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 दिनेश कुमार शुक्ल/ नया अनहद

नई दुनिया

पल-छिन रूप बदलती लगती आज अगिन कल पानी
उलझ रही है मेरे भीतर एक अनबूझ कहानी
हर किरदार भटकता फिरता देस-दिसा घर-बाहिर
किस्सागो जाना पहचाना पर भाषा अनजानी

कहाँ जा रहे थे क्या करने अब सब भूल गये हैं
हक्का-बक्का नाच रही है दुनिया चाईं-माईं
इस अनबूझ पहेली में संसार हजार छिपे हैं
छुई-छुऔवल खेल रही मुझसे मेरी परछाईं

उलझ गया है ताना-बाना करघा टूट गया है
छोर मिला था गुत्थी का जो फिर से छूट गया है
कायनात के इस तिलिस्म की पेंचदार गलियों में
लगता है मेरा ही साया मुझको लूट गया है

इन्द्रजाल की दुनिया ठग ने रातों रात सजाई
सीधे-साधे सपनों में वो चोरी से घुस आई
ले कर अपना कूड़ा-कचरा, मलबा, जहर-हलाहल
खुली नाभि के विज्ञापन में पूरी सदी समाई
 
 

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