डायरी
बम्बई...?
दिन-भर परिभाषाएँ घड़ते रहे। साहित्य की,
जीवन की, मनुष्य की।
बे-सिर-पैर। सभी पढ़ी-सुनी परिभाषाओं की तरह अधूरी और स्मार्ट।
दूसरों ने जितनी स्मार्टिंग की कोशिश की,
उससे ज़्यादा खुद की। जैसे परिभाषा नहीं दे रहे थे,
कुश्ती लड़ रहे थे। महत्त्व सिर्फ़ इस बात का था कि
दूसरे को कैसे पटखनी दी जाती है। या फिर पटखनी खाकर भी कैसे बेहयाई
से उठ खड़े होते हैं। ‘साहित्य का वास्तविक
लक्षण यह है कि...,’ ‘जीवन की आध्यात्मिक
व्याख्याओं से हटकर वास्तविक व्याख्या इस रूप में दी जा सकती है
कि...’ ‘नीत्शे की मनुष्य की कल्पना बहुत
एकांगी है। मेरे विचार में मनुष्य का वास्तविक स्वरूप यह है कि...।’
जिसे जितने गुर आते थे कुश्ती के,
उसने वे सब इस्तेमाल कर लिये। नतीजा?
कुछ नहीं, सिवाय भेल-पूरी की
दावत के। साहित्य, जीवन और मनुष्य,
तीनों पर एक-एक डकार और बस के क्यू में शामिल।
बम्बई...?
बहुत उलझन होती है अपने से। सामने के आदमी का कुछ ऐसा नक्शा उतरता है
दिमाग़ में कि दिमाग़ बिल्कुल उसी जैसा हो जाता है। दूसरा शराफत से बात
करे,
तो बहुत शरीफ़। बदमाशी से बात करे,
तो बहुत बदमाश। हँसनेवाले के सामने हँसोड़। नकचढ़े
के सामने नकचढ़ा। जैसे अपना तो कोई व्यक्तित्व ही नहीं। जैसे मैं
आदमी नहीं, एक लेंस हूँ जिसमें सिर्फ़ दूसरों
की आकृतियाँ देखी जा सकती हैं। कभी जब तीन-चार आदमी सामने होते हैं,
तो डबल-ट्रिपल एक्सपोज़र होता है। अपनी हालत
अच्छे-खासे मोंताज की हो जाती है।
कन्नानोर :
8.1.1953
आगरा से चलने के बाद आज मानसिक स्थिति ऐसी हुई है कि यहाँ कुछ लिख
सकूँ। भोपाल में, बम्बई में, गोआ में,
मंगलौर में—सब जगह मन में
विचार आता था कि अपनी किन्हीं प्रतिक्रियाओं को बैठकर लिखूँ,
परन्तु या तो व्यस्तता रहती थी या थकान,
या दूसरे लोग उपस्थित रहते थे।
घर से इस तरह आकर मैं कह सकता हूँ कि मुझे मानसिक स्वस्थता मिली है।
यद्यपि ऐसे क्षण आते हैं, जब घर के सुखों का आकर्षण अपनी ओर खींचता है,
और मन में हल्की-हल्की अशान्ति भर जाती है,
फिर भी अहर्निश नूतन के सान्निध्य की अनुभूति,
केवल निजत्व का साहचर्य, और
चारों ओर के जीवन को जानने की रागात्मक प्रवृत्ति,
इन सबसे सुस्थिति बनी रहती है...
मैंने अपनी यात्रा के नोट्स में कहीं लिखा है कि किसी भी अपरिचित
व्यक्ति से, चाहे उसकी भाषा, उसका मज़हब,
उसका राजनीतिक विश्वास तुमसे कितना ही भिन्न हो,
यदि मुस्कराकर मिला जाए तो जो तुम्हारी ओर हाथ
बढ़ाता है, वह कोरा मनुष्य होता है : कुछ ऐसी
ही मुस्कराहट की प्रतिक्रिया नाना व्यक्तियों पर मैंने लक्षित की है।
यह ठीक है कि बाद में भाषा, मज़हब और विश्वास
के दाग़ उभर आते हैं, परन्तु वे सब फिर उस
वास्तविक रूप को छिपा नहीं पाते, और मनुष्य
की मनुष्य से पहचान बनी रहती है। मुझे याद आता है कि डेल कार्नेगी की
पुस्तक ‘हाउ टु विन फ्रेंड्स एंड इन्फ्लुएंस
पीपल’ में एक जगह उसने लिखा है कि ‘‘जब
अपरिचित व्यक्तियों से मिलो, तो उनकी ओर
मुस्कराओ।’’ यद्यपि लेखक एक मनोवैज्ञानिक
सत्य का उद्घाटन करने में सफल हुआ है, फिर भी
मनुष्यता के इस गुण का व्यापारिकता, और
परोक्ष लाभ की कूटनीति से सम्बन्ध जोडक़र उसने एक अबोध सत्कौमार्य को
कटे-फटे हाथों से ग्रहण करने की चेष्टा की है। वह मुस्कराहट जो तहों
में छिपे हुए मनुष्यत्व को निखारकर बाहर ले आती है,
यदि सोद्देश्य हो तो, वह
उसके सौन्दर्य की वेश्यावृत्ति है।
गाड़ी के सफर में मेरी कापरकर से जान-पहचान हो गयी,
जहाज़ पर मोतीवाला से,
कन्नानोर आकर कपूर से, और कल शाम को
समुद्र-तट पर धनंजय से—बस उसी मुस्कराहट के
बीज से। साधारण चलते जीवन में ये सबके सब ‘साधारण
व्यक्ति’ हैं—इनमें
से किसी में भी कोई ऐसी विशेषता नहीं, जो
इन्हें ‘जानने योग्य’
व्यक्ति बनाती हो। फिर इनसे मिलना भी किसी चयन का परिणाम नहीं,
केवल आकस्मिक योग ही था। परन्तु इन सबमें ही एक
तत्त्व निखरकर सामने आया—वह तत्त्व जो
प्रत्येक मनुष्य में रहता है, परन्तु बहुत कम
ही कभी व्यक्त हो पाता है, शायद सभ्यता के
संस्कार के कारण—यहाँ तक कि बहुत-से ‘जानने
योग्य’ व्यक्तियों में भी उसके दर्शन नहीं
होते—और वह या मनुष्य का मनुष्य में
सहविश्वास, बिना किसी आरोप के,
बिना किसी बाधा के, बिना
किसी कुंठा के।
भोपाल में बिताई गई शाम का वातावरण अपनी हल्की-सी छाप छोड़ गया है।
मुग़लकालीन जीवन की जो कल्पना मस्तिष्क में थी,
उसको कुछ अंशों तक मूर्त रूप में देखकर एक ओर तो यह
पुलक हुआ कि मैं एक कल्पना को साकार रूप में देख रहा हूँ और दूसरे
शायद यह रोमांच हुआ कि मैं वर्तमान से कुछ पीछे हट आया हूँ। अतीत की
एक शाम में, अतीत के एक नगर में,
अतीत के वातावरण में, मुझे
कुछ क्षण जीने का अवसर मिल गया है। वह चौक और वहाँ की दुकानें,
वे तश्तरियों में दस-दस,
बीस-बीस पान लेकर खाते और खिलाते हुए शायर,
वे बिकते हुए मोतिया और चमेली के हार, वे
मस्जिदों-जैसे घर और शुद्ध उर्दू में बात करते हुए ताँगेवाले—मुझे
महसूस हो रहा था कि अभी किसी शहज़ादे या शहज़ादी की सवारी भी उधर से आ
निकलेगी, और लोग झुक-झुककर उसे सलाम करेंगे।
परन्तु सोफिया मस्जिद की आधुनिकता देखकर अतीत का यह सपना टूट गया। फिर
वोल्गा होटल के कीमे की गन्ध भी मुगलिया नहीं,
डालडा के आविष्कार के बाद की थी...
बम्बई विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पर उतरकर यह नहीं लगा कि मैं दो वर्ष
बाद वहाँ आया हूँ। ऐसा लगा जैसे मैं दादर से वहाँ आ रहा हूँ। रोज़ ही
आता हूँ,
और वहाँ के जीवन से उसी तरह ऊबा हुआ हूँ। वही
मछलियों की गन्ध, वही जल्दबाज़ी,
वही सूखे मुरझाए हुए शरीर,
वही कुछ खोकर उसे ढूँढऩे की हताश चेष्टा का-सा जीवन—कहीं
जाने का मन नहीं हुआ, किसी से मिलकर हृदय
उत्साहित नहीं हुआ। जिस यात्रा में वहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के जीवन
में पुनरावृत्ति है, वह दो वर्ष बाद एक दिन
के लिए भी उकता देनेवाली थी, जो वह
पुनरावृत्ति जीवन-भर के लिए जिए जा रहे हैं,
उनके स्नायुओं में कितनी जड़ता भर गयी होगी?
शाम को इक्वेरियम में मछलियाँ देखकर हृदय और आँखों में विस्फार आ गया।
शीशे के पीछे पानी था, जहाँ उपयुक्त पृष्ठभूमि देकर उसे नाना रंगों की
रोशनी से आलोकित किया गया था। अपने-अपने केस में तरह-तरह की मछलियाँ,
केकड़े और इन्हीं श्रेणियों के कुछ दूसरे जीव इठला
रहे थे। वह उनके लिए साधारण रूप से जीना होगा,
जो हमारी आँखों को ‘इठलाना’
नज़र आता है। मैं मछलियों के नाम भूल गया। केवल रंगों
की और उनकी गति की कुछ स्मृति रह गयी है। चौड़े शरीर और छोटे आकार की
वे मछलियाँ, जिनके नीचे,
रेशमी डोरे-से पीछे की ओर फैले रहते थे—एक
नर्तकी के लचकते हुए शरीर से कई गुना अधिक लचकती हुई नाना चितकबरे
रंगों की डेढ़-दो फुट की मछलियाँ—सामूहिक रूप
से एक दिशा से दूसरी दिशा की ओर जाती हुई नाना आकारों की मछलियाँ—नाखून
भर के आकार तक की मुँह के रास्ते साँस लेती हुई भगत मछलियाँ,
जिन्हें यह नाम शयद इसलिए दिया गया है कि उनके मुँह
के खुलने और बन्द होने में वही गति रहती है जो ‘राम’
नाम के उच्चारण में—और
अन्यान्य कई तरह की मछलियाँ। मैं फूलों और तितलियों को देखकर ही सोचा
करता था कि रंगों के और आकारों के इस वैविध्य की सृष्टि करनेवाली
शक्ति के पास कितनी सूक्ष्म सौन्दर्य-दृष्टि होगी—परन्तु
नाखून-नाखून भर की मछलियों के कलेवर में रंगों की योजना देखकर तो
जैसे उस विषय में सोचने से ही रुक जाना पड़ा...
पूना में थर्ड क्लास के वेटिंग हॉल में कुछ समय बिताना पड़ा था। वहाँ
बहुत-से ऐसे स्त्रियाँ-पुरुष थे, जो या तो विकलांग थे, या
आकृति के रूखेपन के कारण मनुष्येतर-से मालूम पड़ते थे। किसी के सिर
पर रूखे बाल उलझे हुए खड़े थे, किसी की दाढ़ी
महीने भर की उगी हुई थी। स्त्रियों में किसी की आँखें रूखी और लाल हो
रही थीं और किसी का भाव-शैथिल्य मन में एक जुगुप्सात्मक भाव भर रहा
था। ऐसे व्यक्तियों की एक श्रेणी ही है जो देश के किसी भी भाग में
पायी जा सकती है। काले पड़े हुए शरीर, सूखी
हुई त्वचा, जीवन के प्रति नितान्त निरुत्साह
भाव, चेष्टाओं में शैथिल्य और बुद्धि के
नियन्त्रण का अभाव। जिस समाज में मनुष्य की एक ऐसी श्रेणी बन सकती है,
उसके गलित होने में सन्देह ही क्या है?
जब मैं अपने-आपको मानसिक दुर्बलता के किसी क्षण में पकड़ पाता हूँ,
तो अपना-आप बहुत भिन्न—साधारण
से कहीं स्तरहीन प्रतीत होता है। ऐसे समय एक ओर तो मैं अपने चेहरे के
शिथिल प्रतिभ भाव को देखता हूँ, और फिर
द्रष्टा के रूप में उस भाव पर मुस्कराता हूँ...सचमुच वह अपना
शिथिल-प्रतिभ रूप दर्शनीय होता है। देखा नहीं जाता।
मार्मुगाँव से मंगलोर तक जहाज़ पर की गयी उन्नीस घंटे की यात्रा में वह
पुलक प्राप्त नहीं हुआ, जिसकी मुझे आशा थी। समुद्र का अपना आकर्षण था,
जहाज़ के डोलने में भी थोड़ा आनन्द था,
खोजने में दृष्टि को कहीं न कहीं कुछ सौन्दर्य मिल
ही जाता था, पर थर्ड क्लास के डेक पर मनुष्य
से जिस रूप में सफर करने की अपेक्षा की जाती है वह किसी भी तरह सह्य
नहीं। जो जहाज़ पशुओं को ले जाते हैं, उनमें
पशुओं के लिए शायद इससे कहीं अच्छी व्यवस्था होती होगी।
कन्नानोर के सागर पुलिन पर टहलते हुए मैं बच्चों के रेत पर बने हुए
घरौंदे देखने लगा था। बच्चों के पिता साथ थे—श्री धनंजय—जिनसे बाद में
परिचय हो गया। उन्होंने जब मेरा विशद परिचय जानना चाहा तो मैंने
बताया कि मैं एक लेखक हूँ, घूमने के लिए
निकला हूँ, पश्चिमी घाट का पूरा प्रदेश घूमने
का विचार रखता हूँ। इस तरह अपना परिचय देकर मुझे एक रोमांच हो आया।
मुझे लगा जैसे मैं कोई बहुत बड़ी बात कह रहा हूँ। यह होना,
और ऐसे होना, जैसे जीवन में
बहुत कुछ पा लेना है। मैंने एक बार लहरों की ओर देखा जो शार्क
मछलियों की तरह सिर उठाती हुई तट की ओर आ रही थीं। फिर बच्चों के
घरौंदों को देखा। फिर दूर क्षितिज के साथ सटकर चलते हुए जहाज़ को देखा
जो कोचीन की ओर जा रहा था। डूबते सूर्य का लगभग एक इंच भाग पानी की
सतह से ऊपर था, जो सहसा डूब गया। कुछ पक्षी
उड़ते हुए पानी की ओर से मेरी ओर आये। बायें हाथ कगार के नीचे काली
चट्टानों के साथ एक लहर ज़ोर से टकराई। कुछ बच्चों की किलकारियाँ
सुनाई दीं। पीछे पुल के पास से कोई कार चल दी।
आज मेरा जन्मदिन है। आज मैं पूरे अट्ठाईस वर्ष का हो गया। मुझे
प्रसन्नता है कि मैं यहाँ हूँ। होटल सेवाय दिन भर शान्त रहता है। रात
को रेडियो का शोर होता है, पर $खैर! मैं यहाँ रहकर कुछ
दिन काम कर सकूँगा।
(शीर्ष
पर वापस)
कन्नानोर : रात्रि—21.1.53
कल सहसा चल देने का निश्चय कर लेने के अनन्तर मुझसे कुछ भी काम नहीं
हो पाया। यह व्याकुलता जो सहसा जाग उठी, बिल्कुल आकस्मिक नहीं कही जा सकती। मैं जानता
हूँ...चाहे यह विरोधोक्ति ही लगती है—कि मुझे
अर्ध-चेतन रूप से सदा अपने से इसकी आशंका रही है। जहाँ तक चलते जाने
का प्रश्न है, चलते जाएा जा सकता है। परन्तु
जहाँ ठहरने का प्रश्न आता है, वहाँ बहुत-सी
अपेक्षाएँ जाग्रत हो उठती हैं और उन सब की पूर्ति असम्भव होने से,
फिर चल देने की धुन समा जाती है।
यहाँ रहकर एक बात हुई है, जिसे मैं सन्तोषजनक कह सकता हूँ। उपन्यास की
आरम्भिक रूपरेखा के विषय में मैं इतने दिनों से संशययुक्त था...वह
रूपरेखा अब बन गयी है। परन्तु मेरे इस सन्तोष को इतना मूल्य क्या कोई
देगा, जितना इसके लिए मैंने व्यय किया है?
एक बात और। घूमने और लिखने की दो प्रवृत्तियाँ हैं,
जिन्हें शायद मैं आपस में मिला रहा था।
अन्योन्याश्रित होते हुए भी ये अलग-अलग प्रवृत्तियाँ हैं,
ऐसा मुझे अब प्रतीत हो रहा है। मैं कैसा भी जीवन
व्यतीत करता हुआ घूमता रह सकता हूँ, परन्तु
बैठकर लिखने के लिए मुझे सुविधाएँ चाहिए ही।
कन्याकुमारी :
31-1-53
कन्याकुमारी आकर जैसे मेरा एक स्वप्न पूरा हो गया है। यह एक विडम्बना
ही थी कि मैं सीधा यहाँ आने का कार्यक्रम बनाकर भी सीधा यहाँ नहीं
आया। पर उससे आज यहाँ आकर पहुँचने का महत्त्व मेरे लिए और भी बढ़ गया
है। साधारणतया देखने पर यह एक समुद्रतट ही है, परन्तु यह केवल समुद्रतट ही नहीं है। यह एक कुँवारी
भूमि है, जहाँ निर्माता की तूलिका का स्पर्श
अभी गीला ही लगता है। यहाँ आकर आत्मा में एक सात्विक आवेश जाग उठता
है। यहाँ आकर रहना अपने में ही जीवन की एक आकांक्षा हो सकती है! शायद
टेलिपैथी की तरह का कोई और भी विनिमय होता है जो दो मनुष्यों के बीच
नहीं, एक मनुष्य और एक स्थान के बीच सम्भव
है। उसे अणुओं का अणुओं के प्रति आकर्षण कह सकते हैं। इसे एक स्थान
का आवाहन कहना शायद कवित्वमय या शिशुत्वपूर्ण लगे। परन्तु व्यक्ति
अपने भावोद्रेक के अनुसार ही जीवन की व्याख्या करने से नहीं रह सकता।
मैं इस समय जिस भावोद्रेक में हूँ, उसे समझने
के लिए बंगाल की खाड़ी, हिन्द महासागर और अरब
सागर के इस संगम-स्थल को एक बार देख लेना आवश्यक है। कितना भी भटककर
एक बार यहाँ आ जाएा जाए, तो उस भटकने में
सार्थकता है।
आगरा :
21.2.53
एक वस्तु का अपना प्राकृतिक गुण होता है। व्यक्ति का भी अपना
प्राकृतिक गुण होता है। मूल्य व्यक्ति और वस्तु के प्राकृतिक गुण का
न लगाया जाकर प्राय: दूसरों की उस गुण को बेचने की शक्ति का लगाया
जाता है। संसार में जितने धनी व्यक्ति हैं, उनमें से अधिकांश दलाली करके—वस्तु
या व्यक्ति के गुण को बेचने में माध्यम बनकर धन कमाते हैं। यह दलाली
वस्तु और व्यक्ति के वास्तविक मूल्यांकन और मूल्य ग्रहण में बाधा है।
जिस हवा में फूल अपने पूरे सौन्दर्य के साथ नहीं खिल सकता,
वह हवा अवश्य दूषित हवा है। जिस समाज में मनुष्य
अपने व्यक्तित्व का पूरा विकास नहीं कर सकता,
वह समाज भी अवश्य दूषित समाज है।
(शीर्ष
पर वापस)
डलहौजी :
17.6.53
मनुष्य के विकास का ज़िक्र करते हुए यह तो माना गया कि जीवों को
परिस्थितियों के अनुकूल अपने शरीर,
त्वचा आदि का विकास करना पड़ा...सर्वाइवल के लिए यह
अपेक्षित था कि वे बदलती हुई अवस्थाओं में या तो बदलें या नष्ट हो
जाएँ। परिस्थितियों के अनुकूल विकास करते-करते धीरे-धीरे मनुष्य ने
जन्म लिया। यह सब तो ठीक है। परन्तु रंगों के विकास के विषय में क्या
कहा जा सकता है? कुछ जीवों में तो हम देखते
हैं कि परिस्थिति के अनुकूल ही आत्मरक्षा के लिए रंग का भी विकास हुआ
है, जैसे कुछ तरह के घासों के कीड़ों आदि
में। परन्तु रंगों के क्षेत्र में हम ऐसा भी वैविध्य पाते हैं जिसका
सम्बन्ध जीवों की आत्मरक्षा के लिए विकास करने की प्रवृत्ति के साथ
नहीं जोड़ा जा सकता। जहाँ तक योनिज प्राणियों का सम्बन्ध है,
हम रंगों की विशेष विविधता नहीं देखते और जो विविधता
है, उसे उनके वायुमंडल द्वारा प्रभावित भी कह
सकते हैं, यद्यपि बिल्कुल काले और बिल्कुल
गोरे का अन्तर पृथ्वी के वर्तमान वायुमंडल में बहुत बड़ा अन्तर है।
योनिज प्राणियों को छोडक़र जब हम इन्द्रियों और अंडजों के क्षेत्र में
आते हैं तो रंगों के नाना विभेद, नाना संयोजन,
जो सब मानवीय दृष्टि को अत्यन्त कलापूर्ण प्रतीत
होते हैं, देखकर सहसा उसके पीछे किसी चेतन
प्रवृत्ति का आभास होता है। उन संयोजनों में जो ज्यामिति न्याय या
जाति सादृश्य और व्यक्ति विभेद दिखाई देते हैं,
उन्हें केवल घटनावश या बस ‘यूँ
ही’ कहकर हट जाने को हृदय स्वीकार नहीं करता।
रंगों के विकास के मूल में ‘सर्वाइवल’
के अतिरिक्त और क्या रहा है,
यह सोचने का विषय है।
डलहौजी :
18.6.53
बादल बरस रहे हैं। मेरे कमरे के बाहर घाटी में हल्के-हल्के सफेद बादल
भरे हुए हैं। अपनी वासना के उन्माद में बादल गरजता है—बरसती
बूँदों से धरती में वही वासना नर्तन करती है। धरती उन बूँदों को पीकर
तृप्ति को स्वीकार करती है...नए अंकुर, नए
जीवन के रूप में सारी हरियाली धरती के अन्दर से फूट पडऩे के लिए
करवटें लेने लगती है। मेरे पौराणिक दोस्तो,
माँ धरती तुम्हारे सामने अभिसार करती है और तुम्हारी नैतिकता की
भावना, तुम्हारी पहरेदारी,
तुम्हारी जीवन के विकास को रोकने की प्रवृत्ति
जाग्रत नहीं होती? यदि यह विश्वमय अभिसार
तुम्हारी व्याघातक प्रवृत्तियों को जाग्रत नहीं करता तो मेरे पौराणिक
दोस्तो, तुम यह क्यों नहीं सोचते कि हम भी
माँ धरती की सन्तान हैं, और हमारे निर्माण का
सबसे बड़ा भाग वही धरती है, जो इतनी आतुरता
से बरसते हुए बादलों की बूँदों को पी रही है।
डलहौजी : रात्रि—21.6.53
एक व्यक्ति को इसलिए फाँसी की सज़ा दे दी जाती है कि वह व्यक्ति
न्याय-रक्षा के लिए खतरा है। वह व्यक्ति जो न्याय-रक्षा के लिए खतरा
हो सकता है,
वह नि:सन्देह उस न्याय से अधिक शक्तिवान होना चाहिए।
न्याय,
जो सदियों से नस्लों और परंपराओं का सामूहिक कृत्य
है, यदि एक व्यक्ति के वर्तमान में रहने से
अपने लिए आशंका देखता है, तो वह न्याय जर्जर
और गलित आधार का न्याय है।
वास्तव में ऐसे न्याय के लिए खतरा कोई एक व्यक्ति नहीं होता—व्यक्ति
तो उसके लिए खतरे का संकेत ही हो सकता है। उसके लिए वास्तविक खतरा
भविष्य है, जिसे किसी भी तरह फाँसी नहीं दी
जा सकती।
अतीत कभी भविष्य के गर्भ से बचकर वर्तमान नहीं रह सका।
समय सदा दिन के साथ और अगले कल का साथ देता है।
मनुष्य को फाँसी देकर नष्ट करना वहशत ही नहीं,
पागलपन भी है। यह पागलपन और वहशत डरे हुए हृदय के
परिणाम होते हैं जो अपने पर विश्वास और नियन्त्रण खो देता है।
समय ऐसे हृदयों का साथ नहीं देता।
वे झडक़र नष्ट हो जानेवाले पत्ते हैं,
जो झडऩे से पहले अपनी कोमलता खो बैठते हैं।
जालन्धर : तिथि याद नहीं
अब यह डायरी कुछ दूसरा रूप ले रही है शायद। ऐसा लग रहा है कि अब जो
कुछ मैं इसमें लिखूँगा वह अधिक वैयक्तिक होगा। परन्तु,
जो जिस रूप में बाहर आना चाहता है,
उस पर बन्धन नहीं होना चाहिए।
जालन्धर : तिथि याद नहीं
मैं अभी तक
28 फरवरी की शाम को हुई घटना के प्रभाव से मुक्त
नहीं हो पाया। न मुक्त हो पाना शायद अपनी ही कमज़ोरी है। कमज़ोरी है,
या sensitiveness —मैं उस
विषय में खामख्वाह सोचने लगा हूँ, इस समय भी।
हाँ तो...वे दो थीं। वे रिक्शा में मुझसे आगे चलीं,
और फिर जानबूझकर उन्होंने रिक्शाओं की होड़ भी शुरू
कर दी। होड़ क्यों? वे ही अपनी रिक्शा कभी
पीछे रह जाने देतीं, कभी आगे निकलवा लेतीं।
हर बार क...किस बदमज़ाकी से हँसती थीं? ‘‘देखिए,
हम अब आपको आगे निकलने दे रही हैं।’’ ‘‘देखिए,
हम आपसे आगे जा रही हैं...आप हमसे हर बार पीछे रह
जाते हैं।’’ ‘‘हम आपके बराबर चलें तो आपको
कोई आपत्ति तो नहीं?’’ ‘‘किसी दिन हमें अपने
घर बुलाएँ।’’ ‘‘सुना है,
आपका नौकर चला गया है...उसे शिकायत थी कि आपके घर
मेहमान बहुत आते हैं।’’ ‘‘तो हम किस दिन आपके
घर आयें?’’ ‘‘चाय तो पिलाइएगा न?’’ ‘‘आप
कंजूस हैं, आपने एक दिन पहले भी और लोगों को
चाय पिलाई थी पर मुझे नहीं पूछा था।’’ ‘‘किसी
रेस्तराँ में चलिए न?’’ ‘‘किस रेस्तराँ में
चलिएगा—रॉक्सी हमें पसन्द नहीं।’’
यह कह रही थी...क...! वह बदसूरत लडक़ी,
जिसके पास शायद वासना के अतिरिक्त नारीत्व का और कुछ
नहीं है। और उसकी पहले की चेष्टाएँ भी अब अर्थयुक्त बनकर मेरे सामने
आ रही थीं—जब उसने दीवाली और नए वर्ष के
कार्ड भेजे थे—मुझसे मेरी पुस्तकें माँगने
आयी थी और एक दिन कॉलेज में मेरे कमरे में आकर बोली थी, ‘‘एक
प्रश्न पूछना चाहती हूँ। पाठ्य विषय में दिलचस्पी नहीं है। क्या यह
बताएँगे कि मनुष्य रोता क्यों है?’’ और फिर
बाद में व्याख्या करती हुई बोली थी, ‘‘देखिए,
मैं यूँ ही जानना चाहती हूँ। मेरी एक सहेली मुझसे
पूछती थी। मैं तो जानती नहीं, क्योंकि मैं
कभी रोयी नहीं।’’
और जब मैंने रिक्शावाले से कहा कि वह रिक्शा बहुत आहिस्ता चलाए और
दूसरे रिक्शावाले को आगे निकल जाने दे,
तो उनका रिक्शा भी बहुत आहिस्ता चलने लगा और पुन:
मेरे बराबर आ गया। और इस बार र... ने कहा, ‘‘आप
तो हमसे डरकर पीछे जा रहे हैं कि कहीं सचमुच इन्हें चाय न पिलानी
पड़े। चलिए, हम आपको चाय पिलाती हैं।’’
और क... बोली,
‘‘देखिए, हमारा घर पास है।
हमारे साथ चलिए। हम आपको चाय पिलाएँगी। चलिए,
चलते हैं?’’
उन्होंने रिक्शावाले को हिदायत दे रखी थी कि मेरा रिक्शा तेज़ चले या
आहिस्ता,
वह रिक्शा बराबर ही रहे।
कचहरी पहुँचने से पहले,
उनके रिक्शावाले ने पीछे से रिक्शा बराबर लाकर पूछा,
‘‘साहब, वे पूछ रही हैं कि
आप क्या मॉडल टाउन नहीं चल रहे? उन्होंने
रिक्शा मॉडल टाउन का किया है।’’
मैंने यह उत्तर देकर कि मुझे कुछ काम है,
और मैं यहीं उतर रहा हूँ,
रिक्शावाले से रिक्शा रोक लेने के लिए कहा। मेरा रिक्शा रुकने पर
उनका रिक्शा भी रुक गया।
‘‘हमने आपकी वज़ह से मॉडल टाउन का रिक्शा किया है,
और आप यहाँ उतर रहे हैं?’’
क... बोली।
‘‘मुझे यहाँ कुछ काम है,’’
मैंने कहा, ‘‘इस समय क्षमा करें...’’
और मैं बिना पीछे देखे सीधा चल दिया। मुझे खेद था कि
ये लड़कियाँ इतनी बदमज़ाक क्यों हैं? मैं
‘प्योरिटनिज़्म’ का
दावेदार नहीं, परन्तु कोमलताप्रिय मानव,
मानव-व्यवहार में... विशेषतया एक नारी के व्यवहार
में कोमलता और शिष्टता की आशा तो करता ही है! नारी का एक-चौथाई
सौन्दर्य, उसकी त्वचा के वर्ण और विन्यास में
रहता है, और सम्भवत: तीन-चौथाई अपने ‘वदन’
में। और जहाँ, वह एक-चौथाई
भी नहीं, और यह तीन-चौथाई भी नहीं—उस
वासनायमी मिट्टी...उस दलदल को क्या कहा जाए?
फिर भी इस घटना से एक बात अवश्य हुई, मेरे
दिमाग़ से थोड़ा जंग उतर गया।
दूसरे दिन क... ने एक कॉपी मुझे दी—यद्यपि
मैंने क्लास से कुछ लिखकर लाने के लिए नहीं कह रखा था। कॉपी में ग़लत
अँग्रेज़ी में लिखी चिट थी—‘Somehow
or the other, please do come at my home, only for some time.’’
और बाकी का जो पृष्ठ देखने के लिए मोड़ा गया था,
उस पर कुछ ऐसे-ऐसे उदाहरण थे :
‘‘Divers mostly in the water die;
A lover when the sex feels shy.’’ तथा
‘‘Loving a beautiful woman is the best way of glorifying God.’’
पढक़र एक बार तो मैं जी खोलकर हँस लिया। Loving a beautiful
woman! तो यह लडक़ी भी अपने को beautiful
woman समझती है! खूब! शायद उसका दोष नहीं।
—और यहाँ आकर मैं क्षण-भर के लिए सोचता हूँ। यहाँ
अवश्य ही थोड़ा विश्लेषण करना चाहिए। कुछ दिन पहले—बहुत
दिन नहीं—शायद महीना-भर पहले ही एक और लडक़ी
की कॉपी में मुझे ऐसे ही काग़ज़ मिले थे। एक बार,
फिर दूसरी बार, फिर तीसरी
बार। कुछ ऐसे ही उद्धरण उसने भी संकलित कर रखे थे :
‘‘Man loves little and often,
Woman loves much and rarely.’’
‘‘He who loves not wine, woman and song,
Remains a fool his whole life long.’’
‘‘परस्पर
भूल करते हैं, उन्हें जो प्यार करते हैं!
बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं!
उन्हें अवकाश ही रहता कहाँ है मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं,
यही उपकार करते हैं।’’
‘‘चाहता है यह पागल प्यार,
अनोखा एक नया संसार!’’
उन काग़जों को पढक़र मुझे उस तरह की वितृष्णा का अनुभव क्यों नहीं हुआ
था?
इसलिए कि उस लिपि के मध्य जिन हाथों का सम्बन्ध था,
उन हाथों की त्वचा कोमल और सुन्दर है?
लिखनेवाली की आँखों और ओंठों में आकर्षण है। वह चकित
मृगी-सी मेरी ओर देखा करती है? उसकी आँखें
मुझे मासूम क्यों लगती हैं? क्या यह चेहरे का
ही लिहाज़ है कि मुझे उसका यह सब लिखना बुरा नहीं लगा?
वह बच्ची भी तो है। शायद वह समझती भी नहीं कि वह
क्या लिख रही है। यौवन के प्रथम उबाल में वह सब लिखने को यूँ ही मन
हो आता है—और फिर पात्र वही बन जाता है,
जिसे सम्बोधित कर पाना सम्भव हो। यह विश्लेषण उसके
साथ अन्याय भी हो सकता है। वह उन दो लड़कियों की तरह,
जिनका मैंने पहले उल्लेख किया है, ‘फ्लर्ट’
तो प्रतीत नहीं होती। उसे चाहनेवालों की कमी नहीं
है। साधारणतया लोगों की धारणा है कि वह बहुत मासूम है। मैं नहीं
जानता, क्योंकर उसने यह initiative
लेने का साहस किया? जो कुछ
भी है, वह लडक़ी अच्छी है। यदि वह अपने-आप न
सँभल गयी तो मुझे उसे समझा देना होगा।—परन्तु...
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर : तिथि याद नहीं
उस दिन वह आयी थी—वह
जो अब तक अकेली दिखती रही है—उसके साथ क...
थी—ये दोनों इकट्ठी क्यों और किस तरह आयीं,
यह मैं नहीं जानता। मैं बस स्टॉप के पास खड़ा था—कॉलेज
जाने के लिए बस पकडऩे के उद्देश्य से—जब
मैंने उन दोनों को पास से गुज़रते देखा—मेरे
पास दो लडक़े खड़े बात कर रहे थे। वे गुज़र गयीं,
और पेड़ के पास जाकर द्धद्गस्रद्दद्ग की ओट में खड़ी
हो गयीं—बस आ गयी,
मैं बस में बैठ गया। उसी समय एक रिक्शावाले ने आकर कहा, ‘‘आपको
वहाँ कोई बुला रही हैं।’’
मैं उतरकर वहाँ चला गया। उसने कहा,
‘‘देखिए, हम तो आपसे मिलने
आयी हैं, और आप चले जा रहे हैं।’’
‘‘मुझे कॉलेज जाना है—मेरी
दो बजे से क्लास है। कहिए?’’ मैंने कहा।
वे चुप रहीं।
‘‘कोई विशेष काम हो तो आप बताएँ...’’
वे चुप रहीं।
‘‘तो इस समय तो मैं जा रहा हूँ—’’
वे चुप रहीं।
मैंने रिक्शा लिया और चल दिया।
वे लौट गयीं।
जालन्धर :
24.9.55
दस महीने के बाद—केवल
अपने को अपनी याद दिलाने के लिए।
नौकरी के दलदल और अपने आत्म में गहरा संघर्ष है—मैं
जीतूँगा—ज़रूर जीतूँगा।
जालन्धर : रात्रि—26.1.57
—आज सवा साल के बाद, बल्कि
सोलह महीने के बाद—इस दौरान ज़िन्दगी के सबसे
बड़े द्वन्द्व से गुज़रा हूँ—मैंने पिछले छह
साल की घुटन को समाप्त करना चाहा है—जिस औरत
से मैं प्यार नहीं कर सकता, उसके साथ मैं
ज़िन्दगी किस तरह काट सकता हूँ? आज वह मुझ पर
‘वासना से चालित’ और
‘इन्सानियत से गिरा हुआ’
होने का आरोप लगाती है—क्योंकि
मैंने उससे तलाक चाहा है—क्योंकि मैं अपने
अभाव को पूर्ति के लिए एक ऐसे व्यक्ति का आश्रय चाहता हूँ,
जो मुझे खींच सकता है,
बाँधकर रख सकता है।
जालन्धर :
30.4.57
—आज क्या-क्या लिखूँ? पहले
आज की ही कहानी—कस्टम्स ऑफिस के बाहर वह शख्स
बैठा था, मोटी-सी पगड़ी बाँधे—अपने
आपसे ढील छोड़े—और बक रहा था—‘‘हिन्दुस्तान
को आज़ादी दिलाई सुभाष ने—आज़ादी दिलाई भगतसिंह
ने—महात्मा गाँधी ने दिलाई ये आज़ादी। या इन
कुत्तों ने जो अब आज़ादी के साथ सम्भोग कर रहे हैं?—वहाँ
से हम आये थे—अपने सामने अपनी बहनों-बेटियों
को नग्न होते देखकर, अपने बच्चों को कत्ल
होते देखकर कि हाँ, अब आज़ादी तो मिली है। यह
आज़ादी मिली है कि पी... रात-दिन यहाँ धक्के खा रहे हैं और कहते हैं
कि गवर्नमेंट वक़्त ले रही है। सालो, यमराज भी
तो हमारा वक़्त गिन रहा है। अगर वह वक़्त पूरा करेगा भी तो इधर तुम
कहना कि तुम्हारी अर्जी मंजूर हो गयी।’’
दफ़्तर का चपरासी उसे रोक रहा था,
मगर वह और छिड़ता जा रहा था—
‘‘मैं भौंकूँगा और यहीं बैठकर भौंकूँगा। मैं कुत्ता
हूँ—परमात्मा का कुत्ता—God...God...परमात्मा
Dod...Dog कुत्ता,
मैं परमात्मा का कुत्ता हूँ—भौंकता
हूँ—भौंकता रहूँगा,
मुझे किसी का डर नहीं है। मैं आप परमात्मा हूँ—मैं
ही नानक हूँ क्योंकि इसकी आवाज़ मेरे अन्दर बोलती है। मैं सच कहूँगा—ज़रूर
कहूँगा। मेरे भाई की यह बेवा बैठी है—यह उसका
लडक़ा है, दस साल का तपेदिक का मरीज—यह
उसकी लडक़ी है, जवान—ब्याहने
जोग—कहाँ ले जाऊँ इनको?
घर में आय नहीं है, कहाँ से
खिलाऊँ? सरकार आज वक़्त ले रही है। सरकार दस
साल से वक़्त ले रही है। सरकार अभी दस साल वक़्त लेती रहेगी। राजा
रणजीतसिंह आप भेस बदलकर घूमता था—प्रजा का
दुख-सुख देखता था और एक ये बादशाह हैं—बेताज
बादशाह—ये बेताज बादशाह हैं और मैं बेलाज
बादशाह हूँ। बग़ैर लागलपट बात कहूँगा। यह कुत्तों की हुकूमत है और मैं
परमात्मा का कुत्ता भौंक रहा हूँ।’’
और फिर आसपास खड़े उदास चेहरों को सम्बोधित करके वह कहने लगा,
‘‘इस तरह क्यू बाँधकर खड़े रहो—खड़े
रहो जब तक मौत नहीं आ जाती—भौंकते रहो जब तक
शरीर में दम है, कुछ लेना है तो भौंकों—कुत्तो,
भौंको—सबके सब मिलकर भौंको,
नहीं भौंकोगे तो कुछ नहीं मिलेगा—’’
तभी उसकी अन्दर बुलाहट हो गयी।
‘‘लो देख लो—भौंकने का यह
असर होता है। सबके सब मिल जाओ—एक आवाज़ से
भौंको—खुदा के कुत्तो—एक
आवाज़ से भौंको।’’
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
16.5.57
इस बीच इलाहाबाद चले जाने के कारण नियमित रूप से डायरी नहीं लिखी जा
सकी। इन दिनों का ब्यौरा इस प्रकार है :
सात की दोपहर को फ्लाइंग मेल से चल दिया था। बंसल स्टेशन पर मिल गया
था। अम्बाला तक वह साथ रहा। वह पाठ्य-पुस्तकों के सम्बन्ध में अपने
और दूसरों के हथकंडे बतलाता रहा। वह अपने साले की मृत्यु पर शोक
प्रकट करने नहीं जा सका,
क्योंकि उसे उस दिन अपनी पुस्तक की सिफारिश के
सिलसिले में किसी से मिलने जाना था।
बंसल के जाने के बाद मैं काफी देर तक र... की डायरी पढ़ता रहा। उसकी
सेवासदन सम्बन्धी डायरी ज़िन्दगी के घिनौने यथार्थ पर बहुत प्रकाश
डालती है। काश! कि इस लडक़ी ने हर चीज़ को और विस्तार के साथ अंकित
किया होता।
रात को दिल्ली से स्लीपिंग कार में जगह मिल गयी। कंडक्टर ने तीन की
बजाय दो रुपये लिये और रसीद नहीं दी। मैं उस शख्स के गोल-मटोल,
डरपोक और लोलुप चेहरे को देखता रहा। पाँच का नोट उसे
दिया था और उसने डरते-डरते, आँख से मेरा
जायज़ा लेते हुए, मुँह में कुछ बुदबुदाते हुए
तीन एक-एक रुपये के नोट मेरी ओर बढ़ा दिये। पहले मेरा मन हुआ कि उसे
तंग करूँ, मगर मुझे नींद आ रही थी इसलिए मैं
सो गया।
आठ की दोपहर को इलाहाबाद पहुँचा। अश्क स्टेशन पर लेने आये हुए थे।
कौशल्या भाभी स्टेशन के बाहर थी। घर पहुँचकर पता चला कि शीला ने शाम
को बच्चों की पार्टी रख रखी है। अश्क सात की रात को उसे बता आये थे
कि मैं निश्चित रूप से आ रहा हूँ। दोपहर भर प्रतीक्षा की कि शायद
वहाँ से कोई पैगाम आये या शीला बच्चे को मिलाने के लिए ले आये। इस
बीच कमलेश्वर और दुष्यंत के टेलीफोन आये थे और उनसे छह बजे मिलने का
तय किया था। चार बजे तक प्रतीक्षा करके निकल पड़े कि बच्चे के लिए
कोई उपहार तो भेज दिया जाए। सिविल लाइन्स से बच्चे के लिए उपहार
खरीदे। नीलाभ का वहाँ निमन्त्रण था,
सो उपहार उसी के हाथ भेज दिये गये। रामा’ज़
कॉफे में दुष्यंत और कमलेश्वर मिल गये। इलाहाबाद की साहित्यिक
हलचलों की चर्चा होती रही। मार्कंडेय भी आ गया। नई कहानी के सम्बन्ध
में एक पुस्तक निकालने की उन लोगों की योजना थी,
जिस पर बात होती रही। राजकमल में ओमप्रकाश का बुलावा
आने पर वहाँ चले गये। वहाँ पाठकजी भी थे। थोड़ी-सी पुरतकल्लुफ बातचीत
हुई। साही मस्त गयन्द की गति से आकर बैठ गया। दस मिनट बाद वहाँ से चल
दिये।
रात को घर आकर फिर प्रतीक्षा की कि शायद कोई बच्चे को लेकर आये या
वहाँ से कोई समाचार आये। कोई नहीं आया,
सो बहुत निराशा हुई। बच्चे के जन्मदिन के लिए ही आया
था और उस दिन उसी का मेल नहीं हुआ। बहुत दुख और क्षोभ हुआ। रात देर
तक जागता रहा।
नौ की सुबह अश्क जाकर शीला को बुला लाये। दोपहर को खाना खाने के बाद
देर तक बातें होती रहीं। सारी स्थिति फिर एक बार खोलकर सामने रखी
गयी। शीला ने अपने पिता नवरत्नजी को पत्र भेजा कि वे भी वहाँ आ जाएँ।
साढ़े दस बजे जब उनकी प्रतीक्षा करके निराश हो चुके तो वे आये। रात
डेढ़ बजे तक बातें होती रहीं। जितने सवाल उठाये गये,
उनमें से किसी का वे जवाब नहीं दे सके,
मगर उनकी आर्यसमाजी हठधर्मी बनी रही। सारी बातचीत का
निष्कर्ष यही था कि वे परिस्थिति को सुलझाने में सहायक नहीं,
बाधक ही हो सकते हैं।
10 को शीला फिर बच्चे को लिये हुए आ गयी। उसने
बतलाया कि रात को वे लोग तीन बजे तक बातचीत करते रहे हैं और उसके
पिता इस बात पर रज़ामन्द हो गये हैं कि हम लोग आपसी समझौते से जो
निर्णय चाहें कर लें। वे सिर्फ़ यह चाहते हैं कि इलाहाबाद में केस न
किया जाए। वकील को बुलाकर मशविरा किया गया।
कई तरह के उपाय सोचे गये। यह लगा कि वर्तमान कानून के अन्तर्गत
सम्बन्ध-विच्छेद के लिए कोई न कोई तोहमत लगाना आवश्यक है। अन्तत:
मैंने यही सुझाव दिया कि वस्तुस्थिति के सत्य को अपनाकर ही चला जाए।
दो साल से शारीरिक सम्बन्ध न रहने के आधार पर पहले
judicial separation कर लिया जाए और दो साल बाद
सम्बन्ध-विच्छेद के लिए कार्यवाही की जाए।
11 को सुबह अश्क ने नरेश मेहता,
रेणु और भैरवप्रसाद गुप्त को नाश्ते पर बुलाया था।
शीला भी आ गयी थी। मुझे साथ ले जाने के लिए दुष्यंत भी आ गया। कुछ
देर काफी शगल रहा। छुट्टी बढ़वाने का निश्चय पहले कर लिया था। भाभी
को फोनोग्राम लिखकर दे दिया। वहाँ से चलकर दुष्यंत के साथ पहले
कमलेश्वर के यहाँ गया। कमलेश्वर को लेकर श्रीपत और अमृत से मिलने
गये। शिष्टाचार के अलावा कोई खास बातचीत नहीं हुई।
शीला की माँ के आग्रह पर दोपहर का खाना उनके यहाँ मान लिया था। अश्क,
कौशल्याजी और मैं—तीनों लगभग
दो बजे वहाँ पहुँचे। नवरत्नजी घर पर नहीं थे। शीला की भाभी स्वर्ण को
पहली बार देखा। देखने में मुझे वह लडक़ी बहुत ही साधारण लगी। मुझे
आश्चर्य हुआ कि कैसे पुष्पाजी की जगह इन लोगों ने इस लडक़ी को पसन्द
किया है? क्या सिर्फ रुपये-पैसे के लिए ही?
वहाँ से निकलकर बाज़ार में घूमते रहे। मुन्ने के लिए स्ट्रा हैट
खरीदा। बाज़ार से कौशल्याजी लौट गयीं। मैं और अश्क सिविल लाइन्स चले
गये। रामा’ज़
में चाय पी। फिर राजकमल चले गये। वहाँ से मैं ओमपकाश को कॉफी हाउस ले
गया। वहीं बैठकर पन्द्रह मिनट में तय किया कि आगामी प्रकाशन मैं उनके
यहाँ से अपने इन्वेस्टमेंट से करूँगा। यूँ उन्होंने बताया कि वे अपने
डायरेक्टर्स की मीटिंग में मेरी सब किताबें अपने यहाँ से प्रकाशित
करने का निर्णय कर चुके हैं। मगर मुझे अपने इन्वेस्टमेंट वाली स्कीम
ज़्यादा पसन्द आयी। वहाँ से निकलकर फिर रामा’ज़
कॉफे में चला गया। वहाँ दुष्यंत और गंगाप्रसाद पांडेय प्रतीक्षा कर
रहे थे। कुछ देर बैठकर बाग की तरफ चले गये। बाद में पांडेयजी अपनी
कार में सिविल लाइन्स तक छोड़ गये। हम दोनों ने रिक्शा लिया और जमुना
ब्रिज की तरफ लम्बी सैर पर निकल गये। रास्ते में दुष्यंत ने अपनी एक
मुसलमान माशूका का किस्सा सुनाया और फिर द... का किस्सा शुरू कर
दिया। उसने द... के साथ पहले कमलेश्वर के और फिर अपने सम्बन्ध के
विकास पर प्रकाश डाला और बताया कि इस सम्बन्ध में शारीरिकता ने कहाँ
और कैसे प्रवेश किया। द... के नीलाभ प्रकाशन छोडऩे से आज तक के सारे
प्रकरण की संक्षिप्त रूपरेखा जानी और मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि
ये लोग जो अश्क को बदनाम किया करते हैं, उसके
मूल में इनकी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ,
स्पद्र्धाएँ और प्रतिस्पद्र्धाएँ ही हैं।
रात को अश्क ने किताब महल के श्रीनिवास को खाने पर निमन्त्रित कर रखा
था। उसने भी द... का ही किस्सा छेड़ दिया। द... नीलाभ से जाकर पहले
कुछ दिन उसके यहाँ रही थी। दुष्यंत ने मुझे बतलाया था कि किस तरह
श्रीनिवास द... को शारीरिक रूप से पाने के लिए उतावला हो रहा था और
किस तरह उसने उसे बुत्ता दे दिया था।
‘नई कहानी’ की योजना में
दोनों एक-दूसरे को बुत्ता ही दे रहे थे। अब श्रीनिवास बता रहा था कि
द... के राजकमल में जाने के बाद से ओमप्रकाश के घर में क्या
प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं। विषय रोचक था, मगर
मैं ज़्यादा देर नहीं सुन सका, क्योंकि मुझे
नींद आ रही थी। मैं जाकर सो गया।
12 को फिर शीला सवेरे ही आ गयी। उसके आने से पहले
पाठकजी आकर खाने के लिए कह गये थे। आज ‘परिचय’
की गोष्ठी भी थी, जहाँ विशेष
रूप से बुलाया गया था, परन्तु शीला के आने की
प्रतीक्षा में ही वहाँ नहीं गया। आज हमें अन्तिम निर्णय कर लेना था।
सुबह कुछ बातचीत नहीं हुई। ग्यारह-साढ़े ग्यारह बजे पाठकजी के यहाँ
चला गया। रेंड और उनकी पत्नी भी खाने पर निमन्त्रित थीं। कुछ
व्यक्तियों, जातियों और प्रादेशिक रीतियों के
बारे में उखड़ी-उखड़ी-सी पुरतकल्लुफ बातचीत होती रही। डेढ़ बजे के
लगभग लौट आया।
शाम तक हम लोगों ने बातचीत करके निश्चय कर लिया कि मैं ही
‘ज्यूडिशियल सेपरेशन’ के लिए
अप्लाई करूँगा—सम्भव हुआ तो पठानकोट से।
सायंकाल अमरकान्त और शेखर जोशी मिलने के लिए आ गये। मुझे इस बात की
बहुत खुशी हुई कि उन दोनों ने प्रोफेशनल ढंग से बातें नहीं कीं। अश्क
अपनी कविताएँ सुनाने लगे,
इसलिए बातचीत रुक गयी। चलते हुए खुसरो बाग के मोड़
तक फिर उन लोगों से कुछ बातें हुईं। इलाहाबाद के साहित्यिक माहौल से
वे लोग बहुत कुछ ‘फ्रस्ट्रेटेड’
से महसूस हुए। ‘परिमल’
ग्रुप से तो वे अपने को अलग समझते थे,
इसलिए उससे उन्हें गिला नहीं था। उन्हें गिला था तो
‘परिचय’ के ही अपने
साथियों—कमलेश्वर,
मार्कंडेय और दुष्यंत से। द... कांड की वजह से भी इन तीनों से वे
त्रस्त थे।
13 को चलने का पक्का इरादा कर लिया। दोपहर को रामा’ज़
कॉफे में दुष्यंत मिल गया, और वह मुझे भारती
के घर छोड़ आया। सारी दोपहर भारती से अपने निजी मसले पर ही बात होती
रही। शाम को कॉफी पीकर रघुवंश के घर गये। वहाँ चाय पीकर लौटते हुए
भारती ने कान्ता को भी ले लिया और हम तीनों नीलाभ प्रकाशन आ गये।
शीला अभी वहीं थी। वह थोड़ी देर में आने को कहकर मुन्ने को छोडऩे चली
गयी। मैंने सामान पैक किया। खाना खाने के बाद सब लोग स्टेशन चले गये।
कमलेश्वर और दुष्यंत वहाँ पहले से थे। दुष्यंत ने मेरे साथ ही
सहारनपुर तक चलने का कार्यक्रम बनाया था। विनय भी आया। गाड़ी लेट थी,
इसलिए अश्क, भारती और विनय
को भेज दिया। बाद में शीला कमलेश्वर के साथ चली गयी।
गाड़ी के चलते ही दुष्यंत को कहानी के सम्बन्ध में एक परिसंवाद करने
की सूझी और एक घंटा नई कहानी के सम्बन्ध में हम दोनों का बेसिरपैर
का परिसंवाद चलता रहा। उसके बाद दुष्यंत सो गया,
लेकिन मुझे सुबह तक नींद नहीं आयी।
14 को सुबह गाज़ियाबाद स्टेशन पर सामान उतार लिया,
क्योंकि दुष्यंत अपने टिकट से दिल्ली होकर नहीं जा
सकता था। गाज़ियाबाद स्टेशन के फस्र्ट क्लास वेटिंग रूम में चार सौ
बीसी करके नहाये-धोये। फिर बस लेकर दिल्ली की तरफ चल दिये। रास्ते
में एक शायर मिल गया जो ग़ज़लें और किते सुनाता रहा।
दिल्ली पहुँचकर खाना खाया और राजकमल प्रकाशन में जाकर देवराज से
मिले। दुष्यंत को अपनी किताब का हिसाब लेना था। देवराज ने शाम को
वहाँ चाय पीने के लिए कहा। वहाँ से उठकर रेडियो स्टेशन चले गये। वहाँ
दुष्यंत अपने प्रोफेशनल काम में लग गया और मैं सत्येन्द्र शरत् के
साथ रिजर्व बैंक के कैंटीन में चला गया। थका हुआ था,
इसलिए शरत् से ज़्यादा बात नहीं हो सकी। उसने
दुष्यंत के साथ अपनी लड़ाई का किस्सा सुनाया जो दुष्यंत मुझे पहले
सुना चुका था।
रेडियो स्टेशन से लौटते हुए ओंकारनाथ श्रीवास्तव साथ चला आया। उसके
सम्पादित संग्रह की बात को लेकर उसे थोड़ा मसला। फिर राजकमल से चाय
पीकर गाज़ियाबाद पहुँच गये। ठेके से बियर की बोतल लेकर एक सोडावाटर की
दुकान की बेंच पर बैठ गये। दुष्यंत महाराज व्हिस्की पीकर उलटे हो
जाते हैं पर बियर उनसे ज़रा भी नहीं पी गयी।
अभी जनता एक्सप्रेस के आने में अढ़ाई-तीन घंटे थे। प्लेटफार्म पर
बेंच के साथ सन्दूक मिलाकर लेट गये। दुष्यंत ने फिर द... पुराण के
विस्तृत उपाख्यान बतलाना आरम्भ कर दिया। उसने बतलाया कि किस तरह द...
की माँ इस सारे प्रकरण को—यहाँ
तक कि उन लोगों के cohabitation की साक्षी
रही हैं। किस तरह वह ऐसे अवसरों पर उन्हें चाय पहुँचाती रही है और
किस तरह द... बात-बात पर तमककर उसे चप्पलों से पीटती रही है। उसने
द... के साथ लखनऊ और बनारस जाने के किस्से भी सुनाए और यह भी कि कैसे
उसमें और कमलेश्वर में खटपट हो गयी थी। जिस वीभत्स नग्नता की ओर उसने
संकेत किया उससे मेरा मन कई बार सिहर उठा और मुझे बहुत वितृष्णा हुई।
मगर दुष्यंत कहता रहा कि वह लडक़ी बहुत प्यारी है,
और उसमें कई खूबियाँ हैं, और
कि आज जब उससे लड़ाई है, उसे उसके बिना बहुत
सूना-सूना लगता है। दुष्यंत ने अपने कुछ ज़मींदारी के अनुभव भी सुनाए
कि किस तरह उसने कई बार किसानों के घर जलवाए हैं और उनके यहाँ
रिवाल्वर रखकर बरामद कराए और उन्हें जेल करायी है। ‘‘वहाँ
जाकर साहित्यिकता-वाहित्यिकता सब भूल जाते हैं प्यारे लाल! वहाँ तो
ठाठ से ज़मींदारी करते हैं।’’
और फिर द... पुराण कि किस तरह वह उसकी लडक़ी को एक बार साथ ले आयी थी
और किस तरह वह
cohabitation के तुरन्त बाद उसे भैया कहकर उससे पानी
माँगती है और उसे उस पर प्यार हो जाता है।
रात गाड़ी में फिर नींद नहीं आयी। इधर-उधर की बातों में मन बहलाया।
सहारनपुर के बाद थोड़ी देर के लिए सो गया।
15 को जालन्धर पहुँच गया। खाना खाते ही घोड़े बेचकर
सो गया और छ: घंटे बाद होश आया। एक साहब बहुत दूर से मिलने आये
थे...कुछ एम.ए. परीक्षा के सम्बन्ध में परामर्श लेने। उन्हें ठीक से
अटेंड नहीं कर सका। शाम को पता चला कि कॉलेज अपना फोनोग्राम पहुँचा
ही नहीं और वहाँ तीन दिन से धूम मची हुई है कि राकेश साहब नदारद हैं।
रात को थोड़ा टहलने के बाद चिट्ठियाँ लिखीं। साढ़े दस बजे के करीब
नरेन्द्र आ गया। साढ़े बारह बजे तक बातें होती रहीं। उसे अश्क और
कौशल्या भाभी का सन्देशा दे दिया। अपनी तरफ से भी समझाने का प्रयत्न
किया कि जिस लडक़ी से वह ब्याह कर रहा है,
उसका क्षय रोग उसके और होनेवाली सन्तान के जीवन को
खतरे में डाल सकता है, इसलिए उसे अब भी इस
सम्बन्ध में सोच-समझ लेना चाहिए। नरेन्द्र असमंजस में तो था,
पर वह यही निश्चय कर पाएगा,
इसमें मुझे सन्देह है। मैंने उसे यह भी समझाने का प्रयत्न किया कि इस
विवाह से उसके कार्य को और अन्तत: पार्टी को नुकसान पहुँचेगा,
मगर नरेन्द्र की भलमनसाहत उसके रास्ते की सबसे बड़ी
बाधा है।
आज
16 को कॉलेज से लौटकर पिछले दिनों की डायरी लिखता
रहा। दोपहर को खन्ना के यहाँ चला गया। वहीं चाय पी। उसने ‘द
हार्ट हैज़ इट्स रीजन्स’ शीर्षक पुस्तक—डचेज़
ऑफ विंडसर की जीवनी भेंट की। शाम को सुस्ती छाई रही। रेडियो के लिए
कहानी लिखने का इरादा था—आज नहीं लिख पाया।
अब बैठकर कुछ देर र... की डायरी पढ़ूँगा या डचेज़ की जीवनी...
(शीर्ष
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जालन्धर :
21.5.57
सवेरे जल्दी से नहाकर नाश्ता किया और काम करने बैठा ही था कि बाहर से
किसी ने आवाज़ दी। देखा तो सदानन्द था। तेरह-चौदह वर्ष बाद उसे देखकर
खुशी भी हुई,
थोड़ा आश्चर्य भी। काफी देर इधर-उधर की बातें होती
रहीं। मुझे आश्चर्य और खेद हुआ कि वह हॉस्टल के दिनों की बहुत-सी
बातें भूल चुका है। उसे श्यामलाल और राजबाला का किस्सा भी याद नहीं
था। उसे साथ कॉलेज ले गया और वह डेढ़ घंटा क्लास में बैठकर मेरा
लेक्चर सुनता रहा। बाद में एक शॉप में चाय पीते हुए उसके आने का
मुद्दआ स्पष्ट हुआ। सन्देह मुझे पहले से था। मेरा ख्याल था कि वह
ज़रूर किसी की सिफारिश लेकर आया होगा और इसीलिए मैंने बात-बात में उसे
सुना दिया था कि एक परीक्षक के रूप में अपनी बदकिस्मती के लिए मैंने
कितनी बदनामी अर्जित की है। उसकी बात से पता चला कि उसने स्वयं एम.ए.
की परीक्षा दी है।
उसे घर लाकर खाना खिलाया। पुराने परिचित से मिलकर एक अजीब तरह की
खुशी होती है। यह महसूस होता है कि अतीत के सब सूत्र हाथ से निकल
नहीं गये हैं। कई लोगों की चर्चा हुई। अन्तत: सदानन्द फ्लाइंग से चला
गया और मैं बस से अमृतसर चला गया,
आसासिंह से चश्मा बनवाने।
इन्द्रदेव अरोड़ा को दुकान पर मिल लिया और वहीं से नि... को फोन
किया। नि... के यहाँ खाना खाने का तय हुआ। यह चार बच्चों की माँ आज
भी (बत्तीस-पैंतीस की उम्र में) कितनी स्मार्ट और खूबसूरत लगती है।
जिस्म की गठन भी अभी आकर्षक है। मगर साहित्य और कला को लेकर उसे अपने
बारे में खासी ग़लतफहमियाँ हैं और नाटक को तो वह अपने घर की कला समझती
है। उसके निचले ओंठ की तराश के सम्बन्ध में मैं निश्चित नहीं हूँ कि
वह मुझे सुन्दर लगती है या असुन्दर...कुछ अलग-सी ज़रूर लगती है। उसके
पति ज़िन्दगी से खासे बेज़ार आये-से प्रतीत होते हैं। उस शख्स ने सतह
पर जितना बड़ा भद्रता का कवच धारण कर रखा है,
अन्दर से वह उतना ही टूटा और कटुता से भरा हुआ
प्रतीत होता है। वह फ्रस्ट्रेटेड भी है और अपनी सूरत की वजह से
कुंठाग्रस्त भी। नौ बजे उन लोगों से विदा ली और स्टेशन से कालका मेल
पकड़ ली।
अमृतसर जाते हुए और लौटते हुए सारा रास्ता सत्येन्द्र शरत् का
कहानी-संग्रह
‘कुहासा और किरण’ पढ़ता रहा।
सत्येन्द्र शरत् को मैं इतना प्यार करता हूँ लेकिन उसकी कहानियों को
मैं उतना प्यार नहीं कर सका। किसी ज़माने में उसकी कहानी ‘काग़ज़ी
नींबू’ पढ़ी थी जो मुझे अच्छी लगी थी। वह इस
संग्रह में नहीं है। इस संग्रह की कहानियाँ concocted
situation को आधार में रखकर लिखी गयी हैं...और
कहानियों के नायक एक ही व्यक्ति के चरित्र की छाया प्रतीत होते हैं।
कहानी कहने के बजाय सत्येन्द्र कुछ जगह बात करने या कविता करने लगता
है। कुछ जगह उसने संकेत को संकेत न रहने देकर इस तरह स्पष्ट किया है
कि अखर जाता है। ‘कुहासा और किरण’
की अधिकांश कहानियाँ लेखक के कैशोर्य की परिचायक
हैं। समझ में नहीं आता सत्येन्द्र को इनके सम्बन्ध में क्या लिखूँ?
राजेन्द्र यादव के नाम पत्र लिखा था,
सो वह सारा दिन जेब में ही घूमता रहा और अब तक जेब
में ही पड़ा है।
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
23.5.57
रात को वर्षा की वजह से बाहर से अन्दर भागना पड़ा इसलिए सुबह तक नींद
पूरी नहीं हुई। सुबह सोमेश साथ कॉलेज गया। सेमिनार लेते समय मेरा मूड
काफी उखड़ा-उखड़ा-सा था। कॉलेज में ज्ञान मिल गया। उसने उदयभानु हंस
की दो कविता पुस्तकें दीं,
जो वह हिसार से लाया था। लाइब्रेरी के बाहर डॉ. मदान
के साथ सहसा यशपाल दिखाई दे गये। उन्हें अचानक जालन्धर में देखकर
आश्चर्य हुआ। वे उसी समय बॉम्बे एक्सप्रेस से जा रहे थे। दुआ-सलाम ही
हो सकी।
कॉलेज से प्लाजा पहुँचा। कुछ देर वहाँ बैठकर घर चले आये। सोमेश से
वहीं का अपाइंटमेंट था। वह मुझसे पहले कॉलेज से चला आया था।
घर आकर सोमेश के थीसिस का सिनॉप्सिस बनाने पर जुट गये। पौन घंटे में
उसे सिनॉप्सिस डिक्टेट किया और फिर खाना खाया। इस बीच मोहन अपने ऑन$र्ज
के पर्चे लेकर आ गया था। कुछ देर उससे बातचीत की। खाने के बाद सोमेश
का सिनॉप्सिस टाइप कर दिया। सोमेश को पाँच सौ रुपये उधार चाहिए थे।
अपनी वर्तमान आर्थिक स्थिति में मैं उसे कहाँ से ये रुपये दे सकता
हूँ? उसकी आवश्यकता पूरी न कर पाने का बहुत
खेद हुआ। मैं भी महामूर्ख हूँ जो बिना नोन-तेल के सौ तरह की खिचड़ी
पकाता रहता हूँ। नौकरी छोड़ देंगे और अपना प्रकाशन करेंगे—किस
बूते पर? बैंक में कुछ सौ रुपल्लियाँ हैं और
उससे आधा बाज़ार का उधार देना है!
सोमेश के चले जाने के बाद सोने की सोची। तकिये पर सिर रखा था कि दरवा$जे
पर खटखट होने लगी। मि... और सु... थीं। मि... हमेशा की तरह मूर्खता
और कॉम्प्लेक्स से भरी बातें करती रही। मुझे सन्देह है कि वह
वेल्फेयर ऑफिसर का काम कर सकेगी। उसका वही रोना-धोना और वही किस्से
और वही सवाल—भाभीजी कब आएँगी?
सु... छोटी होकर भी उससे कहीं अक्लमन्द है...यह
ज़रा-सी लडक़ी कितनी आसानी से कितनी गहरी बात कह जाती है। उस जैसा मीठा
और लोचदार गला बहुत कम किसी का होगा। मगर घर के लोग उसके संगीत सीखने
के मार्ग में बाधा डालते हैं...विशेष रूप से मि...। ‘‘She
will not let me do it—it is mainly jealousy!’’—ने
धीरे-से कहा जब मि... एक मिनिट के लिए बाहर गयी : ‘‘I shall
tell you some day. She will not let me grow better than herself.’’...
मि... आकर फिर वही मूर्खतापूर्ण बातें करती रही। इस लडक़ी के चेहरे का
एक्सप्रेशन वैसा ही है जैसा घुन खाए सेब का होता है। मुझे खेद होता
है कि मैंने बख्शी की वजह से इस लडक़ी को क्यों इतनी कोचिंग दी।
सु... ने तीन-चार गीत सुनाए। मि... कुछ डिस्गस्टिड और कुछ
patronising भाव से उसे देखती रही। जाने से पहले
सु... ने फिर कुछ बहुत ही सेंसिबल बातें कहीं...मि... तब माँजी से
बात कर रही थी। ‘‘She may make a career,’’
सु... बोली, ‘but she will not prove a good wife to her
husband. I hate such women who are arrogant and spoil the lives of
men they are married to. They do not know that a man wants a
home...above everything else.’’
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि यह छोटी-सी बच्ची (हालाँकि वह सत्रह-अठारह
साल की है) इतनी गहराई तक कैसे सोचती है।
उन दोनों के जाने के बाद प्रेमी और उनका परिवार आ गया। भाभीजी माँजी
के पास रसोई में चली गयीं,
इसलिए खाना घरेलूपन के साथ ही खाया गया। भाभी
प्रेमीजी की अपेक्षा कहीं निश्छल हैं,
हालाँकि अपनी ज़बान पर उनका वश नहीं है। उनके बच्चे मेरे किताबों के
शेल्फ का हुलिया बिगाड़ते रहे। जाते हुए वे चार-पाँच ऐसी पुस्तकें
छाँटकर ले गये जो ज़िन्दगी भर नहीं पढ़ पाएँगे।
...और आज गुरदासपुर से गणेशदासजी का तार आया है
कि... ‘A matter urgent, come on any holiday.’
मैं समझता था कि अब तक पुष्पा का दिमाग़ दुरुस्त हो
गया होगा। मगर अब मालूम होता है कि उसका फितूर अभी तक बाकी है। मैं
उन्हें क्या उत्तर दूँ? इन हालात में
गुरदासपुर जाना मुझे कतई मुनासिब नहीं प्रतीत होता।
आज टेबल लैम्प के पास बेइन्तिहा कीड़े उड़ रहे हैं। इनकी भी
किसी-किसी दिन फसल हो आती है!
बहुत-से आर्टिकल भी देखने रहते हैं। किस दिन देख पाऊँगा?
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
28.5.57
आज दिन में काफी गर्मी पड़ी और सीज़न में पहली बार सिरदर्द हुआ। कॉलेज
में छुट्टी थी,
फिर भी यूनिवर्सिटी क्लास लेने के लिए चला गया। वहाँ
से रेडियो स्टेशन गया और घर चला आया। प्रेमीजी भी निहायत बेपेंदे के
लोटे हैं। मौकापरस्त और कुर्सीपरस्त। ‘काफिर
रा जहन्नुम रफत!’ शाम को आपने ‘दूध
और दाँत’ का स्क्रिप्ट उर्दू से हिंदी कराकर
भेज दिया कि ठीक कर दो। उस साली हिंदी को फिर से ठीक करूँ?
दिन-भर गर्मी के मारे परेशानी रही। शाम को उ... और न... चाय पीने
आयीं। न... को अपने बारे में खासी ग़लतफहमी है। यूँ है ज़रा आज़ाद तबीयत
लडक़ी। बन्दे की कहानियों के पैराग्राफ्स आपको याद हैं। उससे अपनी
vanity काफी tickle होती है।
आप ग़ज़लें भी कहती हैं, गोया कि आप
शेर-ओ-शायरी से प्रेम रखती हैं। दो बार अपनी एक ग़ज़ल सुनाने को हुईं
और सुनाते-सुनाते रह गयीं। और उ... बच्चों की तरह दाँत खोलती और बन्द
करती रही। उसे अभी यह आभास है कि वह बच्ची है...भले ही एम.ए. में
पढ़ती है। आप दिन-भर दूध पीती रहती हैं—एक
दिन में डेढ़-सेर दूध पी जाती हैं! मक्खन खाती हैं सो अलग! घर में
कोई काम-वाम नहीं करती! खुदा बन्दताला की सृष्टि में कितने तरह के
जीव हैं?
अम्माँ के टाँग के दर्द की वजह से आज बहुत चिन्तित रहा हूँ। आज कई
महीने होने को आये। यह दर्द ठीक नहीं होता। डॉक्टर मेहता ने आज तीसरी
बार दवाई बदली है। अम्माँ की अस्वस्थता से तो भैया अपनी गाड़ी ही रुक
जाएगी (स्वार्थपरता?)।
आज फिर मन बहुत भटक रहा है कि नौकरी छोड़ ही देनी चाहिए। आर्थिक
सिक्योरिटी बड़ी चीज़ है—मगर
यह रुटीन तो मेरी जान सोखे ले रहा है। सब छोड़-छाडक़र कुछ दिनों के
लिए तो साँस लेने का अवकाश मिलेगा।
आज रात नीलाभ की वजह से थोड़ी परेशानी हुई। उस लडक़े में मनमानी करने
की आदत अति की मात्रा तक बढ़ी हुई है। यह बोलता भी ज़रूरत से ज़्यादा
है। आज अपने को शहीद करके उसे बहलाता रहा। उसकी ममी के माथे पर
ज़रा-सी बात से तेवड़ जो पड़ जाते हैं। सच,
भाभी कितनी छोटी-छोटी बातों पर नाराज़ हो जाती हैं?
जालन्धर :
31.5.57
आज यह निश्चय किया कि यथासम्भव सिगरेट और बियर (कम-से-कम जून का
महीना) नहीं पीऊँगा। तुरन्त ही सिगरेट की ज़रूरत महसूस हुई और एक
सिगरेट सुलगा लिया।
फिर दिन-भर खूब सिगरेट पिए।
कॉलेज से लौटकर कुछ पत्र लिखे। पुष्पा को लिख दिया कि मैं गुरदासपुर
नहीं आ पाऊँगा। बाद दोपहर सोमेश आ गया। आजकल इतने मेहमान आते हैं कि
अपना घर मेहमानखाना लगता है। कभी-कभी बड़ी कोफ्त होती है। एक तो नौकर
के फर्ज सरअंजाम देने होते हैं—फिर
अपनी हद से बाहर खर्च होता है और उस पर तुर्रा यह कि हर मेहमान को
उधार की भी ज़रूरत होती है—उधार जो कभी
रिटर्नेबल नहीं होता। आजकल यार लोगों में यह शौक कुछ ज़्यादा ही बढ़
गया है। पिछले छह महीने में जो भी आया है,
उसने चलते हुए उधार ज़रूर माँगा है। और जब किसी को अपनी दास्ताने-हयात
सुनाता हूँ तो वह समझता है कि यह जिक्र उसका नहीं,
दूसरों का हो रहा है। हर व्यक्ति अपने को बहुत ही
निजी, बहुत ही घनिष्ठ,
बहुत ही बेतकल्लुफ—और इसीलिए
उधार माँगने के लिए मौजूँ आदमी समझता है। यह उधार घर से चलते समय ही
लोगों की प्लानिंग में शामिल होता है या हर एक को बाहर आकर टोट पड़
जाती है? अपनी शराफत के मारे कमर टूट रही है।
हर समय अजब झुँझलाहट दिमाग़ में भरी रहती है।
रात को बातों-बातों में सोमेश की कहानी सुनना भूल गये। अम्माँ से
पूछा कि क्या वे कुछ दिन सीलोन रहना पसन्द करेंगी,
पर उन्हें तैयार नहीं पाया। ऊपर से वे कहती रहीं कि
वे चली जाएँगी, पर उनका दिल नहीं है।
मैं नौकरी छोडऩे न छोडऩे के मसले में बुरी तरह उलझा हुआ हूँ। आज
वीरेन्द्र को लिखा है कि क्या वह कुछ दिन अम्माँ को सपोर्ट कर सकता
है? देखूँ,
क्या उत्तर देता है?
(शीर्ष
पर वापस)
4.6.1957
कल रात नरेन्द्र के आ जाने से बातें ही होती रहीं, डायरी कौन
लिखता?
पिछली रात की अधूरी नींद के कारण सुबह उठने पर सिर भारी था। कॉलेज
जाकर किसी तरह फर्ज पूरा किया। क्लास खत्म करके स्टाफ रूम में शोर
करते रहे।
‘कल्पना’ से लौटकर आया हुआ
पच्चीस रुपये का चैक एक रुपये में प्रो. नन्दकिशोर को बेचा। बाद में
चैक को देखकर उन्हें अहसास हुआ कि वे ठगे गये हैं। एक रुपये का सहभोज
(सहपान) हुआ।
तनख्वाह आज भी नहीं मिली,
सब्र नहीं हुआ, और पैसा नहीं
था, इसलिए तनख्वाह की रकम बैंक से निकलवा ली
और लेनदारों का भुगतान करने पहुँच गये।
घर आने पर मोहन का पत्र मिला। पत्र में न केवल उसके
malice का
स्पर्श था—साथ उसके inferiority
complex का भी। उसे उत्तर लिखा और पुष्पा के यहाँ
आने और सब बातें बताने की बात स्पष्ट लिख दी। उसने जो कुछ पुष्पा के
सम्बन्ध में लिखा है, उससे मुझे स्पष्ट लगता
है कि सारे परिवार को ही कुछ psychic बीमारी
है अन्यथा एक ओर उसके आग्रह और दूसरी ओर उसके मुकरने का क्या अर्थ है?
पत्र डालकर कोच्छड के यहाँ चला गया,
और उसके घर से प्लाज़ा चले गये। अपना हैट और
postal stationery उसके घर ही रह गयी। प्लाज़ा से
लौटते समय हल्की-हल्की बूँदाबाँदी हो रही थी। रामाकृष्णा की दुकान
में किताबें देखते रहे। घर लौटकर ‘शिला के
आँसू’ के दो-एक पन्ने टाइप किए थे कि
नरेन्द्र आ गया। उसे रात को यहीं सोना था।
आज सुबह उठकर नाटक का एकाध पृष्ठ और टाइप किया और कॉलेज चला गया।
वहाँ नरेन्द्र का टेलीफोन आया कि नवतेज आया हुआ है। प्लाज़ा में मिलने
का अपाइंटमेंट किया। आज क्लास में ठीक से नहीं पढ़ाया।
फार्म भरवाकर दफ्तर में दिए और प्लाज़ा पहुँच गया। घंटा भर बातें हुईं—ऊपरी-ऊपरी
सतही बातें। फिर नाटक लिखने के इरादे से उन लोगों से छुट्टी ले आया।
घर आकर कुछ और पृष्ठ टाइप किये तो प्रेमी आ गया। जितने पृष्ठ टाइप
किये थे,
वे उसे दे दिये और बियर शाप चले गये। वहाँ दो घंटे
वह शख्स हमेशा की तरह रेडियो स्टेशन की पालिटिक्स के रोने रोता रहा।
कुमार यह चाहता है और वह चाहता है। बिसारिया यह करता है और वह करता
है। स्टेशन डायरेक्टर उससे डरता है। डी.जी. हमको बहुत मानता है।
केसकर साला बेवकूफ है। भाउ बड़ा होशियार आदमी था।
...और उसके बाद उसकी सेक्स सम्बन्धी बातें और उसके
मुँह से टपकता हुआ लार!
‘‘मिस्टर राकेश, I have just one friend in
Jullundur and that is you. There is only one literary man in
Jullundur and that is you—’’
और इसके साथ ही आप कुर्सी पर बिखर गये—ऐसे
अवसरों पर उसके सफेद बाल और उसका गोल चेहरा मुझे न जाने क्यों अजीब
से लगते हैं।
बियर शाप से प्रेमी के घर गये और वहाँ से पिक्चर देखने—‘चम्पाकली’।
साली वह घटिया दर्जे की बम्बइया फार्मूले की पिक्चर थी कि बीच में से
ही उठ आये। कुछ अर्से से पिक्चरों के बीच से उठ आना अपना स्वभाव-सा
हो गया है। मनहूस पिक्चरें आती ही ऐसी हैं!
प्रेमी के घर से खाना खाकर दस बजे तक घर पहुँच गये। मगर सिर दर्द के
मारे बुरा हाल था,
इसलिए सो रहने में ही खैरियत समझी।
आज फिर कसम खाता हूँ,
परवरदिगार, कि बियर नहीं
पीऊँगा।
(शीर्ष
पर वापस)
8.6.1957
This
should be the last day of my beer-taking and giving lift to that
man called Hari Krishna Premi.
I have
also to revise my attitude towards some other people. Undue
courtesy not only belittles you but also puts wrong notions in
other people’s head.
आज कॉलेज नहीं गया। सुबह बख्शी के विदा होने पर
‘हवामुर्ग’
के कुछ और अंश का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया। दोपहर
को मोती आ गया। उसकी वजह से ही प्रेमी के घर जाना पड़ा,
उसे बियर शाप ले जाना पड़ा,
और खामख्वाह का सिरदर्द मोल लेना पड़ा। ‘‘प्रेमचन्द
के बाद हिंदी साहित्य में लोग बस मेरा ही नाम जानते हैं,’’
डेढ़ बोतल बियर के बाद आप बोले, ‘‘मुझ
पर अँग्रेज़ी में तुम एक लेख लिख दो।’’
मोती की वजह से मैं अपने पर वश किए रहा,
वरना वहीं इस शख्स की ग़लतफहमी थोड़ी दूर कर देता।
दिमाग़ का गुस्सा बियर शाप के असिस्टेंट पर निकाल दिया। बियर शाप से
घर आकर कुछ चिट्ठियाँ लिखीं और फिर शहर चला गया। ऋषिगोपाल से
अपाइंटमेंट था। उसके साथ काँगड़ा की ट्रेकिंग का प्रोग्राम बनाया।
ऋषिगोपाल ने भी ‘शिला के आँसू’
के प्रोडक्शन पर बहुत आँसू बहाये।
जाने किस गधे ने इन लोगों को
producers बनाकर भेज दिया है।
अभी तक सिर बुरी तरह दर्द कर रहा है। सम्भवत: यह इस वर्ष का सबसे
गर्म दिन था।
I have
never exercised discretion in the choice of friends. That is one
of the fundamental mistakes I have committed in life. I have
always allowed myself to be imposed upon by people who have choice
to do so. This also happened in marriage. I just allowed the woman
who wanted to impose herself on me to do so. The result in all
such cases has been self torture.
Extreme
sensitivity results inevitably in acute self condemnation. Most of
my suffering has come at my own hands. I have known only one
person in life so far who has understood each shade of my thought
and who has known my pain and sufferings. That was Veena—though
her puritanism always irritated me. But the woman was made of very
fine clay...spread into a very sensitive fibre. But she was also
cowed down by convention. What a great tragedy it is in life! Only
if she were a little daring and I had a little more initiative!
Life
would then have had a different pattern!
But I do
not think if I will ever see her again in life.
I loved
the expression of her beautiful eyes and sweat of her body.
It is
very easy to get corrupted—but is very difficult to be able to
love.
आज वीरेन्द्र का पत्र पढक़र दिल उमड़ पड़ा था—वह
बच्चा कितना अच्छा है!
यदि मद्रास गया तो दो-चार दिन के लिए उसके पास जाने का प्रयत्न भी
करूँगा।
10.6.57
दिन भर उलझन रही।
रात को
‘हवामुर्ग’ का अनुवाद पूरा
करके सोया था। सुबह कॉलेज में ही मन उखड़ा-उखड़ा था। दोपहर को घर आकर
‘desiree’ के कुछ पृष्ठ पढ़े। तीन बजे सोमेश
आ गया। साढ़े तीन बजे के करीब उ... आयी और साढ़े पाँच तक रही। उसके
जाने के बाद नहाकर घूमने निकल गये।
कुछ बातों में सोमेश का व्यवहार कुछ अखरता है। उसके दिमाग़ में अपने
बारे में खासा काम्प्लेक्स है। उससे कुछ साफगोई की तो वह चिढ़ गया।
खीझकर उसने दो-एक बातें कहीं,
लेकिन बाद में उन्हें फिर पी गया। वह न जाने क्यों
अपने इर्द-गिर्द खामखाह की mysteries create
करता है।
शहर से बख्शी भी साथ आ गया था। घर आकर सोमेश से साफगोई के लिए बहुत
आग्रह किया मगर वह एक बार अपने
shell में जाकर फिर बाहर नहीं निकला।... वह
Havelock Ellis की किताब बन्दे के account
में आज ले आया था—कुछ देर वही पढ़ता रहा।
बख्शी से वर्षा के सम्बन्ध में bet लगाया मगर
हार गया।
I
must have a still more defined attitude towards all friends. I
have paid a great price for my courtesy and cannot pay any more of
it.
Curtness
is a virtue that pays immediate dividends.
I do not
think if I should make copany with Rishigopal. Neither for a trip
to the hills.
जालन्धर :
13.6.57
सुबह अश्क दम्पति को आना था,
इसलिए जल्दी उठकर किसी तरह स्टेशन पर पहुँचा। लेकिन
वे फ्रंटियर से नहीं आये। वे बाद में जनता से आये। मेरे कॉलेज से
लौटने तक वे घर पहुँच गये थे। अश्क साहित्य जगत की चर्चाएँ सुनाते
रहे। दोपहर को खाना खाकर प्लाज़ा चले गये। अश्क और कौशल्याजी को
आश्चर्य होता है कि लोग अश्कजी की इतनी निन्दा क्यों करते हैं।
उन्हें अपनी प्रतिक्रिया बतलाई। वास्तव में यह अश्क की
misplaced humour के सबब से
है। बहुत कम लोग उसे enjoy
कर पाते हैं और अक्सर कुढ़ जाते हैं। अश्क के लोगों के साथ व्यवहार
में कुछ peculiarities
आ गयी हैं, जिसके कारण हैं,
इलाहाबाद के लोगों की आरम्भ में
hostile attitude से पैदा हुई
प्रतिशोध भावना, कुछ शारीरिक और मानसिक
frustration, अनुकूल
सहयोगियों का अभाव, आदि। अश्क से बहुत बार
serious और
non-serious की रेखा नहीं रखी
जाती। इसी से अधिकांश tragedies
का श्रीगणेश होता है। He has been playing up
younger people against older ones, resulting in their similar
behaviour towards him also.
दर्शन सिंह के आ जाने पर बात हिंदी-पंजाबी मसले पर होती रही। दर्शन
सिंह से भी वही बातें कहीं जो उस दिन नरेन्द्र से कही थीं।
It is mainly a quesiton of vested interests and not of emotions
and sentiments. Ministers themselves are the culprits while swamis
are playing in the hands of the culprits keeping behind the
scenes.
प्लाज़ा से उठकर दर्जियों के चक्कर लगाए। फिर मैं उनसे अलग होकर ख...
के यहाँ चला गया। वहाँ विनय बहुत देर
teaching profession
को कोसता रहा। काफी पीकर चला आया। ख... के स्वभाव में वह
स्थिरता और कोमलता है जिसकी एक इन्सान को अपेक्षा हो सकती है।
घर आकर पता चला कि पीछे म... और ल... आयी थीं। मेरे मन से वह सूत्र
बिल्कुल ही टूट गया है क्या?
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
14.6.57
I am dead
tired, too tired to write anything. And what is there to write
about after all? We got up, we bathed, we ate, we talked a lot and
we felt tired.
Ashk and
Kaushalya, they are both good-hearted children, but very much self
contained and with many misconceptions about themselves.
अश्क का छोटा भाई इन्द्रजीत समझौतेबाजी में पडक़र तबाह हुआ आदमी
प्रतीत होता है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं रहा।
Ashk today bullied him a lot and to a great extent unnecessarily.
Indrajit is an unsuccessful man—unsuccessful in the worldly
sense—and that is what makes him a weak, fumbling and faltering
fool. Otherwise he has a lot of sense and a lot of vigour. But...
जालन्धर :
9.7.57
सुबह-सुबह बारिश ने बाहर से खदेड़ दिया। बरामदे में आ लेटे पर नींद
नहीं आयी। जल्दी ही उठकर नाश्ता कर लिया। अखबार लेकर बैठे थे कि
ज्ञानचन्द भाटिया तथा चार और आदमी चन्दाग्रहण मिशन पर पहुँच गये।
ग्यारह रुपये देकर निस्तार पाया।
मदान के दिमाग़ से हर चीज़ दो खानों में विभक्त हो जाती है—अच्छी और
बुरी, और वह हर चीज़ के सम्बन्ध में अपनी
प्रतिक्रिया की घोषणा ऐसे विश्वास के साथ करते हैं जैसे दूसरा मत हो
ही न सकता हो।
खोसला ज़्यादा दुखी था। उससे उठा नहीं जा रहा था। किसी तरह उठना हुआ,
घर पहुँचे।
आज कई दिनों के बाद ठंडी तेज हवा चली है। मेंढकों की आवा$जें
फिर वातावरण में फैल रही हैं। मेंढक मुझे कितने जघन्य लगते हैं—यह
स्वर उतना ही आकर्षक लगता है। न जाने क्यों?
जालन्धर :
7.1.58
‘‘मिस्टर सुरेश का कब तक वापस आने का प्रोग्राम है?’’
‘‘उनका टर्म तो मार्च में समाप्त हो जाएगा,
पर थीसिस पूरा होने में अभी थोड़ा समय और लगेगा। वे
यहाँ पर खुश नहीं हैं। मैं तुम्हें उनके पत्र दिखाऊँगी।’’
धूप आँखों में पड़ रही थी,
इसलिए मैंने कुर्सी की दिशा ज़रा बदल ली।
‘‘उनके लौटने के बाद कहाँ रहोगी?
यह वर्तमान अरेंजमेंट हमेशा तो नहीं चल सकेगा।’’
‘‘यह अरेंजमेंट तो मेरे लिए मौत के बराबर है। पहले
स्कूल के काम में दिल लग जाता था। अब बिल्कुल नहीं लगता। बच्चों की
तरह घंटियाँ गिनती रहती हूँ—अब तीसरी घंटी
बजी, अब चौथी, अब
पाँचवीं। जब सब घंटियाँ बज चुकती हैं तो फिर एक शून्य आ घेरता है कि
इसके बाद क्या करूँगी। इतवार काटना तो असम्भव हो जाता है। सारा
वातावरण विरक्त और उदासीन प्रतीत होता है। अन्तर निरर्थकता की
अनुभूति से भर जाता है। बार-बार मन पूछता है कि क्यों जीवित हूँ,
मर क्यों नहीं जाती? मगर
मरने में भी बहुत व्यर्थता लगती है। जी लिया हो तो मरूँ। यह जीने की
साध जो बचपन से हृदय को व्याप्त किए है, क्या
साध ही बनी रहेगी, और मैं कभी एक क्षण के लिए
भी मरकर न जी पाऊँगी?’’
वह इस तरह मेरी ओर देख रही थी जैसे उसके प्रश्न का निश्चित उत्तर
अभी-अभी मेरे माथे पर उभरनेवाला हो।
‘‘देखो मैं नहीं समझता कि मैं तुम्हारे केन्द्र में
वर्तमान होकर सोच सकता हूँ। मगर मैं तुम्हारी परिस्थिति को समझने की
कोशिश अवश्य करता हूँ। मैं भी परिस्थितियों की उस कटुता में कई वर्ष
बिता चुका हूँ। तुम यह सोचकर भूल करती हो कि तुम्हारी समस्या का हल
बाहर कहीं से प्राप्त होगा। तुम्हें उसे अपने अन्दर से ही हल करना
होगा। जीवन के सब सम्बन्ध सापेक्ष हैं,
अनिवार्य नहीं, पहली चेतना तो हमें यह उपलब्ध
करनी होगी कि समुदाय के अन्तर्गत व्यक्ति नगण्य है,
फिर भी व्यक्ति एक सम्पूर्ण इकाई है—एक
पूरा मानसिक यन्त्र है। उपयुक्त चालक न हो तो वह यन्त्र व्यर्थ पड़ा
रह सकता है। परन्तु उससे यह अर्थ कदापि नहीं निकलता कि वह यन्त्र
व्यर्थ है। उसकी शक्तिमत्ता ही उसकी उपयोगिता का प्रमाण है। उपयोग न
होने का खेद हो सकता है पर व्यर्थता की प्रतीति नहीं होनी चाहिए।’’
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
28.9.58
तीन दिन से वर्षा ही नहीं थमती। लगभग वैसी ही स्थिति हो रही है जैसी
सितम्बर-अक्तूबर सन्
55 में हुई थी। छोटी-छोटी वर्षा—लगातार।
इस बार फिर मकान-अकान गिरेंगे।
कल एक कहानी
‘गुनाहे बेलज्जत’ के पीछे
पड़े रहे। आज पूरी करने का प्रयत्न करेंगे।
कहानी पूरी नहीं हुई। दिन में पुरुषोत्तम और उसका एक मिलनेवाला आ
गये।
Madame Bovary देखने चले गये।
Jennifer Jones की
performance बहुत
अच्छी थी।
दादी
माँ से देर तक बातें हुईं। अब रात काफी हो गयी है, आँखें
भारी हैं सोएँगे।
जालन्धर :
29.9.58
आज कहानी
‘गुनाहे बेलज्जत’ पूरी हो
गयी। एक नई कहानी की रूपरेखा भी बन गयी।
शाम को पांडे,
बशीर और प्राण चाय पीने आये थे। उसी समय म... भी
अपने cousin के साथ आ
गयी। वह कुछ nervous
और excited लगती थी।
कमरे से निकलते हुए उसने पीछे से चिकुटी काट दी। दो-चार मिनिट में ही
वह चली गयी।
दादी माँ से बदस्तूर बातें होती रहीं पर आजकल उतना खाली-खाली नहीं
लगता।
नींद से बुरा हाल है।
जालन्धर :
3.10.58
उपन्यास के तीन पृष्ठ टाइप किए। दिन रुटीन में बीत गया।
जालन्धर :
6.10.58
आज कॉलेज गये और एक पीरियड पढ़ा आये।
दिन में कुछ लिखा,
कुछ सोए। शाम को घूम लिया और विरक के यहाँ बैठे रहे।
दोपहर को
‘सुहागिन’ शीर्षक कहानी का
synopsis लिख डाला।
बस इतना ही किया।
जालन्धर :
14.10.58
कल से कहानी
‘सुहागिनें’ पूरी करने के
पीछे पड़े हैं। कहीं गये नहीं, यहीं घूम
लिये। परसों से सिगरेट पीना भी छोड़ रखा है।—इसके
अलावा अभी और भी कटौतियाँ करनी होंगी।
जालन्धर :
16.10.58
आज
‘सुहागिनें’ शीर्षक कहानी
पूरी रिवाइज़ भी कर डाली। शायद कहानी बुरी नहीं है।
कल नरेन्द्र से देर तक कौशल्याजी और उमा के बारे में बात हुई। मुझे
खुशी है कि दोनों के बारे में जो मेरी राय है,
वही नरेन्द्र की भी है। उमा में सचमुच इस छोटी-सी
उम्र में वह maturity
है जो आश्चर्य में डाल देती है। नरेन्द्र ने बताया कि चंडीगढ़ से
part होते समय जैसे वह
हँसी और अश्क के गले से लिपट गयी—फिर कौशल्या
की कमर में बाँह डाले हुए उसे बस की ओर ले गयी। जब कौशल्याजी ने कहा
कि वह दिसम्बर में इलाहाबाद कैसे आएगी, अश्क
तो तब बाहर गये होंगे; तो उसने कहा पापाजी न
सही, मम्मी तो वहाँ होंगी। कौशल्या ने
earrings उसे दे दीं,
तो 25/- देने का इरादा बदल
दिया। फिर भी 10/- वे देने लगीं तो उमा ने
कहा कि अभी मेरे पास पैसे हैं, मैं किराया
लेकर आयी हूँ।
नरेन्द्र का कहना था कि उसने उमा के गले लगने पर अश्क के चेहरे पर जो
मुस्कराहट देखी,
वह जीवन भर पहले कभी नहीं देखी—it
was true happiness. फिर उमेश के अभिनयपूर्ण
जीवन की बात हुई—कैसे वह कौशल्याजी के प्रति
भी कोमलता का अभिनय करता है—उस घर में हर
आदमी दूसरे को at arm’s length
रखकर जीता है—पुत्री अपनी जगह
great है,
उमेश अपनी जगह, अश्क अपनी
जगह और कौशल्या अपनी जगह—नरेन्द्र ने कहा—
“As if everybody is struggling for existence in a
hostile camp. This can’t fit in there. That’s why I feel
uncomfortable there.”
सचमुच इस लडक़ी को यदि पिता का प्यार और वह सुविधा न मिली जिसकी वह
अधिकारिणी है तो यह एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी होगी।
कल रेडियो स्टेशन पर श्री जगदीशचन्द्र माथुर से भेंट हुई।
He seems to be a nice person.
कल रेडियो के सांस्कृतिक कार्यक्रम में बुलगानिन वाला skit
मुझे बहुत अच्छा लगा।
आज शाम बहुत अच्छी बीती। कुछ भी लिख लेने पर एक बहुत स्वाभाविक-सी
खुशी होती है। ज़िन्दगी में जरा-सा
balance और हो तो मैं कितना-कितना काम कर सकता हूँ?
(शीर्ष
पर वापस)
जालन्धर :
19.10.58
‘सुहागिनें’ शीर्षक कहानी
में कुछ हेर-फेर करने में दो दिन निकल गये।
कल दिन में दीनानाथ (राजपाल एंड सन्ज़) के आने पर दो घंटे
प्रकाशन-लेखन सम्बन्धी गपशप होती रही।
दोपहर को वीणा का पत्र मिला। उसने चम्बा आने को लिखा था। पढक़र काफी
देर असमंजस में पड़ा रहा। अश्क और कौशल्याजी शायद रात को आएँगे।
कौशल्या भाभी का हठ था कि उनके साथ दिल्ली ज़रूर चलूँ।
आखिर झूठ का आश्रय लेने की सोची। एक बड़ा-सा बहाना बनाकर आज निकल
चलें—भाभी
नाराज होंगी तो सँभाल लेंगे।
दो बजे की बस से पठानकोट के लिए रवाना होंगे। रात वहाँ रहकर कल आगे
चलेंगे।
कहते हैं,
अक्टूबर में चम्बा बहुत सुहाना होता है।
जालन्धर :
8.11.58
अक्सर कई-कई दिन कुछ न लिखना आदत-सी होती जा रही है। क्यों इतनी थकान
रहती है?
कई बातें लिखना चाहता हूँ—कमल
और सत्येन्द्र के विषय में; राजेन्द्र यादव
के विषय में; नरेन्द्र के साथ हुई
Boris Pasternak सम्बन्धी
बातचीत के विषय में—मगर सिर इजाज़त दे तो न।
कितने अकेले-अकेले से दिन निकलते हैं। कब सोचा था कि ऐसी भी ज़िन्दगी
व्यतीत करेंगे!
घड़ी की टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक् टिक्—ऊँह!
जालन्धर :
12.11.58
1. उपन्यास-लेखन
2. कमरे में चहल-कदमी
3. भोजन
4. मध्याह्न शयन
5. सम्भाषण
6. जम्हाइयाँ
7. पत्र-लेखन
8. झपकियाँ
9. निद्रा
इति
दिवसारम्भ से दिवसान्त तक की चर्चा समाप्त हुई।
...हिमालय जिसने अनन्त विचारों को जन्म दिया है,
क्या उस समुद्र से कम महान है जिसके प्रति वे सब
निर्झर समर्पित हैं?
...अपनी विस्मृति ही जीवन का रहस्य है,
दूसरे की प्रतिभूति नहीं।
...सम्बन्ध तो संयोग है,
चांस है, एक घटना है। उसे पुरानापन छा लेता
है। नित्य नूतन अपना काल है, जो घटना नहीं,
चांस नहीं, संयोग नहीं।
(शीर्ष
पर वापस)
नई दिल्ली :
31.1.59
राजेन्द्र यादव के आ जाने के बाद कई दिन उसी व्यस्तता में निकल गये।
उसके सैटिल हो जाने के बाद ही अपना कुछ होश हुआ।
इस बीच
‘सुहागिनें’ शीर्षक कहानी को
रिराइट करने के सिवा कुछ नहीं किया।
...आज जाने कैसा दिन था। सुबह राजेन्द्र पाल की बात
पर गुस्सा आ गया। शाम को कॉफी हाउस में कुछ अजब-सा लगा। हबीब,
कुमुद, चमन,
सन्तोष और श्याम साथ आये। ‘आषाढ़
का एक दिन’ का पहला अंक पढ़ा,
खाना खाया—
कैसा लगता है,
कह नहीं सकता। देयर इज़ एक्साइटमेंट इन दि माइंड,
व्हाई? आई डू नाट नो।
नाउ आई मस्ट ट्राइ टु गेट सम गुड,
ओनेस्ट स्लीप।
रेस्ट,
लेटर।
26.6.1964
आज मुक्तिबोध को भोपाल से यहाँ ले आया गया है। जिस अचेतन अवस्था में
हैं,
उसे देखकर डर-सा लगता है। शरीर में जान तो जैसे है
ही नहीं। जिस शालीनता से उनकी धर्मपत्नी यह सब सह रही हैं,
वह सचमुच प्रशंसनीय है। बचने की सम्भावना कितनी है,
इसका पता डॉ. विग के लौटकर आने पर ही शायद चल सकेगा।
दिन में ज़्यादा वक़्त घर से बाहर रहा। दोपहर को कुछ देर काम किया। रात
को आने तक उसने एक कहानी लिख रखी थी—अधूरी...रेखा
के साथ ‘एल्प्स’ में
बिताई एक दोपहर को लेकर। पूछती रही कि कैसी लगी। कहा,
पूरी कर लो तो बताऊँगा। इस पर ज़िद पकड़ बैठी। नहीं,
बताओ। यही बता दो कि थीम कैसी है। कहा कि पूरी होने
से पहले कोई कमेंट नहीं दूँगा। इस पर मन्नू की अनलिखी कहानियों के
उससे सुने प्लाट सुनाने लगी। मना किया, तो
रूठकर बैठ गयी। फिर कमलेश्वर के संग्रह ‘खोई
हुई दिशाएँ’ की ‘प्लाटविहीन
एब्स्ट्रेक्ट’ कहानियों के प्लाट सुनाने लगी।
बोली कि ये तो कहानियाँ हैं ही नहीं, डायरी
के अंश हैं—इससे अच्छी डायरी तो वह खुद लिख
सकती है। मना किया कि अब रात के वक़्त कहानियों की चर्चा से बोर न करो,
तो कोर्स की किताब उठाकर मार खाई-सी दोहरी होकर उस
पर झुक गयी। बीच-बीच में शिकायत भरी नज़र से देखती रही।
और सब बात समझ जाती है—इतनी
बात नहीं समझ पाती कि मुझे भी कभी अपने लिए एकान्त चाहिए,
लिखने और सोचने के लिए समय चाहिए। उसे लगता है कि
मेरा होना तो सिर्फ़ उसके लिए है—बस उसे देखने,
प्यार करने और उसकी बातें सुनने के लिए—कम-से-कम
उतना समय जितना कि घर पर रहूँ। कहेगी, ‘‘इतनी-इतनी
देर तो तुम बाहर रह आते हो। मैं तुमसे कब बात करूँ?
मेरी बात तुम्हें अच्छी लगती ही नहीं। मेरी बात तुम
कभी सुनना ही नहीं चाहते। मैं सोचती थी कि तुम मेरे सहायक और
पथ-प्रदर्शक बनोगे, पर तुम हो कि...।’’
कहते-कहते कांशस हो जाती है।
‘‘सॉरी, सॉरी,
सॉरी। मेरा यह मतलब नहीं था। सच,
यह मतलब मेरा बिलकुल नहीं था। तुम जो कुछ मेरे लिए
करते हो, वह तो है ही। पर मैं जो चाहती हूँ,
वह क्यों नहीं करते? देखो,
मन्नू यादव को अब भी अपनी कहानियाँ दिखाती हैं।’’
‘‘तो मैं क्या तुम्हारी कहानियाँ नहीं देखता?
मैं तो बल्कि...।’’
‘‘बस यही तो बात है। तुम मुझे बस ताने ही दे सकते
हो। जानते हो कि मुझे अभी ठीक से लिखना नहीं आता। जो कुछ मन में होता
है, जैसे-कैसे काग़ज़ पर उगल देती हूँ। तुम
चाहते हो तो नहीं लिखा करूँगी।’’
‘‘हाँ, यही तो मैं चाहता
हूँ। इसीलिए तो तुम्हारी एक-एक कहानी दोहराने में इतना वक़्त लगाता
हूँ।’’
‘‘तो यह सब अपनी पत्नी के लिए ही तो करते हो। मैं तो
यह कहानी लिखना ही नहीं चाहती थी, और भी कई
कहानियाँ हैं जो मैं नहीं लिख रही। मेरे दिमाग़ में इस वक़्त...’’
‘‘कम-से-कम सात कहानियों के प्लाट हैं।’’
‘‘तीन कहानियों के प्लाट हैं...ऐं...क्या कहा
तुमने...अब मेरा मज़ाक उड़ाते हो न...मेरे साथ हमेशा तुम्हारा यही
सलूक रहेगा—’’ और वह रोने लगती है।
घर से जाकर गर्मी में जिस्म टूटने लगा। लौटते में काफी सिरदर्द था।
आकर खाना खाया। खाना खाते हुए आर्थिक परेशानी का जिक्र किया तो
गुमसुम-सी हो रही। बोली,
‘‘एक मेरी कहानी अभी पढ़ लोगे?’’
जैसे कि कहानी पढऩा आर्थिक समस्या का हल हो।
रात को चिट्ठियाँ लिखने बैठा,
चौकी पर पास बैठकर ऊपर झुकी रही। पूछती रही,
‘‘अब कैसी तबीयत है?’’
कुछ चिट्ठियाँ छाँटकर फाइलों में रखने को दीं,
तो अनमनी-सी फाइलों के पास चली गयी। फिर चिट्ठियों
का पुलन्दा एक तरफ रखकर फर्श पर लेट गयी। थोड़ी देर में मैं बाहर
होकर आया, तो बोली, ‘‘राकेश,
तुम मुझे बम्बई भेज दो।’’
उसके बाद माथे पर त्योरियाँ डाले कुछ देर लगातार बोलती रही कि किस
तरह उसका यहाँ होना मेरे काम में बाधा डालता है—कि
आर्थिक स्थिति को दृष्टि में रखते हुए उसका मुझसे दूर रहना ही ठीक
है।
एक साँस में बोली,
‘‘तो मैं कल बम्बई जा रही हूँ’’
और दूसरी साँस में, ‘‘क्या
मदन से कहकर तुम मुझे अभी इंटर की क्वालिफिकेशन के बेसिस पर कोई
नौकरी नहीं दिलवा सकते?’’
‘‘तुम बम्बई जाना चाहती हो या नौकरी करना चाहती हो?’’
इस पर उसकी त्योरियाँ गहरी हो गयीं और वह फिर कुछ देर लगातार अपनी
परेशानी की बात करती रही—कि
उसके मन पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है—कि
आखिर मेरे काम न करने के लिए उसी को ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा—कि
अभी वह बाईस साल की नहीं हुई, इतनी लम्बी
उम्र किस तरह कटेगी—कि दो-एक साल में मन
पक्का करके वह मेरे साथ केवल ‘इमोशनल’
सम्बन्ध रखेगी, शारीरिक
सम्बन्ध बिल्कुल खत्म कर देगी...।
(शीर्ष
पर वापस)
28.6.1964
रात (या सुबह) साढ़े तीन-चार तक बात का सिलसिला चलता रहा।
ग्यारह से बारह के बीच अपनी तैयारी करती रही। बारह बजे बोली कि गाड़ी
आनेवाली होगी,
अभी चले चलें। मैंने कहा अभी रुको,
मैं नहा लूँ, फिर खाना खाकर
एक बजे तक चलते हैं। मैं नहा लिया तो खाना लेकर आ गयी। खाना खाकर
मैंने कहा कि टैक्सी लाने से पहले मैं कमलेश्वर को बुलाता हूँ,
उससे नमस्कार-अमस्कार कर लो। कमलेश्वर आया,
तो पहले दो-चार मिनट उससे बोली नहीं,
फिर रोती हुई पास आकर बैठ गयी।
‘‘क्या बात है?’’ कमलेश्वर
ने पूछा।
‘‘कुछ नहीं, बम्बई जा रही
हूँ,’’ और सारा चेहरा उसका आँसुओं से भीग
गया।
‘‘अपनी मर्ज़ी से ही जा रही हो न?’’
कमलेश्वर ने पूछा।
इस पर फूट पड़ी।
‘‘ये मेरी वजह से काम नहीं कर पाते। यूँ वजह चाहे
आने-जानेवालों की हो, पर बात मेरे सिर पर ही
आती है। सो मैं जा रही हूँ। देखूँगी, मेरे
पीछे कितना काम करते हैं।’’
बात खुलने लगी,
तो खुलती गयी। कमलेश्वर चुप बैठा सुनता रहा। दो-चार
बार मैंने बात काटकर रोकने की कोशिश की भी पर रुकी नहीं। ‘‘मेरी
नेचर ही ऐसी है तो मैं क्या करूँ। मैं बहुतेरा अपने पर कंट्रोल करती
हूँ, पर नहीं कर पाती। बात दिन-प्रतिदिन
बिगड़ती जाती है। आपको नहीं पता, कैसे-कैसे
क्राइसिस में से हम लोग गुज़रे हैं। पहले तो ऐसी-ऐसी स्थितियाँ आया
करती थीं कि बस...। मैंने अपने को कितना ही डेवेलप पहले से किया है,
पर जो नहीं हो पाता, उसके
लिए क्या करूँ? मैंने सुबह कहा इनसे कि मुझे
मत भेजो, मैं मर जाऊँगी। मेरे लिए वहाँ एक-एक
साँस लेना असम्भव होगा। पर इन्होंने डाँट दिया कि बार-बार नए-नए
प्रोग्राम क्यों बनाती हो? अब इसी लिए मैं जा
रही हूँ।’’
‘‘तुम अपने मन में क्या चाहती हो?’’
कमलेश्वर ने पूछा।
‘‘अपने मन से अब जाना ही चाहती हूँ।’’
और फिर रोने लगी।
मैंने फिर समझाना चाहा कि अब आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो गयी है कि
और रिस्क हम नहीं उठा सकते,
तुम अपनी ही नहीं, मेरी भी
तो स्थिति देखो। मुझे दोहरी परेशानी है—पूरे
साल भर से चल रही है। एक तरफ तो पैसा नहीं है,
उधार चढ़ता जाता है। दूसरी तरफ कुछ लिख-पढ़ न पाने
से वैसे भी अपने में व्यर्थता-सी लगती है। अगर बीच में दो-एक महीने
हम एक-दूसरे को ब्रेक दें, तो उससे हम लोगों
के लिए अच्छा ही रहेगा।’’
‘‘इस ब्रेक से मैं तो बिल्कुल ब्रेक कर जाऊँगी,’’
वह बोली, ‘‘पर मैं कुछ कहती
नहीं। आप चाहते हैं चली जाऊँ, तो चली जाती
हूँ।’’
फिर समझाया कि
‘इमोशन’ पर काबू पाना कई बार
कर्तव्य हो जाता है। कमलेश्वर ने भी समझाया। बोला, ‘‘जाओ,
टैक्सी ले आओ।’’
‘‘मैं अभी टैक्सी लेकर आता हूँ,’’
कहकर मैं उठ खड़ा हुआ। पीछे से कमलेश्वर भी आ गया।
टैक्सी आयी,
तो उसमें भी रोती हुई सवार हुई। सबको ऐसे हाथ जोड़े
जैसे क्रास पर लटकने जा रही हो। रास्ते में मेरा हाथ हाथ में ले
लिया। स्टेशन के पास पहुँचकर बताने लगी कि दवाई की शीशी कहाँ रखी है
और—और क्या-क्या कहाँ-कहाँ पर है। आँखों में
रुके हुए आँसू बार-बार नीचे ढुलक आना चाहते हैं।
स्टेशन पर उतरकर देखा कि जिस डायरी में रुपये रखे थे, वह घर पर
ही भूल आया हूँ। कुल दस रुपये जेब में थे। गाड़ी के छूटने में सिर्फ़
पौन घंटा रहता था। लाचार दूसरी टैक्सी पकडक़र वापस चले आना पड़ा—यह
सोचकर कि अब तो रात की गाड़ी से ही जाना हो सकता है।
शाम को जाकर उसकी सीट पठानकोट एक्सप्रेस में बुक करा आया। उससे पहले
काफी देर उसे भाषण दिया—बचकाना
हरकतें छोडक़र एक गम्भीर स्तर पर मन को लाने के लिए। कुछ देर रुआँसी
रही, फिर हारे-से भाव से माफी माँगने लगी।
मैं गुस्से में बोलने लगा, तो बोलता ही गया।
लम्बा भाषण दिया कि उसका सारा attitude है—I
versus the world, कि उसे अपने करने,
होने, सहने,
न सह पाने का ही अहसास रहता है—सारे
पविार को एक इकाई के रूप में लेकर वह ‘हम’
में नहीं जी सकती। और भी जो-जो बातें मन में आयीं,
कहता गया। वह कुछ नहीं बोली। बाँहों में सिर डालकर
पड़ी रही। कुछ देर बाद उठ आयी। ‘‘देखना,
इस बार वहाँ से पूरी तरह बदलकर आऊँगी,’’
हल्के से कन्धे पर सिर रखकर बोली, ‘‘जैसी
तुम चाहते हो न, बड़ी और गम्भीर—वैसी
ही बनकर आऊँगी। आज तक के लिए तुम माफ कर दो। कर दिया है न माफ?’’
मन उमड़ आया,
तो उसके सिर को सहलाता रहा। ‘‘अच्छा
ठीक है, अब ये बातें छोड़ दो। अगर सचमुच अपनी
बात साबित करना चाहती हो, तो वहाँ जाकर ठीक
से पढ़ो और सितम्बर में परीक्षा दो।’’
‘‘जरूर पढ़ूँगी। ज़रूर परीक्षा दूँगी। माफ तुमने कर
दिया है न?’’
‘‘कर दिया है।’’
‘‘भाई को अच्छी-सी चिट्ठी लिखोगे?’’
‘‘लिख दूँगा।’’
‘‘भाभी को भी।’’
‘‘उन्हें भी।’’
‘‘और देखो—इक्कीस को
वर्षगाँठ के दिन ज़रूर आ जाना।’’
‘‘अच्छा।’’
‘‘ज़रूर!’
‘‘कह दिया है न।’’
‘‘देख लेना, इस बार मैं
वहाँ से कितनी अच्छी होकर आऊँगी।’’
टिकट ले आने के बाद भी इसी तरह की बातें करती रही। आठ बजे खाना खा
लिया। साढ़े आठ पर टैक्सी मँगवा ली। अम्माँ ने कहा,
वे भी साथ चलेंगी।
स्टेशन पर टहलते और बातें करते रहे। रोने से मना किया था, सो अन्दर
से रुआँसी होकर भी ऊपर से संयत रही। बताती रही कि रूमालों से लेकर
चिट्ठियों तक कौन-सी चीज़ कहाँ रख आयी है। वही एक बात कई-कई बार। यह
भी कहती रही कि सिगरेट कम पीना। आँखों से,
होंठों से, बातचीत से लग रहा था जैसे यह लडक़ी
लडक़ी न होकर पतली-सी खाल में भरी कोई भावना हो—एकान्तिक
भावना जो कि एक व्यक्ति के समूचे अस्तित्व को काटकर,
आप्लावित करके, यहाँ तक कि
तहस-नहस करके, स्वयं भी तहस-नहस हो जाना
चाहती हो। उस समय उसके पहले के कहे शब्द मुझे याद आते रहे—‘‘क्या
किसी तरह मैं पूरी की पूरी ‘फिजिकली’
तुम्हारे अन्दर नहीं समा सकती?’’
और लग रहा था कि उसके शरीर को अगर कहीं से भी नाखून से कुरेद दूँ,
तो वह वहीं से जेलीफिश की तरह टूट जाएगी और पलों में
बहकर अदृश्य हो जाएगी।
गाड़ी चलने से कुछ पहले अन्दर जाकर अपनी खिडक़ी की सीट के पास बैठ गयी—मेरे
कहने से। गाड़ी ने सीटी दी, तो देर तक हाथ
दबाए रही। गाड़ी चली, तो दूर तक हाथ हिलाती
रही। पर अचानक गाड़ी रुक गयी। किसी का बच्चा नीचे रह गया था।
जल्दी से पास पहुँचे,
तो फिर हाथ पकडक़र बोली, ‘‘देखा,
मैंने गाड़ी रोक दी है।’’
गाड़ी दोबारा चली,
तो बोली, ‘‘अच्छा अम्माँ,
अब नहीं रोकूँगी।’’
फिर हाथ हिलाते-हिलाते गाड़ी दूर निकल गयी।
लौटते में बिना बात के अम्माँ पर गुस्सा हो आया। रास्ता भर
‘शाउट’ करता रहा।
(शीर्ष
पर वापस)
2.7.64
सिनेमा हाउस में बैठे-बैठे सोचा कि एक उपन्यास लिखना चाहिए—दिल्ली की
ज़िन्दगी के ‘स्पाट नोट्स’
के रूप में। ऐसा कि जिसमें ज़िन्दगी के कच्चे रेशे ही
हों, कहानी न हो। इससे ज़्यादा कुछ नहीं सोच
सका क्योंकि गर्मी बहुत थी।
अब रात हो गयी है। मतलब अकेले सोने का वक़्त आ गया है। कितनी खोखली
ज़िन्दगी होती अगर पिछले चौदह महीने इसी अकेलेपन में काटे होते।
मगर जब वह आ जाएगी,
तो दूसरी तरह से कोफ्त हुआ करेगी। न इस तरह चैन है,
न उस तरह।
7.8.64
रमेश पाल अपनी जगह परेशान है। रेडियो की नौकरी को लात मारने के बाद
आज इज़्ज़त के साथ उस ज़िन्दगी में लौटना उसके लिए मुश्किल हो रहा है।
टेलीविज़न की नौकरी के लिए एप्लाई नहीं किया—चाची
से हुई बातचीत ने हौसला तोड़ दिया। संगीत-नाटक अकादमी वाली जगह के
लिए डॉ. मेनन ने निरुत्साहित कर दिया। अब दिल्ली नाट्य संघ के
अन्तर्गत नाट्य अकादमी के प्रिंसिपल की जगह के लिए कोशिश कर रहा है।
कल इंटरव्यू है। शाम तक पता चलेगा।
...न जाने क्यों एक बेगानेपन का अहसास उसे होने लगा
है। कुछ-कुछ मुझे भी होता है। उसके जिस आत्मविश्वास के लिए मन में
बहुत कद्र थी, उसमें अब एक खोखलेपन का अहसास
होता है। जब वह इस तरह की बात करता है—‘डॉ.
...ने अपनी भूमिका में मेरा ज़िक्र किया है’—तो
बात ही नहीं, वह खुद भी छोटा लगता है।
रवीन्द्र कालिया ने मार्कंडेय का पत्र दिखाया। पत्र से लगा कि वह
आदमी अस्तित्व के लिए छटपटा रहा है। अपने पर ओढ़े एक बोझ के नीचे
स्वयं दब गया है। जैसे-कैसे अपने को जस्टीफाई करना चाहता है। पत्र
कमलेश्वर ने भी पढ़ा। मज़ाक होता रहा,
जैसे कि पत्र की जगह स्वयं पत्र-लेखक सामने हो।
गोपाल मित्तल के मिलने और हाथ मिलाने में एक अधिकार भावना होती है।
पर उससे बीच की दूरी कम नहीं होती। लगता है,
एक चौड़ी सडक़ के दो फुटपाथों से दो आदमी एक-दूसरे की
तरफ हाथ बढ़ा रहे हैं।
महेन्द्र भल्ला,
प्रबोध और अशोक सेक्सरिया साथ-साथ थे। अक्सर साथ-साथ
होते हैं। टापिक प्राय: एक ही होता है—श्रीकांत
वर्मा। उसी की निन्दा-प्रशंसा करते हैं। अक्सर निन्दा। विषय बदलने के
लिए निर्मल का ज़िक्र कर लेते हैं। यही दो पोल हैं जिनके इर्द-गिर्द
उनकी बातचीत घूमती है। उसी में से ह्यूमर पैदा होता है,
उसी से साहित्य चर्चा का दायित्व पूरा होता है। उनके
लिए साहित्यिक दुनिया श्रीकांत वर्मा से शुरू होती है,
निर्मल वर्मा पर समाप्त हो जाती है। बीच के कुछ
मुकाम हैं—रामकुमार,
विजय चौहान, मुक्तिबोध,
शमशेर, नामवर सिंह। नामवर के
ज़िक्र से गाली देने का शौक पूरा हो जाता है। नगेन्द्र-जैनेन्द्र से
राकेश-कमलेश्वर तक का उल्लेख इतिहास-बोध के सिलसिले में होता है।
कभी-कभी नेमि, सुरेश और नरेश मेहता का।
उदार-भावना भीष्म साहनी और कृष्ण बलदेव वैद के ज़िक्र से सन्तुष्ट
होती है। और लोगों का ज़िक्र उन्हें सम्मानघातक लगता है। कभी-कभी करना
पड़ जाता है, फिर भी। नीचे झुककर सडक़ पर पड़ा
पैसे का सिक्का उठाने की तरह।
मुद्रा,
रवीन्द्र जिमनेज़ियम के नए पहलवान हैं। हर वक़्त पोल
वाल्ट करते हैं। और नहीं तो हाट-स्टेप-जप्म का ही अभ्यास करते हैं।
गनीमत है कि दोनों हँसना जानते हैं।
मन्नू नए घर में खुश नज़र नहीं आयी। वह खुद उखड़ी-उखड़ी-सी थी,
इसलिए सभी कुछ उखड़ा-उखड़ा-सा लगा। कह रही थी कि न
उसे दिल्ली शहर पसन्द आ रहा है, न दिल्ली का
कॉलेज। टिंकू खेल रही थी। कुसुमजी देख रही थीं,
सुन रही थीं। ‘पैसा नहीं है’—राजेन्द्र
के जीवन-संगीत का यह स्थाई पहलू मन्नू ने भी पिक-अप कर लिया है।
15.8.64
रवीन्द्र कालिया,
घर पर। यहाँ, 8ए/54,
डब्ल्यू.ई.ए. में।
काम करते-करते हाथ रोककर उससे बात करने के लिए उठ गया। वह अपना
वक्तव्य लेकर आया था—‘नई
कहानियाँ’ के स्तम्भ ‘नई
कहानी : कुछ और हस्ताक्षर’ के लिए।
वक्तव्य में शब्द चयन अच्छा था। पर बात वही—किताबों
के तहखाने से नए-नए निकलकर आये मौलवियों जैसी। हवाला दूसरों का,
इसका, उसका। कि कहानी मर
चुकी—दुनिया भर में। जो लिख रहे हैं,
झख मार रहे हैं। कि जो लिखी जानी चाहिए वह कहानी
नहीं होगी। इत्यादि, इत्यादि।
दो घंटे की माथापच्ची। वेल्यूज़ को लेकर। कहानियों और कहानीकारों को
लेकर। कहता रहा कि वह कुछ कहानीकारों की बहुत कद्र करता है। उनकी
कृतियों का बहुत मूल्य समझता है। मगर लिख नहीं सकता क्योंकि लोग उसे
चापलूसी समझेंगे। इसके बावजूद इंटेग्रिटी की बात करता रहा। बोला कि
अश्क ने उसकी पहली तीन पंक्तियाँ इस्तेमाल करके और बाकी का हिस्सा
छोडक़र उसके साथ बे-इन्साफी की है।
‘यह सरासर बेईमानी है।’ कुछ
हिस्सों के बारे में कहता रहा, ‘मेरा इससे यह
मतलब नहीं, मतलब इससे बिल्कुल उलटा है। फिर
बोला, ‘मैंने तो आपकी ही बात का समर्थन किया
है!’ बहुत मासूमियत से।
कमलेश्वर कहता है कि यह लडक़ा बहुत
‘चालाकी’ दे रहा है। हर
ग्रुप से हॉब-नॉब करता है और हर जगह दूसरों के खिलाफ बात करता है।
मज़ाक उड़ाता है। लिखते वक़्त प्रिटेंशन्ज ओढ़ लेता है।
उससे यह सब कह भी दिया। वह रुआँसी शक्ल बनाए बात करता रहा। कहता रहा,
‘‘मेरा ऐसा मकसद कभी नहीं होता। मैं ईमानदारी से जो
महसूस करता हूँ, वही कह देता हूँ।’’
कहा कि उसे ईमानदारी से और खुलकर ही बात करनी चाहिए। समझौता नहीं
करना चाहिए। किसी भी उपलब्धि के लिए नहीं। किसी के असर में नहीं आना
चाहिए। न मेरे,
न किसी और के।
जाते वक़्त वह डिस्टब्र्ड था। मगर जो मन में था,
न कहता, तो मैं डिस्टर्ब्ड
रहता।
करोलबाग। अजमलखाँ रोड पर छुट्टी के दिन की शाम। फुटपाथ मार्केट। ग़लत
नहीं कहते लोग कि अब भी यह शहर एक बड़ा-सा गाँव है। यह करोलबाग
खासतौर से। नीलाम से लाटरी तक। झूले से लेकर वजन तोलने की मशीन तक।
हर चीज़ हाजिर। पगड़ी से पाजामे तक। देसी जूती से पेशावरी चप्पल तक!
हर शख्स हाजिर। कन्धेबाजी का स्वर्ग।
आइडेंटिफिकेशन—अपने
काम के साथ। और कुछ भी अच्छा नहीं लगता। घूमना-फिरना,
मजलिसें लगाना। मन झट वहाँ से उचाट हो जाता है। काम
में लगा रहूँ, तो न थकान होती है,
न मन उचाट होता है।
मासूमियत और धूर्तता के बीच कभी-कभी बहुत सूक्ष्म रेखा होती है जिसे
आदमी पकडक़र भी पकड़ नहीं पाता। कहीं समझ में आ जाता है कि यह ऐसे है—फिर भी
आदमी दूसरे को ‘बेनीफिट ऑफ डाउट’
दिए जाता है। परिणाम आखिर वही निकलता है जिसकी कि
उम्मीद होती है। मगर यह मीठा धोखा खाने का खेल वह फिर-फिर खेलता जाता
है। शायद इससे भी अपने अन्दर की ही कोई ज़रूरत पूरी होती है।
(शीर्ष
पर वापस)
16.8.64
सुबह-सुबह भीष्म साहनी। अनुवाद के लिए कहानी लेने। देर तक बातचीत।
विषय :
‘समकालीन सामाजिक और साहित्यिक सन्दर्भ में लेखक का
विचाराभिव्यक्ति का दायित्व’। भीष्म के चेहरे
और बातचीत में आज भी वह सहजता है जो 22-24 की
उम्र के बाद नहीं रहती। विश्वास नहीं होता कि यह आदमी अगले साल पचास
साल का हो जाएगा।
भीष्म कहता रहा कि
‘मनीषा’ गोष्ठी की गन्दगी
देखने के बाद कुछ कहने-लिखने को मन नहीं होता। कि वह अपने में कहीं
कन्फ्यूज्ड महसूस करता है। कि उसने सब लेखकों को पूरा पढ़ा नहीं है।
बात चलती रही। जीवन-सन्दर्भों से टूटे हुए लेखन को लेकर।
इंडो-यूरोपियन तथा इंडो-अमेरिकन आदान-प्रदान की कहानियों को लेकर।
स्थान—लन्दन,
न्यूयार्क, बर्लिन,
पेरिस—या अनिश्चित। एक कमरा—होस्टल,
क्लब या रेस्तराँ का। नाच,
सैर, बातचीत। शारीरिक कसाव। मानसिक अजनबीपन।
परिणति—टेंशन या रिलीज़ में। टेंशन में कटुता।
रिलीज़ में वितृष्णा।
हिंदुस्तानी पात्र—अपने
माँ-बाप, बहन-भाई बहुत छोटे पड़ते हैं इन
साफ़िस्टिकेटिड पाइंट्स के लिए। जिन सन्दर्भों से निकलकर विदेश गये
हैं, उन्हें स्वीकार करते शरम आती है। इनका
अजनबीपन फ़कत विदेशी होने का अजनबीपन है। या वह कुछ जो अजनबी दर्शन के
बारे में पढ़ा है।
भीष्म कुछ उत्साहित हुआ कि वह अब लिखेगा। कि अपने को व्यक्त करना—इन
सभी विषयों पर लेखकीय दायित्व की अनिवार्य शर्त है। बोला, ‘मनीषा’—गोष्ठी
के बाद एक लेख लिखना शुरू किया था, पर वह बीच
में ही रह गया। पूरा नहीं किया। अब पूरा करूँगा।’’
कुछ दोस्तों पर उसने दबे-दबे रायज़नी भी की। पर एहतियात रखते हुए कि
बात का कहीं ग़लत इस्तेमाल न हो। साथ ही भलमनसाहत का तकाज़ा कायम रखते
हुए। एकाध को छोडक़र औरों के नाम लेने में हिचकिचाते हुए।
टी-हाउस। मेज़ के इर्द-गिर्द चार आदमी। चौधरी,
कश्यप और दो अपरिचित। अपरिचितों में से एक आँखें
आधी-आधी भींचता हुआ कह रहा है,...‘बेचकर तो
दिखाएँ एक गाड़ी भी। एक दिन दो गाड़ी अनाज मँगवा लें और बेचकर
दिखाएँ। मैंने कहा नन्दाजी से कि भाई हम तो हैं ही ऐसे—हमारा
तो काम ही है हेरफेर करना। चोरी-चकारी हम नहीं कर सकते,
डाका हम नहीं डाल सकते, किसी
औरत पर ज़ोर-ज़बर्दस्ती करने का हौसला हममें नहीं—हम
लोग बनिए की जात, कलम की हेरफेर ही तो कर
सकते हैं। तुम लाओ अनाज...हमसे एक आना कम में बेचो,
तो ग्राहक तुमसे ही खरीदेगा। उसे जो सस्ता देगा,
उसी से तो वह लेगा। आओ तुम मार्केट में हमारे
कम्पीटीशन में। आते क्यों नहीं?
‘कीमत गिरेंगी—गिर सकती हैं—अगर
तुम्हारे अपने आदमी करोड़ों के सौदे न कर रहे हों। तुमने कैरों को
पकड़ा—वह तो छोटी-मोटी हेरफेर ही कर रहा था।
सत्तर-अस्सी लाख की हेरफेर भी कोई चीज़ है और वह मारा गया अपने लडक़ों
की गुंडागर्दी की वजह से। वरना तुम बिज्जू पटनायक को क्यों नहीं हाथ
लगाते? उसे जिसने पचास करोड़ की हेरफेर की है?
वह तो साफ कहता है कि पचास लाख खर्च करके मैं चीफ
मिनिस्टर हो गया। प्राइम मिनिस्टर बनने में कितना लगेगा?
ज्यादा से ज्यादा दो करोड़?
‘और कुम्भन दास (?) राजस्थान
का। उसने गुड़ में पचास लाख बना लिया है और मूँछों पर हाथ फेरता बैठा
है। गुंडागर्दी वह करता है, लोगों की
लड़कियाँ वह उठवाता है, डाके वह डलवाता है,
यहाँ तक कि चीफ मिनिस्टर के लडक़े को ही अगवा करवा
दिया और तीन लाख वसूल करके वापस छोड़ा...राजस्थान की विधान सभा की
चाबी उसके हाथ में है। जिसे चाहे बनाए, जिसे
चाहे बिगाड़े—उसको तुम छू भी सकते हो?
बनाने को कमेटियाँ तुम चाहे कितनी बना लो—स्टेटमेंट
चाहे कितने दे दो—कीमतें क्या कमेटियाँ और
स्टेटमेंटों से गिरती हैं? अनाज क्या काग़ज़ों
और भाषणों से पैदा होता है? हम तो कहते हैं
कि हम रखते हैं अपने गोदामों में, बनिए हैं,
इसलिए नफे पर बेचते हैं, तुम
आओ भरे बाज़ार में बनिए बनकर और हमारे कम्पीटीशन में बेचो।
‘ये लोग चिल्लाते हैं को-आपरेअिव,
को-आपरेटिव। यही साझेदारी की भावना है लोगों में जो
को-आपरेटिव कामयाब होंगे? को-आपरेटिव बनते
हैं दस दिन मुनाफा कमाने के लिए—उस वक़्त जब
किसी चीज़ की किल्लत होती है। माल बाज़ार में आते ही को-आपरेटिव नदारद
हो जाते हैं। यह है तुम्हारी को-आपरेटिव योजना। कि जो चीज़ प्राइवेट
व्यापारी छ: रुपये क्विंटल ढोकर यहाँ से महाराष्ट्र पहुँचा सकते हैं,
उसके लिए तुम किसी अपने गुरगे के को-आपरेटिव को
ओबलाइज करने के लिए चौदह रुपये क्विंटल में ठेका दे देते हो?
‘यह मुल्क है जहाँ गन्दम और चावल तक लोगों को आसानी
से मयस्सर नहीं, उस दिन एक अमरीकन कह रहा था
कि चिकन को तो वे लोग रफ फूड समझते हैं। कहते हैं अंडा-मुर्गा भी कोई
खाने की चीज़ है? एक डबलरोटी के बराबर वहाँ एक
मुर्गे की कीमत होती है। वे खाते हैं स्टीक जिसमें अच्छी गिज़ा की सभी
खासियतें मिली रहती हैं, जो कि प्योर और
मेडिकेटिड फूड होता है। वहाँ भी है को-आपरेटिव मगर किस काम के लिए?
फसलों को कीड़े से, चिडिय़ों
से बचाने के लिए। ज़रूरत हुई, तो हज़ारों मीलों
में को-आपरेटिव से दवाइयाँ छिडक़वा लीं,
बुलडोज़र मँगवाकर मीलों में जमी बर्फ तुड़वा ली कि वह पिघलकर सिंचाई
के लिए पानी बन जाए। को-आपरेटिव की भी एक मोरेलिटी होती है। यहाँ है
कोई भी मोरेलिटी तुम लोगों में—सिवाय इसके कि
अगली इलेक्शन के लिए जो दस-बीस-पचास लाख रुपया चाहिए,
वह कैसे और किससे हासिल करो?’’
टी हाउस के बाहर पेड़ के इर्द-गिर्द बूट पालिश के बक्सों का ढेर—जंजीरों
से बँधा हुआ।
चौधरी कहता है,
‘‘लगता है जैसे, यहाँ किसी
बूट फकीर का थान हो।...वह है न मटकेशाह का थान—नुमायश
ग्राउंड और सुन्दर नगर के बीच जहाँ लोगों को मानता मानने से पहले
मटके चढ़ाने पड़ते हैं। इधर-उधर, पेड़ों और
दीवारों पर मटके ही मटके लटके नज़र आते हैं।’’
तभी कोई लडक़ा आकर
‘ईवनिंग न्यूज’ हाथ में देता
है। ‘श्री शास्त्री के खिलाफ अविश्वास का
प्रस्ताव पेश होने की सम्भावना। कांग्रेसियों के मन में भी असन्तोष
की लहर।’’
स्नैक बार में सरदार के साथ बैठी हुई लडक़ी। दोनों कुछ आर्डर नहीं
देते। कोई बैरा भी उनके पास नहीं जाता। आपस में वे बात भी नहीं करते।
लडक़ी बस शरमाती-मुस्कराती आँखों से इधर-उधर देखती जाती है।
सरदार उठकर कुछ देर के लिए बाहर चला जाता है। लडक़ी उसी तरह देखती
बैठी रहती है। सरदार लौट आता है। कुछ देर में वह अचानक उठ पड़ता है।
लडक़ी भी उठ पड़ती है और दोनों स्नैकबार से बाहर चले जाते हैं। चौधरी
की आवाज़ जो कुछ देर खोई रही थी,
अचानक फिर सुनाई देने लगती है,...‘‘हाँ,
यही तो बात है। राजेन्द्र से मैंने यही कहा कि अगर
सचमुच तुम महसूस करते हो कि तुम लोगों के सोच-विचार की ज़मीन एक नहीं
है, तो ईमानदारी का तकाजा यही है कि अपनी
दोस्ती कायम रखो और साहित्यिक स्तर पर अपनी-अपनी ज़मीन पर खड़े होकर
बात करो।’’
टी हाउस। कुछ बौखलाई हुई नज़रें। कुछ घूरती हुई आँखें। कुछ चुभती हुई
बातें। रुके-रुके कहकहे। कुछ दबे-दबे इशारे। एक का बेतकल्लुफी से हाथ
मिलाना। दूसरे का त्योरी डालकर बाँहें सिकोड़ लेना। किसी का कन्धे
हिलाना।
‘हमारी तो समझ में नहीं आता साहब कि आजकल लोग
एक-दूसरे से इतने जले-भुने क्यों रहते हैं?
फिर भी इतने हिलमिलकर कैसे बैठते हैं।’
इसमें क्या सार्थकता है कि आदमी एक ही जिये हुए दिन को बार-बार जिये
: फिर-फिर से उसी तरह,
उसी क्रम से और उसी दायरे में। वही बातें करे—या
वे नहीं तो वैसी ही। उसी तरह हँसे। उसी तरह हैरानी जाहिर करे। उसी
तरह बैठे। उसी तरह उठे। और उसी तरह मुँह उठाए। कल की तरह आज भी बस के
क्यू में आ खड़ा हो?
एक घटनाहीन घटना अपने अन्दर घटित होती रहती है—घटनाहीन
नहीं, क्रियाहीन। वह जो मन को,
मनन को, ग्रहणहीन अनुभूति को
एक प्रलक्षित क्रम से तोडक़र फिर-फिर से बनाती चलती है। हर आज,
हर बीते कल का परिणाम होता है,
उसका नया, बदला हुआ संस्करण,
उससे समृद्ध और परिष्कृत। पर यह घटना क्या सभी के
अन्दर घटित होती है? होती हो,
तो क्यों फिर...?
पता है कि बहुत छोटी-सी बात है। बहुत साधारण। एक स्वाभाविक तनाव होता
है स्नायुओं का जो नर और मादा मांसपिंडों को आपस में लिपटा देता है।
एक-दूसरे में खो जाने,
डूब जाने के लिए मजबूर कर देता है। सारी प्रक्रिया
में एक मशीनीपन नज़र आता है। जैसे कि एक के बाद एक पुर्जा अपने वक़्त
पर स्टार्ट होता जाता हो। मशीन एक खास रफ्तार पकडऩे के बाद एक परिणाम
पर पहुँचकर रुक जाती हो—तारघर में लगे
टेबुलेटर की तरह। सब ठीक है, फिर भी उन
क्षणों में जो विवशता, जो विस्मृति,
जो अवसन्नता होती है, वह
क्या है? उसमें चाहे क्षण भर को ही सही,
एक दिशा और काल निरपेक्ष अनुभूति का स्पर्श क्यों
होता है? क्यों उस हूँ-हाँ और चिपचिपाहट के
बीच भी कहीं वह मुकाम आ जाता है जहाँ लगता है कि सामने आकाश रूप
सार्वकालिकता है और हम उसे अपने सिर की ठोकर से तोडक़र उसकी आखिरी तह
तक पहुँच जाने को हैं? और वह अनुभूति चेतना
में जाग्रत होने से पहले ही विलीन क्यों हो चुकी होती है?
उसके बाद शेष होती है चिपचिपाहट से शीघ्रातिशीघ्र
मुक्ति पाने की कामना। हाथ कपड़ों को ढूँढ़ते हैं—नंगेपन
में अपना आप जानवर जैसा लगता है।...मगर वह जानवर का-सा नंगापन भी तो
किसी-किसी स्थिति में अद्भुत होता है।
(शीर्ष
पर वापस)
21.8.64
अट्ठाइस को पहले कॉफी हाउस। सुदेश (नहीं,
स्वदेश कुमार) और वेद व्यास। सन्तोष नौटियाल।
‘चाय पार्टियाँ’ नाटक।
डी.ए.वी. में रीडिंग है।
स्वदेश का एक ही विषय है—विश्वनाथ।
नौकरी करता था, तब भी वही था,
अब भी वही है। अब कहता है कि उस आदमी की नौकरी छोडऩे
(मतलब छुड़ाये जाने) से ही स्वास्थ्य सुधर गया है।
बोला,
‘‘एक कहानी लिख रहा हूँ। अभी पूरी नहीं कर पाया
क्योंकि समझ नहीं पा रहा कि वह नई कहानी है या पुरानी।’’
टी हाउस में रवीन्द्र कालिया और लक्ष्मीनारायण लाल। फिर एक के बाद एक—
कुलभूषण, रमेश गौड़,
राजेन्द्र अवस्थी और पाँच अदद और। रमेश गौड़ अश्क की
किताब ‘कहानियाँ और फैशन’
का ज़िक्र करते हुए कहता है,
साहब इधर एक किताब आयी है। उसका नुस्खा सुनिए। पहले एक जमूरा घंटी
बजाता हुआ आता है और मजमा इकट्ठा करता है—‘मेरा
उस्ताद, उस्तादों का उस्ताद,
उनका भी उस्ताद।’
फिर उस्ताद आता है और जमूरे का परिचय देता है
‘यह जमूरा, मेरा नहीं,
मैं इसका नहीं, जो है सब
खुदा का है। तो साहबान, अब खुदा को
हाजिर-नाज़िर जानकर जो कुछ मुझे कहना है, वह
इस जमूरे की ज़बान से सुनिए...।’
जमूरे,
तेरा नाम?
सुरेश सिन्हा।
काम?
डॉक्टरी।
पेशा?
जी हजूरी।
शहर का नाम?
इलाहाबाद।
इरादा!
नेक।
फिर भी।
मजमे में नाम पाना।
तो जिस बात को मैं सच कहूँ,
उसी को सच बताएगा।
बताऊँगा।
जो बात जबान पर लाऊँ,
उसे मजमे में फैलाएगा?
फैलाऊँगा।
चार बार दिल्ली जाएगा।
जाऊँगा।
तो लेट जा चादर ओढक़र।
(जमूरा लेट जाता है चादर ओढक़र।)
अब तेरे ऊपर कलमा पढ़ूँ?
पढ़ो।
जब तक मैं न कहूँ,
तब तक आँखें तो नहीं खोलेगा?
नहीं खोलूँगा।
और जो कुछ भी मैं कहूँ,
उस पर पूरा यकीन लाएगा?
लाऊँगा।
जो कुछ न कहूँ,
वह खुद बताएगा।
बताऊँगा।
तो आ,
और बता कि इनमें सचेतन कहानीकार कौन-कौन हैं...।
भीष्म साहनी,
राजेन्द्र यादव,
लक्ष्मीनारायण लाल कॉफी हाउस में। हल्की-फुल्की बातचीत। बेमतलब की।
राजकमल में मुलाकात श्री राजकुमार से। बातचीत
‘अम्बर’ में। विषय—दीदी
का ऑपरेशन। विषयान्तर—व्यंग्य।
नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का दीक्षान्त समारोह। भाषण श्रीमती तारकेश्वरी
सिन्हा,
अध्यक्षा, का। शब्द बेढब—चालीसवें
साल की गोलाइयों की तरह। ब्लाउज़ ब्रेसियर, दो
साइज़ छोटे। दस साल के रिट्रोस्पेक्ट में लडक़ी खूबसूरत। बिल्कुल
डिप्टी मिनिस्टर या फिल्म हीरोइन होने के लायक! आज—
नाटक
‘द फादर’ (स्टिंबर्ग) का
हिंदी (?) रूपान्तर। भाषा बेढब। उठान,
लाउड। इंटरप्रेटेशन—जर्की।
तकनीकी पहलू, पालूटेड। नख से शिख तक
दुरुस्त-चुस्त। क्लाइमेक्स—ढीला।
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल। वहाँ से साथ टी हाउस। टी हाउस में निर्मल,
प्रबोध, कमलेश। हमारे आने पर
वे उठकर चले गये।
डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल साथ घर। उनके नाटक
‘दर्पन’ का पहला अंक?
नाटक समर्पित—श्री
नेमिचन्द्र जैन को।
पहली प्रति—भाई
श्री अलकाजी को।
उनकी सूचना—‘इलाहाबाद
से भैरव एक नई कहानी पत्रिका निकाल रहे हैं। बहुत सम्पन्न प्रकाशक
की ओर से।’
बीस की सुबह। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा का रिसेप्शन। समोसा,पेस्ट्री,
चाय। सिवाय इसके कोई तालमेल नहीं। अलकाजी—कसे
हुए। माया—ढीले-ढाले। भारतभूषण के कमरे में।
डॉ. परमानन्द श्रीवास्तव। चुगद।
यूनाइटिड कॉफी हाउस में सुरेश,
नेमि और हबीब के साथ। हबीब अलकाजी से बुरी तरह खार
खाए हुए। बेतरह, बेवजह अलकाजी की निन्दा। हर
बात पर। वह एक्टर बुरा है, डायरेक्टर बुरा है,
प्रोड्यूसर बुरा है, स्कूल
के लिए बुरा है, रंगमंच के लिए बुरा है,
भाषा के लिए बुरा है,
संस्कृति के लिए बुरा है।
फिर टी हाउस में। राजेन्द्र यादव,
नेमि, लक्ष्मीनारायण लाल।
धर्मप्रकाश शर्मा का पालतू शायर—उसकी
बेमतलब की ऊल-जलूल बातचीत।
कमलेश्वर पर हुई किराये की डिक्री को लेकर परेशानी। राजेन्द्र के और
मेरे बीच। ओंप्रकाश के और मेरे बीच। गायत्री परेशान। अनीता परेशान।
कमलेश्वर अलग-अलग जगह वक़्त देते हुए। हमारी दौड़-धूप। कमलेश्वर लापता
है।
शाम। राजकमल में ओंप्रकाश,
राजेन्द्र यादव, श्रीकांत
वर्मा। श्रीकांत वर्मा के साथ ‘मोना लीज़ा’
में बातचीत। कृत्रिमता और प्रामाणिकता। सामाजिकता का
अर्थ। महेन्द्र भल्ला की कहानी (उपन्यास—अंश)
‘एक पति के नोट्स’।
प्रिटेंशस और जेनुइन राइटिंग। श्रीकांत वर्मा की सफाई, ‘मैं
आज भी मार्क्सिस्ट हूँ और ज़िन्दगी भर रहूँगा... पर मेरा मतलब तो यह
है कि...।’
फुटपाथ पर राजेन्द्र से बातचीत। कमलेश्वर और ओंप्रकाश के बीच की
समस्या को लेकर। डिक्री के प्रकरण में। बूँदाबाँदी। उससे घर पर देखने
का निश्चय।
रात। घर पर। कमलेश्वर हँस रहा है। कहता है,
सब ठीक है। सुबह पैसा वह ले आएगा। बस।...
खाना। पत्रिकाओं के बारे में बातचीत। किसे कितना सहयोग देना चाहिए।
इक्कीस की शाम। कॉफी हाउस। अशोक सेक्सरिया। विषय—‘श्रीकांत
ने कहा कि आपको महेन्द्र की कहानी बहुत पसन्द आयी।’
लिट्रेचर इन जनरल। भाषा। इतने में राजेन्द्र यादव।
प्रयाग शुक्ल। उखड़ी-उखड़ी बातचीत। ‘कल्पना’
कार्यालय की स्थिति। सामन्ती वातावरण।
दूसरे दौर में श्री सेंगर,
मन्नू, बांटिया। विषय—वेफ़र्ज,
कॉलेज, टिंकू,
कॉफी, हाट डाग्ज़,
रेडियो टाक्स, श्री सेंगर की
ज़िम्मेदारियाँ, उनकी भौजाई,
ज़िन्दगी, वेफ़र्ज,
हाट डाग, कॉफी,
दिल्ली में अकामोडेशन,
रेडियो की पालिटिक्स, चिरंजीत गन्दा आदमी,
कलकत्ते की याद...।
टी हाउस। फ्लेश लेमन सोडा। दूर से देवराज दिनेश की आँखें। फिर दिनेश
उठकर उस टेबल पर। विषय—उम्र,
आँखें, चश्मे का नम्बर,
उर्मिल की बीमारी, डॉक्टर
तिवारी...।
घर। कमलेश्वर का अब भी पता नहीं। मतलब,
वह सामने नहीं गया। सुना,
बारह बजे टी हाउस में था, साढ़े छ: बजे घर पर
आया था।
(शीर्ष
पर वापस)
24.8.64
बाईस को भीष्म और मिसेज़ साहनी घर पर। औपचारिक बातें। तेईस को पहले
कालिया,
फिर मन्नू।
कालिया ने नया वक्तव्य सुनाया। मन्नू से हँसी-मजाक चलता रहा। आज—दोपहर
से नौ बजे तक आवारागर्दी।
27.8.64
स्थान—कमलेश्वर
का कमरा। अवसर—बियर की तीन बोतलें। भोक्ता
राकेश, कमलेश्वर। भोजन : राजेन्द्र। विषय :
राजेन्द्र की बेईमानी।
विषयारम्भ : राकेश के कन्फेशन्ज़। स्थिति का विश्लेषण।
मध्य : राजेन्द्र द्वारा भलमनसाहत से कथ्य का आरम्भ। परन्तु शुरू
करते ही कुंठा। फिर बेईमानी।...आखिर स्वीकृति।
अन्तत: एक लेख की योजना।
28.8.64
निर्मल रामकुमार के घर के बाहर। उनके पिताजी की मृत्यु का सोग।
साहित्यिक परिवार में से सिर्फ़ तीन आदमी। भीष्म,
कुलभूषण और मैं।...वीरानगी।
खामोशी का बाँध टूटा। अच्छा लगा। उदासी से निर्मल की आँखें पहले से
ज़्यादा डूबी हुई लगीं। पर उनमें मस्ती नहीं थी। रामकुमार की आँखों
में, चेहरे में,
मुरझाव ज़्यादा था, मस्ती भी
थी।
भीष्म ने बताया कि मुक्तिबोध की हालत नाजुक है।
मेडिकल इन्स्टीट्यूट। शमशेर,
शमशेर सिंह नरूला,
श्रीकांत। नेमि।
पता चला कि सुबह मुक्तिबोध की साँस रुक गयी थी। आर्टिफिशियल
रेस्पायरेशन से ज़िन्दा रखा जा रहा है। अब किसी भी क्षण...।
बरामदा।
अपने सिवा हर एक की हँसी-मुस्कराहट अजीब लगती है। अस्वाभाविक। लगता
है,
मौत के साये में कैसे कोई हँस-मुस्करा सकता है। पर
फिर अपने गले से भी कुछ वैसी आवाज़ सुनाई देती है।
कमलेश,
अशोक वाजपेयी।
व्यस्त,
जैसे कि किसी साहित्य समारोह के कार्यकर्ता हों।
व्यस्त, चेहरे से।
मुक्तिबोध—रुकी-रुकी
साँसें...
ऊपर से देखने में अन्तर नहीं...
लगभग वैसे ही जैसे दिल्ली आने के दिन थे।
बाहर बातचीत...
‘चिता वगैरह का प्रबन्ध कैसे करना होता है?’
‘भीष्म बता सकेंगे। इसके लिए हमने उन्हीं का नाम
लिख रखा है।’
...मुस्कराहटें!
‘कुछ महाराष्ट्रियन विधि भी तो होगी।’
‘वह प्रभाकर माचवे बता देंगे।’
हँसी।
मुक्तिबोध का सबसे छोटा बच्चा—खेलता-चिल्लाता
‘अंकल! अंकल।’
कुछ वाक्य :
‘एक साहित्यकार की अकाल मृत्यु! कितना अनर्थ है।’
‘इसके लिए एक सरकारी कोष होना चाहिए।’
‘हेल्थ सर्विसिज़ फ्री होनी चाहिए।’
‘हेल्थ सर्विसिज़! हा-हा!’
‘या सोशलिज़्म हो, या कुछ
भी न हो।’
‘हम प्रजातन्त्र के लायक नहीं।’
‘आजकल क्या लिख रहे हैं?’
‘कितनी बड़ी पुस्तक होगी?’
... ... ...
‘कब तक पूरी हो जाएगी?’
... ... ...
‘नागपुर से प्लेन कितने बजे आता है?’
‘भिलाई की गाड़ी को उसका कनेक्शन नहीं मिलता।’
‘चलें?’
‘अच्छा...!’
(शीर्ष
पर वापस)
8.11.64
कालिया का लेख उसकी बातचीत से ज़्यादा बचकाना है...दो बार लिखे जाने
पर भी उसका कोई अर्थ नहीं बना। परसों वह तीन घंटे बैठा रहा। जो बात
मन में थी,
उससे कह भी दी...कि आधारभूत ईमानदारी लेकर न चलने से
वह साल-दो साल के लिए एक भ्रम तो पैदा कर सकता है,
पर वह भ्रम जब टूटेगा, तो वह
बहुत तकलीफदेह स्थिति होगी। वह कहता रहा कि अब इस तरह की स्थिति से
बचकर चलना चाहता है...जब शुरू-शुरू में दिल्ली आया था,
तो ज्यादा ग़ैर-ज़िम्मेदार था...अब उतना नहीं है...कि
विमल जैसे व्यक्ति का उस पर कोई प्रभाव नहीं है।
जब वह मासूम बनकर बात करता है,
तो मन में बहुत हमदर्दी जागती है। पर साथ ही कहीं यह
भी लगता है कि उसकी मासूमियत सिर्फ़ एक लबादा है...वह हर ऐसे व्यक्ति
के साथ मासूम बन जाता है जो कहीं किसी तरह का प्रभाव रखता हो...
कभी-कभी यह भी सोचता हूँ कि ऐसा सोचना मेरा कमीनापन है...वह कहीं
सचमुच मुझसे
‘इमोशनली अटेच्ड’ है...या
कम-से-कम उन दिनों की एक इज़्ज़त तो उसके मन में है ही जब डी.ए.वी.
कॉलेज जालन्धर में मुझसे पढ़ता था। पर उसकी कही या लिखी हर बात का
‘अंडरकरेंट’ इसके
विपरीत जाता है।
जुकाम,
खाँसी। हल्का-सा बुख़ार। घर से बाहर वैसे ही बहुत कम
निकलता हूँ...आज दिन भर मजबूरन पड़े रहना पड़ा। बिना कुछ किए-धरे।
हाँ, छींकते और रूमाल खराब करते हुए कुछ
चिट्ठियाँ लिख डालीं। बेमतलब की चिट्ठियों की सफाई भी कर दी।
...यह स्वीकृति कैसी है,
नहीं जानता। सच, मुझे लगता है कि मुझे मौत से
डर नहीं लगता...जो ख्याल आता है वह यही कि बहुत-सा काम अभी करने को
पड़ा है। अनीता का ख्याल भी आता है। वह अभी बहुत छोटी है...उसे
बीस-तीस साल की ज़िन्दगी मिलनी ही चाहिए,
इतना। मगर अपनी वजह से, अपने शरीर की वजह से,
डर नहीं लगता। दूसरों की तरह अपनी तरफ से भी मन काफी
हद तक तटस्थ है उस दृष्टि से। हो सकता है कि यह ‘स्वस्थ’
दृष्टि तब तक ही हो जब तक कि स्वास्थ्य ठीक है,
उसके बाद न रहे। किसी ने कहा था कि यह दृष्टि स्वस्थ
नहीं है। पराजय की स्वीकृति है। मैं नहीं जानता। मुझे इस अहसास से
कहीं पराजय नहीं लगती। कुछ वैसा ही लगता है जैसे क्षणभर के इरादे से
एक अच्छी-खासी लगी-लगाई नौकरी छोड़ देना।
ooo
(शीर्ष
पर वापस)
[संचयन-मुख्य सूची] |