अन्तरंग
भेंट
डॉ. कार्लो कपोला और मोहन
राकेश
.
(यह भेंट जर्नल ऑफ़ साउथ एशियन लिटरेचर, ईस्ट
लैंसिंग, मिशिगन के सम्पादक कार्लो कपोला ने
श्री मोहन राकेश से 30 जुलाई, 1968
को ली थी। हिन्दी में यह अब तक अप्रकाशित रही है।)
कार्लो
कपोला :
कृपया अपने प्रारम्भिक लेखन के बारे में कुछ कहिए,
विशेषकर इसलिए कि यह आपके प्रारम्भिक जीवन तथा
पारिवारिक वातावरण से काफी सम्बन्ध रखता है। आपने लिखना कैसे शुरू
किया?
मोहन
राकेश :
इस विषय के सम्बन्ध में मैं अपने लेख
‘आईने
के सामने’
में बहुत कुछ पहले ही लिख चुका हूँ। उसमें एक चीज़ और जो मैं ज़रूर
जोडऩा चाहूँगा,
यह है कि मेरे लेखन में रुचि उत्पन्न होने का सबसे
अधिक श्रेय मेरे पिताश्री को है जिनके कारण घर में साहित्यिक माहौल
बना रहता था। वह वकील होने के साथ कई सांस्कृतिक संस्थाओं से भी
सम्बन्धित थे और इसी से अपने प्रारम्भिक बचपन से ही मैंने अपने आसपास
एक साहित्यिक माहौल पाया। मैं नहीं सोचता कि यह वातावरण ही मेरे लेखन
का मुख्य कारण रहा है, लेकिन इतना अवश्य हुआ
कि इस माहौल में बड़े होने के साथ-साथ मैं इस प्रकार की दुनिया के
प्रति आकर्षित होता गया। मैंने बचपन में बहुत से लेखकों को पढ़ा और
इसी प्रक्रिया द्वारा मैंने सोलह वर्ष की आयु में अपने आपको भी इसी
माध्यम द्वारा व्यक्त करता पाया।
कपोला :
आप हिन्दी साहित्य में निश्चित ही सर्वप्रथम एक कहानी-लेखन के रूप
में प्रतिष्ठित हुए। आप,
कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव
तथा अपने द्वारा चलाये गये ‘नई
कहानी’ आन्दोलन को
प्रेमचन्द के बाद की कहानियों से कैसे भिन्न समझते हैं?
क्योंकि ‘अश्क’
के अनुसार आपकी पीढ़ी ने
‘नई कहानी’
आन्दोलन शुरू होने के बाद हिन्दी कहानी को
कुछ भी नहीं दिया है, जिसका उल्लेख उन्होंने
अपनी प्रकाशित पुस्तक ‘अंगारे’
में किया है।
राकेश :
लेकिन मैं अश्क द्वारा कहे गये इस विषय पर बहुत कम कहूँगा,
क्योंकि उन्होंने ‘हिन्दी
कहानी’ पर दो
पुस्तकें लिखी हैं। और यदि आप उन दोनों पुस्तकों को पढ़ें तो वह
दोनों आपस में विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। इसीलिए मैं उनके द्वारा
इस विषय पर कही गयी बात को नज़रअन्दाज़ करना चाहूँगा। इसीलिए मैं उनके
द्वारा कहे गये किसी भी कथन को महत्त्वपूर्ण नहीं मानता।
हाँ, जहाँ तक
‘नई कहानी’
का सम्बन्ध है, उसके
विषय में मैं अवश्य कहूँगा कि उसमें अवश्य कुछ ग़लतफ़हमी हुई है।
कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव और मेरे द्वारा
चलाया गया यह कोई ‘आन्दोलन’
नहीं था। दरअसल 1950
के लगभग कुछ 10-12 लेखकों का एक ग्रुप था जो
कि मुख्यत: कहानी लिखने का शौक रखता था। फिर अचानक ऐसा लगा कि प्राय:
लेखकों ने कविता से हटकर ‘कहानी’
लिखने में रुचि लेनी शुरू कर दी थी। इस
अदला-बदली के कारण को विस्तृत रूप में भी समझाया जा सकता है,
लेकिन यहाँ मैं गहराई में न जाकर सिर्फ़ इतना ही कहना
चाहूँगा कि उस समय हम लोगों में एक अजीब-सी अकुलाहट थी;
हम एक ऐसी तीव्र आकांक्षा लिये हुए थे और चाहते थे
कि हम अपने समय के रंग को पकड़ पायें। वह यही अकुलाहट थी कि जिसने उस
अदला-बदली को जन्म दिया, जिसका कि हवाला
मैंने अभी दिया है। ‘नई
कहानी’ इस तरह एक
चिह्न मात्र बन गया था, जो कि हमारे
कहानी-लेखन के प्रयास को प्रेमचन्द के बाद की कहानियों से अलग कर
सके। ‘नई कहानी’
आन्दोलन एक आन्दोलन के रूप में नहीं शुरू हुआ
था। हममें से बहुत से लिख रहे थे, और
अदला-बदली के इस माध्यम द्वारा जो कि आसपास के यथार्थ को व्यक्त करता
था, हममें से बहुत से एक-दूसरे के करीब आ गये,
अर्थात् एक-दूसरे में समानता-सी स्पष्ट होने लगी और
इसी को बाद में ‘नई
कहानी आन्दोलन’
नाम दे दिया गया। धीरे-धीरे यह हमारे नामों के साथ भी सम्बद्ध होता
गया, क्योंकि इस प्रकार के लेखक के विकास की
एक विशेष स्थिति में हम इसके वक्ता माने जाने लगे,
जो कि तब तक एक आन्दोलन भी कहा जाने लगा था। क्योंकि
समीक्षक इस दिशा में आगे नहीं आये, इसलिए हम
लोगों ने सोचा कि अब हमें स्वयं ही यह स्पष्ट करना चाहिए कि
‘नई कहानी’
से हमारा तात्पर्य क्या है। यहाँ मैं
प्रेमचन्द के बाद की कहानी के बारे में विशेष रूप से चर्चा कर रहा
हूँ। प्रेमचन्द की कहानी और उनके बाद की कहानियों में एक अन्तर यह था
कि समय की यथार्थता, और जीवन की वे
परिस्थितियाँ जिनमें कि लोग जी रहे थे,
प्रेमचन्दोत्तर कहानियों में नहीं झलकती थी—न
जैनेन्द्र की, न ही अज्ञेय की तथा इसी प्रकार
अन्य लेखकों की कहानियों में। हाँ, ‘अश्क’
अवश्य एक अपवाद थे,
जिनकी कहानियों में उस समय की यथार्थता झलकती थी,
लेकिन एक औपचारिकता लिये हुए। अन्य सबके लिए सामान्य
रूप से कहानी का अर्थ किसी विचार का विस्तार ही रहा है। यहाँ तक कि
यशपाल के लिए भी, प्रगतिशीलता के प्रति उनके
झुकाव के बावजूद भी उनके लिए कहानी का अर्थ किसी विचार का विस्तार
करना ही रहा है।
दूसरी तरफ़ हमारा ज़ोर इस पर था कि विचार स्वयं यथार्थ
से उभरे, न कि किसी प्रकार के यथार्थवादी
साँचे में किसी विचार को थोपा जाए, बल्कि
हमने स्वयं यथार्थ में निहित विचार की खोज पर ज़ोर दिया। यही हमारा
विशेष बिन्दु बना। हम सबने यह कहा कि नई कहानी को किसी विशेष प्रकार
की कहानी न माना जाए, बल्कि इसे केवल
पूर्ववर्ती लेखन से अलगाव की दिशा या फिर एक विशेष बिन्दु माना जाए,
जहाँ से कहानीकार ने भिन्न प्रकर सोचने की शुरुआत
करके उस पर भिन्न प्रकार के प्रयोग किये।
‘नई कहानी’
से सम्बन्धित प्राय: सभी लेखकों में एक-दूसरे
से असमानताएँ थीं।
मैं समझता हूँ कि सबसे अच्छी चीज़ जो इस आन्दोलन की
थी वह यह कि कोई भी लेखक किसी अन्य लेखक की तरह नहीं लिख रहा था। यह
‘नई कविता’,
‘छायावाद’
या फिर ‘प्रगतिवाद’
आन्दोलनों की तरह नहीं था जहाँ लोग एक ही
दिशा में सोचना, एक ही तरह से लिखने को
श्रेष्ठ तरीका मानते थे, जहाँ पर लेखन मानो
एक प्रमुख नदी थी और प्रत्येक लेखक उस नदी की सहायक धारा बनने के
प्रयास में लगा था। ‘नई
कहानी’ से
सम्बन्धित कई लेखक अपना अलग-अलग व्यक्तित्व रखते थे। उदाहरणत: मैं
नहीं समझता कि निर्मल वर्मा के और मेरे लेखन में बहुत बड़ी समानता
है। हम सबमें अपनी-अपनी कुछ विशिष्टताएँ रही हैं,
लेकिन पिछली कहानी से अलगाव का बिन्दु सबमें समान
रहा है।
कपोला :
इस आन्दोलन से जन्मी कहानियाँ बहुत बढिय़ा हैं,
वह एक कलात्मकता लिये हुए हैं,
जिनकी कमी मैं व्यक्तिगत रूप से प्रगतिवादी कहानियों
में पाता हूँ। यह कहानियाँ बहुत अच्छी तरह गुँथी हुई हैं। यह उर्दू
के तथाकथित ‘कला
केवल कला के लिए’
विचारधारा के लिए दरअसल सच भी हैं। लेकिन क्या इस तथाकथित विचार की
हिन्दी के ‘नई
कहानी आन्दोलन’ के
साथ कोई समानता है?
राकेश :
नहीं,
बिल्कुल नहीं। इस आन्दोलन के कारण ही अपने आसपास की
यथार्थता से लेखक के गहरे सम्पर्क और उस यथार्थ की उसकी निजी
अभिव्यक्ति पर बहुत ज़ोर दिया गया था। ‘नई
कविता’ में ज़रूर
‘कला केवल कला के
लिए’ वाली
प्रवृत्ति थी कि जिनकी आपने अभी बात की है। लोग कविता पर केवल कविता
के लिए ही चर्चा किया करते थे, या फिर कविता
को कविता के अपने मूल्यों पर ही आँका जाता था। लेकिन
‘नई कहानी’
में जीवन ही कहानी का मूल्य बना,
न कि कहानी। स्वयं लेखक कहानी के मूल्यांकन का
एकमात्र आधार नहीं था। मैं अपने इस विचार को और स्पष्ट करने का
प्रयास करता हूँ। लेखन का असली मानदंड यह था कि हम अपने समय की
मनोवृत्ति या फिर लोगों की मनोवृत्ति को कितना व्यक्त कर पाते हैं।
इसलिए अब हम लेखक की प्रतिबद्धता पर आ जाते हैं,
जिसके विषय में मैं एक मिनट के पश्चात् बहुत कुछ
कहना चाहूँगा। हमारी कला हमारे जीवन से अलग नहीं है,
इसलिए मैं उसे ‘कला
केवल कला के लिए’
विचारधारा की श्रेणी में नहीं मानता।
कपोला :
लेकिन फिर भी जब मैं इन्हें पाश्चात्य दृष्टि से देखता हूँ तो मैं इन
कहानियों को अत्याधुनिक पाता हूँ। इन्हें पेरिस,
ब्यूनोसएयर्स या फिर शिकागो आदि में बैठे कोई भी लिख
सकता है।
राकेश :
मेरे विचार में आप यह कहना चाह रहे हैं कि
‘नई
कहानियों’
में एक विशेष प्रकार की वास्तविकता है। यह सच है। मेरे विचार से यह
अन्य उपलब्धियों में से एक उपलब्धि थी,
जो कि ‘नई
कहानी आन्दोलन’ से
प्राप्त हुई थी। अपने आसपास के यथार्थ की वास्तविकता को समझने के लिए
यह आवश्यक था कि लेखक अपने आपको उसका हिस्सा बनाये और साथ ही तटस्थ
भी रह सके। जिस प्रकार का लगाव लेखक को था,
या फिर जिस प्रकार ‘दुख’
या ‘दर्द’
वह अपने आसपास महसूस करता था,
या फिर जिस प्रकार का मोह-भंग उसे अपने आसपास घटित
परिस्थितियों से होता था—जीवन
की इन्हीं व्यक्तिपरक प्रतिक्रियाओं को यथापरक दृष्टिकोण से प्रस्तुत
किया गया। इसीलिए आप पाएँगे कि ‘नई
कहानी’ मुख्यतया
एक अन्तरंग कहानी है। यह अज्ञेय की कहानियों से भी भिन्न है। उदाहरण
के लिए, ‘जयदोल’
कहानी को ही लें। सम्भव है कि अपने में वह एक
अच्छी कहानी हो, लेकिन फिर भी वह लेखक का
अपने आसपास की ज़िन्दगी या परिवेश से अन्तरंग सम्बन्ध या जानकारी का
कोई हवाला नहीं देती। इस प्रकार यह कहानी केवल एक विचारमात्र है
जिसमें कुछ कल्पना या फिर सम्भवत: उस क्षण का जिसका अनुभव लेखक को
हुआ हो, शामिल है। लेकिन
‘नई कहानी’
का लेखक समय की सम्पूर्णता से और फिर आसपास
उत्पन्न हुई जीवन-स्थितियों से भी सम्बद्ध था,
न कि मात्र एक गुजरते क्षण से और न ही लम्हे-भर में
उत्पन्न किसी तात्कालिक प्रतिक्रिया से, जो
कि ज़िन्दगी के अन्य पहलुओं से कटी हुई हो,
भले ही वह लेखक को प्रभावित कर गयी हो। लेकिन
‘नई कहानी’
में जीवन को उसकी पूरी परिधि में देखकर ही
जीवन के प्रत्येक अनुभव को प्रस्तुत किया जाता है।
हमें हर
तरफ़ से विरोध मिला। हठधर्मी प्रगतिवादियों ने हमें नितान्त
‘अप्रगतिशील’
कहा। अन्य ने हमें गालियाँ दीं क्योंकि हमने नारे नहीं लगाये,
क्योंकि हम लोगों ने अपने आसपास की समस्याओं के
प्रति व्यक्तिपरक दृष्टिकोण से प्रतिक्रिया नहीं जतायी।
‘कला केवल कला के लिए’
विचारधारा वालों ने हमें कम्युनिस्ट तक कहा,
क्योंकि उनका विचार था कि हम आम आदमी की आम ज़िन्दगी
की समस्याओं को चित्रित और प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन मेरे विचार
में हमारा प्रयास निरन्तर ही जीवन से उत्पन्न परिस्थितियों के प्रति
प्रतिक्रिया करना ही था, और साथ ही बीच से
हटकर उसे एक दूरी से तटस्थ रूप से देखना और आलेखन करना था। यहाँ फिर
प्रश्न उठे। उदाहरण के लिए, भाषा। मेरे विचार
में ‘नई कहानी’
आन्दोलन का सबसे बड़ा योगदान था—एक
ऐसी भाषा को जन्म देना जो अन्तरंग और उद्देश्यपूर्ण थी। यह सबसे कठिन
काम था, क्योंकि भाषा का विकास या तो
प्रेमचन्द जैसे लेखकों के हाथों हुआ, जो न तो
संवेदनशील ही थी और न ही उद्देश्यपूर्ण, या
फिर उसमें सुगढ़ता जयशंकर ‘प्रसाद’ और अज्ञेय जैसे लेखक लाये,
जिन्होंने भाषा को आभिजात्य और संवेदनशीलता दी,
लेकिन वहीं उसमें अन्तरंगता की कमी रह गयी। यह एक
अस्पष्ट भाषा थी। इसीलिए हमने ‘नई
कहानी’ में एक तरफ़
तो भाषा को उद्देश्यपूर्ण दृष्टि दी और दूसरी तरफ़ इसे अन्तरंगता और
संवेदनशीलता भी दी जो कि सही शब्दों में उद्देश्यपूर्ण और व्यक्तिपरक
दोनों ही थी।
कपोला :
आप पर तथा आपके समकालीनों अर्थात् पाँचवें दशक की पीढ़ी पर लगाये गये
आरोपों के विरुद्ध आपको कुछ कहना है कि जिस प्रकार पुरानी पीढ़ी के
लेखकों जैसे यशपाल,
अज्ञेय, अश्क आदि ने आपके
लेखन के विरुद्ध शुरू-शुरू में आलोचना की थी,
ठीक उसी प्रकार छठे दशक के युवा लेखकों के विरुद्ध आज आप कर रहे हैं?
पुराने लेखकों ने आप पर सेक्स को प्रमुखता देने तथा
सामाजिक चेतना के अभाव आदि के आरोप लगाये। क्या आप भी उसी तरह के
आरोप आज के युवा-लेखकों के विरुद्ध तो नहीं लगा रहे?
राकेश :
आप तो जानते हैं कि अपने बाद आनेवाले लोगों के विषय में बात करना
बहुत मुश्किल होता है,
क्योंकि हम जो कहेंगे वह अवश्य प्रकाशित होगा और
उसका यह अर्थ निकाला जाएगा कि जैसे हम उनकी आलोचना कर रहे हैं,
क्योंकि हम जो थे या जो हैं उससे वह कहीं भिन्न होने
का दावा करते हैं। लेकिन मेरी आज की उनकी आलोचना इस बात पर आधारित
नहीं है कि वह सेक्स पर लिख रहे हैं या नहीं लिख रहे हैं या उनमें
सामाजिक ज़िम्मेवारी का अभाव है, बल्कि उससे
अधिक इस तथ्य पर आधारित है कि समय के बदलते यथार्थ को जिसे कि हम सब
अनुभव भी कर रहे हें, आज की पीढ़ी उसे ठीक से
व्यक्त नहीं कर पा रही है। यह बात हमारी पीढ़ी में भी नहीं थी और न
ही हमारे पूर्ववर्ती लेखकों में। मेरे विचार में
‘नई कहानी आन्दोलन’
के लगभग दस वर्ष पश्चात् ही बहुत कुछ चीज़ें—उदाहरणतया
कहानी—एक जगह पर
आकर रुक-सी गयी हैं। लेकिन यह स्थिति केवल युवा लेखकों या पुरानी
पीढ़ी की ही नहीं है, बल्कि हमारी पीढ़ी की
भी यही स्थिति बन गयी है। मुझे लगता है कि जो गति कभी थी वह गुम हो
चुकी है क्योंकि ज़िन्दगी जिस र$फ्तार से बदली
है उसके लिए सम्भवत: एक दूसरे सामान्य माध्यम की ज़रूरत थी। मेरा यह
विचार बनता जा रहा है कि अब भी हमारी अभिव्यक्ति का माध्यम और ज़ोर
नाटक की तरफ़ बढ़ता जा रहा है। इसके साथ ही पिछले पाँच वर्षों में
बहुत अधिक कहानियाँ देखने को नहीं मिलीं। पाँचवें और छठे दशक के
लेखकों के बारे में बहुत कुछ लिखा और कहा गया है। मुझे इस युवा पीढ़ी
में कुछ का लेखन अवश्य ही पसन्द आया है विशेष रूप से दूधनाथ की कुछ
कहानियाँ, उदाहरण के लिए। कहने का अर्थ यह कि
कुछ कहानियाँ व्यक्तिगत रूप से बहुत ही अच्छी हैं। लेकिन मैं नहीं
समझता कि इस नई युवा पीढ़ी द्वारा भी कहानी की प्रमुखता को बनाये
रखना सम्भव हो पाया है। लगता है कि कहानी पर दिये जाने वाला ज़ोर तेज़ी
से कम होता जा रहा है, जिसका कारण सम्भवत:
मेरी पीढ़ी के लेखकों समेत किन्हीं-किन्हीं लेखकों की असफलता भी हो
सकती है, या फिर यह भी हो सकता है आज का मानस
आजकल की परिस्थितियों के प्रति बिल्कुल एक भिन्न तरीके से
प्रतिक्रिया कर रहा है और जो हम आज महसूस कर रहे हैं उसके लिए किसी
भिन्न साधन या माध्यम की तलाश में है। लेकिन यह सच नहीं है कि मेरी
पीढ़ी के लेखक इनकी आलोचना इसलिए करते हैं कि इनमें सेक्स को लेकर
कोई सम्मोहन है या कि यह सामाजिक सचेतता के प्रति जागरूक नहीं हैं।
मेरे विचार में इन आरोपों में कोई दम नहीं है,
क्योंकि आलोचना नितान्त इसके अन्य पक्षों को लेकर की
गयी है। मैं नहीं समझता कि किसी भी भाषा में सेक्स पर लिखने के लिए
कोई भी प्रतिबन्ध होना चाहिए या हो सकता है। जब भी कोई लेखक जीवन में
उत्पन्न हुई परिस्थितियों के विषय में लिखता है,
तो उसे अभिव्यक्ति में पूर्णतया स्वतन्त्रता का
प्रयोग करना चाहिए और यदि कोई कविता ऐसी हो कि जिसमें सेक्स या फिर
नंगापन हो, भले ही उसमें अश्लीलता की सीमा का
उल्लंघन भी हो, तब भी उस पर कोई प्रतिबन्ध
नहीं होना चाहिए। लेकिन उसके विपरीत, यदि कोई
लेखक जीवन के अन्य पहलुओं से कटा हुआ हो या फिर जीवन की परिस्थितियों
से अपने को दूर रख केवल जननेन्द्रियों पर ही ध्यान केन्द्रित करना
पसन्द करे, जैसा कि हमारे कई युवा लेखकों ने
किया भी है, केवल तभी उससे आब्सेशन का प्रश्न
उठता है।
जहाँ तक सामाजिक सचेतता का प्रश्न है,
मैं नहीं सोचता कि हमने कभी इसके अभाव का उन पर कोई
आरोप लगाया है। हालाँकि जब-जब इस मुद्दे पर आलोचना हुई है वह दूसरे
छोर से हुई है। यह लेखक—अर्थात्
अज्ञेय और उनके भक्त कुछ भी महत्त्वपूर्ण नहीं लिख रहे थे,
क्योंकि वह मुख्यतया रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से ही
सम्बन्धित रहे। इसी से फिर वही अर्थ निकलता है कि आजकल के लेखकों के
प्रति जो यह आलोचना की जाती है कि उनमें सामाजिक सचेतता नहीं है,
मेरे विचार में यह आरोप ठीक वैसा नहीं है जैसा कि हम
पर लगाया गया था। मैं व्यक्तिगत रूप से महसूस करता हूँ—और
सम्भव है कि यह इसलिए हो क्योंकि मेरा मन इसी तरह से प्रतिबद्ध है—कि
इनमें से कुछ युवा लेखकों में न सिर्फ़ सामाजिक सचेतता की कमी है,
वरन् उनके सामाजिक सम्पर्क भी कोई विशेष नहीं हैं।
मुझे जीवन के प्रति यह बहुत ही सीमित दृष्टिकोण लगता है कि लेखन
मात्र कॉफ़ीहाऊस जाना या फिर किसी स्त्री के साथ रात बिताने तक ही
सीमित हो, और सच मानिए कि स्त्री के साथ
बिस्तर पर सोने के बारे में भी कतिपय कहानियों में जो कुछ लिखा गया
है, वह काफ़ी झूठ-सा लगता है। मैं सच ही कोई
ऐसी पुस्तक पढऩा चाहूँगा जिसमें सम्भोग पर मौलिक और विश्वासपूर्ण
अनुभव हों, एक ऐसी कहानी जो सच ही इस प्रकार
के अनुभव का मुझे एहसास कराये। लेकिन यह इस प्रकार के लेखन में
बिल्कुल सम्भव नहीं लगता है। मुझे ऐसा भी महसूस होता है कि इस प्रकार
का लेखन हमारे यहाँ मौलिक, अथवा जीवनानुभव या
लेखक के निजी अनुभव से प्रेरित नहीं है बल्कि केवल बाहर के साहित्य
से प्रेरित और चोरी करके लिखा गया लगता है। मैं इसे कमलेश्वर की तरह
‘फैशनेबिल’
शब्द नहीं दूँगा। मैं इसे चोरी कहूँगा। ऐसा
लेखन जो कि अन्य लेखकों को पढऩे से उत्पन्न हो। मेरे विचार में
पाश्चात्य लेखकों का हमारे लेखकों पर कुप्रभाव भी पड़ा है,
जो कि इस तरह से सिर्फ़ इसीलिए लिखते हैं क्योंकि वह
समझते हैं कि यही एक तरीक़ा है। अभी दो साल पहले नाटक के सम्बन्ध में
एबसर्डिज़्म के बारे में चर्चा चली थी; कई
लेखकों ने इस तरह का लिखना भी शुरू कर दिया। तब आलोचकों ने
एब्सर्डिज़्म (असंगति) और आधुनिकता की परिभाषा भी देनी शुरू कर दी,
जिसने और अधिक नुक़सान पहुँचाया और फिर उस परिभाषित
आधुनिकता का अनुसरण किया गया, जिसका अन्त आज
नक़ली अथवा कृत्रिम लेखन पर जाकर हुआ।
लेकिन जैसा कि मैंने कहा है,
कुछ युवा लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं और उनकी कुछ
कहानियाँ विशेष रूप से अच्छी हैं। वे ‘नई
कहानी आन्दोलन’ के
लेखकों से कई तरीकों से भिन्न हैं। वे अपनी यथार्थता को बहुत दूर के
आयामों तक ले जाते हैं और मुझे विश्वास है कि कुछ अपने लेखन के लिए
नए मूल्य स्थापित कर सकेंगे।
कपोला :
‘‘आधुनिक
हिन्दी साहित्य में मध्यवर्गीय समस्याओं के अतिरिक्त कुछ नहीं पढऩे
को मिलता। सापेक्षतया यह वर्ग भारत में बहुत छोटा है,
अत: भारतीय जीवन के बहुत छोटे दायरे के बारे में
लिखा जा रहा है,’’
यह आपके साथी कमलेश्वर ने लिखा है। आप इस कथन पर कोई
टिप्पणी करना चाहेंगे?
राकेश :
हूँ,
पहली बात तो सच है। कई लेखक स्वयं मध्यवर्गीय परिवार
से हैं। मैं समझता हूँ कि मेरे जैसा व्यक्ति यदि दिल्ली के आसपास के
गाँव के बारे में या फिर पंजाब के जीवन पर ही कुछ लिखने की कोशिश करे
तो वह केवल अपना मज़ाक ही बनाएगा, क्योंकि वह
उसका व्यक्तिगत अनुभव नहीं होगा। आज के अधिकतम लेखक न केवल
मध्यवर्गीय परिवार से ही हैं बल्कि विशेष रूप से शहरी मध्यम वर्ग से।
जो देहाती मध्यम वर्ग से भी आये थे, वह भी
ज़्यादातर शहरी बन चुके हैं। लेकिन दूसरी तरफ़ मैं समझता हूँ कि इस
प्रकार की समाज-शास्त्रीय प्रक्रिया हर क्षेत्र में चल रही है। मैं
कोई समाजशास्त्र नहीं हूँ, इसलिए मैं नहीं
मानता कि मेरी इस अपनी व्याख्या में कोई वजन है या नहीं,
लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि इस देश के वासी भले ही
वह शहरी हों, कस्बे के हों या फिर देहात के
ही क्यों न हों, या कि निम्न,
मध्य या ऊँचे वर्ग के हों,
सभी पूर्णतया मध्यवर्गीय बनते जा रहे हैं। एक मध्यवर्गीय को मैं उसकी
उस मानसिकता या सचेतता से पहचानता हूँ जिसके कारण कि आजकल वह स्वयं
को ऊँचा दिखाने, दिखावटी प्रतिष्ठा के पीछे
दौडऩे और सभी प्रकार के भौतिक पदार्थों को प्राप्त करने के लिए
संघर्ष में जुटा रहता है, चाहे इन सुखों को
पाने के लिए किसी भी हद जाना पड़े। मेरे विचार में आम आदमी का चाहे
वह किसी भी वर्ग का क्यों न हो और लगभग सभी स्थानों पर,
आदर्श अब यही बन चुका है।
एक बात और जो मैं यहाँ कहना चाहूँगा और वह यह कि आज के
भारत के बहुत से व्यक्ति विभाजन के बाद केवल इसी मध्यवर्गीय तरी$के
से धनी हुए हैं। इसीलिए आज उनके धनी हो जाने के बाव$जूद
भी उनकी मानसिक प्रवृत्ति इसी प्रकार की, वही
मध्यवर्ग की है। इसलिए आज जितने भी धनी परिवार हमको नज़र आते हैं वह
अन्तत: मध्यवर्गीय मान्यताएँ लिये हुए हैं। मध्यवर्ग तो है ही
मध्यवर्ग; और जहाँ तक निम्न वर्ग का प्रश्न
है वह भी अपने चारों ओर के परिवेश के प्रभाव में आकर तथा अपनी
आकांक्षाओं के कारण काफ़ी हद तक मध्यवर्गीय ही कहे जा सकते हैं। और
इसीलिए देहातियों की सहजता और उच्चवर्ग की शिष्टता अब कहीं देखने को
नहीं मिलती। विभाजन से पहले हमारे यहाँ उच्चवर्ग ज़रूर था जो भले ही
तब खस्ताहाल हो चुका था, लेकिन फिर वह अपना
आभिजात्य लिये हुए था, जो आजकल ढूँढऩे पर भी
नहीं मिल सकता। इसलिए अगर हमारी पूरी आसपास की ज़िन्दगी इस मध्यवर्गीय
प्रवृत्ति को लिये हुए है तो मैं नहीं समझता कि हम इससे हटकर कुछ और
भी लिख सकते हैं। इसलिए इसका अर्थ यह भी हुआ कि इस प्रकार का लेखन
केवल एक ही वर्ग तक सीमित नहीं है, कहिए पूरे
देश की मनोवृत्ति को लेकर ही लिखा जा रहा है।
कपोला :
ठीक है,
तो फिर इसी सन्दर्भ में हम
‘आंचलिक हिन्दी साहित्य’
पर भी विचार कर सकते हैं। क्या आप समझते हैं
कि जिस प्रकार के मध्यवर्गीय समाज के बारे में आपने बात की है उसमें
आंचलिक लेखन सम्भव है?
राकेश :
जी हाँ,
रेणु को ध्यान में रखते हुए ऐसा सम्भव लगता है,
जिन्होंने ‘मैला
आँचल’ लिखा। यह उस
समय काफ़ी ताज़गी लेकर आया था। यद्यपि रेणु स्वयं
‘नई कहानी’
से सम्बद्ध थे,
क्योंकि उनका नाम उसी सूची में लिया जाता था। फिर भी वह अन्य शहरी
लेखकों से काफ़ी भिन्नता रखते थे—हममें
से बहुतों से। लेकिन ऐसा लगता है कि आंचलिक साहित्य को भी दो भागों
में विभक्त किया जा सकता है—एक
शहरी आंचलिक और दूसरा देहाती आंचलिक। रेणु जो दूसरे वर्ग के थे और
सबसे कम शहरी हो पाये थे, अपने बाद के
साहित्य में शहरीपन की छाप छोडऩी शुरू करने लगे थे,
जिससे मैं समझता हूँ कि उनके लेखन का अहित ही हुआ।
जबकि मार्कण्डेय शुरू से ही शहरी होते हुए भी देहाती जीवन और ग्रामीण
अनुभव पर लिखते रहे। इसलिए यह आवश्यक है कि जो व्यक्ति जिस जीवन से
उभरा है, उसके लिए उस पर लिखना बेहतर है।
इसके साथ ही मैं उम्मीद करता हूँ कि और अधिक आंचलिक लेखक आगे आएँगे।
कपोला :
तो क्या आप यह कहना चाहेंगे कि मध्यवर्ग पर लिखनेवाले लेखक स्वयं भी
मध्यवर्गीय ही हैं?
उच्च और निम्नवर्गीय दोनों समेत?
दूसरे शब्दों में, सम्पूर्ण
भारतीय संस्कृति बुनियादी तौर पर मध्यवर्गीय ही है,
और कि यह आंचलिक लेखन केवल आधुनिक हिन्दी साहित्य की
एक शाखा भर ही है, और कि वह लेखन में
वास्तविक रूप से देहाती-लेखन नहीं है?
राकेश :
मेरे ख़याल में आप भी पाएँगे कि नागार्जुन के उपन्यासों में
मध्यवर्गीय जीवन का चित्रण नहीं है। उनमें एक रूखापन और खुलापन है।
लेकिन यह सम्भवत: इसलिए है क्योंकि वह विभाजन से पहलेवाले काल से
अधिक सम्बद्ध रहे हैं। उनका मानसिक विकास विभाजन से पहले ही हो चुका
था जबकि लोगों की मध्यवर्गीय प्रवृत्ति अभी जमी नहीं थी। वह आज भी
अपने पात्र उस काल की स्मृतियों से ही चुनते हैं। इसीलिए मैं समझता
हूँ वह ही सही अर्थ में आंचलिक विचारों की अभिव्यक्ति का
प्रतिनिधित्व करते हैं। रेणु का लेखन अधिकतर उस मध्यवर्गीय प्रवृत्ति
को व्यक्त करता है,
जो आंचलिक प्रदेशों की देन है,
यद्यपि पात्र गँवार और देहाती ही हैं।
कपोला :
क्या हिन्दी साहित्य में आज साम्प्रदायिक जीवन की समस्याओं पर काफ़ी
कुछ लिखा गया है?
विभाजन के बाद तो ज़रूर लिखा गया था। ऐसा क्यों है कि
उर्दू और पंजाबी लेखकों के विपरीत हिन्दी लेखक इस विषय को लगभग
नज़रअन्दाज़ करते हैं?
राकेश :
आप तो जानते ही हैं कि विभाजन के समय में उर्दू में मंटो,
कृश्नचन्दर, बेदी और अन्य कई
लेखकों ने इस विषय पर काफ़ी कहानियाँ लिखी थीं। इसके बराबर हिन्दी में
लिखनेवाले जैनेन्द्र, अज्ञेय इत्यादि थे। हम
‘नई कहानी’
वाले बहुत बाद में आये। हम उस समय उभरे जबकि
देश एक मोह-भंग के काल से गुज़र रहा था, जबकि
आज़ादी के पश्चात् देश काफ़ी हद तक एक तरह से स्थिरता पा चुका था।
इसीलिए दस साल पहले यह साम्प्रदायिक समस्या,
जो कि अब उभर रही है, नहीं थी बल्कि दबती-सी
लगती थी।
आज हम राष्ट्रीय एकीकरण के लिए शोर मचा रहे हैं,
जबकि विभाजन के समय की तुलना में आज राष्ट्रीय
एकीकरण की भावना कम ही है। जिस समय हमने लिखना शुरू किया था उस समय
हमारा देश इस समस्या का सामना नहीं कर रहा था। इसलिए हममें विभाजन को
लेकर जो यादें और जो भी भावात्मक हलचलें हम लोगों के भीतर घर किये
हुए थीं—जैसे कि
मुझमें थीं—धीरे-धीरे
बाद में इस देश की उभरती यथार्थता की गर्द के नीचे दबती गयीं। हमारा
सम्बन्ध उस समय सबसे अधिक उस सबसे था जो कि हमारे इर्द-गिर्द हो रहा
था, न कि उससे जो विभाजन के इर्द-गिर्द हो
रहा था, क्योंकि जो हम लोगों के इर्द-गिर्द
हो रहा था वह विभाजन से कहीं अधिक विनाशकारी था। मेरा अपना विचार है
कि विभाजन के सम्भवत: कुछ लाख लोग ही शिकार हुए,
जबकि इस देश के विभाजन के बाद की परिस्थितियों के तो
करोड़ों लोग शिकार हुए और जिसने हममें से अधिकांश को तो कहीं
अन्दर-भीतर से ख़त्म करके भी रख दिया था। कभी-कभी राष्ट्रीय विपत्ति
प्लेग की भाँति लाखों ज़िन्दगियों को नष्ट कर देती है। हिन्दुस्तान का
विभाजन एक राजनीतिक विपत्ति थी, इसे केवल
विपत्ति ही नहीं कहना चाहिए। इसे एक ‘राजनीतिक
विपत्ति’ कहना
पड़ेगा। यह एक ऐसी विपत्ति थी जिसमें बहुत से लोग मरे,
बहुत से बलि के बकरे बन गये। लेकिन यह तो एक
परिस्थिति मात्र थी जबकि विभाजन के बाद जो कुछ हुआ वह एक साक्षात्कार
था। हमें किसी परिस्थिति का नहीं बल्कि एक प्रक्रिया से साक्षात्कार
करना था। और यह प्रक्रिया थी—जीवन
के सभी पहलुओं में बढ़ता पतन। देश को गर्त में ले जाने वाले इस पतन
से हमारे मूल्यो को ठेस नहीं पहुँची थी,
बल्कि हमें जीवन की डोर हाथों से फिसलती सी लग रही थी। रोज़मर्रा की
ज़िन्दगी कहीं अधिक पराजित सी लगती। इसलिए नहीं कि पुराने मूल्य खंडित
हो चुके थे, वरन् इसलिए कि कई विपरीत मूल्य
जन्म लेने लगे थे। मैं फिर दोहराना चाहूँगा कि
‘विपरीत मूल्य’
शब्द का प्रयोग मैंने उस तरह नहीं किया है कि
जिस तरह साहित्य में इसका प्रयोग किया जाता है। मेरा
‘विपरीत मूल्यों’
से तात्पर्य उन मूल्यों से है जिनको हम दस
वर्ष पूर्व ‘मूल्यों
की कमी’ के नाते
मानते आये हैं। यही मूल्यहीन धारणाएँ आज मूल्य बन गयी थीं। लेकिन फिर
भी ऐसा कोई समय नहीं आया जो ‘मूल्यहीन’
रहा हो। मेरे कहने का मतलब है कि हमारे मूल्य
कभी भी पूर्णतया खंडित नहीं हुए कि जिसमें हमें नितान्त नए मूल्यों
की ज़रूरत पड़ी हो। ऐसा नहीं हुआ। लेकिन यह
‘विपरीत मूल्य’
या ग़लत मूल्य उभरे अवश्य थे।
इसी सन्दर्भ में,
तब विभाजन के समय लोगों के दिन-दहाड़े क़त्ल,
स्त्रियों की छातियों को काट फेंकना आदि जो भी हुआ
जिससे भावनाओं को ठेस भी पहुँची, यह सब बातें
बहुत गौण और तुच्छ लगने लगी थीं और हम जिन-जिन परिस्थितियों से घिरे
हुए थे, वे कहीं अधिक विनाशकारी प्रतीत होती
थीं। इसीलिए उसके प्रति प्रतिक्रिया अधिक जोरों से हुई। लेकिन हमने
इन प्रतिक्रियाओं के साथ भावनाओं को नहीं जुडऩे दिया। परिणामस्वरूप
हम ऐसे मार्ग पर बढ़े जिस पर जीवन को भावनात्मक या व्यक्तिपरक दृष्टि
से न देखकर उसे यथार्थता की दृष्टि दे सकें। इस प्रतिक्रिया ने
यथार्थवादिता को जन्म दिया और इसीलिए आप ‘नई
कहानी आन्दोलन’
में एक हताशा और तड़प को महसूस करेंगे। ‘मिस
पाल’ एक ऐसी ही
मन:स्थिति की कहानी है जो कि पतन से उत्पन्न हुई है जिसकी चर्चा अभी
हमने की है। उसका दफ़्तर उसके लिए प्रतीक मात्र था। वह औरत हर समय
पलायन करना चाहती थी, लेकिन साथ ही साथ यह भी
जानती थी कि वह अपने से तथा अपनी आवश्यकताओं से नहीं भाग सकती। वह
अपने जीवन की सार्थकता को समझाने की कोशिश करती है लेकिन वह व्यर्थ
लगता है। उसका संघर्ष ईमानदार होकर जीनेवाला संघर्ष है,
जहाँ आप अपने पूर्ण स्वरूप के साथ जीना चाहते हैं,
लेकिन आपके आसपास की परिस्थितियाँ आपके इस प्रकार के
जीने मे आड़े आती हैं। अत: उसमें उस उदासी और हताशा का पुट आना
अनिवार्य था। लेकिन भावुक उदासी या भावुक हताशा है नहीं अर्थात् भाषा
भावुकता लिये हुए नहीं थी।
कपोला :
आधुनिक हिन्दी कहानी में विषय का क्या महत्त्व है?
जिन आधुनिक परिस्थितियों में आप अपने को पाते हैं,
क्या आप सम्भव समझते हैं कि उसमें विषय-रहित कहानी
लिखी जा सकती है?
राकेश :
मैं संक्षेप में उत्तर दूँगा। मैं नहीं समझता कि इसका भौगोलिक उत्तर
दिया जा सकता है कि विषय-रहित कहानी कौन-कौन-सी जगह या फिर किस-किस
देश में लिखी जा सकती है। मैं समझता हूँ कि यह लेखक की व्यक्तिगत
समर्थता पर निर्भर करता है। कहीं भी और किन्हीं भी परिस्थितियों में
वह लेखक जो इस विशेष प्रकार की प्रतिभा रखते हैं,
उसे लिखने में समर्थ होंगे। मुझे ई. बी. व्हाइट की
दो-एक ऐसी कहानियाँ याद हो आयी हैं। उन्होंने विषय-रहित कहानी लिखने
का प्रयत्न किया, लेकिन ऐसा लगता है कि
इन्हें लिखने के लिए उन्हें बहुत प्रयास करना पड़ा। इसके विपरीत
अच्छा होता यदि वह अपने आसपास की परिस्थितियों पर या फिर अपनी
प्रतिभा अथवा मानस से उत्पन्न कोई स्वाभाविक चीज़ लिखते,
लेकिन उन्हें उस पर अतिरिक्त मेहनत करनी पड़ी। मैं
यह विश्वास करता हूँ कि इस प्रकार की कहानियों के लिए किसी विशेष
स्थान या फिर किसी विशेष देश और काल की आवश्यकता नहीं है। साथ ही
उसके लिए किसी विशेष भाषा का एक विशेष बिन्दु तक आवश्यक प्रगति करना
भी अनिवार्य नहीं है। मैं समझता हूँ कि इसमें केवल व्यक्तिगत प्रतिभा
का ही प्रश्न है।
कपोला :
क्या आप समझते हैं कि एक लेखक के लिए एक विशेष प्रकार की विचारधारा
या फिर किसी प्रकार की सामाजिक प्रतिबद्धता की ज़रूरत है?
क्या आपकी कोई विशेष विचारधारा रही है?
क्या आप कभी प्रगतिवादी रहे हैं?
आप हिन्दी साहित्य में आये
‘नए प्रगतिवादी’
आन्दोलन के बारे में क्या सोचते हैं?
डॉ. नामवर सिंह जी का कहना है कि 1936 का प्रगतिवादी
आन्दोलन आज के प्रगतिवादी आन्दोलन से पूर्णतया अलग प्रकार का है।
कृपया इस पर अपने विचार रखें।
राकेश :
यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है,
इसलिए मैं विस्तार से इनका उत्तर दूँगा।
मेरे विचार में प्रत्येक लेखक की अपनी विचारधारा तथा
प्रतिबद्धता होती है। मैं इसमें नहीं जाऊँगा कि मेरे साथियों की इस
या उस प्रकार की विचारधारा रही है। मैं इतना कहूँगा कि हम एक प्रकार
के संघर्ष में लगे हुए हैं—वह
संघर्ष,
जैसा कि मैंने पहले भी कहा था,
एक व्यक्तिगत अनुभव से उत्पन्न होता है अर्थात् एक
ऐसा संघर्ष जो इस प्रकार की वास्तविकता से काफ़ी हद तक जुड़ा हुआ है।
लेकिन जब लोग प्रगतिवाद या फिर माकर््िस$ज्म
से प्रभावित विचारधारा पर बात करते हैं तो वह एक प्रकार की नारेबाज़ी
लगती है या फिर लेखक का एक प्रकार नीति को ओढऩा या फिर किसी विशेष
पार्टी के हुक्म पर चलने के बारे में चर्चा करते हैं। इस प्रकार
‘प्रगतिवादी’
लेखक के नाम पर बहुत कुछ बेकार का लिखा गया
है।
जैसा कि मैंने पहले भी कहा है,
हठधर्मी प्रगतिशील हमें अप्रगतिवादी या
प्रतिक्रियावादी कहते थे, क्योंकि हम उनकी
विचारधारा से सहमत नहीं हुए, जिसका अर्थ था
कि लेखन एक विशेष प्रकार की नारेबाजी और घोषणाओं से प्रेरित होना
चाहिए। दूसरी तरफ़, हम $गैर-प्रगतिवादी
लेखकों की आलोचना और अस्वीकृति का निशाना भी बने क्योंकि हम अपने समय
की निकटतम समस्याओं के प्रति तटस्थ नहीं रहे। अर्थात् हमको,
उनके विचार में, इन सब
परिस्थितियों से ऊपर रहकर लेखन में अमूर्त विचार ही प्रस्तुत करने
चाहिए थे। उनके विचार में अप्रगतिवादी विचारधारा का अर्थ यह था कि
लेखक को अपने आसपास की सामाजिक परिस्थितियों के प्रति तटस्थ रहना
चाहिए। इसलिए वह एक बहुत ही कठिन परिस्थिति थी जिसमें हम अपने
दृष्टिकोण को स्थापित करने के लिए जूझ रहे थे। हमारा दृष्टिकोण सिर्फ़
यह था कि हालाँकि हम उन हठधर्मी प्रगतिवादी विचारधारा को नहीं मानते
थे, फिर भी हम बुनियादी तौर से
‘प्रगतिशील’
थे। हममें से, बहुत
से, मेरे समेत, अपने
को प्रगतिशील मानते थे, क्योंकि हम
माक्र्सवादी विचारधारा के इन दार्शनिक पहलुओं से सहमत थे कि किसी भी
तरह दुनिया में उत्पन्न हुए वर्ग-भेद को दूर करके एक ऐसी व्यवस्था
स्थापित की जाए जिसमें यह वर्ग-भेद व्यक्तिगत विकास में समस्याएँ
उत्पन्न न करे और कि इस वर्ग-भेद का पूर्णतया उन्मूलन किया जा सके।
लेकिन,
फिर जैसा कि हमने देखा है,
पिछले कुछ वर्षों में कम्युनिस्ट देशों में जिस तरह परिस्थितियाँ
बदली हैं, यह स्पष्ट करता है कि किस तरह लोग
चीज़ों की, कितनी अलग-अलग परिभाषाएँ देने लगते
हैं। अब केवल चीन या रूस ही दो विपरीत छोरों पर नहीं हैं,
यद्यपि दोनों ही माकर््िस$ज्म
में विश्वास करते हैं, बल्कि अब तो
युगोस्लाविया जैसे भी देश हैं जो कि इसी विचारधारा के सम्बन्ध में अब
अपनी एवं अन्य की परिभाषा देने की कोशिश कर रहे हैं।
हमने सोचा था कि एक लेखक को प्रतिबद्ध तो होना चाहिए,
लेकिन किसी विशेष परिभाषित विचारधारा से नहीं। जैसा
कि आपने कहा है कि प्रत्येक लेखक किसी विचारधारा से सम्बद्ध होता है,
वह जिस किसी या इस या उस विचारधारा के विरुद्ध ही
क्यों न हो, वह भी किसी विचारधारा की विरोधी
विचारधारा से सम्बद्ध हो जाता है। हमारी विशेष विचारधारा माक्र्सवादी
ही थी। हम उसी से जुड़े रहे, लेकिन हम किसी
पार्टी-विशेष के प्रति जवाबदेह नहीं थे। एक तरह से यह उस प्रकार की
विचारधारा थी जो कि विशेष ब्रांड की राजनीति में तो विश्वास रखती थी
लेकिन राजनीतिज्ञों द्वारा संचालित राजनीति की अवज्ञा करती थी। हमने
विचारधारा को तो स्वीकृत किया लेकिन उसके पक्षधरों को अस्वीकृत,
क्योंकि हम उन लोगों से बिल्कुल भी सहमत नहीं थे जो
उस समय कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक पक्ष को चला रहे थे। उनके
सोचने का तरीका हमसे इतना भिन्न था कि हम अपने को उसका एक हिस्सा
कैसे बना पाते? फिर भी,
नई कहानी आन्दोलन के काफ़ी लेखक वामपंथी विचारधारा
के थे। दूसरी तरफ़ मेरा कहना यह नहीं है कि लेखक की प्रतिबद्धता
पूर्णतया किसी विचारधारा से होनी ही चाहिए,
कम-से-कम हमारे आन्दोलन में तो अवश्य ही,
क्योंकि लेखक की प्रतिबद्धता अपने समय की उभरती हुई यथार्थता से भी
होती है। इसीलिए ही लेखक को हर समय जीवन के बदलते स्वरूप के साथ अपनी
विचारधारा को भी बदलना पड़ता है। आनेवाले कल की दुनिया में माकर््िस$ज्म
तभी एक शक्ति बन सकता है जबकि उसमें ज़बरदस्त संशोधन किया जाए,
जिससे कि वह कल उत्पन्न होनेवाली सबकी ज़रूरतों को
पूरा कर सके। मेरा मतलब है कि अपनी पुस्तक लिखते समय स्वयं माक्र्स
ने चीन और रूस के बारे में इस प्रकार दो अलग-अलग छोरों पर होने के
बारे में सोचा भी नहीं होगा। यहाँ तक कि लेनिन ने भी माक्र्सवादी
विचारों को थोड़ा और विकसित करना आवश्यक समझा। और,
आज भी उसी दार्शनिक सतह से हमें और आगे सोचने की
आवश्यकता है और कल फिर होगी।
एक लेखक की प्रतिबद्धता के विषय में मेरे कहने का मतलब यही
है। एक लेखक की प्रतिबद्धता किसी विशेष विचारधारा से नहीं होती,
बल्कि वह अपने समय की उभरती हुई यथार्थता से जुड़ा
होता है—ठीक
माक्र्स की ही तरह। माक्र्स ने इसीलिए लिखा था क्योंकि वह अपने समय
की यथार्थता से प्रतिबद्ध थे और उन्होंने इतिहास की इस तरह व्याख्या
की जिसके द्वारा आनेवाले समय के लिए भविष्यवाणी भी की जा सके,
किन्तु सब भविष्यवाणियाँ सही नहीं निकलीं। जिस तरह
मैं समझता हूँ कि लेखकों को अपने समय के उभरते यथार्थ के साथ
प्रतिबद्ध होना चाहिए, ठीक उसी तरह उसे समय
के बदलते स्वरूप के साथ अपने लेखन और अपनी विचारधारा में भी तबदीली
लानी होगी। मैं समझता हूँ कि यदि एक लेखक में यह प्रक्रिया समाप्त हो
जाती है तो फिर वह एक लेखक के रूप में भी समाप्त हो जाता है,
क्योंकि फिर वह किसी न किसी के हाथ का शस्त्र-भर
बनकर रह जाता है फिर चाहे वह हठधर्मी प्रगतिवादियों का हो या फिर
हठधर्मी प्रतिक्रियावादियों का। प्रतिक्रियावादी भी उस समय में बहुत
जोरों में थे और हम जैसे सीधे-साधे मसीहों को काफ़ी लालच भी देते रहते
थे।
कपोला :
क्या आप समझते हैं कि भारतीय लेखकों के मन पर कोई असाहित्यिक अथवा
बाहरी प्रभाव पड़ रहा है?
आप क्या समझते हैं कि इस प्रभाव से छुटकारा कैसे
पाया जा सकेगा?
राकेश :
जी हाँ,
है। लेकिन मैं कहूँगा कि सभी लेखक इस असर में नहीं
आये हैं। इससे मुझे विशिष्ट लेखकों को अलग करना पड़ेगा क्योंकि जो
इनके आगे झुक गये हैं, वे विशिष्ट लेखक रह ही
नहीं जाते भले ही वह पहले विशिष्ट रहे हों। लेकिन इस प्रकार के
प्रभाव यहाँ कार्य अवश्य करते रहे हैं। मेरे विचार से ऐसा लगता है कि
हमारा देश अमेरिका तथा रूसी विचारधारा के बीच काफ़ी अरसे से शतरंज का
बोर्ड बना रहा है। मेरा मतलब है कि यह खेल वास्तव में नई दिल्ली के
प्रांगण में खेला जा रहा था और यहाँ के कई बुद्धिजीवियों को इस खेल
में गोटी बनाया जा रहा था।
इस तरह के बहुत से बुद्धिजीवी हैं—न
केवल लेखकों में ही वरन् इसी प्रकार के अन्य क्षेत्रों,
जैसे कि समाज-शास्त्र आदि के क्षेत्र में भी—जो
कि न सिर्फ़ गोटी ही बनाये गये बल्कि एक-दूसरे के प्रति भिड़ाये भी
गये, जिससे कि दोनों पक्ष ही उनके शिकंजों
में फँस गये। फलस्वरूप विशेषकर तृतीय श्रेणी के लेखकों के लिए यह
बहुत ही लाभदायक समय सिद्ध हुआ। जहाँ लेखक प्रतिबद्ध है—अपने-आपसे,
समय की उभरती हुई यथार्थता से,
जैसे अपने समाज के प्रति,
अपने देश-काल के प्रति—उसे
अपने प्रत्येक क्रिया-कलाप के प्रति हर समय बहुत ही सावधान और सचेत
रहना होता है। लेकिन एक लेखक जब अपने काम के प्रति संवेदनशील नहीं
होता और वह अपनी प्रतिबद्धता और सचेतता को भूल जाना अपनी एक सुविधा
समझता है, तब उसके लिए कोई समस्या नहीं रहती।
और हमारे पास तो इस प्रकार के द्वितीय तथा तृतीय श्रेणी के लेखकों की
भरमार भी थी। इनमें से कई लेखकों ने अमरीकनों तथा रूसियों के प्रति
एक ऐसा रवैया अपना लिया था जिससे कि वह एक वर्ष अमेरिका की यात्रा कर
आते थे और दूसरे वर्ष रूस की। इस तरह वह अनुभवों से लदे लौटते थे।
सबसे मज़ेदार बात यह थी कि वह जिस देश से भी लौटते उसके विषय में केवल
बढिय़ा बातें ही गिनाते और यह भी तभी तक क़ायम रहतीं जब तक कि दूसरे
देश से निमन्त्रण न आता और सिलसिला इसी तरह चलता रहता। मेरे विचार
में यह एक प्रकार की सांस्कृतिक तथा साहित्यिक तिकड़म-भर ही थी।
लेकिन दोनों तरफ़ से इस प्रबन्ध में अव्यवस्था ही रही। इस देश की
विभिन्न भाषाओं के अध्ययनों के नाम पर या फिर यहाँ की सामाजिक तथा
आर्थिक समस्याओं के अध्ययन के नाम पर बहुत हानि पहुँचायी गयी। बहुत
लोगों ने इस परिस्थिति से फायदा उठाकर एक-दूसरे को और फिर दोनों को
धोखा देने की कोशिश की। बहुत से लेखक अपनी चुस्त बातचीतों से ही काम
निकाल ले गये।
मेरे विचार में इस प्रकार के बाहरी प्रभाव आजकल की तुलना
में दस वर्ष पहले अधिक क्रियाशील थे। इस प्रकार की कई योजनाओं का
पर्दाफाश किया गया है,
हालाँकि समय-समय पर अब भी इस प्रकार के लोग पाये
जाएँगे, जो कि इसी प्रकार का संगीत फिर
अलापने लगेंगे और हमेशा की तरह इस धुन पर नाचने वाले लोग भी मिलते
रहेंगे।
यद्यपि इस प्रकार के छोटे-छोटे विस्फोट यहाँ वहाँ होते
रहते हैं और मैं यह भी मानता हूँ कि इस प्रकार का दौर अब समाप्त
प्राय हो चुका है,
फिर भी मेरे ध्यान में एक और महत्त्वपूर्ण बात आती
है। इस प्रकार के विदेशी कुप्रभाव से क्यों हमारे बुद्धिजीवियों के
मन में लालच आया? स्पष्ट बात तो यह है कि
इसके लिए हमारे बुद्धिजीवियों और लेखकों की आर्थिक स्थिति ही
ज़िम्मेदार रही है। आर्थिक अभाव ही इसकी जड़ में थे। यदि एक
बुद्धिजीवी या लेखक की हिदुस्तान में आर्थिक स्थिति अच्छी होती और वह
आत्म-निर्भर हो सकता और यदि उसका काम उसे काफी आर्थिक लाभ दे सकता,
तो मेरे विचार से निश्चित ही बहुत से इस काम में
सहयोग देने को तैयार न होते और स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर उनमें
ऐसे प्रस्तावों को ठुकरा देने का साहस पैदा कर सकते थे। बहुत से लेखक
जो ऐसा कर भी सकते थे, वास्तव में कर नहीं
सके।
मुझे अपने भारतीय बुद्धिजीवी,
विशेषकर भारतीय लेखक के इसी विशेष रूप के प्रति
शिकायत है। और विशेषकर लेखक के प्रति। एक भारतीय लेखक होने के नाते
यहाँ एक लेखक बने रहने की परिस्थितियों को जानते हुए भी और यह भी कि
व्यक्ति को एक इज़्ज़तदार जीवन बिताने—बहरहाल
‘इज़्ज़तदार’
भी छोडि़ए—के
लिए जो परिस्थितियाँ वांछित हैं, उन्हें भी
जानते हुए मैं कह सकता हूँ कि यहाँ पर लेखकों में इतनी जागरूकता ही
नहीं है कि इस बारे में अपने को व्यक्त कर सकें। वह गोष्ठियों में
साहित्य के मूल्यों पर ज़ोरदार भाषण तो दे सकते हैं और मेरा विचार है
कि यह हमारी भारतीय विरासत का भाग है—मैं
निश्चित रूप से नहीं कह सकता—लेकिन
जब उनके पारिश्रमिक के अधिकार या फिर पत्रिकाओं से आमदनी,
दूसरे शब्दों में जब उसके व्यावसायिक पहलुओं पर
चर्चा आती है तो उन्हें साँप सूँघ जाता है। हमारे यहाँ भारत में कोई
विकसित साहित्यिक माध्यम भी नहीं है। प्रत्येक लेखक को अपने हितों को
स्वयं ही देखना पड़ता है। जब ऐसे विषयों पर चर्चा का समय आता है तो
भारतीय लेखक पीछे हट जाते हैं, सम्भवत: यह
समझकर कि इस विषय पर चर्चा करना उनकी इज़्ज़त के ख़िलाफ़ है। यह महज़ एक
बहाना है। मेरे ख़याल में उनमें यह एक हीन भावना है क्योंकि उन्हें
लगता है कि वह अपने लेखन के बल पर अपने अधिकार नहीं माँग सकते हैं।
वह किसी भी शर्त पर अपने लेखन को बेचना चाहते हैं। वह पुरानी दरों या
शर्तों को ही स्वीकार कर लेते हैं। यदि सच ही उन्हें पैसे के सम्बन्ध
में या फिर अपने लेखन द्वारा आमदनी को लेकर इतनी ही विरक्ति हो तो
फिर वह दूसरों से ऐसे उपकारों की आशा न करें,
जिनसे कि उनके सम्मान को, सचेतता को और ऐसे
ही अन्य प्रकार के पहलुओं को इस तरह ठेस पहुँचे। यह न तो पैसे के
प्रति घृणा ही है और न ही पारिश्रमिक के प्रति वितृष्णा। यह किसी
प्रकार की उनके भीतर की हीन भावना है। मैं किसी भी प्रकाशक,
या पत्र-पत्रिकाओं को कसूरवार नहीं ठहराता,
यद्यपि वह जो आज कर रहे हैं उससे कहीं बेहतर कर सकते
हैं। बहुत से और लेखक अपने लेखन पर जीवित रह सकते हैं। यदि प्रकाशक
वो सब करें, जितना कि वह लेखकों के लिए कर
सकते हैं या कि जो कुछ उन्हें लेखकों के लिए करना चाहिए। लेकिन दूसरी
तरफ़, काफ़ी दोष हम लोगों का है। हम अपने
अधिकारों के लिए लड़े नहीं, हम कहीं पर भी
झगड़े ही नहीं और यही वह बिन्दु है, जहाँ पर
मैं अपने साथी लेखकों पर झुँझलाता हूँ। वह शर्तें नहीं मनवाते—अपनी
शर्तें। और जब भी कोई ऐसा करता है, तो वह
बदनाम हो जाता है—मेरी
तरह। वह कहते फिरते हैं कि फलाँ-फलाँ लेखक व्यावसायिक होता जा रहा
है।
जब भी मैं अपने पूरे सीने का ज़ोर लगाकर इन अधिकारों के लिए
लड़ता हूँ तो केवल अपने अकेले के लिए ही नहीं। मैंने यह लड़ाई सिर्फ़
इसलिए तो शुरू नहीं की है कि इसका लाभ सिर्फ़ अकेले मुझको ही मिले।
मैं चाहता रहा हूँ कि इसके लिए कुछ कोई निम्नतम दर तो होनी ही चाहिए,
और जब ऐसा हो जाएगा तो वह प्रत्येक के लिए होगा।
मैं सम्भवत: इस विषय में थोड़ा-बहुत कर सका हूँ। कुछ जगह
परिवर्तन आया है। उदाहरण के लिए 10 वर्ष पूर्व एक कहानी के लिए 25
रुपये दिये जाते थे,
और 40 से ऊपर कभी नहीं। आज उसके लिए 250 दिया जाता
है। यह सब अपने आप ही नहीं हो गया। यह इसलिए है कि कुछ लोगों नेे
किन्हीं के साथ महज अपनी-अपनी शर्तें रख दी थीं।
कपोला :
मुझे पता चला है कि पंजाबी और उर्दू प्रकाशक इस विषय में और भी बदतर
हैं। लेकिन पंजाबी और उर्दू लेखक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि हिन्दी
में लिखना तो टकसाल लग जाने जैसा है—एक
संस्करण में ही तीस हज़ार कॉपी। क्या और कुछ—जैसे
पढ़ाना,
छुट-पुट काम आदि—किये
बिना गुज़ारा हो जाता है?
राकेश :
मुझे कहना पड़ेगा कि कई बार धैर्य छूट जाता है। वह लोग जो यह कहते
हैं कि हिन्दी-लेखन एक टकसाल है,
वह यह नहीं जानते हैं कि वे क्या बात कह रहे हैं। सच
यह है कि तीस-पचास हज़ार के संस्करण निकलते हैं लेकिन यह केवल पॉकिट
बुक्स पर ही लागू होती है, पक्की जिल्द वाली
पुस्तकों पर नहीं। और पॉकिट बुक्स पर रायल्टी की दर अपेक्षाकृत कम
होती है। अगर यह पूरे संस्करण बिक भी जाएँ तो कोई विशेष पारिश्रमिक
नहीं मिलता। उदाहरण के लिए, एक पुस्तक केवल 2
रुपये में बिकती है, और यदि 30,000 कॉपियों
का संस्करण बिक भी जाए तो केवल 3,000 रुपये लेखक को जाते हैं।
मेरे लिए तो यह एक बहुत ही कठिन चुनाव रहा है। मैंने पिछले
दस वर्षों में कई नौकरियाँ की हैं। 1957 में मैंने पढ़ाना छोड़ दिया
था। मैंने दस वर्ष तक प्रत्येक स्तर पर हिन्दी में अध्यापन-कार्य
किया,
छोटे बच्चों से लेकर पंजाब यूनिवर्सिटी में एम.ए. के
छात्रों तक। एक वर्ष तक ‘टाइम्स
ऑफ़ इंडिया’ की
हिन्दी साहित्यिक पत्रिका ‘सारिका’
का सम्पादन भी किया। इस काम को करते समय जहाँ
मैं आर्थिक दृष्टि से अच्छी स्थिति में महसूस करता था,
वहाँ लेखक होने के नाते बिल्कुल विपरीत महसूस करता
था। और इस दोहरी ज़िन्दगी से मैं तंग आ गया था। दफ़्तर में बैठकर
सम्पादन के काम में मन नहीं लगता था, क्योंकि
उस समय मन किसी न किसी नावेल या फिर नाटक के विषय में ही सोचता रहता
था। उस समय मैं वह लेखक नहीं था जो मैं होना चाहता था। हर रोज़ सुबह
जब मैं अपनी मेज़ पर बैठकर अपने नाटक की चन्द सतरें लिखना चाहता था तो
उस समय मुझे तैयार होकर दफ़्तर जाना पड़ता था। इसलिए मैंने निश्चय
किया कि मैं इस जीवन से बाहर निकल जाऊँ। मैंने उसमें से निकलने के
बाद के परिणामों के बारे में पूरा सचेत होकर ही ऐसा किया था,
उन कष्टों को फिर मैंने बाद में भोगा भी और आज तक
भोगता आ रहा हूँ। एक लेखक का जीवन बहुत ही कठिन जीवन है। हिन्दी में
भी दो-तीन हज़ार का संस्करण कहीं तीन-चार वर्षों में बिकता है और वह
भी जब वह लेखक बहुत लोकप्रिय हो। आप एक वर्ष में छ: पुस्तकें नहीं
लिख सकते। कम से कम मेरी गति का तो जवाब ही नहीं है। मेरा पहला नाटक
’58 में निकला,
दूसरा ’63
में और तीसरा कहीं अब जाकर प्रकाशित और मंचित किया जाएगा। ठीक ऐसे ही
एक उपन्यास 1961 में और दूसरा अभी-अभी प्रकाशित हुआ है। कभी-कभी तो
मुझे इससे गुज़र करना असम्भव-सा लगता है।
मैं यह नहीं कहूँगा कि मैंने कभी छुट-पुट काम नहीं किया
है। मैंने ज़रूर कभी दो-एक पुस्तकों का अनुवाद किया,
तब जबकि मुझे पैसे की बहुत ही दिक्कत महसूस हुई थी।
अन्तिम अनुवाद हेनरी जेम्स के ‘दि
पोट्र्रेट ऑफ़ ए लेडी’
का किया था। बाप रे, क्या
जानलेवा काम था! आपको पता है कि मुझे तब तक नहीं मालूम था कि मैंने
क्या काम हाथ में ले लिया है जब तक कि मैंने उसके सौ पृष्ठों का
अनुवाद नहीं कर लिया। मेरा अभिप्राय यह नहीं कि मुझे हेनरी जेम्स
पसन्द नहीं, लेकिन उनके लेखन का अनुवाद करना
एक नितान्त दूसरी ही बात है अर्थात् उस काम को हाथ में लेना एक बहुत
बड़े संकट को झेल लेना था।
कपोला :
किस प्रकार के प्रभावों के अन्तर्गत आजकल का हिन्दी लेखक लिख रहा है?
क्या आप बताएँगे कि किस लेखक द्वारा आप अधिक
प्रभावित हुए हैं?
राकेश :
यह काफ़ी रूढिग़त-सा प्रश्न है और इसलिए मैं इसका रूढिग़त उत्तर न देकर—जैसे
कि यह कहकर कि फलाँ-फलाँ लेखक ने हिन्दी साहित्य को या मुझे प्रभावित
किया है या कर रहे हैं—मैं
थोड़ा इससे अलग हटकर उत्तर देना चाहूँगा।
मैं समझता हूँ कि इस पीढ़ी में अधिकतर लेखक पढऩे का काफ़ी
शौक़ रखते हैं। उन्होंने पाश्चात्य साहित्य काफ़ी कुछ पढ़ा है विशेषकर
नावेल,
कहानी और नाटक आदि। इसमें से कुछ लेखक देशी तथा
विदेशी दोनों के प्राचीन साहित्य के बारे में भी काफ़ी अन्तरंग ज्ञान
रखते हैं। इसलिए आधुनिक लेखकों के पास सही प्रकार की प्रतिबद्ध
मन:स्थिति है जो कि किसी भी भाषा में अच्छे लेखन के लिए आवश्यक होती
है। आप चाहें तो इसे समृद्ध या फिर प्रतिबद्ध मन:स्थिति कह सकते हैं।
प्रत्येक प्रकार के प्रभाव ने उसे समृद्ध तथा प्रतिबद्ध किया है।
लेकिन मैं समझता हूँ कि लेखक आज जिस बिन्दु पर खड़ा है वहाँ से वह उन
सब चीज़ों का बहिष्कार कर रहा है जिन्होंने उसे प्रतिबद्ध तथा समृद्ध
होने में सहायता दी है—कम-से-कम
मैं अपने बारे में तो यह कह ही सकता हूँ। उन्हें इन सबसे उभरना
चाहिए। यदि वह वही सब कुछ लिखे, जो आसपास
लिखा जा रहा है तो वह द्वितीय श्रेणी का लेखन लगेगा और द्वितीय
श्रेणी के होने का एहसास कराएगा। इसलिए यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न भाषा
का है।
जो भाषा हमें विरासत में मिली वह खानों में विभक्त भाषा थी,
या फिर बग़ैर किसी अतिरिक्त ध्वनि के एक प्रेमचन्द की
प्रगतिशील भाषा थी, फिर जयशंकर और अज्ञेय की
सुघड़ तथा आभिजात्य भाषा आयी। लेकिन भाषा को इतना विकसित करने की
आवश्यकता थी कि वह हमारी भावनाओं को सूक्ष्मता से व्यक्त कर सके
लेकिन किसी प्रकार की अमूर्तता को लाये बिना,
जिससे वह अपना माँसल स्वरूप क़ायम रख सके,
जिससे कि वह उस मानव साक्षात्कार को बनाये रख सके अर्थात् उस मौलिकता
को जिसकी कि हमारे साहित्य में बहुत अधिक आवश्यकता थी। मेरे विचार
में ‘नई कहानी
आन्दोलन’ और उसके
बाद के समय की बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसमें एक संवेदनशील और सहज भाषा
का जन्म हुआ। इसमें अवश्य मेरे समकालीन लेखकों ने तथा उन्होंने जो कि
बाद में आये, इस भाषा के विकास में सहयोग
दिया।
आधुनिक हिन्दी भाषा,
उर्दू की तरह अलंकृत नहीं है। इस भाषा में हमने
संस्कृत, फारसी और अँग्रेज़ी की मूल भाषा से
बहुत कुछ अपनी भाषा में ग्रहण किया है। उदाहरण के लिए
‘कनडेम’
एक हिन्दी शब्द है जबकि
‘कनडेम्ड’
एक हिन्दी शब्द नहीं है। दरअसल यह भाषा एक
संवेदनशील स्तर पर विकसित हुई है और मैं सोचता हूँ कि लेखक यह महसूस
करते हैं कि यह उनकी अपनी ही भाषा है। परिणामस्वरूप इस भाषा पर अब
उन्हें इतना अधिकार और भरोसा हो गया है कि वह अब अपने तरी$के
से उसे लिख सकते हैं, अपनी शैली चुन सकते हैं
और लेखन का एक निजी ढंग अपना सकते हैं। कुछ समय पहले तक हिन्दी-लेखन
बहुत हद तक बंगाली-लेखन से प्रभावित रहा है। यह उस समय की बात है जब
भाषा का एकपक्षीय विकास हुआ था, जैसा
छायावादी लेखन से प्रकट है। इस भाषा में संवेदनशीलता और आभिजत्य था
किन्तु अन्तरंगता तथा सहजता का अभाव था। फिर धीरे-धीरे बंगाली इस
अन्तरंगता और सहजता के करीब आते गये, क्योंकि
तब तक टैगोर ने लिखना शुरू कर दिया था और तत्पश्चात् हमें उनसे
प्रभावित हुए। मुझे मानना पड़ेगा कि शरत्चन्द्र अधिक सहज और विस्तृत
विषय-वस्तु लिये हुए थे, लेकिन शरत् की तुलना
में टैगोर से अधिक प्रभावित हुए थे, क्योंकि
कथा-साहित्य के स्थान पर उस समय कविता का अधिक प्रचलन था।
मेरे ख़याल में यदि कोई लेखक इन प्रत्यक्ष प्रभावों को
गिनने में लगे,
तो वह अपने को द्वितीय श्रेणी में महसूस करेगा। मेरे
कहने का मतलब है कि जैसे-जैसे यह प्रक्रिया चलती रहे,
हमें तर्क-वितर्क की प्रक्रिया भी चलाते रहनी चाहिए।
पाँच वर्ष पहले मुझे ‘वेटिंग
फॉर गोडो’ जैसा
नाटक पसन्द आया था। वह मुझे कहीं अलग बढिय़ा और गतिशील लगा था। लेकिन
आज उसे पढऩे पर लगता है जैसे कोई फ़ार्मूला-नाटक पढ़ रहा हूँ,
अर्थात् मैंने बैकट का गुर जान लिया था कि वह कैसे
नाटक सोचता है और फिर कैसे नाटक को विकसित करता है। पाँच वर्ष पहले
लगता था कि इसमें कुछ ग्रहण करने के लिए है,
लेकिन अब उस नाटक के प्रति परित्याग की भावना उत्पन्न होती है या फिर
जिससे कुछ ग्रहण नहीं किया जा सकता।
यहाँ मैं कुछ ऐसी बातों पर चर्चा कर रहा था जो कि सम्भवत:
हमारे इस विषय से सम्बन्ध नहीं रखतीं,
लेकिन इसका उस बात से सम्बन्ध अवश्य है जो मैंने
‘गोडो’
के बारे में उठायी थी। यथार्थता मेरे विचार
में बेढंगापन है। यह इतना बेढंगा होता है कि इसे अपने लेखन में
उत्पन्न करने के लिए हमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता। यदि हम
यथार्थता को सही ढंग से पकड़ पाएँ, जैसे अगर
हम लोगों का सही चित्रण कर पाएँ, ठीक वैसा
जैसे कि वह है तो वह ही वस्तुत: काफ़ी बेढंगापन प्रस्तुत कर सकेगा।
एक तरह से हम फिर अपने उसी मूल प्रश्न पर लौट आते हैं और
मैं यह कहना चाहूँगा कि सामूहिक रूप से इन प्रभावों ने मेरे दिमाग़ को
विकसित ज़रूर किया,
लेकिन उसके बाद फिर और नए प्रभाव आये। मैं
अपने-आपको ऐसे प्रभावों से दूर नहीं रखता हूँ,
उन्हें ग्रहण करता हूँ और फिर उन्हें विकसित होने
देता हूँ और उसके बाद उन्हें अस्वीकृत भी कर देता हूँ।
कपोला :
आप हिन्दी के पक्ष में हुए आन्दोलन और दक्षिण में हो रहे
हिन्दी-विरोधी आन्दोलन,
राष्ट्रभाषा के प्रश्न और उससे सम्बन्धित राजनीतिक,
सामाजिक और धार्मिक प्रश्नों के बारे में क्या सोचते
हैं जिनका भाषा-सम्बन्धित प्रश्न के साथ गहरा सम्बन्ध है?
और उर्दू के सम्बन्ध में क्या विचार है?
राकेश :
यह एक और प्रश्न है जिस पर मेरा एक दृढ़ मत है। मेरे विचार में भाषा
का प्रश्न,
जो कि आजकल राष्ट्रीय स्तर पर उठाया जा रहा है,
एकदम ग़लत ढंग से पेश किया गया है। सच ही भाषा के
प्रश्न को इस स्तर पर लाकर हम इसका हित नहीं बल्कि अहित कर रहे हैं।
मैं यहाँ हिन्दी के जुझारू समर्थकों के बारे में बात कर रहा हूँ
जिनमें से अधिकांश हिन्दी की चर्चा करते हैं और हिन्दी के प्रति
कठमुल्लेपन का दृष्टिकोण रखते हैं, लेकिन वह
भाषाविद् नहीं हैं अर्थात् वह हिन्दी को भाषा के स्तर पर नहीं लेते।
जैसा कि अभी मैं भाषा को खोज निकालने से सम्बन्धित संघर्ष की बात बता
रहा था—भाषा को
पैदा करने की नहीं बल्कि भाषा को खोज निकालने की—उसे
हमने एक स्वरूप इसलिए दिया क्योंकि हम जानते थे कि हिन्दी जो कि एक
बोलचाल की भाषा है, वह भाषा जिसमें कि
‘सत्यार्थ प्रकाश’
लिखा गया था, अभी भी
अंशत: विकसित भाषा थी। इसे अभी और भी विकसित होना था। अब यदि हम
हिन्दी को अँग्रेज़ी के साथ या उर्दू के साथ लाकर खड़ा करें तो हम सच
ही विषय को उलझा रहे हैं।
भाषा हमारी जानकारी के बिना भी स्वत: विकसित हुई है। यह
भाषा सिर्फ़ अनपढ़ों की ज़बान पर ही नहीं चढ़ी,
हालाँकि उसे कुछ लोग असली बोलचाल की भाषा कहते हैं।
फिर भी मैं कहता हूँ कि मेरी भाषा ही असली बोलचाल की भाषा है। हममें
से अधिकांश लेखक प्राय: अँग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग करते हैं,
जिनको बड़ी आसानी से छोड़ा जा सकता है। लेकिन मैं
समझता हूँ कि यह केवल आदत की बात है, ठीक उसी
तरह जिस तरह रूसी लेखक जर्मन और फ्रांसीसी शब्दों का प्रयोग किया
करते थे। सच तो यह है कि अब हम उस मुक़ाम पर पहुँच गये हैं जहाँ हम इस
बात का दावा कर सकते हैं कि अब हमारे पास भी आदान-प्रदान—एक
समझदार आदान-प्रदान करने की एक भाषा है। यह भाषा वह हिन्दी नहीं है
जिसके बारे में लोग चर्चा कर रहे थे, न ही यह
उर्दू है और न ही यह वह हिंदुस्तानी भाषा है जिसके बारे में महात्मा
गाँधी बात करते थे, जैसे
‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’
या फिर ‘चलो,
एक साथ चलें’
वाली प्रवृत्ति। जब मैं हिन्दी के विषय में बात करता
हूँ तो मेरा आशय उस भाषा से है जो विकसित है,
जो एक संवेदनशील और साहित्यिक अभिव्यक्ति की भाषा है और जो साथ ही
इतनी अन्तरंग भी है कि प्रत्येक वर्ग में बोली जा सकती है और साथ ही
समझदार आदान-प्रदान के लायक भी है।
हिन्दी भाषा के समर्थक जब हिन्दी की संरक्षता के विषय में
बात करते हैं तो उनका आशय उर्दू के बहिष्कार से है। और,
इसी से मुझे नफ़रत है। मैं एक अर्थ में हिन्दी का
जुझारू समर्थक हूँ। लेकिन आपको मालूम है कि मुझे उस समय शोर मचाकर
बैठा दिया गया था जब मैंने हिन्दी-सेना की एक सभा में अपना भाषण यहाँ
से शुरू किया था कि ‘मैं
एक तरह से हिन्दी-विरोधी हूँ’।
लेकिन जैसाकि मैंने कहा है कि मैं एक दूसरे अर्थ में हिन्दी का
जुझारू समर्थक हूँ। मैं मानता हूँ कि हमारे देश में एक सम्पर्क भाषा
की आवश्यकता है और वह भाषा अँग्रेज़ी नहीं हो सकती। सभी भारतीय भाषाओं
का ‘संस्कार’
एक जैसा है। वे एक ही प्रकार के विचारक्रम और
प्रतिबिम्बों से उभरी हैं। क्योंकि इसको प्रचलित करनेवाले विचारक्रम
और आदर्श एक ही हैं इसलिए हम अपनी पूरी अभिव्यक्ति उसी एक भाषा में
पा सकते हैं जो कि हमारे संस्कारों, आदर्शों
और विचारक्रम के अनुसार विकसित हुई हो।
अँग्रेज़ी इन आदर्शों और विचारक्रम की भाषा नहीं है।
अँग्रेज़ी एक बहुत सुविधाजनक भाषा हो सकती है—एक
आरामदेह कोट जिसमें हम चुस्त नज़र आ सकते हैं लेकिन जो हमारे शरीर की
रूपरेखा को अभिव्यक्त नहीं कर सकती। इसलिए एक भारतीय भाषा को ही यह
कार्य करना होगा। मुझे लगता है कि यह भाषा केवल हिन्दी ही हो सकती है, क्योंकि
यह अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में अधिक विस्तृत रूप से बोली जाती
है। फिर, पहले से ही इसका बहुत ज़्यादा प्रयोग
किया जा रहा है और भारत के विभिन्न भागों में किसी-न-किसी प्रकार की
हिन्दी समझी जाती है। लेकिन वह वो हिन्दी नहीं है जिसके विषय में
हिन्दी के अन्धे समर्थक चर्चा करते हैं। जिसकी वह चर्चा करते हैं वह
कोई भाषा नहीं है, वह कुछ चुने हुए मुहावरे
हैं और जिसमें इधर-उधर की कुछ चीज़ों को अटपटे ढंग से जुटाया गया है
और इसमें एक विशेष प्रकार की शब्दावली है जो मेरे लिए असल में कोई
अर्थ नहीं रखती। यह ‘साहित्य
अकादेमी’ प्रकार
की हिन्दी है, जिसे दूसरे प्रदेशों के लोगों
को रटाकर उनके गले के नीचे उतार दिया जाता है। इस प्रकार की हिन्दी
एक परिपक्व भाषा नहीं है। शाब्दिक अर्थ में यह राज्य-संरक्षण की भाषा
है। सम्भव है कि इस प्रकार के संरक्षण के पीछे कुछ विशेष एजेंट ही
हों जो या तो वे किसी विशेष आयु-वर्ग के हैं या फिर किसी
प्रदेश-विशेष के लेखक। इस प्रकार की बाहरी बातें हिन्दी साहित्य का
एक ऐसा खाका पेश करती हैं जो हिन्दी भाषा का या हिन्दी साहित्य का
सही-सही रूप व्यक्त नहीं करतीं। फिर लोग इस हिन्दी को अस्वीकार क्यों
नही करते जो उन पर थोपी जा रही हे? क्या यह
असली हिन्दी है? क्या यही असली
हिन्दी-साहित्य है? अगर ऐसा है तो आप कैसे कह
सकते हैं कि हिन्दी-लेखन परिपक्व, सुघड़ और
विकसित हुआ है? आप ऐसा नहीं कह सकते न?
साहित्य अकादेमी जैसी संस्थाओं द्वारा गढ़ी गयी
हिन्दी इस भाषा के प्रति एक प्रकार की वितृष्णा पैदा करती है। लेकिन
यह भी भाषा का ‘असली’
चरित्र नहीं है।
कोई सम्पर्क भाषा होनी चाहिए। मुझे बिल्कुल बुरा नहीं
लगेगा यदि हिन्दी प्रादेशिक भाषा बनी रहे,
क्योंकि तब यह और भी पनपेगी और परिपक्व होगी। हिन्दी
के स्थान को राजनीतिक स्तर पर इतना उलझा दिया गया है और इसमें इतने
अन्य तत्त्व आ घुसे हैं कि इसे न प्रादेशिक भाषा का और न ही सम्पर्क
भाषा का कोई लाभ मिल पा रहा है और इसके लिए कुछ करना पड़ेगा। संक्षेप
में, यह उन जोशीले समर्थकों की भाषा है,
जो भाषाविद् नहीं हैं और ये इसमें मुहावरे और चुने
हुए विशेष शब्द ठूँस रहे हैं। यह कुछ विशेष लोगों की भाषा है जिनके
अपने राजनीतिक ध्येय हैं और वे भाषा के मसले का सहारा ले रहे हैं।
यह हमें अब बेचारी उर्दू के प्रश्न पर लाता है। एक तरफ़ तो
उर्दू हिन्दी भाषा से भिन्न नहीं है। ऐसा कहते समय मेरा अर्थ इससे वह
नहीं है जो हिन्दीवाले इसका अर्थ निकालते हैं। मैं समझता हूँ कि यदि
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाएँ एक ही हैं तो फिर इस भाषा को दोनों
लिपियों में छापा जा सकता है। इससे अन्तर नहीं पड़ेगा कि कौन-सी लिपि
प्रयोग में लायी जाती है। तब यह ज़रूरी हो जाता है कि आप प्रत्येक
विश्वविद्यालय के हिन्दी साहित्य में ग़ालिब और मीर को पढ़ाएँ। लेकिन
जबानी तौर पर कहना कि हिन्दी और उर्दू एक ही ज़बान है,
काफ़ी नहीं है। अगर मैं हिन्दी एम.ए. में कविता पढ़ता
हूँ तो मुझे तुलसी, सूर,
ग़ालिब, मीर और अन्य सभी
पढ़ाने होंगे। फिर भी उस स्तर पर अर्थात् साहित्यिक स्तर पर मैं
मानता हूँ कि हिन्दी और उर्दू एक ही भाषा हैं क्योंकि वे आपस में
काफ़ी गुँथी हुई हैं। यह सच है कि दो बीज भिन्न-भिन्न दिशाओं में पनपे
हैं। उर्दू और हिन्दी की शैली में काफ़ी अन्तर है,
लेकिन ऐसे तो फिर उर्दू लेखकों की शैली में भी अन्तर
है और ऐसे ही हिन्दी लेखकों की शैली में भी सामूहिक और व्यक्तिगत
दोनों रूपों में भिन्नता है। रेणु की भाषा और सआदत हसन मंटो की भाषा
में बहुत कुछ अन्तर है। लेकिन आप जानते हैं कि यह पूरा प्रश्न कई
बाहरी और अभाषीय कारणों से इतना उलझ गया है कि उर्दू और भी अधिक कटती
और दूर जाती लगती है।
मैं इससे सहमत नहीं हूँ कि हिन्दी और उर्दू को दो भाषाएँ
माना जाए। अगर दो भाषाएँ हैं तो फिर मैं नहीं जानता कि मैं किस भाषा
का प्रयोग करता हूँ। जब मैं उस कथा-साहित्य को लेता हूँ जो मैं आज
लिख रहा हूँ,
या जो नाटक मैं आज लिख रहा हूँ,
तो मुझे कहना पड़ेगा कि उसमें अधिकतर उर्दू का
प्रयोग है। फिर उसमें मेरी लोक-भाषा, कुछ
स्थानीय मुहावरे और कुछ अँग्रेज़ी भाषा के शब्द और अभिव्यक्तियाँ भी
इसमें शामिल हैं, इसी से मैं सोचता हूँ कि
उर्दू को अलग करने की प्रक्रिया केवल साम्प्रदायिक समस्याओं को और
बढ़ाने में ही सहायक होगी, क्योंकि इससे लोग
यह मानेंगे कि यह भाषाएँ सांस्कृतिक रूप से एक नहीं हैं। जहाँ पर यह
एहसास कराना ज़रूरी है कि हम एक ही संस्कृति से जुड़े हुए हैं,
वहाँ राष्ट्रीय एकीकरण भी उतना ही आवश्यक है। इसी
सन्दर्भ में हिन्दी और उर्दू को, एक ही भाषा
मानना आवश्यक है। लेकिन यह हमें उस स्तर पर करना चाहिए जिससे उर्दू
भाषा को कोई हानि न पहुँचे। साथ ही हिन्दी और उर्दू के सभी लेखकों को,
कवियों को एक-सा सम्मान देना होगा।
कपोला :
क्या आप उन भारतीय लेखकों को पढ़ते हैं,
जो अँग्रेज़ी में लिखते हैं?
आप उनके बारे में क्या सोचते हैं?
राकेश :
मैंने कुछ को पढ़ा है। सामान्य रूप से मेरा विचार है कि इस प्रकार का
लेखन एक विशेष प्रकार का असर पैदा करने के लिए लिखा जा रहा है।
अर्थात् यह लेखक के अन्दर की किसी अकुलाहट को प्रकट नहीं करता। यह एक
ऐसा लेखन नहीं है जो कि अपने आसपास के जीवन की परिस्थितियों द्वारा
लेखक में पैदा की गयी एक शक्ति का परिणाम हो। उसकी जगह यह एक प्रकार
का काग़ज़ी हिसाब-किताब-सा है जिसके द्वारा जोड़-तोडक़र किसी विशेष
प्रकार के लोगों के मन पर एक विशेष प्रकार का असर छोड़ा जा सके। जब
कोई लेखक किसी निर्धारित ढंग से रचना करता है तो यह एक प्रकार का
गढ़ा हुआ लेखन होता है—जोड़-तोड़
करके बनायी गयी कोई चीज़। अँग्रेज़ी लेखन से अधिकांश मुझे ऐसा ही लगा
है। लेकिन मैंने भारतीयों द्वारा अँग्रेज़ी भाषा में लिखी गयी कविता
बहुत अधिक नहीं पढ़ी है। इसीलिए मैं उनके बारे में कुछ नहीं कहूँगा।
लेकिन मैंने उनका कथा-साहित्य पढ़ा है और मेरा ख़याल है कि अधिकतर यह
उन्हीं लेखकों द्वारा लिखा जा रहा है जो यहाँ की ज़िन्दगी की यथार्थता
का चित्रण करने का प्रयास कर रहे हैं और यहाँ के भारतीय मानस को
उकेरने पर पूरा ज़ोर दे रहे हैं। उदाहरण के लिए,
मुल्कराज आनन्द का पंजाबी गालियों का अँग्रेज़ी में
अनुवाद करना। यह एक प्रकार का अधूरा-सा लेखन है।
‘गढ़ा गया’
शब्द इसके लिए शायद अधिक बेहतर रहेगा।
कपोला :
हिन्दी के अधिकांश नाटककार नाटक लिखने के लिए ऐतिहासिक या
अर्द्ध-ऐतिहासिक विषयों का सहारा क्यों लेते हैं?
क्या यह एक प्रकार का प्रतिक्रियावाद है?
क्या आप यह महसूस करते हैं कि हिन्दी-लेखन अभी भी
जयशंकर ‘प्रसाद’ के पुनरुत्थानवाद से जुड़ा हुआ है?
राकेश :
यह कमोवेश सैद्धान्तिक प्रश्न है। मुझे ऐसा भी लगता है कि इसके बारे
में कुछ भ्रान्ति है। यह बिल्कुल संयोग ही है कि हिन्दी के कुछ सफल
नाटक किसी-न-किसी ऐतिहासिक काल से सम्बद्ध हैं। लेकिन ऐसा नहीं है कि
ऐसे नाटक लिखे ही नहीं गये जो इतिहास से जुड़े हुए नहीं हैं। उदाहरण
के लिए, अश्क के
नाटक—एक
‘जय-पराजय’
को छोडक़र—वर्तमान
काल को लेकर ही लिखे गये हैं। लेकिन हुआ यह कि इनमें से कोई भी नाटक
इतना सफ़ल नहीं हो पाया कि उसे उनके प्रसिद्ध नाटकों में गिना जा
सकता। मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि यह बिल्कुल संयोग ही है कि जो
नाटक अधिक सफल रहे और जिनकी चर्चा हुई वे ऐतिहासिक या अर्द्ध
ऐतिहासिक श्रेणी में आते हैं।
किन्तु मैं यह नहीं समझता कि धर्मवीर भारती,
जगदीशचन्द्र माथुर और मैंने ऐतिहासिक नाटक इसलिए
नहीं लिखे हैं क्योंकि हम इतिहास की व्याख्या करना चाहते हैं। या
इसलिए कि हमें किसी काल-विशेष से लगाव था। न ही यह जयशंकर ‘प्रसाद’ की
तरह का किसी प्रकार का पुनरुत्थानवाद है। न ही यह किसी प्रकार का
प्रतिक्रियावाद है। बात इतनी भर है कि यह केवल संयोग-मात्र है कि
हिन्दी के सफल नाटक इस ऐतिहासिक श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।
मैं अपने बारे में तो निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि
मैंने एक शब्द भी ऐसा नहीं लिखा है जो वर्तमान से सम्बन्धित नहीं है।
आपने पहले कहा था कि आपके विचार में मेरे उपन्यासों तथा कहानियों में
तो आधुनिक सचेतता है जबकि मेरे नाटकों में सम्भवतया इसका थोड़ा-सा
अभाव। मैं इस प्रकार के अन्तर को स्वीकार नहीं करता,
क्योंकि जैसा मैं कह चुका हूँ कि मेरे नाटकों के
लेखन के पीछे भी वही सचेतता है जो मेरे उपन्यासों या कहानियों के
पीछे। मेरे विचार में ‘आषाढ़
का एक दिन’
कालिदास के बारे में नहीं है। इसमें अधिकांश कल्पना है हालाँकि मैंने
सांस्कृतिक तथ्यों को नज़रअन्दाज़ नहीं किया है और मैंने एक उस शोध का
उपयोग किया है जिसे मेरे ख़याल से शायद अस्वीकृत कर दिया गया है।
लेकिन यह विशिष्ट शोध मेरे उस विचार के अनुकूल था जिसके द्वारा मैंने
कालिदास को काश्मीर का प्रशासक दर्शाया है। मैं इस नाटक में आज के
लेखक की द्विविधा को चित्रित करना चाहता था—लेखक
जो राज्य या इसी प्रकार की अन्य संस्थाओं द्वारा प्रस्तावित लोभ के
प्रति आकर्षित होता है और दूसरी ओर कहीं अपने प्रति प्रतिबद्ध भी
होता है। और, इसके लिए बेचारे कालिदास को
बेकार ही नाटक में खींचकर ले आया गया और मैंने अधिकार-क्षेत्र के लिए
उनके ऊँचे स्थान से उन्हें थोड़ा गिरा भी दिया! लेकिन नाटक समकालीन
मानस के बारे में ही है।
मेरा दूसरा नाटक ‘लहरों
के राजहंस’ भी इसी
द्विविधा को प्रदर्शित करता है। मनुष्य उन सब कुछ की ओर आकर्षित होता
है जिसे आनन्द कहते हैं, और साथ ही ऐसी किसी
चीज़ की ओर भी समान रूप से आकर्षित होता है जिसे स्पष्ट प्रतीकों से
प्रकट नहीं किया जा सकता, फिर भी वह उसे तनाव
की स्थिति में ले जाने के लिए उतनी ही प्रभावी शक्ति है। हम इसे उसकी
‘तलाश’
कहें। आज की दुनिया में हम अपने भीतर
अधिकाधिक विभाजित होते जा रहे हैं, क्योंकि,
प्रत्येक आदमी कहीं-न-कहीं बुद्ध होता जा रहा है,
अर्थात्, उसकी यह अन्दरूनी
तलाश किसी चुने हुए व्यक्ति या मन की किसी तरंग तक सीमित नहीं है कि
वह किसी दिन संसार को त्यागकर प्रकाश की खोज में निकल पड़ता है।
हममें से हरेक के भीतर यह कीड़ा, यानी इस
तलाश की इच्छा मौजूद है।
दूसरी ओर, वह शक्ति है जो
हमें अपनी ज़िन्दगी में सर्वाधिक भौतिक सुखों को प्राप्त करने के लिए
बाध्य करती है। यह ऐसी द्विविधा की स्थिति है जिसमें हममें से हरेक
बँटा हुआ है। यह तलाश मनुष्य में उतनी ही यथार्थ है जितनी कि किसी
बुद्ध में, और मनुष्य में भौतिक सुख की तलाश
भी उतनी ही यथार्थ और सच्ची है जैसे कहें कोणार्क की किसी मूर्ति
में। अत: मैं अपने इस दूसरे नाटक में आज के मनुष्य की इस
द्विविधात्मक स्थिति को चित्रित करना चाहता था।
अब प्रश्न यह उठता है : मैंने अपने प्रतीकों के लिए
ऐतिहासिक चरित्रों का उपयोग क्यों किया? मैं
इतिहास की ओर गया ही क्यों? केवल इसी बात को
स्पष्ट-भर करने के लिए। कभी-कभी मुझे किसी गहरी भावना या किसी ऐसी
चीज़ का, जिसे लोग स्वीकार कर चुके हैं,
उपयोग करना बहुत सुविधाजनक लगता है। कालिदास के नाम
से लोग भली-भाँति परिचित हैं, अत: उसके नाम
को प्रयोग करने की वजह से मुझे किसी अन्य प्रतीक को गढऩे की आवश्यकता
नहीं पड़ी। हो सकता था कि यदि मैं आज के किसी ऐसे दुविधाग्रस्त लेखक
के नाम को गढ़ता तो मेरी रचना से दूसरे दर्जे के किसी लेखक का आभास
होता अर्थात् ऐसे व्यक्ति का जो दरअसल कोई फ़ैसला नहीं ले सकता हो और
इस प्रकार वह वास्तविक लेखक दिखता ही नहीं। कालिदास की जिन कृतियों
का मैंने नाटक में उल्लेख किया है, यदि मुझे
उनकी जगह छद्म नामों का प्रयोग करना पड़ता तो मैं लोगों के दिमाग़ में
इस प्रतीक को बैठाने में समर्थ नहीं हो पाता। और अब मैं उस प्रतीक
में इस विभाजित मन को दरशाकर लोगों को लेखक की द्विविधा के प्रति
सचेत कर सका, हालाँकि बेचारे कालिदास के नाम
को बट्टा लगाकर। बहुत से लोगों को इससे चिढ़ भी हुई। मेरी इस बात के
लिए आलोचना की गयी कि मैं कालिदास जैसे महान् लेखक को इतने नीचे स्तर
पर उतार लाया। लेकिन मैंने इस नाटक को लिखते समय यह सोचा कि मैं
जितनी शक्ति किसी ऐसे चरित्र को गढऩे में लगाऊँ जिसकी द्विविधा और
मानसिक संघर्ष को लोग अपने गले के नीचे उतार सकें,
तो क्यों न मैं इतिहास से कोई प्रतीक लेकर उस शक्ति
और कल्पना को आज (वर्तमान) के और आज के लिए नाटक की रचना में लगाऊँ?
यही बात मेरे दूसरे नाटक के साथ भी हुई। नाटक का
नन्द इतिहास के नन्द की भाँति आचरण नहीं करता। इस नाटक में मैं नन्द
के नाम का उपयोग नहीं करना चाहता था। मैं बुद्ध के नाम का उपयोग करना
चाहता था हालाँकि नाटक में बुद्ध नाम का कोई पात्र नहीं है। अत:
मैंने इन नाटक के लिए बुद्ध नाम के और मनुष्य की उस विशिष्ट तलाश का
उपयोग किया। मैंने इस इतिहास-कथा का उपयोग इसलिए किया क्योंकि इस कथा
के माध्यम से विशेष प्रकार की व्याख्या प्रस्तुत की जा सकती थी।
बुद्ध और नन्द की पत्नी, सुन्दरी के बीच होने
वाले संघर्ष का भी मैं उपयोग करना चाहता था। और यही दो बातें उस
स्थिति का, जिसमें मैं अपने आपको आज पाता हूँ
अर्थात् दो शक्तियों के बीच विभाजित होने की स्थिति का—प्रतीक
बन गयीं। वस्तुत: अपने भीतर के इसी संघर्ष को मैं चित्रित करना चाहता
था। आप सार्त्र के ‘लुसिफर
एंड द लार्ड’ में
भी इसी बात को पाएँगे। यदि आप यह कहें कि यह केवल एक ऐतिहासिक नाटक
है तो मैं समझता हूँ कि आप मनुष्य के प्रति न्याय नहीं करेंगे।
कपोला :
हिन्दी नाटककार रेवतीशरण शर्मा इस विचार से सहमत नहीं हैं कि हमें
अतीत के विषय लेने चाहिए। उनका कहना है कि लेखक ऐसा तभी करता है जबकि
उसमें कल्पना-शक्ति की कमी होती है और ऐसे में उसे तैयार चरित्र मिल
जाता है। और ऐसे चरित्र का चित्रण करने में बिना अपनी किसी प्रकार की
लेखन-प्रक्रिया की प्रतिभा स्थापित किये उस चरित्र की श्रेष्ठता का
सहारा लेता है।
राकेश :
लेखकों का एक प्रकार का वर्ग है जिसने हमारे इस पक्ष पर भी आलोचना की
है। हममें से कई—सम्पूर्ण
भारत के सन्दर्भ में मैं,
भारती और कारनाड—भारतीय
इतिहास में इसीलिए नहीं गये हैं कि इतिहास को स्पष्ट किया जा सके या
कि उसके अन्तराल को भरा जा सके। इतिहास का प्रयोग केवल समकालीन
परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया गया है। लोगों के इस विषय पर
विभिन्न मत हो सकते हैं। मैं इसमें कोई हानि नहीं समझता यदि किसी
विशेष चरित्र या ऐतिहासिक परिस्थिति का प्रयोग इसलिए किया जाए कि
उसके द्वारा कुछ आधुनिक कहा जा सके, विशेष
तौर से यदि उस चरित्र या परिस्थिति के प्रयोग द्वारा लेखक को किसी
प्रकार की सहायता मिलती हो।
कपोला :
आपकी कहानियों और उपन्यास की महिलाएँ काफ़ी प्रसन्न नज़र आती हैं,
लेकिन केवल ऊपरी तौर पर ही। नीचे गहराई में जाने पर
तो बिल्कुल ही विपरीत दिखता है। वह मानसिक अन्तद्र्वन्द्वों की या एक
विशेष प्रकार की हताशा का शिकार हुई लगती हैं।
‘मिस पाल’
तथा ‘नीलिमा’
इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। लगता है कि वे
निर्णय लेने से घबराती हैं, और अगर लेती भी
हैं तो फिर उससे पीछे हट जाती हैं। ऐसा क्यों?
राकेश :
एक तो यह लेखक के स्वयं के अनिश्चित चरित्र का प्रतिबिम्ब भी हो सकता
है। मैं स्वयं बहुत असम्भव व्यक्ति हूँ। लेकिन दूसरी तरफ़ मैंने बहुत
से और लोगों को इसी स्थिति में पाया। जब मैंने आपसे
‘नई
कहानी’
के विषय में बात की थी तो मैंने कहा था कि मैंने बहुत से लोगों को
कहीं अन्दर से हताश महसूस किया था। इसका सम्बन्ध उन मध्यवर्गीय
आकांक्षाओं के साथ भी है,
जिनकी मैंने पहले चर्चा की थी,
और इससे भी कि हमारे आसपास के लोग हमेशा उसी
मध्यवर्गीय घटिया दर्जे की तिकड़मों द्वारा जीवन से कुछ अतिरिक्त
पाने की हमेशा कोशिश करते रहते हैं। मेरे विचार में मैं उन लोगों में
से एक हूँ जो कि किन्हीं चीज़ों से समझौता करने के लिए तैयार नहीं
हैं। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी समझौता नहीं किया। लेकिन ऐसे लोग जो
अन्य अधिकांश लोगों की तरह समझौता करने की इच्छा नहीं रखते,
अपनी पूर्ण मानसिक बुनावट या पूर्ण इनवाल्वमेंट के
कारण दूसरों की तुलना में अधिक भोगते हैं। इसी कारण उनमें एक प्रकार
की हताशा जन्म ले लेती है—ठीक
वैसी ही, जैसी कि
‘नीलिमा’
और ‘मिस
पाल’ में।
संक्षेप में मुझे यह भी जोडऩे दीजिए कि उस समय जब यह
अंश लिखे गये थे, तब उन लोगों में थोड़ी-बहुत
संवदेनशीलता या आत्मा नाम की कोई चीज़ थी, और
उन्हें वस्तुत: ही किसी भी प्रकार के समझौते करने की हिम्मत नहीं
होती थी। ऐसे लोग एक गहरी हताशा को भोगते थे। उनकी यह अनिश्चितता
उनके हर समय समझौता कर लेने की इच्छा से या फिर कभी-कभी सही
मन:स्थिति में न होने के कारण उत्पन्न हुई।
‘नीलिमा’
को निर्णय लेने का सही अवसर ही नहीं मिला और
‘हरबंस’
निर्णय लेने में समर्थ ही नहीं हो सका।
अन्तिम क्षण वह किसी एम्बेसी में टिकट बेचने के लिए जाता है,
लेकिन सिर्फ़ लौटने के लिए,
यह बहाना बनाकर कि वह उन्हें नहीं बेच पाया या फिर कुछ ऐसा ही और।
‘मिस पाल’
की परिस्थिति भी कुछ ऐसी ही है। मैं उसकी
हताशा के बारे में पहले ही कह चुका हूँ।
आप यह कह सकते हैं कि जिस समय मैंने यह कहानी या
उपन्यास लिखा था उस समय मैंने अपने आसपास के लोगों को बराबर इसी
हताशा में देखा है। मेरे ख़याल में यह मेरी उस समय की कहानियों,
उपन्यासों में भी खासा स्पष्ट हो चुका है। ऊपरी
प्रसन्नता? हाँ,
क्योंकि तब मैं ही उसे नहीं खोज सका था। मैं जानता हूँ कि कहीं भीतर
से मैं सच ही एक उदास व्यक्ति हूँ। यद्यपि हमेशा मैं एक ही ऐसा
व्यक्ति रहा हूँ कि जिसे रेस्टराओं से ऊँचा ठहाका लगाने के लिए टोका
जाता है और मैं ही हमेशा कॉफ़ी हाऊस में मुँह-तोड़ जवाब देने का शौक़
रखता था। लेकिन मुझे मानना पड़ेगा कि पिछले बीस वर्षों में मैंने
जो-जो अपने आसपास होते देखा उसने मुझे अन्दर काफ़ी उदास कर दिया है।
जैसा कि मैंने आपको पहले भी कहा था कि केवल मेरा अपना चरित्र ही मेरे
पात्रों की अनिश्चितता या उदासी के रूप में झलका है।
कपोला :
आइए अब थोड़ा-सा हिन्दी में साहित्यिक आलोचना की तरफ़ मुड़ें। क्या
पंजाबी और उर्दू में साहित्यिक आलोचना के नाम पर केवल गाली ही दी
जाती है या पीठ ही ठोकी जाती है?
आपके आलोचक आपके बारे में क्या कहते हैं?
क्या वह आपके लेखन को विकसित करने के लिए रचनात्मक
सिद्ध हुए हैं? आपकी दृष्टि में एक आलोचक का
क्या काम है और लेखकों को उन पर कितना ध्यान देना चाहिए?
राकेश :
हिन्दी कविता में आलोचना की एक बहुत लम्बी परंपरा है,
लेकिन कथा-साहित्य में इसकी परंपरा बहुत ही छोटी है
और नाटक के क्षेत्र में तो बिल्कुल ही नहीं। नाटक की लोग चर्चा करते
हैं तो उन्हें भरत से शुरू करना पड़ता है। जयशंकर ‘प्रसाद’ के नाटकों
पर अधिकतर आलोचना इसी प्रकार की होती है जैसे
‘प्रसाद के नाटकों का
शास्त्रीय अध्ययन’
आदि-आदि।
जहाँ तक इस विशिष्ट लेखन-काल का सम्बन्ध है अर्थात्
उस समय का जब ‘नई
कहानी’ का उदय हुआ
और जब मैंने यह नाटक लिखे तो उस समय मुश्किल से कोई समान्तर आलोचना
विकसित हुई। जहाँ तक कहानी और नाटक की आलोचना का सम्बन्ध था,
उसे तो अभी अपनी शब्दावली और अपने स्वरूप का विकास
और निर्धारण करना था। पर कोई बना-बनाया मानदंड,
कोई आलोचनात्मक स्तर क़ायम नहीं हुआ था जिसके द्वारा
लेखन का मूल्यांकन किया जा सके। एकमात्र नामवर सिंह ही थे,
जिन्होंने इस सम्बन्ध में कोई अर्थपूर्ण प्रयास किया
था हालाँकि उन्होंने ही हमें सबसे अधिक भला-बुरा कहा।
‘हमें’
से अभिप्राय उन्हीं तीन लेखकों से है जिनका
उल्लेख मैं पहले ही कर चुका हूँ। उनके साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि
यद्यपि उन्होंने एक ताज़गी के साथ आलोचना करनी शुरू की थी जिससे उनसे
बड़ी आशाएँ उत्पन्न हो चुकी थीं, लेकिन
धीरे-धीरे उनमें एक प्रकार का सीमातीत पक्षपात आ गया—यह
मेरी अपनी धारणा है और मानता हूँ कि यह व्यक्तिपरक है—जिसके
कारण वे कुछ विशेष लेखकों का पक्ष लेते रहे और शेष की निन्दा करते
रहे। मैं महसूस करता हूँ कि जहाँ तक हिन्दी कहानी की महत्त्वपूर्ण
आलोचना का सम्बन्ध था, वह इसी के साथ समाप्त
हो गयी। उनके बाद देवी शंकर अवस्थी ही अकेले व्यक्ति थे जिन्होंने सच
ही कुछ महत्त्वपूर्ण लिखा। लेकिन उनका युवावस्था में ही देहान्त हो
गया, ठीक उस समय जब वह एक महत्त्वपूर्ण आलोचक
के रूप में उभरने शुरू हुए थे।
जहाँ तक नाटक का सम्बन्ध है,
मेरे विचार में उसकी स्थिति इतनी ख़राब नहीं है। मैं समझता हूँ कि
सुरेश अवस्थी तथा नेमिचन्द्र जैन जैसे आलोचकों ने समकालीन
हिन्दी-नाटक की काफ़ी महत्त्वपूर्ण आलोचना की है। लेकिन यदि हम पूरे
हिन्दी साहित्य के सन्दर्भ में देखें तो ऐसा लगता है कि हिन्दी
आलोचना दो भागों में विभक्त है। जैसा कि अभी आपने पंजाबी और उर्दू
में गाली देने या फिर पीठ ठोकनेवाली आलोचना का उल्लेख किया है,
हिन्दी आलोचना को भी इसी प्रकार के दो समान रूपों
में विभाजित किया जा सकता है। एक ‘आचार्य’
प्रकार की आलोचना है,
जहाँ विभिन्न लोगों द्वारा लेखक तथा लेखन के बारे में फ़ैसले दिये
जाते हैं। और दूसरा है त्रुटि ढूँढऩा जो कि यह बताता है कि लेखन में
कौन से अंश ग़लत हैं या क्या कमी रह गयी है। दोनों ही किसी-न-किसी तरह
से संरक्षणशील हैं। ऐसा आलोचक जो अपने-आपको लेखक के समान्तर समझता है
और जो समान्तर रहने के लिए समय की गति के साथ चल सकता है—इस
प्रकार का आलोचक हम लोगों के पास नहीं है।
दरअसल इसीलिए बहुत से कहानी-लेखकों को स्वयं ही अपना
वक्ता बनना पड़ा। और इसीलिए ‘नई
कहानी’ को एक
‘आन्दोलन’
कहा जाने लगा था। इसी तरह यह हम तीनों के नाम
से सम्बद्ध हो गया था। उस समय बहुत अधिक आलोचक नहीं थे और एक ही
व्यक्ति जो कि महत्त्वपूर्ण आलोचना कर रहा था,
सहसा पक्षधर बन बैठा और हमें अपने विषय में और अपने
अनुभवों के विषय में स्वयं बताने के लिए आगे आना पड़ा। परिणामस्वरूप
हमें अच्छे और बुरे की संज्ञा मिलने लगी।
जहाँ तक आलोचना का मेरे लेखन में सहायक होने का
प्रश्न है, तो उसके बारे में मेरा विचार यह
है कि उससे कहीं अधिक लाभ तो मुझे अपने मित्रों के बीच मेरे लेखन पर
खुले और गर्म वाद-विवाद से प्राप्त हुआ है। बहुत बार उनसे कई
महत्त्वपूर्ण सुझाव मिले और मुझे ऐसा कभी नहीं लगा जैसे मुझे कभी भी
अपने आपको फिर से सुधारना पड़ा हो। मैं इस विषय पर हमेशा से अतिरिक्त
भावुक रहा हूँ। मैंने ऐसा हमेशा महसूस किया कि जो कुछ काम भी मैंने
अब तक किया है वह वैसा काम नहीं है जैसा कि मैं करना चाहता हूँ और
मुझे अपने प्रत्येक पूर्ण किए काम से हमेशा ऐसा ही लगता रहा,
मानो इसमें अभी और कुछ करने को शेष रह गया है यहाँ
तक कि ‘पूर्ण हुए’
लेखन के बारे में भी। इसलिए,
यद्यपि मैं आलोचना के कोलाहल में अपने आपकी आलोचना
नहीं कर सका फिर भी मैं आत्मालोचक हूँ। मैं हमेशा से अपना पुनर्गठन
करना और अपने बाहर से, अपने भीतर से विकसित
होना चाहता रहा हूँ। लेकिन इस सम्बन्ध में लिखित आलोचना ने मेरी कोई
सहायता नहीं की है। लेकिन वाद-विवाद और कभी-कभी ऐसे वाद-विवाद भी,
जिनमें लोगों ने मेरी सीधे-सीधे निन्दा की है,
मेरे लिए काफी सहायक रहे हैं। ऐसे में लोग अपने मन
की बात कह लेते हैं। अपने शब्दों का मोह इस प्रकार की आलोचना को नहीं
बाँधता, जैसा कि अन्य आलोचकों के साथ अक़सर
होता है।
कपोला :
फिर आप ठीक नहीं समझते कि एक लेखक आलोचक की ओर अधिक ध्यान दे?
राकेश :
बहुत अधिक नहीं।
कपोला :
आपको कैसा लगेगा यदि कोई पाश्चात्य आलोचक, कोई
महत्त्वपूर्ण पाश्चात्य आलोचक आपके लेखन की चर्चा करे?
क्या फिर आप उसकी बात सुनेंगे?
राकेश :
मेरे विचार में यह बहुत सहायक होगी क्योंकि यह हमारे सामने एक ताज़ा
नजरिया पेश करेगी। लेकिन सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि जिन पश्चिमी
लोगों ने हिन्दी साहित्य का अब तक अध्ययन किया है,
अभी वह उस गहराई तक नहीं पहुँच पाये हैं कि हमारे
साहित्य की सभी धाराओं, कार्यकारी शक्तियों
का विश्लेषण कर सकें और चीज़ों को सही नज़रिए से देख सकें। पश्चिमी
लोगों से इस बात का अन्देशा रहता है कि उनमें इस लेखन को भौंहें
चढ़ाकर—अनावश्यक
रूप से भौंहें चढ़ाकर—चीज़ों
की देखने की प्रवृत्ति भी मौजूद है—कुछ
लोग ऐसे हैं जो यह हमेशा मानकर चलना चाहते हैं कि जो भी एक एशियाई
लिखेगा, द्वितीय श्रेणी का ही होगा। अन्य
पश्चिमी आलोचक सिर्फ़ संरक्षक होना चाहते हैं—वही
पीठ ठोकनेवाली आलोचना, लेकिन एक दूसरी ही तरह
से। कोई भी पश्चिमी आलोचक जो सही तौर से किसी भी भारतीय भाषा के लेखन
की गहराई में उतरना चाहता है, उसे कम-से-कम
पाँच या फिर दस वर्ष इस दिशा में लगाने चाहिए जिससे कि वह सही तरह से
आलोचना कर सके। मेरे विचार में अन्य कई देशों के साहित्य का इस
प्रकार का अध्ययन हो चुका है। उदाहरण के तौर पर,
सोवियत साहित्य का अमरीकी अध्ययन या जापानी साहित्य
पर अमरीकी अध्ययन, आदि-आदि। इसी तरह यदि गहरे
और विश्लेषणात्मक अध्ययन किये जाएँ तो सच ही वे सहायक हो सकते हैं।
वे सम्भवत: हिन्दी आलोचकों को भी दिशा दे सकेंगे। लेकिन जहाँ तक आज
की स्थिति है, मेरे विचार में उनमें हिन्दी
या किसी अन्य भारतीय भाषा के लेखन का ज्ञान केवल ऊपरी स्तर तक ही है।
इसलिए मुझे विश्वास नहीं है कि पश्चिम से हुई किसी भी प्रकार की
आलोचना इस समय अधिक सहायक हो सकेगी।
कपोला :
हिन्दी कविता के बारे में क्या विचार है? इस
सम्बन्ध में हिन्दी कविता नितान्त उर्दू कविता की स्थिति में है जो
कि कहानी से बहुत पीछे छूट गयी है, विशेषकर
समकालीन स्वरूप में। आप अज्ञेय, माचवे और
अन्य के बारे में कुछ कहेंगे? क्या आपने कभी
कविता लिखी है?
राकेश :
हाँ,
जब मैं बहुत छोटा था तब मैंने कविता ज़रूर लिखी थी।
मैंने शुरुआत उसी से की थी। वास्तव में मैंने संस्कृत में कविता
लिखना आरम्भ किया था। फिर उससे आगे बढक़र मैंने हिन्दी कविता लिखनी
शुरू की, लेकिन उसे भी बहुत जल्दी छोड़ दिया।
मैं जानता था कि यह मेरा माध्यम नहीं है। कभी-कभी हिन्दी और उर्दू
कविता पढ़ता हूँ। मुझे स्वीकार करना पड़ेगा कि मुझे उर्दू से कहीं
ज़्यादा हिन्दी कविता पसन्द है। महज इसलिए कि मैं उर्दू के ज़ोरदार
स्वरों को पकड़ नहीं पाता था। आजकल के नए उभरे उर्दू के आधुनिक
कवियों के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता। मैंने कोई बहुत अधिक
कवियों की रचनाएँ नहीं पढ़ी हैं। लेकिन जितनी भी थोड़ी-बहुत उर्दू
कविता से मैं परिचित हूँ जैसे कि मजाज, जोश
आदि से, मैं कहूँगा कि उनके पास जीवन-सन्दर्भ
को लेकर सीमित दायरा है। लगता है कि वह अभी भी ग़ाबिल और अन्य शायरों
द्वारा चलाये गये रास्ते पर ही भटक रहे हैं। फ़ैज़ जैसे व्यक्ति द्वारा
नयापन लाना दरअसल एक महत्त्व रखता है और शायद मजाज की शायरी भी। मुझे
लगता है कि सम्भवत: उर्दू के कवि एक ही लीक को पीट रहे हैं।
लेकिन हिन्दी कविता में ऐसा नहीं है हालाँकि हिन्दी
कविता अधिक बौद्धिक और कम भावुक होने के कारण सीधे मन को नहीं छूती।
लेकिन उर्दू कविता तुलना में सीधे दिल में उतर जाती है और सुनने
वालों के मन में बहुत जल्दी जगह बना लेती है। लेकिन जहाँ तक समकालीन
कविता का प्रश्न है वहाँ मैं हिन्दी कविता पढऩा ज़्यादा पसन्द करता
हूँ यद्यपि मैं ग़ालिब का बहुत ही प्रशंसक हूँ। मेरे विचार में ग़ालिब
तुलसी से महान था। हिन्दीवाले मुझे ऐसा कहने पर बुरी तरह कोसेंगे
लेकिन मैं सच ही ऐसा विश्वास करता हूँ।
इधर पिछले तीन-चार वर्षों में हिन्दी कहानी कोई ख़ास
नहीं पनपी, लेकिन हिन्दी में कुछ अच्छी
कविताएँ ज़रूर लिखी गयी हैं। इस काल में हिन्दी कविता अधिक क्रियाशील
रही। आप अज्ञेय और माचवे की कविताओं की बात करते हैं;
मैं उनकी कविताओं को पढ़ता हूँ लेकिन बिल्कुल वैसे
ही जैसे मैं जयशंकर ‘प्रसाद’ की कविताएँ पढ़ता हूँ। वह आनन्द देनेवाली
चीज़ें हैं।
कपोला :
हिन्दी साहित्य में आजकल क्या-क्या हो रहा है?
आजकल ऐसा क्या हो रहा है जिसका प्रभाव हिन्दी
साहित्य पर आज से बीस साल के बाद पड़ेगा?
आपने थोड़ी देर पहले ही कहा था कि हिन्दी कहानी में ठहराव का समय आ
चुका है।
राकेश :
हाँ,
जब हम अनिश्चितता की बात कर रहे थे। एक और चीज़ जो
अनिश्चितता के साथ जुड़ी हुई है, वह है
द्वन्द्व। हो सकता है कि यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव ही हो या फिर मेरे
अपने ही मन की अभिव्यक्ति ही हो, लेकिन मैं
यह ज़रूर महसूस करता हूँ कि हममें से बहुत से अनिश्चितता और द्वन्द्व
की स्थिति में जी रहे हैं जो कि अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति में
नाटक-नाट्य लेखन का रूप लेगा। मेरे विचार में अब अधिक नाटक लिखे
जाएँगे और जैसा कि अभी से हो भी रहा है। बहुत से युवा लेखक जो पहले
कहानियाँ लिखते थे अब नाटक लिखने की तरफ़ बढ़ रहे हैं। इस प्रवृत्ति
का एक और सहायक तत्त्व यह है कि पहले की अपेक्षा मंच के प्रति सचेतता
बढ़ती जा रही है और नए युवा निदेशक भी इधर आगे आ रहे हैं। कहीं अधिक
लोग गम्भीर नाटक खेलना चाह रहे हैं। हालाँकि हमारे यहाँ हिन्दी में
अभी व्यावसायिक थिएटर की हलचल ज़्यादा नहीं है,
लेकिन लगता है कि हम आज की अपेक्षा बेहतर नाटकों की
चौखट पर खड़े हुए हैं। साथ ही, बहुत-से अच्छे
निदेशक भारतीय भाषाओं में नाटक का मंचन कर रहे हैं। हो सकता है कि यह
मेरे अपने व्यक्तिगत मन का संकेत हो, लेकिन
आने वाले दस वर्षों में मैं सोचता हूँ कि हिन्दी भाषा में अधिक नाटक
लिखे जाएँगे।
कपोला :
आजकल आप किस पर काम कर रहे हैं?
आप भविष्य में क्या लिखेंगे?
क्या आप समझते हैं कि आप किसी विशेष साहित्यिक ढंग को ही अपनाएँगे या
फिर कहानी, उपन्यास और नाटक लिखना ही जारी
रखेंगे?
राकेश :
बहरहाल मैं संकल्पवश तो किसी एक ढंग को नहीं अपनाऊँगा,
लेकिन ऐसा हो सकता है। मेरे दिमाग़ में ऐसे विषय हैं
जो केवल कहानी या उपन्यास का रूप लिये हुए हैं,
मेरे बिना किसी प्रयास के वह अक़सर नाटक बन जाते हैं।
लेकिन यदि कोई विषय मेरे पास नाटक के लिए उपयुक्त होता है तो फिर मैं
उस पर कहानी नहीं लिखता। सब कुछ निर्भर करता है। मेरा विश्वास है कि
मैं दोनों ढंगों को अपनाए रखूँगा—उपन्यास-कहानी
और नाटक।
लेकिन जैसा कि मैं पहले ही संकेत दे चुका हूँ कि
मुझे आजकल कहानी और उपन्यास की तुलना में नाटक के विषय अधिक सूझते
हैं। मैं आजकल ही में एक नाटक पूरा करनेवाला हूँ,
जिसका नाम ‘आधे
अधूरे’ हैं। अधूरे
का मतलब ‘इनकम्पलीट’
और आधे का मतलब ‘हाफ’
है। यह आज के सामान्य वर्ग से सम्बन्धित है
जो अपने में ‘आधा’
भी है और ‘अधूरा’
भी। यह इस शहर के एक मध्यवर्गीय परिवार की
कहानी है जिसे परिस्थितियाँ निचले वर्ग की ओर धकेलती जा रही हैं।
उनके जोश, पराजय,
इच्छाएँ, संघर्ष और इसके साथ-साथ स्थिति का
हाथ से फिसलते जाना—मैंने
सब कुछ उसमें दिखाने की कोशिश की है। इसका मुख्य पात्र एक कार्यशील
महिला है। इसके इर्द-गिर्द चार पुरुष हैं—उसका
पति, उसका बॉस, पति
के व्यवसाय में पहलेवाला हिस्सेदार (पार्टनर) जिसे वह अपने पति की
तबाही का कारण मानती है—पति
प्रासंगिक रूप से घर पर रहता है और एक धेले की भी कमाई नहीं करता। वह
अपने पार्टनर के साथ किसी व्यापार में अपना सब कुछ गँवा चुका है।
चौथा व्यक्ति औरत का पहला प्रेमी है जिसके साथ उसने एक बार अपने पति
को पीछे अकेला छोडक़र भागने की सोची थी लेकिन वह ऐसा कर नहीं सकी
क्योंकि वह समय पर निर्णय ही नहीं ले पायी। अब वह चालीस के लगभग है
जिसके है इक्कीस साल का लडक़ा, उन्नीस साल की
एक लडक़ी जो पहले ही किसी के साथ भाग गयी है और एक और लडक़ी जो लगभग
चौदह की है। यह औरत ही मुख्य पात्र है और मैं चाहता हूँ कि चारों
पुरुष-पात्र एक ही अभिनेता द्वारा खेले जाएँ। मैं जो बात बताना चाहता
हूँ वो यह है कि अपनी परिस्थिति के लिए व्यक्ति अकेला ज़िम्मेवार नहीं
होता, क्योंकि स्थितियाँ कुछ भी होतीं,
उसे बार-बार उसी का चुनाव करना पड़ता। ज़िन्दगी में
व्यक्ति कुछ भी चुने, उसमें एक विशेष
‘आइरनी’
होती है, क्योंकि
परिस्थितियाँ फिर-फिर वही बन जाती हैं।
कपोला :
उपन्यास के विषय में भी कुछ कहिए। क्या आप दो चीज़ों पर एक साथ काम
करते हैं?
राकेश :
नहीं,
मैं एक समय पर एक ही चीज़ पर काम करता हूँ। जब मैं एक
चीज़ पर काम कर रहा होता हूँ तो दूसरी किसी चीज़ पर काम नहीं कर सकता।
वास्तव में जिस परिस्थिति को मैं अपने विषय में उत्पन्न करता हूँ
उसकी प्रतिक्रिया मुझ पर होने लगती है—उसके
साथ-साथ मैं उत्सुक या हताश होता रहता हूँ।
मैंने अभी ही तीन महीने पहले एक छोटा उपन्यास पूरा
किया है। उसका नाम है ‘न
आनेवाला कल’। इसका
केन्द्र अँग्रेज़ी माध्यमवाला एक पब्लिक स्कूल है। वह दरअसल छ:-सात
कहानियों का एक सैट है, जो कि आपस में जुड़ी
हुई हैं और एक उपन्यास बनाती हैं। कहानी एक स्कूल मास्टर की है जो
व्यक्तिगत कारणों से इस्तीफ़ा दे देता है। यह एक ऐसा व्यक्ति है जो
ज़िन्दगी में कुछ ढूँढ़ रहा है लेकिन उसे पता नहीं है कि वह कैसे इसे
प्राप्त करे। उसने एक विधवा से शादी कर ली और वे दोनों दुखी हैं। वह
उसके साथ नहीं रह रही है। वह नहीं जानता कि वह क्या चाहता है। वह इस
नौकरी में चलने की कोशिश करता है लेकिन अन्तत: इस्तीफा दे देता है।
यही एक निश्चित काम है जो वह यकीनन कर सकता है अर्थात् यह कि किसी भी
चीज़ से मुक्त हो जाना।
उसके इस्तीफा देने से प्रतिक्रिया का सिलसिला शुरू
हो जाता है। पहले अध्याय का शीर्षक है ‘इस्तीफा’,
दूसरे का ‘डर’।
इनमें स्कूल के स्टाफ-रूम का वर्णन है। यहाँ अब सब इसलिए डर रहे हैं
कि उस हिन्दी मास्टर के इस्तीफा देने के पीछे ज़रूर कोई कारण रहा
होगा। हो सकता है कि अँग्रेज़ी माध्यमवाले स्कूल अब किसी ख़तरे में हों
या फिर कुछ और। वह डर पूरे कॉमन-रूम में छा जाता है।
फिर हम आते हैं ‘कुर्सी’
पर। यहाँ हेडमास्टर से परिचय होता है। इस
व्यक्ति की शिक्षा-निदेशक के पास बहुत सी शिकायतें पड़ी हुई हैं
जिसके फलस्वरूप वह लोगों से बुरी तरह से पेश आता है। वह लगातार लोगों
को धक्का देता है—उनकी
कुर्सियों से। लेकिन वह और ऊँचे लोगों के हाथ का लट्टू बना हुआ है।
चौथा अध्याय
‘साथी’
नाम से है—वह
लोग जो इकट्ठे होकर हेडमास्टर को निकाल बाहर करना चाहते हैं। पाँचवाँ
अध्याय ‘नाटक’
है। एक सीनियर मास्टर है,
जो अपनी पत्नी के साथ नाटक करता है। उसकी पत्नी
अभिनेत्री है। वे लोर्सा का ‘ब्लड
वैडिंग’ प्रदर्शित
करते हैं। हेडमास्टर हमेशा सीनियर मास्टर की आलोचना करता रहता है
क्योंकि उसकी पत्नी ने कभी भी उसे उचित आदर नहीं दिया। वह हेडमास्टर
की बिल्कुल भी परवाह नहीं करती। प्रदर्शन शुरू होने से पहले
हेडमास्टर उन दोनों को निरुत्साहित करता है। इस पर यह दम्पति ब्रिटेन
में अपने घर लौटने का इरादा बनाते हैं। नाटक के बाद डिनर था। नाटक
असफल रहा, अत: पत्नी हताशा में खाने की मेज़
के पास आती है। नशे के बहाने वह हेडमास्टर को अपने इरादे की एक झलक
दे देती है। असली नाटक तो वहाँ होता है, जबकि
वह नाटकीय ढंग से स्थिति का पूरा लाभ उठाती है।
छठा अध्याय है ‘सडक़’।
इसमें एक मेट्रन देखने में आती है, जिसने अब
तक कितने ही मास्टरों को करीब से देखा हुआ है। यह एक चुलबुल,
फ्लर्ट टाइप की लडक़ी है। वह उस व्यक्ति का हाथ पकडक़र
सडक़ पर घूमने निकल जाती है जिसने अभी-अभी इस्तीफा दिया है। वह एक-एक
मास्टर के बारे में बताती है, जिनमें से कई
को वह अन्तरंग रूप से जानती भी थी।
अन्तिम अध्याय ‘दरवाज़े’
है। यहाँ प्रत्येक व्यक्ति कल की प्रतीक्षा
में है। कल कुछ ऐसा होनेवाला है, जिससे वह
ज़िन्दगी से अपने पूरे हिसाब साफ़ कर सकेंगे। प्रत्येक इसी उम्मीद पर
जी रहा है। जिस व्यक्ति ने इस्तीफा दिया है वह अभी जानेवाला है। उसके
आसपास उसका सामान है और वह यह भी नहीं जानता कि अब और आगे वह क्या
करे। अपनी पत्नी के पास जाए या फिर कहीं और। इसी हताशा में वह अपने
नौकर की पत्नी के साथ सोना चाहता है और वह औरत आसानी से तैयार हो
जाती है, जिससे उसे पता चल जाता है कि उसे
कोई यौन-रोग है। और, वह सम्भोग भी नहीं कर
पाता।
इसीलिए वह निराशा में सीधा बस-स्टॉप पर आ जाता है।
यहाँ मैंने रास्ते के बीच के जंगल का वर्णन दिया है। बस को इसलिए देर
हो गयी है क्योंकि उसके रास्ते में कोई चट्टान आ गिरी है और वह नहीं
जानता कि वह कहाँ जा रहा है।
(शीर्ष
पर वापस)
[संचयन-मुख्य सूची] |