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वह जगह


जा रही है लहर
पीछे छूटता जाता है पानी
लहर में पानी नहीं
कुछ और है जो जा रहा है

शब्द में टिकती नहीं कविता
न कविता में समाता अर्थ
थमता नहीं है संगीत ध्वनि में
रंग रेखा रूप में रुकता नहीं है चित्र

जिया जितना
सिर्फ उतना ही नहीं जीवन,
आ रहा संज्ञान में जो
सिर्फ उतना ही नहीं सब कुछ

यहीं बिल्कुल आस-पास है कहीं वह जगह --
जहाँ अपनी सहज लय में गूँजता संगीत
होते हैं तरंगित अर्थ कविता के,
जहाँ साकार होते हैं सभी आकार अपने आप
जहाँ इतनी सघन है अनुभूति
जैसे गर्भ माता का
अँधेरी रात का तारों भरा आकाश
या फिर अधगिरी दीवार पर
फूले अकेले फूल की पीली उदासी ....
सघनता भी जहाँ जा कर विरल हो जाती !

किसी को दिख जाय शायद "वह जगह"
वह जगह है आदमी के बहुत पास
कभी शायद कह सके कोई --
"यह रही वह जगह
ठीक बिल्कुल यहाँ, उँगली रख रहा हूँ मैं जहाँ" !  

 

काठ और काठी


पक रही है पानी में
शहतीर
आग पर रोटी
रोग में तन
और आत्मा विछोह में ...

कीचड़ और पानी में
पक रहा है काठ
सिंहल समुद्र के जल
और वैसवाड़े के पसीने
से बना
शीशम का यह तना
गोह साँप गिरगिट
की रेंगन से रोमांचित...
तितलियों-सी
पत्तियों से भरा यह शीशम
घर था अनश्वरता का
कोटरों में घोसले
आँधियों को परास्त करते हुए ...

उन्हीं कोटरों में रहते हैं अब
कछुए मुस्कान जैसे मुँह वाले
वहीं से बुलाती है सबको
अनश्वरता

कीचड़-पानी में
पक रहा है शहतीर
काठ लोहा हो रहा है
और काठी भी ......


 

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