी तारी, अपन पै आप समाँनाँ।
कहै कबीर जे आप बिचारै, मिटि गया आवन जाँना॥6॥
नरहरि सहजै ही जिनि जाना।
गत फल फूल तत तर पलव, अंकूर बीज नसाँनाँ॥टेक॥
प्रकट प्रकास ग्यान गुरगमि थैं, ब्रह्म अगनि प्रजारी।
ससि हरि सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, मेर डंड सरपूरा।
गगन गरजि मन सुंनि समाना, बाजे अनहद तूरा॥
सुमति सरीर कबीर बिचारी, त्रिकुटी संगम स्वामी।
पद आनंद काल थैं छूटै, सुख मैं सुरति समाँनी॥7॥
मन रे मन ही उलटि समाँना।
गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना॥टेक॥
नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा, जिनि जैसा करि जाना।
औ लौ ठीका चढ्या बलीडै, जिनि पीया तिनि माना॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन सुरति लै लागि।
अमर न मरै मरै नहीं जीवै, ताहि खोजि बैरागी॥
अनभै कथा कवन सी कहिये, है कोई चतुर बिबेकी।
कहै कबीर गुर दिया पलीता, सौ झल बिरलै देखी॥8॥
इति तत राम जपहु रे प्राँनी, बुझौ अकथ कहाँणी।
हीर का भाव होइ जा ऊपरि जाग्रत रैनि बिहानी॥टेक॥
डाँइन डारै, सुनहाँ डोरै स्पंध रहै बन घेरै।
पंच कुटुंब मिलि झुझन लागे, बाजत सबद सँघेरै॥
रोहै मृग ससा बन घेरे, पारथी बाँण न मेलै।
सायर जलै सकल बन दाझँ, मंछ अहेरा खेलै॥
सोई पंडित सो तत ज्ञाता, जो इहि पदहि बिचारै।
कहै कबीर सोइ गुर मेरा, आप तीरै मोहि तारै॥9॥
अवधू ग्यान लहरि धुनि मीडि रे।
सबद अतीत अनाहद राता, इहि विधि त्रिष्णाँ षाँड़ी॥टेक॥
बन कै संसै समंद पर कीया मंछा बसै पहाड़ी।
सुई पीवै ब्राँह्मण मतवाला, फल लागा बिन बाड़ी॥
षाड बुणैं कोली मैं बैठी, मैं खूँटा मैं गाढ़ी।
ताँणे वाणे पड़ी अनँवासी, सूत कहै बुणि गाढ़॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अगम ग्यान पद माँही।
गुरु प्रसाद सुई कै नांकै, हस्ती आवै जाँही॥10॥
एक अचंभा देखा रे भाई, ठाढ़ा सिंध चरावै गाई॥टेक॥
पहले पूत पीछे भइ माँई, चेला कै गुरु लागै पाई।
जल की मछली तरवर ब्याई, पकरि बिलाई मुरगै खाई॥
बैलहि डारि गूँनि घरि आई, कुत्ता कूँ लै गई बिलाई॥
तलिकर साषा ऊपरि करि मूल बहुत भाँति जड़ लगे फूल।
कहै कबीर या पद को बूझै, ताँकूँ तीन्यूँ त्रिभुवन सूझै॥11॥
हरि के षारे बड़े पकाये, जिनि जारे तिनि पाये।
ग्यान अचेत फिरै नर लोई, ता जनमि डहकाए॥टेक॥
धौल मँदलिया बैल रबाबी, बऊवा ताल बजावै।
पहरि चोलन आदम नाचै, भैसाँ निरति कहावै॥
स्यंध बैठा पान कतरै, घूँस गिलौरा लावै॥
उँदरी बपुरी मंगल गावै, कछु एक आनंद सुनावै॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, गडरी परबत खावा।
चकवा बैसि अँगारे निगले, समंद अकासा धावा॥12॥
चरखा जिनि जरे।
कतौंगी हजरी का सूत नणद के भइया कीसौं॥टेक॥
जलि जाई थलि ऊपजी, आई नगर मैं आप।
एक अचंभा देखिया, बिटिया जायौ बाप॥
बाबल मेरा ब्याह करि, बर उत्यम ले चाहि।
जब लग बर पावै नहीं, तब लग तूँ ही ब्याहि॥
सुबधी कै घरि लुबधी आयो, आन बहू कै भाइ।
चूल्हे अगनि बताइ करि, फल सौ दीयो ठठाइ॥
सब जगही मर जाइयौ, एक बड़इया जिनि मरै।
सब राँडनि कौ साथ चरषा को धारै॥
कहै कबीर सो पंडित ज्ञाता जो या पदही बिचारै।
पहलै परच गुर मिलै तौ पीछैं सतगुर तारे॥13॥
अब मोहि ले चलि नणद के बीर, अपने देसा।
इन पंचनि मिलि लूटी हूँ, कुसंग आहि बदेसा॥टेक॥
गंग तीर मोरी खेती बारी, जमुन तीर खरिहानाँ।
सातौं बिरही मेरे निपजैं, पंचूँ मोर किसानाँ॥
कहै कबीर यह अकथ कथा है, कहताँ कही न जाई।
सहज भाइ जिहिं ऊपजै, ते रमि रहै समाई॥14॥
अब हम सकल कुसल करि माँनाँ, स्वाँति भई तब गोब्यंद जाँनाँ॥ टेक ॥
तन मैं होती कोटि उपाधि, भई सुख सहज समाधि॥
जम थैं उलटि भये हैं राम, दुःख सुख किया विश्राँम॥
बैरी उलटि भये हैं मीता साषत उलटि सजन भये चीता॥
आपा जानि उलटि ले आप, तौ नहीं ब्यापै तीन्यूँ ताप॥
अब मन उलटि सनातन हूवा, तब हम जाँनाँ जीवन मूवा॥
कहै कबीर सुख सहज समाऊँ, आप न डरौं न और डराऊँ॥15॥
संतौं भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम की टाटी सबै उडाँणी, माया रहै न बाँधी॥टेक॥
हिति चित की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिंडा तूटा।
त्रिस्नाँ छाँति परि घर ऊपरि, कुबधि का भाँडाँ फूटा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी, निरचू चुवै न पाँणी॥
कूड़ कपट काया का निकस्या हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा, प्रेम हरि जन भींनाँ।
कहै कबीर माँन के प्रगटे उदित भया तम षींनाँ॥16॥
ब घटि प्रगट भये राम राई, साधि सरीर कनक की नाई॥टेक॥
नक कसौटी जैसे कसि लेइ सुनारा, सोधि सरीर भयो तनसारा॥
उपजत उपजत बहुत उपाई, मन थिर भयो तबै तिथि पाई॥
बाहरि षोजत जनम गँवाया, उनमनीं ध्यान घट भीतरि पाया।
बिन परचै तन काँच कबीरा, परचैं कंचन भया कबीरा॥17॥
हिंडोलनाँ तहाँ झूलैं आतम राम।
प्रेम भगति हिंडोलना, सब संतन कौ विश्राम॥टेक॥
चंद सूर दोइ खंभवा, बंक नालि की डोरि।
झूलें पंच पियारियाँ, तहाँ झूलै जीय मोर॥
द्वादस गम के अंतरा, तहाँ अमृत कौ ग्रास।
जिनि यह अमृत चाषिया, सो ठाकुर हम दास॥
सहज सुँनि कौ नेहरौ गगन मंडल सिरिमौर।
दोऊ कुल हम आगरी, जो हम झूलै हिंडोल॥
अरध उरध की गंगा जमुना, मूल कवल कौ घाट।
षट चक्र की गागरी, त्रिवेणीं संगम बाट।
नाद ब्यंद की नावरी, राम नाम कनिहार।
कहै कबीर गुण गाइ ले, गुर गँमि उतरौ पार॥18॥
कौ बीनैं प्रेम लागी री माई कौ बीन। राम रसाइण मातेरी, माई को
बीनैं॥टेक॥
पाई पाई तूँ पुतिहाई, पाई की तुरियाँ बेचि खाई री, माई कौ बीनैं॥
ऐसैं पाईपर बिथुराई, त्यूँ रस आनि बनायौ री, माई कौ बीनैं।
नाचैं ताँनाँ नाँचै बाँनाँ, नाचैं कूँ पुराना री, माई को बीनैं॥19॥
मैं बुनि करि सियाँनाँ हो राम, नालि करम नहीं
ऊबरे॥टेक॥
दखिन कूट जब सुनहाँ झूका, तब हम सगुन बिचारा।
लरके परके सब जागत है हम घरि चोर पसारा हो राम॥
ताँनाँ लीन्हाँ बाँनाँ लीन्हाँ, माँस चलवना डऊवा हो राम।
एक पग दोई पग त्रोपग, सँघ सधि मिलाई।
कर परपंच मोट बाँधि आये, किलिकिलि सबै मिटाई हो राम॥
ताँनाँ तनि करि बाँनाँ बुनि करि, छाक परी मोहि ध्याँन।
कहै कबीर मैं बुंनि सिराँना जानत है भगवाँनाँ हो राम॥20॥
तननाँ बुनना तज्या कबीर, राम नाम लिखि लिया शरीर॥टेक॥
जब लग भरौं नली का बेह, तब लग टूटै राम सनेह॥
ठाड़ी रोवै कबीर की माइ, ए लरिका क्यूँ जीवै खुदाइ।
कहै कबीर सुनहुँ री माई, पूरणहारा त्रिभुवन राइ॥21॥
जुगिया न्याइ मरै मरि जाइ।
धर जाजरौ बलीडौ टेढ़ौ, औलोती डर राइ॥टेक॥
मगरी तजौ प्रीति पाषे सूँ डाँडी देहु लगाइ।
छींको छोड़ि उपरहि डौ बाँधा, ज्यूँ जुगि जुगि रहौ समाइ।
बैसि परहडी द्वार मुँदावौं, ख्यावों पूत घर घेरी।
जेठी धीय सासरे पठवौं, ज्यूँ बहुरि न आवै फेरी॥
लहुरी धीइ सवै कुश धोयौ, तब ढिग बैठन माई।
कहै कबीर भाग बपरी कौ, किलिकिलि सबै चुकाँई॥22॥
मन रे जागत रहिये भाई।
गाफिल होइ बसत मति खोवै, चोर मूसै घर जाई॥टेक॥
षट चक की कनक कोठड़ी, बसत भाव है सोई।
ताला कूँजी कुलफ के लागे, उघड़त बार न होई॥
पंच पहरवा सोइ गये हैं, बसतै जागण लोगी।
करत बिचार मनहीं मन उपजी, नाँ कहीं गया न आया।
कहै कबीर संसा सब छूटा, राम रतन धन पाया॥23॥
चलन चलन सब को कहत है, नाँ जाँनौं बैकुंठ कहाँ
है॥टेक॥
जोजन एक प्रमिति नहिं जानै, बातन ही बैकुंठ बषानै।
जब लग है बैकुंठ की आसा, तब लग नाहीं हरि चरन निवासा॥
कहें सुनें कैसें पतिअइये, जब लग तहाँ आप नहिं जइये।
कहै कबीर बहु कहिये काहि, साध संगति बैकुंठहि आहि॥24॥
अपने विचारि असवारी कीजै, सहज के पाइड़े पाव जब दीजे॥टेक॥
दै मुहरा लगाँम पहिराँऊँ, सिकली जीन गगन दौराऊँ।
चलि बैकुंठ तोहि लै तारों, थकहि त प्रेम ताजनैं मारूँ॥
जन कबीर ऐसा असवारा, बेद कतेब दहूँ थैं न्यारा॥25॥
अपनैं मैं रँगि आपनपो जानूँ, जिहि रंगि जाँनि
ताही कूँ माँनूँ॥टेक॥
अभि अंतरि मन रंग समानाँ, लोग कहैं कबीर बौरानाँ।
रंग न चीन्हैं मुरखि लोई, जिह रँगि रंग रह्या सब कोई॥
जे रंग कबहूँ न आवै न जाई, कहै कबीर तिहिं रह्या समाई॥26॥
झगरा एक नवेरो राम, जें तुम्ह अपने जन सूँ काँम॥टेक॥
ब्रह्म बड़ा कि जिनि रू उपाया, बेद बड़ा कि जहाँ थैं आया।
यह मन बड़ा कि जहाँ मन मानै, राम बड़ा कि रामहि जान।
कहै कबीर हूँ खरा उदास, तीरथ बड़े कि हरि के दास॥27॥
दास रामहिं जानि है रे, और न जानै कोइ॥टेक॥
काजल दइ सबै कोई, चषि चाहन माँहि बिनाँन।
जिनि लोइनि मन मोहिया, ते लोइन परबाँन॥
बहुत भगति भौसागरा, नाँनाँ विधि नाँनाँ भाव।
जिहि हिरदै श्रीहरि, भेटिया, सो भेद कहूँ कहूँ ठाउँ॥
तरसन सँमि का कीजिये, जौ गुनहिं होत समाँन।
सींधव नीर कबीर मिल्यौ है, फटक न मिल पखाँन॥28॥
कैसे होइगा मिलावा हरि सनाँ, रे तू विषै विकार न तजि मनाँ॥टेक॥
रे तै जोग जुगति जान्याँ नहीं, तैं गुर का सबद मान्याँ नहीं।
गंदी देही देखि न फूलिये, संसार देखि न भूलिये॥
कहै कबीर राम मम बहु गुँनी, हरि भगति बिनाँ दुख फुनफुनी॥29॥
कासूँ कहिये सुनि
रामा, तेरा मरम न जानै कोई जी।
दास बबेकी सब भले, परि भेद न छानाँ होई जी॥टेक॥
ए सकल ब्रह्मंड तैं पूरिया, अरु दूजा महि थान जी।
राम रसाइन रसिक है, अद्भुत गति बिस्तार जी॥
भ्रम निसा जो गत करे, ताहि सूझै संसार जी॥
सिव सनकादिक नारदा, ब्रह्म लिया निज बास जी।
कहै कबीर पद पंक्याजा, अष नेड़ा चरण निवास जी॥30॥
मैं डोरै डारे जाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥टेक॥
सूत बहुत कुछ थोरा, ताथै, लाइ ले कंथा डोरा।
कंथा डोरा लागा, तथ जुरा मरण भौ भागा॥
जहाँ सूत कपास न पूनी, तहाँ बसै इक मूनी।
उस मूनीं सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मेरे डंड इक छाजा, तहाँ बसै इक राजा।
तिस राजा सूँ चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ बहु हीरा धन मोती, तहाँ तत लाइ लै जोती।
तिस जोतिहिं जोति मिलाँऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
जहाँ ऊगै सूर न चंदा, तहाँ देख्या एक अनंदा।
उस आनँद सूँ लौ लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
मूल बंध इक पावा, तहाँ सिध गणेश्वर रावाँ।
तिस मूलहिं मूल मिलाऊँगा, तौ मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥
कबीरा तालिब तेरा, जहाँ गोपत हरी गुर मोरा।
तहाँ हेत हरि चित लाऊँगा, तो मैं बहुरि न भौजलि आऊँगा॥31॥
संतौं धागा टूटा गगन बिनसि गया, सबद जु कहाँ
समाई।
ए संसा मोहि निस दिन व्यापै, कोइ न कहैं समझाई॥टेक॥
नहीं ब्रह्मंड पुँनि नाँही, पंचतत भी नाहीं।
इला प्यंगुला सुखमन नाँही, ए गुण कहाँ समाहीं।
नहीं ग्रिह द्वारा कछू नहीं, तहियाँ रचनहार पुनि नाँहीं।
जीवनहार अतीत सदा संगि, ये गुण तहाँ समाँहीं॥
तूटै बँधै बँधै पुनि तूटै, तब तब होइ बिनासा।
तब को ठाकुर अब को सेवग, को काकै बिसवासा॥
कहै कबीर यहु गगन न बिनसै, जौ धागा उनमाँनाँ।
सीखें सुने पढ़ें का कोई, जौ नहीं पदहि समाँना॥32॥
ता मन कौं खोजहु रे भाई, तन छूटे मन कहाँ समाई॥टेक॥
सनक सनंदन जै देवनाँमी भगति करी मन उनहुँ न जानीं।
सिव विरंचि नारद मुनि ग्यानी, यन का गति उनहुँ नहीं जानीं॥
धू प्रहिलाद बभीषन सेषा, तन भीतर मन उनहुँ न देषा।
ता मन का कोइ जानै भेव, रंचक लीन भया सुषदेव॥
गोरष भरथरी गोपीचंदा, ता मन सौं मिलि करै अनंदा।
अकल निरंजन सकल सरीरा, ता मन सौं मिलि रहा कबीरा॥33॥
भाई रे बिरले दोसत कबीरा के, यहु तत बार बार
काँसो कहिये।
भानण घड़ण सँवारण संम्रथ, ज्यूँ राषै त्यूँ रहिये॥टेक॥
आलम दुनों सबै फिरि खोजी, हरि बिन सकल अयानाँ।
छह दरसन छ्यानबै पाषंड, आकुल किनहुँ न जानाँ॥
जप तप संजम पूजा अरचा, जोतिग जब बीरानाँ।
कागद लिखि लिखि जगत भुलानाँ, मनहीं मन न समानाँ॥
कहै कबीर जोगी अरु, जंगम ए सब झूठी आसा।
गुर प्रसादि रटौ चात्रिग ज्यूँ, निहचैं भगति निवासा॥34॥
कितेक सिव संकर गये ऊठि, राम समाधि अजहूँ नहिं छूटि॥टेक॥
प्रलै काल कहुँ कितेक भाष, गये इंद्र से अगणित लाष।
ब्रह्मा खोजि परो गहि नाल, कहै कबीर वै राम निराल॥35॥
अच्यंत च्यंत ए माधौ, सो सब माँहिं समानाँ।
ताह छाड़ि जे आँन भजत हैं, ते सब भ्रंमि भुलाँनाँ॥टेक॥
ईस कहै मैं ध्यान न जानूँ, दुरलभ निज पद मोहीं।
रंचक करुणाँ कारणि केसो, नाम धरण कौं तोहीं॥
कहौ थौं सबद कहाँ थै आवै, अरु फिर कहाँ समाई।
सबद अतीत का मरम न जानै, भ्रंमि भूली दुनियाई॥
प्यंड मुकति कहाँ ले कीजै, जो पद मुकति न होई।
प्यंडै मुकति कहत हैं मुनि जन, सबद अतीत था सोई॥
प्रगट गुपत गुपत पुनि प्रगट, सो कत रहै लुकाई।
कबीर परमानंद मनाये, अथक कथ्यौ नहीं जाई॥36॥
सो कछू बिचारहु पंडित लोई, जाकै रूप न रेष बरण नहीं कोई॥टेक॥
उपजै प्यंड प्रान कहाँ थैं आवै, मूवा जीव जाइ कहाँ समावै।
इंद्री कहाँ करिहि विश्रामा, सो कत गया जो कहता रामा।
पंचतत तहाँ सबद न स्वादं, अलख निरंजन विद्या न बादं।
कहै कबीर मन मनहि समानाँ, तब आगम निगम झूठ करि जानाँ॥37॥
जौं पैं बीज रूप भगवाना, तौ पंडित का कथिसि
गियाना॥टेक॥
नहीं तन नहीं मन नहीं अहंकारा, नहीं सत रज तम तीनि प्रकारा॥
विष अमृत फल फले अनेक, बेद रु बोधक हैं तरु एक।
कहै कबीर इहै मन माना, कहिधूँ छूट कवन उरझाना॥38॥
पाँडे कौन कुमति तोहि लागी, तूँ राम न जपहि अभागी॥टेक॥
वेद पुरान पढ़त अस पाँडे खर चंदन जैसैं भारा।
राम नाम तत समझत नाँहीं, अंति पड़ै मुखि छारा॥
बेद पढ्याँ का यहु फल पाँडे, सब घटि देखैं रामा।
जन्म मरन थैं तौ तूँ छूटै, सुफल हूँहि सब काँमाँ॥
जीव बधत अरु धरम कहत हौ, अधरम कहाँ है भाई।
आपन तौ मुनिजन ह्नै बैठे, का सनि कहौं कसाई ॥
नारद कहै ब्यास व्यास यौं भाषैं, सुखदेव पूछौ जाई।
कहै कबीर कुमति तब छूटै, जे रहौ राम ल्यौ लाई ॥39॥
पंडित बाद बदंते झूठा।
राम कह्माँ दुनियाँ गति पावै, षाँड कह्माँ मुख मीठा ॥टेक॥
पावक कह्माँ मूष जे दाझैं, जल कहि त्रिषा बुझाई।
भोजन कह्माँ भूष जे भाजै, तौ सब कोई तिरि जाई ॥
नर कै साथि सूवा हरि बोलै, हरि परताप न जानै।
जो कबहूँ उड़ि जाइ जंगल में, बहुरि न सुरतै आनै ॥
साची प्रीति विषै माया सूँ, हरि भगतनि सूँ हासी।
कहै कबीर प्रेम नहीं उपज्यौ, बाँध्यौ जमपुरि जासी ॥40॥
जौ पै करता बरण बिचारै, तौ जनमत तीनि डाँड़ि किन सारै॥टेक॥
उतपति ब्यंद कहाँ थैं आया, जो धरी अरु लागी माया।
नहीं को ऊँचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताही का सींचा।
जे तूँ बाँभन बभनी जाया, तो आँन वाँट ह्नै काहे न आया।
जे तूँ तुरक तुरकनी जाया, तो भीतरि खतनाँ क्यूँ न कराया।
कहै कबीर मधिम नहीं कोई, सौ मधिम जा मुखि राम न होई ॥41॥
टिप्पणी:
ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
काहे कौ कीजै पाँडे छोति बिचारा।
छोतिहीं तै उपना सब संसारा॥टेक॥
हमारे कैसे लोहू तुम्हारै कैसे दूध।
तुम्ह कैसे बाँह्मण पाँडे हम कैसे सूद॥
छोति छोति करता तुम्हहीं जाए।
तौ ग्रभवास काहें कौं आए॥
जनमत छोत मरत ही छोति।
कहै कबीर हरि की बिमल जोति॥42॥
कथता बकता सुनता सोई, आप बिचारै सो ग्यानी होई
॥टेक॥
जैसे अगनि पवन का मेला, चंचल बुधि का खेला।
नव दरवाजे दसूँ दुवार,प बूझि रे ग्यानी ग्यान विचार॥
देहौ माटी बोलै पवनाँ, बूझि रे ज्ञानी मूवा स कौनाँ।
मुई सुरति बाद अहंकार, वह न मूवा जो बोलणहार॥
जिस कारनि तटि तीरथि जाँहीं, रतन पदारथ घटहीं माहीं।
पढ़ि पढ़ि पंडित बेद बषाँणै, भीतरि हूती बसत न जाँणै॥
हूँ न मूवा मेरी मुई बलाइ, सो न मुवा जौ रह्मा समाइ।
कहै कबीर गुरु ब्रह्म दिखाया, मरता जाता नजरि न आया ॥42॥
हम न मरैं मरिहैं संसारा, हँम कूँ मिल्या जियावनहारा ॥टेक॥
अब न मरौ मरनै मन माँना, ते मूए जिनि राम न जाँना।
साकत मरै संत जन जीवै, भरि भरि राम रसाइन पीवै ॥
हरि मरिहैं तौ हमहूँ मरिहैं, हरि न मरै हँम काहे कूँ मरिहैं।
कहै कबीर मन मनहि मिलावा, अमर भये सुख सागर पावा ॥43॥
कौन मरै कौन जनमै आई, सरग नरक कौने गति पाई
॥टेक॥
पंचतत अतिगत थैं उतपनाँ एकै किया निवासा।
बिछूरे तत फिरि सहज समाँनाँ, रेख रही नहीं आसा ॥
जल मैं कुंभ कुंभ मैं जल है, बाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समानाँ, यह तत कथौ गियानी ॥
आदै गगनाँ अंतै गगनाँ मधे गगनाँ माई।
कहै कबीर करम किस लागै, झूठी संक उपाई ॥44॥
कौन मरै कहू पंडित जनाँ, सो समझाइ कहौ हम सनाँ ॥टेक॥
माटी माटी रही समाइ, पवनै पवन लिया सँग लाइ ॥
कहै कबीर सुंनि पंडित गुनी, रूप मूवा सब देखै दुनी ॥45॥
जे को मरै मरन है मीठा, गुरु प्रसादि जिनहीं
मरि दीठा ॥टेक॥
मुवा करता मुई ज करनी, मुई नारि सुरति बहु धरनी।
मूवा आपा मूवा माँन, परपंच लेइ मूवा अभिमाँन ॥
राम रमे रमि जे जन मूवा, कहै कबीर अविनासी हुआ ॥46॥
जस तूँ तस तोहि कोइ न जान, लोग कहै सब आनहिं आँन ॥टेक॥
चारि बेद चहुँ मत का बिचार इहि भ्रँमि भूलि परो संसार।
सुरति सुमृति दोइ कौ बिसवास, बाझि परौं सब आसा पास॥
ब्रह्मादिक सनाकादिक सुर नर, मैं बपुरो धूँका मैं का कर।
जिहि तुम्ह तारौ सोई पै तिरई, कहै कबीर नाँतर बाँध्यौ मरई ॥47॥
लोका तुम्ह ज कहत हौ नंद कौ, नंदन नंद कहौ धुं
काकौ रे।
धरनि अकास दोऊ नहीं होते, तब यहु नंद कहाँ थौ रे ॥टेक॥
जाँमैं मरै न सँकुटि आवै, नाँव निरंजन जाकौ रे।
अबिनासी उपजै नहिं बिनसै, संत सुजस कहैं ताकौ रे ॥
लष चौरासी जीव जंत मैं भ्रमत नंदी थाकौ रे।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसो, भगति करै हरि ताकौ रे ॥48॥
निरगुण राँम निरगुण राँम जपहु रे भाई, अबिगति की गति लखी न जाई ॥टेक॥
चारि बेद जाको सुमृत पुराँनाँ नौ ब्याकरनाँ मरम न जाँनाँ ॥
चारि बेद जाकै गरड समाँनाँ, चरन कवल कँवला नहीं जाँनाँ ॥
कहै कबीर जाकै भेदै नाँहीं, निज जन बैठे हरि की छाहीं ॥49॥
मैं सबनि मैं औरनि मैं हूँ सब।
मेरी बिलगि बिलगि बिलगाई हो,
कोई कहो कबीर कहो राँम राई हो ॥टेक॥
नाँ हम बार बूढ़ नाही, हम ना हमरै चिलकाई हो।
पठए न जाऊँ अरवा नहीं आऊँ सहजि रहूँ हरिआई हो ॥
वोढन हमरे एक पछेवरा, लोक बोलै इकताई हो ॥
जुलहे तनि बुनि पाँनि न पावल, फार बुनि दस ठाँई हो ॥
त्रिगुँण रहित फल रमि हम राखल, तब हमारौ नाउँ राँम राई हो ॥
जग मैं देखौं जग न देखै मोहि, इहि कबीर कछु पाई हो ॥50॥
टिप्पणी:
ख-ना हम बार बूढ़ पुनि नाँही।
लोका जानि न भूलौ भाई।
खालिक खलक खलक मैं खालिक, सब घट रहौ समाई ॥टेक॥
अला एकै नूर उपनाया, ताकी कैसी निंदा।
ता नूर थै सब जग कीया, कौन भला कौन मंदा ॥
ता अला की गति नहीं जाँनी गुरि गुड़ दीया मीठा ॥
कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहिब दीठा ॥51॥
राँम मोहि तारि कहाँ लै जैहो।
सो बैकुंठ कहौ धूँ कैसा, करि पसाव मोहि दैहो ॥टेक॥
जे मेरे जीव दोइ जाँनत हौ, तौ मोहि मुकति बताओ।
एकमेक रमि रह्मा सबनि मैं, तो काहे भरमावै॥
तारण तिरण जबै लग कहिये, तब लग तत न जाँनाँ।
एक राँम देख्या सबहिन मैं कहै कबीर मन माँनाँ ॥52॥
सोहं हंसा एक समान, काया के गुँण आँनही आन ॥टेक॥
माटी एक सकल संसार, बहुबिधि भाँडे घड़ै कुँभारा।
पंच बरन दस दुहिये गाइ, एक दूध देखौ पतिआइ।
कहै कबीर संसा करि दूरि त्रिभवननाथ रह्या भरपूर ॥53॥
प्यारे राँम मनहीं मनाँ।
कासूँ कहूँ कहन कौं नाहीं, दूसरा और जनाँ॥टेक॥
ज्यूँ दरपन प्रतिब्यंब देखिये आप दवासूँ सोई।
संसौ मिट्यौ एक कौ एकै, महा प्रलै जब होई॥
जौ रिझाऊँ तौ महा कठिन है, बिन रिझायैं थैं सब खोटी।
कहै कबीर तरक दोइ साधै, ताकी मति है मोटी॥54॥
हँम तौ एक एक करि जाँनाँ।
दोइ कहै तिनही कौं दोजग, जिन नाँहिन पहिचाँनाँ॥टेक॥
एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा।
एक ही खाक घड़े सब भाँडे, एक ही सिरजनहारा॥
जैसै बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई॥
सब घटि अंतरि तूँहीं व्यापक, धरै सरूपै सोई॥
माया मोहे अर्थ देखि करि, काहै कूँ गरबाँनाँ॥
निरभै भया कछू नाहिं ब्यापै, कहै कबीर दिवाँनाँ॥55॥
अरे भाई दोइ कहा सो मोहि बतायौ, बिचिही भरम का
भेद लगावौ॥टेक॥
जोनि उपाइ रची द्वै धरनीं दीन एक बीच भई करनी।
राँम रहीम जपत सुधि गई, उनि माला उनि तसबी लई॥
कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिंदू॥56॥
ऐसा भेद बिगूचन भारी। बेद कतेब दीन अरु दुनियाँ, कौन पुरिषु
कौननारी॥टेक॥
एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाँम एक चाँम एक गूदा।
एक जोति थैं सब उतपनाँ, कौन बाँम्हन कौन सूदा॥
माटी का प्यंड सहजि उतपनाँ, नाद रु ब्यंद समाँनाँ।
बिनसि गयाँ थै का नाँव धरिहौ, पढ़ि गुनि हरि भ्रँन जाँना॥
रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर, सत गुन हरि है सोई।
कहै कबीर एक राँम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई॥57॥
हँमारे राँम रहीम करीमा केसो, अलाह राँम सति
सोई।
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई॥टेक॥
इनके काजी मूलाँ पीर पैकंबर, रोजा पछिम निवाजा।
इनकै पूरब दिसा देव दिज पूजा, ग्यारसि गंग दिवाजा॥
तुरक मसीति देहुरै हिंदू, दहूँठा राँम खुदाई।
जहाँ मसीति देहुरा नाहीं, तहाँ काकी ठकुराई॥
हिंदू तुरक दोऊ रह तूटी, फूटी अरु कनराई।
अरध उरथ दसहूँ दिस जित तित, पूरि रह्या राम राई॥
कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी रहि चलि भाई॥
हिंदू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥58॥
काजी कौन कतेब बषांनै।
पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानैं॥टेक॥
सकति से नेह पकरि करि सुंनति, बहु नबदूँ रे भाई।
जौर षुदाई तुरक मोहिं करता, तौ आपै कटि किन जाई॥
हौं तौ तुरक किया करि सुंनति, औरति सौ का कहिये।
अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिंदू रहिये॥
छाँड़ि कतेब राँम कहि काजी, खून करत हौ भारी।
पकरी टेक कबीर भगति की, काजी रहै झष मारी॥59॥
मुलाँ कहाँ पुकारै दूरि, राँम रहीम रह्या
भरपूरि॥टेक॥
यहु तौ अलहु गूँगा नाँही, देखे खलक दुनी दिल माँही॥
हरि गुँन गाइ बंग मैं दीन्हाँ, काम क्रोध दोऊ बिसमल कीन्हाँ।
कहै कबीर यह मुलना झूठा, राम रहीम सबनि मैं दीठा॥60॥
पढ़ि ले काजी बंग निवाजा, एक मसीति दसौं दरवाजा॥टेक॥
मन करि मका कबिला करि देही, बोलनहार जगत गुर येही॥
उहाँ न दोजग भिस्त मुकाँमाँ, इहाँ ही राँम इहाँ रहिमाँनाँ॥
बिसमल ताँमस भरम कै दूरी, पंचूँ भयि ज्यूँ होइ सबूरी॥
कहै कबीर मैं भया दीवाँनाँ, मनवाँ मुसि मुसि सहजि समानाँ॥61॥
टिप्पणी: ख-मन करि मका कबिला कर देही।
राजी समझि राह गति येही॥
मुलाँ कर ल्यौ न्याव खुदाई, इहि बिधि जीव का
भरम न जाई॥टेक॥
सरजी आँनैं देह बिनासै, माटी बिसमल कींता।
जोति सरूपी हाथि न आया, कहौ हलाल क्या कीता॥
बेद कतेब कहौ क्यूँ झूठा, झूठा जोनि बिचारै।
सब घटि एक एक करि जाँनैं, भौं दूजा करि मारै॥
कुकड़ी मारै बकरी मारै, हक हक हक करि बोलै।
सबै जीव साईं के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै॥
दिल नहीं पाक पाक नहीं चीन्हाँ, उसदा षोजन जाँनाँ।
कहै कबीर भिसति छिटकाई, दोजग ही मन माँनाँ॥62॥
टिप्पणी:
ख-उसका खोज न जाँनाँ।
या करीम बलि हिकमति तेरी। खाक एक सूरति बहु तेरी॥टेक॥
अर्थ गगन में नीर जमाया, बहुत भाँति करि नूरनि पाया॥
अवलि आदम पीर मुलाँनाँ, तेरी सिफति करि भये दिवाँनाँ॥
कहै कबीर यहु हत बिचारा, या रब या रब यार हमाराँ॥63॥
काहे री नलनी तूँ कुम्हिलाँनीं, तेरे ही नालि
सरोवर पाँनी॥टेक॥
जल मैं उतपति जल में बास, जल में नलनी तोर निवास।
ना तलि तपति न ऊपरि आगि, तोर हेतु कहु कासनि लागि॥
कहैं कबीर से उदिक समान, ते नहीं मूए हँमरे जाँन॥64॥
इब तूँ हास प्रभु में कुछ नाँहीं, पंडित पढ़ि अभिमाँन नसाँहीं॥टेक॥
मैं मैं मैं जब लग मैं कीन्हा, तब लग मैं करता नहीं चीन्हाँ।
कहै कबीर सुनहु नरनाहा, नाँ हम जीवत न मूँवाले माहाँ॥65॥
अब का डरौं डर डरहि समाँनाँ, जब थैं मोर तोर
पहिचाँनाँ॥टेक॥
जब लग मोर तोर करि लीन्हां, भै भै जनमि जनमि दुख दीन्हा॥
अगम निगम एक करि जाँनाँ, ते मनवाँ मन माँहि समाना॥
जब लग ऊँच नीच कर जाँनाँ, ते पसुवा भूले भ्रँम नाँनाँ।
कहि कबीर मैं मेरी खोई, बहि राँम अवर नहीं कोई॥66॥
बोलनाँ का कहिये रे माई बोलत बोलत तत नसाई॥टेक॥
बोलत बोलत बढ़ै बिकारा, बिन बोल्याँ क्यूँ होइ बिचारा॥
संत मिलै कछु कहिये कहिये, मिलै असंत पुष्टि करि रहिये॥
ग्याँनी सूँ बोल्या हितकारी, मूरिख सूँ बोल्याँ झष मारी॥
कहै कबीर आधा घट डोलै, भर्या होइ तौ मुषाँ न बोलै॥67॥
बागड़ देस लूचन का घर है, तहाँ जिनि जाइ दाझन
का डर है॥टेक॥
सब जग देखौं कोई न धीरा, परत धूरि सिरि कहत अबीरा॥
न तहाँ तरवर न तहाँ पाँणी, न तहाँ सतगुर साधू बाँणी॥
न तहाँ कोकिला न तहाँ सूवा, ऊँचे चढ़ि चढ़ि हंसा मूवा॥
देश मालवा गहर गंभीर डग डग रोटी पग पग नीर॥
कहैं कबीर घरहीं मन मानाँ, गूँगै का गुड़ गूँगै जानाँ॥68॥
अवधू जोगी जग थैं न्यारा; मुद्रा निरति सुरति करि सींगी, नाद न षंडै
धारा॥टेक॥
बसै गगन मैं दुनीं न देखै, चेतनि चौकी बैठा।
चढ़ि अकास आसण नहीं छाड़ै, पीवै महा रस मीठा॥
परगट कंथाँ माहैं जोगी दिल मैं दरपन जीवै।
सहँस इकीस छ सै धागा, निहचल नाकै पीवै॥
ब्रह्म अगनि मैं काया जारै, त्रिकुटी संगम जागै।
कहै कबीर सोई जोगेश्वर, सहज सुंनि ल्यौ लागौ॥69॥
अवधू गगन मंडल घर कीजै, अमृत झरै सदा सुख
उपजै, बंक नालि रस पीजै॥टेक॥
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमन यों तन लागी।
काम क्रोध दोऊ भया पलीता, तहँ जोनणीं जागी॥
मनवाँ जाइ दरीबै बैठा, गगन भया रसि लागा।
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, सबद अनाहद बागा॥70॥
कोई पीवै रे रस राम नाम का, जो पीवै सो जोगी रे।
संतौ सेवा करौ राम की, और न दूजा भोगी रे॥टेक॥
यहु रस तौ सब फीका भया, ब्रह्म अगनि परजारी रे।
ईश्वर गौरी पीवन लागे, राँम तनीं मतिवारी रे॥
चंद सूर दोइ भाठी कीन्ही सुषमनि चिगवा लागी रे।
अंमृत कूँ पी साँचा पुरया, मेरी त्रिष्णाँ भागी रे॥
यहु रस पीवै गूँगा गहिला, ताकी कोई न बूझै सार रे।
कहै कबीर महा रस महँगा, कोई पीवेगा पीवणहार रे॥71॥
टिप्पणी:
ख-चंद सूर दोइ किया पयाना।
उनमनि चढ्या महारस पीवै।
अवधू मेरा मन मतिवारा, उन्मनि चढ़ा मगन रस पीवै त्रिभवन भया
उजियारा॥टेक॥
गुड़ करि ग्यान ध्याँन कर महुवा भव भाठी करि भारा॥
सुषमन नारी सहजि समानी, पीयै पीवनहारा॥
दोइ पुड़ जोड़ि चिगाई भाठी, चुया महा रस भारी॥
काम क्रोध दोइ किया पलीता, छुटि गई संसारी॥
सुंनि मंडल मैं मँदला बाजै, तहाँ मेरा मन नाचै।
गुर प्रसादि अमृत फल पाया, सहजि सुषमनाँ काछै॥
पूरा मिल्या तबैं सुख उपज्यौ, तन की तपनि बुझानी।
कहै कबीर भवबंधन छूटै, जोतिहिं जोति समानी॥72॥
टिप्पणी:
ख-पूरा मिल्या तबै सुष उपनाँ॥
छाकि परो आतम मतिवारा, पीवत राँम रस करत बिचारा॥टेक॥
बहुत मोलि महँगे गुड़ पावा, लै कसाब रस राँम चुवावा॥
तन पाटन मैं कीन्ह पसारा, माँगि माँगि रस पीवै बिचारा॥
कहै कबीर फाबी मतिवारी, पीवत राम रस लगी खुमारी॥73॥
बोलौ भाई राम की दुहाई,
इहि रसि सिव सनकादिक माते, पीवत अजहूँ न अघाई॥टेक॥
इला प्यंगुला भाठी कीन्हीं, ब्रह्म अगनि परजारी।
ससि हरसूर द्वार दस मूँदें, लागी जोग जुग तारी॥
मन मतिवाला पीवै राँम रस, दूजा कछू न सुहाई।
उलटी गंग नीर बहि आया, अमृत धार चुवाई॥
पंच जने सो सँग करि लीन्हें, चलत खुमारी लागी।
प्रेम पियालै पीवन लागे, सोवत नागिनी जागी॥
सहज सुंनि मैं जिनि रस चाष्या सतगुर थैं सुधि पाई॥
दास कबीर इही रसि माता, कबहुँ उछकि न जाई॥74॥
राम रस पाईया रे, ताथैं बिसरि गये रस और॥टेक॥
रे मन तेरा को नहीं खैंचि लेइ जिनि भार।
विरषि बसेरा पंषि का, ऐसा माया जाल॥
और मरत को रोइए, जो आपा थिर न रहाइ।
जो उपज्या सो बिन सिहै ताथैं दुख करि मरै बलाइ।
जहाँ उपज्या तहाँ फिरि रच्या रे, पीवत मरदन लाग॥
कहै कबीर चित चेतिया, ताथैं राम सुमरि बैराग॥75॥
राम चरन मनि भाये रे।
अस ढरि जाहु राम के करहा, प्रेम प्रीतिल्यौ लाये रे॥टेक॥
आँब चढ़ी अँबली रे अँबली बबूर चढ़ी नगबेली रे।
द्वै रथ चढ़ि गयौ राँड कौ करहा, मन पाटी की सैली रे॥
कंकर कूई पतालि पनियाँ, सूनै बूँद बिकाई रे।
बजर परौ इति मथुरा नगरी, काँन्ह पियासा जाई रे॥
एक दहिड़िया दही जमायौ, दूसरी परि गई साई रे॥
न्यूँति जिमाऊ अपनौ करहा छार मुनिस कौ डारी रे।
इहि बँनि बाजै मदन भेरि रे, उहि बँनि बाजे तूरा रे।
इहि बँनि खेले राही रुकमनि, उहिं बनि कान्हा अहीरा रे।
आसि पासि तुरसी कौ बिरवा, माँहि द्वारिका गाँऊ रे।
तहाँ मेरो ठाकुर राम राइ है, भगत कबीरा नाऊँ रे॥76॥
थिर न रहै चित थिर न रहै, च्यंतामणि तुम्ह कारणि हौ।
मन मैले मैं फिर फिर आहौं, तुम सुनहु न दुख बिसरावन हो॥टेक॥
प्रेम खटोलवा कसि कसि बाँध्यो, बिरह बान तिहि लागू हो।
तिहि चढ़ि इँदऊ करत गवँसिया, अंतर जमवा जागू हो॥
महरु मछा मारि न जाँनै, गहरै पैठा धाई हो।
दिन इक मगरमछ लै खैहै, तब को रखिहै बंधन भाई हो॥
महरू नाम हरइये जाँनै, सबब न बूझै बौरा हो।
चारै लाइ सकल जग खायो, तऊ न भेट निसहरा हो॥
जो महराज चाहौ महरईये, तो नाथौ ए मन बौरा हो।
तारी लाइकैं सिष्टि बिचारौ, तब गाहि भेटि निसहुरा हो॥
टिकुटि भइ काँन्ह के कारणि, भ्रमि भ्रमि तीरथ कीन्हाँ हो।
सो पद देहु मोरि मदन मनोहर, जिहि पदि हरि मैं चीन्हाँ हो॥
दास कबीर कीन्ह अस गहरा, बूझै कोई महरा हो।
यह संसार जात मैं देखौं, ठाढ़ौ रहौ कि निहुरा हो॥77॥
बीनती एक राम सुनि थोरी, अब न बचाइ राखि पति
मोरी॥टेक॥
जैसैं मंदला तुमहि बजावा, तैसैं नाचत मैं दुख पावा॥
जे मसि लागी सबै छुड़ावौ, अब मोहिं जनि बहु रूप कछावौ॥
कहैं कबीर मेरी नाच उठावौ, तुम्हारे चरन कँवल दिखलावो॥78॥
मन थिर रहै न घर है मेरा, इन मन घर जारे बहुतेरा॥टेक॥
घर तजि बन बाहरि कियौ बास, घर बने देखौं दोऊ निरास॥
जहाँ जाँऊँ तहाँ सोग संताप, जुरा मरण कौ अधिक बियाप॥
कहै कबीर चरन तोहि बंदा, घर मैं घर दे परमानंदा॥79॥
कैसे नगरि करौं कुटवारी, चंचल पुरिष बिचषन
नारी॥टेक॥
बैल बियाइ गाइ भई बाँझ, बछरा दूहै तीन्यूँ साँझ॥
मकड़ी धरि माषी छछि हारी, मास पसारि चीन्ह रखवारी॥
मूसा खेटव नाव बिलइया, मीडक सोवै साप पहरइया॥
निति उठि स्याल स्यंघ सूँ झूझै, कहै कबीर कोई बिरला बूझै॥80॥
माई रे चूँन बिलूँटा खाई, वाघनि संगि भई सबहिन कै, खसम न भेद
लहाई॥टेक॥
सब घर फोरि बिलूँटा खायौ, कोई न जानैं भेव।
खसम निपूतौ आँगणि सूतौ, राँड न देई लेव॥
पाडोसनि पनि भई बिराँनी, माँहि हुई घर घालै।
पंच सखी मिलि मंगल गाँवैं, यह दुख याकौं सालै॥
द्वै द्वै दीपक धरि धरि जोया, मंदिर सादा अँधारा।
घर घेहर सब आप सवारथ, न हरि किया पसारा॥
होत उजाड़ सबै कोई जानै, सब काहू मनि भावै।
कहै कबीर मिलै जौ सतगुर, तौ यहु चून छुड़ावै॥81॥
टिप्पणी:
ख-खसम न भेद लषाई।
विषिया अजहू सख आसा, हूँण न देइ हरि के चरन
निवासा॥टेक॥
सुख माँगे दुख पहली आवै, तातै सुख माँग्याँ नहीं भावै॥
जा सुख थें सिव बिरंचि डराँनाँ, सो मुख हमहु साच करि जाना।
सुखि छ्या ड्या तब सब दुख भागा, गुर के सबद मेरा मन लागा॥
निस बासुरि विषैतनाँ उपगार, विषई नरकि न जाताँ बार।
कहैं कबीर चंचल मति त्यागी, तब केवल राम नाम त्यौं लागी॥82॥
टिप्पणी:
ख-हौन देई न हरि के चरन निवास॥
तुम्ह गारडू मैं विष का माता, कहै न जिवावौ मेरे अमृतदाता॥टेक॥
संसार भवंगम डसिले काया, अरु दुखदारन व्यापै तेरी माया॥
सापनि क पिटारै जागे, अह निसी रोवै ताकूँ फिरि फिरि लागैं।
कहै कबीर को को नहीं राखे, राम रसाँइन जिनि जिनि चाखे॥83॥
माया तजूँ तजी नहीं जाइ, फिर फिर माया मोहे
लपटाइ॥टेक॥
माया आदर माया मान, माया नहीं तहाँ ब्रह्म गियाँन॥
माया रस माया कर जाँन, माया करनि ततै परान॥
माया जप तप माया जोग, माया बाँधे सबही लोग॥
माया जल थलि माया आकासि, माया व्यापि रही चहुँ पासि॥
माया माता माया पिता, असि माया अस्तरी सुता॥
माया मारि करै व्यौहार, कहैं कबीर मेरे राम अधार॥84॥
ग्रिह जिनि जाँनी रूड़ौ रे।
कंचन कलस उठाइ लै मंदिर, राम कहै बिन धूरौ रे॥टेक॥
इन ग्रिह मन डहके सबहिन के, काहू कौ पर्यो न पूरौ रे॥
राजा राणाँ राव छत्रापति, जरि भये भसम कौं कूरौ रे॥
सबथैं नीकौ संत मँडलिया, हरि भगतनि कौं भेरौ रे॥
गोविंद के गुन बैठे गैहैं, खैहैं, टूकौ टेरौ रे॥
ऐसौं जानि जाँपौं जगजीवन, जग सूँ तिनका तोरौं रे॥
कहै कबीर राम भजबे कौं, एक आध कोई सूरौ रे॥85॥
रजसि मीन देखी बहु पानी, काल जाल की खबरि न
जानी॥टेक॥
गारै गरबनौ औघट घाट, सो जल छाड़ि बिकानौं हाट॥
बँध्यो न जानैं जल उदमादि, कहै कबीर सब मोहे स्वादि॥86॥
काहै रे मन दह दिस धावै, विषिया संगि संतोष न पावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ कलपैं तहाँ बंधना, तरन कौ थाल कियौं तैं रथनाँ॥
जौ पै सुख पइयत इन माँही, तौ राज छाड़ि कत बन कौं जाँहीं॥
आनँद सहत तजौ विष नारी, अब क्या झीषै पतित भिषारी॥
कहै कबीर यहु सुख दिन चारि, तजि विषिया भजि चरन मुरारि॥87॥
जियरा जाहि गौ मैं जाँनाँ, जो देखा सो बहुरि न
पेष्या माटी सूँ लपटाँनाँ॥टेक॥
बाक्ल बसतर किया पहरिबा, का तप बनखंडि बास॥
कहा मूगध रे पाँहन पूजै, काजल डारै गाता॥
कहै कबीर सुर मुनि उपदेसा, लोका पंथि लगाई॥
सुनौ संतौ सुमिरौ भगत जन, हरि बिन जनम गवाई॥88॥
हरि ठग जग कौ ठगौरी लाई, हरि कै वियोग कैसे जीऊँ मेरी माई॥टेक॥
कौन पूरिष कौ काकी नारी, अभिअंतरि तुम्ह लेहु बिचारी॥
कौन पूत को काको बाप, कौन मरैं कौन करै संताप॥
कहै कबीर ठग सौं मन माना, गई ठगौरी ठग पहिचाना॥89॥
साईं मेरे साजि दई एक डोली, हस्त लोक अरु मैं
तैं बोली॥टेक॥
हक झंझर सम सूत खटोला, त्रिस्ना बाद चहुँ दिसि डोला॥
पाँच कहार का भरम न जाना, एकै कह्या एक नहीं माना॥
भूमर थाम उहार न छावा, नैहर जात बहुत दुख पावा॥
कहै कबीर बन बहुत दुख सहिये, राम प्रीति करि संगही रहिये॥90॥
टिप्पणी:
कहै कबीर बहुत दुख सहिये॥
बिनसि जाइ कागद की गुड़िया, जब लग पवन तबै उग उड़िया॥टेक॥
गुड़िया कौ सबद अनाहद बोलै, खसम लियै कर डोरी डोलै॥
पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी, सीस धनै धुनि रोवै प्राँनी।
कहै कबीर भजि सारँगपानी, नाहीं तर ह्नैहै खैंचा तानी॥91॥
मन रे तन कागद का पुतला।
लागै बूँद बिनसि जाइ छिन में, गरब कर क्या इतना॥टेक॥
माटी खोदहिं भीत उसारैं, अंध कहै घर मेरा॥
आवै तलब बाँधि लै चालैं, बहुरि न करिहै फेरा॥
खोट कपट करि यहु धन जोर्या, लै धरती मैं गाड्यौ॥
रोक्यो घटि साँस नहीं निकसै, ठौर ठौर सब छाड्यौ॥
कहै कबीर नट नाटिक थाके, मदला कौन बजावै॥
गये पषनियाँ उझरी बाजी, को काहू कै आवै॥92॥
झूठे तन कौ कहा रखइये, मरिये तौ पल भरि रहण न पइये॥टेक॥
षीर षाँढ़ घृत प्यंउ सँवारा, प्राँन गये ले बाहरि जारा॥
चोवा चंदन चरनत अंगा, सो तन जरै काठ के संगा॥
दास कबीर यहु कीन्ह बिचारा, इक दिन ह्नैहै हाल हमारा॥93॥
देखहुक यह तन जरता है, घड़ी पहर बिलँबौ रे भाई
जरता है॥टेक॥
काहै कौ एता किया पसारा, यह तन जरि करि ह्नैहै छारा॥
नव तन द्वादस लागा आगि, मुगध न चेतै नख सिख जागी॥
काम क्रोध घट भरे बिकारा, आपहिं आप जरै संसारा॥
कहै कबीर हम मृतक समाँनाँ, राम नाम छूटै अभिमाना॥94॥
तन राखनहारा को नाहीं, तुम्ह सोच विचारि देखौ मन माँही॥टेक॥
जोर कुटुंब आपनौ करि पारौं, मुंड ठोकि ले बाहरि जारौं॥
दगाबाज लूटैं अरु रोवै, जारि गाडि षुर षोजहिं षोवै॥
कहत कबीर सुनहुँ रे लोई, हरि बिन राखनहार न कोई॥95॥
अब क्या सोचै आइ बनी, सिर पर साहिब राम
धनी॥टेक॥
दिन दिन पाप बहुत मैं कीन्हा, नहीं गोब्यंद की संक मनीं॥
लेट्यो भोमि बहुत पछितानी, लालचि लागौ करत धनीं॥
छूटी फौज आँनि गढ़ घेरौं, उड़ि गयौ गूडर छाड़ि तनीं॥
पकरौं हंस जम ले चाल्यौ मंदिर रोवै नारि धनीं॥
कहै कबीर राम कित सुमिरत, चीन्हत नाहिन एक चिनी॥
जब जाइ आइ पड़ोसी घेरौं, छाँड़ि चल्यौ तजि पुरिष पनीं॥96॥
सुबटा डरपत रहु मेरे भाई, तोहि डर ई देत बिलाई॥
तीनि बार रूँधै इक दिन मैं, कबहुँ कै खता खवाई॥टेक॥
या मंजारी मुगध न माँनै, सब दुनियाँ डहकाई॥
राणाँ राव रंक कौ व्यापै, करि करि प्रीति सवाई॥
कहत कबीर सुनहुँ रे सुबटा, उबरै हरि सरनाई॥
लाषौ माँहि तै लेत अचानक, काह न देत दिखाई॥97॥
का माँगूँ कुछ थिर न रहाई, देखत नैन चल्या जग
जाई॥ टेक॥
इक लष पूत सवा लष नाती, ता रावन घरि दिया न बाती॥
लंका सी कोट समंद सी खाई, ता रावन का खबरि न पाई॥
आवत संग जात सँगाती, कहा भयौ दरि बाँधे हाथी॥
कहै कबीर अंत की बारी, हाथ झाड़ि जैसे चले जुवारी॥98॥
राम थोरे दिन को का धन करना, धंधा बहुत निहाइति मरना॥टेक॥
कोटि धज साह हस्ती बँधी राजा, क्रिपन को धन कौनें काजा॥
धन कै गरबि राम नहीं जाना, नागा ह्नै जंम पै गुदराँनाँ॥
कहै कबीर चेतहु रे भाई, हंस गया कछु संगि न जाई॥99॥
काह कूँ माया दुख करि जोरी, हाथि चूँन गज पाँच
पछेवरी॥टेक॥
नाँ को बँध न भाई साँथी, बाँधे रहे तुरंगम हाथी॥
मैड़ो महल बावड़ी छाजा, छाड़ि गये सब भूपति राजा॥
कहै कबीर राम ल्यौ लाई, धरी रही माया काहू खाई॥100॥
टिप्पणी:
ख-मैडा पहल अरु सोभित छाजा।
माया का रस षाण न पावा, तह लग जम बिलवा ह्नै धावा॥टेक॥
अनेक जतन करि गाड़ि दुराई, काहू साँची काहू खाई॥
तिल तिल करि यहु माया जोरी, चलति बेर तिणाँ ज्यूँ तासी॥
कहै कबीर हूँ ताँका दास, माया माँहैं रहैं उदास॥101॥
मेरी मेरी दुनिया करते, मोह मछर तन धरते,
आगै पीर मुकदम होते, वै भी गये यौं करते॥टेक॥
जिसकी ममा चचा पुनि किसका, किसका पंगड़ा जोई॥
यहु संसार बजार मंड्या है, जानैगा जग कोई॥
मैं परदेसी काहि पुकारौं, इहाँ नहीं को मेरा॥
यहु संसार ढूँढ़ि सब देख्या, एक भरोसा तेरा॥
खाँह हलाल हराँम निवारै, भिस्त भिस्त तिनहू कौं होई॥
पंच तत का भरम न जानै दो जगि पड़िहै सोई॥
कुटुंब कारणि पाप कमावै, तू जाँणै घर मेरा॥
ए सब मिले आप सवारथ, इहाँ नहीं को तेरा॥
सायर उतरौ पंथ सँवारौ, बुरा न किसी का करणाँ॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, ज्वाब खसम कूँ भरणा॥102॥
टिप्पणी:
ख-मेरी मेरी सब जग करता।
रे यामै क्या मेरा क्या तेरा, लाज न मरहि कहत घर मेरा॥टेक॥
चारि पहर निस भोरा, जैसे तरवर पंखि बसेरा॥
जैसैं बनियें हाट पसारा, सब जग का सो सिरजनहारा॥
ये ले जारे वै ले गाड़े, इनि दुखिइनि दोऊ घर
छाड़े॥
कहउ कबीर सुनहु रे लोई, हम तुम्ह बिनसि रहैगा सोई॥103॥
नर जाँणै अमर मेरो काया, घर घर बात दुपहरी
छाया॥टेक॥
मारग छाड़ि कुमारग जीवै, आपण मरैं और कूँ रोवै॥
कछू एक किया एक करणा, मुगध न चेतै निहचै मरणाँ॥
ज्यूँ जल बूँद तैसा संसारा उपजत, बिनसत लागै न बारा॥
पंच पँषुरिया एक सरीरा, कृष्ण केवल दल भवर कबीरा॥104॥
टिप्पणी:
ख-मुगध न देखे॥
मन रे अहरषि बाद न कीजै, अपनाँ सुकृत भरि भरि लीजै॥टेक॥
कुँभरा एक कमाई माटी, बहु विधि जुगाति बणाई॥
एकनि मैं मुक्ताहल मोती, एकनि ब्याधि लगाई॥
एकनि दीना पाट पटंबर एकनि सेज निवारा॥
एकनि दोनों गरै कुदरी, एकनि सेज पयारा॥
साची रही सूँम की संपति, मुगध कहै यहु मेरी॥
अंत काल जब आइ पहुंचा, छिन में कीन्ह न बेरी॥
कहत कबीर सुनौ रे संतो, मेरी मेरी सब झूठी॥
चड़ा चौथा चूहड़ा ले गया तणी तणगती टूटी॥105॥
हड़ हड़ हड़ हड़ हसती है, दीवाँनपनाँ क्या करती
है।
आड़ी तिरछी फिरती है, क्या च्यौं च्यौं म्यौं म्यौं करती है॥
क्या तूँ रंगी क्या तूँ चंगी, क्या सुख लौड़ै कीन्हाँ॥
मीर मुकदम सेर दिवाँनी, जंगल केर षजीना।
भूले भरमि कहा तुम्ह राते, क्या मदुमाते माया॥
राम रंगि सदा मतिवाले, काया होइ निकाया॥
कहत कबीर सुहाग सुंदरी, हरि भजि ह्नै निस्तारा॥
सारा षलक खराब किया है, माँनस कहा बिचारा॥106॥
हरि के नाँइ गहर जिनि करऊँ, राम नाम चित मूखा न धरऊँ॥टेक॥
जैसे सती तजै संसारा, ऐसै जियरा करम निवारा॥
राग दोष दहूँ मैं एक न भाषि, कदाचि ऊपजै चिता न राषि॥
भूले विसरय गहर जौ होई, कहै कबीर क्या करिहौ मोहि॥107॥
मन रे कागज कोर पराया, कहा भयौ ब्यौपार
तुम्हारै, कल तर बढ़े सवाया॥टेक॥
बड़े बौहरे साँठी दीन्हौ कलतर काढ़ो खोटै॥
चार लाख अरु असी ठीक दे जनम लिष्यो सब चोटै॥
अबकी बेर न कागद कीरौं, तौ धर्म राई सूँ तूटै॥
पूँजी बितड़ि बांदे ले दैहै, तब कहै कौन के छूटै॥
गुरुदेव ग्याँनी भयौ लगनियाँ, सुमिरन दीन्हौ हीरा॥
बड़ी निसरना नाव राम कौ, चढ़ि गयौ कीर कबीरा॥108॥
धागा ज्यूँ टूटै त्यूँ जोरि, तूटै तूटनि होयगी, नाँ ऊँ मिलै
बहोरि॥टेक॥
उरझा सूत पाँन नहीं लागै, कूच फिरे सब लाई।
छिटकै पवन तार जब छूटै, तब मेरौ कहा बसाई॥
सुरझ्यौ सूत गुढ़ी सब भागी, पवन राखि मन धीरा॥
पचूँ भईया भये सनमुखा, तब यहु पान करीला॥
नाँन्हीं मैदा पीसि लई है, छाँणि लई द्वै बारा॥
कहै कबीर तेल जब मेल्या, बुतत न लागी बारा॥109॥
ऐसा औसरि बहुरि न आवै, राम मिलै पूरा जन
पावै॥टेक॥
जनम अनेक गया अरु आया, की बेगरि न भाड़ा पाया॥
भेष अनेक एकधूँ कैसा, नाँनाँ रूप धरै नट जैसा॥
दाँन एक माँगों कवलाकंत, कबीर के दुख हरन अनंत॥110॥
हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु मेरा॥टेक॥
सुत अपराध करै दिन केते, जननी कै चित रहै न तेते॥
कर गहि केस करे जौ घाता, तऊ न हेत उतारै माता॥
कहैं कबीर एक बुधि बिचारी, बालक दुखी दुखी महतारी॥111॥
गोब्यदें तुम्ह थैं डरपौं भारी, सरणाई आयौ
क्यूँ गहिये, यहु कौन बात तुम्हारी॥टेक॥
धूप दाझतैं छाँह तकाई, मति तरवर सचपाऊँ॥
तरवर माँहै ज्वाला निकसै, तौ क्या लेई बुझाऊँ॥
जे बन जलैं त जल कुँ धावै, मति जल सीतल होई॥
जलही माँहि अगनि जे निकसै, और न दूजा कोई॥
तारण तिरण तूँ तारण, और न दूजा जानौं॥
कहै कबीर सरनाँई आयौ, अपनाँ देव नहीं मानौं॥112॥
मैं गुलाँम मोहि बेच गुसाँई, तन मन धन मेरा रामजी के ताँई॥टेक॥
आँनि कबीरा हाटि उतारा, सोई गाहक बेचनहारा॥
बेचै राम तो राखै कौन राखै राम तो बेचै कौन॥
कहै कबीर मैं तन मन जाना, साहब अपनाँ छिन न बिसार्या॥113॥
अब मोहि राम भरोसा तेरा,
जाके राम सरीखा साहिब भाई, सों क्यूँ अनत पुकारन जाई॥
जा सिरि तीनि लोक कौ भारा, सो क्यूँ न करै जन को प्रतिपारा॥
कहै कबीर सेवौ बनवारी, सींची पेड़ पीवै सब डारी॥114॥
जियरा मेरा फिरै रे उदास, राम बिन निकसि न जाई साँस, अजहूँ कौन
आस॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाँऊँ राम मिलावै न कोई, कहौ संतौ कैसे जीवन होई॥
जरै सरीर यहु तन कोई न बुझावै, अनल दहै निस नींद न आवै॥
चंदन घसि घसि अंग लगाऊँ, राम बिना दारुन दुख पाऊँ।
सतसंगति मति मनकरि धीरा, सहज जाँनि रामहि भजै कबीरा॥115॥
राम कहौ न अजहूँ केते दिना, जब ह्नै है प्राँन
तुम्ह लीनाँ॥टेक॥
भौ भ्रमत अनेक जन्म गया, तुम्ह दरसन गोब्यंद छिन न भया॥
भ्रम्य भूलि परो भव सागर, कछु न बसाइ बसोधरा॥
कहै कबीर दुखभंजना, करौ दया दुरत निकंदना॥116॥
हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव, हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव॥टेक॥
हरि मेरा पीव मैं हरि की बहुरिया, राम बड़े मैं छुटक लहुरिया।
किया स्यंगार मिलन कै ताँई, काहे न मिलौ राजा राम गुसाँई॥
अब की बेर मिलन जो पाँऊँ, कहै कबीर भौ जलि नहीं आँऊँ॥117॥
राम बान अन्ययाले तीर, जाहि लागे लागे सो
जाँने पीर॥टेक॥
तन मन खोजौं चोट न पाँऊँ, ओषद मूली कहाँ घसि लाँऊँ॥
एकही रूप दीसै सब नारी, नाँ जानौं को पियहि पियारी॥
कहै कबीर जा मस्तिक भाग, नाँ जानूँ काहु देइ सुहाग॥118॥
आस नहिं पूरिया रे, राम बिन को कर्म काटणहार॥टेक॥
जद सर जल परिपूरता, पात्रिग चितह उदास।
मेरी विषम कर्म गति ह्नै परा, ताथैं पियास पियास॥
सिध मिलै सुधि नाँ मिलै, मिलै मिलावै सोइ॥
सूर सिध जब भेटिये, तब दुख न ब्यापै कोइ॥
बौछैं जलि जैसें मछिका, उदर न भरई नीर॥
त्यूँ तुम्ह कारनि केसवा, जन ताला बेली कबीर॥119॥
राम बिन तन की ताप न जाई, जल मैं अगनि उठी
अधिकाई॥टेक॥
तुम्ह जलनिधि मैं जल कर मीनाँ, जल मैं रहौं जलहि बिन षीनाँ।
तुम्ह प्यंजरा मैं सुवनाँ तोरा, दरसन देहु भाग बड़ा मोरा॥
तुम्ह सतगुर मैं नौतम चेला, कहै कबीर राम रमूं अकेला॥120॥
गोब्यंदा गुँण गाईये रे, ताथैं भाई पाईये परम निधान॥टेक॥
ऊंकारे जग ऊपजै, बिकारे जग जाइ।
अनहद बेन बजाइ करि रह्यों गगन मठ छाइ॥
झूठै जग डहकाइया रे क्या जीवण की आस।
राम रसाँइण जिनि पीया, तिनकैं बहुरि न लागी रे पियास॥
अरघ षिन जीवन भला, भगवत भगति सहेत।
कोटि कलप जीवन ब्रिथा, नाँहिन हरि सूँ हेत॥
संपति देखि न हरषिये, बिपति देखि न रोइ।
ज्यूँ संपति त्यूँ बिपति है करता करै सु होइ॥
सरग लोक न बाँछिये, डरिये न नरक निवास।
हूँणा थाँ सो ह्नै रह्या, मनहु न कीजै झूठी आस॥
क्या जप क्या तप संजमाँ, क्या तीरथ ब्रत स्नान।
जो पै जुगति जाँनियै, भाव भगति भगवान॥
सँनि मंडल मैं सोचि लै, परम जोति परकास॥
तहूँवा रूप न रेष है, बिन फूलनि फूल्यौ रे आकास॥
कहै कबीर हरि गुण गाइ लै, सत संगति रिदा मँझारि।
जो सेवग सेवा करै, तो सँगि रमैं रे मुरारि॥121॥
टिप्पणी:
ख-भगवंत भजन सहेत॥
मन रे हरि भजि हरि भजि हरि भज भाई।
जा दिन तेरो कोई नाँही, ता दिन राम सहाई॥टेक॥
तंत न जानूँ मंत न जानूँ, जानूँ सुंदर काया।
मीर मलिक छत्रापति राजा, ते भी खाये माया॥
बेद न जानूँ, भेद न जानूँ, जानूँ एकहि रामाँ॥
पंडित दिसि पछिवारा कीन्हाँ, मुख कीन्हौं जित नामा।
राज अंबरीक के कारणि, चक्र सुदरसन जारै।
दास कबीर कौ ठाकुर ऐसौ, भगत की सरन उबारै॥122॥
राम भणि राम भणि राम चिंतामणि, भाग बड़े पायौ छाड़ै
जिनि॥टेक॥
असंत संगति जिनि जाइ रे भूलाइ, साथ संगति मिलिं हरि गुँण गाइ।
रिदा कवल में राखि लुकाइ, प्रेम गाँठि दे ज्यूँ छूटि न जाइ।
अठ सिधि नव निथि नाँव मँझारि, कहै कबीर भजि चरन मुरारि॥123॥
निरमल निरमल राम गुण गावै, सौ भगता मेरे मनि
भावै॥टेक॥
जे जन लेहिं राम नाँउँ, ताकी मैं बलिहारी जाँउँ॥
जिहि घटि राम रहे भरपूरि, ताकी मैं चरनन की धूरि॥
जाति जुलाहा मति कौ धीर, हरषि हरषि गुँण रमैं कबीर॥124॥
जा नरि राम भगति नहीं साथी, सो जनमत काहे न मूवौ अपराथी॥टेक॥
गरभ मूचे मुचि भई किन बाँझ, सकर रूप फिरै कलि माँझ।
जिहि कुलि पुत्र न ग्याँन बिचारी, बाकी विधवा काहे न भई महतारी।
कहै कबीर नर सुंदर सरूप, राम भगत बिन कुचल करूप॥125॥
राम बिनाँ धिग्र धिग्र नर नारी, कहा तैं आइ
कियौ संसारी॥टेक॥
रज बिना कैसो रजपूत, ग्यान बिना फोकट अवधूत॥
गनिका कौ पूत कासौ कहैं, गुर बिन चेला ग्यान न लहै॥
कबीर कन्याँ करै स्यंगार, सोभ न पावै बिन भरतार॥
कहै कबीर हूँ कहता डरूँ, सुषदेव कहै तो मैं क्या करौं॥126॥
जरि जाव ऐसा जीवनाँ, राजा राम सूँ प्रीति न होई।
जन्म अमोलिक जात है, चेति न देखै कोई॥टेक॥
मधुमाषी धन संग्रहै, यधुवा मधु ले जाई रे।
गयौ गयौ धन मूँढ़ जनाँ, फिरि पीछैं पछिताई रे॥
विषिया सुख कै कारनै, जाइ गानिका सूँ प्रीति लगाई रे।
अंधै आगि न सूझई, पढ़ि पढ़ि लोग बुझाई रे॥
एक जनम कै कारणैं, कत पूजौ देव सहँसौ रे।
काहे न पूजौ राम जी, जाकौ भगत महेसौ रे॥
कहै कबीर चित चंचला, सुनहू मूढ़ मति मोरी।
विषिय फिर फिर आवई, राजा राम न मिले बहोरी॥127॥
टिप्पणी:
ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
राम न जपहु कवन भ्रम लाँगे।
मरि जाहहुगे कहा कहा करहु अभागे॥टेक॥
राम राम जपहु कहा करौ वैसे, भेड कसाई कै घरि जैसे।
राम न जपहु कहा गरबना, जम के घर आगै है जाना॥
राम न जपहु कहा मुसकौ रे, जम के मुदगरि गणि गणि खहुरे।
कहै कबीर चतुर के राइ, चतुर बिना को नरकहि जाइ॥130॥
राम न जपहु कहा भयौ अंधा राम बिना जँम मैले
फंधा॥टेक॥
सुत दारा का किया पसारा, अंत की बेर भये बटपारा॥
माया ऊपरि माया माड़ी, साथ न चले षोषरी हाँड़ा॥
जपौ राम ज्यूँ अंति उबारै, ठाढ़ी बाँह कबीर पुकारै॥128॥
डगमग छाड़ि दै मन बौरा।
अब तौ जरें बरें बनि आवै, लीन्हों हाथ सिंधौरा॥टेक॥
होइ निसंक मगन ह्नै नाचौ, लोभ मोह भ्रम छाड़ौ॥
सूरौ कहा मरन थैं डरपैं, संतों न संचैं भाड़ौ॥
लोक वेद कुल की मरजादा, इहै कलै मैं पासी।
आधा चलि करि पीछा फिरिहै ह्नै है जग मैं हाँसी॥
यह संसार सकल है मैला, राम कहै ते सूवा।
कहै कबीर नाव नहीं छाँड़ौं, गिरत परत चढ़ि ऊँचा॥129॥
का सिधि साधि करौं कुछ नाहीं, राम रसाँइन मेरी
रसनाँ माँहीं॥टेक॥
नहीं कुछ ग्याँन ध्याँन सिधि जोग, ताथैं उपजै नाना रोग।
का बन मैं बसि भये उदास, जे मन नहीं छाड़ै आसा पास॥
सब कृत काच हित सार, कहै कबीर तजि जग ब्यौहार॥130॥
जीवत कछु न कीया प्रवानाँ, मूवा मरम को काँकर जाना॥
जौं तैं रसना राम न कहियो, तौ उपजत बिनसत भरमत रहियौ॥टेक॥
जैसी देखि तरवर की छाया, प्राँन गये कहु काकी माया॥
संधि काल सुख कोई न सोवै, राजा रंक दोऊ मिलि रोवै॥
हंस सरोवर कँवल सरीरा, राम रसाइन पीवै कबीरा॥131॥
का नाँगे का बाँधे चाम, जौ नहीं चीन्हसि आतम
राम॥टेक॥
नागे फिरें जोग जे होई, बन का मृग मुकुति गया कोई॥
मूँड़ मूड़ायै जौ सिधि होई, स्वर्ग ही भेड़ न पहुँची कोई॥
ब्यंद राखि जे खेलै है भाई, तौ षुसरै कौंण परँम गति पाई॥
पढ़ें गुनें उपजै अहंकारा, अधधर डूबे वार न पारा॥
कहै कबीर सुनहु रे भाई, राम नाम किन सिधि पाई॥132॥
हरि बिन भरमि बिगूते गदा।
जापै जाऊँ आपनपौं छुड़ावण, ते बीधे बहु फंधा॥टेक॥
जोगी कहै जोग सिधि नीकी, और दूजी भाई॥
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, ऐ जु कहै सिधि पाई॥
जहाँ का उपज्या तहाँ बिलाना, हरि पद बिसर्या जबहिं॥
पंडित गुँनी सूर कवि दाता, ऐ जु कहैं बड़ हँमहीं॥
वार पार की खबरि न जाँनी, फिरौं सकल बन ऐसैं॥
यहु मन बोहि थके कउवा ज्यूँ, रह्यौ ठग्यौ सो वैसैं॥
तजि बावैं दाँहिणै बिकार, हरि पद दिढ़ करि गहिये॥
कहै कबीर गूँगे गुड़ खाया, बूझै तो का कहिये॥133॥
चलौ बिचारी रहौ सँभारी, कहता हूँ ज पुकारी।
राम नाम अंतर गति नाहीं, तौ जनम जुवा ज्यूँ हारी॥टेक॥
मूँड़ मुड़ाइ फूलि का बैठे, काँननि पहरि मजूसा।
बाहरि देह षेह लपटानीं, भीतरि तौ घर मूसा॥
गालिब नगरी गाँव बसाया, हाँम काँम हंकारी।
घालि रसरिया जब जँम खैंचे, तब का पति रहै तुम्हारी॥
छाँड़ि कपूर गाँठि विष बाँध्यौ, मूल हुवा ना लाहा।
मेरे राम की अभौ पद नगरी, कहै कबीर जुलाहा॥134॥
कौन बिचारि करत हौ पूजा, आतम राम अवर नहीं दूजा॥टेक॥
बिन प्रतीतैं पाती तोड़, ग्याँन बिनाँ देवलि सिर फोड़ै॥
लुचरी लपसी आप संधारै, द्वारै ठाढ़ा राम पुकारै॥
पर आत्म जौ तत बिचारै, कहि कबीर ताकै बलिहारै॥135॥
कहा भयौ तिलक गरै जपमाला, मरम न जानैं मिलन
गोपाला॥टेक॥
दिन प्रति पसू करै हरिहाई, गरैं काठ बाकी बाँनि न जाई।
स्वाँग सेत करणी मनि काली, कहा भयौ गलि माला घाली॥
बिन ही प्रेम कहा भयौ रोये, भीतरि मैल बाहरि का धोये॥
गल गल स्वाद भगति नहीं धीर, चीकन चंदवा कहै कबीर॥136॥
ते हरि आवेहि काँमाँ, जे नहीं आतम रामाँ॥टेक॥
थोरी भगति बहुत अलंकारा, ऐसे भगता मिलैं अपारा॥
भाव न चीन्हैं हरि गोपाला, जानि क अरहट कै गलि माला॥
कहै कबीर जिनि गया अभिमाना, सो भगता भगवंत समानाँ॥137॥
कहा भयौ रवि स्वाँग बनायौ, अंतरजामी निकट न
आयौ॥टेक॥
विषई विषे ढिढावै, गावै, राम नाम मनि कबहूँ न भावै॥
पापी परलै जाहि अभागै, अमृत छाड़ि विषै रसि लागे॥
कहै कबीर हरि भगति न साधी, भग मुषि लागि मूये अपराधी॥138॥
जौ पैं पिय के मनि नाहीं भाये, तौ का परोसनि कै हुलसाये॥टेक॥
का चूरा पाइल झमकायें, कहा भयौ बिछुवा ठमकायें॥
का काजल स्यंदूर कै दीयैं, सोलह स्यंगार कहा भयौ कीयै॥
अंजन मंजन करै ठगौरी, का पचि मरै निगौडी बौरी॥
जौ पै पतिब्रता ह्नै नारी, कैसे ही रही सो पियहिं पियारी॥
तन मन जीवन सौपि सरीरा, ताहि सुहागिन कहै कबीरा॥139॥
दूभर पनियाँ भर्या न जाई, अधिक त्रिषा हरि बिन
न बुझाई॥टेक॥
उपरि नीर ले ज तलि हारी, कैसे नीर भरे पनिहारी॥
उधर्यौ कूप घाट भयौ भरी, चली निरास पंच पनिहारी॥
गुर उपदेश भरी ले नीरा, हरषि हरषि जल पीवै कबीरा॥140॥
टिप्पणी:
ख-जल बिनु न बुझाई।
कहौ भइया अंबर काँसूँ लागा, कोई जाँणँगा जाँननहारा॥टेक॥
अंबरि दीसे केता तारा कौन चतुर ऐसा चितवनहारा॥
जे तुम्ह देखौ सो यहु नाँही, यहु पद अगम अगोचर माँही॥
तीनि हाथ एक अरधाई, ऐसा अंबर चीन्हौ रे भाई॥
कहै कबीर जे अंबर जाने, ताही सूँ मेरा मन माँनै॥141॥
तन खोजौ नर करौ बड़ाई, जुगति बिना भगति किनि
पाई॥टैक॥
एक कहावत मुलाँ काजी, राम बिना सब फोकटबाजी॥
नव ग्रिह बाँभण भणता रासी, तिनहुँ न काटी कौ पासी॥
कहै कबीर यहु तन काचा, सबद निरंजन राम नाम साचा॥142॥
जाइ परो हमरो का करिहै, आप करै आप दुख भरिहै॥टेक॥
ऊभड़ जाताँ बाट बतावै, जौ न चलै तौ बहुत दुख पावै॥
अंधे कूप क दिया बताई, तरकि पड़े पुनि हरि न पत्याई॥
इंद्री स्वादि विषै रसि बहिहै, नरकि पड़े पुनि राम न कहिहै॥
पंच सखी मिलि मतौ उपायौ, जंम की पासी हंस बँधायौ॥
कहै कबीर प्रतीति न आवै, पाषंड कपट इहै जिय भावै॥143॥
ऐसे लोगनि सूँ का कहिये।
जे नर भये भगति थैं न्यारे, तिनथैं सदा डराते रहिये॥टेक॥
आपण देही चरवाँ पाँनी ताहि निंदै जिनि गंगा आनी॥
आपण बूड़ैं और कौ बोड़ै, अगनि लगाइ मंदिर मैं सोवै॥
आपण अंध और कूँ काँनाँ, तिनकौ देखि कबीर डराँनाँ।144॥
है हरि जन सूँ जगत लरत है, फुँनिगा कैसे गरड़ भषत है॥टेक॥
अचिरज एक देखह संसारा, सुनहाँ खेदै कुंजर असवारा॥
ऐसा एक अचंभा देखा जंबक करै केहरि सूँ लेखा॥
कहै कबीर राम भजि भाई, दास अधम गति कबहुँ न जाई॥145॥
हैं हरिजन थैं चूक परी, जे कछु आहि तुम्हारी
हरी॥टेक॥
मोर तोर जब लग मैं कीन्हाँ, तब लग त्रास बहुत दुख दीन्हाँ॥
सिध साधिक कहैं हम सिधि पाई, राम नाम बिन सबै गँवाई॥
जे बैरागी आस पियासी, तिनकी माया कदे न नासी॥
कहै कबीर मैं दास तुम्हारा, माय खंडन करहु हमारा॥146॥
सब दुनी सयाँनी मैं बौरा, हँम बिगरे बिगरौ जिनि औरा॥टेक॥
मैं नहीं बौरा राम कियो बौरा, सतगुर जारि गयौ भ्रम मोरा॥
विद्या न पढूँ बाद नहीं जानूँ, हरि गुँन कथत सुनत बौराँनूँ॥
काँम क्रोध दोऊ भये विकारा, आपहि आप जरे संसारा॥
मीठो ककहा जाहि जो भावै, दास कबीर राम गुँन गावै॥147॥
अब मैं राम सकल सिधि पाई, आँन कहूँ तो राम
दुहाई॥टेक॥
इहि चिति चाषि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा॥
औरे रसि ह्नैहै कफ गाता, हरि रस अधिक अधिक सुखदाता॥
दूजा बणिज नहीं कछु बाषर, राम नाम दोऊ तत आषर॥
कहै कबीर जे हरि रस भोगी, ताकूँ मिल्या निरंजन जोगी॥148॥
रे मन जाहिं जहाँ तोहि भावै, अब न कोई तेरे अंकुस लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाई तहाँ तहाँ रामा, हरि पद चीन्हि कियौ विश्रामा।
तन रंजित तब देखियत दोई, प्रगट्यौ ग्याँन जहाँ तहाँ सोई॥
लीन निरंतर बपु बिसराया, कहै कबीर सुख सागर पाया॥149॥
बहुरि हम काहैं कूँ आवहिंगे।
बिछुरे पंचतत्त की रचना, तब हम रामहि पावहिंगे॥टेक॥
पृथी का गुण पाँणी सोष्या, पाँनी तेज मिलावहिंगे॥
तेज पवन मिलि सबद मिलि, सहज समाधि लगावहिंगे॥
जैसे बहु कंचन के भूषन, ये कहि गालि तवावहिंगे॥
ऐसै हम लोक वेद के बिछुरें, सुनिहि माँहि समावहिंगे॥
जैसे जलहि तरंग तरंगनी, ऐसैं हम दिखलावहिंगे॥
कहै कबीर स्वामी सुख सागर, हंसहि हंस मिलावहिंगे॥150॥
कबीरा संत नदी गया बहि रे,
ठाढ़ी माइ कराड़े टेरै, है कोई ल्यावैगहि रे॥टेक॥
बादल बाँनी राम घन उनयाँ, बरिषै अमृत धारा॥
सखी नीर गंग भरि आई, पीवै प्राँन हमारा॥
जहाँ बहि लागे सनक सनंदन, रुद्र ध्याँन धरि बैठे॥
सूर्य प्रकास आनंद बमेक मैं घर कबीर ह्नै पैठे॥151॥
अवधू कामधेन गहि बाँधी रे।
भाँड़ा भंजन करे सबहिन का, कछू न सूझे आँधी रे॥टेक॥
जौ ब्यावै तौ दूध न देई, ग्यामण अंमृत सरवै॥
कौली धाल्याँ बडहि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै॥
तिहि धेन थैं इंछ्या पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।
ग्वाड़ा माँहै आनँद उपनो, खूँटै दोऊ बाँधी रे।
साई माइ सास पनि साई, साई बाकी नारी।
कहै कबीर परम पद पाया, संतौ लेहु बिचारी॥152॥
टिप्पणी:
ख-साई घर की नारी।
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2. राग
रामकली
जगत गुर अनहद कींगरी बाजे, तहाँ दीरघ नाद ल्यौ लागे॥टेक॥
त्री अस्यान अंतर मृगछाला, गगन मंडल सींगी बाजे॥
तहुँआँ एक दुकाँन रच्यो हैं, निराकार ब्रत साजे॥
गगन ही माठी सींगी करि चुंगी, कनक कलस एक पावा।
तहुँवा चबे अमृत रस नीझर, रस ही मैं रस चुवावा॥
अब तौ एक अनूपम बात भई, पवन पियाला साजा।
तीनि भवन मैं एकै जोगी, कहौ कहाँ बसै राजा॥
बिनरे जानि परणऊँ परसोतम, कहि कबीर रँगि राता।
यहु दुनिया काँई भ्रमि भुलाँनी, मैं राम रसाइन माता॥153॥
ऐसा ग्यान बिचारि लै लै, लाइ लै ध्याँनाँ।
सुंनि मंडल मैं घर किया, जैसे रहै सिंचाँनाँ॥टेक॥
उलटि पवन कह्याँ राखिये, कोई भरम बिचारै।
साँधै तीर पताल कूँ, फिरि गगनहि मारै॥
कंसा नाद बजाव ले, धुंनि निमसि ले कंसा॥
कंसा फूटा पंडिता, धंुनि कहाँ निवासा॥
प्यंड परे जीव कहाँ रहै, कोई मरम लखावै।
जीवत जिस घरि जाइये, ऊँचे मुषि नहीं आवै॥
सतगुर मिलै त पाइयै, ऐसी अकथ कहाँणीं।
कहै कबीर संसा गया, मिले सारंगपाँणीं॥154॥
है कोई संत सहज सुख उपजै, जाकौ जब तप देउ दलाली।
एक बूँद भरि देइ राम रस, ज्यूँ भरि देई कलाली॥टेक॥
काया कलाली लाँहनि करिहूँ, गुरु सबद गुड़ कीन्हाँ॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, काटि काटि कस दीन्हाँ॥
भवन चतुरदस भाटी पुरई, ब्रह्म अगनि परजारी।
मूँदे मदन सहज धुनि उपजी, सुखमन पीसनहारी॥
नीझर झरै अँमी रस निकसै, निहि मदिरावल छाका॥
कहैं कबीर यहु बास बिकट अनि, ग्याँन गुरु ले बाँका॥155॥
अकथ कहाँणी प्रेम की, कछु कही न जाई,
गूँगे केरी सरकरा, बैठे मुसुकाई॥टेक॥
भोमि बिनाँ अरु बीज बिन, तरवर एक भाई।
अनँत फल प्रकासिया, गुर दीया बताई।
कम थिर बैसि बिछारिया, रामहि ल्यौ लाई।
झूठी अनभै बिस्तरी सब थोथी बाई॥
कहै कबीर सकति कछु नाही, गुरु भया सहाई॥
आँवण जाँणी मिटि गई, मन मनहि समाई॥156॥
संतो सो अनभै पद गहिये।
कल अतीत आदि निधि निरमअ ताकूँ सदा विचारत रहिये॥टेक॥
सो काजी जाकौं काल न ब्यापैं, सो पंडित पद बूझै।
सो ब्रह्मा जो ब्रह्म बिचारै, सो जागी जग सूझै॥
उदै न अस्त सूर नहीं ससिहर, ताकौ भाव भजन करि लीजै।
काया थैं कछु दूरि बिचारै, तास गुरु मन धीजै॥
जार्यौ जरै न काट्यो सूकै, उतपति प्रलै न आवै।
निराकार अषंउ मंडल मैं, पाँचौ तत्त समावै॥
लोचन अचित सबै अँधियारा, बिन लोचन जग सूझै।
पड़दा खोलि मिलै हरि ताकूँ, जो या अरथहिं बूझै॥
आदि अनंत उभै पख निरमल, द्रिष्टि न देख्या जाई।
ज्वाला उठी अकास प्रजल्यौ, सीतल अधिक समाई॥
एकनि गंथ बासनाँ प्रगटै जग थैं रहै अकेला॥
प्राँन पुरिस काया थैं बिछुरे, राखि लेहु गुर चेला।
भाग भर्म भया मन अस्थिर, निद्रा नेह नसाँनाँ॥
घट की जोति जगत प्रकास्या, माया सोक बुझाँनाँ।
बंकनालि जे संमि करि राखै, तौ आवागमन न होई॥
कहैं कबीर धुनि लहरि प्रगटी, सहजी मिलैगा सोई॥157॥
जाइ पूछौ गोविंद पढ़िया पंडिता, तेराँ कौन गुरु
कौन चेला।
अपणें रूप कौं आपहिं जाँणें, आपैं रहे अकेला॥टेक॥
बाँझ का पूत बाप बिना जाया, बिन पाऊँ तरबरि चढ़िया।
अस बिन पाषर गज बिन गुड़िया, बिन षडै संग्राम जुड़िया॥
बीज बिन अंकुर पेड़ बिन तरवर, बिन साषा तरवर फलिया।
रूप बिन नारी पुहुप बिन परमल, बिन नीरै सरवर भरिया॥
देव बिन देहुरा पत्रा बिन पूजा बिन पाँषाँ भवर बिलंबया।
सूरा होइ सु परम पद पावै, कीट पतंग होइ सब जरिया॥
दीपक बिन जोति जाति बिन दीपक, हद बिन अनाहद सबद बागा।
चेतनाँ होइ सु चेति लीज्यौं, कबीर हरि के अंगि लागा॥158॥
पंडित होइ सु पदहि बिचारै, मूरिष नाँहिन बूझै।
बिन हाथनि पाँइन बिन काँननि, बिन लोचन जग सूझै॥टेक॥
बिन मुख खाइ चरन बिनु चालै, बिन जिभ्या गुण गावै।
आछै रहै ठौर नहीं छाड़ै, दह दिसिही फिरि आवै॥
बिनहीं तालाँ ताल बजावै, बिन मंदल षट ताला।
बिनहीं सबद अनाहद बाजै, तहाँ निरतत है गोपाला॥
बिनाँ चोलनै बिनाँ कंचुकी, बिनही संग संग होई।
दास कबीर औसर भल देख्या, जाँनैगा जस कोई॥159॥
है कोइ जगत गुर ग्याँनी, उलटि बेद बूझै।
पाँणीं में अगनि जरैं, अँधरे कौ सूझै॥टेक॥
एकनि ददुरि खाये, पंच भवंगा।
गाइ नाहर खायौ, काटि काटि अंगा॥
बकरी बिधार खायौ, हरनि खायौ चीता।
कागिल गर फाँदियिा, बटेरै बाज जीता॥
मसै मँजार खायौ, स्यालि खायौ स्वाँनाँ।
आदि कौं आदेश करत, कहैं कबीर ग्याँनाँ॥160॥
ऐसा अद्भुत मेरे गुरि कथ्या, मैं रह्या उमेषै।
मूसा हसती सौ लड़ै, कोई बिरला पेषै॥टेक॥
उलटि मूसै सापणि गिली, यहु अचिरज भाई।
चींटी परबत ऊषण्याँ, ले राख्यौ चौड़ै॥
मुर्गी मिनकी सूँ लड़ै, झल पाँणौं दौड़ै।
सुरहीं चूँषै बछतलि, बछा दूध उतारै।
ऐसा नवल गुँणा भया, सारदूलहि मारै।
भील लूक्या बन बीझ मैं ससा सर मारै॥
कहै कबीर ताहि गुर करौं, जो या पदहि बिचारै॥161॥
अवधू जागत नींद न कीजै।
काल न खाइ कलप नहीं ब्यापै देही जुरा न छीजै॥टेक॥
उलटी गंग समुद्रहि सोखै ससिहर सूर गरासै।
नव ग्रिह मारि रोगिया बैठे, जल में ब्यंब प्रकासै॥
डाल गह्या थैं मूल न सूझै मूल गह्याँ फल पावा।
बंबई उलटि शरप कौं लागी, धरणि महा रस खावा॥
बैठ गुफा मैं सब जग देख्या, बाहरि कछू न सूझै।
उलटैं धनकि पारधी मार्यौ यहु अचिरज कोई बूझै॥
औंधा घड़ा न जल में डूबे, सूधा सूभर भरिया।
जाकौं यहु जुग घिण करि चालैं, ता पसादि निस्तरिया॥
अंबर बरसै धरती भीजै, बूझै जाँणौं सब कोई।
धरती बरसै अंबर भीजै, बूझै बिरला कोई॥
गाँवणहारा कदे न गावै, अणबोल्या नित गावै।
नटवर पेषि पेषनाँ पेषै, अनहद बेन बजावै॥
कहणीं रहणीं निज तत जाँणैं यहु सब अकथ कहाणीं।
धरती उलटि अकासहिं ग्रसै, यहु पुरिसाँ की बाँणी॥
बाझ पिय लैं अमृत सोख्या, नदी नीर भरि राष्या।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, धरणि महारस चाष्या॥162॥
राम गुन बेलड़ी रे, अवधू गोरषनाथि जाँणीं।
नाति सरूप न छाया जाके, बिरध करैं बिन पाँणी॥टेक॥
बेलड़िया द्वे अणीं पहूँती गगन पहूँती सैली।
सहज बेलि जल फूलण लागी, डाली कूपल मेल्ही॥
मन कुंजर जाइ बाड़ा बिलब्या, सतगुर बाही बेली।
पंच सखी मिसि पवन पयप्या, बाड़ी पाणी मेल्ही॥
काटत बेली कूपले मेल्हीं, सींचताड़ी कुमिलाँणों।
कहै कबीर ते बिरला जोगी, सहज निरंतर जाँणीं॥163॥
टिप्पणी:
ख-जाति सिमूल न छाया जाकै।
राम राइ अबिगत बिगति न जानै, कहि किम तोहिं
रूप बषानै॥टेक॥
प्रथमे गगन कि पुहमि प्रथमे प्रभू पवन कि पाँणीं।
प्रथमे चंद कि सूर प्रथमे प्रभू, प्रथमे कौन बिनाँणीं॥
प्रथमे प्राँण कि प्यंड प्रथमे प्रभू, प्रथमे रकत कि रेत।
प्रथमे पुरिष की नारि प्रथमे प्रभू, प्रथमे बीज की खेत॥
प्रथमे दिवस कि रैणि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पाप कि पुन्य।
कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन, तहाँ कुछ आहि कि सुन्य॥164॥
अवधू सो जोगी गुर मेरा, जौ या पद का करै नबेरा॥टेक॥
तरवर एक पेड़ बिन ठाढ़ा, बिन फूलाँ फल लागा।
साखा पत्रा कछू नहीं वाकै अष्ट गगन मुख बागा॥
पैर बिन निरति कराँ बिन बाजै, जिभ्या हीणाँ गावै।
गायणहारे के रूप न रेषा, सतगुर होई लखावे॥
पषी का षोज मीन का मारग, कहै कबीर बिचारी।
अपरंपार पार परसोतम, वा मूरति बलिहारी॥165॥
अब मैं जाँणिबौ रे केवल राइ की कहाँणी।
मझां जोति राम प्रकासै, गुर गमि बाँणी॥टेक॥
तरवर एक अनंत मूरति, सुरताँ लेहू पिछाँणीं।
साखा पेड़ फूल फल नाँहीं, ताकि अंमृत बाँणीं॥
पुहुप बास भवरा एक राता, बरा ले उर धरिया।
सोलह मंझै पवन झकोरैं, आकासे फल फलिया॥
सहज समाधि बिरष यह सीचा, धरती जरु हर सोब्या।
कहै कबीर तास मैं चेला, जिनि यहु तरुवर पेष्या॥166॥
राजा राम कवन रंगै, जैसैं परिमल पुहुप संगैं॥टेक॥
पंचतत ले कीन्ह बँधाँन, चौरासी लष जीव समाँन।
बेगर बेगर राखि ले भाव, तामैं कीन्ह आपको ठाँव॥
जैसे पावक भंजन का बसेष, घट उनमाँन कीया प्रवेस॥
कह्यो चाहूँ कछु कह्या न जाइ, जल जीव ह्नै जल नहीं बिगराइ॥
सकल आतमाँ बरतै जे, छल बल कौं सब चान्हि बसे॥
चीनियत चीनियत ता चीन्हिलै से, तिहि चीन्हिअत धूँका करके॥
आपा पर सब एक समान, तब हम पावा पद निरबाँण॥
कहै कबीर मन्य भया संतोष, मिले भगवंत गया दुख दोष॥167॥
अंतर गति अनि अनि बाँणी।
गगन गुपत मधुकर मधु पीवत, सुगति सेस सिव जाँणीं॥टेक॥
त्रिगुण त्रिविध तलपत तिमरातन, तंती तत मिलानीं।
भाग भरम भाइन भए भारी, बिधि बिरचि सुषि जाँणीं॥
बरन पवन अबरन बिधि पावक, अनल अमर मरै पाँणीं।
रबि ससि सुभग रहे भरि सब घटि, सबद सुनि तिथि माँही॥
संकट सकति सकल सुख खोये, उदित मथित सब हारे।
कहैं कबीर अगम पुर पाटण, प्रगटि पुरातन जारे॥168॥
लाधा है कछू लाधा है ताकि पारिष को न लहै।टेक॥
अबरन एक अकल अबिनासी, घटि घटि आप रहै॥टेक॥
तोल न मोल माप कछु नाहीं, गिणँती ग्याँन न होई।
नाँ सो भारी नाँ सो हलका, ताकी पारिष लषै न कोई॥
जामैं हम सोई हम हा मैं, नीर मिले जल एक हूवा।
यों जाँणैं तो कोई न मरिहैं, बिन जाँणैं थै बहुत मूवा॥
दास कबीर प्रेम रस पाया, पीवणहार न पाऊँ।
बिधनाँ बचन पिछाँड़त नाहीं, कहु क्या काढ़ि दिखाऊँ॥169॥
हरि हिरदे रे अनत कत चाहौ, भूलै भरम दुनी कत
बहौ॥टेक॥
जग परबोधि होत नर खाली, करते उदर उपाया।
आत्म राम न चीन्हैं संतौ, क्यूँ रमि लै राम राया॥
लागै प्यास नीर सो पीवै, बिन लागै नहीं पीवै।
खोजै तत मिलै अबिनासा, बिन खोजैं नहीं जीवै।
कहै कबीर कठिन यह कारणीं जैसी षंडे धारा।
उलटि चाल मिलै परब्रह्म कौं, सो सतगुरु हमारा॥170॥
रे मन बैठि कितै जिनि जासी, हिरदै सरोवर है अबिनासी॥टेक॥
काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी।
माया मधे कवलापति, काया मधे बैकुंठबासी॥
उलटि पवन षटचक्र निवासी, तीरथराज गंगतट बासी॥
गगन मंडल रबि ससि दोइ तारा, उलती कूची लागि किंवारा।
कहै कबीर भई उजियारा, पच मारि एक रह्यौ निनारा॥171॥
राम बिन जन्म मरन भयौ भारी।
साधिक सिध सूर अरु सुरपति भ्रमत भ्रमत गए हारी॥टेक॥
व्यंद भाव म्रिग तत जंत्राक, सकल सुख सुखकारी।
श्रवन सुनि रवि ससि सिव सिव, पलक पुरिष पल नारी॥
अंतर गगन होत अंतर धुँनि बिन सासनि है सोई।
घोरत सबद सुमंगल सब घटि, ब्यंदत ब्यदै कोई॥
पाणीं पवन अवनि नभ पावक, तिहि सँग सदा बसेरा।
कहै कबीर मन मन करि बेध्या, बहुरि न कीया फेरा॥172॥
नर देही बहुरि न पाइये, ताथैं हरषि हरषि गुँण गाइये॥टेक॥
जब मन नहीं तजै बिकारा, तौ क्यूँ तरिये भौ पारा॥
जे मन छाड़ै कुटिलाई, तब आइ मिलै राम राई।
ज्यूँ जींमण त्यूँ मरणाँ, पछितावा काजु न करणाँ।
जाँणि मरै जे कोई, तो बहुरि न मरणाँ होई॥
गुर बचनाँ मंझि समावै, तब राम नाम ल्यौ लावै॥
जब राम नाम ल्यौ लागा, तब भ्रम गया भौ भागा॥
ससिहर सूर मिलावा, तब अनहद बेन बजावा॥
जब अनहद बाजा बाजै, तब साँई संगि बिराजै॥
होत संत जनन के संगी, मन राचि रह्यो हरि रंगी॥
धरो चरन कवल बिसवासा, ज्यूँ होइ निरभे पदबासा॥
यहु काचा खेल न होई, जन षरतर खेलै कोई॥
जब षरतर खेल मचावा, तब गगनमंडल मठ छावा॥
चित चंचल निहचल कीजै, तब राम रसाइन पीजै॥
जब राम रसाइन पीया, तब काल मिट्या जन जीया॥
ज्यूँ दास कबीरा गावै, ताथैं मन को मन समझावै॥
मन ही मन समझाया, तब सतगुर मिलि सचु पाया॥173॥
अवधू अगनि जरै कै काठ।
पूछौ पंडित जोग संन्यासी, सतगुर चीन्है बाट॥टेक॥
अगनि पवन मैं पवन कबन मैं, सबद गगन के पवाँन।
निराकार प्रभु आदि निरंजन, कत रवंते भवनाँ॥
उतपति जाति कवन अँधियारा, धन बादल का बरिषा।
प्रगट्यो बीच धरनि अति अधिकै, पारब्रह्म नहीं देखा॥
मरनाँ मरै न मरि सकै, मरनाँ दूरि न नेरा।
द्वादश द्वादस सनमुख देखैं, आपैं आप अकेला॥
जे बाँध्या ते छुछंद मृकुता, बाँधनहारा बाँध्या।
जे जाता ते कौंण पठाता, रहता ते किनि राख्या॥
अमृत समाँनाँ बिष मैं जानाँ, बिष मैं अमृत चाख्या॥
कहै कबीर बिचार बिचारी, तिल मैं मेर समाँनाँ।
अनेक जनम का गुर गुर करता, सतगुर तब भेटाँनाँ॥174॥
अवधू ऐसा ग्यान बिचार,
भेरैं चढ़े सु अधधर डूबे, निराधार भये पारं॥टेक॥
ऊघट चले सु नगरि पहुँचे, बाट चले ते लूटे।
एक जेवड़ी सब लपटाँने, के बाँधे के छूटे॥
मंदिर पैसि च्हूँ दिसि भीगे, बाहरि रे ते सूका।
सरि मारे ते सदा सुखारे, अनमारे ते दूषा॥
बिन नैनन के सब जग देखै, लोचन अछते अंधा।
कहै कबीर कछु समछि परी है, यहु जग देख्या धंधा॥175॥
जन धंधा रे जग धंधा, सब लोगनि जाँणै अंधा।
लोभ मोह जेवड़ी लपटानी बिनहीं गाँठि गह्यो फंदा॥टेक॥
ऊँचे टीबे मंद बसत है, ससा बसे जल माँहीं।
परबत ऊपरि डूबि मूवा नर मूवा धूँ काँही॥
जलै नीर तिण षड़ उबरै, बैसंदर ले सींचै।
ऊपरि मूल फूल बिन भीतरि, जिनि जान्यौ तिनि नीकै॥
कहै कबीर जाँनहीं जाँनै, अनजानत दुख भारी।
हारी बाट बटाऊ जीत्या, जानत की बलिहारी॥176॥
अवधू ब्रह्म मतै घरि जाइ,
काल्हि जू तेरी बँसरिया छीनी कहा चरावै गाइ॥टेक॥
तालि चुगें बन सीतर लउवा, पवति चरै सौरा मछा।
बन की हिरनी कूवै बियानी, ससा फिरे अकासा॥
ऊँट मारि मैं चारै लावा, हस्ती तरंडबा देई।
बबूर की डरियाँ बनसी लैहूँ, सींयरा भूँकि भूँकि षाई॥
आँब क बौरे चरहल करहल, निबिया छोलि छोलि खाई।
मोरै आग निदाष दरी बल, कहै कबीर समझाई॥177॥
कहा करौं कैसे तिरौं, भौ जल अति भारी।
तुम्ह सरणागति केसवा राखि राखि मुरारी॥टेक॥
घर तजि बन खंडि जाइए, खनि खनि खइए कंदा।
बिषै बिकार न छूटई, ऐसा मन गंदा॥
बिष विषिया कौ बाँसनाँ, तजौं तजी नहीं जाई।
अनेक जतन करि सुरझिहौं, फुनि फुनि उरझाई॥
जीव अछित जोबन गया, कछु कीया न नीका।
यहु हीरा निरमोलिका, कौड़ी पर बीका॥
कहै कबीर सुनि केसवा, तूँ सकल बियापी।
तुम्ह समाँनि दाता नहीं, हँम से नहीं पापी॥178॥
बाबा करहु कृपा जन मारगि, लावो ज्यूँ भव बंधन षूटै।
जरा मरन दुख फेरि करँन सुख, जीव जनम यैं छूटै॥टेक॥
सतगुरु चरन लागि यों बिनऊँ, जीवनि कहाँ थैं पाई।
जा कारनि हम उपजैं बिनसै क्यूँ न कहौ समझाई॥
आसा पास षंड नहीं पाँडे, यौं मन सुंनि न लूटै।
आपा पर आनंद न बूझै, बिन अनभै क्यूँ छूटै॥
कह्याँ न उपजै नहीं जाणै, भाव अभाव बिहूनाँ
उदै अस्त जहाँ मति बुधि नाहीं, सहजि राम ल्यौ लीनाँ॥
ज्यूँ बिंबहि प्रतिबिंब समाँनाँ, उदिक कुंभ बिगराँनाँ।
कहै कबीर जाँनि भ्रम भागा, जीवहिं जीव समाँनाँ॥179॥
संत धोखा कासूँ कहिए।
गुँण मैं निरगुँण निरगुँण मैं गुण है, बाट छाँड़ि क्यूँ बहिए॥टेक॥
अजरा अमर कथैं सब कोई, अला न कथणाँ जाई।
नाति सरूप बरण नहीं जाकै, घटि घटि रह्यौ समाई॥
प्यंड ब्रह्मंड कथै सब कोई, वाकै आदि अरु अंत न होई।
प्यंड ब्रह्मंड छाड़ि जे कथिए, कहैं कबीर हरि सोई॥180॥
पषा पषी कै पेषणै, सब जगत भुलानाँ,
निरपष टोइ हरि भजै, सो साथ सयाँनाँ॥टेक॥
ज्यूँ पर सूँ षर बँधिया, यूँ बँधे सब लाई।
जाकै आत्मद्रिष्टि है, साचा जन सोई॥
एक एक जिनि जाणियाँ, तिनहीं सच पाया।
प्रेम प्रीति ल्यौ लीन मन, ते बहुरि न आया॥
पूरे की पूरी द्रिष्टि, पूरा करि देखै।
कहै कबीर कछू समूझि न परई, या ककू बात अलेखै॥181॥
अजहूँ न संक्या गई तुम्हारी, नाँहि निसंक मिले
बनवारी॥टेक॥
बहुत गरब गरबे संन्यासी, ब्रह्मचरित छूटी नहीं पासी।
सुद्र मलैछ बसैं मन माँहीं, आतमराम सु चीन्हा नाहीं॥
संक्या डाँइणि बसै सरीरा, ता करणि राम रमैं कबीरा॥182॥
सब भूले हो पाषंडि रहे, तेरा बिरला जन कोई राम कहै॥टेक॥
होइ आरोगि बूँटी घसि लावै, गुर बिना जैसे भ्रमत फिरै।
है हाजिर परतीति न आवै, सो कैसैं परताप धरै॥
ज्यूँ सुख त्यूँ दुख द्रिढ़ मन राखै एकादसी एकतार करै।
द्वादसी भ्रमैं लष चौरासी, गर्भ बास आवै सदा मरै।
सैं तैं तजै तजैं अपमारग, चारि बरन उपराति चढ़ै।
ते नहीं डूबै पार तिरि लंघै, निरगुण मिटै धापै॥
तिनह उछाह सोक नहीं ब्यापै, कहै कबीर करता आपै॥183॥
तेरा जन एक आध है कोई।
काम क्रोध अरु लोभ बिंबर्जित, हरिपद चीन्हैं सोई॥टेक॥
राजस ताँमस सातिग तीन्यूँ, ये सब मेरी माया।
चौथे पद कौं जे जन चीन्हैं, तिनहिं परम पद पाया॥
असतुति निंद्या आसा छाँड़ै, तजै माँन
अभिमानाँ।
लोहा कंचन समि करि देखै, ते मूरति भगवानाँ॥
च्यंतै तौ माधौ च्यंतामणि, हरिपद रमैं उदासा।
त्रिस्ना अरु अभिमाँन रहित है, कहै कबीर सो दासा॥184॥
टिप्पणी:
ख-जे जन जानैं। लोहा कंचन
सँम करि जानै।
हरि नाँमैं दिन जाइ रे जाकौ, सोइ दिन लेखै, लाइ राम ताकौ॥टेक॥
हरि नाम मैं जन जागै, ताकै गोब्यंद साथी आगे॥
दीपक एक अभंगा, तामै सुर नर पड़ै पतंगा।
ऊँच नींच सम सरिया, ताथैं जन कबीर निसतरिया॥185॥
जब थैं आतम तत्त बिचारा।
तब निबर भया सबहिन थैं, काम क्रोध गहि डारा॥टेक॥
ब्यापक ब्रह्म सबनि मैं एकै, को पंडित को जोगी।
राँणाँ राव कवन सूँ कहिये, कवन बैद को रोगी॥
इनमैं आप आप सबहिन मैं, आप आप सूँ खेलै।
नाँनाँ भाँति घड़े सब भाँड़े, रूप धरे धरि मेलै॥
सोचि बिचारि सबै जग देख्या, निरगुण कोई न बतावै।
कहै कबीर गुँगी अरु पंडित, मिलि लीला जस गावै॥186॥
तू माया रघुनाथ की, खेलड़ चढ़ी अहेड़े।
चतुर चिकारे चुणि चुणि मारे, कोई न छोड़ा नेड़ै॥टेक॥
मुनियर पीर डिगंबर भारे, जतन करंता जोगी।
जंगल महि के जंगम मारे, तूँरे फिरे बलवंतीं।
वेद पढ़ंता बाँम्हण मारा, सेवा करताँ स्वामी॥
अरथ करंताँ मिसर पछाड़îा, तूँरै फिरे मैमंती।
साषित कैं तू हरता करता, हरि भगतन कै चेरी।
दास कबीर राम कै सग ज्यू लागी त्यूँ तोरी॥187॥
टिप्पणी:
ख-तू माया जगनाथ की।
जग सूँ प्रीति न कीजिए, सँमझि मन मेरा।
स्वाद हेत लपटाइए, को निकसै सूरा॥टेक॥
एक कनक अरु कामनी, जग में दोइ फंदा।
इनपै जौ न बँधावई, ताका मैं बंदा॥
देह धरे इन माँहि बास, कहु कैसे छूटै।
सीव भये ते ऊबरे, जीवन ते लूटै॥
एक एक सूँ मिलि रह्या, तिनहीं सचु पाया।
प्रेम मगन लैलीन मन, सो बहुरि न आया॥
कहै कबीर निहचल भया, निरभै पद पाया।
संसा ता दिन का गया, सतगुर समझाया॥188॥
राम मोहि सतगुर मिलै अनेक कलानिधि, परम तस सुखदाई।
काम अगनि तन जरत रही है, हरि रसि छिरकि बुझाई॥टेक॥
दरस परस तैं दुरमति नासी, दीन रटनि ल्यौ आई।
पाषंड भरँम कपाट खोलि कै अनभै कथा सुनाई॥
यहु संसार गँभीर अधिक जल को गहि लावै तीरा।
नाव जिहाज खेवइया साधू, उतरे दास कबीरा॥189॥
दिन दहुँ चहुँ कै कारणै, जैसे सैबल फूले।
झूठी सूँ प्रीति लगाइ करि, साँचे कूँ भूले॥टेक॥
जो रस गा सो परहर्या, बिडराता प्यारे।
आसति कहूँ न देखिहूँ, बिन नाँव तुम्हारे॥
साँची सगाई राम की, सुनि आतम मेरे।
नरकि पड़े नर बापुड़े गाहक जस तेरे॥
हंस उड़îा चित चालिया, सगपन कछू नाहीं।
माटी सूँ माटी मेलि करि, पीछैं अनखाँहीं॥
कहै कबीर जग अधला, कोई जन सारा।
जिनि हरि मरण न जाँणिया, तिनि किया पसारा॥190॥
माधौ मैं ऐसा अपराधी, तेरी भगति होत नहीं साधी॥टेक॥
कारनि कवन जाइ जग जनम्याँ, जनमि कवन सचु पाया।
भौ जल तिरण चरण च्यंतामणि, ता चित घड़ी न लाया॥
पर निंद्या पर धन पर दारा, पर अपवादैं सूरा।
ताथैं आवागवन होइ फुनि फुनि, तां पर संग न चूरा॥
काम क्रोध माया मद मंछर, ए संतति हम माँही।
दया धरम ग्यान गुर सेवा, ए प्रभु सुपिनै नाँहीं॥
तुम्ह कृपाल दयाल दमादर, भगत बछल भौ हारो।
कहै कबीर धीर मति राखहु, सासति करौं हमारी॥191॥
टिप्पणी:
ख-सो गति करहु हमारी।
राम राइ कासनि करौं पुकारा, ऐसे तुम्ह साहित
जाननिहारा॥टेक॥
इंद्री सबल निबल मैं माधौ, बहुत करै बरियाई।
लै धरि जाँहि तहाँ दुख पइये बुधि बल कछू न बसाई॥
मैं बपरौ का अलप मूढ़ मति, कहा भयो जे लूटे।
मुनि जन सती सिध अरु साधिक तेऊ न आपैं छूटे॥
जोगी जती तपा संन्यासी, अह निसि खोजैं काया।
मैं मेरी करि बहुत बिगूते, बिषै बाघ जग खाया॥
ऐकत छाँड़ि जाँहिं घर घरनी, तिन भी बहुत उपाया।
कहै कबीर कछु समझि न पाई, विषम तुम्हारी माया॥192॥
माधो चले बुनाँवन माहा, जग जीतै जाइ जुलाहा॥टेक॥
नव गज दस गज उननींसा, पुरिया एक तनाई।
सान सूत दे गंड बहुतरि, पाट लगी अधिकाई॥
तुलह न तोली गजह न मापी, पहज न सेर अढ़ाई।
अढ़ाई में जैं पाव घटे तो करकस करैं बजाई॥
दिन की बैठि खमस सूँ कीजै अरज लगी तहाँ ही।
भागी पुरिया घर ही छाड़ी चले जुलाह रिसाई॥
छोछी नली काँमि नहीं आवै, लहटि रही उरझाई।
छाँड़ि पसारा राम कहि बारै, कहै कबीर समझाई॥193॥
बाजैं जंत्रा बजावै गुँनी, राम नाँम बिन भूली
दुनीं॥टेक॥
रजगुन सतगुन तमगुन तीन, पंच तत से साजया बींन॥
तीनि लोक पूरा पेखनाँ, नाँच नचावै एकै जनाँ।
कहै कबीर संसा करि दूरि, त्रिभवननाथ रह्या भरपूरि॥194॥
जंत्री जंत्रा अनूपन बाजै, ताकौ सबद गगन मैं गाजै॥टेक॥
सुर की नालि सुरति का तूँबा, सतगुर साज बनाया।
सुर नर गण गंध्रप ब्रह्मादिक गुर बिन तिनहुँ न पाया॥
जिभ्या ताँति नासिका करहीं, माया का मैण लगाया।
गमाँ बतीस मोरणाँ पाँचौ, नीका साज बनाया॥
जंत्री जंत्रा तजै नहीं बाजै, तब बाजै जब बाबै।
कहै कबीर सोई जन साँचाँ जंत्री सूँ प्रीति लगावै॥195॥
अवधू नादैं व्यंद गगन गाज सबद अनहद बोलै।
अंतरि गति नहीं देखै नेड़ा, ढूंढ़त बन बन डोलै॥टेक॥
सालिगराम तजौं सिव पूजौं, सिर ब्रह्मा का काटौं।
सायर फोड़ि नीर मुलकाऊँ, कुंवाँ सिला दे पाटौं॥
चंद सूर दोइ तूँबा करिहूँ, चित चेतिनि की डाँड़ी।
सुषमन तंती बाजड़ लागी, इहि बिधि त्रिष्णाँ षाँडी॥
परम तत आधारी मेरे सिव नगरी धर मेरा।
कालहि षंडूँ नीच बिहंडूँ, बहुरि न करिहूँ फेरा॥
जपौं न जाप हतौं नहीं गूगल पुस्तक ले न पढ़ाऊँ।
कहै कबीर परम पद पाया, नहीं आऊँ नहीं जाऊँ॥196॥
बाबा पेड़ छाड़ि सब डाली लागै मूँढ़े जंत्रा अभागे।
सोइ सोइ सब रैणि बिहाँणी, भोर भयो तब जागे॥टेक॥
देवलि जाँऊँ तौं देवी देखौं, तीरथि जाँऊँ त पाणीं।
ओछी बुधि अगोचर बाँणी, नहीं परम गति जाँणीं॥
साथ पुकारैं समण्त नाँहीं, आन जन्म के सूने।
बाश्ँधै ज्यूँ अरहट की टीडरि, आवत जात बिगूते॥
गुर बिन इहि जग कौन भरोसा, काके संग ह्नै रहिए।
गानिका के घरि बेटाअ जाया, पिता नाँव किस कहिए॥
कहै कबीर यहु चित्र बिरोध्या, बूझी अंमृत बाँणी।
खोजत खोजत सतगुर पाया, रहि गई आँवण जाँणीं॥197॥
भूली मालिनी, हे गोब्यंद जागतौ जगदेव, तूँ करै
किसकी सेव॥टेक॥
भूली मालिन पाती तोड़ै, पाती पाती जीव।
जाँ मूरति को पाती तोड़ै, सो मूरति नर जीव॥
टाँचणहारै टाँचिया, दै छाती ऊपरि पाव।
लाडू लावण लापसी, पूजा चढ़ै अपार।
पूजि पुजारी ले गया, दे मूरति कै मुहिं छार।
पाती ब्रह्मा पुहपे बिष्णु, फूल फल महादेव।
तीनि देवौ एक मूरति करै किसकी सेव।
एक न भूला दोइ न भूला सब संसारा।
एक न भूला दास कबीरा, जाकैं राम अधारा॥198॥
सेई मन समझि संमर्थ सरणाँगता, जाकी आदि अंति मधि कोई न पावै।
कोटि कारिज सरैं दह गुँण सब जरै, नेक जो नाँव पनिब्रत आवै॥टेक॥
आकार की ओट आकार नहीं ऊँबरै, सिव बिरंचि अरु विष्णु ताँई।
जास का सेवक तास कौ पइहैं, इष्ट कौ छाड़ि आगे न जाहीं॥
गुँण मई मूरति सेइ सब भेष मिलि, निरगुण निज रूप विश्राम नाहीं।
अनेक जुग बंदिगी विविध प्रकार की, अंति गुँण का गुँणही समाहीं॥
पाँच तत तीनि गुण जुगति करि साँनिया, अष्ट बिन हेत नहीं क्रम आया।
पाप पुन बीज अंकुर जाँमैं मरै, उपजि बिनसैं जेती सर्ब माया॥
क्रितम करता कहै परम पद क्यूँ लहै, भूलि मैं पड़ा लोक सारा।
कहै कबीर राम रमिता भजै, कोई एक जन गये उतरि पारा॥199॥
राम राइ तेरी गति जाँणीं न जाई।
जो जस करिहैं सो तस पइहै, राजा राम नियाई॥टेक॥
जैसीं कहैं करैं जो तैंसीं, तो तिरत न लागै बारा।
कहता कहि गया सुनता सुणि गया, करणी कठिन अपारा।
सुरही तिण चरि अंमृत सरवै, लेर भवंगहि पाई।
अनेक जतन करि निग्रह कीजे, विषै बिकार न जाई॥
संत करै असंत की संगति, तासूँ कहा बसाई।
कहैं कबीर ताके भ्रम छूटै, जे रहे राम ल्यौ लाई॥200॥
कथणीं बदणी सब जजाल, भाव भगति अरु राम निराल॥टेक॥
कथैं बदै सुणै सब कोई, कथें न होई कीयें होई॥
कूड़ी करणीं राम न पावै, साच टिकै निज रूप दिखावै।
घट में अग्नि घर जल अवास, चेति बुझाइ कबीरा दास॥201॥
शीर्ष पर वापस
3. राग
आसावरी
ऐसा रे अवधू की वाणी, ऊपरि कूवटा तलि भरि
पाँणीं॥टेक॥
जब लग गगन जोति नहीं पलटै, अबिनासा सुँ चित नहीं विहुटै।
जब लग भँवर गुफा नहीं जानैं, तौ मेरा मन कैसै मानैं॥
जब लग त्रिकुटी संधि न जानैं, ससिहर कै घरि सूर न आनैं।
जब लग नाभि कवल नहीं सोधै, तौ हीरै हीरा कैसै बेधैं॥
सोलह कला संपूरण छाजा, अनहद कै घरि बाजैं बाजा॥
सुषमन कै घरि भया अनंदा, उलटि कबल भेटे गोब्यंदा।
मन पवन जब पर्या भया, क्यूँ नाले राँपी रस मइया।
कहै कबीर घटि लेहु बिचारी, औघट घाट सींचि ले क्यारी॥202॥
मन का भ्रम मन ही थैं भागा, सहज रूप हरि खेलण लागा॥टेक॥
मैं तैं तैं ए द्वै नाहीं, आपै अकल सकल घट माँहीं।
जब थैं इनमन उनमन जाँनाँ, तब रूप न रेष तहाँ ले बाँनाँ॥
तन मन मन तन एक समाँनाँ, इन अनभै माहै मनमाँना॥
आतमलीन अषंडित रामाँ, कहै कबीर हरि माँहि समाँनाँ॥203॥
आत्माँ अनंदी जोगी, पीवै महारस अंमृत
भोगी॥टेक॥
ब्रह्म अगनि काया परजारी, अजपा जाप जनमनी तारी॥
त्रिकुट कोट मैं आसण माँड़ै, सहज समाधि विषै सब छाँड़ै॥
त्रिवेणी बिभूति करै मन मंजन, जन कबीर प्रभु अलष निरंजन॥204॥
या जोगिया को जुगति जु बूझै, राम रमै ताकौ त्रिभुवन सूझै॥टेक॥
प्रकट कंथा गुप्त अधारी, तामैं मूरति जीवनि प्यारी।
है प्रभू नेरै खोजै दूरि, ज्ञाँन गुफा में सींगी पूरि॥
अमर बेलि जो छिन छिन पीवै, कहै कबीर सो जुगि जुगि जीवै॥205॥
सो जोगी जाकै मन मैं मुद्रा, रात दिवस न करई
निद्रा॥टेक॥
मन मैं आँसण मन मैं रहणाँ, मन का जप तप मन सूँ कहणाँ॥
मन मैं षपरा मन मैं सींगी, अनहद बेन बजावै रंगी।
पंच परजारि भसम करि भूका, कहै कबीर सौ लहसै लंका॥206॥
बाबा जोगी एक अकेला, जाके तीर्थ ब्रत न मेला॥टेक॥
झोलीपुत्र बिभूति न बटवा, अनहद बेन बजावै॥
माँगि न खाइ न भूखा सोवै, घर अँगना फिरि आवै॥
पाँच जना का जमाति चलावै, तास गुरु मैं चेला॥
कहै कबीर उनि देस सिधाय, बहुरि न इहि जगि मेला॥207॥
जोगिया तन कौ जंत्रा बजाइ, ज्यूँ तेरा आवागमन
मिटाइ॥टेक॥
तत करि ताँति धर्म करि डाँड़ि, सत की सारि लगाइ।
मन करि निहचल आसँण निहचल, रसनाँ रस उपजाइ॥
चित करि बटवा तुचा मेषली, भसमै भसम चढ़ाइ।
तजि पाषंड पाँच करि निग्रह, खोजि परम पद राइ॥
हिरदै सींगी ग्याँन गुणि बाँधौ, खोजि निरंजन साँचा।
कहै कबीर निरंजन की गति, जुगति बिनाँ प्यंड काचा॥208॥
अवधू ऐसा ज्ञाँन बिचारी, ज्यूँ बहुरि न ह्नै संसारी॥टेक॥
च्यँत न सोच चित बिन चितवैं, बिन मनसा मन होई।
अजपा जपत सुंनि अभिअंतरि, यहू तत जानैं सोई॥
कहै कबीर स्वाद जब पाया, बंक नालि रस खाया।
अमृत झरै ब्रह्म परकासैं तब ही मिलै राम राया॥209॥
गोब्यंदे तुम्हारै बन कंदलि, मेरो मन अहेरा
खेलै।
बपु बाड़ी अनगु मृग, रचिहीं रचि मेलैं॥टेक॥
चित तरउवा पवन षेदा, सहज मूल बाँधा।
ध्याँन धनक जोग करम, ग्याँन बाँन साँधा॥
षट चक्र कँवल बेधा, जारि उजारा कीन्हाँ।
काम क्रोध लोभ मोह, हाकि स्यावज दीन्हाँ॥
गगन मंडल रोकि बारा, तहाँ दिवस न राती।
कहै कबीर छाँड़ि चले, बिछुरे सब साथी॥210॥
साधन कंचू हरि न उतारै, अनभै ह्नै तौ अर्थ बिचारै॥टेक॥
बाँणी सुंरग सोधि करि आणै आणौं नौ रँग धागा।
चंद सूर एकंतरि कीया, सीवत बहु दिन लागा।
पंच पदार्थ छोड़ि समाँनाँ, हीरै मोती जड़िया।
कोटि बरष लूँ क्यूँ सीयाँ, सुर नर धधैं पड़या॥
निस बासुर जे सोबै नाहीं, ता नरि काल न खाई।
कहै कबीर गुर परसादैं सहजै रह्या समाई॥211॥
जीवत जिनि मारै मूवा मति ल्यावैं,
मास बिहूँणाँ घरिमत आवै हो कंता॥टेक॥
उर बिन षुर बिन चंच बिन, बपु बिहूँना सोई।
सो स्यावज जिनि मारै कंता, जाकै रगत मांस न होई॥
पैली पार के पारथी, ताकी धुनहीं पिनच नहीं रे।
तो बेली को ढूँक्यों मृग लौ, ता मृग कैसी सनहीं रे॥
मार्या मृग जीवता राख्या, यहु गुरु ग्याँन मही रे।
कहै कबीर स्वाँमी तुम्हारे मिलन की, बेली है पर पात नहीं रे॥212॥
धरी मेरे मनवाँ तोहि धरि टाँगौं,
तै तौ कीयौ मेरे खसम सूँ षाँगी॥टेक॥
प्रेम की जेवरिया तेरे गलि बाँधूँ, तहाँ लै जाँउँ जहाँ मेरौ माधौ।
काया नगरीं पैसि किया मैं बासा, हरि रस छाड़ि बिषै रसि माता॥
कहै कबीर तन मन का ओरा भाव भकति हरिसूँ गठजोरा॥213॥
परब्रह्म देख्या हो तत बाड़ी फूली, फल लागा
बडहूली।
सदा सदाफल दाख बिजौरा कौतिकहारी भूली॥टेक॥
द्वादस कूँवा एक बनमाली, उलट नीर चलावै।
सहजि सुषमनाँ कूल भरावै, दह दिसि बाड़ी पावै॥
ल्यौकी लेज पवन का ढींकू, मन मटका ज बनाया।
सत की पाटि सुरति का चठा, सहजि नीर मुलकाया॥
त्रिकुटी चढ़îौ पाव ढौ ढारै, अरध उरध की क्यारी।
चंद सूर दोऊ पाँणति करिहै, गुर सुषि बीज बिचारी॥
भरी छाबड़ा मन बैकुंठा, साँई सूर हिया रगा।
कहै कबीर सुनहु रे संतो, हरि हँम एकै संगा॥214॥
राम नाम रँग लागौ कुरंग न होई, हरि रंग सौ रंग और न कोई॥टेक॥
और सबै रंग इहि रंग थैं छूटै, हरि रंग लागा कदे न खूटै।
कहै कबीर मेरे रंग राम राँई, और पतंग रंग उड़ि जाई॥215॥
कबीरा प्रेम कूल ढरै, हँमारे राम बिना न सरे।
बाँधि ले धौंरा सीचि लै क्यारी ज्यूँ तूँ पेड़ भरैं॥टेक॥
काया बाड़ी महैं माली, टहल करै दिन राती।
कबहूँ न सोवै काज भँवारे, पाँण तिहारी माती॥
सेझै कूवा स्वाजि अति सीतल, कबहूँ कुवा बनहीं रे।
भाग हँमारे हरि रखवाले, कोई उजाड़ नहीं रे॥
गुर बीज जनाया कि रखि न पाया, मन को आपदा खोई।
औरै स्यावढ़ करै षारिसा, सिला करै सब कोई॥
जौ घरि आया तौ सब ल्याया, सबही काज सँवार्या।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, थकित भया मैं हार्या॥216॥
राजा राम बिना तकती धो धो।
राम बिना नर क्यूँ छूटौगे, जम करै नग धो धो धो॥टेक॥
मुद्रा पहर्या जोग न होई, घूँघट काढ़ा सती न कोई।
मा कै सँगि हिलि मिलि आया, फौकट सटै जनम गँवाया।
कहै कबीर जिनि हरि पद चीन्हाँ, मलिन प्यंड थैं निरमल कीन्हा॥217॥
है कोई राम नाम बतावै, वस्तु अगोचर मोहि
लखावै॥टेक॥
राम नाम सब बखानै, राम नाम का मरम जाँनैं॥
ऊपर की मोहि बात न भावै, देखै गावैं तौ सुख पावै।
कहै कबीर कछू कहत न आवै, परचै बिनाँ मरम को पावै॥218॥
गोब्यंदे तूँ निरंजन तूँ निरंजन राया।
तेरे रूप नहीं रेख नाँहीं, मुद्रा नहीं माया॥टेक॥
समद नाँहीं सिषर नाँहीं, धरती नाँहीं गगनाँ।
रबि ससि दोउ एकै नाँहीं, बहता नाँहीं पवनाँ॥
नाद नाँही ब्यँद नाँहीं काल नहीं काया।
जब तै जल ब्यंब न होते, तब तूँहीं राम राया॥
जप नाहीं तप नाहीं जोग ध्यान नहीं पूजा।
सिव नाँहीं सकती नाँहीं देव नहीं दूजा॥
रुग न जुग न स्याँम अथरबन, बेदन नहीं ब्याकरनाँ।
तेरी गति तूँहि जाँनै, कबीरा तो मरनाँ॥219॥
राम कै नाँइ निसाँन बागा, ताका मरक न जानै
कोई।
भूख त्रिषा गुण वाकै नाँहीं, घट घट अंतरि लोई॥टेक॥
बेद बिबर्जित भेद बिबर्जित बिबर्जित पाप रु पुंन्यं।
स्वाँन बिबर्जित ध्यान बिबर्जित, बिबर्जित अस्थूल सुंन्यं।
भेष बिबर्जित भीख बिबर्जित, बिबर्जित ड्यंमक रूपं।
कहै कबीरा तिहूँ लोक बिबर्जित, ऐसा तत्त अनूप॥220॥
राम राम राम रमि रहिए, साषित सेती भूलि न कहिये॥टेक॥
का सुनहाँ कौ सुमृत सुनायें, का साषित पै हरि गुन गाँये।
का कऊवा कौं कपूर खवाँयें, का बिसहर कौं दूध पिलाँयें।
साषित सुनहाँ दोऊ भाई, वो नींदे कौ भौंकत जाई।
अंमृत ले ले नींब स्यँचाई, कत कबीर बाकी बाँनि न जाई॥221॥
अब न बसूँ इहि गाँइ गुसाँई, तेरे नेवगी खरे सयाँने हो रामा॥टेक॥
नगर एक तहाँ जीव धरम हता, बसै जु पच किसानाँ।
नैनूँ निकट श्रवनूँ रसनूँ, इंद्री कह्या न मानै हो राम॥
गाँइ कु ठाकुर खेत कु नेपै, काइथ खरच न पारै।
जोरि जेवरी खेति पसारै, सब मिलि मोकौं मारै हो राम॥
खोटी महतौ बिकट बलाही, सिर कसदम का पारै।
बुरा दिवाँन दादि नहिं लागै, इक बाँधे इक मारै हो राम॥
धरमराई जब लेखा माँग्या, बाकी निकसी भारी।
पाँच किसानाँ भाजि गये हैं, जीव धर बाँध्यौ पारी हो राम॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, हरि भजि बाँधौ भेरा।
अबकी बेर बकसि बंदे कौं, सब खेत करौ नबैरा॥222॥
ता भै थैं मन लागौ राम तोही, करौ कृपा जिनि
बिसरौ मोहीं॥टैक॥
जननी जठर सह्या दुख भारी,
सो संक्या नहीं गई हमारी॥
दिन दिन तन छीजै जरा जनावै,
केस गहे काल बिरदंग बजावै॥
कहै कबीर करुणामय आगैं,
तुम्हारी क्रिपा बिना यहु बिपति न भागै॥223॥
कब देखूँ मेरे राम सनेही, जा बिन दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
हूँ तेरी पंथ निहारूँ स्वाँमी,
कब रमि लहुगे अंतरजाँमी॥
जैसैं जल बिन मीन तलपै,
एैसे हरि बिन मेरा जियरा कलपै॥
निस दिन हरि बिन नींद न आवै,
दरस पियासी राम क्यूँ सचु पावै।
कहै कबीर अब बिलंब न कीजै,
अपनौ जाँनि मोहि दरसन दीजै॥224॥
सो मेरा राम कबै घरि आवै, तो देखे मेरा जिय
सुख पावै॥टेक॥
बिरह अगिनि तन दिया जराई, बिन दरसन क्यूँ होइ सराई॥
निस बासुर मन रहे उदासा, जैसैं चातिग नीर पियासा॥
कहै कबीर अति आतुरताई, हमकौं बेगि मिलौ राम राई॥225॥
मैं सामने पीव गौंहनि आई।
साँई संगि साथ नहीं पूगी, गयौ जोबन सुपिनाँ की नाँई॥टेक॥
पंच जना मिलि मंडप छायौ, तीन जनाँ मिलि लगन लिखाई।
सखी सहेली मंगल गावैं, सुख दुख माथै हलद चढ़ाई॥
नाँना रंगयै भाँवरि फेरी, गाँठि जोरि बावै पति ताई।
पूरि सुहाग भयो बिन दूलह, चौक कै रंगि धरो सगौ भाई॥
अपने पुरिष मुख कबहूँ न देख्यौ, सती होत समझी समझाई।
कहै कबीर हूँ सर रचि मरिहूँ, तिरौ कंत ले तूर बजाई॥226॥
धीरैं धीरैं खाइबौ अनत न जाइबौ, राम राम राम
रमि रहिबौ॥टेक॥
पहली खाई आई माई, पीछै खैहूँ जवाई।
खाया देवर खाया जेठ, सब खाया ससुर का पेट।
खाया सब पटण का लोग, कहै कबीर तब पाया जोग॥227॥
टिप्पणी:
ख-खाया पंच पटण का लोग।
मन मेरौ रहटा रसनाँ पुरइया, हरि कौ नाऊँ लैं लैं काति बहुरिया॥टेक॥
चारि खूँटी दोइ चमरख लाई, सहजि रहटवा दियौ चलाई।
सासू कहै काति बहू ऐसैं, बिन कातैं निसतरिबौ कैसैं॥
कहै कबीर सूत भल काता, रहटाँ नहीं परम पद दाता॥228॥
अब की घरी मेरी घर करसी, साथ संगति ले मोकौं
तिरसीं॥टेक॥
पहली को घाल्यौ भरमत डाल्यौ, सच कबहूँ नहीं पायी॥
अब की धरनि धरी जा दिन थैं सगलौ भरम गमायौ॥
पहली नारि सदा कुलवंती, सासू सुसरा मानैं॥
देवर जेठ सबनि की प्यारी, पिव कौ मरम न जाँनैं॥
अब की धरनिधरी जा दिन थैं, पीव सूँ बाँन बन्यूँ रे।
कहै कबीर भग बपुरी कौ, आइ रु राम सुन्यूँ रे॥229॥
मेरी मति बौरी राम बिसारौं, किहि बिधि रहनि रहूँ हौ दयाल॥
सेजै रहूँ नैंन नहीं देखौं, यह दुख कासौं कहूँ हो दयाल॥टेक॥
सासु की दुखी ससुर की प्यारी, जेठ के तरसि डरौं रे॥
नणद सुहेली गरब गहेली, देवर कै बिरह जरौं हो दयाल॥
बाप सावको करैं लराई, माया सद मतिवाली।
सगौ भइया लै सलि चिढ़हूँ तब ह्नै हूँ पीयहि पियारी॥
सोचि बिचारि देखौं मन माँहीं, औसर आइ बन्यूँ रे।
कहै कबीर सुनहु मति सुंदरि, राजा राम रमूँ रे॥230॥
अवधू ऐसा ग्याँन बिचारी, ताथै भई पुरिष थैं
नारी॥टेक॥
ना हूँ परनी नाँ हूँ क्वारी, पून जन्यूँ द्यौ हारी।
काली मूँड कौ एक न छोड़ो, अजहूँ अकन कुवारी॥
बाम्हन के बम्हनेटी कहियौ, जोगी के घरि चेला।
कलमाँ पढ़ि पढ़ि भई तुरकनी, अजहूँ फिरौं अकेली॥
पीहरि जाँऊँ न सासुरै, पुरषहिं अंगि न लाँऊँ।
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अंगहि अँग छुवाँऊँ॥231॥
टिप्पणी:
ख-पूत जने जनि हारी।
मीठी मीठी माया तजी न जाई।
अग्याँनी पुरिष कौ भोलि भोलि खाई॥टेक॥
निरगुण सगुण नारी, संसारि पियारी,
लषमणि त्यागी गोरषि निवारी।
कीड़ी कुंजर मैं रही समाई,
तीनि लोक जीत्या माया किनहुँ न खाई॥
कहै कबीर पद लेहु बिचारी,
संसारि आइ माया किन्हूँ एक कही षारी॥232॥
मन कै मैलौ बाहरि ऊजलौ किसी रे,
खाँडे की धार जन कौ धरम इसी रे॥टेक॥
हिरदा कौ बिलाव नैन बगध्यानी,
ऐसी भगति न होइ रे प्रानी॥
कपट की भगति करै जिन कोई,
अंत की बेर बहुत दुख होई॥
छाँड़ि कपट भजौ राम राई,
कहै कबीर तिहुँ लोक बड़ाई॥233॥
चौखौ वनज ब्यौपार, आइनै दिसावरि रे राम जपि लाहौ लीजै॥टेक॥
जब लग देखौं हाट पसारा,
उठि मन बणियों रे, करि ले बणज सवारा।
बेगे ही तुम्ह लाद लदाँनों,
औघट घआ रे चलनाँ दूरि पयाँनाँ॥
खरा न खोटा नाँ परखानाँ,
लाहे कारनि रे सब मूल हिराँनाँ॥
सकल दुनीं मैं लोभ पियारा,
मूल ज राखै रे सोई बनिजारा॥
देस भला परिलोक बिराँनाँ,
जन दोइ चारि नरे पूछौ साथ सयाँनाँ॥
सायर तीन न वार न पारा,
कहि समझावै रे कबीर बणिजारा॥234॥
जौ मैं ग्याँन बिचार न पाया, तौ मैं यौं ही
जनम गँवाया॥टेक॥
यह संसार हाट करि जाँनूँ, सबको बणिजण आया।
चेति सकै सो चेतौ रे भाई, मूरिख मूल गँवाया॥
थाके नैंन बैंन भी थाके, थाकी सुंदर काया।
जाँमण मरण ए द्वै थाके, एक न थाकी माया।
चेति चेति मेरे मन चंचल, जब लग घट में सासा।
भगति जाव परभाव न जइयौ, हरि क चरन निवासा॥
जे जन जाँनि जपैं जग जीवन, तिनका ग्याँन नासा।
कहै कबीर वै कबहूँ न हारैं, जाँने न ढारै पासा॥235॥
लावौं बाबा आगि जलावौं घरा रे, ता कारनि मन धंधै परा रे॥टेक॥
इक डाँइनि मेरे मन मैं बसै रे, नित उठि मेरे जिय को डसै रे।
या डाँइन्स ले लरिका पाँच रे, निस दिन मोहि नचावैं नाच रे।
कहै कबीर हूँ ताकौ दास, डाँइनि कै सँगि रहे उदास॥236॥
बंदे तोहि बंदिगी सौ काँम, हरि बिन जानि और
हराँम।
दूरि चलणाँ कूँच वेगा, इहाँ नहीं मुकाँम॥टेक॥
इहाँ नहीं कोई यार दोस्त, गाँठि गरथ न दाम।
एक एकै संगि चलणाँ, बीचि नहीं बिश्राँम॥
संसार सागर बिषम तिरणाँ, सुमरि लै हरि नाँम।
कहै कबीर तहाँ जाइ रहणाँ, नगर बसत निधाँन॥237॥
झूठा लोग कहैं घर मेरा।
जा घर माँहैं बोलै डोलैं, सोई नहीं तन तेरा॥टेक॥
बहुत बँध्या परिवार कुटुँब मैं, कोई नहीं किस केरा।
जीवित आँषि मूँदि किन देखौ, संसार अंध अँधेरा॥
बस्ती मैं थैं मारि चलाया, जंगलि किया बसेरा।
घर कौ खरच खबरि नहीं भेजी, आप न कीया फेरा॥
हस्ती घोड़ा बैल बाँहणी, संग्रह किया घणेरा।
भीतरि बीबी हरम महल मैं, साल मिया का डेरा॥
बाजी को बाजीगर जाँनैं कै बाजीगर का चेरा।
चोरा कबहूँ उझकि न देखै चेरा अधिक चितेरा॥
नौ मन सूत उरझि नहीं सुरझै, जनमि जनमि उरझेरा।
कहै कबीर एक राम भजहु रे, बहुरि न हैगा फेरा॥238॥
हावड़ि धावड़ि जनम गवावै, कबहुँ न राम चरन चित
लावै॥टेक॥
जहाँ जहाँ दाँम तहाँ मन धावै, अँगुरी, गिनताँ रैंनि बिहावै।
तृया का बदन देखि सुख पावै, साथ की संगति कबहूँ न आवै॥
सरग के पंथि जात सब लोई सिर धरि पोट न पहुँच्या कोई।
कहै कबीर हरि कहा उबारे, अपणैं पाव आप जो मारै॥239॥
प्राँणी काहै कै लोभ लागि, रतन जनम खोयौ।
बहुरि हीरा हाथि न आवै, राम बिना रोयौ॥टेक॥
जल बूँद थैं ज्यानि प्यंड बाँध्या, अगनि कुंढ रहाया।
दस मास माता उदरि राख्या, बहुरि लागी माया॥
एक पल जीवन का आसा नाहीं, जम निहारे सासा।
बाजीगर संसार कबीरा, जाँनि ढारौ पासा॥240॥
फिरत कत फूल्यौ फूल्यौ।
जब दस मास उधर मुखि होते, सो दिन काहै भूल्यौ॥टेक॥
जौ झारै तौ होई भसम तन, रहम कृम ह्नै जाई॥
काँचै कुंभ उद्यक भरि राख्यौ, तिनकी कौन बड़ाई॥
ज्यूँ माषी मधु संचि करि, जोरि जोरि धन कीनो॥
मूय पीछै लेहु लेहु करि, प्रेत रहन क्यूँ दोनों॥
ज्यू घर नारी संग देखि करि, तब लग संग सुहेली॥
मरघट घाट खैचि करि राखे, वह देखिहु हंस अकेली॥
राम न रमहु मदन कहा भूले, परत अँधेररैं कूवा॥
कहै कबीर सोई आप बँधायौ, ज्यूँ नलनी का सूवा॥241॥
जाइ रे दिन हीं दिन देहा, करि लै बौरी राम सनेहा॥टेक॥
बालापन गयौ जोबन जासी, जुरा मरण भौ संकट आसी।
पलटै केस नैन जल छाया, मूरिख चेति बुढ़ापा आया॥
राम कहत लज्या क्यूँ कीजै, पल पल आउ घटै तन छीजै।
लज्या कहै हूँ जम की दासी, एकै हाथि मूदिगर दूजै हाथि पासी॥
कहै कबीर तिनहूँ सब हार्या, राम नाम जिनि मनहु बिसार्या॥242॥
मेरी मेरी करताँ जनम गयौ, जनम गयौ पर हरि न
कह्यौ॥टेक॥
बारह बरस बालापन खोयौ, बीस बरस कछु तप न कयौ।
तीन बरस कै राम न सुमिरौं, फिरि पछितानौं बिरध भयो॥
आयौ चोर तुरंग मुसि ले गयौ, मोरी राखत मगध फिरै॥
सीस चरन कर कंपन लागै, नैन नीर अस राल बहै।
जिभ्या बचन सूध नहीं निकसै, तब सुकरित की बात कहै॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ धन संच्यो कछु संगि न गयौ।
आई तलब गोपाल राइ की, मैंडी मंदिर छाड़ि चल्यौ॥243॥
टिप्पणी:
ख-मौरी बाँधत।
जाहि जाती नाँव न लीया, फिरि पछितावैगौ रे जीया॥टेक॥
धंधा करत चरन कर घाटे, जाउ घटि तन खीना।
बिषै बिकार बहुत रुचि माँनी, माया मोह चित दीन्हाँ॥
जागि जागि नर काहें सोवै, सोइ सोइ कब जागेगा।
जब घर भीतरि चोर पड़ैंगे, अब अंचलि किसके लागेगा॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो, करि ल्यौ जे कछु करणाँ।
लख चौरासी जोनि फिरौगे, बिना राम की सरनाँ॥244॥
टिप्पणी:
ख-धंधा करत करत कर थाके।
माया मोहि मोह हित कीन्हाँ, ताथैं मेरो ग्याँन
ध्याँन हरि लीन्हाँ॥टेक॥
संसार ऐसा सुपिन जैसा, न सुपिन समाँन।
साँच करि नरि गाँठि बाँध्यौं, छाड़ि परम निधाँन॥
नैन नेह पतंग हुलसै, पसू न पेखै आगि।
काल पासि जु मुगध बाँध्या, कलंक काँमिनी लागि॥
करि बिचार बिकार परहरि, तिरण तारण सोइ।
कहै कबीर रघुनाथ भजि नर, दूजा नाँही कोइ॥245॥
तेरा तेरा झूठा मीठा लागा, ताथैं साचे सूँ मन भागा॥टेक॥
झूठे के घरि झूठा आया, झूठै खाना पकाया।
झूठी सहन क झूठा बाह्या, झूठै झूठा खाया॥
झूठा ऊठण झूठा बैठण, झूठो सबै सगाई।
झूठे के घरि झूठा राता, साचे को न पत्याई॥
कहै कबीर अलह का पगुरा, साँचे सूँ मन लावौ।
झूठे केरी संगति त्यागौ, मन बंछित फल पावौ॥246॥
कौंण कौण गया राम कौंण कौण न जासी,
पड़सी काया गढ़ माटी थासी॥टेक॥
इंद्र सरीखे गये नर कोड़ी, पाँचौं पाँडौं सरिषी जोड़ी।
धू अबिचल नहीं रहसी तारा, चंद सूर की आइसी वारा॥
कहै कबीर जब देखि संसारा, पड़सी घट रहसी निरकारा॥247॥
ताथैं सेविये नाराँइणाँ प्रभू मेरो दीनदयाल दया करणाँ॥टेक॥
जौ तुम्ह पंडित आगम जाँणौं, विद्या व्याकरणाँ।
तंत मंत सब ओषदि जाणौं, अति तऊ मरणाँ॥
राज पाट स्यंघासण आसण, बहु सुंदर रमणाँ।
चंदन चीर कपूर विराजत, अंति तऊ मरणाँ॥
जोगी जती तपी संन्यासी, बहु तीरथ भरमणाँ।
लुंचित मुंडित मोनि जटाधर, अंति तऊ मरणाँ॥
प्रोचि बिचारि सबै जग देख्या, कहूँ न ऊबरणाँ।
कहै कबीर सरणाई आयौ, मेटि जामन मरणाँ॥248॥
पाँड़े न करसि बाद
बिबादं, या देही बिना सबद न स्वादं॥टेक॥
अंड ब्रह्मंड खंड भी माटी माटी नवनिधि काया।
माटी खोजत सतगुर भेट्या, तिन कछू अलख लखाया॥
जीवत माटी मूवा भी माटी, देखौ ग्यान बिचारी।
अंति कालि माटी मैं बासा, लेटे पाँव पसारी॥
माटी का चित्र पवन का थंभा, ब्यंद संजोगि उपाया।
भाँनैं घड़े सवारै सोई, यहु गोब्यंद की माया।
माटी का मंदिर ग्यान का दीप पवन बाति उजियारा।
तिहि उजियारै सब जग सूझै कबीर ग्याँन बिचारा॥249॥
मेरी जिभ्या बिस्न नैन नाराँइन, हिरदै जपौं गोबिंदा।
जब दुवार जब लेख माँग्या, तब का कहिसि मुकंदा॥टेक॥
तूँ ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना।
तैं सब माँगे भूपति राजा, मोरे राम धियाना॥
पूरब जनम हम ब्राँह्मन होते, वोछैं करम तप हीनाँ।
रामदेव की सेवा चूका, पकरि जुलाहा कीन्हाँ॥
नौमी नेम दसमी करि संजम, एकादसी जागरणाँ।
द्वादसी दाँन पुन्नि की बेलाँ, सर्व पाप छ्यौ करणाँ॥
भौ बूड़त कछू उपाय करीजै, ज्यूँ तिरि लंघै तीरा।
राम नाम लिखि मेरा बाँधौ, कहै उपदेस कबीरा॥250॥
टिप्पणी:
ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-
कहु पाँडे कैसी सुचि कीजै, सुचि कीजै तौ जनम न लीजै॥टेक॥
जा सुचि केरा करहु बिचारा, भिष्ट नए लीन्हा औतारा।
जा कारणि तुम्ह धरती काटी, तामै मूए जीव सौ साटी॥
जा कारणि तुम्ह लीन जनेऊ, थूक लगाइ कातै सब कोऊ।
एक खाल घृत केरी साखा, दूजी खाल मैले घृत राखा॥
सो घृत सब देवतनि चढ़ायौ, सोई घृत सब दुनियाँ भायौ।
कहै कबीर सुचि देहु बताई, राम नाम लीजौ रे भाई॥250॥
कहु पाँड़े सुचि कवन
ठाँव, जिहि घरि भोजन बैठि खाऊँ॥टेक॥
माता जूठा पिता पुनि जूठा जूठे फल चिल लागे।
जूठ आँवन जूठा जाँनाँ, चेतहु क्यूँ न अभागे॥
अन्न जूठा पाँनी पुनि जूठा, जूठे बैठि पकाया।
जूठी कड़छी अन्न परोस्या, जूठे जूठा खाया॥
चौका जूठा गोबर जूठा, जूठी का ढोकारा।
कहै कबीर तेई जन सूचे, जे हरि भजि तजहिं बिकारा॥251॥
हरि बिन झूठे सब ब्यौहार, केते कोऊ करौ गँवार॥टेक॥
झूठा जप तप झूठा ग्याँन, राम राम बिन झूठा ध्याँन।
बिजि नखेद पूजा आचार, सब दरिया मैं वार न पार॥
इंद्री स्वारथ मन के स्वाद, जहाँ साच तहाँ माँडै बाद।
दास कबीर रह्या ल्यौ लाइ, मर्म कर्म सब दिये बहाइ॥252॥
चेतनि देखै रे जग धंधा,
राम नाम का मरम न जाँनैं, माया कै रसि अंधा॥टेक॥
जतमत हीरू कहा ले आयो, मरत कहा ले जासी।
जैसे तरवर बसत पँखेरू, दिवस चारि के बासी॥
आपा थापि अवर कौ निंदै, जन्मत हो जड़ काटी।
हरि को भगति बिना यहु देही, धब लौटैे ही फाटी॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, पर अपवाद न सुणिये।
कहैं कबीर साथ की संगति, राम नाम गुण भणिये॥253॥
रे जम नाँहि नवै व्यापारी, जे भरैं जगाति तुम्हारी॥टेक॥
बसुधा छाड़ि बनिज हम कीन्हों, लाद्यो हरि को नाँऊँ।
राम नाम की गूँनि भराऊँ, हरि कै टाँडे जाँऊँ॥
जिनकै तुम्ह अगिवानी कहियत, सो पूँजी हँम पासा।
अबै तुम्हारी कछु बल नाँहीं, कहै कबीरा दासा॥254॥
मींयाँ तुम्ह सौं बोल्याँ बणि नहीं आवै।
हम मसकीन खुदाई बंदे, तुम्हारा जस मनि भावै॥टेक॥
अलह अवलि दीन का साहिब, जार नहीं फुरमाया।
मुरिसद पीर तुम्हारै है को, कहौ कहाँ थैं आया॥
रोजा करै निवाज गुजारै, कलमैं भिसत न होई।
संतरि काबे इक दिल भीतरि, जे करि जानैं कोई॥
खसम पिछाँनि तरस करि जिय मैं माल मनी करि फीकी।
आपा जाँनि साँई कूँ जाँनै, तब ह्नै भिस्त सरीकी॥
माटी एक भेष धरि नाँनाँ, सब मैं ब्रह्म समानाँ॥
कहै कबीर भिस्त छिटकाई, दाजग ही मन मानाँ॥255॥
अलह ल्यौ लाँयें काहे न रहिये, अह निसि केवल राम नाम कहिये॥टेक॥
गुरमुखि कलमा ग्याँन मुखि छुरि, हुई हलाहल पचूँ पुरी॥
मन मसीति मैं किनहूँ न जाँनाँ, पंच पीर मालिम भगवानाँ॥
कहै कबीर मैं हरि गुन गाऊँ, हिंदू तुरक दोऊ समझाऊँ॥256॥
रे दिल खोजि दिलहर खोजि, नाँ परि परेसाँनीं
माँहि।
महल माल अजीज औरति, कोई दस्तगोरी क्यूँ नाँहि॥टेक॥
पीराँ मुरीदाँ काजियाँ, मुलाँ अरू दरबेस।
कहाँ थे तुम्ह किनि कीये, अकलि है सब नेस॥
कुराना कतेबाँ अस पढ़ि पढ़ि, फिकरि या नहीं जाइ॥
दुक दम करारी जे करै, हाजिराँ सुर खुदाइ॥
दरोगाँ बकि बकि हूँहि खुसियाँ, बे अकलि बकहिं पुमाहिं।
इक साच खालिक खालक म्यानै, सो कछू सच सूरति माँहि॥
अलह पाक तूँ नापाक क्यूँ, अब दूसर नाँहीं कोइ।
कबीर करम करीम का, करनीं करै जाँनै सोइ॥257॥
टिप्पणी:
क-प्रति में आठवीं पंक्ति का पाठ इस प्रकार है-
साचु खलक खालक, सैल सूरति माँहि॥
खालिक हरि कहीं दर हाल।
पंजर जसि करद दुसमन मुरद करि पैमाल॥टेक॥
भिस्त हुसकाँ दोजगाँ दुंदर दराज दिवाल।
पहनाम परदा ईत आतम, जहर जंगम जाल।
हम रफत रहबरहु समाँ, मैं खुर्दा सुमाँ बिसियार।
हम जिमीं असमाँन खालिक, गुद मुँसिकल कार॥
असमाँन म्यानैं लहँग दरिया, तहाँ गुसल करदा बूद।
करि फिकर रह सालक जसम, जहाँ से तहाँ मौजूद॥
हँम चु बूँद खालिक, गरक हम तुम पेस।
कबीर पहन खुदाइ की, रह दिगर दावानेस॥258॥
अलह राम जीऊँ तेरे नाई, बंदे ऊपरि मिहर करी
मेरे साँई॥टेक॥
क्या ले माटी भुँइ सूँ, मारैं क्या जल देइ न्हवायें।
जो करै मसकीन सतावै, गूँन ही रहै छिपायें॥
क्या तू जू जप मंजन कीये, क्याँ मसीति सिर नाँयें।
रोजा करैं निमाज गुजारैं, क्या हज काबै जाँयें॥
ब्राह्मण ग्यारसि करै चौबीसौं, काजी महरम जाँन।
ग्यारह मास जुदे क्यू कीये, एकहि माँहि समाँन॥
जौ रे खुदाइ मसीति बसत है, और मुलिक किस केरा।
तीरथ मूरति राम निवासा, दुहु मैं किनहूँ न हेरा॥
पूरिब दिसा हरी का बासा, पछिम अलह मुकाँमा।
दिल ही खोजि दिलै दिल भीतरि, इहाँ राम रहिमाँनाँ॥
जेती औरति मरदाँ कहिये, सब मैं रूप तुम्हारा।
कबीर पंगुड़ा, अलह राम का, हरि गुर पीर हमारा॥259॥
टिप्पणी:
ख-सब मैं नूर तुम्हारा॥
मैं बड़ मैं बड़ मैं बड़ माँटी, मण दसना जट का दस गाँठी॥टेक॥
मैं बाबा का जाध कहाँऊँ, अपणी मारी नींद चलाऊँ।
इनि अहंकार घणें घर घाले, नाचर कूदत जमपुरि चाले॥
कहै कबीर करता ही बाजी, एक पलक मैं राज बिराजी॥260॥
काहे बीहो मेरे साथी, हूँ हाथी हरि केरा।
चौरासी लख जाके मुख मैं, सो च्यंत करेगा मेरा॥टेक॥
कहौ गौन षिबै कहौ कौन गाजै, कहा थैं पाँणी निसरै।
ऐसी कला अनत है जाकैं, सो हँम कौं क्यूँ बिसरै॥
जिनि ब्रह्मांड रच्यै बहु रचना, बाब बरन ससि सूरा।
पाइक पंच पुहमि जाकै प्रकटै, सो क्यूँ कहिये दूरा॥
नैन नालिक जिनि हरि सिरजे, बसन बसन बिधि काया।
साधू जन कौं क्यूँ बिसरै, ऐसा है राम राया॥
को काहू मरम न जानैं, मैं सरनाँगति तेरी।
कहै कबीर बाप राम राया, हुरमति राखहु मेरी॥261॥
शीर्ष पर वापस
4. राग सोरठि
हरि को नाम न लेइ गँवारा, क्या सोंचे बारंबारा॥टेक॥
पंच चोर गढ़ मंझा, गड़ लूटै दिवस रे संझा॥
जौ गढ़पति मुहकम होई, तौ लूटि न सकै कोई॥
अँधियारै दीपक चहिए, तब बस्त अगोचर लहिये॥
जब बस्त अगोचर पाई, तब दीपक रह्या समाई॥
जौ दरसन देख्या चाहिये, तौ दरपन मंजत रहिये॥
जब दरपन लागै कोई, तब दरसन किया न जाई॥
का पढ़िये का गुनिये, का बेद पुराना सुनिये॥
पढ़े गुने मति होई मैं सहजैं पाया सोई॥
कहैं कबीर मैं जाँनाँ, मैं जाँनाँ मन पतियानाँ॥
पतियानाँ जौ न पतीजै, तौ अंधै कूँ का कीजै॥262॥
अंधै हरि बिन को तेरा, कवन सूँ कहत मेरी
मेरा॥टेक॥
तजि कुलाकष्म अभिमाँनाँ, झूठे भरमि कहा भुलानाँ॥
झूठे तन की कहा बड़ाई, जे निमष माँहि जरि जाई॥
जब लग मनहिं विकारा, तब लगि नहीं छूटै संसारा।
जब मन निरमल करि जाँनाँ, तब निरमल माँहि समानाँ।
ब्रह्म अगनि ब्रह्म सोई, अब हरि बिन और न कोई॥
जब पाप पुँनि भ्रँम जारी, तब भयो प्रकास मुरारी।
कहैं कबीर हरि ऐसा, जहाँ जैसा तहाँ तैसा॥
भूलै भरमि परै जिनि कोई, राजा राम करै सो होई॥263॥
मन रे सर्यौ न एकौ काजा, ताथैं भज्यौ न जगपति राजा॥टेक॥
बेद पुराँन सुमृत गुन पढ़ि गुनि भरम न पावा।
संध्या गायत्री अरु षट करमाँ, तिन थैं दूरि बतावा॥
बनखंडि जाइ बहुत तप कीन्हाँ, कंद मूल खनि खावा।
ब्रह्म गियाँना अधिक धियाँनी, जम कै पटैं लिखावा॥
रोजा किया निवाज गुजारी, बंग दे लोग सुनावा।
हिरदै कपट मिलै क्यूँ साँई, क्या हल काबै जावा॥
पहरौं काल सकल जग ऊपरि, माँहै लिखे सब ग्याँनी।
कहै कबीर ते भये षालसे, राम भगति जिनि जाँनी॥264॥
मन रे जब तैं राम कह्यौ, पीछै कहिबे कौ कछू न
रह्यौ॥टेक॥
का जाग जगि तप दाँनाँ, जौ तै राम नाम नहीं जाँना॥
काँम क्रोध दोऊ भारे, ताथैं गुरु प्रसादि सब जारे॥
कहै कबीर भ्रम नासी, राजा राम मिले अबिनासी॥265॥
राम राइ सी गति भई हमारी, मो पै छूटत नहीं संसारी॥टेक॥
यूँ पंखी उड़ि जाइ अकासाँ, आस रही मन माँहीं॥
छूटीं न आस टूट्यौ नहीं फंधा उडिबौ लागौ काँहीं॥
जो सुख करत होत दुख तेही, कहत न कछु बनि आवै॥
कुंजर ज्यूँ कस्तूरी का मृग, आपै आप बँधावै॥
कहै कबीर नहीं बस मेरा, सुनिये देव मुरारी॥
इन भैभीत डरौं जम दूतनि, आये सरनि तुम्हारी॥266॥
राम राइ तूँ ऐसा अनभूत तेरी अनभैं थैं
निस्तरिये॥
जे तुम्ह कृपा करौ जगजीवन तौ कतहूँ न भूलि न परिये॥टेक॥
हरि पद दुरलभ अगर अगोचर, कथिया गुर गमि बिचारा।
जा कारँनि हम ढूँढ़त फिरते, आथि भर्यो संसारा॥
प्रगटी जोति कपाट खोलि दिये, दगधे जम दुख द्वारा।
प्रगटे बिस्वनाथ जगजीवन, मैं पाये करत बिचारा॥
देख्यत एक अनेक भाव है, लेखत जात अजाती।
बिह कौ देव तजि ढूँढत फिरते मंडप पूजा पाती॥
कहै कबीर करुणामय किया, देरी गलियाँ बह बिस्तारा।
राम कै नाँव परम पद पाया छूटै बिघन बिकारा॥267॥
राम राइ को ऐसा बैरागी, हरि भजि मगन रहै बिष त्यागी॥टेक॥
ब्रह्मा एक जिनि सृष्टि उपाई, नाँव कुनाल धराया।
बहु विधि भाँडै उमही घड़िया, प्रभु का अंत न पाया॥
तरवर एक नाँनाँ बिधि फलिया, ताकै मूल न साखा।
भौजलि भूलि रह्या से प्राणी सो फल कदे न चाखा॥
कहै कबीर गुर बचन हेत करि और न दुनियाँ आथी।
माटी का तन माटी मिलिहै, सबद गुरु का साथी॥268॥
नैक निहारी हो माया बिनती करै,
दीन बचन बोले कर जोरे, फुनि फुनि पाइ परै॥टेक॥
कनक लेहु जेता मनि भावै, कामिन लेहु मन हरनीं।
पुत्र लेहु विद्या अधिकारी राजा लेहु सब धरनीं॥
अठि सिधि लेहु तुम्ह हरि के जनाँ नवैं निधि है तुम्ह आगैं॥
सुर नर सकल भवन के भूपति, तेऊ लहै न मागैं॥
तै पापणीं सबै संधारे काकौ काज सँवारौं॥
दास कबीर राम कै सरनै छाड़ी झूठी माया।
गुर प्रसाद साथ की संगति, तहाँ परम पद पाया॥269॥
तुम्ह घरि जाहू हँमारी बहनाँ, बिष लागै तुम्हारे नैना॥टेक॥
अंजन छाड़ि निरंजन राते नाँ किसही का दैनाँ।
बलि जाऊँ ताकी जिनि तुम्ह पठई एक महा एक बहनाँ॥
राती खाँडी देख कबीरा, देखि हमारा सिंगारौ॥
सरग लोक थैं हम चलि आई, करत कबीर भरतारौ॥
सर्ग लोक में क्या दुख पड़िया, तुम्हे आई कलि माँहि।
जाति जुलाहा नाम कबीरा, अजहुँ पतीजौ नाँही॥
तहाँ जाहु जहाँ पाट पटंबर, अगर चंदन घसि लीनाँ।
आइ हमारै कहाँ करौगी, हम तौ जाति कमीनाँ॥
जिनि हँम साजे साँज्य निवाजे बाँधे काचै धागै।
जे तुम्ह जतन करो बहुतेरा, पाँणी आगि न लागै॥
साहिब मेरा लेखा मागै लेखा क्यूँ करि दीजै।
ते तुम्ह जतन करो बहुतेरा, तौ पाँइण नीर न भीजै॥
जाकी मैं मछी मो मेरा मछा, सो मरा रखवालू।
टुक एक तुम्हारै हाथ लगाऊँ, तो राजाँ राँम रिसालू॥
जाति जुलाहा नाम कबीरा, बनि बनि फिरौं उदासी।
आसि पासि तुम्ह फिरि फिरि बैसो, एक माउ एक मासी॥270॥
ताकूँ रे कहा कीजै भाई,
तजि अंमृत बिषै सूँ ल्यौ लाई॥टेक॥
बिष संग्रह कहा सुख पाया,
रंचक सुख कौ जनम गँवाया॥
मन बरजै चित कह्यो न करई,
सकति सनेह दीपक मैं परई॥
कहत कबीर मोहि भगति उमाहा,
कृत करणी जाति भया जुलाहा॥271॥
रे सुख इब मोहि बिष भरि लगा
इनि सुख डहके मोटे मोटे छत्रापति राजा॥टेक॥
उपजै बिनसै जाइ बिलाई संपति काहु के संगि न जाई॥
धन जोबन गरब्यो संसारा, बहु तन जरि बरि ह्नै छारा।
चरन कवल मन राखि ले धीरा, राम रमत सुख कहै कबीरा॥272॥
इब न रहूँ माटी के घर मैं,
इब मैं जाइ रहूँ मिलि हरि मैं॥टेक॥
छिनहर घर अरु झिरहर टाटी, धन गरजत कंपै मेरी छाती॥
दसवैं द्वारि लागि गई तारी, दूरि गवन आवन भयौ भारी॥
चहुँ दिसि बैठे चारि पहरिया, जागत मुसि नये मोर नगरिया॥
कहै कबीर सुनहु रे लोई, भाँनड़ घड़ण सँवारण सोई॥273॥
कबीर बिगर्या राम दुहाई,
तुम्ह जिनि बिगरौ मेरे भाई॥टेक॥
चंदन कै ढिग बिरष जु मैला, बिगरि बिगरि सो चंचल ह्नैला॥
पारस कौं जे लोह छिवैगा, बिगरि बिगरि सो कंचन ह्नैला॥
गंगा मैं जे नीर मिलैगा, बिगरि बिगरि गंगोदिक ह्नैला॥
कहै कबीर जे राम कहैला, बिगरि बिगरि सो राँमहि ह्नैला॥274॥
राम राम भई बिकल मति मोरी,
कै यहु दुनी दिवानी तेरी॥टेक॥
जे पूजा हरि नाही भावै सो पूजनहार चढ़ावै॥
जिहि पूजा हरि भल माँनै, सो पूजनहार न जाँनै॥
भाव प्रेम की पूजा ताथै भयो देव थैं दूजा॥
का कीजै बहुत पसारा, पूजी जे पूजनहारा॥
कहै कबीर मैं गावा, मैं गावा आप लखावा॥
जो इहि पद माँहि समाना, सो पूजनहार सयाँना॥275॥
राम राम भई बिगूचनि भारी,
भले इन ग्याँनियन थैं संसारी॥टेक॥
इक तप तीरथ औगाहैं इक मानि महातम चाँहै॥
इक मैं मेरी मैं बीझै, इक अहंमेव मैं रीझै॥
इक कथि कथि भरम जगाँवैं, सँमिता सी बस्त न पावैं।
कहै कबीर का कीजै, हरि सूझे सो अंजन दीजै॥276॥
काया मंजसि कौन गुनाँ,
घट भीतरि है मलनाँ॥टेक॥
जौ तूँ हिरदै सुख मन ग्यानीं, तौ कहा बिरौले पाँनी।
तूँबी अठसठी तीरथ न्हाई, कड़वापन तऊ न जाई॥
कहै कबीर बिचारी, भवसागर तारि मुरारी॥277॥
कैसे तूँ हरि कौ दास कहायौ,
कारे बहु भेषर जनम गँवायौ॥टेक॥
सुध बुध होइ भज्यौ नहिं सोई काछ्यो ड्यँभ उदर कै ताँई॥
हिरदै कपट हरि सूँ नहीं साँचौ, कहो भयो जे अनहद नाच्यौ॥
झूठे फोकट कलू मँझारा, राम कहै ते दास नियारा॥
भगति नारदी मगन सरीरा, इहि बिधि भव तिरि कहै कबीरा॥278॥
राँम राइ इहि सेवा भल माँनें,
जै कोई राँम नाँम तन जाँनैं॥टेक॥
दे नर कहा पषालै काया, सो तन चीन्हि जहाँ थैं आया॥
कहा बिभूति अटा पट बाँधे, का जल पैसि हुतासन साधें॥
राँममाँ दोई आखिर सारा, कहै कबीर तिहुँ लोक पियारा॥279॥
इहि बिधि राँम सूँ ल्यौ लाइ।
चरन पाषें निरति करि, जिभ्या बिना गुँण गाइ॥टेक॥
जहाँ स्वाँति बूँद न सीप साइर सहजि मोती होइ।
उन मोतियन में नीर पीयौ पवन अंबर धोइ॥
जहाँ धरनि बरषै गगन भीजै, चंद सूरज मेल।
दोइ मिलि तहाँ जुड़न लागे, करता हंसा केलि॥
एक बिरष भीतरि नदी चाली, कनक कलस समाइ।
पंच सुवटा आइ बैठे, उदै भई बनराइ॥
जहाँ बिछट्यो तहाँ लाग्यौ, गगन बैठी जाइ।
जन कबीर बटाऊवा, जिनि मारग लियौ चाइ॥280॥
ताथैं मोहि नाचवौ, न आवै,
मेरो मन मंदला न बजावै॥टेक॥
ऊभर था ते सूभर भरिया, त्रिष्णां गागरि फूटी।
हरि चिंतत मेरो मंदला भीनौं, भरम भीयन गयौ छूटी॥
ब्रह्म अगनि मैं जरी जु ममिता, पाषंड अरु अभिमानाँ।
काम चोलना भया पुराना, मोपैं होइ न आना॥
जे बहु रूप कीये ते किये, अब बहु रूप न होई।
थाकी सौंज संग के बिछुरे, राम नाँम मसि धोई॥
जे थे सचल अचल ह्नै थाके, करते बाद बिबाद।
कहै कबीर मैं पूरा पाया, भय राम परसाद॥281॥
अब क्या कीजै ग्यान बिचारा,
निज निरखत गत ब्यौहारा॥टेक॥
जाचिग दाता इक पाया धन दिया जाइ न खाया॥
कोई ले भरि सकै न मूका, औरनि पै जानाँ चूका॥
तिस बाझ न जीब्या जाई, वो मिलै त घालै खाई॥
वो जीवन भला कहाहीं, बिन मूवाँ जीवन नाहीं॥
घसि चंदन बनखंडि बारा, बिन नैननि रूप निहारा॥
तिहि पूत बाप इक जाया, बिन ठाहर नगर बसाया॥
जौ जीवत ही मरि जाँनै, तौ पंच सयल सुख मानैं॥
कहै कबीर सो पाया, प्रभु भेटत आप गँवाया॥282॥
अब मैं पायौ राजा राम सनेही॥टेक॥
जा बिनु दुख पावै मेरी देही॥टेक॥
वेद पुरान कहत जाकी साखी, तीरथि ब्रति न छूटै जंम की पासी॥
जाथैं जनम लहत नर आगैं, पाप पुंनि दोऊ भ्रम लागै॥
कहै कबीर सोई तत जागा, मन भया मगन प्रेम रस लागा॥283॥
बिरहिनी फिरै है नाम अधीरा,
उपजि बिनाँ कछू समझि न परई, बाँझ न जानै पीरा॥टेक॥
या बड़ बिथा सोई भल जाँने राँम बिरह सर मारी।
कैसो जाँने जिनि यहु लाई, कै जिनि चोट सहारी॥
संग की बिछुरी मिलन न पावै सोच करै अरु काहै।
जतन करै अरु जुगति बिचारै, रटै राँम कूँ चाहै॥
दीन भई बूझै सखियन कौं, कोई मोही राम मिलावै।
दास कबीर मीन ज्यूँ तलपै, मिलै भलै सचु पावै॥284॥
जातनि बेद न जानैगा जन सोई,
सारा भरम न जाँनै राँम कोई॥टेक॥
चषि बिन दिवस जिसी है संझा,
ब्यावन पीर न जानै बंझा॥
सूझै करक न लागै कारी,
बैद बिधाता करि मोहि सारी॥
कहै कबीर यहु दुख कासनि कहिये,
अपने तन की आप ही सहिये॥285॥
जन की पीर हो राजा राम भल जाँनै,
कहूँ काहि को मानै॥टेक॥
नैन का दुख बैन जाँने, बैन को दुख श्रवनाँ॥
प्यंड का दुख प्रान जानै, प्रान का दुख मरनाँ॥
आस का दुख प्यासा जानै, प्यास का दुख नीर॥
भगति का दुख राम जानैं, कहै दास कबीर॥286॥
तुम्ह बिन राँम कवन सौं कहिये,
लागी चोट बहुत दुख सहिये॥टेक॥
बेध्यौ जीव बिरह कै भालै, राति दिवस मेरे उर सालै॥
को जानै मेरे तन की पीरा, सतगुर बहि गयौ सरीरा॥
तुम्ह से बैद न हमसे रोगी, उपजी बिथा कैसे जीवैं बियोगी॥
निस बासुरि मोहि चितवत जाई, अजहूँ न आइ मिले राँम राई॥
कहत कबीर हमकौं दुख भारी, बिन दरसन क्यूँ जीवहि मुरारी॥287॥
टिप्पणी:
ख प्रति में अंतिम पंक्ति इस प्रकार
है-
लागी चोट बहुत दुख सहिये॥देखो 287 की टेक।
तेरा हरि नाँमैं जुलाहा,
मेरे राँम रमण को लाहा॥टेक॥
दस सै सूत्रा की पुरिया पूरी, चंद सूर दोइ साखी।
अनत नाँव गिनि लई मजूरी, हिरदा कवल मैं राखी॥
सुरति सुमृति दोइ खूँटी कीन्हीं आरँभ कीया बमेकीं।
ग्यान तत की नली भराई बुनित आतमा पेषीं॥
अबिनासी धन लई मँजूरी, पूरी थापनि पाई।
रस बन सोधि सोधि सब आये, निकटै दिया बताई॥
मन सूधा कौ कूच कियौ है, ग्यान बिरथनीं पाई।
जीव की गाँठि गुढी सब भागी, जहाँ की तहाँ ल्यौ लाई॥
बेठि बेगारि बुराई थाकी, अनभै पद परकासा।
दास कबीर बुनत सच पाया, दुख संसार सब नासा॥288॥
भाई रे सकहु त तनि बुनि लेहु रे,
पीछे राँमहि दोस न देहु रे॥टेक॥
करगहि एकै बिनाँनी, ता भीतरि पंच पराँनी॥
तामैं एक उदासी, तिहि तणि बुणि सबै बिनासी॥
ज तूँ चौसठि बरिया धावा, नहीं होइ पंच सूँ मिलाँवा॥
जे तैं पाँसै छसै ताँणी, तौ सुख सूँ रह पराँणीं॥
पहली तणियाँ ताणाँ पीछ बुणियाँ बाँणाँ॥
तणि बुणि मुरतब कीन्हाँ, तब राम राइ पूरा दीन्हाँ॥
राछ भरत भइ संझा, तरुणीं त्रिया मन बंधा॥
कहै कबीर बिचारा, अब छोछी नली हँमारी॥289॥
वै क्यूँ कासी तजैं मुरारी,
तेरी सेवा चोर भशे बनवारी॥टेक॥
जोगी जती तपी संन्यासी, मठ देवल बसि परसै कासी॥
तीन बार जे निज प्रति न्हावै, काया भीतरि खबरि न पावै॥
देवल देवल फेरी देहीं, नाँव निरंजन कबहुँ न लेहीं॥
चरन बिरद कासी कौं न देहूँ, कहै कबीर भल नरकहिं जैहूँ॥290॥
तब काहे भूलौ बजजारे,
अब आयौ चाहै संगि हँमारे॥टेक॥
जब हँम बनजी लौंग सुपारी, तब तुम्ह काहे बनजी खारी।
जब हम बनजी परमल कस्तूरी, तब तू काहे बनजी कूरी॥
अंमृत छाड़ि हलाहल खाया, लाभ लाभी करि करि मूल गँवाया।
कहै कबीर हँम बनज्या सोई, जाँथै आवागमन न होई॥291॥
परम गुर देखो रिदै बिचारी,
कछू करौ सहाई हमारी॥टेक॥
लावानालि तंति एक सँमि करि जंत्रा एक भल साज।
सति असति कछु नाहीं जानूँ, जैसे बजवा तैसैं बाजा॥
चोर तुम्हारा तुम्हारी आग्या, मुसियत नगर तुम्हारा।
इनके गुनह हमह का पकरौ, का अपराध हमारा॥
सेई तुम्ह सेई हम एकै कहियत, जब आपा पर नाहीं जाँनाँ।
ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, कहै कबीर मन माँनाँ॥292॥
मन रे आइर कहाँ गयौ,
ताथैं मोहि वैराग भयौ॥टेक॥
पंच तत ले काया कीन्हीं, तत कहा ले कीन्हाँ।
करमौं के बसि जीव कहत है, जीव करम किनि दीन्हाँ॥
आकास गगन पाताल गगन दसौं दिसा गगन रहाई ले।
आँनँद मूल सदा परसोतम, घट बिनसै गगन न जाई ले॥
हरि मैं तन हैं तन मैं हरि है, है पुनि नाँही सोई।
कहै कबीर हरि नाँम न छाडू सहजै होई सो होई॥293॥
हँमारै कौन सहै सिरि भारा,
सिर की शोभा सिरजनहारा॥टेक॥
टेढी पाग बड जूरा, जबरि भये भसम कौ कूरा॥
अनहद कीगुरी बाजी, तब काल द्रिष्टि भै भागी॥
कहै कबीर राँम राया, हरि कैं रँगैं मूड़ मुड़ाया॥294॥
कारनि कौन सँवारे देहा,
यहु तनि जरि बरि ह्नै षेहा॥टेक॥
चोवा चंदन चरचत अंगा, सो तन जरत काठ के संगा॥
बहुत जतन करि देह मुट्याई, अगिन दहै कै जंबुक खाई॥
जा सिरि रचि रचि बाँधत पागा ता सिरि चंच सँवारत कागा॥
कहि कबीर सब झूठा भाई, केवल राम रह्यो ल्यौ लाई॥295॥
धन धंधा ब्यौहार सब, मिथ्याबाद।
पाँणीं नीर हलूर ज्यूँ, हरि नाँव बिना अपवाद॥टेक॥
इक राम नाम निज साचा, चित चेति चतुर घट काचा।
इस भरमि न भूलसि भोली, विधना की गति है ओली॥
जीवते कूँ मारन धावै, मरते को बेरि जिआवै।
जाकै हुँहि जम से बैरी, सो क्यूँ न सोवै नींद घनेरी॥
जिहि जागत नींद उपावै तिहि सोवत क्यूँ न जगावै॥
जलजंतु न देखिसि प्रानी, सब दीसै झूठ निदानी॥
तन देवल ज्यूँ धज आछै, पड़ियां पछितावै पाछै॥
जीवत ही कछू कीजै, हरि राम रसाइन पीजै॥
राम नाम निज सार है, माया लागि न खोई॥
अंति कालि सिर पोटली, ले जात न देख्या कोई॥
काहू के संगि न राखी, दीसै बीसल की साखी॥
जब हंस पवन ल्यौ खेलै, पसरो हाटिक जब मेलै॥
मानिष जनम अवतारा, तां ह्नैहै बारंबारा॥
कबहूँ ह्नै किसा बिहाँनाँ, तब पंखी जेम उड़ानाँ॥
सब आप आप कूँ जाई, को काहू मिलै न भाई॥
मूरिख मनिखा जनम गँवाया, बर कौडी ज्यूँ डहकाया॥
जिहि तन धन जगत भुलाया, जग राख्यो परहरि माया॥
जल अंजुरी जीवन जैसा, ताका है किसा भरोसा।
कहै कबीर जग धंधा, काहे न चेतहु अंधा॥296॥
रे चित चेति च्यंति लै ताही, जा च्यंतत आपा पर
नाँही॥टेक॥
हरि हिरदै एक ग्याँन उपाया, ताथैं छूटि गई सब माया॥
जहाँ नाँद न ब्यंद दिवस नहीं राती, नहीं नरनारि नहीं कुल जाती॥
कहै कबीर सरब सुख दाता, अविगत अलख अभेद बिधाता॥297॥
सरवर तटि हंसणी तिसाई जुगति बिनाँ हरि जल पिया न जाई॥टेक॥
पीया चाहे तौ लै खग सारी, उड़ि न सकै दोऊ पर भारी॥
कुँभ लीयै ठाढ़ी पनिहारी, गुण बिन नींर भरै कैसे नारीं॥
कहै कबीर गुर एक बुधि बताई, सहज सुभाइ मिलै राम राई॥298॥
भरथरी भूप भंया बैरागी।
बिरह बियोग बनि बनि ढूँढै, वाकी सूरति साहिब सौं लागी॥टेक॥
हसती घोड़ा गाँव गढ़ गूडर, कनडापा इक आगी।
जोगी हूवा जाँणि जग जाता, सहर उजीणीं त्यागी॥
छत्रा सिघासण चवर ढुलंता, राग रंग बहु आगी॥
सेज रमैणी रंभा होती, तासौं प्रीत न लागी॥
सूर बीर गाढ़ा पग रोप्या, इह बिधि माया त्यागी॥
सब सुख छाड़ि भज्या इक साहिब, गुरु गोरख ल्यौ लागी।
मनसा बाचा हरि हरि भाखै, ग्रंधप सुत बड़ भागी।
कहै कबीर कुदर भजि करता, अमर भणे अणरागी॥299॥
टिप्पणी:
ख-प्रति में यह पद नहीं है।
शीर्ष पर वापस
5. राग
केदारौ
सार सुख पाइये रे, रंगि रमहु आत्माँराँम॥टेक॥
बनह बसे का कीजिये, जे मन नहीं तजै बिकार।
घर बन तत समि जिनि किया ते बिरला संसार॥
का जटा भसम लेपन किये, कहा गुफा मैं बास।
मन जीत्या जग जीतिये, जौ बिषया रहै उदास॥
सहज भाइ जे ऊपजै, ताका किसा माँन अभिमान।
आपा पर समि चीनियैं, तब मिलै आतमां राम॥
कहै कबीर कृपा भई, गुर ग्यान कह्या समझाइ।
हिरदै श्री हरि भेटियै, जे मन अनतै नहीं जाइ॥300॥
है हरि भजन कौ प्रवान।
नींच पावैं ऊँच पदवी बाजते नीसान॥टेक॥
भजन कौ प्रताप ऐसो, तिरे जल पाषान।
अधम भील अजाति गनिका, चढ़े जात बिवान॥
नव लख तारा चलै मंडल, चलै ससिहर भान।
दास धू कौ अटल पदवी, राम को दीवाँन॥
निगत जाकी साखि बोलै, कहै संत सुजाँन।
जन कबीर तेरी सरनि आयौ, राखि लेहु भगवाँन॥301॥
चलो सखी जाइये तहाँ, जहाँ गये पाइयै परमानंद॥टेक॥
यहु मन आमन धूमनाँ, मेरो तन छीजत नित जाइ।
च्यंतामणि चित चोरियौ, ताथैं कछू न सुहाइ॥
सुँनि लखी सुपनै की गति ऐसी, हरि आए हम पास।
सोवत ही जगाइया, जागत भए उदास॥
चलु सखी बिलम न कीजिये, जब लग सांस सरीर।
मिलि रहिये जमनाथ सूँ, सूँ कहै दास कबीर॥302॥
मेरे तन मन लागी चोट सठोरी।
बिसरे ग्यान बुधि सब नाठी, भई बिकल मति बौरी॥टेक॥
देह बदेह गलित गुन तीनूँ, चलत अचल भई ठौरी।
इत उत चित कित द्वादस चितवत, यहु भई गुपत ठगौरी॥
सोई पै जानै पीर हमारी, जिहिं सरीर यहु ब्यौरी।
जन कबीर ठग ठग्यौ है बापुरौ, सुंनि सँमानी त्यौरी॥303॥
मेरी अँषियाँ जानि सुजान भई।
देवर भरम ससुर संग तजि करि, हरि पीव तहाँ गई॥टेक॥
बालपनै के करम हमारे काटे जानि दई।
बाँह पकरि करि कृपा कीन्हीं, आप समीप लई॥
पानी की बूँद थैं जिनि प्यंड साज्या, तासंगि अधिक करई।
दास कबीर पल प्रेम न घटई, दिन दिन प्रीति नई॥304॥
हो बलियां कब देखोगी तोहि।
अह निस आतुर दरसन कारनि, ऐसी ब्यापै मोहि॥टेक॥
नैन हमारे तुम्ह कूँ चांहै, रती न मांनै हारि।
बिरह अगनि तन अधिक जरावै ऐसी लेहु बिचारि॥
सुनहुं हमारी दादि गुसांई, अब जिन करहुं वधीर।
तुम्ह धीरज मैं आतुर स्वामी, काचै भांडै नीर॥
बहुत दिनन के बिछुरै माधौ, मन नहीं बाँधे धीर।
देह छतां तुम्ह मिलहु कृपा करि, आरतिवंत कबीर॥305॥
वे दिन कब आवैगे भाइ।
जा कारनि हम देह धरी है, मिलिबौ अंगि लगाइ॥टेक॥
हौं जाँनूं जे हिल मिलि खेलूँ, तन मन प्राँन समाइ।
या काँमनाँ करौ परपूरन, समरथ हौ राम राइ॥
मांहि उदासी साधौ चाहे, चितवन रैनि बिहाइ।
सेज हमारी स्यंध भई है, जब सोऊँ तब खाइ।
यह अरदास दास की सुनिये, तन को तपति बुझाइ॥
कहैं कबीर मिलै जे साँई, मिलि करि मंगल गाइ॥306॥
बाल्हा आव हमारे गेहु रे, तुम्ह बिन दुखिया
देह रे॥टेक॥
सब को कहै तुम्हारी नारी, मोकौ इहै अदेह रे।
एकमेक ह्नै सेज न सोवै, तब लग कैसा नेह रे॥
आन न भावै नींद न आवै, ग्रिह बन धरै न धीर रे।
ज्यूँ कामी कौ काम पियारा, ज्यूँ प्यासे कूँ नीर रे॥
है कोई ऐसा परउपगारी, हरि सूँ कहै सुनाइ रे॥
ऐसे हाल कबीर भये हैं, बिन देखे जीव जाइ रे॥307॥
माधौ कब करिहौ दाया।
काम क्रोध अहंकार ब्यापै, नां छूटे माया॥टेक॥
उतपति ब्यंद भयौ जा दिन थें, कबहूँ सच नहीं पायो।
पंच चोर सगि लाइ दिए हैं, दन संगि जनम गँवायो।
तन मन डस्यौ भुजंग भामिनी, लहरी वार न पारा।
सो गारडू मिल्यो नहीं कबहूँ, पसरो बिष बिकराला।
कहै कबीर यहु कासूँ कहिये, यह दुख कोई न जानै।
देहु दीदार बिकार दूरि करि, तब मेरा मन मांनै॥308॥
टिप्पणी:
ख-लहरी अंत न पारा।
मैं बन भूला तूँ समझाइ।
चित चंचल रहै न अटक्यौ, बिषै बन कूँ जाइ॥टेक॥
संसार सागर मांहि भूल्यो, थक्यो करत उपाइ।
मोहनी माया बाघनी थैं, राखि लै राम राइ।
गोपाल सुनि एक बीनती, सुमति तन ठहराइ।
कहै कबीर यहु काम रिप है, मारै सबकूँ ढाइ॥309॥
भगति बिन भौजलि डूबत है रे।
बोहिथ छाड़ि बेसि करि डूंडै, बहुतक दुख सहै रे॥टेक॥
बार बार जम पै डहकावै, हरि को ह्नै न रहे रे।
चोरी के बालक की नाई, कासूँ बाप कहे रे॥
नलिनी के सुवटा की नांई, जग सूँ राचि रहे रे।
बंसा अपनि बंस कुल निकसै, आपहिं आप दहे रे॥
खेवट बिनां कवन भौ तारै, कैसे पार गहे रे।
दास कबीर कहै समझावै, हरि की कथा जीवै रे॥
रांम कौ नाँव अधिक रस मीठौं, बारंबार पीवै रे॥310॥
चलत कत टेढौं टेढौं रे।
नउँ दुवार नरक धरि मूँदे, तू दुरगंधि को बैढी रे॥
जे जारे तौ होई भसमतन, तामे कहाँ भलाई॥
सूकर स्वाँन काग कौ भखिन, रहित किरम जल खाई।
फूटे नैन हिरदै नाहीं सूझै, मति एकै नहीं जाँनी॥
माया मोह ममिता सूँ बाँध्यो, बूडि मूवो बिन पाँनी॥
बारू के घरवा मैं बैठी, चेतन नहीं अयाँनाँ।
कहै कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयाना॥311॥
अरे परदेसी पीव पिछाँनि।
कहा भयौ तोकौं समझि न परई, लागी कैसी बांनि॥टेक॥
भोमि बिडाणी मैं कहा रातौ, कहा कियो कहि मोहि।
लाहै कारनि मूल गमावै, समझावत हूँ तोहि॥
निस दिन तोहि क्यूँ नींद परत है, चितवत नांही तोहि॥
जम से बैरी सिर परि ठाढे, पर हथि कहाँ बिकाइ।
झूठे परपंच मैं कहा लगौ, ऊंठे नाँही चालि॥
कहै कबीर कछू बिलम न कीजै, कौने देखी काल्हि॥312॥
भयौ रे मन पहुंनड़ौ दिन चारि।
आजिक काल्हिक मांहि चलौगो, ले किन हाथ सँवारि॥टेक॥
सौंज पराई जिनि अपणावै, ऐसी सुणि किन लेह।
यहु संसार इसी रे प्राँणी, जैसी धूँवरि मेह।
तन धन जीवन अंजुरी कौ पानी, जात न लागै बार।
सैवल के फूलन परि फूल्यो, गरब्यो कहाँ गँवार॥
खोटी खाटै खरा न लीया, कछू न जाँनी साटि।
कहै कबीर कछू बनिज न कीयौ, आयौ थौ इहि हाटि॥313॥
मन रे राम नामहिं जांनि।
थरहरी थूँनी परो मंदिर सूतौ खूँटी तानि॥टेक॥
सैन तेरी कोई न समझै, जीभ पकरी आंनि।
पाँच गज दोवटी माँगी, चूँन लीयो साँनि॥
बैसदंर पोषरी हांडी, चल्यौ लादि पलानि।
भाई बंध बोलइ बहु रे, काज कीनौ आँनि।
कहै कबीर या मैं झूठ नाँहीं, छाँड़ि जीय की बाँनि।
राम नाम निसंक भजि रे, न करि कुल की काँनि॥314॥
प्राणी लाल औसर चल्यौ रे बजाइ।
मुठी एक मठिया मुठि एक कठिया, संग काहू कै न जाइ॥टेक॥
देहली लग तेरी मिहरी सगी रे, फलसा लग सगी माइ।
मड़हट लूँ सब लोग कुटुंबी, हंस अकेलो जाइ।
कहाँ वे लौग कहाँ पुर पाटण, बहुरि न मिलबौ आइ।
कहै कबीर जगनाथ भजहु रे, जन्म अकारथ जाइ॥315॥
राम गति पार न पावै कोई।
च्यंतामणि प्रभु निकटि छाड़ि करि, भ्रंमि मति बुधि खोई॥टेक॥
तीरथ बरत जपै तप करि करि, बहुत भाँति हरि सोधै।
सकति सुहाग कहौ क्यूँ पावे, अछता कंत बिरोधै॥
नारी पुरिष बसै इक संगा, दिन दिन जाइ अबोलै।
तजि अभिमान मिलै नहीं पीव कूँ, ढूँढत बन बन डोलै॥
कहै कबीर हरि अकथ कथा है, बिरला कोई जानै।
प्रेम प्रीति बेधी अंतर गति, कहूँ काहि को मानै॥316॥
राम बिनां संसार धंध कुहेरा,
सिरि प्रगट्या जम का फेरा॥टेक॥
देव पूजि पूजि हिंदू मूये, तुरुक मूये हज जाई।
जटा बाँधि बाँधि जोगी मूये, कापड़ी के दारौ पाई॥
कवि कवीवै कविता मूये, कापड़ी के दारौ जाई।
केस लूंचि लूंचि मूये बरतिया, इनमें किनहुँ न पाई॥
धन संचते राजा मूये अरु ले कंचन भारी।
बेद पढे़ पढ़े पंडित मूये, रूप भूले मूई नारी।
जे नर जोग जुगति करि जाँनै, खोजै आप सरीरा।
तिनकूँ मुकति का संसा नाहीं, कहत जुलाह कबीरा॥317॥
कहूँ रे जे कहिबे की होइ।
नाँ को जाने नाँ को मानै ताथें अचिरज मोहि॥टेक॥
अपने अपने रंन के राजा, मांनत नाहीं कोइ।
अति अभिमान लोभ के घाले, अपनपौ खोइ॥
मैं मेरी करि यहु तन खोयो, समझत नहीं गँवार।
भौजलि अधफर थाकि रहे हैं, बूड़े बहुत अपार॥
मोहि आग्या दई दयाल दया करि, काहू कूँ समझाइ।
कहै कबीर मैं कहि कहि हार्यो, अब मोहिं दोष न लाइ॥318॥
एक कोस बन मिलांन न मेला।
बहुतक भाँति करै फुरमाइस, है असवार अेकला॥टेक॥
जोरत कटक जु धरत सब गढ़, करतब झेली झेला।
जोरि कटक गढ़ तोरि पातसाह, खेली चल्यो एक खेला॥
कूंच मुकांम जोग के घर मैं, कछू एक दिवस खटांनां।
आसन राखि बिभूति साखि दे, फुनि ले माटी उडांना॥
या जोगी की जुगति जू जांनै, सो सतगुर का चेला।
कहै कबीर उन गुर की कृपा थैं, तिनि सब भरम पछेला॥319॥
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6. राग मारू
मन रे राम सुमिरि राम सुमिरि राम सुमिरि भाई।
राम नाम सुमिरन बिनै, बूड़त है अधिकाई॥टेक॥
दारा सुत गेह नेह, संपति अधिकाई॥
यामैं कछु नांहि तेरौ, काल अवधि आई॥
अजामेल गज गनिका, पतित करम कीन्हाँ॥
तेऊ उतरि पारि गये, राम नाम लीन्हाँ॥
स्वांन सूकर काग कीन्हौ, तऊ लाज न आई॥
राम नाम अंमृत छाड़ि काहे बिष खाई।
तजि भरम करम बिधि नखेद, राम नाम लेही॥
जन कबीर गुर प्रसादि, राम करि सनेही॥320॥
राम नाम हिरदै धरि, निरमौलिक हीरा।
सोभा तिहूँ लोक, तिमर जाय त्रिविध पीरा॥टेक॥
त्रिसनां नै लोभ लहरि, काम क्रोध नीरा।
मद मंछर कछ मछ हरषि सोक तीरा॥
कांमनी अरु कनक भवर, बोये बहु बीरा॥
जब कबीर नवका हरि, खेवट गुरु कीरा॥321॥
चलि मेरी सखी हो, वो लगन राम राया।
जब तक काल बिनासै काया॥टेक॥
जब लोभ मोह की दासी, तीरथ ब्रत न छूटै जंभ की पासी।
आवैंगे जम के घालैगे बांटी, यहु तन जरि बरि होइगा माटी।
कहै कबीर जे जन हरि रंगिराता, पायौ राजा राम परम पद दाता॥322॥
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7. राग टोड़ी
तू पाक परमानंदे।
पीर पैकबर पनहु तुम्हारी, मैं गरीब क्या गंदे॥टेक॥
तुम्ह दरिया सबही दिल भीतरि, परमानंद पियारे।
नैक नजरि हम ऊपरि नांहि, क्या कमिबखत हमारे॥
हिकमति करै हलाल बिचारै, आप कहांवै मोटे।
चाकरी चोर निवाले हाजिर, सांई सेती खोटे॥
दांइम दूवा करद बजावै, मैं क्या करूँ भिखारी।
कहै कबीर मैं बंदा तेरा, खालिक पनह तुम्हारी॥323॥
अब हम जगत गौंहन तैं भागे,
जग की देखि गति रांमहि ढूंरि लांगे॥टेक॥
अयांनपनै थैं बहु बौराने, समझि पर तब फिर पछिताने।
लोग कहौ जाकै जो मनि भावे, लहै भुवंगम कौन डसावै॥
कबीर बिचारि इहै डर डरिये, कहै का हो इहाँ रै मरिये॥324॥
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8. राग भैरूँ
ऐसा ध्यान धरौ नरहरी
सबद अनाहद च्यंत करी॥टेक॥
पहलो खोजौ पंचे बाइ, बाइ ब्यंद ले गगन समाइ।
गगन जोति तहाँ त्रिकुटी संधि, रबि ससि पवनां मेलौ बंधि॥
मन थिर होइ न कवल प्रकासै, कवला माँहि निरंजन बासै।
सतगुरु संपट खोलि दिखावै, निगुरा होइ तो कहाँ बतावै।
सहज लछिन ले तजो उपाधि, आसण दिढ निद्रा पुनि साधि॥
पुहुप पत्रा जहाँ हीरा मणीं, कहै कबीर तहाँ त्रिभुवन धणीं॥325॥
इहि बिधि सेविये श्री नरहरी,
मन ही दुविध्या मन परहरी॥टेक॥
जहाँ नहीं तहाँ कछू जाँणि, जहाँ नहीं तहाँ लेहु पछाँणि॥
नांही देखि न जइये भागि, जहाँ नहीं तहाँ रहिये लागि॥
मन मंजन करि दसवैं द्वारि, गंगा जमुना सधि बिचारि॥
नादहि ब्यंद कि ब्यंदहि नाद, नादहिं ब्यंद मिलै गोब्यंद।
देवी न देवा पूजा नहीं जाप, भाइ न बंध माइ नहीं बाप।
गुणातीत जस निरगुन आप, भ्रम जेवड़ो जन कीया साप॥
तन नांही कब जब मन नांही, मन परतीति ब्रह्म मन मांहि।
परहरि बकुला ग्रहि गुन डार, निरखि देखि निधि वार न पार॥
कहै कबीर गुरपरम गियांन, सुनि मंडल मैं धरो धियांन॥
प्यंडं परे जीव जैहैं जहाँ, जीवत ही ले राखी तहाँ॥326॥
अलह अलख निरंजन देव, किहि बिधि करौं तुम्हारी
सेव॥टेक॥
विश्न सोई जाको विस्तार, सोई कृस्न जिनि कीयौ संसार।
गोब्यंद ते ब्रह्मंडहि नहै, सोई राम जे जुगि जुगि रहै॥
अलह सोई जिनि उमति उपाई, दस दर खोलै सोई खुदाई।
लख चौरासी रब परवरै, सोई करीब जे एती करै।
गोरख सोई ग्यांन गमि गहे, महादेव सोई मन को लहै॥
सिध सोई जो साधै इति, नाय सोई जो त्रिभवन जती।
सिध साधू पैकंबर हूवा, जपै सू एक भेष है जूवा।
अपरंपार की नांउ अनंत, कहै कबीर सोई भगवंत॥327॥
तहाँ जौ राम नाम ल्यौ लागै,
तो जरा मरण छूटै भ्रम भागै॥टेक॥
अगम निगम गढ़ रचि ले अवास, तहुवां जोलि करै परकास।
चमकै बिजुरी तार अनंत, तहाँ प्रभु बैठे कवलाकंत॥
अखंड मंडित मंडित भंड, त्रि स्नांन करै त्रीखंड॥
अगम अगोचर अभिअंतश, ताकौ पार न पावै धरणीधरा।
अरध उरध बिचि लाइ ले अकास, तहुंवा जोति करै परकास।
टारौं टरै न आवै जाइ, सहज सुंनि मैं रह्यौ समाइ।
अबरन बरन स्यांम नहीं पीत, होहू जाइ न गावै गीत।
अनहद सबद उठे झणकार, तहाँ प्रभु बैठे समरथ सार।
कदली पुहुप दीप परकास, रिदा पंकज मैं लिया निवास।
द्वादस दल अभिअंतरि स्यंत, तहाँ प्रभु पाइसि करिलै च्यंत॥
अमलिन मलिन घाम नहीं छांहां, दिवस न राति नहीं हे ताहाँ।
तहाँ न उगै सूर न चंद, आदि निरंजन करै अनंद॥
ब्रह्मंडे सो प्यंडे जांन, मानसरोवर करि असनांन।
सोहं हंसा ताकौ जाप, ताहि न लिपै पुन्य न पाप॥
काया मांहै जांनै सोई, जो बोलै सो आपै होई।
जोति मांहि जे मन थिर करै, कहै कबीर सो प्रांणी तिरै॥328॥
एक अचंभा ऐसा भया,
करणीं थैं कारण मिटि गया॥टेक॥
करणी किया करम का नास, पावक माँहि पुहुप प्रकास।
पुहुप मांहि पावक प्रजरै, पाप पुंन दोउ भ्रम टरै॥
प्रगटी बास बासना धोइ, कुल प्रगट्यौ कुल घाल्यौ खोइ।
उपजी च्यंत च्यंत मिटि गई, भौ भ्रम भागा ऐसे भई।
उलटी गंग मेर कूँ चली, धरती उलटि अकासहिं मिली॥
दास कबीर तत ऐसी कहै, ससिहर उलटि राह की गहै॥329॥
है हजूरि क्या दूर बतावै,
दुंदर बाँधे सुंदर पावै॥टेक॥
सो मुलनां जो मनसूँ लरै, अह निसि काल चक्र सूँ भिरै।
काल चक्र का मरदै मांन, तां मुलनां कूँ सदा सलांम॥
काजी सो जो काया बिचारे, अहनिसि ब्रह्म अगनि प्रजारै।
सुप्पनै बिंद न देई झरनां, ता काजी कूँ जुरा न मरणां॥
सो सुलितान जु द्वै सुर तानै, बाहरि जाता भीतरि आनै।
गगन मंडल मैं लसकर करै, सो सुलितान छत्रा सिरि धरै॥
जोगी गोरख गोरख करै, हिंदू राम नाम उच्चरै।
मुसलमान कहै एक खुदाइ, कबीरा को स्वांमी घटि घटि रह्यो समाइ॥330॥
आऊँगा न जाऊँगा, न मरूँगा न जीऊँगा।
गुर के सबद मैं रमि रमि रहूँगा॥टेक॥
आप कटोरा आपै थारी, आपै पुरिखा आपै नारी।
आप सदाफल आपै नींबू, आपै मुसलमान आपै हिंदू॥
आपै मछकछ आपै जाल, आपै झींवर आपै काल।
कहै कबीर हम नांही रे नांही, नां हम जीवत न मूवले मांही॥331॥
हम सब मांहि सकल हम मांहीं,
हम थैं और दूसरा नाहीं॥टेक॥
तीनि लोक मैं हमारा पसारा, आवागमन सब खेल हमारा।
खट दरसन कहियत हम मेखा, हमहीं अतीत रूप नहीं रेखा।
हमहीं आप कबीर कहावा, हमहीं अपनां आप लखावा॥332॥
सो धन मेरे हरि का नांउ, गाँठि न बाँधौं बेचि
न खांउं॥टेक॥
नांउ मेरे खेती नांउ मेरे बारी, भगति करौं मैं सरनि तुम्हारी।
नांउ मेरे सेवा नांउ मेरे पूजा, तुम्ह बिन और न जानौ दूजा॥
नांउ मेरे बंधव नांव मेरे भाई, अंत कि बेरियां नाँव सहाई।
नांउ मेरे निरधन ज्यूँ निधि पाई, कहैं कबीर जैसे रंक मिठाई॥333॥
अब हरि अपनो करि लीनौं, प्रेम भगति मेरौ मन भीनौं॥टेक॥
जरै सरीर अंग नहीं मोरौ, प्रान जाइ तो नेह तोरौ।
च्यंतामणि क्यूँ पाइए ठोली, मन दे राम लियौ निरमोली॥
ब्रह्मा खोजत जनम गवायौ, सोई राम घट भीतरि पायो।
कहै कबीर छूटी सब आसा, मिल्यो राम उपज्यौ बिसवासा॥334॥
लोग कहै गोबरधनधारी, ताकौ मोहिं अचंभो
भारी॥टेक॥
अष्ट कुली परबत जाके पग की रैना, सातौ सायर अंजन नैना॥
ए उपभां हरि किती एक ओपै, अनेक भेर नख उपारि रोपै॥
धरनि अकास अधर जिनि राखी, ताकी मुगधा कहै न साखी।
सिव बिरंचि नारद जस गावै, कहै कबीर वाको पार न पावै॥335॥
राम निरंजन न्यारा रे, अंजन सकल पसारा रे॥टेक॥
अंजन उतपति वो उंकार, अंजन मांड्या सब बिस्तार।
अंजन ब्रह्मा शंकर ईद, अंजन गोपी संगि गोब्यंद॥
अंजन बाणी अंजन बेद, अंजन कीया नांनां भेद।
अंजन विद्या पाठ पुरांन, अंजन फोकट कथाहिं गियांन॥
अंजन पाती अंजन देव, अंजन की करै अंजन सेव॥
अंजन नाचै अंजन गावै, अंजन भेष अनंत दिखावै।
अंजन कहौ कहाँ लग केता, दांन पुनि तप तीरथ जेता॥
कहै कबीर कोई बिरला जागै, अंजन छाड़ि निरंजन लागै॥336॥
अंजन अलप निरंजन सार, यहै चीन्हि नर करहूँ
बिचार॥टेक॥
अंजन उतपति बरतनि लोई, बिना निरंजन मुक्ति न होई।
अंजन आवै अंजन जाइ, निरंजन सब घट रह्यौ समाइ।
जोग ग्यांन तप सबै बिकार, कहै कबीर मेरे राम अधार॥337॥
एक निरंजन अलह मेरा, हिंदु तुरक दहू नहीं नेरा॥टेक॥
राखूँ ब्रत न मरहम जांनां, तिसही सुमिरूँ जो रहै निदांनां।
पूजा करूँ न निमाज गुजारूँ, एक निराकार हिरदै नमसकारूँ॥
नां हज जांउं न तीरथ पूजा, एक पिछांणा तौ का दूजा।
कहै कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूँ मन लागा॥338॥
तहाँ मुझ गरीब की को गुदरावै, मजलिस दूरि महल
को पावै॥टेक॥
सत्तरि सहस सलार है जाके, असी लाख पैकंबर ताके।
सेख जु कहिय सहस अठासी, छपन कोड़ि खलिबे खासी।
कोड़ि तैतीसूँ अरु खिलखांनां, चौरासी लख फिरै दिवांना॥
बाबा आदम पै नजरि दिलाई, नबी भिस्त घनेरी पाई।
तुम्ह साहिब हम कहा भिखारी, देत जबाब होत बजगारी॥
जब कबीर तेरी पनह समांनां, भिस्त नजीक राखि रहिमांनां॥339॥
जौ जाचौं तो केवल राम, आंन देव सूँ नांहीं काम॥टेक॥
जाकै सूरिज कोटि करै परकास, कोटि महादेव गिरि कबिलास।
ब्रह्मा कोटि बेद ऊचरै, दुर्गा कोटि जाकै मरदन करैं॥
कोटि चंद्रमां गहै चिराक, सुर तेतीसूँ जीमैं पाक।
नौग्रह कोटि ठाढे दरबार, धरमराइ पौली प्रतिहार॥
कोटि कुबेर जाकै भरें भंडार, लक्ष्मी कोटि करैं सिंगार।
कोटि पाप पुंनि ब्यौहरै, इंद्र कोटि जाकी सेवा करें।
जगि कोटि जाकै दरबार, गंध्रप कोटि करै जैकार।
विद्या कोटि सबै गुण कहै, पारब्रह्म कौ पार न लहै॥
बासिग कोटि सेज बिसतरै, पवन कोटि चौबारे फिरै।
कोटि समुद्र जाकै पणिहारा, रोमावली अठारहु भारा॥
असंखि कोटि जाकै जमावली, रावण सेन्यां जाथैं चली॥
सहसवांह के हरे परांण, जरजोधन घाल्यौ खै मान।
बावन कोटि जाके कुटवाल, नगरी नगरी क्षेत्रापाल॥
लट छूटी खेलैं बिकराल, अनंत कला नटवर गोपाल।
कंद्रप कोटि जाकै लांवन करै, घट घट भीतरी मनसा हरै।
दास कबीर भजि सारंगपान, देह अभै पद मांगौ दान॥340॥
मन न डिगै ताथैं तन न डराई, केवल राम रहे ल्यौ
लाई॥टेक॥
अति अथाह जल गहर गंभीर, बाँधि जँजीर जलि बोरे हैं कबीर।
जल की तरंग उठि कटि है जंजीर, हरि सुमिरन तट बैठे हैं कबीर॥
कहै कबीर मेरे संग न साथ, जल थल में राखै जगनाथ॥341॥
भलै नीदौ भलै नीदौ भले नीदौ लोग, तनौ मन राम पियारे जोग॥टेक॥
मैं बौरी मेरे राम भरतार, ता कारंनि रचि करौ स्यंगार।
जैसे धुबिवा रज मल धोवै, हर तप रत सब निंदक खोवै॥
न्यंदक मेरे माई बाप, जन्म जन्म के काटे पाप।
न्यंदक, मेरे प्रान अधार, बिन बेगारी चलावै भार॥
कहै कबीर न्यंदक बलिहारी, आप रहै जन पार उतारी॥342॥
जो मैं बौरा तौ राम तोरा, लोग मरम का जांनै
मोरा॥टेक॥
माला तिलक पहरि मन मानां, लोगनि राम खिलौनां जांना।
थोरी भगति बहुत अहंकारा, ऐसे भगता मिलै अपारा॥
लोग कहै कबीर बीराना, कबीरा कौ भरत रांम भल जाना॥343॥
हरिजन हंस दसा लिये डोलै, निर्मल नांव चवै जस बोलै॥टेक॥
मानसरोवर तट के बासी, राम चरन चित आंन उदासी।
मुकताहल बिन चंच न लावै, मौंनि गहे कै हरि गुन गांवै॥
कउवा कुबधि निकट नहीं आवै, सो हंसा निज दरसन पावै॥
कहै कबीर सोई जन तेरा, खीर नीर का करै नबेरा॥344॥
सति राम सतगुर की सेवा, पूजहु राम निरंजन
देवा॥टेक॥
जल कै मंजन्य जो गति होई, मीनां नित ही न्हावै।
जैसा मींनां तैसा नरा, फिरि फिरि जोनी आवै॥
मन मैं मैला तीर्थ न्हावै, तिनि बैकुंठ न जांना।
पाखंङ करि करि जगत भुलांनां, नांहिन राम अयांनां॥
हिरदे कठोर मरै बनारसि, नरक न बंच्या जाई।
हरि कौ दास मरै जे मगहरि, सेन्यां सकल तिराई॥
पाठ पुरान बेद नहीं सुमिरत, तहाँ बसै निरकारा।
कहै कबीर एक ही ध्यावो, बावलिया संसारा॥345॥
क्या ह्नै तेरे न्हाई धाँई, आतम रांम न चीन्हा सोंई॥टेक॥
क्या घट उपरि मंजन कीयै, भीतरि मैल अपारा॥
राम नाम बिन नरक न छूटै, जे धोवै सौ बारा॥
का नट भेष भगवां बस्तर, भसम लगावै लोई।
ज्यूँ दादुर सुरसरी जल भीतरि हरि बिन मुकति न होई॥
परिहरि काम राम कहि बौरे सुनि सिख बंधू मोरी।
हरि कौ नांव अभयपददाता कहै कबीरा कोरी॥346॥
पांणी थे प्रकट भई चतुराई गुर प्रसादि परम
निधि पाई॥टेक॥
इक पांणी वांणी कूँ धोवै एक पांणी पांणी कूँ मोहै।
पांणी ऊँचा पांणी नीचां, ता पांणी का लीजै सींचा॥
इसके पांणी थैं प्यंड उपाया, दास कबीर राम गुण गाया॥347॥
भजि गोब्यंद भूमि जिनि जाहु, मनिषा जनम कौ एही लाहु॥टेक॥
गुर सेवा करि भगति कमाई, जौ तै मनिषा देही पाई।
या देही कूँ लौचै देवा, सो देही करि हरि कि सेवा॥
जब लग जरा रोग नहीं आया, तब लग काल ग्रसै नहिं काया।
जब लग हींण पड़े नहीं वाणीं, तब लग भजि मन सांरंगपाणीं॥
अब नहीं भजसि भजसि कब भाई, आवेगा अंत भज्यौ जाई॥
जे कछू करौ सोई तत सार फिरि पछितावोगे बार न पार॥
सेवग सो जो लागे सेवा, तिनहीं पाया निरंजन देवा।
गुर मिलि जिनि के खुले कपाट, बहुरि न आवै जोनी बाट॥
यहु तेरा औसर यहु तरि बार, घट ही भीतरि सोचि बिचारि।
कहै कबीर जीति भावै हारि बहु बिधि कह्यौ पुकारि पुकारि॥348॥
ऐसा ज्ञान बिचारि रे मनां, हरि किन सुमिरै दुख
भंजना॥टेक॥
जब लग मैं में मेरी करै, तब लग काज एक नहीं सरै।
जब यहु मैं मेरी मिटि जाइ, तब हरि काज सँवारै आइ।
जब स्यंध रहै बन मांहि, तब लग यहु बन फूलै नांहि।
उलटि स्याल स्यंध कूँ खाइ, तब यहु फूलै सब बनराई॥
जीत्या डूबै हार्या तिरै, गुर प्रसाद जीवत ही मरै।
दास कबीर कहै समझाइ, केवल राम रहौ ल्यो लाइ॥349॥
जागि रे जीव जागि रे।
चोरन को डर बात कहत हैं, उठि उठि पहरै लागि रे॥टेक॥
ररा करि टोप समां करि बखतर, ग्यान रतन करि ताग रे।
ऐसै जौ अजराइल मारै, मस्तकि आवै भाग रे॥
ऐसी जागणी जे को जागै, तौ हरि देइ सुहाग रे।
कहै कबीर जग्या ही चाहिए, क्या गृह क्या बैराग रे॥350॥
जागहु रे नर सोवहु कहा,
जम बटपारै रूँधे पहा॥टेक॥
जागि थेति कछू करौ उपाई, मोआ बैरी है जमराई।
सेत काग आये बन मांहि, अजहु रे नर चेतै नांहि॥
कहै कबीर तबै नर जागै, जंम का डंड मूंड मैं लागै॥351॥
जाग्या रे नर नींद नसाई,
चित चेत्यो च्यंतामणि पाई॥टेक॥
सोवत सोवत बहुत दिन बीते, जन जाग्या तसकर गये रीते।
जन जागे का ऐमहि नांण, बिष से लागे वेद पुराण।
कहै कबीर अब सोवो नांहि, राम रतन पाया घट मांहि॥352॥
संतनि एक अहेरा लाधा, मिर्गनि खेत सबति का
खाधा॥टेक॥
या जंगल मैं पाँचौ मृगा, एई खेत सबनि का चरिगा।
पाराधीपनौ जे साधै कोई, अध खाधा सा राखै सोई॥
कहै कबीर जो पंचौ मारै, आप तिरै और कूं तारै॥353॥
हरि कौ बिलोवनो विलोइ मेरी माई,
ऐसै बिलोइ जैसे तत न जाई॥टेक॥
तन करि मटकी मननि बिलोइ, ता मटकी मैं पवन समोइ।
इला पयंगुला सुषमन नारी, बेगि विलोइ ठाढी छलिहारी॥
कहै कबीर गुजरी बौरांनी, मटकी फूटी जोतिं समानी॥354॥
आसण पवन कियै दिढ़ रहु रे,
मन का मैल छाड़ि दे बौरे॥टेक॥
क्या सींगी मुद्रा चमकाये, क्या बिभूति सब अंगि लगाये॥
सो हिंदू सो मुसलमान, जिसका दुरस रहै ईमांन॥
सो ब्रह्मा जो कथै ब्रह्म गियान, काजी सो जानै रहिमान॥
कहै कबीर कछू आन न कीजै, राम नाम जपि लाहा दीजै॥355॥
ताथैं, कहिये लोकोचार,
बेद कतेब कथैं ब्योहार॥टेक॥
जारि बारि करि आवै देहा, मूंवां पीछै प्रीति सनेहा।
जीवन पित्राहि गारहि डंगा, मूंवां पित्रा ले घालैं गंगा॥
जीवत पित्रा कूँ अन न ख्वावै, मूंवां पीछे ष्यंड भरावै॥
जीवत पित्रा कूँ बोलै अपराध, मूंवां पीछे देहि सराध॥
कहि कबीर मोहि अचिरज आवै, कउवा खाइ पित्रा क्यूँ पावै॥356॥
बाप राम सुनि बीनती मोरी, तुम्ह सूँ प्रगट
लोगन सूँ चोरी॥टेक॥
पहलै काम मुगध मति कीया, ता भै कंपै मेरा जीया।
राम राइ मेरा कह्या सुनीजै, पहले बकसि अब लेखा लीजै॥
कहै कबीर बाप राम राया, कबहुं सरनि तुम्हारी आया॥357॥
अजहूँ बीच कैसे दरसन तोरा,
बिन दरसन मन मांनै, क्यूँ मोरा॥टेक॥
हमहिं कुसेवग क्या तुम्हहिं अजांनां, दुइ मैं दोस कहौ किन रांमां।
तुम्ह कहियत त्रिभवन पति राजा, मन बंछित सब पुरवन काजा॥
कहै कबीर हरि दरस दिखावौ, हमहिं बुलावौ कै तुम्ह चलि आवौ॥358॥
क्यूँ लीजै गड़ बंका आई, दोवग काट अरू तेवड़
खाई॥टेक॥
काम किवाड़ दुख सुख दरवानी, पाप पुंनि दरवाजा।
क्रोध प्रधान लोभ बड़ दुंदर, मन मैं बासी राजा॥
स्वाद सनाह टोप ममिता का, कुबधि कामांण चढ़ाई।
त्रिसना तीर रहे तन भीतरि, सुबधि हाथि नहीं आई।
प्रेम पलीता सुरति नालि करि, गोला ग्यान चलाया।
ब्रह्म अग्नि ले दियां पलीता, एकैं चोट ढहाया।
सत संतोष लै लरनै लागे, तोरै दस दरवाजा॥
साध संगति अरु गुर की कृपा थैं, पकरो गढ़ को राजा।
भगवंत शीर सकति सुमिरण की, काटि काल की पासी।
दास कबीर चढ़े गढ़ ऊपरि, राज दियौ अबिनासी॥359॥
रैनि गई मति दिन भी जाइ,
भवर उड़े बन बैठे आइ॥टेक॥
कांचै करवै रहै न पानी, हंस उड़ा काया कुमिलांनी।
थरहर थरहर कंपै जीव, नां जांनूं का करिहै पीव।
कऊवा उड़ावत मेरी बहिंयां पिरांनी, कहै कबीर मेरी कथा सिरांनी।॥360॥
काहे कूँ बनाऊँ परिहै टाटी,
का जांनूं कहाँ परिहै माटी॥टेक॥
काहे कूँ मंदिर महल चिणांऊँ, मुवां पीछै घड़ी एक रहण न पाऊँ॥
कहो कूँ छाऊँ ऊँच ऊँचेरा, साढ़े तीनि हाथ घर मेरा॥
कहै कबीर नर गरब न कीजै, जेता तन तेती भुंइ लीजै॥361॥
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9. राग
बिलावल
बार बार हरि का गुण गावै, गुर गमि भेद सहर का पावै॥टेक॥
आदित करै भगति आरंभ, काया मंदिर मनसा थंभ।
अखंड अहनिसि सुरष्या जाइ, अनहद बेन सहज मैं पाइ॥
सोमवार ससि अमृत झरे, चाखत बेगि तपै निसतरै॥
बाँधी रोक्याँ रहै दुवार, मन मतिवाला पीवनहार॥
मंगलवार ल्यौ मांहीत, पंच लोक की छाड़ौ रीत॥
घर छाँड़ै जिनि बाहरि जाइ, नहीं तर खरौ रिसावै राइ।
बुधवार करै बुधि प्रकास, हिरदा कवल मैं हरि का बास॥
गुर गमि दोउ एक समि करै, उरध पंकज थैं सूधा धरै॥
ब्रिसपति बिषिया देइ बहाइ, तीनि देव एकै संगि लाइ।
तोनि नदी तहाँ त्रिकुटी मांहि, कुसमल धोवै अहनिसि न्हांहि॥
सुक्र सुधा ले इहि ब्रत चढ़ै, अह निस आप आपसूँ लड़ै॥
सुरषी पंच राखिये सबै, तो दूजी द्रिष्टि न पैसे कबै।
थावर थिर करि घट मैं सोइ, जोति दीवटी मेल्है जोइ।
बाहरि भीतरि भया प्रकास, तहाँ भया सकल करम का नास॥
जब लग घट मैं दूजो आँण, तब लग महलि न पावै जाँण॥
रमिता राम सूँ लागै रंग, कहै कबीर ते निर्मल अंग॥362॥
राम भेज सो जांनिये, जाके आतुर नांहीं।
सत संत संतोष लीयै रहै, धीरज मन मांहिं॥टेक॥
जन कौ काम क्रोध ब्यापै नहीं, त्रिष्णां न जरावै।
प्रफुलित आनंद मैं, गोब्यंद गुंण गावै॥
जन कौ पर निंदा भावै नहीं, अरु असति न भाषै।
काल कलपनां मेटि करि, चरनूं चित राखे।
जन सम द्रिष्टि सीतल सदा, दुबिधा नहीं आनै।
कहै कबीर ता दास तूँ मेरा मन मांनै॥363॥
माधौ सो मिलै जासौं मिलि रहिये, ता कारनि बक बहु दुख सहिये॥टेक॥
छत्राधार देखत ढहि जाइ, अधिक गरब थें खाक मिलाइ।
अगम अगोचर लखीं न जाइ, जहाँ का सहज फिरि तहाँ समाइ॥
कहै कबीर झूठे अभिमान, से हम सो तुम्ह एक समान॥364॥
अहो मेरे गोब्यंद तुम्हारा जोर, काजी बकिवा
हस्ती तोर॥टेक॥
बाँधि भुजा भलै करि डारौं, हस्ती कोपि मूंड में मारो।
भाग्यौ हस्ती चीसां मारी, वा मूरति की मैं बलिहारी॥
महावत तोकूँ मारौ साटी, इसहि मरांऊँ घालौं काटी॥
हस्ती न तोरै धरै धियांन, वाकै हिरदैं बसै भगवान॥
कहा अपराध संत हौं कीन्हां, बाँधि पोट कुंजर कूँ दीन्हां॥
कुंजर पोट बहु बंदन करै, अजहूँ न सूझैं काजी अंधरै॥
तीनि बेर पतियारा लीन्हां, मन कठोर अजहूँ न पतीनां॥
कहै कबीर हमारे गोब्यंद, चौथे पद ले जन का ज्यंद॥365॥
कुसल खेम अरु सही सलांमति, ए दोइ काकौं दीन्हां रे।
आवत जात दुहूँधा लूटै, सर्व तत हरि लीन्हां रे॥टेक॥
माया मोह मद मैं पीया, मुगध कहै यहु मेरी रे।
दिवस चारि भलै मन रंजै, यहु नाहीं किस केरी रे।
सुर नर मुनि जन पीर अवलिया, मीरां पैदा कीन्हां रे।
कोटिक भये कहाँ लूँ बरनूं, सबनि पयांनां दीन्हां रे॥
धरती पवन अकास जाइगा, चंद जाइगा सूरा रे।
हम नांही तुम्ह नांही रे भाई, रहे राम भरपूरा रे॥
कुसलहि कुसल करत जग खीना, पड़े काल भी पासी रे।
कहै कबीर सबै जग बिनस्या, रहे राम अबिनासी॥366॥
मन बनजारा जागि न सोई लाहे कारनि मूल न
खोई॥टेक॥
लाहा देखि कहा गरबांना, गरब न कीजै मूरखि अयांनां।
जिन धन संच्या सो पछितांनां, साथी चलि गये हम भी जाँनाँ॥
निसि अँधियारी जागहु बंदे, छिटकन लागे सबही संधे।
किसका बँधू किसकी जोई, चल्या अकेला संगि न कोई।
एरि गए मंदिर टूटे बंसा, सूके सरवर उड़ि गये हंसा।
पंच पदारथ भरिहै खेहा, जरि बरि जायगी कंचन देहा॥
कहत कबीर सुनहु रे लोई, राम नाम बिन और न कोई॥367॥
मन पतंग चेते नहीं अंजुरी समांन।
बिषिया लागि बिगूचिये दाझिये निदांन॥टेक॥
काहे नैन अनिदियै सूझत, नहीं आगि।
जनम अमोलिक खोइयै, सांपनि संगि लागि।
कहै कबीर चित चंचला, गुर ग्यांन कह्यौ समझाइ॥
भगति हीन न जरई जरै, भावै तहाँ जाइ॥368॥
स्वादि पतंग जर जरी जाइ, अनहद सो मेरौ चित न
रहाइ॥टेक॥
माया कै मदि चेति न देख्या, दुबिध्या मांहि एक नहीं पेख्या।
भेष अनेक किया बहु कीन्हां, अकल पुरिष एक नहीं चीन्हो॥
केते एक मूये मरेहिगे केते, केतेक मुगध अजहूँ नहीं चेते।
तंत मंत सब ओषद माया, केवल राम कबीर दिढाया॥369॥
एक सुहागनि जगत पियारी, सकल जीव जंत की नारी॥टेक॥
खसम करै वा नारि न रोवै, उस रखवाला औरे होवै।
रखवाले का होइ बिनास, उतहि नरक इत भोग बिलास॥
सुहागनि गलि सोहे हार, संतनि बिख बिलसै संसार।
पीछे लागी फिरै पचि हारी, संत की ठठकी फिरै बिचारी॥
संत भजै बा पाछी पडै, गुर के सबदूं मारौं डरै।
साषत कै यहु प्यंड पराइनि, हमारी द्रिष्टि परै जैसे डाँइनि॥
अब हम इसका पाया भेद, होइ कृपाल मिले गुरदेव॥
कहै कबीर इब बाहरि परी, संसारी कै अचलि टिरी॥370॥
परोसनि माँगै संत हमारा,
पीव क्यूँ बौरी मिलहि उधारा॥टेक॥
मासा माँगै रती न देऊँ, घटे मेरा प्रेम तो कासनि लेऊँ।
राखि परोसनि लरिका मोरा, जे कछु पाउं सू आधा तोरा।
बन बन ढूँढ़ौ नैन भरि जोऊँ, पीव न मिलै तौ बिलखि करि रोऊँ।
कहै कबीर यहु सहज हमारा, बिरली सुहागनि कंत पियारा॥371॥
राम चरन जाकै हिरदै बसत है, ता जन कौ मन क्यूँ डोलै।
मानौ आठ सिध्य नव निधि ताकै हरषि हरषि जस बोलै॥टेक॥
जहाँ जहाँ जाई तहाँ सच पावै, माया ताहि न झोलै।
बार बार बरजि बिषिया तै, लै नर जौ मन तोलै॥
ऐसी जे उपजै या जीय कै, कुटिल गाँठि सब खोलै॥
कहै कबीर जब मनपरचौ भयौ, रहे राम के बोलै॥372॥
जंगल मैं का सोवनां, औघट है घाटा,
स्यंध बाघ गज प्रजलै, अरु लंबी बाटा॥टेक॥
निस बासुरी पेड़ा पड़ै, जमदानी लूटै।
सूर धीर साचै मते, सोई जन छूटै॥
चालि चालि मन माहरा, पुर परण गहिये।
मिलिये त्रिभुवन नाथ सूँ, निरभै होइ रहिये॥
अमर नहीं संसार मैं, बिनसै नरदेही।
कहै कबीर बेसास सूँ, भजि राम सनेही॥373॥
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10. राग ललित
राम ऐसो ही जांनि जपी नरहरी,
माधव मदसूदन बनवारी॥टेक॥
अनुदिन ग्यान कथै घरियार, धूवं धौलह रहै संसार।
जैसे नदी नाव करि संग, ऐसै ही मात पिता सुत अंग॥
सबहि नल दुल मलफ लकीर, जल बुदबुदा ऐसा आहि सरीर।
जिभ्या राम नाम अभ्यास, कहौ कबीर तजि गरम बास॥374॥
रसनां राम गुन रिस रस पीजै, गुन अतीत निरमोलिक
लीजै॥टेक॥
निरगुन ब्रह्म कथौ रे भाई, जा सुमिरन सुधि बुधि मति पाई।
बिष तजि राम न जपसि अभागे, का बूड़े लालच के लागे॥
ते सब तिरे रांम रस स्वादी, कहै कबीर बूड़े बकवादी॥375॥
निबरक सुत ल्यौ कोरा, राम मोहि मारि, कलि बिष बोरा॥टेक॥
उन देस जाइबा रे बाबू, देखिबो रे लोग किन किन खैबू लो।
उड़ि कागा रे उन देस जाइबा, जासूँ मेरा मन चित लागा लो।
हाट ढूँढि ले, पटनपुर ढूँढि ले, नहीं गाँव कै गोरा लो।
जल बिन हंस निसह बिन रबू कबीर का स्वांमी पाइ परिकै मनैबू लो॥376॥
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11. राग बसंत
सो जोगी जाकै सहज भाइ, अकल प्रीति की भीख
खाइ॥टेक॥
सबद अनाहद सींगी नाद, काम क्रोध विषया न बाद।
मन मुद्रा जाकै गुर को ग्यांन, त्रिकुट कोट मैं धरत ध्यान॥
मनहीं करन कौं करै सनांन, गुर को सबद ले ले धरै धियांन।
काया कासी खोजै बास, तहाँ जोति सरूप भयौ परकास॥
ग्यांन मेषली सहज भाइ, बंक नालि को रस खाइ।
जोग मूल कौ देइ बंद, कहि कबीर थीर होइ कंद॥377॥
मेरी हार हिरानौ मैं लजाऊँ, सास दुरासनि पीव डराऊँ॥टेक॥
हार गुह्यौ मेरौ राम ताग, बिचि बिचि मान्यक एक लाग॥
रतन प्रवालै परम जोति, ता अंतरि लागे, मोति॥
पंच सखी मिलिहै सुजांन, चलहु त जइये त्रिवेणी न्हान।
न्हाइ धोइ कै तिलक दीन्ह, नां जानूं हार किनहूँ लीन्ह॥
हार हिरांनी जन बिमल कीन्ह, मेरौ आहि परोसनि हार लीन्ह।
तीनि लोक की जानै पीर, सब देव सिरोमनि कहै कबीर॥378॥
नहीं छाड़ी बाबा राम नाम, मोहिं और पढ़न सूँ कौन
काम॥टेक॥
प्रह्लाद पधारे पढ़न साल, संग सखा लीये बहुत बाल।
मोहि कहा पढ़ाव आल जाल, मेरी पाटी मैं लिखि दे श्री गोपाल॥
तब सैनां मुरकां कह्यौ जाइ, प्रहिलाद बँधायौ बेगि आइ।
तूँ राम कहन की छाड़ि बांनि, बेगि छुड़ाऊँ मेरो कह्यौ मांनि॥
मोहि कहा डरावै बार बार, जिनि जल थल गिर कौ कियौ प्रहार॥
बाँधि मोरि भावै देह जारि, जे हूँ राम छाड़ौ तौ गुरहि गार।
तब काढ़ि खड़ग कोप्यौ रिसाइ, तोहि राखनहारौ मोहि बताइ॥
खंभा मैं प्रगट्यो गिलारि, हरनाकस मार्यो नख बिदारि॥
महापुरुष देवाधिदेव नरस्यंध प्रकट कियौ भगति भेव।
कहै कबीर कोई लहै न पार, प्रहिलाद उबार्यौ अनेक बार॥379॥
हरि कौ नाउँ तत त्रिलोक सार, लौलीन भये जे उतरे पार॥टेक॥
इक जंगम इक जटाधार, इक अंगि बिभूति करै अपार।
इक मुनियर इक मनहूँ लीन, ऐसै होत होत जग जात खीन॥
इक आराधै सकति सीव, इक पड़वा दे दे बधै जीव॥
इक कुलदेव्यां कौ जपहि जाप, त्रिभवनपति भूले त्रिविध ताप॥
अंतहि छाड़ि इक पीवहि दूध, हरि न मिलै बिन हिरदै सूध।
कहै कबीर ऐसै बिचारि, राम बिना को उतरे पार॥380॥
हरि बोलि सूवा बार बार, तेरी ढिग मीनां कछूँ
करि पुकार॥टेक॥
अंजन मंजन तजि बिकार, सतगुर समझायो तत सार॥
साध संगति मिली करि बसंत, भौ बंद न छूटै जुग जुगंत॥
कहै कबीर मन भया अनंद, अनंत कला भेटे गोब्यंद॥381॥
बनमाली जानै बन की आदि, राम नाम बिना जनम बादि॥टेक॥
फूल जू फुले रूति बसंत, जामैं मोहिं रहे सब जीव जंत।
फूलनि मैं जैसे रहै बास, यूँ घटि घटि गोबिंद है निवास॥
कहै कबीर मनि भया अनंद, जगजीवन मिलियौ परमानंद॥382॥
मेरे जैसे बनिज सौ कवन काज,
मूल घटै सिरि बधै ब्याज॥टेक॥
नाइक एक बनिजारे पाँच, बैल पचीस कौ संग साथ।
नव बहियां दस गौनि आहि, कसनि बहत्तरि लागै ताहि॥
सात सूत मिलि बनिज कीन्ह, कर्म पयादौ संग लीन्ह॥
तीन जगति करत रारि, चल्यो है बनिज वा बनज झारि॥
बनिज खुटानीं पूँजी टूटि, षाडू दह दिसि गयौ फूटि॥
कहै कबीर यहु जन्म बाद, सहजि समांनूं रही लादि॥383॥
माधौ दारन सुख सह्यौ न जाइ, मेरौ चपल बुधि तातैं कहा बसाइ॥टेक॥
तन मन भीतरि बसै मदन चोर, जिनि ज्ञांन रतन हरि लीन्ह मोर।
मैं अनाथ प्रभू कहूँ काहि, अनेक बिगूचै मैं को आहि॥
सनक सनंदन सिव सुकादि, आपण कवलापति भये ब्रह्मादि॥
जोगी जंगम जती जटाधर, अपनैं औसर सब गये हैं हार॥
कहै कबीर रहु संग साथ, अभिअंतरि हरि सूँ कहौ बात॥
मन ग्यांन जांति कै करि बिचार, राम रमत भौ तिरिवौ पार॥384॥
तू करौ डर क्यूँ न करे गुहारि, तूँ बिन
पंचाननि श्री मुरारि॥टेक॥
तन भीतरि बसै मदन चोर, तिकिन सरबस लीनौ छोर मोर॥
माँगै देइ न बिनै मांन, तकि मारै रिदा मैं कांम बांन॥
मैं किहि गुहराँऊँ आप लागि, तू करी डर बड़े बड़े गये है भागि॥
ब्रह्मा विष्णु अरु सुर मयंक, किहि किहि नहीं लावा कलंक॥
जप तप संजम सुंनि ध्यान, बंदि परे सब सहित ग्यांन॥
कहि कबीर उबरे द्वे तीनि, जा परि गोबिंद कृपा कीन्ह॥385॥
ऐसे देखि चरित मन मोह्यौ मोर, ताथैं निस बासुरि गुन रमौं तोर॥टेक॥
इक पढ़हिं पाठ इक भ्रमें उदास इक नगन निरंतर रहै निवास॥
इक जोग जुगति तन हूंहिं खीन, ऐसे राम नाम संगि रहै न लीन॥
इक हूंहि दीन एक देहि दांन, इक करै कलापी सुरा पांन॥
इक तंत मंत ओषध बांन, इक सकल सिध राखै अपांन॥
इक तीर्थ ब्रत करि काया जीति, ऐसै राम नाम सूँ करै न प्रीति॥
इक धोम धोटि तन हूंहिं स्यान, यूँ मुकति नहीं बिन राम नाम॥
सत गुर तत कह्यौ बिचार, मूल गह्यौ अनभै बिसतार॥
जुरा मरण थैं भये धीर, राम कृपा भई कहि कबीर॥386॥
सब मदिमाते कोई न जाग, ताथे संग ही चोर घर
मुसन लाग॥
पंडित माते पढ़ि पुरांन, जोगी माते धरि धियांन॥
संन्यासी माते अहंमेव, तपा जु माते तप के भेव॥
जागे सुक ऊधव अंकूर, हणवंत जागे ले लंगूर॥
संकर जागे चरन सेव, कलि जागे नांमां जेदेव॥
ए अभिमान सब मन के कांम, ए अभिमांन नहीं रही ठाम॥
आतमां रांम कौ मन विश्राम, कहि कबीर भजि राम नाम॥387॥
चलि चलि रे भँवरा कवल पास, भवरी बोले अति उदास॥टेक॥
तैं अनेक पुहुप कौ लियौ भोग, सुख न भयौ तब बढ़ो है रोग॥
हौ जु कहत तोसूँ बार बार, मैं सब बन सोध्यौ डार डार॥
दिनां चारि के सुरंग फूल, तिनहिं देखि कहा रह्यौ है भूल॥
या बनासपती मैं लागैगी आगि, अब तूँ जैहौ कहाँ भागि॥
पुहुप पुरांने भये सूक तब भवरहि लागी अधिक भूख।
उड़îो न जाइ बल गयो है छूटि, तब भवरी रूंना सीस कूटि॥
दह दिसी जोवै मधुप राइ, तब भवरी ले चली सिर चढ़ाइ॥
कहै कबीर मन कौ सुभाव, राम भगति बिन जम को डाव॥388॥
आवध राम सबै करम करिहूँ,
सहज समाधि न जम थैं डरिहूँ ॥टेक॥
कुंभरा ह्नै करि बासन धरिहूँ, धोबी ह्नै मल धोऊँ।
चमरा ह्नै करि बासन रंगों, अघौरी जाति पांति कुल खोऊँ॥
तेली ह्नै तन कोल्हूं करिहौ, पाप पुंनि दोऊ पेरूँ॥
पंच बैल जब सूध चलाऊँ, राम जेवरिया जोरूँ॥
क्षत्री ह्नै करि खड़ग सँभालूँ, जोग जुगति दोउ सांधूं॥
नउवा ह्नै करि मन कूँ मूंडूं, बाढ़ी ह्नै कर्म बाढ़ूँ॥
अवधू ह्नै करि यह तन धूतौ, बधिक ह्नै मन मारूँ॥
बनिजारा ह्नै तन कूँ बनिजूँ, जूवारी ह्नै जम जारूं॥
तन करि नवका मन करि खेवट, रसना करउँ बाड़ारूँ॥
कहि कबीर भवसागर तरिहूँ आप तिरू बष तारूँ॥389॥
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12. राग
माली गौड़ी
पंडिता मन रंजिता, भगति हेत त्यौ लाइ लाइ रे॥
प्रेम प्रीति गोपाल भजि नर, और कारण जाइ रे॥टेक॥
दाँम छै पणि कांम नाहीं, ग्याँन छै पणि अंध रे॥
श्रवण छै पणि सुरत नाहीं, नैन छै पणि अंध रे॥
जाके नाभि पदक सूँ उदित ब्रह्मा, चरन गंग तरंग रे॥
कहै कबीर हरि भगति बांछू जगत गुर गोब्यंद रे॥390॥
बिष्णु ध्यांन सनान करि रे, बाहरि अंग न धोई
रे।
साच बिन सीझसि नहीं, कांई ग्यांन दृष्टैं जोइ रे॥
जंबाल मांहैं जीव राखै, सुधि नहीं सरीर रे॥
अभिअंतरि भेद नहीं, कांई बाहरि न्हावै नीर रे॥
निहकर्म नदी ग्यांन जल, सुंनि मंडल मांहि रे॥
ओभूत जोगी आतमां, कांई पेड़ै संजमि न्हाहि रे॥
इला प्यंगुला सुषमनां, पछिम गंगा बालि रे॥
कहै कबीर कुसमल झड़ै, कांई मांहि लौ अंग पषालि रे॥391॥
भजि नारदादि सुकादि बंदित, चरन पंकज भांमिनी।
भजि भजिसि भूषन पिया मनोहर देव देव सिरोवनी॥टेक॥
बुधि नाभि चंदन चरिचिता, तन रिदा मंदिर भीतरा॥
राम राजसि नैन बांनी, सुजान सुंदर सुंदरा॥
बहु पाप परबत छेदनां, भौ ताप दुरिति निवारणां॥
कहै कबीर गोब्यंद भजि, परमांनंद बंदित कारणां॥392॥
13. राग
कल्याण
ऐसै मन लाइ लै राम रसनाँ,
कपट भगति कीजै कौन गुणाँ॥टेक॥
ज्यूँ मृग नादैं बध्यौ जाइ, प्यंड परे बाकौ ध्याँन न जाइ।
ज्यूँ जल मीन तेत कर जांनि, प्रांन तजै बिसरै नहीं बानि॥
भ्रिगी कीट रहै ल्यौ लाइ, ह्नै लोलीन भिंरग ह्नै जाइ॥
राम नाम निज अमृत सार, सुमिरि सुमिरि जन उतरे पार॥
कहै कबीर दासनि को दास, अब नहीं छाड़ौ हरि के चरन निवास॥393॥
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14. राग
सारंग
यहु ठग ठगत सकल जग डोलै, गवन करै तब मुषह न बोलै॥
तूँ मेरो पुरिषा हौं तेरी नारी, तुम्ह चलतैं पाथर थैं भारी।
बालपनाँ के मीत हमारे, हमहिं लाडि कत चले हो निनारे॥
हम सूँ प्रीति न करि री बौरी, तुमसे केते लागे ढौरी॥
हम काहू संगि गए न आये, तुम्ह से गढ़ हम बहुत बसाये॥
माटी की देही पवन सरीरा, ता ठग सूँ जन डरै कबीरा॥394॥
धंनि सो घरी महूरत्य दिनाँ, जब ग्रिह आये हरि
के जनाँ॥टेक॥
दरसन देखत यहु फल भया, नैनाँ पटल दूरि ह्नै गया।
सब्द सुनत संसा सब छूटा, श्रवन कपाट बजर था तूटा॥
परसत घाट फेरि करि घड़ा काया कर्म सकल झड़ि पड़ा॥
कहै कबीर संत भल भाया, सकस सिरोमनि घट मैं पाया॥395॥
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15. राग मलार
जतन बिन मृगनि खेत उजारे,
टारे टरत नहीं निस बासुरि, बिडरत नहीं बिडारे॥टेक॥
अपने अपने रस के लोभी, करतब न्यारे न्यारे।
अति अभिमान बदत नहीं काहू, बहुत लोग पचि हारे॥
बुधि मेरी फिरषी गुर मेरौ बिझुका, आखिर दोइ रखवारे॥
कहै कबीर अब खान न दैहूँ, बरियां भली सँभारे॥396॥
हरि गुन सुमरि रे नर प्राणी।
जतन करत पतन ह्नै जैहै, भावै जाँणम जाँणी॥टेक॥
छीलर नीर रहै धूँ कैसे, को सुपिनै सच पावै।
सूकित पांन परत तरवर थैं, उलटि न तरवरि आवै॥
जल थल जीव डहके इन माया, कोई जन उबर न पावै॥
राम अधार कहत हैं जुगि जुगि, दास कबीरा गावै॥397॥
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16. राग
धनाश्री
जपि जपि रे जीयरा गोब्यंदो, हित चित परमांनंदौ रे।
बिरही जन कौ बाल हौ, सब सुख आनंदकंदौ रे॥टेक॥
धन धन झीखत धन गयौ, सो धन मिल्यौ न आये रे॥
ज्यूँ बन फूली मालती, जन्म अबिरथा जाये रे॥
प्रांणी प्रीति न कीजिये, इहि झूठे संसारी रे॥
धूंवां केरा धौलहर जात न लागै बारी रे॥
माटी केरा पूतला, काहै गरब कराये रे॥
दिवस चार कौ पेखनौ, फिरि माटी मिलि जाये रे॥
कांमीं राम न भावई, भावै विषै बिकारी रे॥
लोह नाव पाहन भरी, बूड़त नांही बारी रे॥
नां मन मूवा न मारि सक्या, नां हरि भजि उतर्या पारो रे॥
कबीर कंचन गहि रह्यौ, काच गहै संसार रे॥398॥
न कछु रे न कछू राम बिनां।
सरीर धरे की रहै परमगति, साध संगति रहनाँ॥टेक॥
मंदिर रचत मास दस लागै, बिनसत एक छिनां।
झूठे सुख के कारनि प्रांनीं, परपंच करता घना॥
तात मात सुख लोग कुटुंब, मैं फूल्यो फिरत मनां।
कहै कबीर राम भजि बौरे, छांड़ि सकल भ्रमनां॥399॥
कहा नर गरबसि थोरी बात।
मन दस नाज टका दस गंठिया, टेढ़ौ टेढ़ौ जात॥टेक॥
कहा लै आयौ यहु धन कोऊ, कहा कोऊ लै जात॥
दिवस चारि की है पतिसाही, ज्यूँ बनि हरियल पात॥
राजा भयौ गाँव सौ पाये, टका लाख दस ब्रात॥
रावन होत लंका को छत्रापति, पल मैं गई बिहात॥
माता पिता लोक सुत बनिता, अंत न चले संगात॥
कहै कबीर राम भजि बौरे, जनम अकारथ जात॥400॥
नर पछिताहुगे अंधा।
चेति देखि नर जमपुरि जैहै, क्यूँ बिसरौ गोब्यंदा॥टेक॥
गरभ कुंडिनल जब तूँ बसता, उरध ध्याँन ल्यो लाया।
उरध ध्याँन मृत मंडलि आया, नरहरि नांव भुलाया॥
बाल विनोद छहूँ रस भीनाँ, छिन छिन बिन मोह बियापै॥
बिष अमृत पहिचांनन लागौ, पाँच भाँति रस चाखै॥
तरन तेज पर तिय मुख जोवै, सर अपसर नहीं जानैं॥
अति उदमादि महामद मातौ, पाष पुंनि न पिछानै॥
प्यंडर केस कुसुम भये धौला, सेत पलटि गई बांनीं॥
गया क्रोध मन भया जु पावस, कांम पियास मंदाँनीं॥
तूटी गाँठि दया धरम उपज्या, काया कवल कुमिलांनां॥
मरती बेर बिसूरन लागौ, फिरि पीछैं पछितांनां॥
कहै कबीर सुनहुं रे संतौ, धन माया कछू संगि न गया॥
आई तलब गोपाल राइ की, धरती सैन भया॥401॥
लोका मति के भोरा रे।
जो कासी तन तजै कबीर, तौ रामहिं कहा निहोरा रे॥टेक॥
तब हमें वैसे अब हम ऐसे, इहै जनम का लाहा।
ज्यूँ जल मैं जल पैसि न निकसै, यूँ ढुरि मिलै जुलाहा॥
राम भगति परि जाकौ हित चित, ताकौ अचिरज काहा॥
गुर प्रसाद साध की संगति, जग जीते जाइ जुलाहा॥
कहै कबीर सुनहु रे संतो, भ्रमि परे जिनि कोई॥
जसं कासी तस मगहर ऊसर हिरदै राम सति होई॥402॥
ऐसी आरती त्रिभुवन तारै, तेज पुंज तहाँ प्रांन
उतारै॥टेक॥
पाती पंच पुहुप करि पूजा, देव निरंजन और न दूजा॥
तन मन सीस समरपन कीन्हां, प्रकट जोति तहाँ आतम लीना॥
दीपक ग्यान सबद धुनि घंटा पर पुरिख तहाँ देव अनंता॥
परम प्रकाश सकल उजियारा, कहै कबीर मैं दास तुम्हारा॥
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