भूमिका
मोहन राकेश नई कहानी के दौर के प्रतिष्ठित कथाकार,
उपन्यासकार, चिन्तक और नाटककार हैं। कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव के
साथ प्रसिद्ध तिकड़ी का निर्माण करने वाले राकेश की उस पूरे दौर के
विचार और संवेदना परिदृश्य के निर्माण में अहम भूमिका थी। राकेश
बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी, ध्वनि
नाटक, बीज नाटक और रंगमंच— इन सभी क्षेत्रों में मोहन राकेश का नाम
सर्वोपरि है।
भारतीय ज्ञानपीठ से मोहन राकेश का बहुत पुराना सम्बन्ध रहा है। उनकी
कहानियों की शुरुआती किताब ‘नए बादल’ का प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ ही
था। तो जब ज्ञानपीठ ने अपनी संचयिता शृंखला के अन्तर्गत राकेश की
प्रतिनिधि रचनाओं का संचयन करने का निर्णय लिया, व्यक्तिगत रूप से
मुझे बहुत ख़ुशी हुई।
‘बकलम ख़ुद’ में मोहन राकेश लिखते हैं, ‘‘लेखक का वास्तविक कमिटमेंट
किसी विचारधारा से न होकर, अपने समय से और समय के जीवन से होता है।
यदि वह सचमुच अन्दर से कमिटेड है, तो वह अन्धे की तरह लकड़ी लेकर
अँधेरे में अपने अकेले के लिए रास्ता नहीं टटोलता, बल्कि अँधेरे और
आतंक को पैदा करने वाली शक्तियों के साथ अपने समूचे अस्तित्व से लड़
जाना चाहता है।’’ यही जीवन-विवेक मोहन राकेश की रचनाशीलता का
प्राण-तत्त्व है। कहानीकार, नाटककार और उपन्यासकार— तीनों रूपों में
वे सृजन के नए प्रस्थान निर्मित करते हैं। राकेश ने निजता और
सामाजिकता में निहित उन तमाम प्रश्नों को अपने लेखन में स्थान दिया
जो जीवन मूल्यों के सघन द्वन्द्व से उपजे थे। अतिरिक्त आग्रह से भरी
परंपरावादिता और अतिवादी अस्वीकार से युक्त आधुनिकता के बीच राकेश
एक मानवीय ऊष्मा को पहचानने के लिए बेचैन दिखते हैं। वे कहा करते थे
कि मैं एक असम्भव लेकिन बहुत ईमानदार आदमी हूँ। राकेश के व्यक्तित्व
की अमिट छाप उनकी रचनाओं को अर्थ के नए आयाम प्रदान करती है। ये
आयाम मोहन राकेश की रचनाओं में भाँति-भाँति से प्रकट होकर जीवन
मूल्यों का नया भाष्य रचते हैं। यही कारण है कि राकेश ‘नई कहानी’ और
उसके उत्तरवर्ती कथा-समय के एक महत्त्वपूर्ण रचनाकार के रूप में
प्रतिष्ठित है।
मोहन राकेश ‘नई कहानी’ कथा-आन्दोलन के अग्रदूत कहानीकार माने जाते
हैं। ‘नई कहानी’ का समय 1950-1965 के बीच
स्वीकार किया जाता है। 1950 से हिंदी कहानी
अन्तर्वस्तु और अभिव्यक्ति के नए स्रोतों से जुडऩे लगी। फिर
भैरवप्रसाद गुप्त के सम्पादन में निकले ‘कहानी’ पत्रिका के ऐतिहासिक
विशेषांक से यह विधा 1956 में पूरी तरह
स्थापित हुई। नई कहानी के आलोचक माने जाने वाले डॉ. नामवर सिंह भी
मानते हैं, ‘‘निस्सन्देह इस विशेषांक की नई कहानियाँ परंपरागत
कहानी के दायरे से सर्वथा मुक्त नहीं हैं, किन्तु इससे एक नए
समारम्भ का आत्मसजग आभास अवश्य मिलता है।’’ इस नए समारम्भ का
‘आत्मसजग आभास’ जिन कहानीकारों में सबसे पहले दिखाई पड़ा, उनमें मोहन
राकेश भी थे। ‘नन्ही’ राकेश की पहली कहानी मानी जाती है जो 7
मई 1944 में लिखी गयी। ‘भिक्षु’ उनकी प्रथम
प्रकाशित कहानी है। यह ‘सरस्वती’ में छपी थी। राकेश का पहला कहानी
संग्रह ‘इनसान के खंडहर’ 1950 में प्रकाशित
हुआ। 1966 में उनका अन्तिम कहानी संग्रह
‘फौलाद का आकाश’ छपा। इसके बीच उनके तीन कहानी संग्रह और प्रकाशित
हुए— ‘नए बादल’ (1957), ‘जानवर और जानवर’
(1958) तथा ‘एक और ज़िन्दगी’
(1961)। इसके अतिरिक्त राकेश की शुरुआती कुछ
कहानियाँ कमलेश्वर ने संकलित और सम्पादित कर ‘एक घटना’ शीर्षक से
छपवाई। ‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ संग्रह में राकेश ने अपनी कुछ
बहुचर्चित कहानियाँ शामिल कीं। स्पष्ट है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के
साथ विकसित हुआ राकेश का कहानी लेखन उस ‘साठोत्तरी रचनाशीलता’ की
प्रत्यूष वेला तक आता है जिसके बाद हिंदी साहित्य में नएपन की एक
और प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। प्राय: पैंसठ-छियासठ कहानियों में
फैला राकेश का कहानी-संसार हिंदी कहानी की मूल्यवान धरोहर है। ‘मोहन
राकेश की सम्पूर्ण कहानियाँ’ की भूमिका में राकेश लिखते हैं, ‘...एक
लेखक का वास्तविक कथ्य उसकी रचना है, वास्तविक प्रासंगिकता भी उसके
इसी कथ्य की होती है। शेष सब यात्रा का गुबार है जो धीरे-धीरे बैठ
जाता है।’
रचना की शक्ति पर राकेश का बल अकारण नहीं है। स्वतंत्रता मिलने के
साथ सम्पूर्ण भारतीय समाज में जो आलोडऩ-विलोडऩ शुरू होता है, वह
सामान्य नहीं है। यथार्थ के दर्पण में जाने कितने आदर्श, स्वप्न और
संकल्प विरूप दिखने लगे... सुभाषित आत्मव्यंग्य से भर गये। मानवीय
नियति ने भूगोल, इतिहास और चेतना को खंड-खंड कर डाला।
स्वातन्त्र्योत्तर भारत में विचार और संवेदना से समृद्ध कोई भी
व्यक्ति अपने ‘समय व समाज’ के यथार्थ को व्यक्त करने की छटपटाहट से
भर गया। मोहन राकेश जैसे रचनाकारों के सन्दर्भ में इस छटपटाहट का एक
व्यापक सामाजिक सरोकार स्पष्ट दिखता हो लेकिन इसके ठोस कारण ख़ुद
राकेश रेखांकित करते हैं— ‘‘निर्माण हुआ बड़े-बड़े भवनों का, सरकारी
और अद्र्धसरकारी संस्थाओं, समितियों और आयोगों का, कारख़ानों
और मशीनों का, बाँध और विकास योजनाओं का और शासकीय शब्दकोशों का। इस
निर्माण की सतह के नीचे इनसान का जो रूप सामने आया, वह बहुत ही विकृत
था। लगा कि आसपास के बड़े-बड़े परविर्तनों के साये में लोग निरन्तर
पहले से छोटे और कमीने होते जा रहे हैं। ...जि़न्दगी का सारा
अन्दरूनी ढाँचा भुरभुरी मिट्टी की तरह झड़ता-ढहता जा रहा है।’’ (बकलम
खुद/मोहन राकेश)। इन शब्दों में मुक्तिबोध की कविताओं का सहभाव पढ़ा
जा सकता है। यह भी कहा जा सकता है कि मोहन राकेश की रचनाएँ ‘मानवीय
सम्बन्धों की सभ्यता समीक्षा’ प्रस्तुत करती हैं।
नई कहानी के कहानीकारों में मोहन राकेश अपनी लेखकीय निष्ठा और
सतर्कता के लिए भी जाने जाते हैं। अनीता राकेश ने लिखा है, ‘राकेश जी
सिर्फ व्यवहार में नहीं, बल्कि अपने लेखन में भी उतने ही ईमानदार थे।
उनके कम लिखने के कई कारण थे... सबसे महत्त्वपूर्ण कारण सेल्फ
रिजेक्शन था।’ (चन्द सतरें और— अनीता राकेश)। वे अपनी रचनाओं को
निरन्तर संशोधित करते हुए कई-कई ड्राफ्ट बना डालते थे। उनकी रचनात्मक
ईमानदारी के कारण उनके शब्द आज भी जीवन्त प्रतीत होते हैं। भाषा की
दृष्टि से राकेश ने कुछ विरल उपलब्धियाँ अर्जित की हैं। तत्सम, तद्भव
व देशज को मिलाकर उनकी भाषा परिपक्व हुई है। वे भाषा को लेकर ख़ासे
सावधान दिखते हैं। लिखा भी है कि अभिव्यक्ति के लिए भाषा से उलझने की
समस्या हर लेखक के सामने आती है— अर्थात हर सचेत और अनुभूति प्रवण
लेखक के सामने। अपनी भाषा से परिवेश, मन:स्थिति और अन्य सक्रियता को
उनके पूरे क़द के साथ उपस्थित करते हैं। कभी-कभी काव्योपम, मगर अधिकतर
यथार्थवादी गद्य के उत्कृष्ट उदाहरण निर्मित करती राकेश की रचनाएँ
अन्तत: एक सार्थक शब्द की ही तलाश प्रतीत होती हैं। भाषा रचना से
विलग नहीं होती, शायद राकेश इसे भली प्रकार जानते थे।
यह विचित्र लग सकता है कि जहाँ राकेश के कई घनिष्ठ रचनाकार मित्र
प्रयोगों के प्रति अतिरिक्त आग्रही थे, वहाँ राकेश में किसी ‘प्रयोग
के लिए प्रयोग’ के प्रति उत्साह नहीं दिखता। वे एक सुपठित बौद्धिक
थे, किन्तु अपनी रचनाओं में आयातित ज्ञान बघारने को तरजीह नहीं देते।
उनकी रचनाएँ जीवन से उपजती हैं और उसी के किसी फलक को आलोकित कर जाती
हैं। नई कहानी में ‘अनुभूति की प्रामाणिकता’ और ‘भोगा हुआ यथार्थ’
आदि की बड़ी चर्चा हुई है। कई बार इनके कारण अनेक ‘नए कहानीकारों’
की रचनाएँ यान्त्रिकता का नमूना बनकर हास्यास्पद स्थितियों तक पहुँच
गयी हैं। मोहन राकेश इस स्थिति से बाख़बर रहे। उनका जिया जीवन उनकी
बहुत-सी कथा और नाट्य रचनाओं में आता है, मगर रचना की तरह। इसीलिए
राकेश उन रचनाकारों में से हैं जिनसे उनकी परवर्ती पीढिय़ाँ प्रेरणा
ग्रहण करती रही हैं।
यह बताना जरूरी है कि कई ‘व्यक्तिगत टिप्पणियों’ को राकेश ने अपनी
क्षमता से रचना का हिस्सा बना दिया है। कोई चाहे तो इनमें उनकी
आत्मकथा के सूत्र भी खोज सकता है। राकेश की रचनाओं की यह ‘समग्र
शक्ति’ ही है कि प्राध्यापकीय शैली में उनका ‘सार-संक्षेप’ नहीं
बनाया जा सकता। ऐसा लगता है कि रचना में हर शब्द... हर वाक्य वहाँ
इसलिए है, क्योंकि उसके वहाँ न होने से समूचा स्थापत्य भरभरा कर गिर
जाएगा। इस परिप्रेक्ष्य में नई कहानी की प्रसिद्ध त्रयी में से एक
कमलेश्वर का यह कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो उठता है कि राकेश ने एक
पूरे दौर में कथ्य की आत्मा को निरन्तर खोजा था और आत्मिक कथा की खोज
को निरन्तरता दी थी।
इस संचयन में हमने मोहन राकेश के दो उपन्यासों— ‘अँधेरे बन्द कमरे’
और ‘न आने वाला कल’ का संक्षिप्त पाठ प्रस्तुत किया है। ‘अँधेरे बन्द
कमरे’ हिंदी के उन गिने-चुने उपन्यासों में है जो नागर जीवन की
त्रासदियों को उनके पूरे अन्तर्विरोधों के साथ हमारे सामने प्रस्तुत
करता है। वर्तमान भारतीय समाज का अभिजातवर्गीय नागर मन दो हिस्सों
में विभाजित है— एक में है पश्चिम आधुनिकतावाद और दूसरे में है
वंशानुगत संस्कारवाद। इससे इस वर्ग के भीतर जो द्वन्द्व पैदा होता
है, उससे पूर्णता के बीच रिक्तता, स्वच्छन्दता के बीच अवरोध और
प्रकाश के बीच अन्धकार आ खड़ा होता है। परिणामत: व्यक्ति ऊबने लगता
है, भीतर ही भीतर क्रोध, ईष्र्या और सन्देह जकड़ लेते हैं उसे। अपने
ही लिए अजनबी हो उठता है वह, और तब इसे हम हरबंस की शक़्ल
में पहचानते हैं। हरबंस ‘अँधेरे बन्द कमरे’ का केन्द्रीय पात्र है जो
दाम्पत्य सम्बन्धों की सहज रागात्मकता, ऊष्मा और अर्थवत्ता की तलाश
में भटक रहा है। हरबंस और नीलिमा के माध्यम से पारस्परिक ईमानदारी,
भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि से रिक्त दाम्पत्य जीवन का यहाँ
प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे
भारतीय अभिजात वर्ग की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक
महत्त्वाकांक्षाओं के अँधेरे बन्द कमरों को खोलने वाला यह उपन्यास
हिंदी की गिनी-चुनी कथाकृतियों में से है।
इसी तरह ‘न आने वाला कल’ तेज़ी से बदलते आधुनिक जीवन तथा व्यक्ति और
उनकी प्रतिक्रियाओं पर बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है जो आर्थिक संघर्ष,
स्त्री-पुरुष सम्बन्ध तथा साहित्य और कला की दुनिया को बड़ी
सूक्ष्मता से चित्रित करता है। यह न केवल समाज में फैली अनैतिकता को
अभिव्यक्ति देता है बल्कि उसको झेलते व्यक्ति की त्रासदी का भी
मार्मिक चित्रण प्रस्तुत करता है।
कहा जा चुका है कि राकेश ने भले ही कई कालजयी कहानियों तथा उपन्यासों
का सृजन किये हों, लेकिन वे मूलत: एक नाटककार ही थे। नाट्य विधा में
उनका जितना मन रमा है, अन्यत्र नहीं। सम्भवत: यही कारण है कि जयशंकर
प्रसाद के नाटकों के बाद राकेश ही हैं जिनके नाटकों में भारतीय
संस्कृति के समस्त आयामों ने स्थान पाया। ‘आषाढ का एक दिन’ उनका
सर्वाधिक चर्चित नाटक रहा है। इस संचयन में इसे पूरा, बिना सम्पादन
के, अविकल रूप से शामिल किया जा रहा है। इस नाटक ने न केवल नाटक लेखन
को एक नया मोड़ दिया, बल्कि उसके मंचन की समस्याओं को भी उभारकर रख
दिया। प्रस्तुत नाटक के गत वर्षों में अनेक मंचन हुए, भारत में ही
नहीं अमेरिका में भी। इसके साथ ही साथ ‘अंडे के छिलके’ तथा अन्य
कतिपय एकांकियों को भी इस संचयन में शामिल किया जा रहा है। राकेश
प्रयोगशीलता को रंगमंच की भाषा और उसके मानवीय पक्ष की समृद्धि से
जोडक़र देखते थे, अर्थात रंगमंचीय उपकरणों की न्यूनता के बावजूद कठिन
से कठिन प्रयोग कर पाने की क्षमता के साथ जोडक़र।
कोई भी रचनाकार जिस समय में रचता-बसता है, उस समय को भी प्रकारान्तर
से रच रहा होता है। जहाँ मोहन राकेश ने अपनी रचनाओं के माध्यम से
अपने समय को रचा, वहीं लेखों के माध्यम से अपने समय की नब्ज़ टटोलने
की भी कोशिश की। जैसा कि हमें पता है, राकेश का रचनाकाल उथल-पुथल से
भरा समय था। साहित्य की हर विधा पुरातन से विद्रोह कर नया रूप ले रही
थी। कविता के क्षेत्र में यह समय जहाँ ‘नई कविता’ का दौर था तो वहीं
बदली हुई कहानी को भी उसी तर्ज पर ‘नई कहानी’ का ख़िताब मिल चुका था।
प्रस्तुत संचयन में हमने कोशिश की है कि तब के दौर में राकेश ने
यत्र-तत्र जो विचार प्रकट किये, यहाँ उनकी भी शमूलियत हो। इस क्रम
में हमने राकेश के ऐतिहासिक रूप से महत्त्वपूर्ण कुछ निबन्धों का भी
संचयन किया है।
इस संचयन की एक उपलब्धि के तौर पर मोहन राकेश की डायरी के कुछ पन्नों
को लिया जा सकता है। लेखक कहानी, उपन्यास आदि तो लिखता ही है, इसके
साथ अक्सर वह अपनी जो डायरी लिखता है, वह उसके अपने व्यक्तित्व के
ज़्यादा निकट होती है और इसीलिए उसकी सचाइयों का ज़्यादा ईमानदार
आईना होती है। राकेश ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत ही डायरी लेखन
से की और इसमें वे रोज़मर्रा की आम घटनाओं के अलावा अपने आसपास की
जि़न्दगी, अपने मित्रों (जिनमें उनकी महिला मित्र भी थीं) की चर्चा,
अपने लेखन की प्रगति और योजनाएँ, साहित्यिक गतिविधियाँ इत्यादि दर्ज
किया करते थे। स्वयं कहानीकार होने के कारण ये छोटे-छोटे विवरण भी
इतने रोचक बन पड़े हैं कि इनका आस्वादन एक कहानी की तरह ही किया जा
सकता है। यहाँ राकेश अपने स्वभाव के अनुरूप पूरी बेबाकी के साथ
उपस्थित होते हैं, यहाँ तक कि अपनी महिला मित्रों और उनसे प्रेम
सम्बन्धों की भी चर्चा उन्होंने काफ़ी खुलकर की है।
मोहन राकेश मेरे गुरु और कथा गुरु रहे हैं। बी.ए. (आनर्स) में तो मैं
उनका एकमात्र छात्र था। उनके सान्निध्य में मैंने बहुत कुछ सीखा और
आज उनकी कृतियों का संचयन तैयार करते हुए मुझे परम सन्तोष हो रहा है।
आशा है हिंदी साहित्य और मोहन राकेश के पाठक इन रचनाओं के चयन को
पसन्द करेंगे।
—रवीन्द्र कालिया
(शीर्ष पर वापस)
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