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मोहन राकेश संचयन /निबंध
 

मोहन राकेश संचयन
संपादक- रवींद्र कालिया



निबंध

मुख्य सूची कहानी निबंध उपन्यास डायरी यात्रा-वृत्तांत

कहानी विषयक निबंध

  1. हिन्दी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-1
  2. हिन्दी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-2
  3. आज की कहानी के प्रेरणास्रोत
  4. कहानी क्यों लिखता हूँ
  5. समकालीन हिन्दी कहानी : एक परिचर्चा

अंतरंग भेंट

डॉ. कार्लो कपोला और मोहन राकेश

रंगमंच विषयक

  1. नाटककार और रंगमंच
  2. रंगमंच और शब्द
  3. हिन्दी रंगमंच


हिन्दी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ : 1

कई बार आसपास से यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या हिन्दी में नई कविता की तरह आज एक नई कहानी भी जन्म ले रही है? आज की कविता के साथ नईविशेषण कुछ इस तरह से रूढ़ हो गया है कि उसकी अपनी अर्थवत्ता गुम-सी हो गयी प्रतीत होती है। हर युग में युग की परिस्थितियों के अनुकूल नई कविता जन्म लेती रही है, और इस अर्थ में नि:सन्देह आज एक नई कहानी जन्म ले रही है और नि:सन्देह वह हमारे समय तक की संचित चेतना की अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम बन रही है। नई कहानी से यह अर्थ कदापि नहीं है कि आज की कहानी ने पहले की परंपरा से सर्वथा विच्छिन्न होकर उसे पुरानीकी संज्ञा में बन्द कर दिया है और स्वयं उससे स्वतन्त्र होकर विकास कर रही है। नई कविता के क्षेत्र में इस तरह के भ्रम का अवकाश फिर भी है, परन्तु नई कहानी के क्षेत्र में बिल्कुल नहीं। इसलिए हमारे सामने प्रश्न वस्तुत: यह है कि क्या आज की कहानी अपनी परंपरा को विकास के अगले सोपान तक ले जाने में समर्थ हुई है? क्या वस्तुत: आज के कहानीकारों ने अपने समय तक की उपलब्धियों से आगे किसी नए धरातल को छूने के प्रयत्न में सफलता प्राप्त की है? क्या इस पीढ़ी के हाथों इस कला को अधिक अर्थवत्ता प्राप्त हुई है?

समकालीन आलोचना का अध्ययन करने पर नई कहानी तो क्या कहानी के अस्तित्व में ही सन्देह होता है। जैसाकि नामवर सिंह के कहानीके विशेषांक में प्रकाशित लेख से स्पष्ट है, कहानी के सम्बन्ध में समकालीन हिन्दी आलोचक की उदासीनता या उखड़ी-उखड़ी-सी जानकारी कहानी की सीमाओं को नहीं, आलोचक की सीमाओं को ही व्यक्त करती है। इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पिछले कुछ वर्षों में साहित्य की इस विधा के अन्तर्गत जितने प्रयोग हुए हैं, उन सबसे परिचित रह सकना और अपेक्षित विचारान्विति में उनकी परीक्षा कर सकना आज के आलोचक को दुस्तर-सा कार्य प्रतीत हुआ है। यह एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी है कि सामान्य पाठक की दृष्टि से साहित्य की जो विधा सबसे महत्त्वपूर्ण है और उसके मानसिक धरातल के निर्माण में जिसका सबसे बड़ा हाथ है, उसी को लेकर हमारी आलोचना-दृष्टि स्पष्ट नहीं है। इतना आश्वासन फिर भी है कि लेखक और पाठक के बीच एक सम्बन्ध-सूत्र बना हुआ है, जिससे लेखक चाहे तो अपनी कुशाग्रता से अपने लिए निर्देश प्राप्त कर सकता है।

पिछले दो-तीन वर्षों में आज की हिन्दी कहानी के मूल्यांकन के कुछ प्रयत्न हुए हैं, परन्तु उनसे स्थिति स्पष्ट हो सकी हो, ऐसा नहीं। अधिकांश लेखों में दो-एक कहानीकारों के वस्तु और शिल्प सम्बन्धी प्रयोगों की चर्चा उठाकर और शेष लोगों की नामावलियाँ प्रस्तुत करके ही कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गयी। अन्यत्र इसी तरह के कुछ प्रयोगों के वस्तु और शिल्प को आधार मानकर नई कहानी की उपलब्धियों का सैद्धान्तिक विवेचन प्रस्तुत कर दिया गया। ये सब प्रयत्न अपनी एकांगिता के अतिरिक्त और किसी चीज़ की स्थापना नहीं दे पाये। नई कहानी के आलोचक और समीक्षक ने किसी कहानीकार को मान दिया तो पहले के कहानीकारों से उसकी तुलना करके, उसकी अनुपलब्धि की बात उठायी तो दूसरों की उपलब्धियों के आदर्श का हवला देते हुए। आपमें चेख़व की तरह जीवन के यथार्थ में पैठने की अद्भुत क्षमता है’, ‘आप सामरसेट माम की तरह बात को एक विशेष भंगिमा के साथ कहने में अभ्यस्त हैं’, या प्रेमचन्द जैसी यथार्थ की पकड़ अभी नहीं हैऔर पहले के कथाकारों जैसी एकान्विति कहीं दिखाई नहीं देती’, आदि उद्घोषणाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि आलोचक नई कहानी को एक पूर्वग्रह के साथ उठाकर पढ़ता है। कहानी की अन्वेषणात्मक प्रवृत्तियों तक जाने की बजाय वह उसमें यही देखता और देखना चाहता है कि उसकी उपलब्धियाँ पहले की उपलब्धियों के साथ कहाँ तक मेल खाती हैं। वह नई कहानी को एक पूर्ण कलाकृति के रूप में न देखकर किसी-न-किसी की अनुकृति के रूप में ही देखने का आदी हो गया है। किसी भी रचना या लेखक को इस रूप में दिया गया मान वस्तुत: उसे हीनता की ओर ही धकेल देता है। आज के कहानीकार ने नि:सन्देह अपने पूर्ववर्ती कथाशिल्पियों से बहुत कुछ सीखा है, परन्तु यदि किसी ने इतना ही सीखा है कि वह किसी दूसरे जैसा होकर रह जाए, तो उसका कृतित्व गम्भीर आलोचना का विषय न होगा। आज का कहानीकार समकालीन आलोचक से यह आशा करे ये दुराग्रह न होगा कि वह उसके रूप में ही उसकी आलोचना करे, किसी अन्य के द्वितीय या तृतीय संस्करण के रूप में नहीं।

कहानी के रूप का परिमार्जन और उसकी सामथ्र्य का विस्तार पिछली कई शताब्दियों में हुआ है। आज के कहानीकार की सफलता या असफलता का निर्णय इस आधार पर होगा कि वह उस शताब्दियों की विरासत का सही उपयोग करता हुआ उसमें समृद्धि ला सका है या नहीं। आज के हिन्दी कहानीकार को सीधी विरासत में संसार के समृद्ध कथा-साहित्य की सारी पूँजी के अतिरिक्त प्रेमचन्द से भारतीय जीवन के सामाजिक यथार्थ को चित्रित करने की परंपरा और उन उत्तरवर्ती कथाकारों से जो प्रेमचन्द की परंपरा से दूर हट गये, प्रभावान्विति की एक सांकेतिक शैली प्राप्त हुई। प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कहानी दो सर्वथा अलग-अलग धाराओं में बँट गयी थी, जिनका प्रतिनिधित्व क्रमश: यशपाल और अज्ञेय की रचनाएँ करती हैं। आज की नई कहानी की सबसे प्रथम सिद्धि भारतीय जीवन के सामाजिक यथार्थ की भूमि को लेकर, उसके अन्तर्गत सांकेतिक प्रभावान्विति निर्वाह करने में है। परस्पर विपरीत जान पड़ती हुई दो अलग-अलग धाराओं की विशेषताओं का उसमें समन्वय हुआ है, इसलिए आज की कहानी उपलब्धियों के सम्बन्ध में एक या दूसरे वर्ग की अपनी धारणाओं के अनुकूल नहीं जान पड़ती। इसीलिए किन्हीं को आज की कहानी बहुत स्थूल और किन्हीं को उलझी हुई जान पड़ती है। आज का कहानीकार आसपास के जीवन की मांसल भूमि को छोडक़र किन्हीं वायव्य संकेतों में नहीं भटकना चाहता, इसलिए उसकी कहानी स्थूल है। परन्तु साथ ही कलात्मक प्रभाव पर दृष्टि रखते हुए वह अपनी बात अभिधा से न कहकर, एक संकेत, एक सजेशन द्वारा कहना चाहता है, इसलिए उसका लेखन उलझा हुआ प्रतीत होता है। यथार्थ की प्रामाणिकता के साथ सांकेतिक प्रभावान्विति के समन्वय के सभी प्रयत्न सफल हुए हों, ऐसा नहीं। परन्तु कई एक कहानियाँ हैं, जिनमें इन विशेषताओं का निर्वाह बहुत सफलतापूर्वक हुआ है। भीष्म साहनी की भाग्यरेखा’, राजेन्द्र यादव की नया मकान और प्रश्नवाचक पेड़’, कमलेश्वर की राजा निरबंसियाऔर शेखर जोशी की बदबूआदि कहानियाँ उदाहरण के रूप में प्रस्तुत की जा सकती हैं। कहीं कहानी मानव-मन की विकृतियों का चित्रण करके उस वातावरण की भयावहता का संकेत देती है, जो उन विकृतियों को जन्म देता है, कहीं असुन्दर के विश्लेषण द्वारा सुन्दर के प्रति आस्था को व्यक्त करती है। इसीलिए कई बार केवल एक चरित्र या केवल एक वातावरण के चित्रण द्वारा भी कहानीकार एक सजेशन देने का प्रयत्न करता है। यदि वह सजेशन देने में सफल है, तो उसकी रचना अधूरी या एकांगी नहीं कही जा सकती।

कहानी के अन्तर्गत इस सांकेतिक प्रभावान्विति की अपेक्षाओं ने ही कहानी के नाटकीय अन्तद्र्वन्द्व का स्वरूप भी बदल दिया है। आज कहानीकार इस नाटकीय अन्तद्र्वन्द्व को क्लाइमेक्स तक ले जाने के लिए घटना या चरित्र को आकस्मिक मोड़ देकर प्रभाव-सिद्धि नहीं चाहता। वह ऊपर से साधारण और सपाट प्रतीत होनेवाले मानसिक व्यापारों के बीच ही उस द्वन्द्व और क्लाइमेक्स का निर्माण करने का प्रयत्न करता है। इसकी सिद्धि के लिए कई बार उसे बहुत सूक्ष्म और विस्तृत विवरणों का आश्रय लेना पड़ता है, जो अपने विस्तार के कारण शायद किसी को अनावश्यक भी प्रतीत हों, परन्तु उस डिटेल या विस्तार के बिना वह अपनी उपलब्धि तक नहीं पहुँच सकता। वातावरण की एक ध्वनि और व्यक्ति-मन की एक-एक प्रतिक्रिया के संघटन द्वारा वह अपेक्षित द्वन्द्व की सृष्टि में सफल होता है। रामकुमार की कहानी डेकऔर निर्मल वर्मा की परिन्देइस प्रकार के संघटन के सफल उदाहरण हैं। इन कहानियों में वातावरण ने भी जैसे सजीव और सक्रिय चरित्र के रूप में भावगत ट्रेजेडी के निर्माण में भाग लिया है।

नई कहानी की एक और उपलब्धि अपेक्षया अधिक निर्वैयक्तिक दृष्टि है। यथार्थ-चित्रण के क्षेत्र में लेखक की व्यक्तिगत भावुकता के लिए अवकाश नहीं होना चाहिए। विश्व-कथा-साहित्य की उपलब्धियाँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि कहानी की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि कहानीकार चरित्रों और उनकी परिस्थितियों के विधान में कहाँ तक नि:संग, तटस्थ और अयुक्त रह पाता है और अपनी घृणा या संवेदना की अभिव्यक्ति परिस्थितियों के वैज्ञानिक विश्लेषण या संघटन द्वारा ही करता है। जीवन के प्रति लेखक का निजी भावाग्रह आवश्यक है, परन्तु जो देखकर वह भावाग्रह जन्म लेता है, उसे वैसे ही दिखाकर दूसरे में वही भावाग्रह जाग्रत करने की योग्यता उसमें हो, न कि स्वयं एक व्याख्याकार का रोल अदा करते हुए। आज का कहानीकार अपनी कलम की नोक को अपने दृष्टि-बिन्दु की तरह ही तीव्र करने में व्यस्त है। जो बिम्ब उसके सामने से गुज़रते हैं और उस पर अपनी छाप छोड़ जाते हैं, उनका ऐसा विधान, जो दूसरे पर अपेक्षित प्रभाव की सृष्टि कर सके, ही उसकी उपलब्धि का नया आयाम है। कहानी के सम्पूर्ण प्रभाव की अभिव्यक्ति बिम्बों द्वारा ही हो, लेखकीय टिप्पणियों के लिए उसमें अवकाश न रहे, इस पूर्ति तक आज की कहानी धीरे-धीरे पहुँच रही है।

नए कहानीकार वस्तु और शिल्प दोनों दृष्टियों से कहानी के स्वरूप के परिमार्जन में व्यस्त हैं, इतना श्रेय तो उन्हें देना होगा। परन्तु नए-नए क्षेत्रों की खोज में और असुन्दर से सुन्दर तथा सुन्दर से असुन्दर तक की अपनी अनवरत यात्रा में यदि कहीं वे भटक जाते हैं तो इसे उन्हें नत-शिर होकर स्वीकार करना होगा। लेखक का मुख्य दायित्व अपने समय के प्रति है, एक कहानी-लेखक का विशेष रूप से, क्योंकि समय के यथार्थ की विविधता के अन्तर्गत एकसूत्रता का निर्देशन करने और निर्माणात्मक तथा विध्वंसात्मक शक्तियों की बहुमुखता के अन्तर्गत उनकी एकरूपता का परिचय देने का दायित्व मुख्यतया उसी पर आता है। जीवन के बहुत छोटे-छोटे और एक-दूसरे से बहुत दूर पड़े हुए खंडों में उन शक्तियों के प्रभाव को समझना, सामूहिक जीवन के संघटन के विश्लेषण का एक बहुत आवश्यक अंग है। जीवन को एक इकाई के रूप में ग्रहण करनेवाला लेखक, उसे गाँव-कस्बा-नगर आदि प्रकोष्ठों में बाँटकर नहीं देखता। जीवन एक सामूहिक इकाई है, और जो शक्तियाँ उसको बनाने या बिगाडऩे में कारण बन रही हैं, उन्हें किसी एक या दूसरे प्रकोष्ठ में बन्द करके नहीं देखा जा सकता है। यथार्थ की पकड़ का अर्थ किसी एक खंड के बाहरी रूप का वर्णन करने की क्षमता नहीं है। जीवन के यथार्थ पर लेखक के अधिकार का अर्थ है जीवन के सभी खंडों को समान या न्यूनाधिक रूप में प्रभावित करनेवाली शक्तियों की पकड़। आज की कहानी ही एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा लेखक जीवन के विविध खंडों के अन्तर्गत इन शक्तियों के प्रभाव को सफलतापूर्वक व्यक्त कर रहे हैं।

आज की कहानी की अनुपलब्धियों की बात उठायें तो सबसे पहले यही बात ध्यान में आती है कि नई कहानी समकालीन जीवन के यथार्थ का सही प्रतिनिधित्व नहीं कर पा रही, क्योंकि खंडगत जीवन के बहुत-से चित्रों के अन्दर आज के अखंड जीवन का सही प्रतिबिम्ब देखने को नहीं मिलता। अधिकांश कहानीकारों ने नागरिक या ग्रामीण जीवन की संकीर्णता या असंकीर्णता के जो चित्र अपनी कहानियों में प्रस्तुत किये हैं, उनसे आज के भारतीय जीवन के विराट् स्पन्दन का सही अनुभव नहीं होता। कुछ लेखकों के दिमाग़ में यह बात समायी है कि आज का नागरिक जीवन इस तरह के दलदलों में फँसा है कि वहाँ स्वस्थ मानव के दर्शन नहीं हो सकते, इसलिए वे कहानी में ग्रामीण जीवन के चित्र प्रस्तुत करके ही मानव के स्वस्थ-सुन्दर रूप का परिचय दे सकते हैं। बात इतने तक ही सीमित नहीं है कि कहानी के अन्तर्गत जिन चरित्रों को हम प्रस्तुत करते हैं, वे दुर्बल हैं या सबल, या कि जिस वातावरण को हम उठाते हैं, वह संकुल है या असंकुल। असुन्दर से दूर कहीं सुन्दर का भी सद्भाव है, निर्बल से दूर कहीं सबल भी वर्तमान है, क्या इतने मात्र से जीवन को कुछ संकेत मिल पाता है? जीवन निरन्तर विकास कर रहा है और उसके विकासक्रम में ही वह सब कूड़ा-कचरा पैदा होता है, जो उसके विकास में बाधा पहुँचाना चाहता है। उसकी सड़ाँध से ऊबकर हम वहाँ चले जाएँ, जहाँ अपेक्षया अधिक ताजी हवा बहती है, तो क्या उससे वह सड़ाँध दूर होगी? हिन्दी में ग्राम-जीवन को लेकर लिखी गयी कहानियों की प्रतिष्ठा के प्रसंग में कई बार ऐसी-ऐसी उद्घोषणाएँ की जाती हैं, जिनसे जीवन की विकास-यात्रा के सम्बन्ध में भ्रान्ति उत्पन्न हो सकती है। यह सच होते हुए भी कि भारत की अधिकांश जनसंख्या गाँवों में रहती है, इसमें सन्देह नहीं कि गाँव हमारे जीवन के विकास-क्रम का अगला सोपान नहीं है। जीवन के विकास-क्रम को प्रभावित करनेवाली समस्याएँ जिन राजनीतिक, आर्थिक और साम्प्रदायिक आवर्तों में जन्म लेती हैं, उनके केन्द्र नि:सन्देह हमारे गाँव नहीं हैं, गाँवों का जीवन उनसे प्रभावित अवश्य हो रहा है। जीवन की प्रगति में विश्वास रखनेवाले और उसके कल के रूप को निर्धारित करने में योग देनेवाले कलाकार के लिए क्या यही मार्ग है कि वह उस जीवन से दूर हट जाए, क्योंकि उसमें बहुत संकुलता दिखाई देती है? क्योंकि शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में उसे जीवन और सौन्दर्य के दर्शन नहीं होते, इसलिए क्या इसी में उसकी महत्त्वाकांक्षा की परिणति है कि वह गाँवों में जीवन का स्वस्थ सौन्दर्य और मानव की ऊर्जस्वित शक्ति देखकर सन्तुष्ट हो रहे? और क्या सचमुच शहरों के मध्यवर्गीय जीवन में कुछ भी स्वस्थ और सुन्दर नहीं है? उन घुन खाये इन्सानों के अन्दर कहीं भी मानवसुलभ कोमलता नज़र नहीं आती? मानव की दृढ़ता का परिचय नहीं मिलता? और गाँवों का जीवन क्या वास्तव में सुन्दर और ऊर्जस्वित मात्र ही है? झूठ, फरेब, चोरी और मक्कारी आदि की विडम्बनाओं से यह सर्वथा मुक्त है?

हमारा विश्वास है कि इस तरह कहानियों के वस्तु-सत्य के आधार पर जीवन के सम्बन्ध में एक दृष्टि बना लेना, या साहित्यिक उपलब्धियों के मान निश्चित करने लगना, एक स्वस्थ दृष्टि नहीं है। जीवन नगर और गाँव के भेद से अस्वस्थ और स्वस्थ नहीं है। और स्वस्थ या अस्वस्थ जीवन के चित्रण के आधार पर साहित्य का उत्कर्ष सिद्ध नहीं होता। वस्तुत: जीवन एक इकाई है और उसे प्रभावित करनेवाली शक्तियों के सूत्र शहरों और गाँवों में सर्वत्र फैले हुए हैं। उन शक्तियों का द्वन्द्व सब जगह अनुभव किया जा सकता हैनागरिक जीवन में अपेक्षया अधिक तीव्रता के साथ, क्योंकि द्वन्द्व के केन्द्र मुख्यतया शहर बल्कि उनमें भी बड़े-बड़े शहर हैं। यदि हमारी रचनाओं में उस द्वन्द्व का सही परिस्पन्दन नहीं झलकता, तो हमारी रचनाएँ आज के यथार्थ का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। प्रेमचन्द के समय का यथार्थ आज के यथार्थ से बहुत भिन्न था। उस समय की उपलब्धियों के आधार पर आज के लिए निष्कर्ष निकालकर हम सही परिणाम पर नहीं पहुँच सकते। आज के यथार्थ का सही चित्रण करने के लिए हमें अपने जीवन की संकुलता और सड़ाँध के बीच जीते हुए उसके खाके उतारने होंगे और उस सड़ाँध के बीच कुलबुलाती हुई तथा उसे दूर करने के लिए व्याकुल मानव-चेतना को प्रतिफलित करना होगा। मानव की जो ऊर्जस्वितता आज के जीवन को शक्ति दे सकती है, वह इस संकुलता और सड़ाँध से संघर्ष करके निखरती हुई ऊर्जस्वितता होगी, हमें यह विश्वास खो देना नहीं होगा कि वातावरण की इस संकुलता के बीच भी मानव की शक्ति और कोमलता लुप्त नहीं हुई है। हम यदि उसका साक्षात्कार नहीं कर पाते तो यह हमारी दृष्टि का दोष है या हमारे अनुभव की न्यूनता है।

इससे हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि आज की कहानी में हुए कुछ प्रयोगों के आधार पर जीवन के यथार्थ के सम्बन्ध में अपनी धारणा को संकुचित बनाकर हम जीवन के उत्तरोत्तर विकासमान रूप के साथ न्याय नहीं करते। जहाँ यह आवश्यक है कि लेखक अपने अनुभव-क्षेत्र से प्रेरणा ग्रहण करे, जिससे उसकी रचना जीवन के प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत कर सके, वहाँ यह भी आवश्यक है कि लेखक का अनुभव-क्षेत्र उत्तरोत्तर विकसित होता जाए, जिससे जीवन के यथार्थ पर उसकी पकड़ में व्यापकता आ जाए। अनुभव की इस व्यापकता के अभाव में एक ओर तो जीवन को प्रभावित करनेवाली शक्तियों का सही विश्लेषण सम्भव नहीं, और दूसरी ओर रचना में एक उबा देनेवाली मानाटनी या एकतारता के आ जाने की सम्भावना है। इस मानाटनी के लक्षण अभी से नई कहानी के कई प्रयोगों में दिखाई देने लगे हैं।

कुछ नए कहानीकारों को स्थानीय शब्दों और मुहावरों के प्रयोग का भी बहुत आग्रह है। एक विशेष प्रभाव की सिद्धि के लिए किसी कहानी में स्थानीय मुहावरे का प्रयोग हो, यह अनपेक्षित स्थिति नहीं है। साथ ही भाषा की व्यंजना को विकसित करने के लिए स्थानीय शब्दों की समृद्धि का योग वांछनीय कहा जा सकता है। परन्तु हमें यह नहीं भूल जाना चाहिए कि भाषा हमारा माध्यम है और रचना की सिद्धि एक प्रभाव के सम्प्रेषण में है। यदि भाषा ही प्रभाव के सम्प्रेषण में बाधक बनती है तो वह स्वयं अपने उद्देश्य पर प्रहार करती है। यदि लेखक एक स्थानीय वर्ग के लिए रचना करता है तो बात अलग है, और इस तरह की रचना होनी भी चाहिए। परन्तु हिन्दी की इतनी स्थानीय बोलियाँ हैं कि यदि हिन्दी के एक सामान्य पाठक से यह आशा की जाए कि वह जिस किसी भी बोली के शब्दों और मुहावरों से लदी हुई भाषा को हिन्दीइस संज्ञा-मात्र के कारण समझ जाए तो यह ज़्यादती होगी। जैसा वहम कुछ दिन पहले संस्कृत के शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में कुछ लोगों को था, कुछ वैसा ही वहम अब स्थानीय शब्दों के प्रयोग के सम्बन्ध में पैदा हो गया है। जैसे हिन्दी के सामान्य पाठक ने अपने लिए अगम्य उस भाषा को स्वीकार नहीं किया, वैसे ही वह इस भाषा को भी स्वीकार नहीं कर पाएगा। इसका एक बड़ा कारण यही है कि वह भाषा का स्वाभाविक रूप नहीं रह जाता। पिछले कई सौ वर्षों में खड़ी बोली ने अपने स्वरूप का परिष्कार किया है। यह श्लाघ्य है कि उसके स्वरूप का और परिष्कार करें, परन्तु यह नहीं कि हम उसकी अपनी व्यंजनात्मकता में विश्वास ही खो दें। कुछ दिन पहले आइरिश उपन्यास में इसी तरह बोलियों के आग्रह ने जन्म लिया था। परिणाम स्पष्ट है। सामान्य पाठक ने उन रचनाओं को अपने लिए स्वीकार नहीं किया।

कहानी युग की प्राण-शक्ति को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है, परन्तु जिस पाठक के लिए वह लिखी जाती है, उसकी अपनी सीमाएँ और अपेक्षाएँ भी हैं। पाठक की सीमाओं और अपेक्षाओं के प्रति उदासीन रहकर की गयी रचना केवल रचयिता के अहं को परितुष्ट कर सकती है, अपने वास्तविक उद्देश्य की सिद्धि तक नहीं पहुँच पाती। कहानी में जीवन के विराट् को प्रतिबिम्बित करने के साथ-साथ हमें यह दृष्टि भी बनाये रखनी होगी कि कहानी कहना मात्र ही अभीप्सित नहीं है, दूसरे में उसके लिए आग्रह पैदा करना भी वांछित है। वह दूसराअर्थात् पाठक अपने आग्रह से ही कहानी को सफल बनाता है। लेखक की भाषा उसके और पाठक के बीच कहानी कहने और सुननेवाले की-सी घनिष्ठता उत्पन्न करने का एक मात्र साधन है। यदि भाषा में यह घनिष्ठता उत्पन्न करने का एक मात्र साधन है। यदि भाषा में यह घनिष्ठता उत्पन्न करने की योग्यता न हो तो कहानी की रचना का उद्देश्य ही पूरा होने से रह जाएगा।

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[संचयन-मुख्य सूची]

हिन्दी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ : 2

पिछले पाँच-छ: वर्षों में हिन्दी कथा-साहित्य के अन्तर्गत बहुत से ऐसे प्रयोग हुए हैं जिनसे साहित्य के इस अंग को नई दिशा और नई अर्थवत्ता प्राप्त हुई है। उपन्यास के क्षेत्र में बूँद और समुद्रतथा परती : परिकथाजैसी कृतियों ने सर्वथा नए धरातल छूने में सफलता प्राप्त की है तो कहानी के क्षेत्र में भाग्य रेखा’, ‘डेक’, ‘परिन्दे’, ‘जहाँ लक्ष्मी क़ैद है’, ‘राजा निरबंसिया’, ‘डिप्टी कलक्टरी’, ‘बदबूदार गली’, ‘गुलरा के बाबा’, ‘शहीदऔर कोसी का घटवारजैसी रचनाओं ने नए मूल्यों की स्थापना का श्रेय प्राप्त किया है।

 

प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा-साहित्य दो सर्वथा अलग-अलग धाराओं में बँट गया था जिनका प्रतिनिधित्व क्रमश: यशपाल और अज्ञेय की रचनाएँ करती हैं। यशपाल की रचनाओं में सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन मिलता है तो अज्ञेय की रचनाओं में एक गूढ़ सांकेतिकता है, साथ ही भाषा का वह गुम्फन है जिससे भाषा की सामथ्र्य का विस्तार होता है। उपन्यास के क्षेत्र में मनुष्य के रूपऔर नदी के द्वीपइन दो सीमाओं का संकेत देते हैं तो कहानी के क्षेत्र में प्रतिष्ठा का बोझएक दिशा है और साँपदूसरी। परन्तु इन दोनों लेखकों और दोनों प्रतिनिधि धाराओं में एक बात सामान्य प्रतीत होती है और वह है अतिशय रूमानी वातावरण की सृष्टि का मोह। अन्तर केवल इतना है कि यशपाल यथार्थ की भूमि पर वर्तमान रहते हुए ऐसा करते हैं और अज्ञेय एक कल्पित भावुकतापूर्ण विश्व की सृष्टि करके उसके अन्दर जाकर। परन्तु स्त्री और पुरुष के निकट सम्बन्धों के वर्णन में दोनों की प्रतिभा रमती है। परिणामस्वरूप इन दोनों की रचना के निश्चित दायरे बन गये जिनके बाहर वे प्रयत्न करके भी नहीं निकल पाये। इस बीच जीवन ने कई करवटें लीं। समाज में कई तरह की हलचल और उथल-पुथल हुई। परन्तु उसने या तो इन्हें प्रभावित किया ही नहीं, और किया भी तो उन्होंने उससे उतना ही ग्रहण किया जो इनकी निश्चित परिधि में समा सकता था। जीवन के बहुमुखी यथार्थ को चित्रित करने की जिस परंपरा का प्रेमचन्द ने सूत्रपात किया था, वह लगभग अछूती ही पड़ी रही।

साहित्यकार अपनी वैयक्तिक कुंठाओं के कारण जब अपनी रचना से जनहृदय में स्पन्दन नहीं भर पाता तो वह अपनी असमर्थता को ढाँपने के लिए एक दर्शन की सृष्टि करता है। जिस रचना में अपने पैरों खड़े होने की सामथ्र्य नहीं होती, उसे आलोचना की छड़ी के सहारे खड़ा करने का प्रयत्न किया जाने लगता है। यह बात इस काल की रचनाओंविशेषतया सांकेतिक शैली की रचनाओं के साथ हुई। इस काल की आलोचना को पढ़ें तो सम्भवत: यही प्रतीत होगा कि सृजन की दृष्टि से इतना सम्पन्न काल शायद और कोई नहीं रहा। परन्तु कम-से-कम गद्य के क्षेत्र में यह सम्पन्नता आलोचना की ही है, रचनात्मक साहित्य की नहीं।

आज के युग की साहित्यिक अभिव्यक्ति में हम एक चीज़ की प्रमुखता देखते हैं और वह है बिम्ब और विचार का सामंजस्यअर्थात् बिम्बों का ऐसा संगठन कि विचार उसके बीच से ही प्रस्फुटित हो, चरित्र और घटनाएँ कुछ ऐसे मूर्त चित्रों के रूप में प्रस्तुत की जाएँ कि वही लेखक के अभिप्राय या संकेत को स्पष्ट कर दें। प्रेमचन्द की रचनाओं में बिम्ब और विचार दोनों हैं, परन्तु दोनों का ऐसा गुम्फन कहीं-कहीं ही हो पाया है। प्रेमचन्द रचना के आन्तरिक गुण की अपेक्षा उसके उद्देश्य को ही महत्त्व देते थे, इसलिए ही ऐसा हुआ है। वे जितने सचेत इन्सान थे, उतने सचेत कलाकार नहीं। आज की नई कथा-कृतियों में, जिनमें से कुछ एक का उल्लेख पहले किया जा चुका है, इस तरह गुम्फन के कई सफल प्रयत्न दृष्टिगोचर होते हैं। बूँद और समुद्रके लेखक ने यदि अपनी रचना में मथुरा की यात्रा का वर्णन करने और साथ एक आध्यात्मिक तत्त्व का समावेश करने का लोभ न किया होता तो गली-मुहल्ले के जीवन को चित्रित करने की दृष्टि से वह एक अन्यतम रचना होती। परती : परिकथाका विन्यास काफी शिथिल है, परन्तु उसमें बिम्बों और विचारों को एक साथ प्रस्तुत करने की लेखक की अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है। इन लेखकों की कृतियों ने हिन्दी उपन्यास को यशपाल और अज्ञेय की अर्द्ध-रूमानी परंपरा से हटाकर एक नए मोड़ पर ला दिया है और एक नए और अधिक सशक्त रूप में जीवन के व्यापक और बहुमुखी यथार्थ को प्रस्तुत करने की दिशा में क़दम उठाया है। यह बात अपने में ही आगे की सम्भावनाओं का विश्वास दिलाने वाली है।

इन छ:-सात वर्षों में उपन्यास की अपेक्षा कहीं अधिक हलचल कहानी के क्षेत्र में दिखाई दी है। इसका एक कारण शायद यह भी है कि नए कहानीकारों ने एक-दूसरे की होड़ में रचना करने का प्रयत्न किया और न केवल कई एक सशक्त और मँजी हुई कहानियों की सृष्टि की, बल्कि कहानी के क्षेत्र में नए मूल्यों की अवतारणा भी कर दी। बिम्बों के माध्यम से अपनी जीवन-दृष्टि को व्यक्त करने और कला के गर्भ से सामाजिक जीवन को प्रगति और नव-निर्माण का संकेत देने के जैसे सफल और सार्थक प्रयत्न कहानी के अन्तर्गत हुए हैं, साहित्य की और किसी भी विधा के अन्तर्गत नहीं हो पाये। नई कविता का रूप-विधान एक निश्चित दिशा ग्रहण कर गया है, परन्तु नई कहानी की सबसे बड़ी सफलता इसी बात में रही है कि उसने एक निश्चित रूप या दिशा को न अपनाकर अलग-अलग कहानीकारों के हाथों कई दिशाओं में प्रगति की है। जीवन के कई नए खंडचित्र, जिनकी ओर न आज तक की कहानी ने मुँह किया था न कविता ने, आधुनिक कहानी के आश्रय से सजीव हो उठे हैं। आज के कहानीकार दो दृष्टियों से जीवन के व्यापक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। एक तो इस दृष्टि से कि उनके कहानी चुनने का क्षेत्र पहले से कहीं विशाल है। जीवन और समाज के बहुत दूर-दूर उपेक्षित और छिपे हुए कोनों तक उनकी दृष्टि अपने कथानक की तलाश में पहुँच जाती है। और दूसरे इस दृष्टि से कि छोटी से छोटी और साधारण से साधारण घटना को भी वे जीवन के विशाल सन्दर्भ में निश्चित आलोक देकर प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि बदबूजैसा साधारण कथानक भी आज के कहानीकार के हाथों कहीं अधिक सार्थक और प्रभावशाली हो उठता है।

आधुनिक कहानी की चर्चा करते हुए एक और बात भी कही जानी चाहिए और वह यह कि उपन्यास के क्षेत्र में जिस संगठित शिल्प का विकास अभी तक सम्भव नहीं हुआ, वह कहानी के क्षेत्र में आज एक साधारण-सी बात हो गयी है क्योंकि नए कहानीकारों ने वैयक्तिक और सामूहिक रूप में कहानी के शिल्प को बहुत माँजा है। एक बड़ी बात यह भी है कि इन कहानीकारों ने दूसरी भाषाओं के समृद्ध साहित्य के बने-बनाये नुस्खों को अपने लिए आदर्श मानकर रचना नहीं की। उन्होंने परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण किया है, फिर भी उन्होंने अपने लिए सफलतापूर्वक नए मार्ग की खोज की है। और, विभिन्न कहानीकारों ने विभिन्न स्तरों पर खोज करते हुए अपने व्यक्तित्व की छाप भी नई कहानी को दी है। इसीलिए उपलब्धियों के साथ-साथ कुछ नए नाम भी कहानी के क्षेत्र में सीमा-चिह्न से बन गये हैं।

परन्तु पुरानी पीढ़ी के कुछ लेखक और आलोचक नई कहानी से शिकायत करते हैं कि वह उन्हें उलझी हुई प्रतीत होती है। इसका मुख्य कारण यही है कि वे जिन कोष्ठों में रहकर सोचते हैं, उनमें अभी तक वही पुरानी दकियानूसी मान्यताएँ भरी पड़ी हैं। वे कहानी के शिल्प, संकेत या व्यापक कैनवस को ग्रहण ही नहीं कर पाते। इसलिए वे कहानी के कहानीपन, घटियापन और बढिय़ापन की शब्दावली में ही घूमकर रह जाते हैं या बहुत दूर जाएँ तो स्ट्रक्चर और टैक्सचर की बात करके रह जाते हैं। चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में उन्हें करने की एक ही बात सूझती है कि लेखक ने कितने उदात्त चरित्रों की सृष्टि की है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि कहानी के अन्तर्गत पहली चीज़ ही चरित्र है और सफल चरित्र-चित्रण का अर्थ है उन्हें उनकी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ एक सजीवन और विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत करना। कहानी नि:सन्देह कुछ अभिजात, उदात्त और उदार व्यक्तियों की जीवनगाथा का नाम नहीं है। और, स्ट्रक्चर और टैक्सचर से पहली चीज़ कहानी का यार्न है, वह तन्तुवाय जो आज का यथार्थ हैएक व्यक्ति विशेष या समुदाय-विशेष के जीवन का यथार्थ नहीं, हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ, वह व्यापक यथार्थ जो इकाइयों से लेकर राष्ट्रों तक के संघर्षों के मूल में है। यह प्रसन्नता की बात है कि नई कहानी के अन्तर्गत उस व्यापक यथार्थ की चेतना ज़ोर पकड़ रही है और नई कहानी, आलोचना की सीमाओं के बावजूद, अपने रूप और आत्मा का और परिष्कार कर रही है।

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[संचयन-मुख्य सूची]

आज की कहानी के प्रेरणास्रोत

आज की कहानी कल की कहानी से बदल गयी है, इसमें सन्देह नहीं। यह परिवर्तन कहानी लिखने के ढंग में उतना नहीं है, जितना कहानी की वस्तु में और कहानी के दृष्टि-बिन्दु में। कभी कहानीकार को अद्भुत और मनोरंजक की खोज रहती थी। परन्तु आज प्रश्न खोज का नहीं, पहचान का हैजीवन की ठोस वास्तविकताओं की पहचान का। आज का लेखक जीवन के वैयक्तिक और सामाजिक धरातल को परखकर अपनी कहानी में उसके प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत करना चाहता है। यह कहानी के सम्बन्ध में नई दृष्टि है, जिसके कारण कहानी के प्रभाव की दिशा भी बदल गयी है और जिन स्रोतों से हम कहानी लिखने की प्रेरणा लेते हैं, उनका क्षेत्र भी काफ़ी विस्तृत हो गया है। हमारे चारों ओर बिखरे हुए जीवन का हर अणु किन्हीं प्रभावों से चालित हो रहा है। हम उन प्रभावों को पहचान सकें तो हर अणु की अपनी एक कहानी है। हर सजीव और निर्जीव वस्तु एक अच्छी कहानी का विषय हो सकती है। जिस राह पर से दो चरण गुज़र जाते हैं, उस राह के वक्ष पर उन पगचिह्नों से एक कहानी लिखी जाती है। जिस पौधे के दो अंकुर निकलकर हवा में काँपने लगते हैं, उस पौधे का अपना इतिहास बन जाता है और एक कहानी। हर जीवित इन्सान के चेहरे पर एक कहानी लिखी रहती है, जो उसके चेहरे की झुर्रियों में, उसकी आँखों के निमेषों में और उसके माथे की सलवटों में पढ़ी जा सकती है। जीवन में क्या है जिसकी कहानी नहीं है? मेरे घर के दरवाज़े पर जो चिक लगी है, वह उन हाथों की कहानी है, जो धूप में बैठकर उसे रँगते रहे। मेरे फ़र्श पर बिछी हुई दरी शायद एक प्रणय की कहानी हो जो धागों को आपस में उलझाते हुए किन्हीं हृदयों में अंकुरित हो उठी हो। एक व्यक्ति जो रद्दी ख़रीदने के लिए धूप में सडक़ों के चक्कर काटता है, उसके जीवन में सन्ध्या और रात भी आती है, जब वह कुछ निजी लोगों के छोटे-से दायरे में सीमित होकर खिलखिलाकर हँसता है, या माथे पर हाथ रखे हुए लम्बी साँसें लेता है। उसकी चारपाई पर बिछा हुआ मैला बिछावन, उसके लडक़े की फूली हुई आँख, उसकी पत्नी की कोमल मुस्कराहट, उसके रसोईघर की दीवारों पर चढ़ी हुई कालिख और उसकी आनेवाली सुबह और दोपहर शायद कहीं से आया हुआ उसकी बहन का पत्र कि उसके पति ने फिर उसे बुरी तरह पीटा है और कि वह घर छोडक़र उसके पास रहना चाहती हैउसके जीवन के इस अतिसाधारण घटना-विस्तार में एक व्यक्ति के ही नहीं, उसके समय की कहानी बोलती है, जिस कहानी में हर क़दम पर परिस्थिति उलझती है और एक क्लाइमेक्स खड़ा हो जाता है। वह व्यक्ति सडक़ पर चलता है तो एक कहानी बनती है और ख़रीदी हुई रद्दी का बंडल घर लाकर पटकता है तो दूसरी कहानी का आरम्भ हो जाता है।

कई बार हम अख़बारों में पढ़ते हैं कि अमुक प्रसिद्ध लेखक अपने लिए एक नए कथानक की खोज में अमरीका से हवाई द्वीप या सिंगापुर जा रहा है तो बहुत विचित्र-सा लगता है। अपने निजी वातावरण को छोडक़र जिसके साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है, वह बाहर के अपरिचित जीवन से कथानक क्यों खोजना चाहता है? जिन लोगों के हर शब्द और हर संकेत से वह परिचित है, उनका जीवन क्या उसे बिल्कुल कथानकहीन प्रतीत होता है? वास्तव में एक लेखक की यह प्रवृत्ति इसी बात का प्रमाण है कि एक ओर तो उसमें अपने जीवन के वातावरण को चित्रित करने का साहस नहीं है और दूसरी ओर वह शायद यह सोचता है कि दूर के लोगों के जीवन का जैसा-कैसा चित्रण कर और अपने पाठकों के सामने कुछ विचित्र और अद्भुत प्रस्तुत करके वह एक बेस्ट सेलरका लेखक होने का श्रेय प्राप्त कर सकता है। परन्तु यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि ऐसे प्रयत्न क़िस्सा तोता-मैनालिखने के प्रयत्न का रूपान्तर मात्र हैं। ऐसी रचनाओं में वह ग्राहिता और शक्ति नहीं आ पाती जो यथार्थ की निरायास प्रेरणा से या किसी प्रभावशाली विचार के आग्रह से एक रचना को प्राप्त हो जाती है।

हिन्दी कहानी में यथार्थ की अवतारणा का श्रेय प्रेमचन्द को दिया जाता है। वैसे अपने उदयकाल में ही हिन्दी कहानी को प्रेमचन्द, प्रसाद और गुलेरी जैसे कथाकारों ने ठीक दिशा दे दी, यह बहुत बड़ी बात थी। प्रेमचन्द अपने काल के यथार्थ का बहुत विस्तृत क्षेत्र लेकर चले हैं। उस क्षेत्र के सभी पक्षों से उनका सहज और घनिष्ठ परिचय कई जगह आश्चर्य में डाल देता है। प्रेमचन्द की रचनाओं के गौण चरित्र, जिन पर प्रेमचन्द के आदर्शवाद का आरोप नहीं हुआ, अपनी स्वाभाविकता और प्रामाणिकता की गहरी छाप हृदय पर छोड़ते हैं। उनके द्वन्द्व और संवेद पाठक को अपने ही जीवन का अंग प्रतीत होते हैं। परन्तु प्रेमचन्द ने जिस जीवन-दर्शन को अपने आदर्श के रूप में अपनाया उसका खोखलापन बाद में स्वयं उन पर भी प्रकट हो गया, और उस आदर्श से परिचालित पात्रों में वह विश्वसनीयता नहीं आ पायी जो कील की तरह अन्तर की परतों को चीरती चली जाए। प्रेमचन्द की कहानियों में बहुत से ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पात्र नहीं परिस्थितियाँ बोलती हैं। कफ़नइसी श्रेणी की कहानी है। परन्तु वहाँ परिस्थिति की अपेक्षा पात्र अधिक मुखर हो जाते हैं, जो जीवन से ध्वनित होना चाहिए, वह किसी की ज़बान से सुनने को मिलता है, वहाँ लेखक और पाठक के बीच एक कोष्ठ रिक्त रह जाता है जिससे यथार्थ की शक्ति क्षीण हो जाती है और रचना का प्रभाव कम हो जाता है।

प्रेमचन्द ने कहानी को एक दिशा दी थी और उनके बाद आने वाले लेखक उस दिशा में और भी बहुत आगे तक जा सकते थे। परन्तु प्रेमचन्द के तुरन्त बाद आनेवाली लेखकों की पीढ़ी ने अपनी दिशा बहुत बदल ली।

यह पीढ़ी नई-नई पाश्चात्य साहित्य के सम्पर्क में आयी थी। उस साहित्य की तब तक की उपलब्धियाँ इस पीढ़ी के लिए आदर्श बन गयीं। कुछ लेखकों ने प्रेमचन्द के शिल्प में त्रुटियाँ देखीं और शिल्प को ही सब कुछ मानकर उस क्षेत्र में विकास को ही सफलता की कसौटी मान लिया। जो अन्यत्र लिखा जा चुका था और बहुत सुन्दर था, उसके स्तर तक पहुँचने का प्रयत्न किन्हीं लेखकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण बन गया। जिस लेखक को आसपास के जीवन की अपेक्षा अपने शेल्फ में रखी हुई पुस्तकें अधिक प्रेरित और अनुप्राणित करती थीं, वह भला प्रेमचन्द के मार्ग पर क्योंकर बढ़ता? परिणामत: इस काल में कहानी की भाषा के परिमार्जन और उसके रूपविधान की ओर अधिक ध्यान दिया गया। इस दिशा में जैनेन्द्र और अज्ञेय की देन का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। परवर्ती कहानीकारों ने जब इन लोगों की लकीर को छोड़ा तो वे भाषा और शिल्प के क्षेत्र में इनके प्रभाव को आत्मसात् किये हुए ही आगे बढ़े।

इस पीढ़ी के प्रमुख लेखकों में यशपाल दूसरों से काफ़ी अलग रहे। उन्होंने मध्यवर्ग के जीवन की विसंगतियों को लेकर उन पर आक्षेप करते हुए कई ज़ोरदार कहानियाँ लिखीं। परन्तु यशपाल का यथार्थ एकांगी यथार्थ था, जिसमें मनुष्य के सौन्दर्य और उसकी उदात्त वृत्तियों को आँख से ओझल रखा गया। यशपाल को नग्नता के चित्रण का बहुत आग्रह रहा, जो कई जगह एक फोबिया-सा प्रतीत होता है। क्या केवल कुत्सित मात्र ही यथार्थ है? क्या उस मध्यवर्ग के जीवन में जो जल्दी-जल्दी अपनी कुंठाओं की केंचुलियाँ तोड़ रहा है, कोई भी उजली रेखा नज़र नहीं आती? जिस मनुष्य से उसकी मनुष्यता का विश्वास ही छीन लिया जाएगा, उसे हम बदल क्योंकर सकेंगे? मध्यवर्ग के जीवन में केवल खोखलापन और आडम्बर ही नहीं है, उसमें भी बहुत कुछ है जो सजीव है और विकाररहित है, और जिसकी रक्षा की जा सकती है। मध्यवर्ग में प्रतिष्ठा का बोझकी सास-बहुएँ ही नहीं हैं, जिनकी एक मात्र समस्या उनकी शारीरिक भूख है, बल्कि वे स्त्रियाँ भी हैं जो धागे बीन-बीनकर अन्धी हो जाती हैं, केवल इसलिए कि अपने बच्चे को दस जमातें पढ़ा सकें। यशपाल के तीखे व्यंग्यों में यदि साथ ही उतनी सहानुभूति मिली रहती तो उनकी रचनाओं का महत्त्व अब से कहीं अधिक हो सकता था।

पिछले दस वर्ष में कहानी-लेखकों की जो नई पीढ़ी आगे आयी है, उसमें जीवन के प्रति ईमानदारी का अधिक प्रबल आग्रह है। इस पीढ़ी के लेखकों ने प्रेमचन्द के सूत्र को पकडक़र उनके मार्ग पर बढऩे का प्रयत्न भी किया है और कई नई पगडंडियाँ भी खोज निकाली हैं। पिछले दस वर्ष में हम सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के जिस संक्रान्तिकाल में से गुज़रे हैं, उसकी नाना स्थितियाँ इस पीढ़ी की कला के विकास में सहायक भी हुई हैं और बाधक भी। सहायक इसलिए कि निरन्तर बदलते हुए जीवन ने इस पीढ़ी के लेखक की चेतना पर बार-बार चोट की है और उसको अपने वातावरण के प्रति प्रतिक्रियाशील बना दिया है। और बाधक इसलिए कि हिन्दी को प्राप्त हुई मान्यता के कारण रचना की माँग बढ़ जाने से कुछ लेखकों में व्यवसाय-बुद्धि ज़ोर पकड़ गयी और रचना के आन्तरिक मूल्य की अपेक्षा उसकी द्रव्यार्जन-शक्ति अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठी। सम्पादकीय दृष्टि भी कुछ जगह द्रव्य-वितरण संस्थाओं के संचालकों की-सी दृष्टि हो उठी। परिणाम यह हुआ कि जहाँ इस पीढ़ी के लेखकों के एक वर्ग ने बहुत ईमानदारी से साहित्यिक मूल्यों के विकास का प्रयत्न किया, वहाँ दूसरा ऐसा भी वर्ग उसके बराबर आ खड़ा हुआ, जिसने केवल लिखने के लिए लिखा और सामान्य पाठक के लिए यह विवेक करना लगभग असम्भव कर दिया कि इन दोनों वर्गों की विभाजक रेखा कहाँ से आरम्भ होती है। इस पीढ़ी के उन लेखकों में जिन्होंने कहानी के स्वरूप का वास्तव में परिमार्जन और परिष्कार किया है और उसे जीवन की भूमि के अधिक निकट ला दिया है, हम चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, राजेन्द्र यादव, मोहन चोपड़ा, कमल जोशी, कमलेश्वर, मार्कण्डेय और अमरकान्त आदि का उल्लेख कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई नाम लिये जा सकते हैं, परन्तु नाम-परिगणना हमारा उद्देश्य नहीं है। कहानी लेखकों की यह पीढ़ी कहानी के लिए निरन्तर नए-नए धरातल खोज रही है और इस नाते निरन्तर प्रयोगशील भी है, यद्यपि कविता की तरह यह प्रयोगशीलता शिल्पगत प्रयोगशीलता ही नहीं है। इस पीढ़ी के लेखक अपने को छोटे-मोटे व्यावसायिक आकर्षणों से बचाए रख सकें तो नि:सन्देह वे अभी बहुत कुछ कर सकते हैं।

आज नई पीढ़ी का लेखक जीवन के यथार्थ से या किन्हीं निश्चित विचारों से प्रेरणा लेकर ही चल रहा है। आज के प्रयोगों का क्षेत्र वह ग्रामीण जीवन भी है, जो धीरे-धीरे कुछ नए प्रभावों को आत्मसात् कर रहा है और जहाँ की परिस्थितियाँ और समस्याएँ प्रेमचन्द के समय से काफ़ी बदल गयी हैं, और वह नागरिक जीवन भी जो स्वयं अपनी ही खड़ी की हुई उलझनों से परेशान है और जिसमें द्वन्द्वों और प्रतिद्वन्द्वों की अनेकानेक धाराएँ फूटती रहती हैं। यदि सतह से देखा जाए तो भले ही वह जीवन शिथिल और गतिहीन प्रतीत हो, परन्तु बारीक निगाह से देखने पर शायद उसमें इतनी हलचल देखी जा सकती है, जितनी पहले कभी नहीं रही। इसका कारण है राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ और उनके साथ सम्बद्ध मूल्यों का जल्दी-जल्दी बदलना। जिस काल में परिस्थितियाँ हर तीन-चार वर्ष में जीवन को एक झटका दे जाती हों और एक साधारण सामाजिक व्यक्ति किसी निश्चित सूत्र को पकडक़र अपना सन्तुलन बनाये रखने में असमर्थ हो गया हो, जबकि व्यक्ति की योग्यता और जीवन में उसकी उपलब्धि का सम्बन्ध टूट गया हो, जबकि हर एक की भविष्य की खोज अन्धी गली में हाथ मारने की तरह हो, उस समय को छोडक़र एक लेखक के अध्ययन और चित्रण के लिए उपयुक्त और कौन समय हो सकता है? वास्तव में जीवन की संकुलता आज के कहानीकार के लिए एक चुनौती है। वह उस चुनौती को स्वीकार करे और इस पंकिल जीवन की गहराई में डुबकी लगाने का साहस करे तो वह रोम्या रोलाँ के मार्केट प्लेसजैसी रचना प्रस्तुत कर सकता है, या उससे भी कहीं अधिक बारीक रेखाएँ उघाडक़र रख सकता है, क्योंकि बीते हुए कल की साहित्यिक उपलब्धियाँ आज के लेखक के लिए आदर्श नहीं बल्कि आरम्भ का संकेत होती हैं। यह वह स्थान है जहाँ से उसकी दौड़ का श्रीगणेश होता है।

हमें यह खेद के साथ स्वीकार करना होगा कि जीवन के यथार्थ से प्रेरणा ग्रहण करते हुए भी हमारी आज की पीढ़ी उस यथार्थ के साथ पूरा न्याय नहीं कर सकी। बंगाल के अकाल से लेकर आज तक जीवन में इतने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं कि उनकी प्रेरणा कितनी ही अमूल्य कृतियों को जन्म दे सकती थी। परन्तु हमारी इस पीढ़ी ने यथार्थ के अपेक्षाकृत ठहरे हुए अर्थात् पारिवारिक रूप को अपनी रचनाओं में अधिक स्थान दिया है और निरन्तर कुलबुलाते और संघर्ष करते हुए उसके सामाजिक पाश्र्व की ओर कम ध्यान दिया है। यदि हम इस पीढ़ी के सामूहिक कृतित्व को सामने रख लें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि हमारे समय का एक बहुत व्यापक भाग अछूता रहा जा रहा है जिसकी पहचान और पकड़ हमारे लेखकीय दायित्व का अंग है।

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[संचयन-मुख्य सूची]

कहानी क्यों लिखता हूँ

क्यों?...इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है। जीवन में हम कोई भी काम क्यों करते हैं? हँसते क्यों हैं? रोते क्यों हैं? प्रसन्न, चिन्तित या व्याकुल क्यों होते हैं? इसका एक मात्र उत्तर यही है कि ऐसा होना स्वाभाविक है। जीवन की हर परिस्थिति की हम पर कोई न कोई प्रतिक्रिया होती है। हम कितना भी चाहें उस प्रतिक्रिया से बच नहीं सकते। हवा चलती है तो वृक्ष के पत्ते अवश्य हिलते हैं। यह पूछने से कि भाई इस तरह क्यों हिलते हो, वे क्या उत्तर देंगे? यही कि हम बने ऐसे हैं कि हवा का स्पर्श हमें चंचल कर देता है।

हममें से हर व्यक्ति प्रतिदिन का जीवन जीता हुआ बहुत कुछ महसूस करता है, बहुत कुछ सोचता है। परन्तु हर व्यक्ति की महसूस करने और सोचने की प्रक्रिया अपनी-अपनी होती है और इसलिए परिणाम भी अलग-अलग होता है। कोई केवल घुटकर रह जाता है, कोई हँस-रोकर बात टाल देता है, कोई परिस्थितियों से जूझने के लिए क्षेत्र में उतर आता है और कोई उनके सम्बन्ध में लिखकर सन्तुष्ट हो लेता है। मुझे जीवन के सम्बन्ध में अपनी प्रतिक्रियाओं को लिखकर व्यक्त करना स्वाभविक लगता है इसलिए मैं लिखता हूँ। कहानी क्यों लिखता हूँ, इसका उत्तर देने के लिए अपने आज तक के जीवन के कुछ टुकड़े इकट्ठे करना आवश्यक होगा।

जब हम पाँचवीं या छठी जमात में पढ़ते थे तो बाज़ार से सखी लुटेराऔर बहराम डाकूजैसे उपन्यास घर वालों से चोरी से किराये पर लाकर पढ़ा करते थे। उन दिनों हमें भी अपने पैरों के नीचे की सारी ज़मीन सुरंगों और तहख़ानों से भरी प्रतीत होती थी और हम उन तहख़ानों के रहस्योद्घाटन की बातें सोचा करते थे। हम दो साथी थे। बाज़ार में बहराम डाकू की ज़िन्दगी के जितने उपन्यास मिल सकते थे वे सब पढ़ चुकने पर हम दोनों इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उससे आगे की उसकी ज़िन्दगी का वृत्तान्त लिपिबद्ध करने का दायित्व अब हम पर ही है और हम दोनों ने मिलकर इस काम को कर डालने का निश्चय किया। पहली किस्त लिखकर मैंने अपने उस मित्र को दे दी कि वह दूसरी किस्त लिखे। मगर उसका भविष्य उसे एक साबुन के कारख़ाने की तरफ़ ले जा रहा था, इसलिए वह दूसरी किस्त कभी नहीं लिखी गयी। इस बात पर उससे लड़ाई हो गयी और बहराम डाकू सदा के लिए तहख़ाने में बन्द हो गया।

कॉलेज के दिनों में मुझे कविता लिखने का शौक़ पैदा हुआ। एक तो इसलिए कि कविता ही एक ऐसी चीज़ है जो सुनायी जा सकती है और उन दिनों सुनाना हमारे लिए लिखने से अधिक महत्त्वपूर्ण था, और दूसरे इसलिए कि हमें विश्वास था कि साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग कविता ही है। यह विश्वास मैं समझता हूँ कि हिन्दी के बहुत-से आलोचकों को अभी तक बना हुआ है जो साहित्य की चर्चा करते समय वाल्मीकि से आरम्भ करते हैं और नई प्रयोगशील कविता पर आकर दम तोड़ देते हैं। उन दिनों की मेरी कविताएँ या तो उस समय की प्रचलित शैली का अनुकरण-मात्र थीं, या व्यंग्यात्मक। परन्तु शीघ्र ही मुझे महसूस होने लगा कि मैं जब ईमानदारी से लिखता हूँ तो कविता कविता नहीं रहती...उसमें बहुत अंश तक प्रकथन और विवरण आ जाता है। परिणामत: यूनिवर्सिटी के जीवन में मैंने कहानी लिखना आरम्भ किया। उसके बाद ज्यों-ज्यों जीवन और जीवन को प्रभावित करनेवाली परिस्थितियों से अधिक गहरा परिचय हुआ, मैंने यह पाया कि अपने और दूसरों के जीवन के जो सूक्ष्म द्वन्द्व और अन्तर्द्वन्द्व मेरे सामने आते हैं, वे सब बातें जो मुझे दुखी, प्रसन्न या उदास छोड़ जाती हैं, उन्हें मैं कहानी के माध्यम से अधिक सफलतापूर्वक व्यक्त कर पाता हूँ। यूँ तो पिछले दस वर्ष में मैंने कहानी के अतिरिक्त नाटक और निबन्ध भी लिखे हैं, परन्तु किसी भी परिस्थिति को ठीक से पकड़ पाने या अभिव्यक्त कर पाने का जो सन्तोष मुझे कहानी लिखकर मिलता है वह दूसरी रचनाओं में नहीं मिलता। यद्यपि कहानी की कलात्मक सीमाएँ अपना अंकुश लगाये रखती हैं...क्योंकि कहानी ही एक ऐसी चीज़ है जिसके बिखर जाने की बहुत सम्भावना रहती है और कई बार व्यक्ति स्वयं भी नहीं पहचान पाता कि वह जो लिख रहा है वह केवल एक स्केच या रिपोर्ताज ही तो नहीं...फिर भी कहानी लिखने में मैंने यह सुविधा पायी है कि जीवन के किसी भी टुकड़े, किसी भी मूड, किसी भी चरित्र या किसी भी घटना को कहानी के अन्तर्गत ईमानदारी से उतारा जा सकता है। कहानी छोटी भी लिखी जा सकती है और बड़ी भी, मगर बात उस नुक़्ते को पकडऩे की है, जीवन के उस व्यंग्य, संवेद, विरोध या अन्तर्विरोध को शब्दों में उतारने की है जो कई बार अपनी सूक्ष्मता के कारण पकड़ में नहीं आता। बात वही साधारण होती है। वही जीवन हम सब जीते हैं। लगभग एक-सी परिस्थितियों से हम सभी को गुज़रना पड़ता है। कोई भी अच्छी कहानी हम पढ़ें, जीवन का वह खंड-सत्य हमारे लिए अपरिचित नहीं होता। उस सत्य को कैसे उठाना है, कितनी बात कहनी है और किन सार्थक शब्दों में कहनी है...यह जानना ही सम्भवत: कहानी कहने की कला है। हम जानते हैं कि अपरिचित और असाधारण जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ उतनी लोकप्रिय नहीं होतीं जितनी साधारण, रोज़मर्रा के जीवन को चित्रित करनेवाली रचनाएँ। मैं साधारण जीवन जीता हूँ और हर दृष्टि से एक बहुत साधारण व्यक्ति हूँ। इसलिए भी कहानी लिखना, अपनी इस साधारणता के वातावरण को कहानी में ढालना, मुझे बहुत स्वाभाविक लगता है।

कुछ ही दिनों की बात है, लखनऊ में मेरे एक मित्र जो एक सुपरिचित कहानीकार हैं, मुझसे कह रहे थे कि बम्बई में रहते हुए वे जब भी दादर के लम्बे पुल पर से गुज़रे हैं तो उनका मन हुआ कि उस पुल के जीवन के एक क्षण को किसी कहानी में कैप्चरकरें, मगर यह चीज़ अभी तक उनसे बन नहीं पायी। बहुत साधारण-सी बात है लेकिन यह दो बातों पर प्रकाश डालती है। पहली बात तो यह कि कहानी लिखनेवाले को रास्ता चलते कहीं कहानी मिल सकती है...कोई भी साधारण पदार्थ कहानी के नायक के रूप में अपने को उसके सामने प्रस्तुत कर सकता है। और दूसरी बात यह कि उस साधारण पदार्थ की कहानी लिख देना लेखक के लिए उतनी आसान और साधारण बात नहीं होती। साहित्यिक आलोचक तो उसकी प्रताडऩा बाद में करेंगे, सबसे पहले उसे डाँट बतानेवाला और उसकी दिनों की मेहनत पर सिर हिला देनेवाला एक आलोचक उसके अपने अन्दर ही रहता है। साहित्यिक आलोचक तो यही जानता है कि उसने क्या और कितना लिखा है, परन्तु वह अन्दर का आलोचक यह भी जानता है कि वह क्या लिखना चाहता था और नहीं लिख पाया। उससे न वह कुछ छिपा सकता है, और न ही किसी तरह की व्याख्या से उसे सन्तुष्ट कर सकता है। मेरे मन में प्राय: कहानी लिखने के बाद यह असन्तोष उत्पन्न होता है कि वह बात नहीं बनी जो मैं चाहता था, कहीं कुछ कम है या और का और हो गया है। कई बार दो-दो, तीन-तीन दफ़ा लिखकर भी सन्तोष नहीं होता। इस तरह अपने मस्तिष्क से सदा बैर चलता है। जो कुछ बाहर दिखाई देता या जो कुछ महसूस होता है, उसके चित्र या प्रभाव मस्तिष्क आसानी से अपने में समेट लेता है, परन्तु शब्द जब उन्हें व्यक्त करने लगते हैं तो दोष निकालने का बीड़ा उठा लेता है। कहानी लिख चुकने पर जब मुझे महसूस होता है कि बात नहीं बनी तो झुँझलाकर लिखे हुए काग़ज़ों को तो फाड़ ही देता हूँ, साथ चाहता हूँ कि दोष ढूँढऩे में दक्ष अपने इस मस्तिष्क को भी कुछ सजा दूँ। मगर मैंने पाया है कि हर नष्ट की हुई रचना मुझे और परिमार्जित करती है, हर असफल प्रयत्न कहीं से मुझे सँवार देता है। कभी-कभी मन कहता है कि यह सारा झंझट क्यों मोल लेते हो...इस तरह अपने से ही जूझते जाने में क्या रखा है? मगर दूसरे ही क्षण मैं यह पाता हूँ कि मेरी यह झुँझलाहट भी एक कहानी का विषय है...कहानी न कह पाने की असमर्थता पर भी एक सुन्दर कहानी लिखी जा सकती है।

और इसी तरह यह क्रम चलता रहा है और चल रहा है। मैंने बहुत लोगों से सुना है कि सारे जीवन और साहित्य में कुछ थोड़ी-सी ही तो कहानियाँ हैं जिन्हें हर लेखक बार-बार लिखता है...वही प्रेम, वही ममता, वही ईर्ष्या, वही राग-द्वेष...सब कुछ आदिम काल से आज तक वही है। थोड़ी-सी हेर-फेर के साथ हर कहानी किसी न किसी पहले की कहानी की पुनरावृत्ति होती है। मगर मुझे स्थिति आज तक इससे सर्वथा विपरीत प्रतीत हुई है। मुझे सदा यही लगा है कि जीवन ने मुझे इतनी कहानियों की पूँजी दी है कि सारा जीवन लिखता रहूँ तो भी वे सब कहानियाँ नहीं लिखी जाएँगी...केवल समय के अभाव के कारण ही नहीं, बल्कि इसलिए भी कि बहुत सी कहानियाँ हैं जो हज़ार चाहने पर भी नहीं बन पातीं, या वैसी नहीं बनतीं जैसी लिखते समय कल्पना होती है। इसलिए यह अपने जीवन से जीवन-भर की होड़ है। इस होड़ में मैं हारना नहीं चाहता। जब कहानी नहीं भी लिखता तो सोचता अवश्य हूँ कि यह या वह कहानी अभी लिखनी रहती है। बन पड़ता है तो लिख डालता हूँ और नहीं बन पड़ता तो यह विश्वास किये जाता हूँ कि कभी-न-कभी अवश्य लिखूँगा।

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[संचयन-मुख्य सूची]

समकालीन हिन्दी कहानी : एक परिचर्चा *

(*इस परिचर्चा का आयोजन श्री रमेश गौड़ ने मासिक ‘केन्द्रके लिए किया था)

चर्चा के बिंदु

  1. ह्यूमन क्राइसिस और समकालीन हिन्दी कहानी
  2. भारतीय सभ्यता बनाम हिन्दी-कहानी
  3. भारतीयता और समकालीन हिन्दी-कहानी
  4. आज का युग : कहानी और कविता के सन्दर्भ में
  5. कहानी के सामान्यत: स्वीकृत मूल तत्त्व और समकालीन कहानी
  6. तथाकथित ‘साहित्यिक’ बनाम ‘लोकप्रिय’ कहानी
  7. लेखक की प्रतिबद्धता
  8. नए कहानीकारों का भाषा-भेद
  9. नवलेखन और विदेश का अनुकरण
  10. कथा-दशक : वक्तव्य और कहानियाँ
  11. नई कहानी : उपलब्धि और जीवन-दर्शन
  12. नई कहानी : एक पैटर्न 

1. ह्यूमन क्राइसिस और समकालीन हिन्दी कहानी

रमेश गौड़ : यान्त्रिकताजन्य जिस ह्यूमन क्राइसिस का सामना जिस स्तर और गहराई पर सार्त्र, कामू और काफ्का आदि पश्चिमी कथाकारों को करना पड़ा था, क्या समकालीन हिन्दी-कहानीकार भी उसी स्तर और गहराई पर कर रहा है?—और अगर हाँ, तो वह उससे मुक्ति पाने की दिशा में क्या हल पेश करना चाहता है, या कर रहा है?

भीष्म साहनी : इस युग को तकनीकी युग की संज्ञा देना तो ठीक है, पर इस युग की समस्याओं को तकनीकजनित मानना ग़लत है। जिस ह्यूमन क्राइसिस का आपने ज़िक्र किया है, वह यान्त्रिकताजन्य नहीं है। पिछले दो विध्वंसकारी महायुद्धों का भी मूल कारण तकनीक या यान्त्रिकी नहीं था। तकनीक बोतल से निकला वह जिन्ननहीं है, जो एक बार निकलकर मनुष्य के नियन्त्रण से बाहर हो जाए और मानव-जाति के लिए संकट खड़ा कर दे। तकनीक के कारण जीवन की परिस्थितियाँ बदली हैं, लेकिन तकनीक मूलत: मानवीय सम्बन्धों की शत्रु नहीं है। हमारे अपने देश में हमारी समस्याएँ क्या यान्त्रिकताजन्य हैं? क्या हमारी आबादी की समस्या तकनीक-जनित है?—और क्या हम बिना तकनीक के अपनी समस्याओं को हल कर पाएँगे? तकनीक के कारण संकेन्द्रण बढ़ा है, विध्वंसकारी हथियार भी बढ़े हैं, पर तकनीक के कारण मनुष्य सितारों के बीच भी जा पहुँचा है, तकनीक से मानव-जीवन को अधिक सुखी बनाने की सम्भावनाएँ भी बढ़ी हैं।

          इसके अतिरिक्त, दूसरे महायुद्ध के परिणामों और नए युद्ध की आशंका से पीडि़त पश्चिमी यूरोप की जनता की मन:स्थिति और सदियों की दासता की $जंजीरों को तोडक़र उठ रहे अफ्रीका की जनता की मन:स्थिति क्या एक-सी है? मैं नहीं मान सकता कि दो सौ साल पुरानी  औद्योगिक सभ्यता वाले जर्मनी और सत्रह साल के औद्योगिक प्रयासों वाले भारत का वातावरण, जीवन की गति और अनुभव आदि एक से होंगे।

मोहन राकेश : इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि ह्यूमन क्राइसिस का जो रूप पश्चिमी देशों में है, उस रूप में हमने उसे नहीं भोगा है। हमारे यहाँ उसका रूप अप्रत्यक्ष और उसकी गति धीमी रही है। सच बात तो यह है कि हमने पश्चिम वालों द्वारा पैदा की गयी परिस्थितियों को अधिक भोगा हैदूसरे शब्दों में मैं इसी बात को यों कह सकता हूँ, कि हमने परिस्थितियों की परिस्थितियों को भोगा है। पश्चिम द्वितीय विश्वयुद्ध-जनित संवेदना को उसी प्रकार भोग रहा है, जिस प्रकार हम आज को भोग रहे हैं।

          जहाँ तक उसी स्तर और गहराई की तुलना का प्रश्न है, तुलना करना मुझे स्वभावत: अखरता है। उसी जैसा होना ग़लत ही नहीं, बल्कि बहुत ही घटिया स्थिति लगती है। हाँ, मैं समानान्तर रेखाओं के रूप में उस स्थिति के बारे में सोच-समझ सकता हूँ और बातचीत कर सकता हूँ। समानान्तर रेखाओं से मेरा अभिप्राय पश्चिमी देशों और अपने यहाँ की छटपटाहट, यन्त्रणा और संवेदना के स्तर की रेखाएँ हैं। अनुभव हमेशा समय-सापेक्ष होता है। हम चूँकि पिछले 15-16 वर्षों से अपने अलग धरातल पर कई संश्लिष्ट परिस्थितियों को भोग रहे हैं, इसलिए हमारे अन्दर का क्राइसिस पश्चिम और वहाँ के लेखकों के क्राइसिस से भिन्न है।

          यान्त्रिकता के महत्त्व को मैं नकारना नहीं चाहता। विज्ञान की उपलब्धियों का एक मानव-पक्ष भी हैउससे बोध के धरातल विस्तृत करने के अवसर मिलते हैं। उन लोगों ने अपने परिवेश में ह्यूमन क्राइसिस को भोगा है, और   हमने अपने परिवेश में। और दोनों ने ही समय और परिवेश की छटपटाहट को अपने-अपने ढंग से अभिव्यक्त किया हैइसलिए तुलना का प्रश्न मेरे सामने नहीं है।

          जहाँ तक मुक्ति पाने की दशा का सम्बन्ध हैलेखक दार्शनिक या वैज्ञानिक की तरह तर्क या प्रयोग के आधार पर दिशा नहीं देता। मैं चूँकि लेखक को एक अर्धचेतन प्रक्रिया मानता हूँ, इसलिए यह भी मानता हूँ कि दिशा देनेया दिशा देनी चाहिएका बोध रचना-प्रक्रिया में नहीं होता। लेखक के मन में या तो समर्पण की भावना होती है या फिर विद्रोह की। एक अकेला आदमी किसी अँधेरी घाटी में पहुँच जाने पर उसी को सत्य या शाश्वत मान लेता है और उसके समक्ष आत्म-समर्पण कर देता है, जबकि दूसरा व्यक्ति समूची पीड़ा को वहन-सहन करता हुआ उसे नकार सकता है, उसका विरोध कर सकता है या फिर उसके प्रति विद्रोह कर सकता है। वह समाज के दूसरे व्यक्तियों के साथ सहभागिता के माध्यम से समूची पीड़ा को भोगता है। इसलिए साहित्य में हमेशा दो दिशाएँ रहती हैंसमर्पण की दिशा और नकारने या विद्रोह की दिशा। मेरी दिशा दूसरी है, क्योंकि मेरे लिए वह अनिवार्य है। जिस दिन मुझमें जूझने की आकांक्षा नहीं रहेगी, उस दिन लिखने की आकांक्षा भी नहीं रहेगी।

राजेन्द्र यादव : मेरे विचार से यहाँ तक तो बात सही है कि हम ह्यूमन डैस्टिनी से कन्संर्डया उसमें इन्वाल्व्डहैंविश्व की कोई भी समस्या हमें प्रभावित कर सकती हैचाहे वह नीग्रो समस्या हो या परमाणु परीक्षणलेकिन उस समस्या को अपने नैतिक और आध्यात्मिक स्तर पर जीना हमारे लिए तब तक सर्वथा असम्भव है, जब तक कि वह हमारे चेतना-बोध का हिस्सा न बन जाए। हमने ह्यूमन क्राइसिस को बौद्धिक स्तर पर भोगा है, चेतना के स्तर पर नहीं।

          —और चूँकि कथा-साहित्य जीवित बिम्बों के माध्यम से जीवन को पकड़ता है, इसलिए कोई भी लेखक किसी अनुभव को पहले अपने अन्दर समोता है और फिर उसका पुनर्सृजन करता है, अत: व्यक्तिगत रूप से भोगे ब$गैर किसी क्राइसिस का चित्रण लेखनीय कर्तव्य-कौशल का निर्वाह-भर ही हो सकता हैउसे कोई अर्थ-सन्दर्भ दे देना हमारे लिए एकदम असम्भव है।

          जॉन मास्टर्स ने भारतीय समाज के बारे में 36 उपन्यास लिखने का प्रण किया थालेकिन उसके यहाँ यथातथ्य चित्रण तो खूब था मगर भारतीय समाज की आत्मा ग़ायब थी। जिस प्रकार मैं यह नहीं मानता कि कोई विजिटरकुछ महीने या वर्ष किसी देश में रहकर वहाँ के समाज के बारे में सच्ची कृति की रचना कर सकता है, ठीक उसी प्रकार पश्चिमी लेखकों द्वारा भोगे गये ह्यूमन क्राइसिस को भारतीय लेखक द्वारा उसी स्तर पर भोगे जाने की बात भी मैं नहीं मानता।

रमेश गौड़ : क्या पर्लबक के गुड अर्थमें भी आपको लेखिका का दृष्टिकोण महज एक विजिटरका दृष्टिकोण जान पड़ता है?

राजेन्द्र यादव : हाँ, मुझे तो ऐसा ही लगता है। सच बात तो यह है कि किसी भी देश की भाषा में ही वहाँ का जीवन देखा जा सकता है। मेरे तईं भाषा महज एक माध्यम (मीडिया) नहीं, बल्कि एक जीवन्त प्रक्रिया (लिविंग-प्रौसेस) है।

रमेश गौड़ : तो क्या आप ऐसी कृतियों को म्यूजियम-पीसया एक्जीबिट-भर समझते हैं?

राजेन्द्र यादव : हाँ, क्योंकि उनमें से तादात्म्य से पैदा होनेवाला स्पन्दन गायब होता है।

रमेश गौड़ : तो क्या कोई अनुभव या यथार्थ चेतना का अंग तभी बन सकता है, जब आपने उसे निजी तौर पर भोगा या सहा हो? मेरा मतलब फस्र्ट हैंड एक्सपीरियंस से है।

राजेन्द्र यादव : हाँ! जिस यथार्थ का आप चित्रण करने जा रहे हैं, वह आपका अपना यथार्थ होना चाहिए।

          कोई भी अनुभव या यथार्थ या क्राइसिस कृतियों के माध्यम से चेतना का अंग नहीं बन सकता है, क्योंकि मेरे लेखन के झूठ को भी एक विदेशी साहित्यकार या पाठक यथार्थ के रूप में स्वीकार कर लेगा।

          हम जो इतिहास के खंडहरों को चेतना के स्तर पर नहीं जी पाते, उसका भी यही कारण हैहालाँकि उनके सम्बन्ध में पूरी जानकारी, डाक्यूमेंट्स आदि हमारे पास होते हैं। इसलिए पश्चिमी लेखकों द्वारा भोगे गये क्राइसिस को उस रूप में भोगने का सवाल ही नहीं उठता और इसलिए आपके प्रश्न का उत्तराद्र्ध मेरे लिए प्रश्न ही नहीं है।

कमलेश्वर : मुझे तो एक बात और भी लगती है और वह यह कि हमने यान्त्रिकताजन्य ह्यूमन क्राइसिस की बजाय, विदेशी यान्त्रिकताजन्य आर्थिक दबाव को अधिक महसूस किया है। हिन्दी-कथाकार बड़े शहरों में मानसिकता को टटोलने नहीं, ज़िन्दगी की ज़रूरतों को पूरा करने आया है। जो ह्यूमन क्राइसिस की बात करते हैं, वे उसे या तो इन्फ्लेटिड रूप में स्वीकार कर रहे हैं या इतने घोर व्यक्तिवादी हैं कि विदेशी मशीनें उन पर हावी हैं।

          वहाँ की यान्त्रिकता हमारी चिन्ता का कारण तो हो सकती है, हमारा वण्र्य विषय नहीं। इसलिए मुक्ति पाने का प्रश्न मेरे सामने दूसरे रूप में आता हैवह मेरे लिए रूढ़ संस्कृति, साम्प्रदायिकता और आर्थिक, मानसिक कारणों से उत्पन्न बदलते हुए सम्बन्धों के सन्तुलन को प्राप्त करने का प्रश्न है। हमारे यहाँ जो यान्त्रिकता आयी है, वह बहुत कुछ सामाजिक रूप से बदले हुए परिवेश या उन स्थितियों के कारण है, जो हमारे ऊपर राजनैतिक योजनाओं द्वारा सरकारी या $गैर-सरकारी स्तर पर फिलहाल लाद दी गयी है और जिसका सामंजस्य अभी ज़िन्दगी से नहीं हो पाया है।

          यान्त्रिकता जहाँ जीवन की मूल धारणाओं को बदलती हैवह स्थिति अभी हमारी नहीं है। अभी हम उस प्रक्रिया (प्रौसेस) को आते हुए केवल देख-भर रहे हैंहमने उसे अनुभव के स्तर पर नहीं झेला है।

ओमप्रकाश दीपक : और मैं तो यह भी मानता हूँ कि इस ह्यूमन क्राइसिस को उस तरह न झेलने से हिन्दी कहानी को कोई नुक़सान नहीं हुआ है। वास्तविकता इतनी ही नहीं है कि विदेशी संवेदनशील कथाकार ने जिस क्राइसिस का सामना किया है, हिन्दी-लेखक ने नहीं किया, बल्कि यह भी कि वह कर भी नहीं सकता है क्योंकि यूरोप के ऊपर अतीत का वह बोझा नहीं है, जो हमारे ऊपर है। हिन्दुस्तान में यान्त्रिकता एक क़लम लगा हुआ पौधा हैबल्कि क़लम लगा हुआ भी नहीं, एक नकली रूप से लगाया हुआ पौधा है, जिसमें स्वत: बढऩे और फूलने-फलने की क्षमता नहीं है।

मार्कण्डेय : मेरी समझ में तो यह भी नहीं आता कि फिलहाल सार्त्र, कामू, काफ्का और यान्त्रिकताजन्य मानवीय संक्रान्ति से हमारे आज के समकालीन समाज और समकालीन लेखक का क्या मतलब हो सकता है! ऐतिहासिक विकास और जातीय संस्कृति के हिसाब से भी हमारे सामने आज दूसरी समस्याएँ हैं। अभी कल तक तो हमने नई कहानी को आत्म-प्रवंचना से मुक्त होते नहीं देखा है और उसे न भी देखें तो कुछ बनता-बिगड़ता इसलिए नहीं कि बीतता हुआ कलहम सभी लोगों के भीतर प्रविष्ट है। प्रश्न सिर्फ़ कलको कलमानने का है, हमारे लिए तो और भी, क्योंकि हमें ऊपर देखने की आदत विरासत में मिली है। ऊध्र्वमुखता को छोडक़र अगल-अगल देखने और अपने को, अपने समाज को समझने में नए आर्थिक विकास ने नई बाधाएँ ला खड़ी की हैं। कहो कि सर मुड़ाते ही ओले पड़े हैं; और खूब पड़े हैं। नया लेखक अपने सामाजिक परिवेश का विन्यास करे, न करे कि पहले ही से समाज का एक नया विन्यास लिये लोग खड़े हैं। ये साधारण लोग नहीं हैं। ये आपकी जुबान काटकर अपने मुँह में चिपका सकने वाले ही नहीं, उसे हर तरह से अपनी सिद्ध कर देने वाले लोग हैं।

          इसलिए सिर्फ दो ही सवाल सामने हैंमरें या करें! आप पूछेंगे, क्या? तो उत्तर होगासमझौता, काम नहीं। इसे ज़रा और गहरे उतरकर कहें तोवह न बने रहें जो हैं, वरन् बाह्य दबावों में अपने को ढालें, पिसें नहीं, किसी तरह जी जाएँ। तो भाईजान, चुनाव रोटी और समझौते में है, चुनाव असली और नकली में हैयानी यथार्थ के साथ होने का मतलब है मरण; और मरना भला किसे प्रिय होगा?

          ‘मूल्योंकी बात तो साधन और छिपाव है। यदि बाज़ार में लाल रंग पोतने पर भाव चोखा रहे तो फिर लाल होकर घूमने ही में ठीक है। मूल्यों का मूल्य इस शोर के सन्दर्भ में इतना ही है, यान्त्रिकताजन्य संक्रान्ति का भाव यहीं तक है। अशिक्षा, गरीबी और घोर अन्धविश्वासों के साथ पूँजीवाद नया रंग ला रहा है।

मुद्राराक्षस : और जिस देश में बयासी प्रतिशत लोग हल चलाते हैंकृषि-निर्भर और ग्रामवासी हैंवहाँ यन्त्रयुगीन सामाजिकता की बात क्या अतिरंजना नहीं है? क्या मुट्ठी-भर बुद्धिजीवियों द्वारा प्रतिध्वनित यह शब्द अथवा प्रतिक्षिप्त यह संवेदना हमारे समाज की हो सकती है? क्षमा करना मित्र, आज का हमारा समाज-बोध यान्त्रिकता से नहीं, व्यावसायिकता सेबाजारूपन से पैदा हुआ है। तभी न हम हर तीसरी बात मूल्यो से सम्बन्धित कहते पाये जाते हैं। अर्बनाइजेशन तो हिन्दी कहानीकार का हुआ ही नहीं। वह उपजाता है और बेचता है। इसलिए खेत जानता है और बाज़ार। नागरीकृत संस्कृति की जटिलता उसने जी नहीं है। हाँ, कहीं-कहीं ग्रामीण-सुलभ जिज्ञासा उसमें ज़रूर दीखी है, जिसके कारण वह उखड़े’, ‘बदलते’, ‘टूटतेजैसे शब्दों का प्रयोग करता है!

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2. भारतीय सभ्यता बनाम हिन्दी-कहानी

रमेश गौड़ : समकालीन हिन्दी-कहानी को आप भारतीय सभ्यता का अग्रगामी समझते हैं या पश्चगामी?

मार्कण्डेय : भारतीय सभ्यता जैसी कोई चीज़ यदि हमारे समकालीन जीवन से परे हो, तो मैं उसे नहीं पहचानता। वैसे इतना ज़रूर कहता हूँ कि किसी समाज में रचना करने वाले सच्चे रचनाकार की रचना हमेशा उस समाज की अग्रगामी रहती है।

राजेन्द्र यादव : मैं भारतीय सभ्यता और हिन्दी-कहानी दोनों को ही एक-दूसरे के लिए अपरिहार्य तो मानता हूँजहाँ भारतीय सभ्यता के अभाव में हिन्दी-कहानी की रचना असम्भव है, वहाँ इस कहानी के अभाव में भारतीय सभ्यता की भी कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन आगे-पीछे होने का सवाल मेरे सामने नहीं आता। दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं और साथ-साथ विकास करती हैं।

भीष्म साहनी : यहीं पर एक बात औरभारतीय सभ्यता आखिर है क्या? वेद-उपनिषद्-गीता का सूक्ष्म चिन्तन, इतिहास के अनेक गौरवपूर्ण पन्ने, महान् कलाकारों की अनुपम कृतियाँ अथवा जात-पाँत, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता? लेखक किसका अग्रगामी बने?

          भारतीय सभ्यता कोई जड़ अवधारणा नहीं है, कोई बुना-बुनाया कम्बल भी नहीं है, जिसे लेखक ओढ़ ले। किसी भी देश की सभ्यता लेखक के लिए उसका परिवेश बनकर, उसके संस्कार बनकर उसके दृष्टिकोण को प्रभावित करती है। उसी में साँस लेकर वह बड़ा होता है, लेकिन लेखक के नाते वह उसका प्रचारक नहीं होता। इस तरह कोई भी लेखक अपने देश की सभ्यता का अग्रगामी या पश्चगामी नहीं होता।

मोहन राकेश : मैं इस अग्र और पश्चगामिता के प्रश्न को कुछ दूसरे रूप में लेता हूँ। किसी भी कलाकार के अभिव्यक्ति के प्रयोग पश्चगामी इसलिए होते हैं क्योंकि वे इतिहास से प्रभाव ग्रहण करते हैं। लेकिन अगर कोई लेखक स्वयं को वहीं तक सीमित रखता है तो उसकी रचना अधिक से अधिक अच्छा अनुकरण हो सकती है, एक महान (मास्टरपीस) कलाकृति नहीं। जो कलाकृति अपने समय को, उसके सारे प्रभावों को ईमानदारी के साथ अभिव्यक्त करती है, वह कलाकार के आंतरिक रूप को भी लिये रहती है, जिसके अभाव में कोई भी कलाकृति अर्थहीन हो जाती है। और जिस मात्रा में वह कलाकार को और बाकी सब कुछ से अलग करती है, उसी मात्रा में वह अग्रगामी होती है।

          अग्रगामिता कोई अलगाव नहीं हैइससे मेरा अभिप्राय आगे निकल जाने या पीछे छूट जाने से नहीं हैमैं उसे उसी अर्थ में अग्रगामी मानता हूँ, जैसे कि आने वाले कल के यथार्थ का बीज आज मुझमें है, उसी प्रकार प्राप्त में ही प्राप्य का बीज निहित रहता है। वह उसी में से ग्रोकरता है, उससे अलगहवा मेंउसका कोई अस्तित्व नहीं होता।

          देश-काल के प्रभावों को आत्मसात करके और अपने व्यक्तित्व की विशिष्ट देन से इनमें से कुछ लेाग आगे आने वाले कल की दिशा का संकेत भी दे सकते हैं। मैं प्रेमचन्द को एक समर्थ यथार्थधर्मिता का कथाकार मानते हुए भी यह मानता हूँ कि यथार्थ में उनकी आस्था आदर्श के लिए ही थी। उनके लिए यथार्थ साधन था और आदर्श साध्य है। हमारे साथ स्थिति दूसरी हैहमारे लिए यथार्थ साधन न होकर, साध्य है और वह भी ऊपर से आरोपित यथार्थ नहीं, वरन् अन्दर से पैदा होता यथार्थ।

रमेश गौड़ : आपका इस बारे में क्या विचार है, कमलेश्वर भाई?

कमलेश्वर : भारतीय सभ्यता, न जाने क्यों, आज के ज़माने में एक बहुत सीमित अर्थ में महदूद दिखाई देती है। उसके बाहरी उपकरणपहनावा, रहन-सहन, खान-पान आज की विकसित स्थितियों से मेल नहीं खाते और उसके मूलभूत तत्त्व अर्थात् मानवीय तत्त्व लगभग सभी सभ्य देशों की सभ्यता में भी समाहित दिखाई पड़ते हैं। हाँ, इतना ज़रूर है कि हमारा कहानी-साहित्य निश्चय ही भारतीय जीवन-बोध को मूलत: स्वीकार करके ही चल रहा है। पश्चिमी रुग्ण मानसिकता के जो कुछ प्रभाव दिखाई पड़ते हैं, वे हिन्दी-कहानी की मुख्य धारा के अंग नहीं हैं। हमें यह स्वीकार करने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि समकालीन हिन्दी-कहानी ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान का बीड़ा नहीं उठाया। वह युद्ध और विभाजन के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के प्रति अधिक जागरूक रही है और अपने समय के यथार्थ को पहचानने की खोज में लगी रही है।

रमेश गौड़ : अग्रगामिता और पश्चगामिता की बात छूट गयी!

कमलेश्वर : इस सम्बन्ध में मैं यही कह सकता हूँ कि इसके साथ ही समकालीन हिन्दी-कहानी भविष्य के प्रति अनाश्वस्त नहीं है। जो कुछ आज की कहानी अभिव्यक्त कर रही है, वह जहाँ एक ओर समसामयिक जीवन-सन्दर्भों से जुड़ा हुआ है, वहीं उसमें भविष्य की एक रूपरेखा (आउट लाइन) के संकेत भी हैं। ऐसी हालत में कहानी अपने समय के साथ चलते हुए भी आने वालेकल से जुड़ी हुई भी है और वह मानव-शुभ की परिकल्पना को ही साथ लेकर चलती है।

ओमप्रकाश दीपक : मेरे विचार से तो भारतीय सभ्यता फिर से एक संक्रमणकाल से होकर गुज़र रही है। कम-से-कम पिछले ढाई हज़ार वर्षों से भारतीय सभ्यता ने अपने किसी द्वन्द्व का निर्णायक समाधन नहीं किया है। इस बार भी ऐसा होगा ही, मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता। गो, उम्मीद मुझे ज़रूर है कि हिन्दुस्तान अगले कुछ दिनों में नया हो सकेगा। हिन्दी कहानी में भी जाने-अनजाने यही स्थिति परिलक्षित होती है। ऐसी भी चीज़ें मिलती हैं, जो देखने-सुनने में चाहे जितनी अच्छी लगें, लेकिन हमको पीछे खींचने वाली होती हैं। दूसरी तरफ, ऐसी बहुत-सी चीज़ों की तरफ़ हमारा ध्यान नहीं जाता, या कम जाता है, जो अपना नवीकरण करने की हिन्दुस्तान की छटपटाहट को व्यक्त करती हैं। यह भी नहीं है कि नया हिन्दुस्तान बन गया हैयह भी नहीं कि हम बिल्कुल जड़ हैं। ऐसी भी कहानियाँ हैं, जिनमें यह छटपटाहट है कि हम सभ्यता की दृष्टि से अपने को जीवित करें, फिर से ज़िन्दा हों। दूसरी और ऐसी चीज़ें भी हैं, जो उसी जड़ता को बनाये रखनेवाली हैं, जो हमें विरासत में मिली हैं। बहुत-सी ऐसी चीज़ें होती हैं, जो नई लगती हैं लेकिन होती नहीं। इसके एकदम विपरीत भी होता है। कुछ प्रोग्रेसिव राइटर्स मध्यवर्गीय परिवार की धारणा के बड़े भक्त हैं, जबकि हिन्दुस्तान के नए होने के सन्दर्भ में अगर स्थिति बिल्कुल उलटी नहीं तो अप्रासंगिक अवश्य है।

रमेश गौड़ : इस सन्दर्भ में क्या कुछ कहानियों का नामोल्लेख कर सकते हैं?

ओमप्रकाश दीपक : इस प्रसंग में एक बड़ी ही दिलचस्प, मगर उतनी ही भ्रामक स्थिति यह है कि मैं लेखकों का विभाजन करना बहुत कठिन पाता हूँ, सिवाय कुछ मोटी-मोटी प्रवृत्तियों के सन्दर्भ में। मैंने अकसर यह देखा है कि एक ही लेखक की एक रचना अगर हिन्दुस्तान की छटपटाहट को व्यक्त करती है तो दूसरी एकदम दकियानूसी है। किसी भी कहानीकार को, इस मामले में अपवाद मानना मुश्किल होगा। जहाँ तक मूल विश्वासों का प्रश्न है, शायद सर्वेश्वर, रघुवीर सहाय, निर्मल, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, राकेश, रमेश बक्षी और भीष्म साहनी में कुछ विशेष अन्तर नहीं। ये सभी किसी न किसी हद तक संस्थापित सामाजिक संगठन के प्रति विद्रोही हैं। ये सभी मनुष्य और मनुष्य के बीच तथा स्त्री और पुरुष के बीच समानता में विश्वास करते हैं। लेकिन इसके साथ ही ये सभी कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में कुछ ऐसी चीज़ों के साथ भी जुड़े हैं, जो हमेशा इन मूल विश्वासों के साथ मेल नहीं खाती हैं। फलत: राकेश में कभी-कभी स्त्री-विरोधी प्रवृत्ति नज़र आती है, सर्वेश्वर कभी बहुत पिटी-पिटाई बात करते हैंअथवा सामान्य और विशिष्ट का सम्बन्ध अपनी कहानियों में जोड़ नहीं पाते। निर्मल ऐसा मानने की कोशिश करते हैं, जैसे भारतीय होने का उनके लिए कोई अर्थ न हो। इसी तरह के भटकाव तमाम हिन्दी-कहानीकारों में मिलेंगे।

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3. भारतीयता और समकालीन हिन्दी-कहानी

रमेश गौड़ : क्या समकालीन हिन्दी-कहानी में भारतीयताजैसा कोई तत्त्व अनिवार्य है?—और अगर हाँ, तो वह भारतीयता आख़िर है क्या?

कमलेश्वर : निश्चित रूप से है। वह भारतीयता हमारे साथ ऐतिहासिक संस्कार के रूप में मौजूद है। वह भारतीयता जीवन के आधारभूत मूल्यों के रूप में हमारे सामने हैवे मूल्य, जो अभी तक रूढ़ या क्षीण नहीं हुए हैं। किसी प्रमुख हिन्दी-कहानी में अब तक किसी पिता की हत्या बेटे द्वारा नहीं हुई या किसी माँ को वेश्या कहकर बेटे ने घर से नहीं निकाला है या किसी बहन ने अपनी यौन-पिपासा की तृप्ति अपने भाई में नहीं खोजी है। केवल पारिवारिक मूल्य ही नहीं, बल्कि सामाजिक या व्यक्तिगत मूल्यों में भी वह भारतीयता अब भी मौजूद है, और रहेगी।

रमेश गौड़ : इस दृष्टि से तो बात समकालीन ही क्यों, समूची हिन्दी-कहानी के बारे में कही जा सकती है!

कमलेश्वर : हाँ, भारतीयता के प्रति यह आग्रह शुरू से ही रहा हैव्यापक मानवीय स्तर पर भी हमारी कहानी में एक नितान्त भारतीय दृष्टिकोण प्रखर रहा है। उसने अधिकतर जीवन से उन्हीं पात्रों को अपने लिए चुना है, जो उसे वहन करते रहे हैं। उपजीवी पात्रों को ग्लोरीफाई करने का प्रयत्न हुआ ज़रूर था, जो कि भारतीय मानसिकता के अंग नहीं थेऔर वे पात्र आज हिन्दी-कहानी के मुख्य पात्र नहीं हैं। वे पात्र जैनेन्द्र और अज्ञेय के माध्यम से हमारे यहाँ आये थे, लेकिन आज उनका कोई वजूदएग्जिस्टेंसनहीं है।

ओमप्रकाश दीपक : मैं यह मानता हूँ कि अगर रूसी या अँग्रेज़ लेखक हिन्दी सीखकर हिन्दी में कहानी लिखे, तो हो सकता है कि उसके लिए यह तत्त्व अनिवार्य न हो। लेकिन चूँकि भाषा का संस्कार समाज के साथ-साथ होता है, इसलिए उसके लिए भी भारतीयता के संस्कार से अछूता रहना असम्भव है। किसी भी समूह की सदस्यता, और ख़ासतौर से किसी पुराने राष्ट्र की सदस्यता बड़ी पेचीदा चीज़ होती है। भारतीयता के अन्तर्गत मैं उन सभी तत्त्वों को शामिल करता हूँ, जिन्होंने प्रागैतिहासिक युग से लेकर आज तक इस देश को प्रभावित किया है।

मेरे लिए भारतीयता का अर्थ आज के भारतीय यथार्थ की भी स्वीकृति है और अतीत की भी, लेकिन यथार्थ को उसकी सम्पूर्णता में स्वीकार करना पड़ेगा। अतीत के भी कुछ हिस्सों को आज हम अमान्य ठहरा सकते हैं, ठहराना भी चाहिए, लेकिन हमारी विरासत का हिस्सा तो वे भी हैं ही।

राजेन्द्र यादव : मेरे लिए जीवन्त यथार्थ (लिविंग रिएलिटी) ही भारतीयता है, जो लोग अतीत को भारतीयता समझते हैं अथवा खंडहरों पर लिखी गयी कहानी को ही भारतीयता पर आधारित रचनाएँ मानते हैं, वे कुंठा से ग्रस्त हैं। जब आज की पोशाक, रहन-सहन, खान-पान सभी कुछ हमारे जीवन का अंग हैं, तो वे अभारतीय कैसे हो गये? भारतीय सभ्यता को अतीत समझना ग़लत है, दक़ियानूसी है।

मोहन राकेश : मुझे तो आपका प्रश्न ही बड़ा भ्रामक और मिसलीडकरनेवाला लगता है। मैं भारतीय साहित्य के लिए ही भारतीयता की बात नहीं करता, प्रत्येक देश के साहित्य में उस देश का पनहोगा। सवाल क्या होना चाहिएका नहीं, ‘क्या हैका है। इतिहास स्थान, समाज और व्यक्ति-निरपेक्ष नहीं होता है, हालाँकि सार्वकालिकता का नारा लगानेवाले लोग ऐसा ही कहते हैं, लेकिन मैं उनके मत से सहमत नहीं हूँ।

          मेर निकट सार्त्र और कामू इसलिए जैन्युइनहैं, क्योंकि उन्होंने अपने समय और परिवेश से ग्रहण कर, उसे आत्मसात कर अभिव्यक्त किया है। कामू भारतीय जीवन को लेकर आउट साइडरनहीं लिख सकता था। और यह जैन्युनिटी समय और परिवेश के प्रति लेखक की ईमानदारी से ही पैदा होती है। यही कारण है कि शेखर : एक जीवनीका अंकन अतिमानवीय लगता है। वह मुझे प्रामाणिकजैन्यूइननहीं लगता, क्योंकि शेखर मूलत: इस मिट्टी से सम्बद्ध नहीं है।

          हाँ, यहीं पर एक बात स्पष्ट कर देना शायद समीचीन होगाऔर वह यह कि आंचलिकता और यूनीवर्सैलिटी आपस में विरोधी टर्मनहीं हैं, यूनवर्सैलिटी में एप्रीसिएशन भी रहता है और एसीमिलिशन भी। यही कारण है कि एक प्रबुद्ध संस्कारशील व्यक्ति किसी भी देश की कलाओंफाइन आट्र्सका आस्वादन कर सकता है ओर आप्लावित हो सकता है।

          अपनी बात को और अधिक स्पष्ट करने के लिए मैला आँचलका उदाहरण देना चाहता हूँ। मुझे लगता है कि इतना रीजनलहोते हुए भी उसमें अपनी यूनीवर्सैलिटीहै।और मुझे तो यह भी लगता है कि रेणु वारसा के किसी गाँव को संवेदन के उस स्तर पर लेकर उसे अभिव्यक्ति नहीं दे सकते थे।

          —और चूँकि किसी भी जैन्युइन राइटिंग में भौगोलिक-ऐतिहासिक परिवेश का होना अनिवार्य है, इसलिए हिन्दी-कहानी के लिए भी यह अनिवार्य है।और समकालीन हिन्दी-कहानी ही क्यों, सभी देशों और भाषाओं के साहित्य में जैन्यूनिटी और औथेंटिसिटी के लिए यह आवश्यक हैवह देश चाहे फ्रांस हो, या रूस या भारत। क्योंकि ऐसा साहित्य समय, स्थान और काल के सन्दर्भ से बने व्यक्ति के विराट प्रभावों ओर संवेदनों की अभिव्यक्ति होता है।

भीष्म साहनी : और यही कारण है कि प्रत्येक देश के श्रेष्ठ साहित्य में उसका अपनापनस्पष्टतया परिलक्षित होता है। उदाहरण के लिए, हम अँग्रेज़ों के हास्य को ले सकते हैं। अँग्रेज़ों का हास्य हमारे हास्य से भिन्न है। इसका कारण शायद यह है कि हमारे मानसिक गठन में आदर्शवादिता अधिक पायी जाती है।

मार्कण्डेय : मेरे लिए भी इस सवाल का कोई खास अर्थ नहीं है। लगता है, जिनमें अभारतीयता के तत्त्व ढूँढ़े जा रहे हैं, वे इन तत्त्वदर्शियों से बेहतर भारतीय हैं, क्योंकि वे देश-काल की सीमाओं के अर्थ-बोध के प्रति अधिक सजग हैं। हो सकता है, इस तरह चलकर लोग बड़ी संकीर्ण सीमाओं में प्रवेश करेंजबकि आज ज़रूरत है, सीमाओं को तोडऩे की। हम इन्हीं सीमाओं में बँधे रहकर काफ़ी पिछड़ गये हैंऔर सीमाएँ भी एक नहीं, अनेक हैं। एक तरह से देखें तो हमारा पूरा जीवन ही सीमाओं का हो उठा है।

रमेश गौड़ : क्या बात है मुद्रा भाई, आप भारतीयता से सम्बन्धित प्रश्न के बारे में एकदम चुप हैं?

मुद्राराक्षस : माफ करना, बात दरअसल यह है कि भारतीयता एक ऐसी वेश्या है, जिसके बारे में हिन्दी-कथाकार ने कुछ मिथसुन रखे हैंकुछ मिथ उसे मिले हैं मैक्समूलर, इलियट और शोपेनहावर से लेकर कैनेडी, ख्रुश्चेव तक सेऐसे लोगों से, जिन्होंने इसकी रानें रौंदी हैं या फिर वाल्मीकि से लेकर निराला और गाँधी तक से, जिन्होंने इसे चुम्बन से लेकर सिफलिस तक सभी कुछ दिया है। लेकिन हिन्दी-कथाकार इन सबकी ऐसी धर्मभीरु औलाद है, जो इसे मातृवत पूजकर अपनी और इसकीदोनों की मिट्टी पलीद कर रहा है।

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4. आज का युग : कहानी और कविता के सन्दर्भ में

रमेश गौड़ : आज का युग कथा-युग है’—आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं? साहित्य की आदि विधा कविताक्या सचमुच पिछड़ गयी है? और अगर हाँ, तो इसका क्या कारण है? क्या यह कि आज की कहानी अन्य कलाओं को भी अपने में समोकर चल रही है, या और कुछ?

कमलेश्वर : साहित्य की आदि विधा कविता को मैं पिछड़ा हुआ नहीं मानता, पर भटका हुआ ज़रूर मानता हूँकविता में भी कुछ ऐसे स्वर हैं, जो मुझे उतने भटके हुए नहीं लगते और उनमें से अधिकांश नई कविताआन्दोलन के बाद के स्वर हैं।

अधिकांश समर्थ लेखक आज कहानी विधा की ओर उन्मुख हैं, क्योंकि कहानी में ज़िन्दगी सूत्र-रूप में नहीं, यथार्थ, विराट और विशद् रूप में प्रस्तुत की जा सकती है।

रमेश गौड़ : इस उन्मुखता का कारण कहीं शुद्ध आर्थिक तो नहीं?

कमलेश्वर : हाँ, इसका एक कारण आर्थिक लाभ भी है।

रमेश गौड़ : आपने नई कविताके बाद के स्वरों की बात कही है; क्या आप नई कविताके बाद कविता में कोई आन्दोलन स्वीकार नहीं करते?

कमलेश्वर : नई कविताके बाद अभिनव काव्यआन्दोलन की बात पिछले दिनों उठी है, लेकिन मैं उसे आन्दोलन नहीं मानता। जिन स्वरों की बात मैंने कही है, ये स्वर वे हैं, जो आज की कहानी की तरह ही एक स्वस्थ दृष्टि भी रखते हैंजैसे गिरिजाकुमार माथुर, जगदीश गुप्त, केदारनाथ सिंह, दुष्यन्त कुमार, रमेश गौड़, केशु, श्याममोहन श्रीवास्तव, स्नेहमयी चौधरी, आदि।

भीष्म साहनी : इतना तो मैं भी जानता हूँ कि आज लोग कविता की तुलना में कहानी-उपन्यास ज़्यादा पढ़ते हैं। शायद इसलिए कि इस औद्योगिक युग में लोगों की रुचि धीरे-धीरे सहज मनोरंजन की ओर अधिक और गम्भीर अध्ययन की ओर कम आकृष्ट होती गयी है। कविता का रस लेने के लिए मनुष्य को अधिक सचेत होकर कविता पढऩे की ज़रूरत रहती है।

          शायद एक कारण यह भी है कि कविता लिखने का ढंग बहुत कुछ बदल गया है। पहले उसकी लोकप्रियता उसकी भावुकता और गीतात्मकता में अधिक थी, पढऩेवाला उसे गुनगुना सकता था, उनमें से गीत का रस ले सकता था। अब कविता अधिक गूढ़, प्रतीकात्मक और गठन में भिन्न हो गयी है। कम लोग उसका रस ले पाते हैं। शायद एक कारण यह भी रहा हो कि जिस यथार्थता की माँग पाठक आज के साहित्य से करने लगा है, उसे कविता की तुलना में कहानी-उपन्यास अधिक जुटा पाते हैं।

मार्कण्डेय : मैं यह नहीं मानता। मुक्तिबोध और शमशेर जैसे कवियों ने वस्तुगत यथार्थ के नए स्तर उद्घाटित किये हैं और साहस के साथ वास्तविकताओं की चुनौती स्वीकार की है।

          कहानी तो समकालीन जीवन के बाहरी पहलुओं के रोमान में ही बीत चली है और उपन्यास, जो कथा-युग का निर्माण कर सकता था, ‘गोदानसे भी पीछे आकर अतीत के स्मृति-चित्रों में मोटापे का शिकार हो गया है।

          आधुनिक भाव-बोध का प्रतिनिधित्व आज भी कविता ही कर रही है। आज के जीवन के बाह्य उपकरणों से रचना का नई होना देखने वालों को बात का कोई उत्तर देना भैंस के आगे बीन बजाना जैसा ही है। वास्तविकताओं को पकडऩे वाली दृष्टि के बिना समसामयिक जीवन-बोध एक सपना है। नई कहानीमें प्रत्यावर्तनों की भरमार है। रोमानों का कूड़ा-कचरा बहुत है, जिसमें नए प्रबुद्ध विचारों के लोग भी फँसे हुए हैं। बुर्जुवा टैक्टिक्स का ही यह द्योतक है कि प्रगतिशील विचारों के लोग भी आगे बढऩा छोडक़र उसी कूड़े में उलझे रहें या कुछ देर के लिए मार्गच्युत होकर बेमानी चीज़ों में भ्रमित हों। इस स्थिति से सर्वथा मुक्त होकर प्रबुद्ध लोग आगे चले जाते हैंऐसा नहीं कि हमारे यहाँ जा नहीं रहे हैं। नए कहानीकारों ने नई ज़मीन बनानी शुरू कर दी। नई कहानीके लेखकों में भी मूल्यों के आधार पर अलगाव लक्षित हो रहे हैं। हो सकता है, जीवन का वास्तविक आधार इस विधा को आगे मिल जाए और कथा-युग का सचमुच निर्माण हो।

          गुणात्मक दृष्टि से तो स्वतन्त्रता-प्राप्ति के बाद के भारत का प्रतिनिधित्व कविता ने ही किया है। फिर कैसे कहा जाए कि आज का युग कथा-युग है?

रमेश गौड़ : इस सम्बन्ध में आपका क्या विचार है, राजेन्द्र भाई?

राजेन्द्र यादव : मैं तो कविता को आदि-विधा-सी नहीं मानता। प्राचीन कविताएँ, जिन्हें आप कविता कह रहे हैं, वास्तव में स्लाइसिज़ ऑफ स्टोरीज़थीं। इसलिए साहित्य की आदि-विधा कहानी है, कविता नहीं। कविता के लिए अनुभूति से लेकर अभिव्यक्ति तक जिस संवेदना की आवश्यकता है, वह उस समय की कविता में नहीं थी। कविता की स्थिति तो वास्तव में तकिया-कलाम जैसी है, जो बात को पंक्चुएटकरता है। समस्याओं का निरूपण तो कथा के माध्यम से ही हो सकता है। यही कारण है कि वार एंड पीस जैसे उपन्यास ने एपिककी सम्भावना ही ख़त्म कर दी है।

रमेश गौड़ : क्या आप कविता को सन्दर्भों से कटी हुई रचना मानते हैं?

राजेन्द्र यादव : हाँ, जब कवि ख़ास क़िस्म के पाठकों की माँग करता हैपाठकों के स्तर और एक ख़ास मूड की बात करता है तबवास्तव में इन चीज़ों के माध्यम से वह एक सन्दर्भहीन स्थिति की माँग करता है।

          सच बात तो यह है कि कविता की विधा, ‘एक्सप्रैशनकी विधा है, जबकि कहानी कम्यूनीकेशनकी। कहानी में एक लौजीकल कोहेरेंस (अन्विति) होता है।

ओमप्रकाश दीपक : कविता और कहानी के सम्बन्धों के विषय में अथवा उसके सापेक्ष महत्त्व के विषय में मैं कुछ दूसरे ढंग से सोचता हूँ। यों नानी की कहानी के अर्थ में, कहानी शायद कविता से पुरानी निकले, साहित्य की एक विधा के रूप में कहानी का विकास बाद में हुआ, यह सही है। बल्कि मैं समझता हूँ कि हम कहानी को आज जिस रूप में जानते हैं, वह आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की देन है। उसके पहले कविता का एक सार्विक रूप थालोक-गीतों से भिन्न। लेकिन कहानी का किस्सागोई या लोक-कथाओं से भिन्न कोई विशिष्ट रूप नहीं था। शायद यही कारण है कि पश्चिमी साहित्य में पिछले दिनों कथा-साहित्य के चुक जाने की बात कही गयी है। मुझे लगता है कि जो कुछ हो रहा है, वह कथा-साहित्य का चुकना नहीं है, बल्कि सम्भवत: आधुनिक पश्चिमी सभ्यता की सीमाओं से उसके मुक्त होने की प्रक्रिया है।

रमेश गौड़ : राकेश भाई, आपका क्या विचार है?

मोहन राकेश : युग की बात तो बड़ी दावेदारी होगी मेरे लिए। हाँ, मैं यह मानता हूँ कि आजकल जो लेखक कहानियाँ लिख रहे हैं, लयात्मक अभिव्यक्ति की क्षमता उनमें से बहुतों में रही होगी। लेकिन उनमें से कई ने स्वयं को उस विधा से काटकर दूसरे माध्यम खोजे हैं। आज की कविता चूँकि छन्दों में नहीं बँधी है, इसलिए जो व्यक्ति बहुत तीव्रता के साथ अपने अन्दर-बाहर के जीवन से प्रभावित होता है और जिसके अन्दर अपने एहसास को शब्द देने की व्याकुलता ही नहीं, सामथ्र्य भी है, वह फ़ैशन के लिए कोई ख़ास माध्यम चुने, यह हास्यास्पद है।

          शिल्प की सम्भावनाएँ अनिवार्यत: अनुभूति में अन्तर्निहित होती हैं। बहुत-सी बातें इसीलिए अनभिव्यक्त रह जाती हैं। यह बात सभी विधाओं (गद्य-रूपों) के बारे में सच है। मैं होड़ की बात नहीं करता, बहुत-सी अनुभूतियाँ आज भी कविता के माध्यम से ही अभिव्यक्त हो सकती हैं। लेकिन चूँकि आज मन:स्थितियाँ निरन्तर संश्लिष्ट होती जा रही हैं, हो गयी हैं, इसलिए कविता, जो मनोवेगों के लयात्मक वहन का साधन थी, आज इस नए दायित्व को सँभालने का प्रयत्न करके भी अपने रूप और शिल्प में आमूल परिवर्तन लाकर भी, उन मन:स्थितियों के साथ अपना प्लेसबनाकर नहीं रख सकी।

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5. कहानी के सामान्यत: स्वीकृत मूल तत्त्व और समकालीन कहानी

रमेश गौड़ : गत कुछ वर्षों की कहानी-चर्चा से यह बात स्पष्ट हो गयी है कि कहानी के सामान्यत: स्वीकृत मूल तत्त्वोंकथानक, पात्र, वातावरण, आदिके अभाव में भी (या ही) कोई गद्य-रचना कहानी हो सकती है। अगर आप भी यही मानते हैं तो आखिर वह कौन-सा तत्त्व है, जिसके अभाव में कोई गद्य-रचना कहानी हो ही नहीं सकती?

कमलेश्वर : मैं यह मानता हूँ कि इन तथाकथित स्वीकृत आधार-तत्त्वों के अभाव में ही नई कहानी हो सकती हैऔर वह तत्त्व, जिसके अभाव में कोई गद्य-रचना कहानी नहीं हो सकती, वह है कथातत्त्व, जिसे कृपया रूढ़ अर्थों में न लीजिए। कोई थीमअपने में अमित सम्भावनाएँ कथातत्त्व की रखती है और किसी में वे सम्भावनाएं नहीं होतीं। यह थीम ही कहानी को अन्य गद्य-रचनाओं से अलग रखती है।

रमेश गौड़ : आपका ख़याल है कि नई कहानीके आन्दोलन से पूर्व यह थीम हिन्दी कहानियों में नहीं थी?

कमलेश्वर : थी, पर उस पर या तो पात्र हावी हो जाते थे या चारित्रिकता या आदर्श। यह थीम अपने यथार्थ रूप में प्रेषित नहीं हो पाती थी। आज नई कहानीमें थीम का यथार्थ ही मुख्य हैअन्य उपादान केवल उन यथार्थ को घनीभूत करके जीवन्त और गहरा बनाते हैं।

          आज कथानक का विकास जैसी कोई चीज़ नहीं है। जीवन खंड के रूप में जो कथानक है, आज उसे पेश किया जाता है।

भीष्म साहनी : मैं सोचता हूँ कि कहानी के कोई शाश्वत या चिरन्तर मूल तत्त्व नहीं होते। एक ज़माना था, जब घटना-प्रधान कहानी को ही कहानी माना जाता था। फिर दूसरी चीज़ों को प्रधानता दी जाने लगी। कहानी-उपन्यास के विकास की सामान्य दिशा बाहर से अन्दर की ओर, बाहरी घटनाओं से आन्तरिक जीवन की ओर रही है। कहानीकार की जीवन-दृष्टि के साथ-साथ कहानी कहने के ढंग भी बदलते रहते हैं।

          पर कथानक, पात्र, वातावरण आदि की प्रधानता वाला काल अभी समाप्त नहीं हुआ है। सच तो यह है कि हम अभी उस काल में प्रवेश ही कर पाये थे। हमारे यहाँ कितने उपन्यास हैं, जिनमें सजीव चरित्र उभरकर आये हैं और अपने लिए स्वतन्त्र व्यक्तित्व स्थापित कर पाये हैं! ले-देकर होरी का नाम या एक-दो अन्य चरित्रों के नाम लिये जाते हैं।

मुद्राराक्षस : यह सत्य है, कहानी के सामान्यत: स्वीकृत मूल तत्त्व अब उपेक्षित हो चुके हैं, लेकिन उस तत्त्व के बारे में क्या बताऊँ, जिसके बिना कोई गद्य-रचना कहानी नहीं रह जाती! यह तो वैसा है, जैसे कोई पूछे कि वह तत्त्व कौन-सा है, जिसके बिना कोई प्रिमिटिव प्रिमिटिव नहीं रह जाता? कहानी, कविता, नाटक, उपन्यासयहाँ तक कि स्वयं साहित्य भी एक निहायत प्रिमिटिव बौद्धिकता है। इससे मुक्ति भले ग्रामवासी साहित्यकार न चाहता हो, मैं तो इसी से सन्तोष अनुभव करूँगा।

ओमप्रकाश दीपक : मेरा विचार है कि कहानी का जो प्रतिष्ठित रूप रहा है, उसकी सीमाएँ तोडऩे की कोशिश की जा रही है। लेकिन चूँकि उसका कोई सार्विक रूप नहीं बन पाया है, इसलिए अभी एक अस्थिरता नज़र आती है।

          अभी शायद इसका व$क्त भी नहीं है कि हम कहानी के रूप को स्थिर करने की चेष्टा करें, क्योंकि ऐसी कोई भी चेष्टा जाने-अनजाने कहानी पर उन्हीं सीमाओं को लादने की चेष्टा होगी, जिनसे वह मुक्ति पाने की चेष्टा कर रही है।

मोहन राकेश : असल में ये मूल तत्त्व साहित्य का व्याकरण रचनेवालों ने अध्यापकीय आलोचना के स्तर पर ढूँढ़ निकाले थे। आलोचना को मैं अनिवार्यत: रचना का पश्चगामी मानता हूँ, अग्रगामी नहीं। जहाँ आलोचक स्वयं को अग्रगामी मानता है, वहाँ वह खुद को धोखा देता है और कुछ छोटे लोगों को गुमराह भी कर देता है। मुझे तो मूल तत्त्वों का थीसिस ही हास्यास्पद लगता है।

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6. तथाकथित साहित्यिकबनाम लोकप्रियकहानी

रमेश गौड़ : समकालीन कहानी-लेखन में क्या आप साहित्यिकऔर लोकप्रियकहानी जैसा कोई विभाजन मानते हैं?—और अगर हाँ, तो उसका मूल आधार क्या है?

मुद्राराक्षस : साहित्यिक और लोकप्रिय के बजाय मैं सृजनात्मक और व्यावसायिक शब्दों को तरजीह दूँगा।

          व्यावसायिक लेखन वह है, जो पराश्रयी होता हैचाहे प्रशस्तिजीविता का हो, या कला का, या सामाजिकता का। जो कृति इसीलिए महत्त्व-लाभ करती है कि उसे किसी या किन्हीं लोगों ने महत्त्वशाली, सुन्दर, उत्कृष्ट, श्रेष्ठ आदि माना हैवह प्रशस्तिजीवी होती है, इसीलिए प्रशस्ति पर आश्रित होती है। इसी तरह जो कृति इसलिए लिखी जाती है कि वह कलाकी उपलब्धि हो या समाज के लिए कुछ करेवह क्रमश: कला और समाज की पराश्रयी होती है। तीनों नियतियों से मुझे जुगुप्सा होती है।

राजेन्द्र यादव : इट इज़ ऑल कॉमोफ्लैजिंग! कहानी या तो प्रामाणिक (जैन्यूइन) हो सकती है या अप्रामाणिक।

रमेश गौड़ : आपके इस विभाजन का आधार क्या है? मेरा मतलब है, किसी कहानी को प्रामाणिक या अप्रामाणिक घोषित करने के लिए आपके पास कौन-सी कसौटी है?

राजेन्द्र यादव : ह्यूमन डैस्टिनी और उसकी समस्याओं के साथ किसी कहानी का इनवॉल्वमेंट और कन्सन्र्डनैस ही उसकी प्रामाणिकता का आधार है।

मोहन राकेश : इस प्रश्न को इस रूप में रखना उतना ही भ्रामक है, जितना कि किसी संगीतकार से यह पूछना कि आप पौपुलर म्युजिक और म्युजिकल म्युजिक में कोई अन्तर मानते हैं!

          एक वर्गीकरणलोकप्रियतो ठीक है, लेकिन दूसरा कोनोटेशन साहित्यिकनहीं है।

          एक कहानी, जो सूक्ष्म संवेदना के स्तर पर युग-यथार्थ की अभिव्यक्ति है, जो अनिवार्यत: साहित्यिक है और दूसरी ओर कुछ सस्ती अभिरुचियों को सन्तुष्ट करनेवाली कहानी जो अपेक्षाकृत अधिक लोकप्रिय होती है, अपने सीमित अर्थ में साहित्यिक तो होती ही हैउसी में, जिस अर्थ में लोकप्रिय संगीत होता है।

          लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि कोई कहानी तभी साहित्यिक हो सकती है, जब वह अलोकप्रिय हो। संगीत प्रबुद्ध संस्कारों के लोगों के बीच भी तो लोकप्रिय हो सकता है। इसी प्रकार अलोकप्रियता में पाठक के संस्कार की कमी तो कारण है ही, लेकिन लेखक की अपनी अक्षमता भी इसका बहुत बड़ा कारण है। इसीलिए कई बार समकालीन कहानी-लेखकों में से किन्हीं विशिष्ट लोगों में व्यापक रूप से प्रभावित करने की क्षमता मिले तो उसे अक्षम वर्ग द्वारा लोकप्रिय होने का फतवा देकर नकारना और इस प्रकार अपनी अक्षमता को छुपाने का प्रयत्न करना एक सम्भव स्थिति है।

कमलेश्वर : इसके अतिरिक्त एक बात और भी है। और वह यह कि लोकप्रियता साहित्य को प्राप्त होती है। उसकी प्राप्ति के लिए साहित्य का रास्ता अपनाना चौथे और पाँचवें स्तर की प्रतिभाओं का काम हो सकता है। मेरी दृष्टि में साहित्यिक कहानी वही है, जो जीवन से जुड़ी हुई है और जीवन की यथार्थपरक सौन्दर्यवादी दृष्टि से व्याख्या करती है। लोकप्रियता अगर उसे प्राप्त है, तो यह उसका सहज प्राप्य है। इधर कुछ ऐसे लेखक, जो कविता के क्षेत्र से कहानी में आये हैं, अपनी कहानी को साहित्यिक मान्यता दिलाने के लिए यह विशेषण जोडक़र अपनी चर्चा कर लेते हैं। यह उनकी अपनी हीन भावना ही है। उन्हें लगता है कि शायद उनकी लिखी कहानियों को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्राप्त न होने पाये। वैसे उन लेखकों की कहानी को उनके लघुमानववादी दर्शन के कारण लघु कहानीनाम से अभिहित किया गया है, और वह नाम उसके लिए उपयुक्त भी है। मैं लोकप्रिय और साहित्यिक कहानी जैसा कोई विभाजन नहीं मानता।

भीष्म साहनी : मैं इस विभाजन को इसलिए भी नहीं मानता हूँ कि कोई भी लेखक यह सोचकर कहानी लिखने नहीं बैठता कि चलो एक साहित्यिक कहानी लिख डालें या एक लोकप्रिय कहानी लिख डालें। मैं शब्दों को संचार का माध्यम मानता हूँ... और साहित्य को सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग भी। मैं अगर कुछ लिखूँ और अधिक संख्या में लोग उसे पढ़ पायें तो मुझे सन्तोष ही होगा।

मार्कण्डेय : मुझे साहित्यिक और लोकप्रिय कहानी का यह प्रश्न काफी महत्त्वपूर्ण लगता है और बरबस ही अपनी ओर ध्यान खींचता है। व्यावसायिकता की प्रवृत्ति के कारण ही इधर ध्यान गया है। व्यवसाय ने इधर तरह-तरह से लेखक से लोकप्रियता की माँग की है, इसीलिए इस प्रश्न पर अलग से विचार अपेक्षित है, लेकिन मुझे लगता है कि इस सवाल को उठानेवाले लोग इसे ग़लत सन्दर्भ में उठा रहे हैं। कहीं लोकप्रिय होने के प्रयत्न में असफल होकर ही वे लोकप्रियता को बुरा-भला कहने नहीं चले हैं? कहीं वे लोकको मूर्ख तो नहीं समझते?

          ये कुछ प्रश्न भी इसी प्रश्न के साथ ही उठते हैं, जिनके उत्तर लोगों को सावधान कर सकेंगे, ऐसा मेरा अनुमान है। वैसे साहित्य लोकप्रिय हो, यह कौन नहीं चाहेगा?

ओमप्रकाश दीपक : मैं ऐसा कोई विभाजन नहीं मानता, अलबत्ता ऐसी भी कहानियाँ लिखी जा सकती हैं या लिखी जाती हैं, जो केवल मनोरंजन के पेशेका उपकरण होती हैं। यह सम्भव है कि कोई कहानी इस तरह लिखी जाने के बावजूद एक श्रेष्ठ साहित्यिक रचना हो। यह भी उतना ही मुमकिन है कि कोई ऐसी कहानी, जो मूलत: लोकप्रियता को दृष्टि में रखकर न लिखी गयी हो, बड़ी लोकप्रिय साबित हो।

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7. लेखक की प्रतिबद्धता

रमेश गौड़ : क्या आप लेखक को अपने और अपनी कला के अतिरिक्त अन्य किसी के प्रति भी प्रतिबद्ध मानते हैं?—अथवा आप कला कला के लिए के सिद्धान्त में विश्वास करते हैं?

मोहन राकेश : मैं कला कला के लिएके सिद्धान्त को नहीं मानता। यह सवाल कुछ ऐसा ही है, जैसे भाषा भाषा के लिए, दिमाग़ दिमाग़ के लिए।

          रचना-दृष्टि में मैं किसी प्रकार के आदर्श के आरोप की बात स्वीकार नहीं करता। यथार्थ में अन्तर्भूत जो भविष्य-संकेत है, उसे ग्रहण कर पाना और उसे अभिव्यक्ति दे पाना मैं महान् कला का गुण मानता हूँ। यथार्थ का अर्थ मैं यथातथ्य नहीं लेता। मेरी दृष्टि में यथार्थ को, ऐतिहासिक कार्य-कारण की शृंखला रखकर ही, उसकी वास्तविकता में जाना जा सकता है। इस दृष्टि से आज के यथार्थ को मैं बीते हुए कल और आनेवाले कल से काटकर नहीं देख सकता।

          इसलिए प्रतिबद्धता की बात मैं अपने या अपनी कला के सन्दर्भ में न सोचकर जीवन और उसके यथार्थ के सम्बन्ध में ही सोचता हूँ। मैं अपनी कला से प्रतिबद्ध हूँ, क्योंकि अपने परिवेश और उनके निरन्तर बदलते यथार्थ से प्रतिबद्ध हूँ। जीवन से हटकर अपने अकेलेपन में प्रतिबद्धता मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती।

कमलेश्वर : मैं यह समझता हूँ कि लेखक की प्रतिबद्धता निश्चित रूप से उसकी अपनी आस्था के प्रति होती है और वह आस्था परंपरा, आधुनिकता के बोध और भविष्य की कामना से ही उद्भूत होती है। इसलिए मैं लेखक की जीवन-सापेक्ष मूल्यों के प्रति ही प्रतिबद्धता मानता हूँ। कहानी लिखते समय मेरी कथा का यथार्थ अपना कलात्मक स्वरूप स्वयं खोजता है। इसलिए मैं कलावादियों की तरह कला की स्वीकृत कसौटियों पर कहानी के सत्य को तोड़-मरोडक़र खरा उतारने के लिए तैयार नहीं हूँ।

राजेन्द्र यादव : मेरे विचार से लेखक प्रथमत: व मूलत: युग-सत्य के प्रति प्रतिबद्ध होता है। वह अपने प्रति प्रतिबद्ध होने के साथ ही साथ देश और काल के प्रति भी प्रतिबद्ध होता है। उसके साथ ही वह अपने लेखन के प्रति प्रतिबद्ध होता है। वह उस सत्य के प्रति प्रतिबद्ध होता है, जिसका वह सामना कर रहा है, अर्थात् जिसका वह भोक्ता है।

मुद्राराक्षस : मैं लेखक को कहीं प्रतिबद्ध नहीं मानता, क्योंकि उसकी कृतियों को पराश्रयी नहीं बनने देना चाहता। समाज के लिए कुछ करना, दार्शनिक और वैज्ञानिक से लेकर झाड़ू देनेवाला तक, किसी का भी कर्तव्य हो सकता है, स्रष्टा का नहीं।

भीष्म साहनी : लेखक भी एक सामाजिक जीव है, इसलिए मैं उसे समाज के प्रति प्रतिबद्ध मानता हूँ। वह साहित्य, जो मनुष्य को केवल उसे व्यक्तिरूप में चित्रित करता है, और उसके सामाजिक सन्दर्भ की अवहेलना करता है, मेरी नज़र में एकांगी साहित्य है।

          मैं यह नहीं मान सकता कि आज के ज़माने में कोई लेखक सामाजिक और राजनीतिक विचारधाराओं से अपने चिन्तन और सृजन को बिल्कुल अलग रख सकता है। आज राजनीति का प्रभाव उतना ही गहरा है, जितना किसी ज़माने में धर्म का था। लेखक भी मानव-समाज की समस्याओं की सूचना पाकर उद्विग्न होते हैं। यह सम्भव नहीं कि एक अनुभूतिशील जीव के नाते उसके दृष्टिकोण पर उनका रंग न चढ़ता हो। यह कहना कि मेरी साहित्यिक क्रिया मेरे सामाजिक जीवन से अलग है, मुझे तो आत्म-प्रवंचना जान पड़ती है।

ओमप्रकाश दीपक : मुझे आपकी द्विविधा ही ग़लत लगती है। अगर कोई लेखक ऐसा मानता है कि लेखक के रूप में उसका दायित्व केवल अपने प्रति और अपनी कला के प्रति है तो इसका यह मतलब नहीं निकलता है कि वह कला कला के लिएके सिद्धान्त में विश्वास करता है, क्योंकि उसका अपना व्यक्तित्व किसी शून्य में स्थित नहीं होता। अपने प्रति ज़िम्मेदार होने में तमाम ज़िन्दगी, तमाम सृष्टि और तमाम इतिहास के प्रति ज़िम्मेदार होना भी निहित हो सकता है।

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8. नए कहानीकारों का भाषा-भेद

रमेश गौड़ : नए कहानीकारोंके भाषा-भेद का आधार, आपकी दृष्टि में क्या है?

राजेन्द्र यादव : यह तो कोई सवाल नहीं हुआ। भई, हरेक लेखक का अपना मीडिया होता है।

मोहन राकेश : इतना ही नहीं, बल्कि जिस लेखक में अपनी कुछ निजता होगी, वहाँ अभिव्यक्ति के अन्य पक्षों की तरह उसकी भाषा का भी अपना एक व्यक्तित्व होना आवश्यक है। दूसरे रूप में भाषा-भेद का कारण हर लेखक का अपना व्यक्तित्व है। इस व्यक्तित्व के निर्माण में कई तत्त्व हो सकते हैंउसका अध्ययन, उसकी चिन्तन-प्रक्रिया, उस पर पड़े प्रादेशिक-आंचलिक प्रभाव और उसकी ग्रोथ के सारे संस्कार।

          पर, इन सबसे बड़ी चीज़ है, उसकी अनुभूति और संवेदनशीलता, जो भाषा को उसके निजी या अपनेरूप में ढालने का मुख्य कारण है। हर अनुभूति का अपना एक आन्तरिक शिल्प होता है, जिसकी खोज कलाकार को करनी होती हैउसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि हर अनुभूति और संवेदना की अपनी अलग भाषा है, जिसकी कलाकार या साहित्यकार खोज करता है।

कमलेश्वर : मेरी दृष्टि में भाषा-भेद का मूल आधर वह कथ्य है, जिसे हर लेखक प्रस्तुत कर रहा है। कथ्य ही भाषा के स्वरूप को निर्धारित करता है। इधर कुछ लेखकों ने कहानी में निजी भाषा (प्राइवेट लैंग्वेज) का इस्तेमाल शुरू किया है, जिससे वे एक अलग तरह का आभिजात्य प्रदर्शित करना चाहते हैंजैसे कि रघुवीर सहाय। उनका यह प्रदर्शन आग्रहमूलक है, और इसीलिए भाषा के स्तर पर बेजान भी है। भाषागत प्रयोगों की विविधता अपने वास्तविक रूप में उन कहानियों में आयी है, जो अलग-अलग जीवन-सन्दर्भों में से उठायी गयी हैं। वैसे भाषा का यह भेद तो हिन्दी के हित में ही है, परन्तु कुछ लोग, जो भाषा में झाड़-फूँक करके उसे कीलित कर रहे हैं, उन तान्त्रिकों का मालिक खुदा ही है।

भीष्म साहनी : नए कहानीकारों के भाषा-भेद सम्बन्धी प्रश्न को मैं नहीं समझ पाया। भाषा का प्रयोग केवल भाषा के नाते कोई भी लेखक नहीं करता होगा, नया या पुराना। मुझे वह भाषा पसन्द है,जो लेखक के अनुभवों को ओजस्विता से व्यक्त करे और पाठकों को भी काठ का उल्लू नहीं समझे, और उसके अस्तित्व को भी नहीं नकारे। कुछ पाठक ऊँचा उठें, कुछ लेखक नीचे झुकेंऐसा ही सम्बन्ध पाठक-लेखक का चल सकता है।

मार्कण्डेय : मैं समझता हूँ कि नए लेखक एक नई भाषा की खोज में हैं, इसलिए भेद दिखाई पड़ता है। जीवन के अनुभव को जब वास्तविकता का आधार मिल जाएगा तो वे एक नई भाषा लेकर कथा-क्षेत्र में लौटेंगे और वह भाषा आज की रोमानी कथा की भाषा से भिन्न होगीठंडी, किन्तु पैनी और गडऩे वाली।

ओमप्रकाश दीपक : मैं इसका जवाब कुछ दूसरे रूप में देना चाहता हूँ

          कला के जितने भी माध्यम हैं, उनमें से भाषा सबसे अधिक सामाजिक माध्यम है। एक हद के बाद भाषा को आप उसकी परंपरा से अलग नहीं कर सकते, अन्यथा वह भाषा ही नहीं रह जाएगी।

          दूसरी ओर भाषा के किसी प्रचलित ढाँचे को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेने का मतलब होता है, उस हद तक सामाजिक संगठन और परंपरा के दायरों को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेना। लेखक को इन दोनों सीमाओं के बीच और इनसे जूझते हुए चलना पड़ता है। एक ओर वह भाषा में प्रयोग किये बिना अपना काम नहीं चला सकता, दूसरी ओर वह भाषा में ऐसे प्रयोग नहीं कर सकता, जिससे भाषा की सम्प्रेषणीयता नष्ट हो जाए।

          किसी कहानी की भाषा को अगर कोई नवसाक्षर समझ लेता है, तो यह उस कहानी का गुण ही है, मैं ऐसा भी नहीं मानताबल्कि आज जो भाषा सुपरिचित प्रतीत होती है, वह भी वर्षों के प्रयोग का फल है और मैं समझता हूँ कि भाषा के जो प्रयोग आज अपरिचित प्रतीत हो रहे हैं, उनका ऐसा विकास हो सकता है कि कुछ साल बाद वह भाषा बिल्कुल जानी-पहचानी लगे।

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9. नवलेखन और विदेश का अनुकरण

रमेश गौड़ : आपके मतानुसार नवलेखन पर विदेशी साहित्य के अनुकरण का आरोप कहाँ तक सही है?

भीष्म साहनी : भई, सच बात तो यह है कि विदेशी साहित्य का अनुकरण तो हम मुद्दत से कर रहे हैं। उपन्यास, कहानी, एकांकी आदि विधाएँ हमने पश्चिम से ही ली हैं और इसका कारण यह है कि हम विदेशों के समुन्नत साहित्य की भाँति अपने देश के साहित्य को भी समुन्नत बनाना चाहते हैं।

मुद्राराक्षस : नवलेखक विदेशियों का अनुकरण कम करते हें,आपस में एक-दूसरे की लीक पर ज़्यादा चलते हैं। विदेशियों का अनुकरण हिन्दी के लेखकों के वश की बात है क्या? कितने आदमी ऐसे हैं, जो कामू और का$फ्का की बातें करने के बावजूद सिसिफ़सका अनुवाद भी कर सकेंगे?

मार्कण्डेय : रमेश भाई, यदि नवलेखन में अनुकरण है तो वह लेखन कैसे हुआ? यह तो आरोप लगानेवालों की मूर्खता है कि नक़ल को रचना मानकर उस पर आरोप लगाते हैं। रचना रचना है और नक़ल नक़ल।

कमलेश्वर : भाई, इस प्रश्न का मैं क्या उत्तर दूँ! यह तो वे जानें, जो अनुकरण करते हैं।

राजेन्द्र यादव : अनुकरण का यह आरोप मेरी दृष्टि में भी बेमानी है, क्योंकि नक़ल तो सृजन होता ही नहीं। इसके अतिरिक्त यथार्थ प्रभावों को आत्मसात करना बुरा नहीं है, पर उससे आक्रान्त हो जाना या उसका अनुकरण करना वास्तविक लेखन के हित में नहीं हो सकता।

          हर नएको विदेश का अनुकरण कहना आज के पुराणपंथियों का नारा बन गया है, क्योंकि उनका जीवन्त सम्पर्क आज के जिये जा रहे जीवन और लिखे जा रहे साहित्य से नहीं है।

मोहन राकेश : अनुकरण का यह आरोप समूचे नवलेखन पर नहीं, हाँ कुछ साहित्यकारों या कृतियों पर लगाया जाना सम्भव है। जिस लेखक की रचनाएँ केवल अनुकरणात्मक हैं या जो रचना केवल अनुकरणात्मक है, उसकी बात करना भी मैं अनावश्यक समझता हूँ।

          हाँ, एक व्यापक स्तर पर प्रभावों को हर कलाकार आत्मसात करता है। प्रभावों को विदेशी या देशी, साहित्यिक या असाहित्यिक रूपों में बाँटने का कोई अर्थ नहीं है, क्योंकि वे सभी तरह के हो सकते हैं।

ओमप्रकाश दीपक : इस सवाल के जवाब में कोई फतवा दे देना जितना आसान है, कोई सुविचारित उत्तर देना उतना ही मुश्किल।

          नवलेखन के नाम पर हमारे सामने जो कुछ आता रहा है, उसका कुछ हिस्सा निश्चय ही ऐसा है, जिसे पश्चिम का अन्धानुकरण कहा जा सकता है। मेरा ख़याल है कि कहानी से भी अधिक ऐसा कविता में हुआ है। मेरे एक सम्पादक मित्र के अनुसार तो कुछ विदेशी कविताएँ विराम-चिह्नों सहित शब्दश: अनूदित होकर हिन्दी में नई कविता के नाम से छपी हैं।

रमेश गौड़ : अगर कुछ रचनाओं की ही बात है तो ऐसा तो अन्य विधाओं में भी हुआ हैजैसे कि धर्मयुगमें प्रकाशित डॉ. शिवप्रसाद सिंह का नीत्शेपर लेख। उन्होंने अधिकांश लेख में विराम-चिह्न भी ज्यों के त्यों रखे हैं।

ओमप्रकाश दीपक : सम्भव है, ऐसा हुआ हो, लेकिन समूचे हिन्दी नवलेखन को पश्चिम का अन्धानुकरण कहना तो सिर्फ़ किसी कठमुल्ले का ही फतवा हो सकता है। एक समाज के रूप में हमारे अपने अनुभव अभी केवल एक अंश तक ही नवलेखन में अभिव्यक्ति पा रहे हैं, लेकिन मैं समझता हूँ कि नवलेखन का प्रयास पूरी ईमानदारी और अधिक से अधिक सचाई के साथ अभिव्यक्ति देने में है।

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10. कथा-दशक : वक्तव्य और कहानियाँ

रमेश गौड़ : धर्मयुगद्वारा आयोजित कथा-दशक के अन्तर्गत प्रकाशित समकालीन लेखकों के आत्म-वक्तव्यों तथा एक ही कहानीकार के आत्म-वक्तव्य और कृति में इतना अन्तर अथवा आत्म-विरोध क्यों है?

कमलेश्वर : इस प्रश्न का उत्तर आप धर्मवीर भारती से माँगें तो ज़्यादा अच्छा हो।

ओमप्रकाश दीपक : भारती से क्यों? बेहतर है कि यह प्रश्न आप कथा-दशक के लेखकों से पूछें।

भीष्म साहनी : मेरी राय में विचारों और कृतियों में अन्तर पाया जाना अस्वाभाविक नहीं है। बौद्धिक आस्थाएँ एक बात है और उनके अनुरूप साहित्य सृजन कर पाना, उन्हें कला का रूप दे पाना, दूसरी बात!

मुद्राराक्षस : मैं तो यह समझता हूँ कि कथा-दशक व्यावसायिक लेखकों का अच्छा उदाहरण है।

मार्कण्डेय : मैंने कथा-दशक की सारी कहानियाँ और वक्तव्य बहुत सरसरी तौर पर पढ़े हैं। क्षमा करेंमेरा वक्तव्य और कहानी भी उसमें शामिल है। गहरे पाठकों, मित्रों और लेखकों ने भेद की बात नहीं उठायी। उन्होंने मुझे लम्बे-लम्बे पत्र लिखकर अपनी प्रतिक्रियाएँ और निजी व्याख्याएँ भेजी हैं। चतुरोंकी महफिल को साँप सूँघ जाता है।

          इसलिए कथा-दशक में जो बेहतर हो, उसे लेकर आगे जाइए, शेष को छोडि़ए। जहाँ-जहाँ युग-बोध के अन्तर्निहित सूत्र लिखें, उन्हें जोडक़र मूल्यों की चर्चा तो समझ में आती है, क्योंकि इससे विकास की दिशा स्पष्ट होगी और समकालीन लेखक के बारे में एक समझ भी पैदा होगी। वरना लोग भटकाव में फँसे तडफ़ड़ाते रहेंगे और हाथ कुछ भी नहीं लगेगा।

रमेश गौड़ : आप कैसे चुप हैं, राकेश भाई!

मोहन राकेश : कथा-दशक के सभी वक्तव्य अभी हमारे सामने आये नहीं हैं, इसलिए अभी से उस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता।

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11. नई कहानी : उपलब्धि और जीवन-दर्शन

रमेश गौड़ : नई कहानी की उपलब्धियाँ क्या हैं? क्या उसने सचमुच कोई नया जीवन-दर्शन प्रस्तुत किया है?

मुद्राराक्षस : जीवन-दर्शन? हद करते हो, भाई! सृजनात्मक कृति सिर्फ़ कृति होती है। मैं उसे ऐसी गाड़ी नहीं समझता, जिसमें जीवन-दर्शन का खच्चर जोता जाता हो। और जीवन-दर्शन भी होता क्या है? जो न दर्शन हो, न जीवन!

भीष्म साहनी : नएऔर पुरानेकी व्याख्या मुझे कृत्रिम लगती है। हमारी उपलब्धियाँ इतनी अधिक नहीं हैं कि हम नया-पुराना की मीन-मेख कर एक-दूसरे को नीचे गिराने की कोशिश करते रहें।

कमलेश्वर : मेरी दृष्टि में नई कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने जैनेन्द्र और अज्ञेय की नितान्त व्यक्तिवादी, अहंवादी और रुग्ण मानसिकता से हिन्दी कहानी को मुक्त किया है। नई कहानी ने फिर भारतेन्दु, प्रेमचन्द, प्रसाद और यशपाल की प्रगतिशील जीवन-दृष्टि को अपनाते हुए कहानी को बहुत विविधता प्रदान की है।

मोहन राकेश : यह तो एक सम्भव स्थिति है और प्रशंसनीय भी कि कोई एक लेखक या लेखक-समुदाय कोई नया जीवन-दर्शन प्रस्तुत कर सके, पर हर लेखक-कलाकार या वर्ग अनिवार्यत: एक नया जीवन-दर्शन लेकर नहीं आता।

          रचना-दृष्टि और जीवन-दर्शनये दो अलग-अलग बातें हैं। जहाँ तक नई कहानी के जीवन-दर्शन का प्रश्न है, वह अपनी मुख्य धारा में यथार्थपरक समाजवादी विचारधारा से सम्बद्ध रही है, पर अपनी रचना-दृष्टि में उसने यथार्थ के आन्तरिक घात-प्रतिघातों में से ही अपने संकेत ग्रहण किये हैं। किसी तरह के तैयार संकेत लेकर उनका मुलम्मा जीवन के यथार्थ पर नहीं चढ़ाया। यहाँ मैं यह और कहना चाहूँगा कि हर लेखक की हर रचना में ऐसा हुआ हो, यह सम्भव नहीं, पर अपनी अधिकांश रचनाओं में नए कहानीकारों ने इसका प्रयत्न अवश्य किया है।

          इसलिए मेरी दृष्टि में नई कहानी की मुख्य उपलब्धियाँ हैं, कई एक ऐसी कहानियाँ, जो इस रचना-दृष्टि को ठीक अभिव्यक्ति दे सकी हैं।

ओमप्रकाश दीपक : मैं यह समझता हूँ कि नई कहानीको नईकहने का औचित्य केवल इतना ही है कि वह एक तलाश है। तलाश है, अपने मूल  विश्वासों को अपने ज़िन्दगी के रास्तों से जोडऩे की। इसीलिए, इक्का-दुक्का रचनाओं को छोडक़र मैं उषा प्रियंवदा या राजेन्द्र यादव को नया कहानीकार नहीं मानता। कमलेश्वर के पहले दो कहानी-संग्रह भी नई कहानीके अन्तर्गत नहीं रखे जा सकते। और शायद कोई भी कहानीकार ऐसा नहीं निकलेगा, जिसकी सभी कहानियाँ नई कहानीके अन्तर्गत रखी जा सकें।

          तलाश के रूप में नई कहानीकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने निर्मम होकर हमारे आधुनिक यथार्थ को पहचानना चाहा और ऐसे तमाम प्रश्नों की खोज करनी चाही है, जो एक संवेदनशील हिंदुस्तानी के सामने उठते हैं।

          ‘नई कहानीने कभी-कभी कुछ उत्तर भी देने चाहे हैंचाहे सामाजिक संगठन के सन्दर्भ में अथवा किन्हीं मूल दार्शनिक दृष्टिकोणों के सन्दर्भ में अथवा किन्हीं वैयक्तिक अनुभूतियों के सन्दर्भ में।

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12. नई कहानी : एक पैटर्न

रमेश गौड़ : क्या आप यह नहीं मानते कि नई कहानीका भी अपना एक पैटर्न बन गया है, वह भी एक चौखटे में जड़ गयी है? जिसे कुछ लेखक-आलोचकों ने नई कहानीका मृत-बिन्दु पर पहुँच जाना कहा है?

राजेन्द्र यादव : नहीं! मैं ऐसा नहीं मानता।

कमलेश्वर : मेरा विचार है कि व्यक्ति-लेखकों की सफल कहानियों द्वारा जो लोग चौखटे खींच लेने के आदी हैं, उन्हें ऐसा लग सकता है, पर मैं तो यह देख रहा हूँ कि नई कहानीका हर समर्थ लेखक अपने ही घरों को तोडक़र आगे निकलता गया है। यहाँ तक कि एकदम नए लेखकों जैसेदूधनाथसिंह, ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, देवेन गुप्त, अवधनारायण सिंह आदि ने उसे और भी विकसित किया है और आलोचकों को इस हद तक निस्तेज भी किया है कि वे खुद लेखकों से नई कहानी की परिभाषा पूछने लगे हैं। उसे परिभाषित कर देना ही उसकी मृत्यु का कारण हो सकता है, मैं तो यह मानता हूँ कि वह एक निरन्तर गतिशील धारा के रूप में विकसित होती चल रही है।

मुद्राराक्षस : पैटर्न में सिर्फ़ उनकी कृतियाँ जकड़ी हैं, जो अर्बनाइज नहीं हुए, जो कविता-कहानी जैसी प्रिमिटिव संज्ञाओं में सीमित हैं, जो पराश्रयी लेखन के लिए मजबूर हैं। हर प्रिमिटिव चीज़ आज मर रही है, कहानी भी मर रही है।

मोहन राकेश : मृत-बिन्दु तक जो चीज़ पहुँच सकती है, वह नई कहानीया उसकी सम्भावना नहीं। वह है कुछ ऐसे लोगों की सामथ्र्य, जो कि शायद हमारी आज की अपेक्षाओं के सामने छोटी पड़ गयी है। इसका अर्थ शायद यही है कि वह सामथ्र्य उतनी बड़ी नहीं रही होगी, जितनी कि हमारी अपेक्षा थी। यदि होती तो शायद ऐसा सवाल आज उठता ही नहीं। पर जो बात एक-दो या कुछ लोगों के लिए सच हो, उसे सबके लिए सच मान लेना एक भ्रान्ति होगी, क्योंकि नई कहानीकी जीवन्त धारा के कई एक लेखक आज भी नई-नई दिशाओं और सम्भावनाओं की खोज में हैं। यह खोज जिस-जिसमें है, वह व्यक्ति हमेशा अपने आपको आउट ग्रोकरता रहेगा। जो ऐसा नहीं कर पाता, उसने कल लिखना शुरू किया हो या आज, आनेवाले कल की सम्भावना के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा।

ओमप्रकाश दीपक : मैं समझता हूँ, अभी तो शुरुआत है, इसलिए नई कहानीके पैटर्न बनने और मृत-बिन्दु पर पहुँचने का प्रश्न ही नहीं उठता। मुझे तो उसमें कोई गतिरोध भी नहीं जान पड़ता। बल्कि व्यक्ति-लेखकों की बात छोडक़र अगर समूची प्रवृत्ति को लें तो उसमें रोज-ब-रोज नए-नए चेहरे भी आ रहे हैं और खोज-भरी दृष्टि से वे ज़िन्दगी के नए-नए पक्षों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं।

          दरअसल एक व्यापक प्रवृत्ति के रूप में नई कहानीउपलब्धि से अधिक सम्भावना हैऐसी सम्भावना जिसके लिए सीमाएँ निर्धारित करना कम से कम मेरे लिए तो मुमकिन नहीं है।

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