हिंदी का रचना संसार

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

 


 दिनेश कुमार शुक्ल/ समय चक्र

सार्थकता

मैं नहीं कहता कि कविता
कालविजयी हो हमारी
जब मरेगा आदमी तो
मरेगी कविता हमारी

आदमी के साथ
उसके मोर्चों पर
वह लड़ेगी,
गाज बन कर
शोषकों की फौज पर
वह जा गिरेगी
घ्वंसरंजित छंदहीना,
-जिसे छीना जा सकेगा नही
टैंक और बमों से,
आदमी के 'वियतनामी स्वत्व' की
वह नई परिभाषा करेगी

वरेगी पाइपगनों को,
खाइयों का, झाड़ियों का,
भूख से बेसुध घरों का,
अस्पतालों, चीरघर का,
मौत में सोते शहर का,
औ' गरजती लहरियों का
बादलों, बारूद का,
वह, बन्द होती साँस तक का
सही मूल्यांकन करेगी ।

आज का, पिछले बरस का,
और भी पिछले बरस का
पर्त ऊपर पर्त जमकर
सूख कर काला पड़ा
यह खून लड़ते आदमी का
हर तरफ बिखरा पड़ा है
सूखती ये खून की पर्तें
कि जिसके जगमगाते पृष्ठ हैं
-वह विजयगाथा
आदमीयत की संजोयेगी ।

 

आदमी के साथ ही वह हँसेगी
आदमी के साथ रोयेगी

विखर जायेगी ये कविता धूल में
किंतु फिर
नये युग की कल्पना के
बीज बोयेगी
 

कदंब की डाल

सखि, डाल कदंब की डोलती है
चहुँ ओर सुधारस घोलती है । सखि...

रेत-सी धूप है खेत चुपचाप हैं
मेंड़ पर ऊँघते पेड़ चुपचाप हैं
सूखते रूख की आत्मा में कहीं
जो तरलता बची है सो डोलती है
प्यार से ज़िंदगी को टटोलती है
जो ये डाल कदंब की डोलती है । सखि...

अब न यमुना रही ना रहा वेणुवन
अब न मुरली की धुन ना कहीं श्यामघन
तप रही है मही तप रहा है गगन
और बरसों से सोया पड़ा है पवन
फिर भी जीवट तो इसका ज़रा देखिये
एक लौ-सी लगी है सो डोलती है । सखि...

वो नहर के किनारे जहाँ पेड़ थे
जिनकी माटी में जीवन का गुंजार था
खेलता जिनमें फसलों का अंबार था
उसमें भट्ठे का ज्वालामुखी बो दिया
रात दिन अब धधकता धरा का हिया
चिमनी माहौल में जहर घोलती है
फिर भी डाल कदंब की डोलती है । सखि...

हमने सोचा था अबकी फसल जो कटी
जाके कंगन तुम्हारे छुड़ा लाऊंगा
और कपड़े नये सबको सिलवाऊंगा
माँ को काशी प्रयाग करा लाऊंगा
और छप्पर नया घर पे डलवाऊंगा।

लेकिन बादल जो आये तो अफसर बने ।
जीप पर तन के आये औ' चलते बने
उनके बंगलों में फूहड़ चमन है खिला
आग में भुन रहा है कि सारा जिला
आप कीजेगा जाकर के किससे गिला
बेरुखी का बड़ा लंबा है सिलसिला ।
बेरुखी के कुतंत्र को तोड़ती है
जो ये डाल कदंब की डोलती है । सखि...


आग का, ध्वंस का यह महाज्वार है
क्या अजब युद्ध है मूसलों मार है
धर्म अब एक महामार हथियार है
जाति की एक कुटिल धार तलवार है
भाई भाई को खाने को तैयार है
दायें बाजू का बायें पे ये वार है
ऐसा खुदकुश समाँ - वक्त दुश्वार है।

और महलों में बैठा गुनहगार है
जिसकी दुर्नीति का भेद खोलती है । सखि...

किंतु इतिहास के दौर में जब कभी
सभ्यता शक्ति अपनी बटोरती है
सोती चेतना की झकझोरती है,
न्याय का सूर्य होता उदय है तभी,
मुक्ति मिलती है सारी कुरूपता से,
सूखती पतझरी शाख पर जब कभी
एक कोंपल सुनहरी-सी फूटती हैं। सखि...
 

                            <<स्वर्ण मृग<<                              सूची                                       >>वापसी>>

 

 

मुखपृष्ठ | उपन्यास | कहानी | कविता | नाटक | आलोचना | विविध | भक्ति काल | हिंदुस्तानी की परंपरा | विभाजन की कहानियाँ | अनुवाद | ई-पुस्तकें | छवि संग्रह | हमारे रचनाकार | हिंदी अभिलेख | खोज | संपर्क

Copyright 2009 Mahatma Gandhi Antarrashtriya Hindi Vishwavidyalaya, Wardha. All Rights Reserved.