न आनेवाला कल
3-दरवाज़े
रात से पहले की खामोशी शाम गहराने के बाद की। झुटपुटे
में रचा-बसा एक डर—न
जाने किस चीज़ का। काफी देर खिडक़ी के पास खड़ा रहने के बाद मैं कमरे
में हट आया। बाहर सब कुछ अँधेरे से पहले के सुरमईपन में डूब गया था।
जो धुँधला आभास बाकी था, उसे बिल्कुल मिटते
देखने का मन नहीं हुआ। वह मेरी आखिरी रात थी वहाँ। एक सुबह और दोपहर
और बीतनी थी, और मुझे
उस घर को खाली करके चले जाना था।
अपना सामान मैंने आधा छाँट लिया था,
काफी देर पहले। जो कुछ छाँटने को बाकी था,
उस पर लाचारी की नज़र डालकर हर बार उसे और बाद के लिए
टाल दिया था। कितना कुछ था जो शोभा के आने से पहले का छँटना रहता था—जिसे
अपने कँवारेपन के दिनों से कभी बाद के लिए टालता रहा था। वे ढेरों
पत्र जिन्हें कभी छाँटकर फाइलों में लगाने की बात सोचता था। तसवीरें
जिनका कभी कोई एलबम नहीं बना सका था। कितनी ही चीज़ें थीं जो ‘घर
की सम्पत्ति थीं’—अर्थात् उस घर की जिससे
मेरा सम्बन्ध वहाँ पैदा होने के नाते था। माँ और पिता के गुज़रने के
बाद वह सब कुछ मौसी के यहाँ धरोहर के रूप में रखा रहा था। वे उस बार
आयी थीं, तो एक-एक चीज़ गिनकर सब कुछ मुझे
सौंप गयी थीं। एक बड़ा ट्रंक जिसमें पुराने ज़माने के बरतनों से लेकर
आधे कढ़े मेज़पोशों तक दसियों तरह का सामान भरा था। मौसी जब सब चीज़ें
मुझे गिना रही थीं, तो मैं उन्हें गिनने की
जगह उनके वापस ट्रंक में बन्द होने की राह देख रहा था। वे बार-बार
कहती थीं कि वे दोनों लड़कियों को साथ लेकर मेरे पास पहाड़ की सैर के
लिए नहीं आयीं, मेरी अमानत सुरक्षित रूप से
मेरे पास पहुँचाने के लिए ही आयी हैं। मुझे कुछ हद तक इस पर विश्वास
भी था क्योंकि अपना पुराना मकान बेच देने के बाद उनके पास फालतू
चीज़ें रखने के लिए जगह नहीं रही थी। बेचारी राजो मौसी! वह सामान
जिसकी कीमत कुल मिलाकर दो सौ रुपया भी नहीं थी,
वह चौदह साल मेरे पैर जमने के इन्तज़ार में भरत की
तरह अपनी रखवाली में रखे रही थीं। उसके बाद तीन आदमियों के आने-जाने
का डेढ़ सौ रुपया भाड़ा भरके उसे मेरे पास पहुँचाने आयी थीं। मुझे
उनमें से किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है, मेरे यह
लिखने का उन पर कुछ असर नहीं हुआ था। वे सब चीज़ें उनकी बहन जिस तरह
सौंप गयी थी, उसी तरह,
ज्यों का त्यों, उन्हें मेरे
सुपुर्द कर देना उनका नैतिक कर्तव्य था। अपने लिए वह उनमें से एक
कपड़े का टुकड़ा भी नहीं रख सकती थीं। बाद में एक बार और शोभा ने उस
ट्रंक को खोलकर उसमें झाँका-भर था। शोभा ने तो पुराने सामान की गन्ध
से ही नाक-भौं सिकोड़ ली थीं। मैं कोशिश करके आँखों में थोड़ी भावना
ले आया था जो ज़्यादा शोभा को चिढ़ाने के लिए ही थी। उसके बाद फिर कभी
उसे खोलने की नौबत नहीं आयी थी। वह ट्रंक अछूत की तरह गुसलखाने में
एक तरफ पड़ा मैले कपड़े जमा करने की मेज का काम देता रहा था। सुबह
उसे खोलकर मैंने उसका सब सामान बाहर फैला दिया था। एक चाय-सेट को
छोडक़र और कुछ भी नहीं था जिसे काम में लाया जा सकता—पर
वह जापानी चाय-सेट भी, जिसकी दूधदानी का
हत्था टूट गया था मेरे लिए एक समस्या बन रहा था। उस सेट के अलावा
शोभा के दिनों भी बहुत-सी प्लेटें-प्यालियाँ थीं जिन पर इस बीच धूल
की परतें जम गयी थीं। छह नये गिलास जो शोभा किन्हीं खास-खास अवसरों
पर इस्तेमाल करने के लिए लायी थी, बिना एक
बार भी इस्तेमाल हुए फूस की कतरनों समेत एक गत्ते के डिब्बे में बन्द
थे। शोभा जिस दिन ज़रा खुश होती थी, या ज़्यादा
परेशान होती थी, उस दिन कुछ न कुछ नया खरीद
लाती थी। इसी तरह का उसका खरीदा एक आबनूस का टेबल-लैम्प था जिसमें एक
बार भी बल्ब नहीं लगा था। एक पूरा सेट डाइनिंग टेबल पर बिछाने की
चटाइयों का था जिनके लिए डाइनिंग टेबल खरीदने की योजना बनने के दूसरे
ही दिन रद्द हो गयी थी क्योंकि बीच की रात को मुझे ‘चपर्-चपर्’
की आवाज़ के साथ खाना खाते देखकर उसे उस विचार से ही
वितृष्णा हो गयी थी। कुछ चीज़ें थीं जो शोभा के जाने के बाद मैं अकेले
जी सकने के गुमान में खरीद लाया था। बिजली की केतली,
इस्तिरी, स्टोव,
टोस्टर और फ्राइंग पैन। उनमें
से स्टोव को छोडक़र और किसी चीज़ का प्लग लगाने तक का मुझे उत्साह नहीं
हुआ था।
जो आधा काम तब तक किया था वह था कपड़े-किताबें छाँट
लेने का। बहुत-से कपड़े ऐसे थे जो या तो छोटे हो गये थे या कहीं न
कहीं से फट रहे थे। उन्हें अलग करके काम लायक कपड़ों को एक बक्से में
बन्द कर लिया था। जूता एक भी काम का नहीं था। पर जिस एक के तस्मे ठीक
थे,
उसे पहनकर बाकी को गुसलखाने के पीछे की गैलरी में
डाल आया था जिससे जमादार को उन्हें ले जाने के लिए मुझसे पूछना न
पड़े। किताबों में से जो फट गयी थीं, उन्हें
छोडक़र बाकी को एक बंडल में बाँध लिया था,
हालाँकि जो छोड़ दी थीं,
उनमें से भी कुछेक अब तक पढ़ी नहीं जा सकी थीं।
खट् खट्र खट्र खट्...शायद
अपने कमरे में टहल रही थी। जान-बूझकर पाँव घसीटती हुई। या शायद सचमुच
उससे ठीक से चला नहीं जा रहा था। मुझे लग रहा था जैसे वह आवाज़ ज़्यादा
मुझे सुनाने के लिए ही हो। थोड़ी देर पहले जो उधर से उसकी ‘उँह-उँह,
ओह-ओह’ सुनाई दे रही थी,
उसका भी मुझे कुछ वैसा ही मतलब लग रहा था। अपने
आसपास के सामान को लेकर मैं जिस हताश स्थिति में था,
उसमें कोई मुझे देखे नहीं,
इसलिए मैंने अपनी चटखनी अन्दर से लगा रखी थी। फिर भी चीज़ों के उठाने,
रखने, घसीटने-पटकने की
आवाज़ें, इधर से उधर जा रही थीं। जब भी मेरे
कमरे में कुछ ज़्यादा ऊँची आवाज़ होती, उधर की
‘उँह-उँह, ओह-ओह’
पहले से बढ़ जाती। पहले कुछ देर जैसे वह आवाज़ कम्बल
से ढँकी रही थी, फिर कम्बल से बाहर आ गयी थी।
जब मैं खिडक़ी के पास चला गया, तो वह आवाज़
मद्धिम पड़ते-पड़ते बिल्कुल रुक गयी। कुछ देर बाद दबे-दबे रोने की
आवाज़ आने लगी जिससे मुझे लगा जैसे स्याही में डूबता बाहर का पूरा
दृश्यपट ही हल्के-हल्के कराह रहा हो। मेरे खिडक़ी से हटने तक उस आवाज़
की जगह इस ‘खट् खटर् खटर् खट्’
ने ले ली थी।
शायद अपने कमरे में अकेली थी। उसके अकेली होने पर इस
तरह की आवाज़ें उस कमरे से बहुत कम सुनाई देती थीं। पर दोपहर को उसमें
और कोहली में जो झगड़ा हुआ था,
यह उसकी शिकायत थी, जिसे
कोहली के वापस घर आने तक चलते रहना था। बात मामूली-सी थी। पर शायद
उतनी मामूली नहीं भी थी। कोहली की स्कूल में पूरे दिन की ड्यूटी थी—आखिरी
ड्यूटी—जिसके कारण रात के साढ़े आठ,
नौ तक उसके घर लौटने की सम्भावना नहीं थी। पर एक बजे
लडक़ों को दोपहर का खाना खिलाकर वह न जाने किस वजह से थोड़ी देर के
लिए घर चला आया था। मैंने अपने कपड़ों को कीलों से उतारना शुरू ही
किया था जब उधर ताबड़तोड़ शारदा की पिटाई होने लगी थी। पिटाई उसकी
कोहली पहले भी करता था, पर वक्त देखकर। रात
को सबके सो जाने के बाद। मेरी तरफ़ से भी निश्चिन्त होकर कि या तो मैं
घर पर नहीं हूँ, या उस वक़्त तक मेरे जगे होने
की सम्भावना नहीं है। हाथ भी इतने ज़ोर से नहीं लगाता था कि वह चीखकर
अड़ोस-पड़ोस को जगा दे। फिर भी गिरधारीलाल की बीवी को इसका पता चल ही
जाता था और वह हैरानी से मुझसे पूछती थी, “आप
साथ के कमरे में सोते हैं, आपको पता नहीं
चलता?” मुझे अगर पता चलता भी था,
तो मैं यह जानकारी अपने तक पहुँचाने का श्रेय उसी को
दे देता था। इससे अपनी नज़र में उसका महत्त्व काफी बढ़ जाता था जिससे
वह मेरी ज़्यादा कद्र करती थी। पर कोहली से हममें से कोई भी इस विषय
में बात नहीं करता था। हमें पता था कि शारदा के आने के बाद से उसकी
ज़िन्दगी का हिसाब कई तरह से गड़बड़ाया रहता है। और तो और बेचारे की
उम्र तक का हिसाब और कुछ ठीक नहीं रहा था। मैट्रिकुलेशन सर्टिफिकेट
के हिसाब से उसकी उम्र तैंतालीस साल की थी,
पर अब वह शारदा की उम्र उन्नीस साल बताकर उसका और अपना फ़र्क़ चौदह साल
का बताता था। बीच के दस साल क्या हुए, यह
पूछकर उसका मन खराब करना ठीक नहीं लगता था। यूँ शारदा की शक्ल भी ऐसी
ही थी कि उसकी उम्र का सही अन्दाज़ा नहीं होता था। वह उन्नीस की भी हो
सकती थी और उनतीस की भी। बहरहाल, उन्नीस और
तैंतालीस के बीच कहीं दस साल का घपला था। इसके अलावा भी कई तरह का
घपला था। कोहली के पुराने सूट नये सिरे से कटने और रंगने के बाद बहुत
जल्दी यहाँ-वहाँ से चिन्दी होने लगे थे। फिर भी शुरू के दिनों में
कोहली ने शारदा को बहुत सँभाला था। खाना बनाने के लिए घर में नौकर रख
लिया था और शारदा को नयी साड़ी पहनाकर रोज़ शाम को साथ घुमाने ले जाता
था हालाँकि शारदा सडक़ पर उससे हटकर चलना ही पसन्द करती थी। रात को भी
कोहली देर-देर तक उसकी वजह से जगा रहता था क्योंकि शारदा को बत्ती
बुझी रहने पर अँधेरे से डर लगता था और जली रहने पर नींद नहीं आती थी।
वह रात को कितनी-कितनी बार उठकर गुसलखाने में जाती थी जिसके लिए हर
बार कोहली को खुद उठकर बत्ती जलानी पड़ती थी। अँधेरे में शारदा पलँग
से नीचे पाँव तक नहीं रख पाती थी। उसे लगता था कि कमरे में कोई
चल-फिर रहा है जो उसके पलँग से उतरते ही उसे दबोच लेगा। बत्ती जल
जाने पर वह आदमी न जाने कहाँ जा छिपता था। पर अँधेरे में न सिर्फ़
शारदा को उसके पैरों की आवाज़ सुनाई देती थी,
वह उसे चलते-फिरते देख भी सकती थी। कोहली के यह समझाने का कुछ असर
नहीं होता था कि कमरे की चटखनी अन्दर से बन्द है,
इसलिए कोई बाहर से वहाँ नहीं आ सकता। शारदा फिर भी
कहती रहती थी, “मैंने उसे अभी अपनी आँखों से
देखा है। गले में लाल रंग की कमीज़ थी और नीचे काले रंग की पैंट।
बत्ती जलने से पहले वह वहाँ दरवाज़े के पास खड़ा था।”
धीरे-धीरे कोहली ने बहस करना छोड़ दिया था। रात को
अधजगा रहने से उन दिनों उसे क्लास में नींद आने लगती थी। लोग मज़ाक
करते थे, “क्या बात है कोहली?
नयी शादी की है, इसका यह
मतलब तो नहीं कि रात-रात भर सोओ नहीं। अगर इतना ही प्यार है तो
महीने-दो महीने की छुट्टी लेकर उसे कहीं बाहर ले जाओ। इस पर कोहली के
चेहरे के दो रंग हो जाते थे। ऊपर से वह हँसने की कोशिश करता था,
पर साथ उसके आँखें नीचे को झुकी जाती थीं। वह बहुत
गम्भीर होकर अलग-अलग से हर एक से कहता था, “मुझे
आजकल इन्सोम्निया की शिकायत है। एलोपैथिक की दवाई मुझे रास नहीं आती।
छुट्टियों में नीचे जाकर होमियोपैथिक इलाज करूँगा।”
पर इस बात को लेकर दूसरी तरह से टिप्पणी होने लगी
थी। वह जब भी किसी को अकेला खामोश और उदास नज़र आता,
तो हल्के-से आँख दबाकर उससे पूछ लिया जाता, “तुम्हारा
होम्योपैथिक इलाज कब से शुरू हो रहा है,
कोहली?” आखिर हारकर उसने यह कहना भी छोड़
दिया था। जब उसकी ज़्यादा खिंचाई की जाने लगती,
तो आँखें छत की तरफ उठाए वह चुपचाप
खाँसकर रह जाता था।
कुछ महीने इस तरह निकाल लेने के बाद अपने इस दूसरे
विवाहित जीवन के दूसरे दौर में कोहली के पुरुषत्व ने विद्रोह करना
शुरू कर दिया था। उसने ताक़ीद कर दी थी कि रात-भर कमरे की बत्ती बुझाई
नहीं जाएगी। शारदा के साथ घूमने जाना बन्द कर दिया था। नौकर को निकाल
दिया था। और गाली-गलौज से शुरुआत करके थप्पड़ के इस्तेमाल तक उतर आया
था। इनमें से जिस चीज़ ने शारदा को सबसे ज़्यादा तकलीफ पहुँचाई थी,
वह था नौकर का निकाल दिया जाना। इससे उसका एकमात्र
सुख—दोपहर को बिस्तर में लेटे हुए भूपतसिंह
को आवाज़ देकर खाना नहीं मँगवा लेना—उससे छिन
गया था। जब कोहली ने उससे शादी की, तो अपनी
आमदनी का हिसाब, मकान,
खाना, ट्यूशनें और
यूनिवर्सिटी के पर्चे, सब गिनकर बताया था।
अपनी बैंक की पास-बुक भी दिखाई थी जिसमें दस हज़ार रुपये जमा था। पर
उससे खटपट बढऩे के बाद वह चिल्लाकर कहने लगा था, “दो
सौ रुपये तनखाह में मैं नौकर नहीं रख सकता। आसपास और किसके यहाँ है
नौकर? इतनी तनखाह में रोटी का ही गुज़ारा नहीं
होता, नौकर कौन रख सकता है?”
इधर इसमें एक और वाक्य जुडऩे लगा था, “पता
नहीं यह नौकरी भी रहती है या नहीं!”
भूपतसिंह आदमी भी कुछ अजीब तरह का था। शरीर
दुबला-पतला पर चेहरा काफी चौड़ा। आँखें खामोश शत्रुता के भाव से हर
एक को देखती हुई। सुबह से लेकर रात तक काम करता हुआ भी काफी सुस्त।
काम से फुरसत मिलते ही ज़ीने में बिछकर पड़ जाने वाला। न डाँट-डपट का
कोई असर,
न प्रशंसा का। कड़ी से कड़ी सरदी में भी गला छाती तक
खुला। वह जब तक कोहली के पास था, मैंने कभी
उसे बात करते नहीं सुना। न घर में, न घर से
बाहर। नौकरी छूटने के बाद भी वह वहीं आसपास मँडराता नज़र आता था। या
तो उसे दूसरी नौकरी मिली नहीं थी, या उसने की
ही नहीं थी। कोहली को वह सडक़ पर कहीं खड़ा मिल जाता,
तो कोहली की भौंहें तन जातीं। भूपतसिंह कोहली को
देखकर भी न देखता। आसपास की झाडिय़ों-टहनियों में आँखें उलझाए रहता।
कोहली ऐसे जबड़े सख्त किए उसके पास से गुज़रता था,
जैसे बस चले तो उठाकर खड्ड में फेंक
दे। पर भूपतसिंह शायद गला उघाड़े ही इसलिए रहता था कि दूसरे को उसकी
सख्त हड्डी का अन्दाज़ा हो जाए। कोहली उसे देखकर बिना मुँह खोले
बड़बड़ाता पास से निकल जाता था।
उस दिन दोपहर की लड़ाई भूपतसिंह की वजह से ही हुई थी।
कोहली को घर आने पर वह अपने कमरे में बैठा दिखाई दे गया था। गनीमत थी
कि शारदा उस वक्त गुसलखाने में थी और कोहली को एकाध सवाल पूछने के
बाद चुपचाप उसे बाहर कर देने का मौका मिल गया था। भूपतसिंह फिर से
अपने को उस नौकरी पर बहाल कराने आया था ताकि छुट्टियों में उनके साथ
नीचे जा सके—उसने
कहा भी कि दस रुपये कम तनखाह पर बीबीजी ने उसे रखने की हामी भर दी है—पर
कोहली ने सीधे उसे ज़ीने का रास्ता दिखा दिया। भूपसिंह के जाने के बाद
शारदा बहुत देर तक गुसलखाने से नहीं निकली। अब निकली,
तो कोहली उस पर गरजने के लिए तैयार बैठा था।
‘यह आदमी क्या कर रहा था यहाँ?’
से शुरू करके पन्द्रह-बीस मिनट में ही उसने वह तमाशा
खड़ा कर दिया कि नीचे से रत्ना को बीच-बचाव के लिए आना पड़ा। कोहली
को ड्यूटी के लिए वापस स्कूल जाना न होता,
तो शायद बखेड़ा ज़्यादा देर चलता।
रत्ना ने किसी तरह उसे ज़ीने से नीचे तक पहुँचा दिया जहाँ से
गिरधारीलाल उसे सँभालकर साथ ले गया।
खट् खटर् खटर् खट्...उधर
से शारदा फर्श को काट रही थी, इधर से मैं—पलँगों
को एक तरफ घसीटकर सब चीज़ों को कमरे के बीचोंबीच लाकर पटकता हुआ।
दोनों तरफ़ के दरवाज़े बन्द रहने पर भी जैसे हम लोगों में एक तरह की
बातचीत चल रही थी। वह अपनी ‘खटर्-खटर्’
से मेरा ध्यान अपनी तरफ दिलाना चाहती थी,
और मैं अपनी धम-धपक से उस पर प्रकट करना चाहता था कि
मेरी अपनी ही उलझन इतनी है कि मेरे पास और किसी के लिए समय नहीं है।
सब चीज़ों को एक जगह जमा कर लेने का खब्त मुझे क्यों सवार हुआ था,
कह नहीं सकता। उससे चीज़ें व्यवस्थित होने की जगह और
भी उलझती जा रही थीं। जगह इतनी नहीं थी कि उन्हें अलग-अलग हिस्सों
में बाँटकर रखा जा सकता। जहाँ पहले वे दस अलग-अलग समस्याओं की शक्ल
में थीं, वहाँ अब एक ही बड़ी-सी समस्या का
रूप धारण कर रही थीं। फिर भी ज्यों-ज्यों अम्बार बड़ा हो रहा था,
मुझे लग रहा था जैसे कोई चीज़ मेरे लिए आसान होती जा
रही हो। मुझे अगर उन सब चीज़ों से अपने को मुक्त करना था,
तो अब एक ही झटके में कर सकता
था। बरामदे से कमरे और कमरे से गुसलखाने में जाते हुए दस बार सोचने
की ज़रूरत नहीं थी कि किस चीज़ का क्या करना चाहिए।
अलमोनियम के उन फूलदानों को,
जो शोभा ने शादी से चार-पाँच दिन पहले मुझे खरीदकर
दिये थे और जिनकी बाद में हम दोनों में से किसी को याद नहीं रही थी,
उस ढेर में रखते हुए मैंने साथ के कमरे की चटखनी
खुलने और खड़ाऊँ की खटर्-खटर् के अपने दरवाज़े
तक आने की आवाज़ सुनी। कुछ पल दोनों तरफ प्रतीक्षा की खामोशी रही। फिर
शारदा ने हल्के से दरवाज़ा खटखटा दिया। मैंने मुँह और आँखें सिकोडक़र
अपनी झुँझलाहट को थोड़ा कम किया और दरवाज़ा खोल दिया। शारदा बहुत
बिखरे ढंग से बाहर खड़ी थी। साड़ी पेटीकोट से तीन-तीन इंच ऊँची। सिर
के बाल जैसे धुनकी से धुने गये। ब्लाउज़,
ब्रेसियर और शरीर—तीनों का कसाव अलग-अलग।
आँखें आक्रोश से भरकर अपने हाल पर रहम खाती हुई, “कहिए।”
मैंने बहुत शिष्टता के साथ
कहा। ऐसे जैसे दोपहर की घटना का मुझे बिल्कुल पता ही न हो।
“क्या बजा है अब?”
उसने पल-भर सीधे मुझे देखते रहने के
बाद एक नज़र अन्दर के सामान पर डाल ली।
“सात बीस। नहीं,
उन्नीस”
मैंने घड़ी देखते हुए इस तरह कहा जैसे एकाध मिनट के
फ़र्क़ पर किसी चीज़ का बनना-बिगडऩा निर्भर हो।
“इनकी ड्यूटी कितने बजे तक रहेगी?”
“आठ बजे तक। लेकिन लौटने में साढ़े
आठ, नौ बज सकते हैं।”
वह पल-भर रुकी रही। शायद कुछ और कहना या पूछना चाहती थी। पर मेरे
ठंडे लहज़े को देखकर वह बात ज़बान पर नहीं ला पायी। आहिस्ता से आँखें
झपकाकर अपने कमरे की तरफ़ मुड़ गयी। मैंने इस बार दरवाज़ा भिड़ाकर
चटखनी नहीं लगायी। अपने सामान के पास आकर इस तरह खड़ा हो गया जैसे वह
सब भी शारदा के अस्तव्यस्त व्यक्तित्व जैसा ही कुछ हो,
जिससे शिष्टतापूर्वक दो शब्द कहकर
अपने को उससे अलग किया जा सकता हो।
आध-पौन घंटा और उसी तरह बीत गया। उन सब चीज़ों से अलग
हटकर उनके बारे में सोचते हुए। क्या यह उचित था कि उन्हें वहीं
बैरों-चपरासियों में बाँट दिया जाए?
या कि बड़े बक्से में जितना सामान आ सके उसे पार्सल
से शोभा के पास भेज देना ज़्यादा ठीक था? इतना
निश्चित था कि अपने लिए मुझे उससे ज़्यादा सामान नहीं रखना था जितना
जहाँ कहीं भी साथ ले जाया जा सके। अपने आगे के कार्यक्रम के बारे में
बहुत तरह से सोचकर भी मैं इससे ज़्यादा कुछ तय नहीं कर पाया था कि जब
तक स्कूल से मिले पैसे साथ देंगे, तब तक मुझे
किसी एक जगह नहीं रहना है—उस शुरुआत से पहले
एक बार शोभा से मिल लेना चाहिए या नहीं, इसका
कुछ निश्चय नहीं कर पाया था। एक बात मन में आती थी कि सामान शोभा के
सुपुर्द करने के बहाने एक बार वहाँ जाया जा सकता है। इससे उसे इस बात
की शिकायत नहीं रहेगी कि मैंने अपने निर्णय के सम्बन्ध में उससे एक
बार बात भी नहीं की! पर वहाँ जाने में सबसे बड़ी बाधा थी उस घर के
लोग, जिनके सामने चेहरा बनाए रखने के लिए
किसी दूसरी तरह की शुरुआत में उलझ जाना पड़ सकता था। ‘मुझे
जिन चीज़ों से अपने को मुक्त करना है, वे बाद
में किसके पास रहती हैं, या उनका क्या होता
है, इसकी चिन्ता मैं क्यों कर रहा हूँ?’
मैंने अपने से कहा और कुछ क्षणों के लिए जैसे सचमुच
उस सबसे उबर लिया। परन्तु कमरा पार करते हुए फिर अपने को उन सब चीज़ों
से घिरे हुए पाया—फिर से उसी चिन्ता से
परेशान कि आखिर उस सबके बारे में अन्तिम निर्णय क्या रहा—उसे
शोभा के पास भेज देने का, साथ ले जाने का,
लोगों में बाँट देने का, या
उसी तरह वहीं पड़ा छोड़ जाने का?
अँधेरा हो जाने से बाहर का दृश्यपट बिल्कुल बुझ गया
था। दोनों सोफ़ा-चेयर जिन पर शोभा और मैं आमने-सामने बैठा करते थे,
खाली पड़े एक-दूसरे को तक रहे थे। मेज़ मैंने साफ कर
दी थी। सिवाय स्याही के कुछ निशानों के मेरे वहाँ बीते दिनों का कुछ
भी आभास उससे नहीं मिलता था। वह उस समय उतनी ही खस्ता और नंगी थी
जितनी उस दिन जिस दिन पहली बार वहाँ आने पर मॉली क्राउन ने कमरे का
सामान मुझे दिखाया था। मैं यह भी नहीं कह सकता था कि वे निशान मेरे
ही दिनों के थे। उनमें से कुछेक पहले के भी हो सकते थे। “हम
इसे पेंट करा देंगे।” पहले दिन मॉली क्राउन
ने कहा था। पर तब से अब तक उसके पेंट होने की नौबत नहीं आयी थी।
‘मेरे बाद में आनेवाले आदमी से भी शायद वह
यही कहेगी’ मैंने सोचा, ‘और
वह भी कुछ साल मेरी तरह एक आशा और भरोसे में काट देगा।’
करने को बहुत कुछ था,
फिर भी मुझे कुछ भी करने को नहीं सूझ रहा था। खाने
का डिब्बा स्कूल से आ गया था। पर ज़्यादा से ज़्यादा देर मन को उससे
परे रखकर मैं उसके प्रति अपनी उपेक्षा प्रकट कर लेना चाहता था।
‘आज आखिरी बार होगा जब मैं यह सड़ा हुआ खाना
खाऊँगा,’ इस दिलासे से मैंने स्टोव पर उसे
गरम करने का इरादा भी छोड़ दिया था। ‘जाते
हुए इसकी असलियत को याद रखने के लिए इसे ठंडा ही खाना चाहिए,’
यह जैसे मैंने अपने से नहीं,
खाने के उस डिब्बे से कहा था जो
क्षमा-याचना की स्थिति में एक तरफ पड़ा अपनी और स्कूल की तरफ से मेरे
सामने लज्जित हो रहा था।
खट्-खट्-खट्...दरवाज़े
पर फिर से दस्तक सुनकर मैंने किवाड़ खोल दिये। इस बार भी शारदा ही थी
“अभी नौ नहीं बजे?”
उसने मुझे देखकर कुछ सकपकाहट के साथ
पूछ लिया।
“नहीं। अभी आठ दस हुए हैं।”
“कुल आठ दस?”
उसे जैसे मेरी घड़ी पर विश्वास नहीं
आया।
“मेरी घड़ी में एकाध मिनट से ज़्यादा
का फ़र्क़ नहीं हो सकता।”
वह इस बार आँखें झपकाकर लौटी नहीं;
उसी तरह खड़ी रही।
“आज ड्यूटी का आखिरी दिन है,
इसलिए हो सकता है कोहली को लौटने में थोड़ा और समय
लग जाए।” कुछ पल
प्रतीक्षा करने के बाद मैंने फिर कहा।
उसके चेहरे पर निराशा का भाव नहीं आया। उसने जैसे
आँखों से कहना चाहा कि यह बात वह पहले से जानती है।
“आप घर बिल्कुल खाली करके जा रहे हैं?”
थोड़े और वक्फे के बाद वह बात
को दूसरे विषय पर ले आयी।
मैंने आँखें झपकाकर सिर हिला दिया।
“सारा सामान साथ ले जाएँगे?”
“कुछ ले जाऊँगा,
कुछ यहीं छोड़ जाऊँगा।”
“यहाँ क्यों छोड़ जाएँगे?”
मुझे कुछ अटपटा लगा। इतनी बात उसने मुझसे कभी नहीं की
थी।
“बहुत-सी चीज़ें हैं जिनकी ज़रूरत नहीं
पड़ेगी।” मैंने बात
छोटी करने के लिए कहा।
“मैं तो सोच रही हूँ कि अपना सारा
सामान ले जाऊँगी।”
कहते हुए जैसे मेरे सामान पर ठीक से नज़र डालने के लिए वह दहलीज़ लाँघ
आयी।
मैंने जान-बूझकर उसकी बात का वह मतलब नहीं लिया। कहा,
“कोहली ने तो ऐसा कुछ नहीं बताया।”
“उन्हें भी अभी पता नहीं है।”
वह कमरे में इस तरह नज़र दौड़ाती बोली,
जैसे यहाँ की हर चीज़ की अपने घर की चीज़ों से तुलना
कर रही हो। “मैं अब आने पर उन्हें बताऊँगी।
मैं इस आदमी के साथ और नहीं रह सकती।”
उसकी आँखें मुझसे मिल गयीं। मेरी प्रतिक्रिया जानने
के लिए,
या वैसे ही। कुछ और ही तरह की थीं उसकी आँखें। जैसे
शीशे की बनी। अपनी चमक के बावजूद निर्जीव। मैं अपने सामान की तरफ
देखता हुआ चेहरे पर व्यस्त भाव ले आया। उस भाव का अर्थ यह भी था कि
मुझे इससे कुछ भी फ़र्क़ नहीं पड़ता कि तुम उस आदमी के साथ ज़िन्दगी भर
रहती हो या आज ही उसे छोडक़र चली जाती हो। मेरे लिए इससे,
बल्कि तुम्हारे समूचे अस्तित्व से ज़्यादा
महत्त्वपूर्ण यह चीज़ है कि मुझे सोने से पहले क्या-क्या करना और
क्या-क्या समेटना है? इसलिए तुम्हारा इस वक़्त
यहाँ होना मेरे लिए एक खामखाह की उलझन है,
जिसे टालने के लिए मुझे जल्दी से सोचना है कि मुझे क्या ऐसा सोचना
चाहिए जिससे तुम बिना ज़्यादा सवाल किये अपने कमरे में वापिस चली जाओ।
पर सामान से मुझे पहले ही इतनी घिन हो रही थी कि ज़्यादा देर मैं उन
चीज़ों पर आँखें नहीं टिकाए रह सका। मेरी आँखें फिर उसकी तरफ़ मुड़ीं
तो वह उसी तरह मुझे देख रही थी। चेहरे पर वही ढीला भाव जो उसके
लेसदार पेटीकोट और उखड़ी हुकों वाले ब्लाउज़ में था। नाम के लिए उसने
कन्धे पर शाल ले रखा था। पर वह इस तरह अलग से झूल रहा था जैसे कन्धा
एक खूँटी हो जो उसे लटका रखने के काम आती हो। ब्लाउज़ यूँ तो सफेद था,
पर गले से लेकर नीचे तक खुलनेवाले पूरे हिस्से पर
मैल की लकीर थी—वैसी ही लकीर अन्दर से दिखाई
देते ब्रेसियर के सिरों पर भी थी। लगता था कि वह स्त्री न तो
हफ्ता-हफ्ता भर नहाती है और न ही अन्दर से कपड़े बदलती है। ब्रेसियर
में कसे, फिर भी ठीक से न कस पाये,
मांस-पिंडों की खुश्की भी इस चीज़ की साक्षी थी।
‘कोहली ने दिन में इसे बुरी तरह पीट दिया था,
उसके बाद तो कम से कम एक बार इसे नहा ही लेना चाहिए
था,’ मैंने सोचा, ‘पर
उसके लिए शायद हर चीज़ नहाने से बचने का बहाना बन जाती थी।’
“आप जाकर बहनजी से मिलें,
तो उन्हें भी बता दीजिएगा।”
वह मुझसे उत्तर न पाकर बोली, “उनसे तो मैं
पहले भी कहा करती थी, मेरा इस आदमी के साथ
गुज़ारा नहीं है। मेरे माँ-बाप ने पता नहीं क्या देखकर मुझे इसके साथ
ब्याह दिया। यह भी कोई आदमी है जिसके साथ एक लडक़ी ज़िन्दगी काट सके!
मेरी अभी उम्र ही क्या है! जब शादी हुई, तब
मैं पूरे उन्नीस की भी नहीं थी। मेरे माँ-बाप ने इतने दिन दौड़-धूप
करके मेरे लिए ढूँढ़ा भी तो यह आदमी! मुझे उन पर तरस आता है कि अब
नये सिरे से उन्हें मेरे लिए सब कुछ करना पड़ेगा। बेचारों ने पहले ही
गरीबी में मुश्किल से ब्याह का खर्च उठाया था। अब दूसरी बार पता नहीं
कहाँ से जुगाड़ करेंगे। पर मैंने सोच लिया है,
मुझे चाहे सारी उम्र कुँवारी रहना पड़े,
मैं इस आदमी के साथ और एक दिन भी नहीं रहूँगी।
इसीलिए अपना सारा सामान मैं साथ ले जा रही हूँ। बिल्कुल नया सामान है
सारा। यहाँ इसके पास मैं किसलिए छोड़ जाऊँ?
मुझे तो फिर भी कोई न कोई मिल ही जाएगा, इसे
कोई मेहरी-चमारी भी नहीं मिलने की घर बसाने को। घर उसका बस सकता है
जो और कुछ न हो, आदमी तो हो। यह तो आदमी ही
नहीं है। इसका घर क्या बसेगा?”
वह बात करती हुई अपने गले की हड्डी को सहला रही थी।
उसके नाखून बड़े-बड़े थे—बगैर
किसी कोशिश या तराश के बढ़े हुए। उँगलियाँ पूरे शरीर की तरह गठी हुई
और बेतरतीब। मुझे कोहली पर गुस्सा आ रहा था। उसे उस औरत से शादी करना
क्यों इतना ज़रूरी लगा था? और लगा ही था,
तो क्या आज के दिन ही उसे उसकी पिटाई करनी थी जिससे
मेरे जाने से पहले मेरे कमरे में आकर वह मुझे अपने बेढंगेपन से
दो-चार होने का नायाब मौका बख्श दे?
“मेरा ख्याल है आपको अभी कुछ देर
आराम करना चाहिए।” मैंने कहा, “और
जो भी फैसला करना हो, ठीक से सोच-समझकर करना
चाहिए ताकि...”
“मैंने सब सोच-समझ लिया है जी,”
अब उसकी उँगलियाँ उसी हिस्से को खुजलाने लगीं।
“इतने दिन इसके साथ रह लेने के बाद भी अभी
सोचना-समझना बाकी है? आप अगर देखें न कैसे
इसने मेरी हड्डी-पसली एक की है आज, तो आप
ज़बान पर भी न लाएँ यह बात।”
“खैर, आप
ज़्यादा जानती हैं आपके लिए क्या ठीक है...”
मुझे डर लगा कि कहीं वह सचमुच ही मुझे अपनी हड्डी-पसली न दिखाने लगे।
“...मैं तो आपसे इसलिए कह रहा था कि...”
“मुझे पता है आप किसलिए कह रहे हैं।”
उसके स्वर में और आत्मीयता भर आयी, “आप
मेरा भला चाहते हैं और भला चाहने वाला हर आदमी यही कहेगा कि अगर किसी
तरह निभ सकती हो, तो एक औरत को निभा लेनी
चाहिए। मैं खुद शोभा बहनजी से यही कहा करती थी। मैं कहती थी कि भाई
साहब में और कितनी बुराइयाँ हों, कम से कम वे
अपनी औरत पर हाथ तो नहीं उठाते। एक औरत और सब कुछ सह सकती है जी,
पर मार खाना कभी बरदाश्त नहीं कर सकती। आजकल कोई
ज़माना है मार खाने का? हम आजकल की औरतें हैं,
उस ज़माने की नहीं जब मरद लोग चादर डालकर उन्हें पीट
लिया करते थे। उस ज़माने में तो किसी औरत की दूसरी शादी हो ही नहीं
सकती थी। पर आजकल तो औरत भी चाहे, तो दूसरी
शादी कर सकती है। सरकार ने इसके लिए कानून ऐसे ही नहीं बनाया। शोभा
बहनजी की मैं इस बात के लिए तारीफ करती थी। उन्होंने बिल्कुल नये
ज़माने की बनकर दिखा दिया था। मैं इस आदमी से इतनी बार कह चुकी हूँ कि
शोभा बहनजी को देखो और आज के ज़माने को समझो। यह पहले वाला ज़माना नहीं
है।”
मैं नहीं सोच पा रहा था कि घिसी चप्पल,
फटे पैरों और स्याह टखनों वाली उस आजकल के ज़माने की
औरत को उसके पति के लौटने से पहले उसके कमरे में वापस भेजने के लिए
मुझे क्या करना चाहिए। मैं इतना रूखा भी नहीं होना चाहता था कि उसका
गुबार कोहली की जगह मेरे ऊपर निकलने लगे। वह जिस तरह खड़ी थी,
उससे लगता था कि तुरन्त वापस दहलीज लाँघने का उसका
कोई इरादा नहीं है। वह बात कोहली के और अपने सम्बन्ध को लेकर कर रही
थी, पर नज़र उसकी मेरे साथ-साथ कमरे के फर्श
पर बिखरी एक-एक चीज़ का जायज़ा ले रही थी। वह शायद मन में उन चीज़ों की
कीमतों का अन्दाज़ा लगा रही थी और सोच रही थी कि अगर सचमुच मैं कुछ
चीज़ें वहाँ छोड़ जाना चाहता हूँ, तो वे चीज़ें
कौन-सी हो सकती हैं। जिन चीज़ों से उसकी आँखें बार-बार टकराती थीं,
वे थीं टोस्टर, केतली,
इस्तिरी और उसी तरह का दूसरा
सामान जो उसकी दूसरी शादी के दहेज में काम आ सकता था। चीज़ों से हटकर
उसकी आँखें मेरे चेहरे पर आ टिकती थीं तो कुछ वैसी ही रुचि उसकी मुझे
अपने में नज़र आने लगती थी।
“साढ़े आठ हो गये हैं।”
मैंने जैसे उसे समय की चेतावनी देते हुए कहा,
“कोहली अब आता ही होगा। मुझे भी जल्दी से यह काम
पूरा करके कुछ देर के लिए बाहर जाना है। कई लोग हैं जिनसे मिलना है।”
यूँ मिलना मुझे किसी से नहीं
था। बाहर जाने का भी मेरा कोई इरादा नहीं था।
“आप बताइए,
क्या-क्या काम है।” वह बोली, “मैं
आपकी कुछ मदद करा देती हूँ। शोभा बहन जो यहाँ होतीं,
तो आपको अपने हाथों से कुछ भी न करना पड़ता। हम
दोनों मिलकर सब कर देतीं।”
“नहीं, मदद
से होने का काम नहीं है।” मेरी अस्थिरता बढऩे
लगी। सबसे बड़ा काम तो कागज़ों को छाँटने का है। वह सिर्फ मैं ही कर
सकता हूँ।”
“काम तो यहाँ कितना ही नज़र आ रहा है।”
वह सामान के गिर्द घूमती बोली, “कितनी
ही चीज़ें शोभा बहनजी ने उधर गुसलखाने में भर रखी थीं। पता नहीं उनका
आपको पता भी है या नहीं।”
और वह इतमीनान से चलती गुसलखाने में पहुँच गयी। मैंने
मन में पहले से ज़्यादा कुढक़र एक सिगरेट सुलगा लिया।
“यहाँ कितना कुछ बिखरा पड़ा है।”
गुसलखाने से उसकी आवाज़ आयी, “यह
सन्दल सोप की टिकिया आप ऐसे ही फेंक जाएँगे?”
उसका ढंग आवाज़ देकर उधर बुलाने का था। मुझे कोफ्त हुई
कि क्यों नहीं मैंने सन्दल सोप की टिकिया भी उधर से इधर ला रखी। कुछ
देर इन्तज़ार करने के बाद वह फिर वहीं से बोली,
“यह आईना भी पड़ा है एक। यह आपका है या स्कूल का है?”
“कुछ सामान उधर पड़ा है,
मुझे मालूम है।” मैंने धुएँ
में अपनी झुँझलाहट निकालते हुए कहा, “उसे
मुझे अभी बाद में देखना है।”
मैं दो-एक कदम गुसलखाने की तरफ बढ़ गया,
पर दरवाज़े से आगे नहीं गया। वह सन्दल सोप की टिकिया
हाथ में लिये आईने में अपने को देख रही थी। सन्तुष्ट होकर कि आईने
में उसका रूप वैसा ही नज़र आता है जैसा कि आना चाहिए,
उसने एक उड़ती नज़र मुझ पर डाली—एक
पुरुष की साहसहीनता का उपहास उड़ाती स्त्री की नज़र। फिर बाहर को आती
बोली, “कितनी कीमती-कीमती चीज़ें फेंक रखी हैं
आपने इधर-उधर। घर की चीज़ों की कद्र दरअसल औरतों को ही होती है। मरदों
को तो किसी चीज़ की कद्र होती ही नहीं।” और वह
दोनों चीज़ें मेरी तरफ बढ़ाती मुस्करा दी। “इन्हें
कहाँ रख दूँ?”
“यहीं कहीं रख दीजिए।”
मैंने कहा, “या अगर उधर काम
में आ सकती हों, तो...”
“ना बाबा!”
वह जैसे अपराध से बचने के लिए सिर हिलाती बोली, “मैं
किसी की कोई चीज़ नहीं लेती। शोभा बहनजी को पता चले,
तो मन में क्या सोचेंगी?”
“उन्हें पता चले,
तभी न वे सोचेंगी?”
वह फिर मुस्करा दी।
“आप क्या उन्हें बताएँगे नहीं?
वे पूछेंगी नहीं आपसे कि फलाँ चीज़ कहाँ गयी,
या आपने किसे दे दी?”
वह जाने दाँतों पर मिस्सी मलती थी या क्या—उसके
दाँतों की दरारें काली हो रही थीं। दाँतों के अन्दर से ज़बान की नोक
मुस्कराने पर बाहर झाँक जाती थी।
“काम में आ सकती हों,
तो सचमुच रख लीजिए।” मैंने
कहा, “यहाँ बहुत-सी चीज़ें ऐसी हैं जो...”
“ना बाबा!”
वह फिर उसी तरह बोली, “शोभा बहनजी से तो मैं
माँगकर ले भी सकती थी। पर उनके पीछे से उनकी कोई चीज़ मुझे नहीं लेनी
है। कल को आप लोग कभी घूमने के लिए ही यहाँ आयें और शोभा बहनजी देखें
कि उनकी कोई चीज़ मेरे पास पड़ी है, तो वे मन
में न जाने इसका क्या मतलब निकालेंगी?” और
अपनी मुस्कराहट को होंठों में ही दबाए उसने कहा, “अच्छा,
आप लोग कभी मिलने के लिए तो आया करेंगे न?”
पर इससे पहले कि मैं जवाब देता,
ज़ीने पर कोहली के पैरों की आवाज़ सुनाई दे गयी। वह
इससे थोड़ा सकपका गयी—साथ उसे ध्यान हो आया
कि कुछ देर पहले वह हमेशा के लिए उस घर से जाने की बात कर रही थी।
“शोभा बहनजी से मेरी नमस्ते कह दीजिएगा।”
वह जल्दी से दोनों चीज़ें रखकर बाहर निकलती बोली,
“पता नहीं फिर कभी उनसे मुलाकात होगी या नहीं। मैं
पता नहीं इसके बाद कहाँ रहूँ, आप लोग कहाँ
रहें...मेरी नमस्ते ज़रूर कह दीजिएगा।”
कोहली ऊपर पहुँच गया था। वह उसके सामने से निकलकर
अपने कमरे में पहुँच गयी। कोहली ने एक हारी-सी नज़र मुझ पर डालकर उसे
अन्दर जाते देखा और गन्दले पानी में चुपचाप गोता लगा जाने की तरह
उसके पीछे जाकर अन्दर से चटखनी लगा ली।
मैंने भी वही किया—उसी
तरह अपने कमरे की चटखनी लगा ली। सोचा, ‘अच्छा
है कोहली ने मुझसे बात नहीं की, नहीं तो मैं
खामखाह उसके सामने कुछ अव्यवस्थित महसूस करता और वह भी शायद कुछ
ज़्यादा ही शक अपने मन में लेकर जाता। कुछ देर मैंने सुनने की कोशिश
की कि शायद उधर फिर से उनका लड़ाई-झगड़ा शुरू हो। पर वहाँ ऐसी खामोशी
छाई थी जैसे उन दोनों ने अन्दर जाते ही अपनी-अपनी जगह साँस रोककर
बैठे रहने का समझौता कर लिया हो। अगर मैंने अपनी आँखों से उन्हें
अन्दर जाते न देखा होता, तो मुझे लगता कि उस
पोर्शन में उस समय कोई है ही नहीं। इससे अपने फर्श पर चलते हुए मुझे
अपने पैरों की आवाज़ कुछ ज़्यादा ही ऊँची—बल्कि
कुछ हद तक डरावनी महसूस होने लगी। मैं कोशिश करके हलके पैरों चलता
बरामदे में आ गया।
मेरा सिगरेट बिना पिये झड़-झडक़र उँगलियाँ जलाने को आ
रहा था। उसे फर्श पर गिराकर मैंने पैर से मसल दिया। मन को फिर एक बार
तैयार करना चाहा कि बिखरे सामान का कुछ कर सकूँ। पर हाथों में उसके
लिए उत्साह नहीं ला सका। वह सब सामने होते हुए भी जैसे मेरे लिए एक
ऐसा अतीत था जिसे समेटने का तरद्दुद मुझसे नहीं बन पड़ रहा था। मन कह
रहा था कि यदि किसी तरह उस सबको समेट भी लिया जाए तो क्या उसे साथ
ढोने का उत्साह मैं अपने में ला पाऊँगा?
‘सिर्फ एक रात बीच में है,’
मैंने सोचा। ‘तभी तक इन सब
चीज़ों से किसी न किसी रूप में जुड़े होने की मजबूरी है। कल एक बार
यहाँ से निकल जाने के बाद इनके सम्बन्ध में सोचने की मजबूरी भी नहीं
रहेगी। मुझे तब तक कुछ करना है, तो यही कि
बीच का समय किसी तरह निकाल देना है।’
मैंने बरामदे में आकर कुर्सियों को एक तरफ घसीट दिया
ताकि वहाँ पलँग बिछाने की जगह हो जाए। कमरे में पलँग बिछाने के लिए
उन सब चीज़ों को नये सिरे से इधर-उधर हटाना पड़ता। पलँग की मैली
नेवाड़ पर पड़े दाग बरामदे की सिमटी हुई रोशनी में ज़्यादा भोंडे और
घिनौने लगे। मैट्रेस,
चादर, तकिया और रजाई पलँग पर
पटककर मैंने उन दागों को ढँक दिया। टिफिन-कैरियर खोलकर जल्दी-जल्दी
ठंडा खाना निगल लिया—जैसे
कि वह एक जेल के अन्दर अपनी सज़ा के आखिरी दिन का खाना हो। उसके बाद
बिस्तर को ठीक किया और ज़बरदस्ती नींद लाने के लिए बत्तियाँ गुल करके
लेट गया।
पर नींद नहीं आयी। इस करवट,
उस करवट, सीधे,
उलटे, किसी भी तरह नहीं। लग
रहा था जैसे वह अतीत जिसे पीछे कमरे में छोडक़र मैंने बीच का दरवाज़ा
बन्द कर लिया है, वह मेरी ही तरह उस तरफ
करवटें बदल रहा हो। बार-बार मुझे एहसास करा रहा हो कि मेरी कोशिश के
बावजूद वह मुझसे कटा नहीं है। वह वहाँ है—उतना-उतना
ही सजीव, निश्चित और प्रताडऩामय। जिस कमरे
में उसे बन्द कर दिया गया है,
वह कमरा मेरे अन्दर आ समाया है और किवाड़ भिड़ा लेने
या चटखनी लगा लेने से मैं अपने को उससे मुक्त नहीं कर सकता।
न जाने कितना समय नींद लाने की कोशिश में निकल गया।
नींद की टिकिया पास में नहीं थी,
नहीं तो उन्हीं के सहारे सो जाने की कोशिश करता।
बहुत पहले एक बार एक शीशी लाकर रखी थी। कर्नल बत्रा के मना करने के
बावजूद। उसमें से एक टिकिया एक बार खाई भी थी पर बाद में वह शीशी घर
में दिखाई ही नहीं दी। शायद शोभा ने उठाकर कहीं रख दी थी,
या फेंक दी थी। यह शायद उसने इसलिए किया हो कि शीशी
के बाहर मोटे लाल अक्षरों में छपा था—ज़हर।
शोभा ऐसी चीज़ों से बहुत डरती थी, जिनमें जान
ले लेने की क्षमता हो—बिच्छू-साँप से लेकर
गैस के स्टोव तक। इसीलिए वह कोयले जला-जलाकर हाथ काले करती रहती थी।
उस समय भी जैसे वह उन्हीं काले हाथों से मेरे अन्दर के कमरे में रखी
एक-एक चीज़ को उठाकर देख रही थी। मैं खिडक़ी के शीशे पर आँखें गड़ाये
अपना ध्यान झरने की आवाज़ पर केन्द्रित करने की कोशिश कर रहा था। पर
उस आवाज़ से ज़्यादा ध्यान खींच रही थी वह खामोशी जो दरवाज़े की दरारों
से सटी पीछे कमरे की मुरदा हलचल का आभास दे रही थी। ज़रा देर आँख
मूँदते ही लगने लगता था कि शोभा ने वह आईना अपने हाथ में उठा लिया है
जिसमें थोड़ी देर पहले शारदा अपना चेहरा देख रही थी। उसे रखकर वह
पलँग की नेवाड़ कसने लगी है। डाइनिंग टेबल की चटाइयों को खोलकर देखने
लगी है। सिर्फ ब्लाउज़-पेटीकोट में बड़े-बड़े कोयलों को तोडक़र उनके
टुकड़े करने लगी है। तब मैं आँखें खोलकर फिर सामने के अँधेरे को
देखता। लगता कि झरने की आवाज़ के साथ-साथ पानी के रास्ते में खड्ड में
उतरा जा रहा हूँ। मेरे पीछे-पीछे बॉनी अपने कोट में सिमटी चल रही है।
वह पीछे से आवाज़ देकर मुझे रोकना चाहती है। कहना चाहती है कि ज़रा-सा
पाँव फिसल जाने से मैं खड्ड में गिरकर चूर-चूर हो सकता हूँ। पर मुझे
लौटकर उसी रास्ते चढ़ाई चढऩे के विचार से ही दहशत होती है। मैं
विश्वास किए रहना चाहता हूँ कि खड्ड का वह रास्ता ही आगे चलकर सीधी
सडक़ में बदल जाएगा। फिर सहसा मैं चौंक जाता। कमरे में कोई खटका न
होने पर भी लगता जैसे वहाँ खटका हुआ हो। आभास होने लगता कि गुसलखाने
के पीछे की सीढ़ी से शारदा कमरे में चली आयी है। कोहली को बाहर रखकर
उसने अन्दर की चटखनी लगा ली है और कमरे की एक-एक चीज़ को उठाकर देख
रही है। परख रही है कि वह उसके किसी काम आ सकती है या नहीं। चीज़ों को
रखते-उठाते हुए उसकी आँखें किसी और चीज़ को भी खोज रही हैं और उसी खोज
में उसने अपनी आँखें दरवाज़े की दरार से सटा ली हैं। मैं तब तीन-चार
तरह से करवट बदलकर उस सबको दिमाग से झटकने की कोशिश करता। अपने सिर
को हल्के-हल्के तकिये पर पटकता कि क्या किसी भी तरह मुझे नींद नहीं आ
सकती?
दो-तीन-चार हल्के-हल्के सफेद चकत्ते खिडक़ी के शीशे पर
आ जमने से लगा कि बाहर फिर बरफ गिरने लगी है। शाम तक बरफ के आसार
नहीं थे,
इसलिए थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। कोशिश करके देखने से
हवा में उड़ते हल्के-हल्के फाहों की झलक भी दिख गयी। ‘चलो,
जाने से पहले एक बरफ और देख ली,’
इस ख्याल में मैंने अपने मन को रुझा लेना चाहा। बरफ
बहुत हल्की थी। फिर भी अँधेरा उन छोटे-छोटे रेशों की उड़ान से
भरा-भरा लग रहा था। सडक़ की खामोशी टूट गयी थी। उस पर कोई एक या दो
व्यक्ति जल्दी-जल्दी चलकर जा रहे थे—शायद बरफ
से बचकर जल्दी से घर पहुँचने के लिए। ‘शायद
चेरी और लारा होंगे,’ मैंने सोचा, ‘आज
भी खाने के बाद रोज़ की तरह सैर करने निकले होंगे।’
पर तभी लगा कि आवाज़ उनके क्वार्टर की
तरफ़ न जाकर बिल्कुल दूसरी तरफ़ जा रही है। मैंने ध्यान हटा लिया।
खिड़कियों पर बरफ के अलावा सीलन भी फैल गयी थी—मेरे
आसपास की हवा भी सीलन से भारी होने लगी थी। दो-एक बार सीलन की खुशबू
अपने अन्दर खींचने के बाद मैंने फिर अपने को तकिये पर ढीला छोड़
दिया। अँधेरे और खामोशी में छिपी वही हलचल फिर से शुरू हो गयी। शोभा—बिस्तर
में करवट बदलती, कॉलिक से कराहती और कर्नल
बत्रा की दवाई लेने से इनकार करती। शारदा—ब्लाउज़
की हुकें खोलकर अपने हाथों से आज़माती कि उसका शरीर अब तक कितना युवा
है। कोहली—अधनींदी आँखों से ब्लैकबोर्ड पर
बड़ी-बड़ी रकमों का जोड़ करता। कॉमन रूम से गुज़रते पैर—बरफ
के गीलेपन की छाप छोड़ते। टोनी व्हिसलर—कोट
की जेबों में हाथ डाले ग्रेस के शब्द कहता। चेरी और लैरी—कामन
रूप में अलग-अलग खिड़कियों के पास खड़े। मिसेज़ ज्याफ्रे—आधा
मेकअप किए अपनी आई-ब्रो पैंसिल ढूँढ़ती। जिनी ब्राइट—नोटिस
बोर्ड पर नोटिस पिन करता। रोज़ ब्राइट—माथे पर
त्यौरी डाले मंच से ग्रीन रूप में आती। पादरी बेन्सन—छड़ी
हाथ में लिए अकेला सडक़ पर घूमता। मिसेज़ दारूवाला—कई
तरह की कास्मेटिक्स की शीशियाँ लिये माल से उतरकर आती। माली क्राउन—भरी
हुई खाने की मेज़ पर बैठकर चावल का एक-एक दाना चुगती। बॉनी हाल—बरफ
के गोले बना-बनाकर घाटी में उछालती। जैने व्हिसलर...
मैं बिस्तर में बैठ गया। लगा कि लेटे रहने से इस
निरन्तर चलते परिदृश्य से नहीं बचा जा सकता। नीचे फर्श पर पाँव रखने
से फर्श काफी ठंडा लगा। साथ ऐसा आभास हुआ जैसे दरवाज़े के उस तरफ कमरे
में कोई कराह रहा हो। आवाज़ इतनी सजीव थी कि उसे अपने दिमागी फितूर का
हिस्सा नहीं माना जा सकता था। मैंने कुछ देर रुककर टोह ली। मन में
हल्का-सा डर भी आ समाया। आवाज़ बीच में कुछ देर रुकी रही पर यह
विश्वास होने तक कि वह शायद भ्रम ही हो,
फिर से सुनाई देने लगी। मैंने दरवाज़ा खोलकर जल्दी से
कमरा पार किया और बत्ती जला दी। बटन की तरफ़ जाते हुए केतली पैर से
टकराकर उलट गयी थी। रोशनी होने पर वही सामने हिलती नज़र आयी। बाकी
चीज़ें उसी जड़ता में यहाँ-वहाँ पड़ी थीं जिसमें बत्ती बुझाने से पहले
उन्हें छोड़ा था। पर ‘हाय-हाय’
की मरी-सी आवाज़ अब सुनाई दे रही थी। वह आवाज़ कोहली
की थी—साथ के पोर्शन
में।
मैं कुछ देर जड़-सा खड़ा उस आवाज़ को सुनता रहा। आवाज़
काफी हल्की थी। फिर भी बाहर गिरती बरफ के सन्नाटे में वह आसपास के
पूरे वातावरण को कुरेदती-सी महसूस होती थी। जैसे उसकी चारदीवारी में
जितना कुछ था,
उस सबके अन्दर से वह आवाज़ निकल रही हो—मेरे
समेत। मेरी टाँगें कुछ-कुछ काँप रही थीं—न
जाने सरदी से, या बत्ती जलाने से पहले के डर
की वजह से खुश्क गला, पपडिय़ाए होंठ,
जलती आँखें, पर शरीर फिर भी
सुन्न। मैंने घड़ी में वक़्त देखा—कुल सवा दस।
आश्चर्य हुआ कि इतना कम वक़्त कैसे हुआ है—घड़ी
कहीं रुक तो नहीं गयी? उसे कानों के पास लाकर
उसकी आवाज़ सुनी—टिक्-टिक्-टिक्।
साथ ही अपने दिल की धडक़न भी महसूस की। वे दोनों आवाज़ें जैसे एक ही
थीं—एक-दूसरी की प्रतिध्वनियाँ। घड़ी की
सूइयाँ जैसे मेरी धडक़नों के हिसाब से आगे बढ़ रही थीं—एक-एक
सेकेंड। टिक्-टिक्-टिक्।
मैंने घड़ी को कलाई से उतारकर चाबी दी और फिर से लगा लिया। कोहली की
आवाज़ अब पहले से और हल्की पड़ गयी थी।
मुझे लगने लगा जैसे वह आवाज़ हल्की पड़ते-पड़ते
धीरे-धीरे बिल्कुल खामोश हुई जा रही हो—हमेशा
के लिए। अपनी पिंडलियों की ठंडक मुझे घुटनों से होकर जाँघों में
फैलती महसूस हुई। लगा जैसे कि मैं अपने और बाहर किसी चीज़ के निरन्तर
चुकते जाने का साथी हूँ—धीरे-धीरे,
टिक्-टिक्-टिक्,
एक-एक कराह के साथ वह चीज़ अपने अन्त की ओर बढ़ रही
है। अगर उस प्रक्रिया को रोकने के लिए कुछ किया नहीं जाता,
तो कुछ ही देर में उसे रोक सकने की सम्भावना ही नहीं
रह जाएगी। मैंने एक असहाय-सी नज़र कमरे में बिखरी चीज़ों पर डाली। क्या
कुछ ऐसा किया जा सकता था जिससे उस बिखराव को एक व्यवस्था में बदला जा
सके? या उस अव्यवस्थित स्थिति से छुटकारा
पाया जा सके। अन्दर कहीं एक आवेश था—उन सब
चीज़ों को एक-एक बार ठोकर लगाकर परे हटा देने का,
परन्तु उस आवेश की तह में थी एक निष्क्रिय उदासीनता
जिसके कारण एक उँगली तक हिलाने से वितृष्णा हो रही थी। ‘सुबह
के बाद सब ठीक हो जाएगा,’ मैंने अपने को
आश्वासन देना चाहा, ‘यह जितनी भी घुटन है,
इस घर को छोड़ देने तक ही है। इसके बाद एक नयी और
अनजानी ज़िन्दगी की खोज अपने आप हर चीज़ में एक गति ले आएगी—एक
ऐसी गति जो इस तरह के अवरोध के लिए अवसर ही नहीं रहने देगी।’
मैंने बत्ती बुझा दी। कोहली की आवाज़ सचमुच रुक गयी
थी। मैंने प्रतीक्षा की कि वह आवाज़ फिर से शुरू हो,
तो मैं अपने बिस्तर की तरफ़ लौटूँ। पर काफी देर कान
लगाये रहने पर भी वह आवाज़ फिर सुनाई नहीं दी,
तो अपना उस तरह अँधेरे कमरे में बन्द होना मेरे अन्दर एक वास्तविक डर
का रूप लेने लगा। लगने लगा कि सुबह तक कहीं ऐसा कुछ न हो जाए जिससे
दरवाज़े का अन्दर से बन्द होना दूसरों के लिए उस स्थिति को सुलझाने,
या कम से कम जान सकने में,
बाधा बन जाए। मैंने एक बार फिर से
बत्ती जलाकर दरवाज़े की चटखनी खोल दी। फिर दोबारा बटन बन्द किया और
रास्ते में बिखरी चीज़ों में पाँव बचाता एक चोर की तरह अपने बिस्तर
में लौट आया।
बरफ तब तक पहले से तेज़ हो गयी थी।
सुबह मैं काफी देर से उठा। नींद देर से नहीं खुली—नींद
तो रात-भर ठीक से आयी ही नहीं थी—अधनींदी
जड़ता के खुमार ने देर तक बिस्तर से निकलने नहीं दिया। बरफानी मौसम
ने समय का अनुमान भी ठीक से नहीं होने दिया। खिडक़ी के काँचों पर
फैलती पथरीली सफेदी उठने के क्षण को टालते जाने में सहायता करती रही।
साथ अपने अन्दर का यह विचार कि उन काँचों को देखते हुए जागने की वह
आखिरी सुबह है।
साथ के पोर्शन में काफी पहले से हलचल शुरू हो गयी थी।
कुर्सियों के घिसटने की आवाज़ें,
शारदा के चलने की खटर्-खटर्
और कोहली के नाश्ता करने की त्वाप्-त्वाप्-त्वाप्।
शारदा और कोहली की बातचीत के टुकड़े सुनाई दे जाते थे,
उनसे भी लगता था कि घर के उस पोर्शन में ज़िन्दगी
अपनी पहले की सतह पर लौट आयी है। दोनों में से ज़्यादा बात शारदा ही
कर रही थी—वहाँ से साथ-साथ चलने की तैयारी के
सिलसिले में कोहली ‘ठीक है,
ठीक है, जैसे ठीक समझती हो,
कर लो,’ में एक तरह का
आत्मसमर्पण भी था और किसी अवांछित घटना से अपने को बचा लेने का
सन्तोष भी। एक तीसरा व्यक्ति जो उन दो के साथ सामान बँधवाने में
सहायता कर रहा था, वह
था भूपतसिंह। सुबह के साथ शायद उसे फिर से नौकरी पर बहाल कर दिया गया
था।
उठने के बाद अपनी तैयारी पूरी कर लेने में मुझे देर
नहीं लगी। एक बार निर्णय कर लेने के बाद कि सामान को तीन तरह से अलग
करना है,
सब कुछ जैसे अपने आप होता गया। एक हिस्सा था साथ ले
जाने का। दूसरा दो बक्सों में बन्द करके गिरधारीलाल के पास छोड़ जाने
का। तीसरा वहीं बैरों-चपरासियों में बाँट देने का। किसी भी चीज़ को
लेकर मैंने ज़्यादा नहीं सोचा। उठाया, देखा और
तय कर दिया कि उसे किस हिस्से में जाना है। मुझे स्वयं आश्चर्य हुआ
कि उठने के पैंतालीस मिनट के अन्दर वह सारा काम,
जो हफ्तों से मुझे एक मुसीबत नज़र आ रहा था,
कैसे पूरा हो गया। अब सिवाय बिस्तरबन्द के कुछ भी
बाँधना शेष नहीं था। जो दो-चार ज़रूरत की चीज़ें बाहर थीं,
उन्हें चलते वक्त साथ डाल लेना था,
बस।
नाश्ता आया रखा था। उसे भी उसी तरह निगल लिया जैसे
रात का खाना निगला था। उसके बाद जैसे हर चीज़ से फारिग होकर कुछ देर
कुर्सी पर सुस्ता लिया। सामने स्कूल की सडक़ से कुछ रिक्शा और
सामान-लदे कुली निकलकर जा रहे थे। जो लोग सुबह की गाड़ी से जाने को
थे,
उन्होंने शायद रात में ही
अपनी तैयारी कर ली थी। बरफ की सफेदी को लाँघते पहियों और पैरों को
कुछ देर देखते रहने के बाद जैसे अपनी तैयारी के आखिरी मरहले को पार
करने के लिए मैं उठ खड़ा हुआ। जल्दी से शेव करके सिर-मुँह धो लिया और
सफर के कपड़े पहनकर चलने से कई घंटे पहले ही अपने को चलने की
मन:स्थिति में ले आया।
एक खालीपन अब भी था। परन्तु वह खालीपन एक अन्तराल था
जिसे कई तरह से भरा जा सकता था—कमरे
में टहलकर या बाहर बरफ में घूमकर। वैसे कुछ देर के लिए एक बार स्कूल
भी जाना था। वहाँ से अपना चैक लेना था। गिरधारीलाल से कहना भी था कि
कुछ सामान उसके यहाँ पड़ा रहेगा। हममें से कोई भी जब कभी आकर ले
जाएगा। मुझे पता था। गिरधारीलाल इनकार नहीं करेगा। किसी भी तरह का
इनकार उसके स्वभाव में था ही नहीं। उसके लिए अपेक्षित साहस उसमें
नहीं था! वह उन व्यक्तियों में से था जिनकी भलमनसाहत उनमें किसी तरह
का साहस नहीं रहने देती। अपनी इस साहसहीनता के कारण ही वह स्कूल में
सबका हितचिन्तक बना रहता था। इसीलिए अपने घर की चारदीवारी के अन्दर
वह सबसे दुखी आदमियों में से था। उसकी भलमनसाहत का नाजायज़ फायदा सभी
लोग उठाते थे। मैं भी पहले कई बार उठा चुका था। इसलिए जाते-जाते एक
बार और उठा लेने में मुझे संकोच का अनुभव नहीं हो रहा था। उसका
छोटा-सा कमरा जो पहले ही सामान से लदा रहता था। ‘हमारे
यहाँ सामान बहुत ज़्यादा है न?” रत्ना कमरा
छोटा होने की बात न कहकर अक्सर इसी चीज़ पर ज़ोर दिया करती थी। मेरे दो
बक्सों से कितना घिचपिच हो जाएगा, यह सोचकर
मुझे उस पर तरस भी आ रहा था। वह बेचारा तो इसी ख्याल से हामी भर देने
को था कि शायद दो-एक महीने के अन्दर वह सामान उसके यहाँ से उठा लिया
जाएगा। अगर उसे मेरे मन की वास्तविक स्थिति का पता चल जाता कि सामान
को निपटाने का और कोई तरीका न सूझने से ही मैंने उसे बक्सों में भरकर
वहाँ छोड़ जाने की बात सोची है, और कि मेरे
मन में कहीं यह बात भी है कि शायद उसे कभी वहाँ से उठाने की नौबत ही
न आये, तो सम्भव था कि वह एक बार मेरे हित
में मुझे सलाह देता कि मैं उसे बुक कराके साथ ले जाऊँ। पर वह बात उस
पर प्रकट करने का मेरा कतई इरादा नहीं था। उसे बेवकूफ बनाकर सब लोग
उससे अपना काम निकालते रहते थे। यह भाग्य उसने स्वयं अपने लिए चुना
था, इसलिए मेरे मन में कोई द्वन्द्व नहीं था।
‘दो-एक साल पड़ा रहेगा सामान उसके यहाँ,
तो शायद वह खुद ही उसे फिंकवा दे,
या अपने इस्तेमाल में ले आये,
यह सोचकर मैंने बाद की स्थिति का समाधान कर लिया था।
वैसे एक डर यह भी था कि वह भी कहीं राजो मौसी की तरह एक दिन दोनों
बक्से (और अपना पूरा परिवार) लिये किसी दूर के शहर में मेरी अमानत
लौटाने न आ पहुँचे। ‘यह उलझन उसकी होगी,
मेरी नहीं,’
इस विचार से मैंने भविष्य की उस सम्भावना को भी दिमाग
से स्पंज कर दिया था।
सामान की समस्या को सुलझा लेने के बाद से अपना आप
मुझे काफी हल्का महसूस हो रहा था। मेरे पाँव अब एक ऐसी अनिश्चित
स्थिति की दहलीज़ तक पहुँच गये थे जिससे आगे उस अनिश्चितता को अपने आप
निश्चितता और वास्तविकता में बदल जाना था। कुछ देर सीटी बजाता कमरे
की एक दीवार से दूसरी दीवार तक चक्कर काटता रहा। कुछ देर खिडक़ी से
बाहर झाँकता हुआ उसके चौखटे पर ताल देता रहा। समय धीरे-धीरे बीत रहा
था। लेकिन मुझे उसके जल्दी बीतने की उतावली नहीं थी। मैं पहली बार—जो
कि वैसे आखिरी बार भी थी—अपने को उन दीवारों
के घेरे में उतना हल्का महसूस कर रहा था,
जैसे वहाँ रहते पहली बार मैं मैं था—मनोज
सक्सेना। (जैसे कि इस नाम का अपना कोई अर्थ हो)—जो
कि शिवचन्द्र नरूला या किसी और का रूपान्तर मात्र नहीं था। अपने अतीत,
वर्तमान और भविष्य तीनों से मैं अपने को एक साथ
मुक्त महसूस कर रहा था। अब फर्श की दरी या दरवाज़ों के परदों पर पड़ी
न किसी और छाप से मुझे वास्ता था,
न अपनी छाप से। इतने दिन वहाँ रह चुकने के बाद मैंने
अपने को फिर से कोरा कर लिया था।
कुछ देर बाद कमरा बन्द करके ज़ीने पर आया,
तो कोहली से मुलाकात हो गयी। वह नीचे स्टोर से
पुरानी रस्सियाँ लेकर आ रहा था। हर साल छुट्टियों में इस्तेमाल करने
के बाद वह उन्हें फिर वहीं बन्द कर देता था। “बहुत
खुश नज़र आ रहे हो!” उसने खिसियानी मुस्कराहट
से अपने चेहरे की नहूसत छिपाते कुछ ईर्ष्या के साथ कहा, “बीवी
के पास जा रहे हो, इसलिए?”
मैंने मुँह से कुछ नहीं कहा। बायीं आँख दबाकर उसकी
बात का उत्तर दे दिया और झपाटे से नीचे उतर आया। बाहर सब तरफ़ बरफ की
सफेदी फैली नज़र आ रही थी। रात में बरफ चार-चार इंच से ज़्यादा गिरी
लगती थी। ऊपर सडक़ पर पहुँचकर पीछे पगडंडी पर अपने पैरों के निशानों
को देखा—सामने
उन पहियों और पैरों के निशानों को जो सडक़ से गुज़रकर जा चुके थे।
बरफ-ढके रास्ते में खुभे-खुभे स्याह निशान बरफ से ज़्यादा ठंडे और
उदास लग रहे थे। ‘थोड़ी देर में वे सब निशान
पिघल जाएँगे’, यह
सोचकर मुझे सिहरन हुई। पर अपनी मन:स्थिति बदलने न देने के लिए मैं
उसी तरह सीटी बजाता कच्ची बरफ को रौंदने लगा।
सडक़ के तीसरे मोड़ पर काशनी से भेंट हो गयी। वह वहाँ
अकेली खड़ी थी—नीचे
घाटी की तरफ़ झुककर न जाने क्या देखने की कोशिश करती। मुझे देखकर वह
मुस्करा दी थी। जैसे साथ-साथ खड़े होने के बाद से एक अनकहा सम्बन्ध
हमारे बीच स्थापित हो गया हो। उसकी आँखों में भी हर बार एक अतिरिक्त
उत्सुकता नज़र आयी थी—और एक प्रतीक्षा जैसे कि
उसे मेरे कुछ कहने की आशा हो। इसीलिए पास से गुज़रने के बाद मेरी
आँखें पीछे उसकी तरफ घूम जाती थीं—और तब वह
भी कुछ उसी तरह पीछे देखती मिलती थी। मैं उस समय भी हर बार की तरह
उसके पास से निकल जाता, पर उसके एक कदम अपनी
तरफ बढ़ आने से मेरी चाल धीमी पड़ गयी। “कैसे
खड़ी हो यहाँ?” मैंने
जैसे बार-बार अपनी ज़बान पर दोहराया हुआ प्रश्न पूछ लिया।
“ऐसे ही खड़ी थी।”
वह बोली, “देख रही थी कि
नीचे कहीं घास हो तो जाकर छील लूँ।”
उसने जिस तरह कहा,
वह एक स्वर अजनबी का होकर भी बिल्कुल अजनबीपन का
नहीं था। उसकी आँखों में फिर वही चमक भी आ गयी थी जो मुझे अपने को
बाँधती-सी लगी। वह सुडौल शरीर की काफी सुन्दर स्त्री थी। दो साल पहले
उसे देखते थे, तो
बिल्कुल लडक़ी-सी लगा करती थी। तब उसके चेहरे पर वे हल्की झाइयाँ नहीं
थीं जो इधर कुछ महीनों से झलकने लगी थीं।
“अब तो स्कूल में तीन महीने
छुट्टियाँ रहेंगी।” मैंने कहा, “फकीरा
भी इस काम में तुम्हारा हाथ बँटा दिया करेगा।”
“वह क्या हाथ बँटाएगा,
जी। घर बैठे हुक्का गुडग़ुड़ाता रहा करेगा।”
उसकी आँखों ने जतला दिया कि वह जानती है,
मैं खामखाह यह बात कह रहा हूँ। “और
फिर व्हिसलर साब की कोठी पर उसकी ड्यूटी भी रहेगी। व्हिसलर साब तो
छुट्टियों में यहीं रहेंगे, नहीं?”
“हाँ, यही
रहेंगे।” मैंने कहा, “हर
साल यहीं रहते हैं।”
“हाँ, पार
साल यहीं थे। उससे परले साल भी थे। पर इस साल का पक्का पता नहीं। कोई
कहता है जेनी मेम साब उन्हें नौकरी छुड़वाकर अपने साथ विलायत ले जा
रही है। कोई कहता है चेरी साब और जीफरी मेम साहब ने मिलकर कोई साज़िश
की है जिससे उन्हें छोडक़र जाना पड़ रहा है। कोई कुछ कहता है,
कोई कुछ। आपको तो पता होगा।”
“मुझे कुछ भी पता नहीं है।”
मैंने कहा, “मेरा ख्याल तो
यही है कि फिलहाल वे छोडक़र कहीं नहीं जा रहे। लोग ऐसे ही बातें
उड़ाते रहते हैं।”
उसके चेहरे से लगा कि उसे मेरी बात पर विश्वास नहीं
आया।
“विसलर साब बहुत अच्छे आदमी हैं।”
वह भाँपती नज़र से मुझे देखती बोली, “वे
चले गये तो दूसरा कोई हेडमास्टर पता नहीं कैसा आएगा। विसलर साब
ड्यूटी सख्त लेते हैं, पर जिस आदमी का काम हो,
उसी से। पहला हेडमास्टर काम में ढील बहुत देता था,
पर समझता था कि एक आदमी को चपरासी लगाया है,
तो उसके सारे घर को ही चाकर रख लिया है अपने यहाँ।
आज विशनू को भेज देना, आज काशनी को भेज देना।
आदमी भी वह बस ऐसा ही था। उसकी ड्यूटी दो सो,
दो ही, उसके यहाँ आने-जानेवाले मेहमानों की
भी ड्यूटी दो। मैंने तो परमात्मा का शुक्र किया था जब वह गया था यहाँ
से।” फिर पलभर मुझ पर आँखें गड़ाये रहने के
बाद उसने कहा, “कुछ लोग तो यह भी कहते हैं जी,
कि आप ही ने बड़े अफसरों से कह-कहाकर...।”
मैंने हँस दिया,
तो वह जैसे ज़रूरत से ज़्यादा बात कर जाने के डर से
चुप हो गयी। ध्यान से देखती रही कि उसने कुछ ऐसा तो नहीं कह दिया
जिसका कुछ गलत नतीजा भुगतना पड़े। “तुमसे यह
किसी ने नहीं कहा कि मैंने खुद ही अपनी छुट्टी कर ली है यहाँ से?”
मैंने आश्वासन देते स्वर में
कहा।
“हाँ, यह भी
सुना है।” वह बोली, “मेरा
घरवाला तो यही कहता है कि तनखाह कमती मिलने से आपने नौकरी छोड़ दी
है। पर दूसरे लोग और भी बातें कहते हैं। आप क्या सचमुच छोडक़र जा रहे
हैं?”
“हाँ, यह आज
मेरा आखिरी दिन है यहाँ।” मुझे लग रहा था कि
मेरे अन्दर फिर कोई चीज़ मुरझाई जा रही है। जो हल्कापन लेकर घर से चला
जाऊँगा यहाँ से।”
“अगले साल लौटकर नहीं आएँगे?”
“नहीं।”
उसके होंठ दब गये। किसी तरह की निराशा से नहीं,
सहज स्वीकृति के भाव से। उस
मुद्रा में उसका धीरे-धीरे साँस लेना मुझे बहुत आकर्षक लगा।
“सामान बाँधने के लिए आदमी की ज़रूरत
तो नहीं आपको?” उसने
पूछा।
“नहीं। सामान सब बँध गया है। बस अब
उठवाना है और चल देना है।” कहते हुए मैंने
सोचा कि जो सामान मैंने बाँटने के लिए अलग कर रखा है,
क्यों न वह अकेली उसी को देकर उससे छुटकारा पा जाऊँ?
उससे दस आदमियों के घर पर आने का झंझट भी बचेगा और
किसे क्या दिया जाए, यह सोचने की उलझन भी
नहीं रहेगी। “कुछ चीज़ें जो साथ नहीं ले जा
रहा, वे बाहर पड़ी हैं। फकीरा अगर खाली हो तो
उससे कहना डेढ़-दो घंटे में किसी वक़्त आकर ले जाए—तीन
बजे से पहले। तीन बजे तक मैं निकल जाऊँगा।”
उसने सिर हिला दिया। उसी सहजता से।
“कह दूँगी उससे,
वह नहीं खाली होगा, तो मैं
आकर ले जाऊँगी।”
उसके पास से आगे आकर मैं तब भी अपने को मुडक़र देखने
से नहीं रोक सका। पर वह उस समय नहीं देख रही थी। मेरे आगे आने के साथ
ही पहले की तरह फिर घाटी में झाँककर देखने में व्यस्त हो गयी थी।
स्कूल में मुझे ज़्यादा समय नहीं लगा। चेक तैयार था।
जिन कागज़ों पर हस्ताक्षर करने थे,
वे भी तैयार थे। गिरधारीलाल ने समझाने की कोशिश की
कि किस चीज़ के कितने पैसे काटे गये हैं। “जो
भी हिसाब बना है, ठीक है।”
कहकर मैंने चेक जेब में डाल लिया। मैंने बक्स रखने
की बात उससे कही तो गिरधारीलाल थोड़ा भावुक हो गया। जैसे कि उसे अपना
इतना निजी मानने के लिए वह मेरे प्रति आभारी हो। “और
भी कोई काम हो तो मुझे जाकर लिख देना। जब भी यहाँ आओ,
मेरे पास ही ठहरना।” उसका
कहने का ढंग ऐसा था जैसे मुझे अपने यहाँ ठहरने का निमन्त्रण देकर
काफी साहस का काम कर रहा हो, “बीच-बीच में
चिट्ठी ज़रूर डाल दिया करना।”
दफ्तर से निकलकर एक बार सोचा कि जिन-जिन लोगों के
क्वार्टर पास में हैं,
उनसे जाकर मिल आऊँ। पर यह सोचकर टाल दिया कि औरों से
भी उसी तरह की बातें सुनने से बचे रहना ही अच्छा है। लौटते हुए आखिरी
बार कामन रूम में जाकर अपने खाली पिजन-होल को देख लिया जैसे कि उस
सारी इमारत से बस उतना ही हिस्सा, नौ गुना नौ
इंच का, मेरा अपना था। उसके नीचे मेरे नाम का
अधफटा कागज़ चिपका था। वह जितना उखाड़ सका,
उखाड़ दिया। जितना नहीं उखड़ा, उतने को नाखून
से कुरेद दिया। लौटते हुए बरामदे में जेम्स दिखाई दे गया। ‘तैयारी
हो गयी जाने की?’ के
सिवा उसने कुछ नहीं पूछा। जिस तरह पाँव पटकता वह पास से निकल गया
उससे लगा जैसे उसे किसी छिपी हुई चीज़ का सुराग लग गया हो जिसे वह
जल्दी से जाकर झपट लेना चाहता हो।
ग्राउंड से गुज़रते हुए मैंने एक नज़र उस पूरे फैलाव पर
डाल ली। बरफ,
इमारत के पत्थर, चार-चार,
आठ-आठ की टोलियों में ग्राउंड पार करते लडक़े।
गिरजाघर, टेनिस कोर्ट और हाल की सीढिय़ाँ।
पेविलियन की खाली बेंचें, लान-मोअर और घिसटकर
चलती मिसेज़ पार्कर। मुझे देखकर मिसेज़ पार्कर का रुख दूसरी तरफ़ हो
गया। मुझे लगा जैसे वह सारा दृश्यपट बरफ का बना हो जिसे बस अब थोड़ी
ही देर में पिघलकर बह जाना हो। उस सब कुछ समेत जो उस समय वहाँ नहीं
भी दिखाई दे रहा था। मैं आहिस्ता-आहिस्ता चलता हुआ गेट से बाहर आ गया—जैसे
उस दृश्यपट के साथ पिघलने से बचा अकेला व्यक्ति।
फिर वही बरफ से ढकी सडक़,
वही पैरों और पहियों के निशान,
वही मैं, पर मन पर एक झीना
परदा उदासी का उतर आया था। मेरा इस बार उस सडक़ से लौटना सचमुच आखिरी
बार लौटना था। एक-एक कदम के साथ जैसे पीछे की सडक़ मेरे लिए मरती जा
रही थी, और सडक़ के लिए मैं। मुझे एक साथ दो
तरह का अनुभव हो रहा था—बीत चुकने का और
बीतने के स्थान से आगे देख सकने का। अपने को यह विश्वास दिलाने के
लिए मुझे यह प्रयत्न करना पड़ रहा था कि पहला अनुभव अस्थायी है—केवल
उन्हीं कुछ क्षणों तक सीमित—जबकि दूसरा इसके
बाद एक अनिश्चित समय तक वैसा ही बना रहने को है। लौटकर घर के ज़ीने से
चढ़ा, तो खाने का डिब्बा फिर कमरे से बाहर
रखा था। इस बार उसे देखकर मन हुआ कि उसे बाहर से ही उठाकर फेंक दूँ।
उसे देखना ऐसे ही था जैसे बीते हुए से आगे आकर सहसा फिर अपने को उसके
सामने पाना। एक उसाँस के साथ मैंने कमरा खोला। “बस
अब दो घंटे और इस तरह महसूस हो सकता है,”
अपने से कहा और गाड़ी के इन्तज़ार में
प्लेटफार्म की बेंच पर बैठने की तरह अन्दर कुर्सी में जा धँसा।
अब मन समय की रफ्तार से उदासीन नहीं था। लग रहा था कि
उस घर में,
या वहाँ से बाहर, कभी समय
उतना धीरे-धीरे नहीं बीता। कलाई की घड़ी में सेकेंड की सूई इतनी
मरियल चाल से घूमती लग रही थी कि मन होता था कि डायल खोलकर उसे उँगली
से घुमाने लगूँ। साथ के पोर्शन में कोहली की तैयारी पूरी हो चुकी थी।
उसके कुली सामान ढोकर नीचे जा रहे थे। उसे तीन बजे की गाड़ी से जाना
था, इसलिए वह काफी हड़बड़ाहट में था। शारदा
से फिर भी वह बहुत मुलायम ढंग से बात कर रहा था। जितना गुस्सा था वह
सब कुलियों पर निकाले ले रहा था। मैंने तीन आदमियों के लिए कहा था,
तो तुम पाँच आदमी क्यों आये हो?
मैं पैसे तीन आदमियों के ही दूँगा,
तुम चाहे और भी दो साथ ले आओ। एक-एक आदमी एक-एक चीज़
उठा रहा है! तुम लोग समझते हो कि हमारे पास हराम का पैसा है...?
खट्-खट्...थप्-थप्-त्वाप्-त्वाप्...हुई
आ:। सामान उतर गया। ताला लग गया। कोहली और शारदा की आवाज़ भी ज़ीने से
उतर गयी। मैंने शुक्र किया कि जाते हुए उन लोगों ने मेरा दरवाज़ा
खटखटाकर कुछ कहने की ज़रूरत न समझी। ऊपर की पूरी खाली मंज़िल पर अब मैं
बिल्कुल अकेला था—अपनी
खामोशी और अस्थिरता का अकेला साक्षी।
कमरे में जाने के बाद से उदासी का झीना परदा
धीरे-धीरे गहरा होता गया था। जैसे मेरे अन्दर का कोई अंश ढहकर बैठता
जा रहा था जिसे मैं उठाये रखने की कोशिश कर रहा था।
“मुझे अब क्यों ऐसा लग रहा है?
इसकी तो कोई वजह ही नहीं है?”
बार-बार अपने से यह कहते हुए मुझे झुँझलाहट हो रही
थी। “मुझे इस समय सुबह से ज़्यादा हल्का महसूस
करना चाहिए था। पर मैं तो अपने को सुबह जितना भी हल्का महसूस नहीं कर
पा रहा!”
एक बार मन में आया कि क्यों न कुछ देर पहले ही सामान
उठवाकर वहाँ से चल दूँ। शाम की बस से जाने का निश्चय इसीलिए तो किया
था कि नीचे पहुँचकर बड़ी लाइन का सफर शुरू होने से पहले अपने को
ज़्यादा सोचने का समय न दूँ। नीचे तक छोटी पहाड़ी गाड़ी में जाने से
अपने को इसलिए बचाया था कि आगे कहाँ का टिकट लेना है,
इस समस्या का सामना करने से और कुछ समय बचा रहा जा
सके। तीन दिन पहले बुधवानी ने जब सीट के लिए पूछा था,
तब उससे कह दिया था कि मैं एक दोस्त की प्राइवेट
गाड़ी में नीचे तक जा रहा हूँ। उसे शायद लगा था कि पैसे की बचत के
लिए ऐसा कर रहा हूँ। पर मन में मेरा कार्यक्रम था कि स्टेशन की
विदाइयों से अपने को बचाकर चुपचाप शाम की बस पकड़ ली जाए। नीचे उस
समय पहुँचा जाए जब आगे की गाड़ी लगभग चलने को हो। पहला सफर कहाँ तक
का होगा, यह निर्णय उस आखिरी क्षण पर छोड़
दिया जाए जब टिकटघर की खिडक़ी के सामने खड़े होकर टिकट बाबू को पैसे
देने होंगे। पर वही द्वन्द्व जिसके लिए तब अपने को समय नहीं देना
चाहा था, अब चुपचाप कमरे में बैठकर घड़ी को
देखते हुए मन में उभर रहा था—‘मुझे यहाँ से
आखिर जाना कहाँ है?’
दो बजे तक का समय किसी तरह निकाल लेने के बाद उस
असमंजस को टालते हुए वहाँ और बैठे रहना लगभग असम्भव हो गया।
‘मुझे यहाँ बन्द होकर बैठने की वजह
से ही इतनी अस्थिरता महसूस हो रही है,’ मैंने
अपने से कहा, ‘एक बार सडक़ पर पहुँच जाने के
बाद ऐसा महसूस नहीं होगा।’ पर कुलियों से तीन,
पौने तीन बजे आने को कह रखा था। इसलिए तब तक वहाँ से
निकल चलना सम्भव ही नहीं था। मैं मन में न सिर्फ उनके आने की
प्रतीक्षा कर रहा था, बल्कि साथ ही फकीरे या
काशनी के आने की भी,
क्योंकि मॉली क्राउन से कह रखा था कि साढ़े तीन बजे क्वार्टर उसे
बिल्कुल खाली मिलेगा। चाहता था कि उसके आने पर वहाँ के फर्श उसे उतने
ही साफ मिलें जितने उस दिन जिस दिन पहली बार मुझे वह क्वार्टर
दिखलाया गया था।
दो बजे के ज़रा ही देर बाद पीछे जमादार वाली सीढ़ी पर
ऊपर आते कदमों की आहट सुनाई दी। मैंने जल्दी से जाकर उधर का दरवाज़ा
खोल दिया। काशनी टूटे हुए मर्दाना जूते पहने बाहर खड़ी थी।
“तुम आयी हो?”
मैंने इस तरह उससे पूछा जैसे उसके
आने का विकल्प मेरे दिमाग में रहा ही न हो।
“मेरा आदमी साब की कोठी पर है।”
वह जानी-पहचानी जगह पर आने की तरह अन्दर दाखिल होती
बोली, “उसे आने में देर लग जाती,
इसलिए मैं आप ही आ गयी हूँ।”
वह कमरे में आकर एक तरफ़ खड़ी हो गयी। इन चीज़ों की तरफ़
उसने देखा भी नहीं जो मैंने छाँटकर अलग कर रखी थीं। खामोश आँखों से
मुझे देखती जैसे किसी चीज़ की प्रतीक्षा करती रही।
“ये सब चीज़ें हैं।”
कुछ क्षणों के भोंडे विराम के बाद
मैंने कहा।
उसने उड़ती नज़र से उन सब चीज़ों को देख लिया। उसके बाद
भी कुछ क्षण उसी तरह खड़ी रही। फिर कुछ ऐसे भाव से जैसे घर बुलाकर
मैंने उसका अनादर कर दिया हो,
दो-दो चीज़ों को उठाकर बाहर ले जाने लगी। बिना किसी
उत्सुकता या आग्रह के। छाँटते समय मुझे प्यालियाँ,
डस्टर और नाड़े उतने बेकार नहीं लगे थे जितने उस समय
लगे। उसका उन्हें उठाना मेरा अहसान लेने की तरह नहीं,
मुझ पर अहसान करने की तरह था। निर्विकार भाव से
अन्दर का ढेर बाहर पहुँचाकर वह फिर मेरे सामने आ खड़ी हुई। “अब
जाऊँ?” उसने कुछ इस
तरह पूछा जैसे कि उसे अब भी कहीं लग रहा हो कि मैंने सिर्फ इतने काम
के लिए उसे नहीं बुलाया हो सकता।
कमरे में उसके आने के बाद से ही हरी घास की-सी एक
हल्की गन्ध भर गयी थी। वह शायद तब से घास छीलती रहकर आयी थी। मैंने
उसके शरीर का आकर्षण पहले भी बहुत बार महसूस किया था। पर उस समय वह
आकर्षण एक चुनौती की तरह सामने था। उसके पूरे हाव-भाव से यह स्पष्ट
था कि वह किसी भी क्षण मेरे अपनी ओर बढ़ आने की प्रतीक्षा में है। पर
साथ उसमें एक उपेक्षा भी थी—कि
कोई भी पुरुष उसके लिए इतना बड़ा नहीं है कि उसके साथ शारीरिक
घनिष्ठता को वह बहुत महत्त्व दे।
“और कोई काम तो नहीं है?”
कुछ देर चुप रहने के बाद उसने
फिर पूछ लिया।
“और कोई काम...”
मैं कुछ अव्यवस्थित भाव से अपने आसपास देखने लगा—निश्चय
कर सकने से पहले थोड़ा समय लेने के लिए। पूरा घर अकेला था। मैं
दिन-दहाड़े वहाँ कुछ भी करता, उसका कोई
साक्षी नहीं था। जिस मन:स्थिति में उसके आने से पहले था,
उसका कुछ उपचार भी शायद इससे हो सकता था। वहाँ से
चलने से पहले कुछ ऐसा करना जिसे कर सकने से पहले बाधा महसूस होती,
उस पूरे वातावरण के प्रति अपनी वितृष्णा प्रकट करने
का एक उपाय भी हो सकता था। एक ही झटके में मैं स्कूल से,
शोभा से और आसपास की सब चीज़ों से एक तरह का प्रतिशोध
ले लेने का एक सुख प्राप्त कर सकता था। ‘क्यों
नहीं?’ मेरा मन अन्दर से मुझे धकेल रहा था।
‘तुम ऐसा क्यों नहीं कर सकते?’
पर मेरी आँखें उसके मैले कपड़ों के
भीतर एक और मैलेपन की आशंका से ठहरी हुई थीं।
“अच्छा, तो
चल रही हूँ मैं...” वह
कुछ अधीरता के साथ बोली। वह मुझे सोचने के लिए उतना समय देने के लिए
तैयार नहीं थी। यह शायद उसे अपना अपमान लग रहा था।
मैं निश्चय फिर भी नहीं कर पाया।
“ठीक है,”
मैंने अटकते स्वर में कहा, “फकीरे से कह देना,
मैं उसे याद कर रहा था।”
वह तिरस्कृत होकर तिरस्कृत करते ढंग से सिर हिलाकर
चुपचाप बाहर को चल दी। ठप्-ठप्-ठप्-ठप्...उसके
फटे जूते की आवाज़ गुसलखाने से बाहर पहुँच गयी।
‘तुम डरपोक हो,’
मेरा मन अन्दर से मुझे लानत दे रहा था। ‘अगर
तुम्हारे मन की बाधाएँ इसी तरह बनी रहेंगी,
तो तुम क्या कभी भी अपने को मुक्त महसूस कर पाओगे?’
मैं भी गुसलखाने से होकर बाहर गैलरी में आ गया। वह
पीठ मेरी तरफ किये चीज़ों को समेट रही थी। मेरे बाहर आ जाने पर भी वह
उसी तरह काम में लगी रही,
जैसे कि मेरे आने का उसे पता ही न चला है। मुझे लग
रहा था कि निर्णय के लिए अब ज़रा भी समय मेरे पास नहीं है। एक बार वह
सीढ़ी से उतर गयी, तो निर्णय अपने आप ही हो
जाएगा—दूसरी तरफ से। मैंने जैसे अन्दर से
अपने को चाबुक मारना शुरू किया। ‘क्यों तुम
चुपचाप खड़े इस क्षण को यूँ ही बीत जाने दे रहे हो?
अगर तुम कुछ भी करते हो, या
उससे तुम पर कुछ भी असर होता है, तो तुम उसके
लिए किसके प्रति उत्तरदायी हो? क्यों बिना
परिणाम की बात सोचे अपने सामने के क्षण को स्वीकार करने का साहस
तुममें नहीं है? क्यों तुम अपने अन्दर की
सारी रुकावटों को तोडऩे की पूरी तैयारी करके भी अब तक इस तरह उनसे
घिरे हुए हो?”
वह सामान अपने पटके में बाँधकर खड़ी हो गयी। चलते हुए
एक बार उसने मेरी तरफ देख लिया—ऐसी
नज़र से जैसे जिस व्यक्ति को उसने अन्दर छोड़ा था,
उसकी जगह मैं कोई और ही अनजबी व्यक्ति होऊँ। वह
सीढ़ी पर पाँव रखने जा रही थी, इसलिए अधिक
सोचने का समय नहीं था। “सुनो,”
मैंने सहसा निश्चय करके उसे पीछे से
आवाज़ दे दी।
वह रुक गयी। उसकी आँखों में कुछ वैसी ही चमक भर गयी
थी जैसी उस दिन हाल के अन्दर देखी थी।
“एक मिनट अन्दर आना ज़रा...”
कहकर मैं जल्दी से कमरे में आ गया। वह तुरन्त मेरे
पीछे नहीं आयी, जैसे
अपनी जगह पर खड़ी कुछ सोचती रही। फिर सामान की गठरी गैलरी में छोडक़र
गुसलखाने में आ खड़ी हुई।
“यहाँ आओ,
अन्दर!”
वह अन्दर आ गयी। मैंने सहसा उसे अपने साथ सटा लेने की
कोशिश की,
तो वह इस तरह सट आयी जैसे कि वह रुई और कपड़े की बनी
एक पुतली हो—बिना किसी तरह के विरोध या
प्रयत्न के मैंने छ:-आठ बार उसके होंठों,
गालों और गरदन को चूम लिया। फिर भी उसमें जान नहीं आयी। वह जिस तरह
चुपचाप अपने को मेरी बाँहों में छोड़े थी,
उससे लग रहा था कि उसके लिए इस सबका कोई विशेष अर्थ ही नहीं है—वह
उसी निर्जीव भाव से उस सारी प्रक्रिया में से गुज़रकर चुपचाप अपनी
गठरी उठा लेगी और ठप्-ठप्—बिना
पीछे देखे सीढ़ी से उतर जाएगी।
उसके शरीर की जो गन्ध पास से महसूस हो रही थी,
वह उसकी उपस्थिति की गन्ध से काफी अलग थी। मैल और
पसीने की यह गन्ध, उसके उस विशेष भाव के कारण,
मेरा भी उत्साह ठंडा किये दे रही थी। फिर भी उस हद
तक आगे बढ़ आने के बाद अब अपने को पीछे हटा लेना सम्भव नहीं लग रहा
था। उस तरह उसकी आँखों में पराजित होने की स्थिति में मैं अपने को
नहीं देखना चाहता था। मैंने आहिस्ता से उससे फर्श पर बैठ जाने को कहा,
तो वह चुपचाप बैठ गयी। लेटने
को कहा तो उसने लेटकर आँखें मूँद लीं।
इस तरह तो कुछ भी सम्भव नहीं है,
मुझे लगा। इसे कम से कम अपनी आँखें तो खुली रखनी
चाहिए। “सुनो...”
मैंने हल्के से उसे हिला दिया।
उसने आँखें खोल लीं। सिवाय हल्की बेसब्री के उनमें और
कोई भाव नहीं था।
“तुम...ठीक-ठाक तो हो न?”
यह सवाल, जिससे तब भी मैं
अन्दर-ही-अन्दर लड़ रहा था, सहसा मेरी जबान
पर आ गया। उसके निश्चेष्ट भाव, चेहरे की
झाइयों और बाँहों तथा पिंडलियों की रूखी चमड़ी ने जैसे इसके लिए मौका
दे दिया। वह कई क्षण एकटक मुझे देखती रही। उस नज़र से पहली बार लगा
जैसे उसके अन्दर कोई चीज़ जाग गयी हो। उसके होंठ पल-भर सिकुड़े रहने
के बाद हल्की घृणा की मुस्कराहट से फैल गये। साँस पहले से तेज़ चलने
लगी। उसने आहिस्ता से सिर हिला दिया। फिर जैसे और स्पष्ट करने के लिए
धीमी आवाज़ में कहा, “नहीं।”
मेरी बाँहें जो उसके आधे शरीर को एक गठरी की तरह साथ
सटाए थीं,
सहसा परे सरक आने को हुईं। पर मैं चेष्टा से उन्हें
उसी स्थिति में रखे रहा। कुछ क्षण हम चुप रहकर जैसे एक-दूसरे को
तोलते रहे। “तबीयत खराब है तुम्हारी?”
मैंने अपने भाव को स्वर से
ढकने की चेष्टा की। पर ढीली पड़ती बाँहों ने उसे और भी स्पष्ट कर
दिया।
उसका शरीर कुछ हिला—अपने
को मुझसे अलगा लेने की चेष्टा में। मेरी बात का उत्तर उसने सिर्फ
पलकें झपकाकर दिया।
हम दोनों जान गये थे कि वह प्रकरण अब अपनी समाप्ति पर
है। फिर भी अपने को पूरी तरह अलगा लेने से पहले अभी बीच की कुछ
मंजिलें तय की जानी थीं।
“कोई खास बात है या...”
मेरे हाथ उसके शरीर से हटने को हुए,
तो साथ ही उसके भी हाथ उन्हें हटाने के लिए उठ आये।
अपने कपड़े ठीक करती वह सँभलकर बैठ गयी। उसके होंठों पर वही
मुस्कराहट फिर उभर आयी थी। मैं अपनी बात का उत्तर पाने के लिए उसे
देख रहा था। पर वह जैसे अपनी मुस्कराहट से उत्तर दे चुकी थी।
“खास बात क्या होनी है?”
फर्श से छिली अपनी कुहनी पर आँखें टिकाए वह बोली, “कुछ
दिन पहले छोटा आपरेशन हुआ था मेरा। अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुई।”
“छोटा आपरेशन,
यानी...”
वह उसी तरह अपनी कुहनी को देखती रही।
“समझते नहीं आप?”
और उसकी मुस्कराहट कुछ अधिक स्पष्ट होकर फैल गयी।
मुझे लगा कि मेरी बनियान के अन्दर कुछ नमी उभर आयी है—बासी
पानी की सतह पर हल्की काई की तरह। उसकी बात जैसे सीधे खाल के मुसामों
में जा धँसी थी। उसके चेहरे पर उपहास का-सा भाव था। शायद उसी के कारण
उन कुछ क्षणों के लिए वह मुझे खासी बदसूरत लगी।
“तुमने पहले क्यों नहीं बता दिया?”
मेरे स्वर में तुरशी भर आयी—एक
जूनियर मास्टर और चपरासी की बीवी के भेद को फिर से स्थापित करती। ओछा
पडऩे की खीझ मन में लिये मैं उठकर गला साफ करने खिडक़ी के पास चला
गया।
“आप पूछते तो बता देती।”
मेरे लहजे से अप्रभावित वह अवहेलना के स्वर में बोली,
“मैंने तो आप ही की वजह से नहीं बताया।”
“मेरी वजह से?”
“आप लोगों का कुछ पता थोड़े ही न
होता है? कोई बता देने को अच्छा समझते हैं,
कोई न बताने को।”
मैं कुछ देर बिना कुछ कहे खिडक़ी पर झुका रहा। ख्याल
था कि इसके बाद शायद वह अपने आप उठकर चली जाएगी। टप्-टप्-टप्
बरफ की बूँदें छज्जे से टपक रही थीं। सामने देवदार के पत्तों पर जमी
बरफ हवा से नीचे छितरा रही थी। हिश्छाप...छत पर फैली बरफ की चादर का
एक बड़ा-सा टुकड़ा टूटकर नीचे आ गिरा। गिरने के साथ वह इस तरह चूरा
हुआ कि बरफ की अपनी शकल रह ही नहीं गयी।
“मैं जाऊँ अब?”
मुझे फिर पीछे देखना पड़ा। वह उसी तरह बैठी थी। आँखों
से कुछ टटोलती और प्रतीक्षा करती उसका पूछने का ढंग ऐसा था जैसे कह
रही हो कि वह जाने लगे तो मैं फिर से वापस नहीं बुलाऊँगा?
मैंने चुपचाप सिर हिला दिया।
वह मुँह में हल्के से कुछ बड़बड़ाती हुई उठ खड़ी हुई।
“क्या कहा है तुमने?”
मैंने उमड़ते गुस्से के साथ पूछ
लिया।
“कुछ नहीं...कहना क्या है अब?”
और वह गुसलखाने की तरफ बढ़ गयी। फिर दहलीज के उस तरफ़
से बोली, “जाकर बीबीजी से मेरी नमस्ते कह
देना।” साथ उसने जिस नज़र से मुझे देखा,
उसमें सान पर घिसे चाकू की-सी काट थी। ठप्-ठप्-ठप्...उसके
जूते की आवाज़ गैलरी से होकर सीढ़ी पर पहुँच गयी।
मैं और भी कई मिनट खिडक़ी के पास बाहर देखता रहा।
छज्जे से टपकती बूँदें—मोम
की बूँदों की तरह बड़ी-बड़ी। टप्-टप्-टप्।
नीचे झाडिय़ों में से गुज़रकर जाती वह हवा को थपकियाँ देती देवदार की
बाँहें। खाली सडक़। रौंदी हुई बरफ। ऊपर माल को जाता लहरिया रास्ता।
सिर उठाकर देखने पर माल की मुँडेर। सब कुछ रोज़ की तरह खाली।
निस्तब्ध।
हाथ फैलाकर छज्जे से टपकती बूँदों को मैं हथेली पर
लेने लगा। तत् तत् तत्...।
मोटर-स्टैंड का वेटिंग रूम। बिस्तरों, बक्सों,
गठरियों, स्त्रियों-पुरुषों
तथा बच्चों से लदा। दमघोंटती बदबू—फर्श,
बेंचों, दीवारों,
पेट्रोल का धुआँ छोड़ती गाडिय़ों,
कीचड़ हुए बरफ के लोंदों,
गैस के मरीज़ यात्रियों और रुके हुए पनालों की। भाग-दौड़—सामान
यहाँ से वहाँ रखवाते, धक्कम-धक्के में टिकट
खरीदते, झगड़ते और गालियाँ बकते मुसाफिरों की;
नीचे से आती गाडिय़ों के पीछे दौड़ते,
अपने-अपने टोकन खिड़कियों से अन्दर पहुँचाते और
एक-दूसरे से मारपीट करते कुलियों की; तथा उस
सबके बीच सुबह के अखबार, बासी फल और धूल-खाई
मिठाइयाँ बेचते फेरी वालों की। पचीस आदमियों के बीच गुत्थमगुत्था
होकर किसी तरह टिकट तो मैं ले आया था, पर
सत्रह सो इकावन नम्बर की बस जिससे सफर करना था,
अभी नीचे से आयी नहीं थी। मैं हर दो-चार मिनट बाद
बाहर आकर घिचपिच खड़ी बसों के नम्बर पढ़ता था,
नीचे से आ रही हर बस की आगे-पीछे की नम्बर-प्लेटें
देखता था और उस खिंचते-कसते गुंझल से बचने के लिए वेटिंग हाल की
सुरक्षित चौहद्दी में लौट आता था। वह सारा वातावरण ही जैसे एक
छटपटाहट का था—हर चीज़
के वहाँ से निकल भागने की झटपटाहट का और न निकल पाने की मजबूरी का।
हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से उलझकर उसके और अपने रास्ते में रुकावट बनी
थी। रास्ते में कुछ जगह लैंड-स्लाइड होने की वजह से उधर की गाडिय़ाँ
लेट आ रही थीं। इधर की गाडिय़ाँ उनके बैरियर पार करने की प्रतीक्षा
में रुकी थीं। पूरा मोटरस्टैंड एक ऐसे इंजन की तरह घरघरा रहा था
जिसका एक्सीलरेटर जाम हो गया हो।
एक बुड्ढा आदमी था जो कई बार उधर से इधर और इधर से
उधर सडक़ पार कर चुका था। एक जीप थी जो पार्किंग के लिए जगह की तलाश
में कभी दायें जाती थी,
कभी बायें। स्टैंड के बीचोंबीच सन्तरों की एक टोकरी
किसी बस के पहिये से कुचल गयी थी और कई छोटी-बड़ी—हर
उम्र के लोग मलीदा होने से बचे सन्तरों पर इधर-उधर से झपट रहे थे।
मैं आठवीं बार वेटिंग-रूम की सड़ाँध से बचने के लिए फिर बाहर निकल
आया था। एक बेबसी की नज़र सडक़ पर डालता हुआ सोच रहा था कि क्या यह
सम्भव होगा कि समय से नीचे पहुँचकर मैं आज कहीं की भी गाड़ी पकड़
सकूँ!
एक तरफ बदबू से सिर फटने को आ रहा था और दूसरी तरफ
अंतडिय़ों में भूख की कुलबुलाहट महसूस होने लगी थी। चलते समय रास्ते
की जो योजना दिमाग में थी,
वह सब गड़बड़ा गयी थी। सोचा था,
साढ़े पाँच बजे अधरास्ते के उस छोटे-से होटल में चाय
पिऊँगा जिसका बुड्ढा मालिक हर आनेवाले की खातिरदारी के लिए स्वयं
खड़ा रहता था। हर बार सफर करते हुए मन में आशंका रहती थी कि इस बार
शायद वह वहाँ नहीं मिलेगा। पर उसे देख लेने पर एक आश्वासन-सा महसूस
होता था कि इतना समय बीत जाने पर भी सब कुछ अभी उसी तरह है—कि
उस बीच जो कुछ हुआ है, उसके होने से किसी चीज़
में कोई अन्तर नहीं आया। वह बुड्ढा सरदार जैसे एक सिग्नल था,
जिसके डाउन होने के बाद ही ज़िन्दगी की पटरियाँ कोई
वास्तविक रुख बदल सकती थीं। वैसा ही एक और सिग्नल था बैरा रामजस—नीचे
के स्टेशन की कैंटीन का—जो साल भर बाद वहाँ
जा बैठने पर भी उसी परिचय की मुस्कराहट के साथ मेज़ साफ करता था और
खाना खाने से पहले झुककर पूछ लेता था, “वही
आप वाला आर्डर?” और सिर हिला देने पर अपनी
याददाश्त के प्रमाण के तौर पर सूप से लेकर कॉफ़ी तक एक-एक चीज़ लाकर
सामने रखने लगता था। सोचा था, साढ़े आठ बजे
वहाँ पहुँचकर खाना खा रहा हूँगा—रामजस को बता
रहा हूँगा कि इसके बाद शायद काफी दिनों तक मेरा इस तरफ आना न हो। पर
छ: बजने को थे और अभी यही पता नहीं था कि वहाँ से चलने में कितना समय
और लगेगा। गनीमत थी कि कुलियों के साथ सामान भेज देने के बाद स्कूल
के डिब्बे में से थोड़ा-बहुत खाना हलक से नीचे उतार लिया था। खाना
उतना ही गन्दा और उबकाने वाला था जितना रोज़ होता था,
बल्कि कुछ उससे ज़्यादा ही,
या शायद उस समय मुझे लगा वैसा था। पर साढ़े पाँच बजे तक अपने को भूख
से सुरक्षित रखने के लिए, जैसे अपने आँख
चुराते हुए, उससे थोड़ा बहुत पेट भर लिया था।
अब ज्यों-ज्यों समय बीत रहा था, अपने शरमसार
करता यह विचार मन में जाग रहा था कि जितना खाया था,
उससे कुछ ज़्यादा क्यों नहीं खा लिया,
जिससे कि वह सुरक्षा कुछ देर और बनी रहती—कम
से कम प्रतीक्षा का यह समय तो निकल ही जाता।
मुचड़ा हुआ टिकट हाथ में था। बस का नम्बर देखने के
लिए उसे बार-बार जेब से निकाल लेता था। जितनी देर हो चुकी थी,
उसी से लग रहा था कि चाय की जगह शायद खाना अधरास्ते
के होटल में खाना पड़े और नीचे पहुँचने पर रामजस से सिर्फ एक प्याली
चाय पी लेने का मौका न मिले। एक ख्याल यह भी था कि खाने के वक़्त
अधरास्ते का बुड्ढा सरदार भी अपनी जगह पर न मिला,
तो यात्रा की शुरुआत से ही पटरी बदल जाने का एहसास न
होने लगे—लगने लगे कि
आगे का सब कुछ होने के अर्थ में उसका रूप अब निश्चित है...।
टिकट को सिगरेट की तरह गोल करके हाथों में मलता हुआ
मैं सडक़ के उस तरफ़ ढलान के घरों और उनसे आगे दायीं तरफ़ रेलवे शेड की
छत को देखता रहा। छत पर बन्दरों की एक टोली अड्डा जमाए थी।
पन्द्रह-बीस बन्दर थे—छोटे-बड़े
और मझोले—जो छत के कंगूरों पर टहलते हुए
आसपास की पूरी स्थिति का निरीक्षण कर रहे थे। वे शायद किसी एक तरफ़
धावा बोलने से पहले अपनी योजना निश्चित कर लेना चाहते थे। शेड के
अन्दर से आता इंजन का धुआँ उनकी योजना को अपनी तरफ़ से एक दिशा दे रहा
था। शायद यह वही इंजन था जिसे स्कूल-पार्टी की आखिरी गाड़ी ले जानी
थी—उस पार्टी की जो एक रात नीचे के स्टेशन पर
काटकर आगे जाने को थी। पादरी बेन्सन, बॉनी
हाल, बुधवानी और कई लोगों की सीटें उस गाड़ी
में बुक थीं। उस समय तक शायद वे सब स्टेशन पर आ चुके थे और इंजन के
शेड से आने की प्रतीक्षा में पटरियों पर आँखें गड़ाए थे। मैं अब भी
हाथ का टिकट फाडक़र उन लोगों के साथ उस गाड़ी में जा सकता था। बुधवानी
बता रहा था कि उस गाड़ी में तेरह सीटें खाली बची हैं। लेकिन उन लोगों
के बीच जाना फिर से उसी घेरे में लौटना था जिससे इतनी बेसब्री से
अपने को बाहर निकालकर लाया था। एक बार स्कूल की सडक़ पार कर आने के
बाद से जिन चेहरों को मन से बुझा देना चाह रहा था,
नये सिरे से उन्हें अपने आसपास उभार लेने का अर्थ हो
सकता था फिर से उनकी अपेक्षाओं के अनुसार निर्धारित होने लगना—उसी
तरह बातें करना, सोचना,
कुढऩा और शायद बुधवानी के विनम्र सुझाव के अनुसार
सीधे खुरजा तक का टिकट ले लेना। मैंने अपना ध्यान ज़बरदस्ती शेड की छत
से हटाया और फिर अपने आसपास देखने लगा। हताश भाव से पनाले के किनारे
बैठकर बीडिय़ाँ फूँकते कुली। एक बस के नीचे लेटकर उसका साइलेंसर ठीक
करता मिस्तरी। भीख के लिए हाथ फैलाए एक बुढिय़ा और तीन बच्चे। सफर में
मितली से बचने की गोलियाँ बेचता एक दवाईफरोश। एक घिनौनापन था जो उस
पूरे वातावरण से मुझ पर घिरा आ रहा था, पर
वास्तव में वह घिनौनापन क्या उस वातावरण में ही था?
मुझे लगा कि चलने के समय तक जिस शिद्दत से कुछ और
चाह रहा हूँ। पर वह कुछ और क्या था?
सुना कि सत्रह सौ इकावन नम्बर की बस खराब होकर बैरियर
के पास रुकी है। अभी एक-डेढ़ घंटा और लगेगा उसे ठीक होकर आने में।
उतने समय के लिए सफर की शुरुआत का और स्थगित हो जाना मुझे उस समय
अच्छा ही लगा। मैं एक बार फिर लौटकर वेटिंग-रूम की चौहद्दी में गया,
पर दस-बीस सेकेंड से ज़्यादा वहाँ नहीं रुक सका। वहाँ
रखे अपने सामान को इस नज़र से देखा जैसे उसे भी खामखाह साथ ढोकर ले
आया हूँ, सामान जैसी ही चिढ़ अपने आप से भी
हुई—कि क्यों मैं इस व्यक्ति को भी हर जगह
साथ ढोने के लिए विवश हूँ, जो हर तरह से
स्वतन्त्र होने के लिए छटपटाता हुआ भी हर दो घंटे में भूख की बात
सोचने और उसका उपाय करने के लिए कुछ भी कूड़ा-कचरा पेट में भरने लगता
है? इस बार वेटिंग-रूम से बाहर आना जैसे
सामान और उस व्यक्ति दोनों से अपने को अलगा लेने की कोशिश करना था,
जैसे कि दोनों को वहीं छोडक़र
मुझे चुपचाप सडक़ पर आगे कहीं को चल देना था।
मोटर-स्टैंड पर अँधेरा उतर रहा था। शेड के नीचे से
इंजन फफ्-फफ्-फफ्
धुआँ छोड़ता प्लेटफार्म की तरफ़ चला गया था। सत्रह सौ इकावन के प्राय:
सभी मुसाफिर जो कुछ देर पहले एक-दूसरे से उस बस के विषय में पूछ रहे
थे, अब इधर-उधर छितरा गये थे। मुझे रात को
नीचे पहुँचकर कहीं की भी गाड़ी मिल सकेगी,
इसकी अब सम्भावना नहीं रही थी। आसपास गाडिय़ों,
आदमियों और ढोए जाने वाले सामान की कुलबुलाहट तनाव
के शिखर पर पहुँचकर जैसे वहीं ठहर गयी थी। जाम होकर घरघराता इंजन अब
सिर्फ घरघरा रहा था—जाम
को तोडक़र आगे बढऩे की कोशिश उसके अन्दर से जवाब दे गयी थी। मैंने पास
से गुजरते एक फल वाले को रोककर उससे दो बासी सेब खरीद लिये और सत्रह
सौ इकावन के टिकट को एक हाथ से मसलता कचर-कचर सेब खाने लगा।
शीर्ष पर वापस
[संचयन मुख्य सूची] |