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दिनेश कुमार शुक्ल/ ललमुनिया की दुनिया

 

मन-मुकुर
 

बहुत दिनों के बाद, एक दिन चलते-चलते
पड़ी उचटती नज़र अचानक मन के जल पर
उस दर्पण में दिखे पिता --
मुस्कुरा रहे थे,
बहुत दिनों के बाद इस तरफ़ आ पाया था
बहुत दिनों के बाद पिता मुस्कुरा रहे थे
वहाँ अतल में !
बहुत दिनों के बाद मन-मुकुर इतना निर्मल
काँप रहा था झलमल-झलमल !

 

क्रियापद
 

देखना भी एक तरह का
हस्तक्षेप है
जब धूप में हम निकल आते हैं
तो कुछ न कुछ
बदलाव आ जाता है सूर्य में
हमारे चिल्लाने से
हिमालय की बर्फ के कुछ अणु ही सही
पिघलते हैं
जब हम पार करते हैं छोटी-सी नदी
तो कुछ न कुछ
जरूर पहुँचता है समुद्र तक

हो सकता है
कभी एक छोटा-सा विचार उठे
और
निर्मूल कर दे दुनिया का सारा दुख

कभी-कभी धरती भी रुककर
कान दे कर सुनती है कुछ लोगों की पदचाप
और
फर्क आ जाता है रात और दिन की
छोटाई-बड़ाई में ।
 

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