उस दिन जिधर सुनो, गाँव में छोटे-बड़े सभी के मुँह से अफ़सोस और 
              ताज्जुब के साथ एक ही बात सुनाई दे रही थी, ‘गत्ती भगत की कण्ठी टूट 
              गयी!’
              कण्ठी पहनने और तोडऩे, दोनों की शोहरत गाँवों में एक ही तरह फैलती 
              है। हाँ, पहनने की बात सुनकर जहाँ लोगों को ख़ुशी होती है, वहाँ तोडऩे 
              की बात सुनकर अफ़सोस। लेकिन ताज्जुब का भाव दोनों में एक-सा ही रहता 
              है। कोई लुच्चा-लफंगा, बदमाश-शोहदा या माँस-मछली खाने और दारू 
              पीनेवाला अचानक एक दिन गले में तुलसी कण्ठी पहनकर भलमानस और भगत बन 
              जाय, तो किसे ख़ुशी और ताज्जुब न हो? और वही भलमानस और भगत दो-चार 
              महीने या साल भगत की जि़न्दगी बिताकर, अपनी सचाई, भलमनसाहत, पवित्रता 
              और पूजा-पाठ की धाक लोगों के मन पर जमाकर एक दिन अचानक कण्ठी तोडक़र 
              अपनी पुरानी जि़न्दगी के तौर-तरीकों को वापस लौट जाय, तो किसे अफ़सोस 
              और ताज्जुब न हो?
              और गत्ती भगत के मामले में तो अफ़सोस और ताज्जुब का और भी कारण था। 
              गत्ती कभी भी चोर या लफंगा न रहा था और न कभी उसने दारू को ही मुँह 
              लगाया था। उसकी जि़न्दगी सभी साधारण किसानों की तरह थी। हाँ, वह 
              माँस-मछली ज़रूर खाता था, लेकिन यह तो लोगों के देखने में कोई वैसा 
              अपराध न था। कुछ ब्राह्मणों और आर्यसमाजियों को छोडक़र गाँवों में कौन 
              माँस-मछली नहीं खाता? फिर उसने कण्ठी भी अपने मन से, अपने बुरे 
              आचरणों, असामाजिक कार्यों को छोडऩे की घोषणा करके नहीं पहनी थी। उसकी 
              कण्ठी की तो एक अलग ही दिलचस्प कहानी थी।
              कहा जाता है कि एक रात सोता पडऩे पर अचानक एक साधु ने गत्ती का 
              दरवाज़ा खटखटाया। गत्ती ने दरवाज़ा खोलकर, सामने साधु को खड़ा देखकर 
              नमन किया।
              साधु ने कहा, ‘‘बच्चा, ठाकुरजी आज रात तेरे दरवाज़े पर ही काटना 
              चाहते हैं। देगा आसरा?’’
              गत्ती ने हाथ माथे से लगाकर, सर झुकाकर कहा, ‘‘मेरा बड़ा भाग, बाबा! 
              ख़ुशी से मिरगछाला डालें।’’ और उसने दालान के कोने को अँगोछे से 
              झाड़-पोंछ दिया।
              साधु ने मृगछाला डाल चिमटा गाड़ दिया। फिर पाँव पसारकर लेटने को हुआ, 
              तो गत्ती बोला, ‘‘बाबा, परसाद पा चुके हैं?’’
              साधु मुस्कराया। फिर बोला, ‘‘बड़ी दूर से ठाकुरजी आ रहे हैं। कहीं 
              ... कहीं टिकने का इरादा नहीं था। इतनी रात गये ठाकुरजी तुझे क्या 
              कष्ट दें?’’
              ‘‘इसमें कस्ट की का बात बाबा? जो साग-सातू ... ’’ बात मुँह में ही 
              लिये गत्ती अन्दर जाने लगा, तो साधु बोला, ‘‘ठाकुरजी कुछ बनाएँगे 
              नहीं। बहुत थक गये हैं। चना-चबेना कुछ हो ... ’’
              गत्ती ने ठिठककर, चिन्तित होकर कुछ सोचा। फिर अन्दर जाकर मेहरी से 
              पूछा, तो मालूम हुआ कि आज ही का भूना सत्तू के लिए मक्का रखा है। बेर 
              हो जाने से वह पीस न सकी थी।
              एक साफ़ डाली में भूना मक्का और एक पिड़िया बढ़िया गुड़ और चमचमाते पीतल 
              के लोटे में जल लाकर गत्ती ने साधु के सामने रख दिया।
              साधु खा-पीकर तृप्त हो गया। सोंधा-सोंधा मक्का उसे खूब भाया। उसकी 
              सुगन्ध तो जैसे अब भी दालान में मँडरा रही थी।
              आराम से लेटकर, साधु ने हाथों की अँगुलियाँ उलझाये, सर झुकाये खड़े 
              गत्ती की ओर देखकर कहा, ‘‘बच्चा, ठाकुरजी की आत्मा तृप्त हो गयी। 
              ठाकुरजी तुझसे बहुत प्रसन्न हुए। तू ठाकुरजी से कुछ माँग ले।’’
              संकोच में गत्ती के होंठ ज़रा मुस्कराये, बोल न फूटा।
              साधु ही बोला, ‘‘अच्छा देख, ठाकुरजी तुझे एक दवा बता देते हैं। इससे 
              तुझे बड़ा यश मिलेगा। तेरा नाम दूर-दूर तक फैल जायगा।’’
              गत्ती मुँह बाए बैठ गया। साधु बोलता गया, ‘‘उकवत का रोग होता है न? 
              इसकी कोई दवा दुनिया में नहीं हैं। बड़े-बड़े डाक्टर हकीम भी इस रोग 
              के सामने हार मान जाते हैं। तुझे उसी की दवा ठाकुरजी बताते हैं। 
              ध्यान से सुन!’’
              दो क्षण चुप रहकर साधु बोला, ‘‘नाई को बुलाकर उकवत के रोगी के चाँद 
              पर थोड़ा बाल छिलवाकर, उस्तरे की नोक से दस-पाँच टोप मारने को कहना। 
              ऊपर जब कुछ खून आ जाय, तो उस पर तू अपने दायें हाथ के अँगूठे से यह 
              दबा बैठा देना।’’ कहकर अपने बटुए से निकालकर एक पुड़िया सफ़फ़ साधु ने 
              गत्ती की ओर बढ़ा दिया।
              गत्ती ने पुड़िया लेकर, माथे से लगायी और पलकें झपकाकर साधु की ओर 
              देखने लगा।
              साधु ने आगे कहा, ‘‘दवा लगाने के बाद तू रोगी को हिदायत देना कि 
              इक्कीस दिन तक वह सर पर पानी न डाले, कन्धे से ही नहाये, उकवत के घाव 
              की जगह को रोज ठण्डे पानी से धोये, उस पर कोई दवा न लगाये। इक्कीस 
              दिन के बाद घाव सूख जाने पर एक ब्राह्मण या साधु को भोजन करा दे। 
              हाँ, तू उससे कुछ न लेगा, न उसे कुछ देगा। अपने यहाँ उसे न ठहराएगा, 
              न कुछ बैठने को देगा और न एक लोटा पानी पीने को। नाई को वह जो चाहे 
              दे। एक बात का और ध्यान रखना। इतवार और मंगल को ही तू यह दवा लगाना। 
              और किसी दिन नहीं। समझा न?’’
              ‘‘जी, बाबा,’’ गत्ती ने ताज्जुब और ख़ुशी से आँखें झपकाकर कहा, ‘‘बाकी 
              जब यह पुड़िया खतम हो जाय तब?’’
              साधु ज़ोर से हँसकर बोला, ‘‘सबर रख, बच्चा! ठाकुरजी तुझे इसका भेद भी 
              बता देते हैं। बहुत मामूली चीज है। चिलम तू पीता है न? उसी की सात 
              हिस्सा खोंठी और एक हिस्सा नमक मिलाकर, पीसकर पुड़िया में रख लेना। एक 
              बात का ख़ याल रखना। माँस, मछली, ताड़ी-दारू न खाना-पीना, झूठ न 
              बोलना, अपना चाल-चलन ठीक रखना। यह कण्ठी अपने गले में डाल ले।’’ कहकर 
              साधु ने उसे एक कण्ठी अपने बटुए से निकालकर दी। और फिर बोला, ‘‘और 
              देख, जब तू मरने लगना, तो यह भेद अपनी औरत या बेटे-बेटी में से किसी 
              एक को बता देना। तेरे घर में यह सदा चलता रहेगा। अच्छा, अब तू जा, 
              ठाकुरजी आराम करेंगे।’’
              दूसरे दिन सुबह, जब गत्ती उठा, तो साधु जा चुका था। गत्ती के गले में 
              कण्ठी देखकर, लोगों ने पूछा-ताँछा, तो गत्ती ने रात की कथा सब को 
              खुश-खुश सुना दी।
              मुँह-मुँह से बात फैली और देश के कोने-कोने में छा गयी। कोई ऐसा 
              इतवार और मंगल नहीं, जब गत्ती के दरवाज़े पर उकवत के रोगियों की भीड़ 
              न होती। दूर-दूर से, कलकत्ता, बम्बई और दिल्ली तक के उकवत के 
              अमीर-ग़रीब रोगी उस मामूली किसान, गत्ती के दरवाज़े दवा लगवाने आने 
              लगे। टीसन से पन्द्रह मील दूर, अनजाना छोटा-सा गाँव, न कोई सर न 
              सवारी, फिर भी लोग पूछते-आँछते पहुँच जाते। लडक़े, जवान, बूढ़े, 
              पुराने रोगी और नये, जिसे जहाँ से, जैसे गत्ती की खबर मिलती, 
              भागा-भागा आ पहुँचता। और कमाल यह कि सब अच्छे हो जाते।
              और गत्ती कोइरी अब गत्ती भगत बन गया। उसके भोले-भाले, धर्म-भीरु दिल 
              और दिमाग़ पर साधु की बातों और दवा के कमाल का कुछ ऐसा असर पड़ा कि 
              उसकी जि़न्दगी ही बदल गयी। वह बड़े नियम से स्नान-पूजा करने लगा, 
              माँस-मछली छोड़ दिया और ऐसा पवित्र आचरण करने लगा, कि लोगों को 
              आश्चर्य होता। सूरज पूरब के बजाय पश्चिम में उग जाय, यह सम्भव, लेकिन 
              गत्ती भगत के मुँह से कोई झूठ बात निकल जाय, उससे कभी कोई अन्याय हो 
              जाय, किसी मौक़े पर वह क्रोध-मोह-लोभ दरशाये, यह असम्भव!
              कई बार ऐसा हुआ कि कोई सेठ-साहूकार या कोई ज़मींदार-ताल्लुक़ेदार या 
              कोई हाकिम-अफ़सर दवा लगवाने आया और खुश होकर या अपना बड़प्पन दिखाने 
              के लिए या इनाम के बतौर उस लँगोटी बाँधे किसान को कुछ देना चाहा या 
              उससे कुछ माँगने को कहा, तो गत्ती भगत ने उसे दुत्कार दिया, जैसे कोई 
              क्या कुत्ते को दुतकारेगा।
              और गत्ती भगत का मान गाँव में सबसे ऊँचा हो गया। क्या छोटा, क्या 
              बड़ा, सब उसकी इज़्ज़त करते, सब उसकी बात की क़दर करते। कहीं कोई 
              झगड़ा हो, पर-पंचायत हो, गत्ती भगत बुलाया जाता, और जो भी इंसाफ़ वह 
              कर देता, वह सर झुकाकर मान लेते। गत्ती भगत दूर-दूर तक अपनी ईमानदारी 
              के लिए मशहूर हो गया।
              देखते-देखते पूरे पचीस साल गुज़र गये। जवान गत्ती भगत बूढ़ा हो गया; 
              लेकिन कोई बात है कि कभी उसका पन टूटा हो, कभी उसके ईमान में कोई 
              फ़र्क पड़ा हो।
              और उसी गत्ती भगत की उस दिन कण्ठी टूट गयी, यह क्या कोई मामूली अफ़सोस 
              और ताज्जुब की बात थी? जिसने सुना ताज्जुब से जीभ दबायी, जिसे मालूम 
              हुआ, च-च किया। लेकिन गत्ती भगत ...
              बात यों हुई।
              उन्नीस सौ पचास का ज़माना था। ज़मींदार और किसानों के बीच गाँव में 
              तनातनी चल रही थी। सुनने में आ रहा था कि ज़मींदारी जल्दी ही टूटने 
              वाली है, और जो ज़मीन जिसकी जोत में है, उस पर उसी का अधिकार हो 
              जाएगा। ज़मींदार की अपनी जोत में कोई ज़मीन न थी। उसके सारे खेत 
              किसान सालों से सिकमी पर जोत रहे थे। जब ज़मींदार ने ज़मींदारी टूटने 
              की अफ़वाह सुनी, तो उसने एक फ़ारम खोलने की घोषणा की और यह बात फैलायी 
              कि जो यों न खेत छोड़ेगा, उसका खेत पुलीस-द्वारा बेदख़ ल करके फ़ारम 
              में मिला दिया जाएगा। ऐसा कानून बना है कि फ़ारम के लिए सरकार सब 
              सहूलियतें देगी और कानून के ज़ोर से जितनी ज़मीन की ज़रूरत फ़ारम की 
              होगी, दिलाई जाएगी। पहले हल्ले में उसने कुछ खेत निकलवा भी लिये। 
              लेकिन जब किसानों को होश आया और उन्होंने देखा कि इस तरह तो सब-के-सब 
              एक दिन बेदख़ ल कर दिये जाएँगे, तो उन्होंने अपनी पंचायत की। जीवन-मरन 
              का सवाल था, पुश्तों से जोत में चले आये खेतों का वास्ता था, निकल 
              गये, तो किस सहारे जि़न्दगी काटेंगे? बहुत कोशिश की गयी कि गत्ती भगत 
              पंचायत में आये और किसानों को सही सलाह दे, लेकिन वह नहीं आया। कानून 
              को वह नहीं जानता, बिना समझे-बूझे वह कैसे कुछ कह सकता। फिर भी 
              किसानों की पंचायत हुई। ख़ बर देकर रामाधार को बुलाया गया। रामाधार उस 
              जवार का किसानों का कम्युनिस्ट नेता था। उसकी गिरफ़्तारी कर लेना कोई 
              ठठ्ठा न था। किसान उसे वैसे ही छिपाये रहते, जैसे मुर्गी अपना अण्डा।
              रामाधार के समझाने-बुझाने पर सबने मिलकर तै किया कि चाहे जो हो, वे 
              अपना खेत न छोड़ेंगे। सब मिलकर ज़मींदार का मुक़ाबिला करेंगे और बेदख़ 
              ल खेतों को उनके सिकमीदारों को वापस दिलाएँगे।
              संघर्ष की दुन्दुभी बज गयी।
              दूसरे दिन बेदख़ ल खेतों पर किसान दख़ ल करनेवाले थे। ज़मींदार को हवा 
              लगी, तो खुद दौड़ा-दौड़ा थाने गया। अगर किसानों ने उनके निकाले खेतों 
              पर क़ब्जा कर लिया, तो उनका साहस बढ़ा जाएगा। सब बना-बनाया खेल बिगड़ 
              जाएगा। शुरू ही में उनका मनसूबा न तोड़ दिया गया, तो फिर खैर नहीं। 
              दारोग़ा की मुठ्ठियाँ गर्म हुईं। उस पर ज़मींदार ने यह भी बताया कि 
              रामाधार को वहाँ आसानी से गिरफ़्तार भी किया जा सकता है। वह ज़रूर कल 
              वहाँ आएगा, वही तो सब खुराफ़ातों की जड़ है, वर्ना किसानों की क्या 
              हिम्मत, जो उसके सामने सर उठाते? रामाधार को गिरफ़्तार करना दारोग़ा के 
              लिए वैसा ही था, जैसे किसी बड़ी तरक्की के लिए कोई डिपार्टमेण्टल 
              परीक्षा पास करना।
              किसानों को ज़मींदार के इस हथकण्डे का पता चला, तो रात को फिर पंचायत 
              बुलायी गयी। रामाधार से पूछा गया कि अगर पुलिस मुदाख़ लत करे, तो 
              उन्हें क्या करना चाहिए? सवाल बहुत टेढ़ा था। सब की अलग-अलग राय थी। 
              कोई कहता कि बेदख़ ल खेतों को अभी न छेडऩा ही बेहतर है; कोई कहता हम 
              पुलिस से भी भिड़ लेंगे; कोई कहता, ज़मींदार से समझौता कर लिया जाय; 
              आदि-आदि। रामाधार की राय थी कि यह मसला सिर्फ़ इसी गाँव का नहीं है। 
              जवार के सभी गाँवों में ज़मींदार और पुलिस यही धाँधली कर रहे हैं। 
              पुलिस का मुक़ाबिला करना अकेले एक गाँव के बूते की बात नहीं है। सब 
              गाँवों के किसानों को मिलकर यह मोर्चा लेना चाहिए। तभी मसला हल हो 
              सकता है। मसले को छोडऩे और दूर हटाने से सब किसान एक-एक कर पिट 
              जाएँगे और एक दिन सब बेदख़ ल कर दिये जाएँगे।
              बात आसान न थी। बातचीत होते-होते बेर हो गयी। चारों ओर सोता पड़ गया। 
              लेकिन किसी नतीजे पर पहुँचना अब भी मुश्किल दिखाई दे रहा था। जिनके 
              खेत बेदख़ ल हुए थे, वे चाहते थे कि कुछ ऐसा जल्द और ज़रूर किया जाय 
              कि उनके खेत वापस मिल जाएँ। वे जान देने के लिए भी तैयार थे।  
              
              तभी रामाधार के एक साथी ने दौड़े-दौड़े आकर बताया कि पुलिस आ गयी। 
              अपने बचाव का जल्द इन्तज़ाम करो।
              सब हड़बड़ में उठ खड़े हुए। अब?
              गाँव में ठहरना ठीक नहीं। तलाशी हो सकती है। सब बाहर आये, तो बूटों 
              की आवाज़ पास ही सुनाई पड़ी। सूचना देर से मिली थी। अब सोचने समझने 
              का वक़्त कहाँ? सब को बिखर जाने को कहकर रामाधार अपने साथी के साथ आगे 
              बढ़ा कि अँधेरे में सामने से बूटों की आवाज़ आयी। वे बग़ल की गली में 
              मुड़े तो उन्हें ऐसा मालूम हुआ कि चारों ओर से बूटों की आवाज़ आ रही 
              है। रामाधार साथी को एक ओर जाने का इशाराकर, सामने घर की ओर बढ़ा, तो 
              साथी ने फुसफुसाकर कहा, ‘‘उस घर में नहीं। वह गत्ती भगत का घर है। 
              पूछने पर वह सच बता देगा।’’
              आवाज़ें नज़दीक आती जा रही थी। कोई चारा न था। रामाधार ने ‘कोई हर्ज 
              नहीं’ का संकेत किया और घर की ओर बढ़ गया।
              दरवाज़ा खुला था। दालान में गत्ती पीढ़ी पर बैठा हुक्का गुडग़ुड़ा रहा 
              था। रामाधार ने सामने जाकर कहा, ‘‘दादा, पुलिस पीछे पड़ गयी है। जाने 
              का किसी ओर रास्ता नहीं। आज रात ... ’’
              गत्ती भगत हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ। और एक क्षण कुछ सोचकर उसने रामाधार 
              की बाँह पकडक़र, बिना कुछ बोले, उसे अन्दर ढकेल दिया और खुद पीढ़ी से 
              उठ, बाहर सहन में आ, दरवाज़ा खुला छोड़, बैठकर हुक्का गुडग़ुड़ाने 
              लगा।
              रात-भर पुलिस गाँव में हडक़म्प मचाये रही। सब ओर से नाकेबन्दी करके, 
              सारी गलियाँ बूटों से रौंद दी गयीं। लेकिन फ़रार का कहीं पता न चला। 
              तब ज़मींदार की राय से ख़ानातलाशी हुई। कहीं-न-कहीं गाँव में ही 
              रामाधार छिपा होगा। दौड़ बिल्कुल वक़्त पर पहुँची थी। वह भागकर कैसे 
              निकल सकता है।
              सहमे हुए औरत-मर्द और बच्चे एक ओर खड़े हो जाते। पुलिस दो छन में 
              तलाशी ले लेती। छोटे-छोटे घर और झोंपड़े। देखने-सुनने में वक़्त ही 
              कितना लगता? आगे-आगे ज़मींदार और दारोग़ा और पीछे-पीछे पुलिस के 
              सिपाही।
              गत्ती भगत बदस्तूर सहन में बैठा हुक्का गुडग़ुड़ा रहा था, जैसे जो-कुछ 
              गाँव में हो रहा था, उसे कुछ पता ही न हो। पुलिस का दल जब सहन में 
              पहुँचा, तो वह हुक्का हाथ में लिये ही खड़ा हो गया और उसने ज़मींदार 
              और दारोग़ा को सलाम किया। ज़मींदार ने पूछा, ‘‘रामाधार कहीं तुम्हारे 
              घर में तो नहीं घुसा?’’
              गत्ती भगत ने आँखें झपकाकर कहा, ‘‘इस घर में उसका का काम, सरकार? मैं 
              तो साँझ से ही यहाँ सहन में बैठा हूँ। का करूँ, रात में नींद नहीं 
              आती। अब चला-चली का बखत आ गया।’’ कहकर उसने जम्हाई ली।
              ‘‘हम तलाशी लेना चाहते हैं,’’ दारोग़ा ने कहा।
              ‘‘ले लीजिए, सरकार,’’ गत्ती ने हुक्का दीवार से टिकाकर कहा, ‘‘दरवाजा 
              तो खुला ही है।’’
              ‘‘नहीं, कोई ज़रूरत नहीं। बेकार वक़्त खराब करना ठीक नहीं। यह गत्ती 
              भगत हैं। कभी झूठ नहीं बोलता। आगे चलिए!’’ और ज़मींदार के पीछे-पीछे 
              दल आगे बढ़ गया। ...
              रामाधार तो बच गया, लेकिन गत्ती भगत की यह बात जब लोगों को मालूम 
              हुई, तो सभी के मुँह से अफ़सोस और ताज्जुब के साथ बस एक ही बात निकली, 
              ‘‘गत्ती भगत की कण्ठी टूट गयी!’’
              लेकिन गत्ती भगत से जब कोई पूछता, तो वह कहता, ‘‘कण्ठी काहे को टूट 
              गयी? गाय को कसाई के हाथ से बचाने के लिए झूठ बोलना का पाप है? अगर 
              मैंने कोई पाप किया है, तो मेरे हाथ में जस नहीं रहेगा। आज से जो दवा 
              मैं लगाऊँगा, उससे रोगी अच्छा नहीं होगा। मेरे जस-अजस की यही कसौटी 
              है!’’
              और लोगों ने दूने ताज्जुब से देखा कि गत्ती भगत के हाथों का जस 
              जैसा-का-तैसा बना रहा। उसकी दवा के कमाल में कोई फ़र्क नहीं आया।
              लेकिन उस दिन से ज़मींदार और दारोग़ा की नज़रों में गत्ती भगत बदल 
              गया। उनके यहाँ उसका नाम कम्युनिस्टों में लिख लिया गया।