1
चोर
मैं
दूसरों की बनाई दुनिया में रहा
सड़के जिन पर मैं चला
चप्पलें जो मैंने पहनीं
रोटियाँ जो मैंने खाईं
सब थीं दूसरों की बनाईं ।
झंडे जो
मैंने उठाए
नारे जो मैंने लगाए
गीत जो मैंने गाए
सब थे दूसरों के बनाए।
किताबें
जौ मैंने पढ़ीं
थी सब दूसरों की गढ़ी।
मैं तो बस
चोर की तरह
चुराता रहा दूसरों का किया
मैंने
किया क्या
जीवन जिया क्या
?
2
लालच
कुछ भी अच्छा देख कर ललच
उठता है मन
अच्छे घर,
अच्छे कपड़े
अच्छी टोपियाँ
कितनों चीजों के नाम लूँ
जो भी अच्छा देखता हूँ
पाने को मचल उठता हूँ।
यह अच्छी
बात नहीं है जानता हूँ
यह बड़ी घटिया बात है मानता हूँ।
लेकिन
कितनी बार मन में आता है
छीन लूँ
सब अच्छी चीजें पा लूँ कैसे भी।
अच्छी चीजें लुभाती हैं
सदा मुझे
मैं आपकी बात नहीं करता
शायद
आपका मन मर चुका है
शायद
आप का मन भर चुका है।
आप पा
चुके वह सब जो पाना चाहते थे
नहीं रही अच्छी चीजों के लिए आपके मन में कोई जगह
कोई तड़प
कोई लालसा आपकी बाकी नहीं नही ।
लेकिन मेरी तृष्णा बुझी नहीं है अब तक
भुक्खड़ हूँ दरिद्र हूँ मैं जन्म का
हूक सी उठती है अच्छी चीजों को देख कर
हमेशा काम चलाऊ चीजें मिलीं
न अच्छा
पहना
न अच्छा खाया
बस काम चलाया
तो अहक जाती नहीं
अच्छे को पाने के लिए सदा बेकल रहता हूँ।
हजार पीढ़ियाँ लार टपकाती मिट गई मेरी
इस धरती से
निकृष्ट चीजों से चलता रहा काम
अच्छी चीजें रहीं उनकी हथेलियों के बाहर
पकड़ से दूर रहा वह सब कुछ जो था बेहतर
वे दूर से निहारते सिधार गए
मैं नहीं जाना चाहता उनकी तरह अतृप्त छछाया
मैं खत्म करना चाहता हूँ लालच और अतृप्ति का यह खेल
इसीलिए मैं जो कुछ भी अच्छा है
उसे कैसे भी पाना चाहता हूँ
जिसे बुरा
मानना हो माने
मैं लालची हूँ और सचमुच
सारी अच्छी चीजें हथियाना चाहता हूँ ।
3
बिटिया का
कहना
जब घर से
निकला था
खेल रही थी
पानी से,
मुझे देख कर
मुसकाई
हाथ हिलाया
बेध्यानी से।
रात गए जब घर
लौटा उसको
सोता पाया।
हो सकता है
जगे जान कर
मुझको आया।
दिन में बात
हुई थी
बहुत कुछ
लाना था
सोते से जगा
कर
सब कुछ
दिखलाना था।
किंतु न लाया
कुछ भी
सोचा ला
दूँगा,
रोज-रोज की
बात है कुछ भी
समझा दूँगा।
अभी जगी है
पूछ रही है
आए पापा,
जो जो मैंने
मँगवाया था
लाए पापा।
निकला हूँ
कंधे पर उसको
बैठा कर
दिलाना ही
होगा सब कुछ
दुकान पर ले
जाकर।
यह हरजाना है
भरना ही
होगा,
बिटिया जो भी
कहे
करना ही
होगा।
4
ऐसा तो नहीं
था
दिन भर खट कर
सो रही है
बाल बिखरे
हैं
चूड़ियाँ
तितर-बितर हैं
हाथों पर
बरतन मलने का निशान है
कुहनी पर लगा
थोड़ा पिसान है,
नाखूनों पर
कोई रंग नहीं है
पैरों में
पड़ रही हैं बिवाइयाँ
माथे की
बिंदी खिसक कर
बगल हो गई है
ऐसा लगता है
कुछ
सोचते-सोचते सो गई है।
कुछ साल पहले
ऐसा न था
यही
अंगुलियाँ होती थी कैसी
मूँगे कि
टहनी जैसी
यही ललाट था
स्वर्ण पट्टिका सा जगजगाता
यही करतल थे
पद्म से सजे-धजे
यही चरणतल थे
पल्लव से रक्तिम
यही नाखून थे
दीप माला से कुंदन से
दिप-दिप करते
यही केश थे
मह-मह लहराते नागफनी से
कुछ साल पहले
...... ऐसा न था
घर सँवारने
में उलझ गई है ऐसे
कि अपने को
सजाने का
ध्यान ही
नहीं रह गया है
बदल गई है घर
बसा कर इसकी दुनिया
सोई है खट कर
दिन भर।
5
कल की बात
कल संझा की
बात है
ऐसी ही एक
बात है....
कुछ उलझन से
भर कर
बैठा था
बिल्डिंग की छत पर
कुछ सोच रहा
था ऐसे ही,
मेरे बगल की
बिल्डिंग की
दूसरे तल्ले
की एक खिड़की
खुली हुई थी
थोड़ी सी।
जूड़ा बाँधे
एक लड़की
तलती थी कुछ
चूल्हे पर
तलती थी कुछ
गाती थी
गाती थी कुछ
तलती थी
तभी पीछे से
आकर
उसको बाहों
में भर कर
बोला उससे
कुछ सहचर।
पकड़-धकड़
में खुला जूड़ा
हाथ बढ़ा
बुझा चूल्हा
चले गए दोनों
भीतर
बैठा रहा मैं
छत पर....
कल संझा की
बात है...
ऐसी ही एक
बात है...
6
भारत-भारती
उधड़ी पुरानी चटाई और एक
टाट बिछाकर,
छोटे बच्चे को
औधें मुँह भूमि पर लिटा कर।
मटमैले फटे आँचल को
उस
पर फैला कर
खाली कटोरे सा पिचका पेट
दिखा कर।
मरियल कलुष मुख को कुछ और मलिन
बना कर
माँगने की कोशिश में बार-बार
रिरिया कर।
फटकार के साथ कुछ न कुछ
पाकर
बरबस दाँत चियारती है
फिर धरती में मुँह छिपाकर पड़े बच्चे को
आरत निहारती है ।
यह
किस का भरत है
किस का भारत
और
किस की यह भारती है।
7
कोई चिह्न नहीं है
पिता
अब
घर में कोई चिह्न नहीं है तुम्हारा
सब
धीरे धीरे मिट गया
कुछ चीजों को ले गए महापात्र
कुछ जला दीं गईं
तुम्हारा चश्मा पड़ा रहा तुम्हारे तहखाने में
कई
महीने
फिर किसी ने उसे चुपके से
गंगा में प्रवाहित कर दिया ।
तुम्हारे जूते
तुम्हारी घड़ी
तुम्हारी टोपियाँ सब कहाँ खो गईं जो
खोजने पर भी नहीं मिलतीं।
जब
तुम थे
तब
घर कैसे भरा था तुम्हारी चीजों से
हर
तरफ तुम होते या तुम्हारी चीजें होतीं....
तुम जहाँ
नहीं भी होते थे वहाँ से भी आती थी
तुम्हारी
आवाज
तुम्हारी
पोथियाँ .....तुम्हारी डायरियाँ...तुम्हारी कलमें
तुम्हारे
मित्र तुम्हारे बाल सखा...सब कहीं गुम गए...।
याद करता
हूँ
कितने तो गमछे थे तुम्हारे
कितने कुर्ते
कितनी चुनदानियाँ
कितने सरौते...
पर
खोजता हूँ तो कुछ भी नहीं मिलता घर में कहीं
जैसे किसी साजिश के तहत तुम्हारी चीजों को
मिटा दिया गया हो
घर से घरती से ।
ले दे
कर बस एक चीज बची है
जो
लोगों को दिलाती है तुम्हारी याद
वो
मैं हूँ....तुम्हारा
सबसे
छोटा बेटा।
पता
नहीं क्यों लोग मुझे नहीं करते प्रवाहित
नहीं
कर देते किसी को दान।
8
हार गए
पिता
पिता बस कुछ
दिन और जीना चाहते थे
वे हर
मिलने वाले से कहते कि
बहुत
नहीं दो
साल तीन साल और मिल जाता बस ।
वे सब से
जिंदगी को ऐसे माँगते थे जैसे मिल सकती हो
किराने की दुकान
पर बाजार
में ।
उनकी यह इच्छा जान गए थे उनके डॉक्टर भी
सब ने
पूरी कोशिश की पिता को बचाने
की
पर
कुछ भी काम नहीं आया ।
माँ ने
मनौतियाँ मानी कितनी
मैहर
की देवी से लेकर काशी विश्वनाथ तक
सबसे
रोती रही वह अपने सुहाग को
ध्रुव
तारे की तरह
अटल
करने के लिए
पर
कहीं उसकी
सुनवाई नहीं हुई ।
1997
में
जाड़ों के पहले पिता ने छोड़ी दुनिया
बहन
ने बुना था उनके लिए
लाल
इमली का
पूरी
बाँह का स्वेटर
उनके
सिरहाने बैठ कर
डालती
रही
स्वेटर
में
फंदा कि शायद
स्वेटर बुनता देख मौत को आए दया,
भाई
ने खरीदा था
कंबल
पर सब
कुछ धरा रह गया
घर पर
......
बाद में ले गए महापात्र सब ढोकर।
पिता ज्यादा नहीं 2001
तक जीना चाहते थे
दो
सदियों में जीने की उनकी साध पुजी
नहीं
1936
में जन्में पिता जी तो सकते थे
2001
तक
पर
देह ने नहीं दिया उनका
साथ
डॉक्टर और दवाएँ उन्हें मरने से बचा न सकीं ।
इच्छाएँ कई
कई और थीं पिता की
जो
पूरी नहीं हुईं
कई कई
और सपने थे ....अधूरे....
वे
तमाम अधूरे सपनों के साथ भी जीने को तैयार थे
पर
नहीं मिले
उन्हें दो-तीन साल
हार
गए पिता जीत गया काल ।
9
मैं खो गया
हूँ
वे
बड़े फालतू लोग
थे..
उनके तो नाम भी अजीब निरर्थक से थे...
किसी का नाम भगतिन था तो
किसी का
ब्रह्म नारायण
किसी का बिट्टन .......
इनमे से किसी ने बचाया डूबने से
किसी ने
खोने से
किसी ने गिरने से।
ब्रह्म नारायण ने
मुझे विन्ध्याचल की
पहाडियों में
खो जाने से बचाया।
अपने मुंडन के बाद मैं
पता नहीं कैसे चला जा
रहा था पहाड़ियों की ओर
मुझे तो पता भी हीं था कि मैं भटक गया हूँ...
वे
ब्रह्म नारायण थे मेरे पिता के बाल सखा
जिन्होंने मुझे देखा गलत दिशा में
जाते
दौड़ पड़े
नंगे पैर
और
ले आए वापस
वे न होते उस दिन तो मुझे खा जाता
कोई जानवर
या गिर पड़ता मैं किसी खाईं में।
एक बार तो
डूब ही रहा था गाँव के सायफन में
खेतों को सींचने के लिए चमकता हुआ पानी
जाता था घर के
बहुत पास से
सायफन पड़ता था घर के एकदम पिछवारे
उसी के तल में चमक रही थी एक
दुअन्नी
जिसे पाने के लिए मैं उतर गया पानी में
दुअन्नी को मुट्ठी में बाँध कर मैं डूब रहा था
कि आ गए
नन्हकू भगत
उन्होंने देख लिया मुझे डूबते
और
निकाल लिया
बाहर
बच गया एक
बार फिर ।
फिर मैं खो गया था माघ मेले की अपार भीड़ में
बैठा था
भूले
–
भटके
शिविर में
नाम भी नहीं बता पा रहा था किसी को
कि
मेरे गाँव की
भगतिन ने देख लिया मुझे
झपट लिया मुझे उस खेमे में आकर
ले
आई मां के पास टेंट
में
जो
घंटे भर से खोज रही ती मुझे जहाँ-तहाँ बिललाती।।
थोड़ा और बड़ा
हुआ तो
खो
गया इलाहाबाद के एलनगंज मुहल्ले में
बीमार ताई को देखने आई
थी माँ
तो
साथ आ गया था मैं भी
निकला था
मलाई बरफ लेने एक रुपए लेकर
और भटक
गया रास्ता
थक
गया था खोज कर पर
नहीं मिल रहा
चाचा का घर
वह तो सामने के फ्लैट में रहने वाली एक भली सी लड़की ने
देखा
मुझे चौराहे की भीड़ में सुबकते
ले
आई घर किसी को बताया भी नहीं कि
मैं खो गया था....नाम था उसका सरिता
उसकी माँ
उसे बिट्टन बुलाती थी
तब
वह बारहवीं में पढ़ती थी
के.पी. इंटर कॉलेज के किसी
गणित के अध्यापक की बेटी थी।
बचा लिया गया ऐसे ही कितनी बार
मरने से
....खोने से .....डूबने से।
पिछले कई सालों से खो गया हूँ मैं कहीं
डूब रहा
हूँ कहीं
नहीं आ पा रहे मुझ तक ब्रह्म नारायाण
सुनता हूँ
वे घर छोड़ कर भाग गए कहीं
भगतिन का कुछ पता नहीं चल
रहा
उसे डुबो
दिया उसके पड़ोसियों ने ताल में
एक बिस्वा
खेत के लिए,
सरिता भी न जाने कहाँ है
भगत का वह उबारने वाला हाथ कट गया कहीं।
वे
बड़े
मामूली लोग थे
उनके तो नाम भी अजीब निरर्थक से थे
जिन्हों
ने बचाया मुझे डूबने से
खोने से
मरने से।
10
तिरंगा
प्यारा ले लो
आज पंद्रह
अगस्त
ईसवी
सन दो हजार सात है
मैं
कांदीवली अपने घर से अंधेरी के लिए निकला
हूँ
कुछ
काम है
अभी
मिठ चौकी पर पहुँचा हूँ भीड़ है
ट्रैफिक जाम
है
घिरे
हैं गहरे काले बादल आसमान में
कुछ
देर पहले बरसा है पानी
सड़क
अभी
तक गीली है।
बहुत सारे
बच्चों
छोटे-छोटे बच्चों के साथ
एक
बुढ़िया भी बेच रही है
तिरंगे।
एक दस
साल का लड़का
एक
सात साल की लड़की
एक
तीस पैंतीस का नौ जवान
बेच
रहा है झंडा
इन सब
के साथ ही
यह
बुढ़िया भी बेच रही है यह नया
आइटम।
उम्र होगी
पैंसठ से सत्तर के बीच
आँख
में चमक से ज्यादा है कीच
नंगे
पाँव में फटी बिवाई है
यह
किसकी बहन बेटी माई है ?
यह
किस घर पैदा
हुई
कैसे
कैसे यहाँ तक आई है ?
परसों तक बेच
रही थी
टोने-टोटके से बचानेवाला नीबू-मिर्च
उसके
पहले
कभी बेचती थी कंघी
कभी
चूरन कभी गुब्बारे।
कई दाम के
तिरंगे हैं इसके पास
कुछ
एकदम सस्ते कुछ अच्छे खास
उस पर भी तैयार है वह मोल-भाव के लिए
हर एक
से गिड़गिड़ाती
कभी
पिचका पेट दिखाती
लगा
रही है खरीदने की गुहार
कभी
दे रही है बुढ़ापे पर तरस की
सीख
ऐसे
जैसे झंडे के बदले
मांग
रही है भीख।
मैं
उस बुढ़िया को छोड़ आगे निकल आया हूँ
यहाँ आसमान
साफ है...लेकिन
पीछे
घिरे हैं घन घोर
बरस सकता है
पानी
जोर..
भीड़
में अलग से सुनाई दे रही है
अब भी
बुढ़िया की गुहार थकी
पुरानी।
सड़क के
कीचड़ पांक में सनी बुढ़िया
कलेजे
से लगा कर
बचा
रही रही होगी
झंडे की चमक
को
और
पुकार रही होगी लगातार
हर एक
को-
‘ले
लो तिरंगा प्यारा ले लो’
11
टैगोर और
अंधी औरतें
(कलकत्ता में मिले बंगाली विद्वान परिमलेंदु ने यह वृत्तांत
सुनाया)
बरस रहा था देर से पानी
भीगने
से बचने के लिए मैं
रुका
था दक्षिण कलकत्ता
में
एक
पेड़ के नीचे,
वहीं
आए पानी से बचते-बचाते
परिमलेंदु
बाबू।
परिमलेंदु बाबू
टैगोर
के भक्त थे
बात-चीत के बीच
उन्हों नें बताया
टैगोर के बारे में एक किस्सा
आप भी
सुने उसका एक हिस्सा ।
कभी बीरभूम में चार औरतें रहतीं थीं
उन्हें देख कर लगता था कि वे या
तो
किसी
मेले में जा रहीं हैं
या
लौट रहीं हैं किसी जंगल से।
वे चारों हरदम साथ रहतीं थीं
उनकी
आँखें नहीं थीं
वे
बनीं थीं मिट्टी में
कपास और भूँसी मिला कर
उनसे
आती थी जले घर या भुने अन्न की महक।
चारों दिखतीं थी एक सी
एक सी
नाक
एक से
हाथ-पांव-कान
एक सी
थी बोली
उनकी।
कौन था उनका जनक
कौन
भर्ता,
कौन पुत्र
कौन जननी कौन पुत्री
नहीं
जानतीं
थीं वे
उन्हें तो यह भी नहीं पता था ठीक-ठीक
कि
किसने छीन
लीं
उनकी
आँखें।
पर उन्हें यह पता था कि
उनके
पीछे-पीछे चलते हैं ठाकुर
वही
ठाकुर जिन्हें
वे सब
गुरुदेव कह कर बुलाती है
वही
द्वारका ठाकुर का आखिरी बेटा
वही
जिसे
हाथी पाव है
तो वे
चारों औरतें
टैगोर
के लिए थोड़ा धीमें चलतीं थीं
वे।
उन औरतों की आवाज के सहारे
टैगोर
खोजते-पाते थे रास्ता
टैगोर
भी हो चले थे
अंधे
लोग
हैरान थे
टैगोर
के अचानक अंधेपन पर।
लोग टैगोर को उन औरतों से अलग
ले
जाना चाहते थे
गाड़ी
में बैठा कर
पर
टैगोर
उन
औरतों की आवाज के अलावा
सुन
नहीं रहे थे और कोई आवाज।
जब कभी टैगोर छूट जाते थे बहुत पीछे
किसी
बहाने रुक कर वे चारों
उनके
आने
का इंतजार
करतीं थीं।
जोड़ा शांको और बीरभूम के लोग बताते हैं
कि
जीवन भर टैगोर चलते रहे
उन
चारों
औरतों की आवाज के सहारे
जब
बिछुड़ जाते थे उन औरतों से तो
आव-बाव बकने
लगते थे
बिना
उन औरतों के उन्हे
कल
नहीं पड़ता था
अब यह
सब कितना सच
है
कितना
गढ़ंत यह कौन विचारे।
यह जरूर था कि
अक्सर
पाए जाते थे
टैगोर
उन अंधी औरतों के पीछे-पीछे
चलते
उनके
गुन गाते
बतियाते उनके बारे में।
बूढ़े परिमलेंदु की माने तो
वे
औरते जीवन भर नहीं गईं कहीं ठाकुर
को
छोड़
कर
ठाकुर
ही उन औरतों का जीवन थे
और वे
औरतें ही ठाकुर के चिथड़े मन
की
सीवन
थीं।
जब नहीं रहे टैगोर
तो
महीनों वे चारों ठाकुर की खोज में
घूमती
रहीं बीरभूम
के खेतों में
रुक-रुक कर चलतीं थी रास्तों में कि
आ
सकता है
अंधा गुरु
पर
न आए
ठाकुर
और वे
अंधी औरतें पहुँच गईं
पता
नहीं कब
सोना
गाछी की गलियों
में,
उन्हें तो यह भी पता नहीं चल पाया
कि
उनका ठाकुर कब कहाँ
खो
गया
कहाँ
सो
गया उनका सहचर
कल
सुबह आता हूँ कह कर
नहीं
आया वह
जिसके
होने से वे
सनाथ थीं।
पानी बरसना बंद हुआ जान कर परिमलेंदु बाबू
बात
अधूरी छोड़ गए
मैंने
शलभ
श्रीराम सिंह
से पूछा तो वे
रोने
लगे
कहा
सारी बात सच है
पर
हुआ था यह
सब
राम
कृष्ण परम हंस के साथ,
वे
चारों अंधी नहीं थीं
वहाँ
के किसी
जमींदार ने
फोड़ दीं थीं
उनकी
आँखें काट लिए थे हाथ
खेतों
की रखवाली ठीक से
ना करने पर।
अंधी
होने के बाद वे
हरदम
रहीं बेलूर मठ में
परम
हंस के
साथ।
उसके
बाद परम हंस ही थे
उनकी
आँखें और हाथ।
(शीर्ष पर वापस)