47. शारदीया
ज़रा हीके
और फीके
रंग वाले
क्वाँर के ये फूल
तिल
तरोई
उरद
परबा-घास के
शरद की गंभीर
गंगा से अधिक गंभीर
फीके रंग
वाले फूल
फूले काँस कुस.......
दीप्ति से खंजन-नयन की
हो रहा है भासमान
आस्मान
हो रहा है शरद की गंगा...
(शीर्ष
पर वापस)
48. रिक्ति
रिक्त है यह रात
इसमें कुछ नहीं
यदि तुम नहीं...
नींद का सुख, स्वप्न के भय
अनिद्रा का छटपटाना
दूर
एकाकी, भटकती हुई-सी
आवाज़ का जाना
और तारों का
तड़ातड़ टूट जाना
कुछ नहीं
यदि तुम नहीं तो...
(शीर्ष
पर वापस)
49. हवा
उचक उचक कर चली जा रही
हवा खिलन्दड़ बच्चे-सी
कहीं किसी का पल्लू खींचा
कहीं उछाली टोपी
सूखे बंसीवट को छेड़ा
खुद बन बैठी गोपी
रास रचाया यहाँ
सुनाई वहाँ बाँसुरी की धुन
लालपरी नाची पूरब
तो पच्छिम बाजी रूनझुन
देखो, सबकी हवा उड़ा दी
झूठे की भी सच्चे की!
ख़ालिस हवा अगर तुमको मिल जाय कहीं तो बतलाना
निर्विकार उसकी सुगंध में अगर बने तो रम जाना
महारास के सघन कुंज में मंद पवन बनकर जाना
कहीं धुंध या धुआँ न बनना, खुशबू बनकर छा जाना
(शीर्ष
पर वापस)
50. घनी छाया
इतना विराट् था
उसका दुख
उसी की घनी छाया में
जेठ की दुपहर को
मिला ठौर
और जो उसके परे था
जल रहा था लू लपट में
(शीर्ष
पर वापस)
51. कलम की भाषा
अपनी ताकत का अहसास
कलम कई तरह से कराती है
लिखते लिखते जब
कल्पना और विचार के भी पार चली जाती है
अलग-अलग रंग होते हें
लिखने और बोलने के
यद्यपि दोनों क्रियाएँ
घटित होती हैं भाषा के ही लोक में
किन्तु ठहरो!
हो सकता है
भाषा एक ही माध्यम न हो कर
कई-कई माध्यमों का सन्निपात होती हो
(शीर्ष
पर वापस)
52. जब कभी
पटपटा कर कभी-कभी
अचानक ही आ जाती है बारिश
इसी तरह अचानक
कभी-कभी बरसती है खुशी
अच्छी चीज़ों का अचानक ही आ जाना
उतना अक्सर क्यों नहीं होता...
(शीर्ष
पर वापस)
53. हमारे ही बीच
कटे हुए तरबूज की तरह
अपनी नग्नता में आहत
मुस्कुराती
फैशन रैम्प पर जो गई
वह हममें से ही किसी
आत्मा की आत्मजा है
उसकी मुस्कान के घाव को जानो
भयाक्रांत वाराह सा
पृथ्वी को रौंदता
दिहाड़ी पर क्वालिस दौड़ता
उन्मादी ड्राइवर जो गया
उस हिंसा में छुपे आत्महंता को पहचानो
हममें से किसी का छोटा भाई है वह
और वह भी
जो विश्व बाज़ार में
बेचे दे रहा है हमारा सब कुछ
यारो उस चालाक को पहचानो
हमारे ही बीच कहीं वह भी छुपा बैठा है
मुड़ी नीचे किये
प्रजातंत्र की ओट में
(शीर्ष
पर वापस)
54. अर्थान्तरण
कैल्शियम दूध में भी है और चट्टान में भी
हत्यारे की चाकू में भी है लोहा और मक़्तूल के खून में भी
किसी अर्थ का
कब हो जायगा अनर्थ
या लोप या विस्तार
निर्भर करेगा कि वह कहाँ
और किसके साथ है
विडम्बना कि
शब्दों के अर्थ
इन दिनों हत्यारे ही तय करते हैं
(शीर्ष
पर वापस)
55. मेढक
इस किताब से उस किताब तक?
इस विचार से उस विचार तक
कूद रहा है मेढक जैसा
भेद न दुख का जो बतलावे
सो काहे का ज्ञान कहावे?
(शीर्ष
पर वापस)
56. आदिम पदार्थ
गहरी गगन-गुफा के भीतर
आदिम और अनादि अग्नि में
जलता गलता और उबलता
रहता है आदिम पदार्थ ही
हम भी उसी पदार्थ के बने
हम भी उतने ही अनादि हैं
जितना कालातीत सृष्टि का
सबसे प्रथम खगोल-पिण्ड है
हम भी गलते ढलते रहते
त्रयतापों में और ढालते रहते
अपने संवेदन की द्रवित धातु से
अगणित प्रति-संसार!
वही तत्व उस सूरज में, उस निहारिका में
वही तत्त्व इस मसि-कागद में
वही तत्त्व इसको पढ़ने वाली आँखों की पुतली में है
पढ़ने वाली आँखें लेकिन
पढ़ कर ऐसा कुछ रचती हैं
जो अब तक इस सकल सृष्टि में
कहीं नहीं था!
(शीर्ष
पर वापस)
57. पृथ्वी की आयु
मेड़ पर बैठी हुई कुछ ताकती है चील
ज़रा झलकी, झलक दे कर छुप गई
फिर नील गाय बाजरे के खेत में
झुर्रियों से बिंधे झुलसे हाथ
छीलते हैं घास छुप कर
गाय गाभिन है उसी के लिए इतने झुटपुटे में
चौधरी के खेत में चोरी छिपे
छीलती है घास तीन भूखी बेटियों की माँ
आ रही है समय की पदचाप
चोंच में अपनी दबा कर काल सर्प, उड़ गई है चील
उधर धीरे से बदल कर भेस
चंद्रमा में उतर कर पगुरा रही है नील गाय
मारती है डंक बिच्छू घास
झुर्रियों में ही भटक कर खो गया है दंश
आ रही है घास का गठ्ठर उठाये माँ...
शाम के ताज़े अँधेरे में लग रही है साठ की
कठिन पैंतीस साल का आयुष्य ढोती हुई धरती माँ
लग रही है बहुत बूढ़ी
किन्तु कालातीत...
(शीर्ष
पर वापस)
58. वृत्तान्त
अपनी ही प्रतिध्वनि में डूबा
भारी बोझा लादे अपने प्रतिबिम्बों का
दौड़ रहा है, हाँफ रहा है
स्वयं वृत्त का केन्द्र, वृत्त की गोल परिधि पर
शून्य, शब्द, परमाणु, सौरमण्डल, आत्मा के परिभ्रमण में
फैल रहा है वृत्त-वृत्त वृत्तान्त
गूँजता आदिम ध्वनि-सा.....
अर्धचेतना के समुद्र में डूबा-डूबा
घड़ी-घड़ी बज उठता है दो मन का घण्टा
अष्टधातु का
वृत्ताकार फैलती लहरों के पहाड़ पर
डूब रहा है सूर्य
वृत्त का केन्द्र …
(शीर्ष
पर वापस)
59. दिल्ली में वसंत
रंग-बिरंगे फूल
भावना की सुवास है
हफ्ते भर का है वसंत
फ़रवरी मास है
इतने बरसों बाद
तुम्हारा दो दिन का दिल्ली प्रवास है
सच बतलाना
एक दूसरे के वियोग में
हममें तुममें
क्या कोई सचमुच उदास है
(शीर्ष
पर वापस)
60. शब्द-पाश
जिसे व्यक्त करके मुक्त करना होता है
उसी को बाँध देते हैं शब्द
दाँव-पेंच में जैसे
बाँधे रखता है मुवक्किल को वकील
कहने-सुनने की कचेहरी के
इन काले-कोटधारी शब्दों के
कहने पर मत जाइए
बने तो शब्दों के बिना भी कभी-कभी
सब कुछ कह जाइए
(शीर्ष
पर वापस)
61. रंग
रंगों के ऊपर चढ़े रंग
रंगों के भीतर भरे रंग
भर आँख अगर देखोगे
तो यह धुँधले पड़ते जायेंगे
जब तुम्हें देखते देखेंगे
तो रंग भी रंग बदल लेंगे
कुछ गहरे पड़ते जायेंगे
कुछ हल्के होते जायेंगे
कुछ फूलों में खिल जायेंगे
कुछ सपनों में मुस्काएँगे
कुछ सारी रात जगायेंगे
कुछ तिनके बन कर आयेंगे
और आँखों में पड़ जायेंगे
अच्छा हो रंगों को तुम उनकी ही रंगत में रहने दो
रंगों पर अपना रंग चढ़ाना सबके बस की बात नहीं
(शीर्ष
पर वापस)
62. बरबस
जब बरबस ही रसधार बहे
जब निराधार ही चढे़ बेल
बिन बादर की जब झड़ी लगे
बिन जल के हंसा करे केलि
तब जानों वह पल आन पड़ा
जिस पल अपलक रह जाना है
अब मिलना और बिछुड़ना क्या
भर अंक में अंक समाना है
और आँख खुली रह जाना है
(शीर्ष
पर वापस)
63. प्रकाश का पहाड़
दुःख में सीझी
पलकों पर
एक कण भी प्रकाश का
गिरता है
टूट कर
पहाड़-सा
(शीर्ष
पर वापस)
64. याद
जगी तुम्हारी याद
रात को चीर-चीर कर
क्षत-विक्षत थे स्वप्न
उड़ रहे फटे पत्र से
फटता था आकाश
हृदय-सा
साँय-साँय चलता था पंखा
कमरा बन्द-उड़ रहा था
पंखे से बचता टकराता
कपोत बनकर मन
(शीर्ष
पर वापस)
65. बीच-बीच में
कुछ है जो बीच-बीच में
ऊपर आ जाता है उतराता
सब कुछ को परे धकेलता
‘यह’ कुछ भी हो सकता है
जैसे अभी जो बात कही आपने
वही बीच में आकार
कुछ-न-कुछ धुँधला कर जायगी
आपके कथ्य को
साफ-साफ काँच-सा
पारदर्शी नहीं होता यथार्थ
काँच भी कहाँ पूरी तरह पारदर्शी होता है
वह भी रोक लेता है बीच में
कुछ-न-कुछ
बीच-बीच में चलते-चलते रूक जाती है कथा
सूत जी फिर से संवाद बोलते हैं
बीच-बीच में फिर सिरे से शुरू करना होता है सब-कुछ
बीच-बीच में चले जाते हैं कुछ लोग उठकर
खलल पड़ता है पर चलता रहता है जीवन
बीच-बीच में बन्द हो जाती है हृदय की धड़कन
लेकिन फिर से सहृदय हो जाते हैं लोग
बीच-बीच में रूक जाना
चलते रहने की ही अभिन्न क्रिया है
(शीर्ष
पर वापस)
66. इन दिनों
इधर क्या हुआ है कि
अक्सर विडंबनाएँ ही यथार्थ का निर्माण करने लगी हैं
छूते ही रस्सी बन जाती है, सचमुच का साँप
मृग-मरीचिका की बाढ़ में
सिर्फ़ उम्मीदें ही नहीं
समूची सभ्यताएँ डूबी चली जाती हैं
विजित-मर्दित-पर्यटित-पददलित
और यह भी खूब कि
सत्य के ही समुद्र में डूबती है यथार्थ की नाव
अपने को फुलाते-फुलाते
गुब्बारे सा एक दिन धड़ाम से फूटता है साम्राज्य
और विडंबना
कि ठीक उसी वक़्त
साम्राज्य की आँखें देखना चाहती हैं
इतिहास का अंत
इधर तो विडंबनाएँ अक्सर ही...
(शीर्ष
पर वापस)
67. कथा-कहानी
जब भी आता ध्यान तुम्हारा
एक रौशनी-सी कागज़ में भर जाती है
ध्वस्त समय के मलबे में घुस, हवा बचा लाती है कितनी ही
आवाज़ें
लहरें सागर की तलछट को छान-छान कर
ले आती हैं जिज्ञासा के डूबे मोती
पा कर समय, घाव आत्मा के धीरे-धीरे भर जाते हैं
लेकिन फिर भी कहीं नहीं है चैन
तुम्हारी आहट अक्सर
आते आते पास लौट जाती है वापस
कटी पतंग है कि सूरज है
कालवृक्ष की घनी डालियों में उलझा-सा
ताक रहे हैं राह तुम्हारी सारे बच्चे
कथा सुनेंगे तुमसे फिर से परियों वाली
फिर वह भी खुद घिर जायेंगे अग्निकाण्ड में परी की तरह
तोता-मैना, राजा-रानी, कथा-कहानी
लपटों से लड़ते-भिड़ते सब कूद जायेंगे
उसी तिलिस्मी पानी में जो भरा हुआ है
बड़री-बड़री अँखियों की निर्मल झीलों में
(शीर्ष
पर वापस)
68. आदिम स्वभाव
देख कर चौंका
चौंक कर जड़ हो गया खरगोश
खून जैसी आग के अंगार दो
दूर से ही घूर कर
तौलते खरगोश को
साँस साधे
हवा चुप है
देखती है निर्विकार
आग की लम्बी उठाल.....
इस समूचे देखने को देख कर
एक पक्षी चीख कर
कर रहा है हस्तक्षेप
वह बदलना चाहता है
बहुत-से आदिम-स्वभाव।
(शीर्ष
पर वापस)
69. रेल का पहिया
अपनी धुरी से टूट कर अब दूर
जा गिरा है रेल का पहिया,
चमकता है आज भी लोहे का टायर
धूप में
हज़ारों यात्राओं का पिया है तेज इस इस्पात ने
यात्राओं की हज़ारों भूमियों के तेज का इस्पात
कितनी बार माँजी गई है यह चमक,
रस भरे गति का
सजल इस्पात-नीले गगन का टुकड़ा
आवृत्ति-दर-आवृत्ति
ढोता वेदना का और सुख का भार
घिर गये अभिमन्यु का यह अस्त्र अन्तिम
धुरी से टूटा हुआ रेल का पहिया
जा गिरा उस खेत
जिसमें धान का मद्धम हरा संगीत बजता है
(शीर्ष
पर वापस)
70. झड़ी बाँधकर
निराकार को
जो साकार कर सके
ऐसी दृष्टि चाहिए
सबको दुःख दे कर ही
जिनको सुख मिलता है
तोड़ सके उनका तिलिस्म जो
तोड़ सके उनकी लाठी
तोड़ सके उनकी कद-काठी
ऐसा नया विचार चाहिए
हमें नया संसार चाहिए
छूछे शब्दों में
जो फिर से अर्थ भर सके
झड़ी बाँध कर होने वाली
जीवन-जल की
वृष्टि चाहिए...
(शीर्ष
पर वापस)
71. इतना धीरे
हमने कहा कि
धीरे-धीरे कड़े कोस ये कट जायेंगे
हमने कहा कि
धीरे-धीरे भर जायेंगे घाव हमारे
हमें पता था
आँसू भी अब सूख चुके हैं,
किसी तरह की
कहीं तरलता एक बूँद भी नहीं बची है,
फिर भी हमने यही बताया
बूँद-बूँद से घट भरता है
लेकिन इस शंकाकुल मन को
क्या समझाता
पूछ रहा जो कोंच-कोंच कर
कठफोड़वा-सा चोंच मारता
धीर-समीरे जमुना-तीरे
अपनी जगह ठीक है... लेकिन...
इतना धीरे !
(शीर्ष
पर वापस)
72. कहीं वह तुम तो नहीं हो?
इस निशा वैश्वानरी के
तप्त झोंकों में विहँसती
उड़ रही चिंगारियों के साथ
कोई और भी है
उड़ रहा
जलता हुआ घनघोर तम में
कहीं वह तुम तो नहीं हो?
वो अमावस के निकष पर झलमलाता एक तारा
जो यहाँ से दिख रहा है
आँख के प्रतिबिम्ब जैसा
किसी निर्मल क्षीरसागर में अकेला
कहीं वह तुम तो नहीं हो?
अगर तुम हो वहाँ उतनी दूर...
तो फिर यहाँ पर यह कौन है
भरा मेरे हृदय, मेरे वक्ष पर पसरा...?
(शीर्ष
पर वापस)
73. कुएँ की पेंदी सी
कुएँ की पेंदी में पड़े-पड़े
दिखता है जितना भी थोड़ा आकाश
उतने में ही
आ बसती है संसार भर की आशा
उतने ही आकाश में वहीं आकर चमकता है धु्रवतारा
सारी दुनिया की पतंगें
उड़ते-उड़ते वहीं आ जाती हैं
किन्तु काई-फिसलन भरी
हरी-हरी दीवारें कुएँ की
घेर-घेर गिनती हैं
जीवन की एक-एक धड़कन
जैसे गिनता है सूम
दान के दाने,
जैसे गिनता है जल्लाद
फंदा खींचने के पहले
घड़ी की एक-एक टिक-टिक...
(शीर्ष
पर वापस)
74. टूटे-फूटे विराट् पुरूष
उन्होंने एक सौरमण्डल का निर्माण किया
और फेंक दिया खगोल की दूरस्थ खत्ती में
बचा हुआ लोहा-लँगड़, कंकर-पत्थर
अब हर रोज
उसी खत्ती से
निकलते चले आते हैं
उन्हीं अनिर्मितियों से बने नये-नये धूमकेतु
धमकाते सारी कायनात को
हमारी आत्मा की भी एक खत्ती है?
जहाँ पड़े हैं कितने ही अर्धनिर्मित स्वप्न,
अर्धजीवित आदर्श, अर्धसत्य,
हमारे ही अपने विखंडित रूप कई
और कई टूटे-फूटे छोटे-मोटे हमारे ही विराट् स्वरूप...
(शीर्ष
पर वापस)
75. प्रपात
यह जो आ रहा है
टूटकर गिरता हुआ
फेनिल प्रपात
अंधकार की चट्टानों तले
ज़रूर कहीं पिस रहा होगा प्रकाश
उधर ही गया था सूर्य
चंद्रमा भी उधर ही
उधर ही गए थे तारे
आकाश गंगा में बहते हुए बुलबुले
उधर ही गए थे प्रेत, पितर, गंधर्व
उधर ही गई थीं प्रतिध्वनियाँ
उधर ही गये थे आर्तनाद
दैत्याकार चट्टानों के पाट में
सोचो तो कैसे पिस रहा होगा समय
झरने के पानी में
रक्त की लालिमा गहराने लगी है
हो सकता है प्रपात के हाहाकार से ही निकल कर
आने वाला हो नया प्रभात !
(शीर्ष
पर वापस)
76. बाढ़
देखी हमने घरगिरी और देखा अमने बीहड़ कटाव
गंगा के ‘शांत-क्लांत’ जल का देखा हमने औघड़ बहाव
हमने देखी पलटती सूँस
हमने देखी डूबती नाव
हम सब कगार से कूद पड़े पर छुपी भँवर दे गई दाँव
यह तो कुछ चीलों ने हमको बस किसी तरह से बचा लिया
थी चटक धूप गँदला पानी चीलों ने ‘गगनमंडला’ से
हमको मंडल में देख लिया
हम भी उनकी ही तरह खा रहे थे चक्कर
चीलों की आँखों में हम भी अब चीलें थे
उनके ही गोत्रज हम अंडज
उनकी ही कोई जल-प्रजाति
हम नहीं जानते कैसे वे फिर हमको तट तक ले आईं
चीलों ने एक अदृश्य डोर के बल पर हमें बचाया था...
है एक डोर जो कृमि से, कीट-पतंगों से, चीलों से, कुत्तों गायों
होकर के हम तक आती है
हाँ वही डोर मानव की मज्जा में धँसकर मेधा में प्रेम जगाती है
हाँ जीवद्रव्य की झालर जैसी वही डोर !
वह प्रेम डोर कवियों वाली !
(शीर्ष
पर वापस)
77. डूबती नाव
अर्थों की अपारता में
डूब रही ऊभ-चूभ
शब्दों की नाव पर सवार
सारी दूनिया
(शीर्ष
पर वापस)
78. ललमुनियाँ की दुनिया
उलझी-पुलझी झाड़ी लाखों साल पुरानी
उस पर बैठी ललमुनियाँ थी बड़ी सयानी
इस टहनी से उस टहनी पर फुदक रही थी
टहनी में काँटे काँटों में टीस भरी थी
लगती थी सूखी झाड़ी पर हरी-भरी थी
फूल खिले थे फूलों में मुरझाया था मन
तौला मैंने फिर फिर तौला अपने मन को
लिखा-मिटाया लिखा-मिटाया फिर जीवन को
खुद को ठोक बजाया पत्थर पे दे मारा
हारी बाजी जीता, जीती बाजी हारा
साधा फिर-फिर माया ठगिनी के ठनगन को
अनदेखे ही आँखें दे दीं इनको उनको
फिर भी खालिस बचा ले गया मैं बचपन को
झाड़ी में ललमुनियाँ
ललमुनियाँ में दुनिया
दुनिया में जीवन
जीवन में हँसता बचपन
बचपन की आँखों के हँसते नील गगन में
देखा चली जा रही थी उड़ती ललमुनियाँ
टूटी फूटी भाषा अगड़म-बगड़म बानी
ये दुनिया ललमुनियाँ की ही कारस्तानी
कौआ-कोयल तोता-मैना की शैतानी
झूठमूठ की भरो हुँकारी झूठमूठ की कथा-कहानी
(शीर्ष
पर वापस)
79. समुद्र और चन्द्रमा
भीतर-भीतर गूँज रही है जल-जीवन की गूँज
समुद्र शान्त दिखता है
बिसूरता है भूला सा इक गीत
जिसे वह तब गाता था
जब आता था ज्वार
और जब उदय हुआ करता था
अद्भुत परीकथा का पानी-पानी चाँद अमावस भरे गगन में
आस-पास दुनिया जहान में
बिना चाँद के भी चाँदनी रहा करती थी
(शीर्ष
पर वापस)
80. पाटल-दल पर समुद्र
कुशा की पत्तियों की धार-सी
कोई चीज़ आई और छू कर चली गई
अस्त होते नक्षत्रों के डूबने की आवाज़ थी
कि तुम्हारी स्मिति का उत्कंठित मौन
कि चन्द्रकान्तमणि के द्रव से भरे जलतरंग
अधरों पर कम्पित बूँदें
पाटल दल पर काँप रहे थे समुद्र...
जब तुमने देर तक कुछ नहीं कहा
तो फिर मैं भी क्या पूछता ?
(शीर्ष
पर वापस)
81. दो बातें
1.
आकाश में तुमने जो दिया टाँग दिया ािा
अब मंद हो चली है उसकी लौ कहाँ हो तुम?
कुछ और भरो नेह और बाती को जगाओ
आँखों से अब गगन को सँभालो जहाँ हो तुम!
2.
आकाश पे तारों से लिखी रात ने इक नज़्म
आई सुबह नसीम और उसको मिटा दिया
अपना भी इक फ़साना था शामिल किताब में
आकर नये निज़ाम ने उसको हटा दिया
छोड़ो चलो ये ग़ैब की बातें हैं इनका क्या !
जिनको जगाना था उन्हें हमने सुला दिया
हमसे जो हुआ तंज़ में दुश्मन से भी न हो
धोके से हमने ग़ैर का घूँघट उठा दिया !
(शीर्ष
पर वापस)
82. ननिहाल में सवाल
अब मैं जब भी अपनी नानी के घर जाऊँगा
पूछूँगा अपनी अम्मा का बचपन वाला नाम-
नीता गीता रीता सीता चुन्नी मुन्नी लाली
अम्मा फ्राक पहनती थीं या धोती नीली वाली
अम्मा के बचपन का बस्ता कापी और किताबें
शायद अब भी कहीं किसी टाँड़े पर रखी होंगी
नानी से पूछूँगा तब अम्मा कित्ती लम्बी थीं
घर की डेउढ़ी तब भी क्या वो नहीं लाँघ पाती थीं
क्या तब भी अम्मा की बोली डरी-डरी रहती थी
तब डोली में या मोटर में अम्मा विदा हुई थी
क्या लड़कियाँ विदा होने के बाद सदा रोती हैं
लेकिन मैं तो लड़का हूँ मैं ये सब क्यों पूछूँगा
हाँ, जिज्जी का मन हो तो वो खुद नानी से पूछें
(शीर्ष
पर वापस)
83. दो पुंज
दो प्रकाश के पुंज गगन की गहराई में
एक-दूसरे को सदियों से खोज रहे थे
चकाचौंध में एक-दूसरे को भरमा कर
रहे भटकते वे अनन्त की यात्राओं में
चलते-चलते आखिर में जब मिले अचानक
मिलना, मिलना न था, ज़ोर से टकराना था
चूर-चूर हो जाना और बिखर जाना था
(शीर्ष
पर वापस)
84. अकथ कथा
ये वो किस्सा है जिसमें घुस के रात सोती है
ये वो किस्सा है जिसमें दिन को छाँव मिलती है
ये वो किस्सा है जिसमें हमको तुमको मिलना था
ये वो किस्सा है जिसमें अब कोई किरदार नहीं
ये वो किस्सा है जिसे जानता बच्चा-बच्चा
न कोई फिर भी इसे कर सका बयाँ अब तक
कथा कहते ही कथा रूप बदल लेती है
भाव तक आते-आते भाव भटक जाते हैं
ये कथा कहना है, कहनी को रूई-सा धुनना
दो चरन चल के कथा खुद में बिलम जाती है
साथ में साँस भी संसार की थम जाती है
ये कथा सुनना है, अनहद के मौन को सुनना
ये वो किस्सा है जिसका कोई ओर-छोर नहीं
न कोई रंज-ओ-मलाल
न कोई रंग-ओ-जमाल
ये वो रचना है जिसका कोई तुक-ओ-ताल नहीं
इसी किस्से का लगा कर तकिया
विरह की रात में हम रोते हैं
इसी कथा की सजा कर सुहाग-सेज सखी
मिलन की रात में हम खाते हैं....
(शीर्ष
पर वापस)
85. सपने
न फिर माला लगे जपने
तरक मन को तनक अपने
ये सुर्री डाल पर चढ़ कर
हवा में झूमते सपने
पिनक में ऊँधते सपने
ये सपने देखते सपने
कदम की छाँव गहरी है
जहाँ दोपहर ठहरी है
ये जादू है कि जौहर है
लगी लो आँख फिर झपने
चटकता धूप का सरगम
उखड़ता साँस का दमखम
ग़ज़ब लू के थपेड़े हैं
तो आँखें क्यूँ रहें पुरनम ?
बहुत थक कर कहा सबने
तरक मन को तनक-अपने
न फिर माला लगे जपने
(शीर्ष
पर वापस)
86. साधो, खुद को साधो
साधो ! खुद को साधो
जीवन को तब खोल सकोगे
जब अपने को बाँधो
खुद को उस विचार से बाँधो सब बन्धन जो तोड़े
भूख-रोग-बेकारी से लड़ती दुनिया से जोड़े
बाँधो खुद को उस धारा से समय-धार जो मोड़े
बन प्रवाह उद्दाम बहे जड़ता के परबत तोड़े
आज बँधी है कविता इसको केवल वह खोलेगा
भूखे-प्यासे सपनों की बोली में जो बोलेगा
जा कर जो पकड़े लगाम साधे सूरज के घोड़े
लड़े न्याय के लिए बेधड़क अपना सरबस छोड़े
चले मुक्ति की राह अडिग चाहे कितने हों रोड़े
गहे सत्य का पक्ष भले अपने साथी हों थोड़े
अपना सब दे कर समाज को स्वयम् दिशायें ओढ़े
कला-शिल्प का मोह त्याग लो पियो हलाहल-प्याला
जीवन तब गह पाओगे जब भीतर जगे निराला
वह बलिदानी टेक साध कर, कवि अपने को नाधो
साधो ! खुद को साधो
(शीर्ष
पर वापस)
87. सुबह की बहर
लाली सुबह की धीरे
धीरे लहू में घुलती
दो हाथ रौशनी के
थामे हुए गगन को
चुपचाप सो रहा था
संसार का अतल जल
तालाब था कँवल का
और आग जल रही थी
चालीस साल तप कर
कुन्दन निखर उठा था
जैसे कलस का पानी
तुम पर अभी गिरा हो
आहट पे मेरी तुमने
तक-तक के बान मारे
सारस का एक जोड़ा
उतरा तभी जमीं पर
जागा पवन का झोंका
पानी की नींद टूटी
वो दिन कि आज का दिन
बैठा हूँ चुप तभी से
(शीर्ष
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88. प्रेम को पंथ
चाँद था आज तलवार की धार-सा
लपलपाती हुई चाँदनी की चमक
उस चकाचौंध में रास्ता खोजता
रात भर वह उजालों में उलझा रहा
उसकी आँखों में इतने अधिक स्वप्न थे
जैसे सपनों की कोई नदी
मन्दराचल से आई उमड़ती हुई
और आत्मा के सागर को भरती रही
बस उजाले से भरती हुई रात थी
और वह था लगातार बुझता हुआ
बिना तेल-बाती का खाली दिया
पुराने से दीवट पे रक्खा हुआ
किसी को बुलाते हुए रास्ते
रात भर घूमते लड़खड़ाते रहे
इक अजब सनसनी थी गगन में भरी
जैसे किरनों के बानों की बौछार से
तारे बचते रहे टिमटिमाते रहे
तिलमिलाते रहे
चाँद था आज तलवार की धार-सा
प्रेम के पंथ जैसी कठिन राह थी....
(शीर्ष
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89.
नित्य
अर्जन
धड़क रहीं है धीरे-धीरे
धरती के आभ्यन्तर में सब
जगहर की पहली पदचापें
स्वप्नों के झुरमुट में सोया
कलरव भी जगने वाला है
अभी ओस का अन्तिम मोती
भी टपकेगा
इसी घास पर सूरज बन कर
सरसों के समुद्र के भीतर
भरती चली जा रही है बसन्त की सरिता
रेंग-रेंग कर नमक
चने के पौदों में भर रहा लुनाई
इसी तरह माटी पानी में लोट-पोट कर
सत्य स्वयम् अर्जित करता है
अपने शाश्वत अर्थ हर सुबह
नये सिरे से......
(शीर्ष
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90. आत्मालाप
टूटे घट-सी जिन्दगी, बजती है बेताल।
कुछ भी हो बजती रही, यह भी खूब कमाल।।
यह पाती हूँ लिख रहा, तुमको बरसों बाद।
आया जबसे छोड़ कर, शहर इलाहाबाद।।
ले दोहों की दोहनी, रगड़ रगड़ कर माँज।
दुहने बैठा बुळि की, भैंस हो चली बाँझ।।
काले भूरे खुरदरे, ले अकाल के रंग।
गगन पटल पर लिख रहा, औघड़ एक अभंग।।
यादों की सीलन भरी, तंग कोठरी बन्द।
खोली पूरे गाँव में, फैल गई दुर्गन्ध।।
जीवन के किंजल्क में, इतने रंग सुगंध।
रस के औ आनन्द के, भरे अनेकों छन्द।।
एक लोहे का आदमी, एक गुलाब का फूल।
मेरे जीवन वृक्ष के, ये दोनों जड़ मूल।।
गूँज रही वाणी विकल, अर्थहीन निरूपाय।
शब्द अर्थ को ले उड़ा, कौन कहाँ अब जाय।।
इस निर्बन्ध प्रलाप में, बिन तुक ताल तरंग।
टकराते हैं दृश्य और, बजता फटा मृदंग।।
(शीर्ष
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91. सत्य
निर्मल जल की झील पर, ज्यों जलकुम्भी बेल।
त्यों यथार्थ पर पसरता, है भाषा का खेल।।
बाइस्कोपी जगत-सा, प्रतिपल बदले रंग।
आधुनिकोत्तर सत्य का, गिरगिट जैसा ढंग।।
शाश्वत जो लगता अभी, लगता अभी अनित्य।
अभी अभी पाखण्ड था, अभी परम वह सत्य।।
सत्य बालुका, सत्य जल, सत्य नदी की धार।
सत्य कभी इस पार है, सत्य कभी उस पार।।
सत्य चोर की सेंध है, सत्य साधु का टाट।
सत्य झूठ की निठुरता, सत्य सत्य की बाट।।
टपकी खबर अकास ते, बिन खटकाये द्वार।
छत से कूदे आँगना, जैसे चोर बिलार।।
जीवन को अर्था रहा गूँगा बहरा मौन।
किसने देखा राम को रमता जोगी कौन।।
मुँह में भर कर रेत-सा, वाक्यहीन वक्तव्य।
शीर्षासन करता खड़ा, मेरे युग का सत्य।।
हर दलील से बे-असर, ज्यों हाकिम का तर्क।
जब तक डण्डा हाथ में, क्या पड़ता है फर्क।।
मार झपट्टा चील-सा, लेता रोटी छीन।
शासक के इस तर्क से, जनता उत्तरहीन।।
(शीर्ष
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92. भविष्य
नये भोर की पौ फटी, जब पड़ोस के गाँव।
प्रात-पवन सरसर बहा, था अपने भी ठाँव।।
धरती अपनी धुरी पर, रूकी तभी ततकाल।
सूरज था सो बुझ गया, थमा रह गया काल।।
यहाँ न सूर्योदय हुआ, यहाँ न फैली धूप।
कालरात्रि पसरी रही, जैसे अंधा कूप।।
जैसे पातालिक महा, पढ़ कर मन्त्र दुरन्त।
रोके गति इतिहास की, कर दे उसका अन्त।।
इतिहासोत्तर क्षितिज परद्व उदित हुये शत केतु।
चरमर चरमर काँपता, स्वतन्त्रता का सेतु।।
दूर किसी हाशिये पर, जन्म ले रहा ज्वार।
जाते जाते यह सदी, जिसको गयी पुकार।।
सीरी सीरी है हवा, ठण्डी ठण्डी छाँव।
सन्निपात का ज्वर चढ़ा, झुलस रहा है गाँव।।
दीन-हीन कुछ झुग्गियाँ, जहाँ खड़ी थीं मौन।
मुक्ति जन्म लेगी वहीं, सोच सका था कौन।।
भाषा के सोपान से, शब्द लुढ़कते देख।
पढ़ा लिखा सब पोंछ कर, लिखो नया आलेख।।
अपना दीपक आप बन, पढ़ै आप को आप।
जगर मगर आपा जगै, तब अपना कद नाप।।