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दिनेश कुमार शुक्ल/ आखर अरथ

 

काया की माया रतनजोति


तरह-तरह की दूरियाँ
और विस्तार
पार कर लौटा अपने द्वार
सँभाले भुवनभार,
चौखट पर झूले-
झुके आ रहे हैं किवाँर
मेरे ऊपर

लाँघी देहरी-आँगन-दलान
चूल्हा-चौका सारा मकान
जिसमें अब रहता आसमान
धुँधला धुँधला

जल्दी में छूट गई थी खूँटी पर कमीज़
सो झूल रही है भारी-भारी
धूल भरी
यह मेरी ही काया किशोर -
वय की छूटी
जो यहीं रही
मिट्टी-पानी में सराबोर
सो अविगत-गति में
सुधियाती-सी
ताक रही है इसी ओर
बाहें निढाल
तन का ताना-बाना मलीन
यह शरदकाल
की कमलनाल


इस बीच न जाने और कौन
आ बैठा टूटी कुर्सी पर
इस ओर पीठ
तो तुम हो ये
मेरी ही एक और काया
वैसी ही गब्बर और ढीठ !

पूरब की तरफ घड़ौंची से
वह कोई एक और निकला
वह कोई बर्तन माँज रहा है
नाली पर
फिर कोई और
रसोई में... वह रतनजोति !
इतने शरीर यह सब मेरे
इनसे ही भरता चला जा रहा
देशकाल...

मैं बहुत दिनों के बाद
दूरियों की दुनिया से लौटा हूँ
सो आ पाया हूँ काया में
तुम समझ रहे थे
क्या यूँ ही
काया की माया के पीछे
मन पागल डोला करता है !  
 

अवगाहन


उड़ रही हवा की मलमल
की चादर ओढ़े-ओढ़े
कोई सुंदरता छुपती
बचती-सी भाग रही थी

जाने अनजाने रंगों
की किरने छिटक रही थीं
या छूट रहे थे रंगों
के तीर उसी के ऊपर

उसकी आकृति भी ऐसे
आकार बदल लेती थी
जैसे पानी बादल बन
कर ऊपर चढ़ जाता है
फिर बरस बरस कर जाने
क्या-क्या कुछ भर देता है

वह सुंदरता भी ऐसे
ही बरस-बरस जाती थी
लेकिन अपने ही भीतर
इस तरह दिनों दिन उसके
अंतर का गहरा सागर
भर-भर कर उफन-उफन कर
गहराता ही जाता था

उसका अवगाहन प्रतिपल
होता जाता था दुष्कर
पहले जितना भी पाने
के लिए डूबना होता
था पहले की तुलना में
दस गुना अधिक गहरे में ....

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