शाम झुक आयी, तो मंगली ने ताखे से ठिकरा उठाया और दीवार पर खिंची
चिचिरियों के आगे एक और चिचिरी खींच दी। ठिकरा ताखे पर रखकर वह
चिचिरियाँ गिनने लगी- एक-दो-तीन ... दस तक वह गिन चुकी, तो उसने
बायें हाथ की कानी अँगुली मोड़ ली। दस तक ही गिनती उसे आती थी ...
रामा ने कहा था कि जिस दिन उसकी तीन अँगुलियाँ मुड़ जाएँगी, उसी दिन
शाम को अँधेरा भींगते ही वह आएगा और पोखरे के भींटे पर उससे मिलेगा।
पिछले छ: महीने से इसी तरह मंगली की भेंट रामा से होती थी ... कभी
पोखरे के भींटे पर, कभी नदी के किनारे मन्दिर के पीछे, कभी सीवाने की
बगिया में, कभी डीह बाबा के पास। पहली बार जब रामा भागा था तो उसने
किसी से कुछ भी न कहा था। उस दिन गाँव में रात को बड़ी देर तक
खुसुर-पुसुर चलती रही थी।
उस दिन पन-पियाव के समय रामा के लिए जल-घेराव लेकर मंगली अपनी ननद के
साथ फारम पर गयी थी। सासु जर में पड़ी थी। ससुर बिटिया के बियाह के
चक्कर में अन्ते गये थे। पन-पियाव की बेरा निकली जा रही थी। सासु ने
कई बार बिटिया को बाहर भेजा था कि कोई लडक़ा या बडक़ा मिले, तो उसे
बुला लाये, चिरौरी-मिनती करके उससे बेटे के लिए जल-घेराव भेजवा देगी।
लेकिन कोई भी न मिला था। सब बाग-बगीचे, खेत-खलिहान या फारम पर चले
गये थे। जेठ चढ़ गया था। कटनी और दौनी तेजी पर थी।
सासु जर में न गिरी होती, तो वह भी किसी के खेत में कटाई करती होती।
ससुर की मामूली खेती, मिल-जुलकर दाँ-मिसकर वे निकल गये थे। सासु को
उसी में घाव लगा था और वह गिर पड़ी थी। लेकिन ससुर न रुके थे। बिटिया
सयानी हो गयी थी, इस लगन में उसे पार-घाट लगा ही देना था। वही बेटे
से कह गये थे कि कुछ दिन फारम पर काम करके कुछ पैसा कमा ले, बिटिया
के विवाह में जरूरत पड़ेगी। लेकिन रामा फारम पर फिर नहीं जाना चाहता
था। कई बार फारम का मालिक उसे अपने यहाँ से भगा चुका था। उसका कहना
था कि रामा फारम के मजूरों को भडक़ाता है। राम ने माई से कहा था कि वह
कसबे में जाकर कोई मजूरी कर लेगा। इस तरह माई ने उसे समझाया था कि जब
तक उसका जी ठीक नहीं हो जाता, या बुढ़ऊ लौट के नहीं आ जाते, तब तक वह
फारम पर काम कर ले, फिर जहाँ जी में आये, जाकर काम करे, उसे कौन
रोकेगा! दो-चार रोज की तो बात है।
फारम पर काम बहुत था। मजूरों की किल्लत थी। सुबह रामा पहुँचा, तो
मालिक ने उसे यह चेतावनी देकर रख लिया कि वह सिर्फ अपने काम से मतलब
रखेगा, मजूरों से वह और कोई बात न करेगा। रामा को उसका क्या जवाब
देना था। वह काम में जुट गया।
दो दिन बुढ़िया ही काँपती-डोलती बेटे का जल-घेराव और दोपहर का सत्तू
दे आयी थी। तीसरे दिन वह बिलकुल लस्त हो गयी थी। उठकर बैठने की भी
उसमें हूब न थी। जल-पियाव की बेरा जब ढलने लगी, तो आखिर मंगली ने
कहा-कहीं तऽ हमीं जल-घेराव दे आयीं? बेरा खरा गइल, कहीं खराई-ओराई ना
हो जाय।
-तू कहवाँ जइबे, नवकी?-माई ने व्याकुल होकर कहा-चार दिन के आइल
बहुरिया, तोरा के तऽ रस्तो नइखे मालूम!
-पूछत-आछत चल जाइब, मैया!- मंगली ने कहा- रउआँ रस्ता बता देईं।
सासु क्या करती, हार-पछताकर उसने कहा-तू बिटिया के साथे ले ले ...
-इनकर भइया बिगडि़हें ना नूँ?- मंगली ने पूछा।
-बिगड़ी का ऊ?-सासु ने कहा-कहि दिहे कि मैया भेजली हऽ। दूसर केहू ना
मिलल।
ननद-भौजाई जल-घेराव लेकर फारम की ओर चलीं। भौजाईं भौंहों तक घूँघट
काढ़े हुई थी। उसके एक हाथ में रस-भरा लोटा था। चबेना की पोटली ननद
अपने हाथ में लटकाये हुई थी। भौजाई के पाँव कुछ अट-पट पड़ रहे थे,
लेकिन ननद के पाँव जैसे ठुमक रहे थे। कभी-कभी भौजाई चलते-चलते ननद से
सट जाती, तो ननद उसे एक मीठी कुहनिया देकर कहती-ठीक से चल ना!-कहकर
वह हँस पड़ती। लेकिन भौजाई के होंठों पर मुसकान भी उभरने से सकुचा
जाती। वह क्या करती? अपरिचित रास्ते पर उसके पाँव सीधे पड़ ही न रहे
थे।
टैक्टरों की घड़घड़ाहट कानों में पड़ी, तो ननद ने कहा- देख, भौजी,
टकटर से दवाईं होत बा। कइसन भूतन नियर चक्कर काटत बाड़ऽसन। चल ओनिये
से चलीं जाँ, उँहवे कहीं भइया होंइहें ...
टै्रक्टरों को तेजी से चक्कर काटते देखकर मंगली का सिर घूमने लगा, हर
टै्रक्टर जैसे एक बवण्डर में पड़ा घूम रहा हो और भूसे की आँधी में
नहा रहा हो। साँस से जाकर शायद कोई तिनका मंगली के गले में फँस गया,
मँगलीं खाँसी रोकने की कोशिश करती हुई भी खाँसी न रोक पायी, तभी उसके
कानों में किसी की आवाज पड़ी- ई केवनि हऽ रे? बड़ा टिकुली चमकावतिया?
मंगली की देह थरथरा उठी। न सँभालती, तो रस-भरा लोटा उसके हाथ से
छूटकर गिर पड़ता।
ननद की भौंहें चढ़ गयीं। होठ बिचक गये। उसने नाक फुलाकर आवाज की ओर
देखा, तो फिर दूसरी आवाज आई-ओ महुआ के पेड़ के ओर बढ़ जो, सुगिया,
ओनिए रमुआ खेत काटत बा।
ननद ने भौजाई का खाली हाथ पकड़ लिया और उसे अपनी देह की आड़ में ले
आगे बढ़ी। जरा दूर आगे जाने पर वह दाँत भींचकर बोली-ऊहे मुअना फारम
के मालिक हऽ! लुच्चा!
लेकिन मंगली का तो जैसे तन-मन जल रहा था, उसके पाँव तेज-तेज उठने
लगे।
रामा ने उन्हें महुए के पेड़ के नीचे खड़े देखा, तो पुकार लगाकर
दौड़ता हुआ खेत से उनके पास आ गया। हाँफते हुए उसने पूछा- माई के का
हाल बा?
सुगिया ने चबेने की पोटली हाथ में थमाते हुए कहा-ठीक नइखे।
मंगली ने हाथ का लोटा ननद की ओर बढ़ा दिया।
साये में बैठते हुए रामा ने कहा-बइठऽसन।-और वह चबेने की पोटली खोलने
लगा।
सुगिया उसके सामने बैठ गयी। लेकिन मंगली मुँह फेरकर खड़ी रही।
उसके उस तरह खड़े होने के ढंग से ही जैसे रामा को लगा कि कोई बात है।
उसने एक फँाक मुँह में डालते हुए सुगिया से पूछा-का बात हऽ? तोर भउजी
...
-तू खा।-सुगिया ने कहा और अपनी भौजी का हाथ पकडक़र उसे बैठाने लगी।
लेकिन मंगली ने अपना हाथ छुड़ा लिया और जैसे थोड़ा और भी ऐंठकर खड़ी
हो गयी।
रामा ने जल्दी-जल्दी चबेना फाँका और लोटे का रस गटक लिया। फिर
बोला-अब बताव, सुगिया, का भइल हऽ?
तभी मंगली ने अपने माथे की टिकुली नोंचकर रामा के सामने फेंक दी।
धूल में गिरकर टिकुली जैसे घायल बहूटी की तरह तड़प उठी, रामा ने
टिकुली की ओर एक नजर देखा और फिर मंगली की ओर ... और फिर सुगिया की
ओर।
सुगिया काँप उठी। लटपटाती जबान से उसने बता दिया कि मालिक ने भौजी की
टिकुली देखकर बोली मारी थी ...
-अच्छा, तोहनिका जा सन!
सुगिया ने लोटा और अँगोछा उठाया और अपनी भौजी का हाथ पकडक़र चल पड़ी।
रामा वहीं खड़ा उन्हें जाते हुए आँखें तरेरकर देखता रहा। वे खलिहान
को पार कर गयीं, तो उसने टिकुली उठाकर टेंट में खोंसी और खेत की ओर
चला गया।
वह डंठलों को हँसुए से काट रहा था, जैसे किसी दुश्मन का गला काट रहा
हो।
वह एकदम चुप काम कर रहा था। उसके साथियों में से जो उसके छोटे भाई
लगते थे, दिल्लगी की-भउजी जल-घेराव ले आइल रहलसि हऽ, मालूम होता
मटकिया गइलि हऽ ...! जलदी-जलदी कटला से दिन जल्दी थोड़े ढल जाई ...
आरे, खयका लेके फेर आयी हो, तनी धीरज धरऽ ...!
बोलियाँ बोल-बोल वे खुद हँसते रहे, लेकिन रामा न बोला, सो न बोला,
हँसने की तो बात दूर। तब सबको शंका हुई कि कहीं कुछ बात न हो। फिर
उन्होंने बात पूछी, माई का हाल पूछा, फिर भी रामा न बोला, न उनकी ओर
देखा। तब वे किसी आशंका से घबरा उठे।
रामा जब कभी इस तरह चुप लगाता था, कोई-न-कोई वारदात होके रहती। एक
बार नहीं, कई बार वे देख चुके थे। एक बार पटवारी को उसने मारा था।
दारोगा से तो कई बार भिड़ा था। और फारम के मालिक से तो अकसर ही वह
लड़ जाता था, उसी ने फारम पर औरतों का काम करना बन्द कराया था। उसके
पहले फारम क्या था। व्यभिचार का अड्डा बन गया था। नौजवान लड़कियों के
बीच में मालिक भेड़िये की तरह घूमा करता था और दोपहर के खाने की
छुट्टी के समय रोज हल्ला होता था। रातों का तो कहना ही क्या था!
शोहदे इकट्ठे होते, खस्सी कटता, या मुर्गे जिबह होते, दारू की बोतल
खुलती और किसी-न किसी लडक़ी को पकड़ लाया जाता। लोग परेशान थे, लेकिन
किसी से कुछ करते न बनता था, आखिर यही रामा कई दिन की चुप्पी के बाद
उठा था, नौजवानों से सलाह-मशविरा किया था और एक रात वे सब फारम के
कमरे पर टूट पड़े थे। शोहदों ने लाठियाँ उठायी थीं। लेकिन नौजवानों
की भारी भीड़ देखकर वे भाग खड़े हुए थे। नशे में धुत फारम के मालिक
के हाथ में बन्दूक काँप रही थी। लडक़ी कमरे से भागकर भीड़ में आकर
अपना मुँह आँचल से ढँककर रो रही थी। रामा ने मालिक को ललकारा
था-चलाओ! बन्दूक चलाओ! फिर देखो कि तुम्हारी हड्डी-पसली का क्या होता
है!
मालिक ने बन्दूक नहीं चलायी थी। वह कमरे का दरवाजा बन्द करने लगा था
तो उसे रोककर रामा ने कहा था-कल से ये बदमाशियाँ बिल्कुल बन्द हो
जानी चाहिए! समझे?
फारम पर का अड्डा टूट गया था। मालिक शाम होने के पहले ही गाँव की
अपनी हवेली में घुस जाता था। लेकिन उसकी बदमाशियाँ खत्म न हुईं थीं।
मजूरों को गालियाँ देना, उन्हें पिटवा देना, उनकी बहू-बेटियों को
उड़वा लेना, सब जारी था। सिर्फ उसका ढंग बदल गया था। रामा ने उससे हर
मौके पर लोहा लिया था। हर वारदात के बाद मालिक उसे फारम से निकाल
देता, पुलिस बुलाता, लेकिन वह बहुत आगे न बढ़ता, वह जानता था कि
पुलिस और गुण्डों की सुरक्षा से फारम नहीं चलता, फारम मजूरों से चलता
है, मजूरों से दुश्मनी करके वह फारम नहीं चला सकता, इसलिए रामा फिर
जब उसके यहाँ काम के लिए जाता था तो वह उसे काम दे देता था। मालिक भी
अपनी घात में रहता था और रामा भी अपनी घात में रहता था, मालिक अपने
गुण्डों की संख्या बढ़ा रहा था तो रामा भी अपनी किसान सभा को मजबूत
कर रहा था, मालिक किसी मजूर को गाली देता, तो मजूर भी उसे सुनाए बिना
न रहता, मालिक किसी मजूर की मजूरी काटता तो दूसरे दिन उसे पता लगता
कि जितनी मजूरी उसने काटी थी, उसके दुगुने की फसल रात कट गयी, मालिक
का कोई गुण्डा किसी मजूर पर हाथ छोड़ता तो उस गुण्डे की भी जल्दी ही
मरम्मत हो जाती, मजूर अब खाली हाथ कभी न रहते, लाठी, हँसुआ, छुरा और
कुछ नहीं तो एक लोहे का टुकड़ा जरूर उनके पास रहता था, रामा का कहना
था, पास में कोई हथियार रहने से मन का बल बना रहता है।
रामा का दोपहर का खयका नहीं आया, महुए के पेड़ के नीचे चितान लेटा
हुआ वह दाँतों से तिनका कुतरता रहा, मजूरों ने अपने खयके में से उसे
कुछ खिलाना चाहा, लेकिन उसने कुछ न खाया, वह वैसे ही पड़ा रहा,
मजूरों को अब कोई सन्देह न रहा कि आज-कल में जरूर कुछ होगा। लेकिन
क्या होगा, इसके विषय में वे सोच न पाते। उन्हें आशा थी कि जब रामा
किसी निर्णय पर पहुँच जाएगा, तो वह उनसे सलाह-मशविरा करेगा, वे
इन्तजार करने लगे और मन-ही-मन अपने को तैयार करने लगे।
पश्चिम में सूरज बहुत काफी झुक गया, तो मजूर हाथ रोक उठ खड़े हुए। वे
खेत से निकलने वाले ही थे कि उन्होंने देखा, मेड़ पर मालिक खड़ा है
और उसे कोई छाता ओढ़ाये हुए है। मालिक ने ही अपनी कलाई घड़ी देखी और
कहा-अभी साढ़े-पाँच ही बजे हैं। एक घण्टा तुम लोग और काम करो।
मजूरों ने रामा की ओर देखा। लेकिन रामा के मुँह से सहसा कोई बात न
निकली, वह अपनी लाल-लाल आँखों से मालिक को घूर रहा था और हँसिया की
बेंट पर उसकी पकड़ सख्त हो गयी थी।
मालिक ने फिर कहा-रामा ने ठीक से काम करने का वादा किया है, तुम लोग
उसकी ओर क्या देख रहे हो? चलो, काम शुरू करो, वक़्त बरबाद मत करो!
तब रामा के मुँह से जैसे एक-एक शब्द कंकड़ की तरह उसके दाँतों से
टूट-टूट कर निकला-पहले ही आधा घण्टा ज्यादा हम काम कर चुके हैं। और
नहीं करेंगे!
-हम एक घण्टे की ज्यादा मजूरी देंगे-मालिक ने कहा तुम लोग काम करो।
-हमें नहीं चाहिए,-रामा ने कहा।
-तू जोरू-जाँता वाला हुआ रामू,-मालिक बोला-और तू कहता है, तुझे पैसे
नहीं चाहिए? बड़ी जुलुम जोरू तुझे मिली है, बे, तू क्यों उसे भूखों
मारेगा? चल, काम शुरू करने को कह। एक घण्टा और काम कर लेगा तो तेरी
जोरू के लिए चूड़ी-टिकुली ...
फिर क्या हुआ, कोई न देख पाया। जैसे बिजली कौंधी हो। और फिर छाते
वाले की पुकार सुनाई पड़ी-पकड़ो! पकड़ो उसे! ...
रामा को कौन पकड़ता? मालिक गिर पड़ा था। रामा के हँसिये की नोक मालिक
की दायीं आँख में घुस गयी थी ...
मजूरों ने सबसे पहले मंगली और सुगिया को उनके घर से हटाया। माई ने
पूछा, तो उन्होंने कोई बहाना बना दिया। खबर मिली कि फारम के मालिक को
कस्बे के अस्पताल ले जाया गया और वहाँ से जिले के अस्पताल को
पहुँचाया गया। गाँव में पुलिस का दल आया। रामा के घर और पास-पड़ोस के
घरों की उन्होंने तलाशी ली। फिर कुछ मजूरों को धमकाया और पीटा।
रात-भर गाँव में खुसुर-फुसर होती रही। किसी की समझ में न आ रहा था कि
आखिर रामा ने फारम के मालिक को वैसा दण्ड क्यों दिया किसी का कहना था
कि रामा ने मालिक की गर्दन पर अपना हँसिया फेंका होगा, लेकिन लग गया
वह उसकी आँख में और किसी का कहना था, नहीं, रामा ने मालिक की आँख को
ही निशाना बनाया था और हँसिया ठीक अपने निशाने पर पड़ी। लेकिन क्यों,
इसका जवाब किसी के भी पास न था।
मंगली और सुगिया से कोई क्या पूछता? लेकिन खबर मिलते ही सुगिया ने
अपनी भौजी से कहा था-हँसिया में दूगो नोंक होइत तऽ दहिजरा के दूनों
आँखि फूटि गइल रहित, फेर केवनो के टिकुली पर ऊ नजर ना लगा पाइत ...
मंगली ने तब हँसकर पूछा-बाकी उ भाग के कहवाँ गइलें?
-एही तरे कबो-कबो ऊ भाग जालें, फेर आ जइहें, भऊजी ...
लेकिन रामा फिर नहीं लौटा। उस पर वारण्ट कट गया था। रामा के घर के
दरवाजे पर नोटिस टँग गयी थी।
पन्द्रह दिन के बाद पड़ोस के गाँव का एक जवान रात को आया और महेसा से
मिला। वह रामा की खबर लेकर आया था। आधी रात को गाँव के जवानों का नदी
के किनारे के मन्दिर में बिटोर था। रामा बिटोर में बात करेगा। बिटोर
के बाद रामा अपने घर के लोगों से भी मिलना चाहेगा। सारी जिम्मेदारी
महेसा पर है।
बिटोर के बाद सबसे पहले रामा अपनी माई से मिला था, फिर काका से और
फिर सुगिया से। अन्त में वह अपनी मंगली से मिला था। मंगली ने देखा,
उसके हाथ में गड़ाँसा था। रामा ने कहा-मुँह उठा के देख रे! ए तरे सिर
का झुकवले बाड़े?
मंगली मुँह उठाकर मुसकरायी। रामा ने भी उसे मुसकराकर देखा। फिर
पूछा-तब से तू आपन लिलार सूने रख ले बाड़े!
मंगली कोई जवाब दे, इसके पहले ही अपनी टेंट से टिकुली निकालकर रामा
ने मंगली की ललाट पर चिपका दी और बोला-एके सँभार के रखिहे! ओ सैतान
के अभी एगो आँखि बचल बा! हम फिर डीह बाबा के पास सात दिन बाद राम में
मिलब। तोके खबर मिली। तोके लिवावे केहू पहुँची।
फारम का मालिक दायीं आँख से काना हो गया था, लेकिन उसकी बायीं आँख का
शैतान और जबर हो उठा था। उसका चेहरा यों ही भयंकर न दिखायी देता था।
उसके अन्दर का जंगली जानवर हमेशा ही कु्रद्घ रहता था। रामा गाँव
छोडक़र भाग गया था। मालिक के मन का डर निकल गया था। वह नंगा नाच नाचने
लगा। दो कान्सटेबल हवेली पर और चार कान्सटेबल फारम पर पहरा देते,
गाँव के सभी मजदूरों को उसने निकाल दिया। बाहर से मजूरों को बुलाया।
लेकिन उसे क्या मालूम था कि मजूर चाहे गाँव का हो या बाहर का, वह
आखिर मजूर ही होता है। दिन में काम और रात को ...
फारम की भदई की तैयार फसल में से रात को कहीं-न-कहीं कुछ कटकर गायब
हो जाती। न मालिक की समझ में कुछ आता और न कान्सटेबलों की। रात में
फसल की निगरानी का कार्यक्रम बना। मजूरों में से कुछ को रात का खाना
देकर पहरे पर तैनात किया गया। कान्सटेबलों को गश्त पर रखा गया। फिर
भी फसल कटती रही। आखिर परेशान होकर मालिक ने कच्ची-पकी फसल कटवा कर
खलिहान में इकठ्ठी करा दी, लेकिन इससे भी कोई फायदा न हुआ, रात को
कटी फसल में से भी कुछ उठ गयी और साथ ही एक कान्सटेबल भी जख्मी हो
गया।
तब थाना खलबला उठा। दारोगा का ध्यान अचानक ही रामा की ओर गया। अपनी
पूरी कोशिशों के बावजूद वह रामा को पकड़ न पाया था। उसने फिर एक बार
अपना जोर लगाया। मालिक को यह खबर मिली तो उसकी कानी आँख रामा के घर
की ओर उठ गयी, उसे याद आयी रामा की जोरू, जिसकी टिकुली उसने एकदिन
फारम के खलिहान के पास देखी थी। रामा उसकी फसल लुटवा रहा है, तो उसने
एक कुटिल मुसकान के साथ सोचा, वह भी रामा का कुछ तो लूट ही सकता है।
एक रात गाँव में एक बड़ा तमाशा उठ खड़ा हुआ। यह खबर चारों ओर फैल गयी
कि फारम के मालिक के दो गुण्डे रामा के घर में घुसे थे। औरतों ने
हल्ला मचाया और मर्द जब वहाँ पहुँचे तो उन्हें मालूम हुआ कि गुण्डे
औरतों की मूसलों से चोट खाकर भाग खड़े हुए, लोग खूब हँसे और औरतों की
पीठ भी ठोंकी-अब के बा जे हमारी बहू-बेटी की ओर आँख उठा के देखी?
जवानों के बिटोर होते रहे। कभी इस गाँव में, कभी उस गाँव में। हर
गाँव में फारम खुले थे, हर गाँव में मालिक थे और हर गाँव में मजूर और
छोटे-छोटे किसान थे। सारा इलाका ही एक संघर्ष-भूमि बन गया। कई मालिक
तो अपनी जान बचाने के लिए रात को थाने पर चले जाते। लेकिन काने मालिक
ने अपनी हवेली और फारम को ही थाना बना दिया।
गाँव में थोड़े दिनों के लिए सन्नाटा छाया रहा। रामा ठीक दिन पर, ठीक
जगह पर, ठीक समय पर आता और मंगली से मिल जाता, मंगली चिचिरी खींचती
और उन्हें गिनती रहती, जिस शाम गिनती पूरी होती, मंगली अपना माथ
बाँधती और सिन्दूर लगाती। माथे पर वह टिकुली साटना वह कभी भी न
भूलती।
उस शाम मंगली की तीन अँगुलियाँ मुड़ गयीं तो वह खुश हो माथ बाँधने
बैठ गयी। सुगिया ताड़ गयी कि भैया मिलने वाले हैं, वह उसके पास जाकर
बोली-आज हमहु चलब।
-चलऽ,-मुसकराकर मंगली बोली।
सुगिया भी तैयार हो गयी। झुटपुटा हुआ तो एक जवान ने सीधे उनकी
झोंपड़ी में आकर माई के पाँव छुए।
फिर मंगली की ओर देखकर बोला-आज अइसे ना चले के होई। चारो ओर कुत्ता
सूँघऽत फिरऽत बाड़ें सन।
-फेर?-मंगली ने पूछा-कइसे चलीं?
सुगिया बोली आज-हमहूँ चलब।
-ना,-जवान ने कहा-तू फेर कबो चलिह, आज नाहीं। आज इ अकेले जइहें। मरद
के भेस में।
मंगली ने अपने होंठ काट लिये।
जवान बोला-देर मत करऽ। हम ओसारा में चलऽतानी। तूू जलदी रामा भैया के,
चाहे काका के केवनो कपड़ा पहिन लऽ, आ, ई अपनी टेंटी में खोंस लऽ-कहकर
उसने एक छुरा मंगली के हाथ में पकड़ा दिया और बाहर हो गया।
मंगली कपड़े बदलती रही और सुगिया हँसती रही। ललाट की टिकुली उतारने
में मंगली को बड़ा दुख हुआ। लेकिन फिर कुछ सोचकर उसने टिकुली भी टेंट
में खोंस ली। उसका इरादा था कि उनके पास पहुँचकर वह टिकुली माथे पर
साट लेगी।
वे बाहर निकले तो झुटपुटा गहरा गया था। पगडण्डी पर वे अगल-बगल चल रहे
थे। दोनों ओर गन्ने के खेत थे। वे यों ही कुछ बातें करते जा रहे थे।
पोखरे का भींटा अब दूर नहीं था कि सहसा उन्हें दोनों ओर गन्ने में
सरसराहट की आवाज सुनाई दी। वे इधर-उधर देखें कि पटापट उन पर लाठियाँ
गिरने लगीं, जवान गिर पड़ा और सँभलकर वह उठे-उठे कि उसने देखा कि
आठ-दस लोग मंगली को उठाये गाँव की ओर भागे जा रहे थे।
जवान भागकर भींटे पर पहुँचा और रामा को यह खबर दी। फिर वे दोनों वहाँ
से तुरन्त निकल गये।
एक घण्टा बीतते-न-बीतते गाँव के उत्तर में घड़ियाल बज उठा, टनन-टनन
टनन-टनन। घड़ियाल लगातार बजता रहा और उसकी आवाज बढ़ती गयी, यहाँ तक कि
गाँव के चारों ओर घड़ियाल की आवाजें ऐसे गूँजने लगीं, जैसे घने काले
बादल गरजते-तरजते मँडराते चले आ रहे हों, फिर उन बादलों में जैसे
चारों ओर बिजलियाँ कडक़ उठी। गाँव का अन्धकार अनगिनत मशालों से भक-भक
जल उठा और उसका दायरा धीरे-धीरे फारम के मालिक की हवेली को घेरते हुए
छोटा होने लगा।
हवेली और मरदाने के ओसारे में तैनात गुण्डे लाठी और कान्सटेबल
बन्दूकें उठाकर खड़े हो गये। वे कुल गिनती में बारह थे और उनके सामने
अनगिनत मशालें जल रहीं थीं। कान्सटेबिलों और गुण्डों को लगा, जैसे
हजारों लाल-लाल आँखें उन्हें घूरती हुई आगे बढ़ रही हों। तभी मरदाने
के अन्दर से एक चीख की आवाज आयी। उसे सुनकर बाहर की खामोशी भडक़ उठी
और धायँ-धायँ गोलियाँ बोल उठीं। कान्सटेबिल और कई गुण्डे घायल होकर
गिर पड़े तो मशालें मरदाने के ओसारे में आ गयीं। कइयों ने एक साथ जोर
लगाया तो दरवाजे के अन्दर की किल्ली चरचराकर टूट गयी और पल्ले चौपट
खुल गये। किसी पल्ले की चपेट में आकर ही शायद फारम का मालिक फर्श पर
गिर पड़ा था। उस पर कई लाठियाँ एक ही साथ पड़ीं। खून के फव्वारे फूट
पड़े। एक ने अपना गड़ाँसा उठाया तो रामा ने उसे रोक दिया।
-नहीं, इसे मारना नहीं है!-रामा ने आगे आकर अपने लठ्ठबाजों को रोका।
शैतानी की हम क्या सजा देते हैं, इसका सबूत बनकर इसे जिन्दा रहना
चाहिए!
दो ने मालिक की महीन धोती चीड़-फाडक़र रख दी । रामा ने एक छुरी अपने
टेंट से निकाली और मालिक का लिंग काटकर उसके मुँह पर दे मारा।
पलंग के पास फर्श पर मंगली बेहोश गिरी पड़ी थी। रामा ने उसे उठाया और
अपने साथियों से कहा-अब चलो!
घड़ियाल खामोश हो गये। मशालें बुझ गयीं। कदमों की आवाजें दूर होती
गयीं। हवेली को अन्धकार लील गया।