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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 
देखना जरा

 

देखना ज़रा अनु फिर कोई जुलूस निकला क्या
या इस बार शवयात्रा; शमशान तक सड़क
काली ही काली है - जीने का भ्रम कहीं अधिक
अँधेरे से भरा है हालाँकि

जैसे चमकती सड़कों पर गाड़ियाँ
जिनके सामने काली पट्टियों से मुँह ढके
सिपाही

मशीनगनें थामे लगते हैं
ज़िन्दा होती कब्र से निकली
सेल्युलॉइड की तहें
जिनकी जवानी के दिनों में गुज़रने की याद सड़कों पर
अभी भी कँपकँपाती है हमें

क्या लाईं तुम? कविताएँ, सुनाओ
तुम्हारी आवाज़ उड़नखटोला
किसी जुलूस के ऊपर ले चलेगी
लोग बातें कर रहे होंगे सपनों की कविताओं पर

फिलहाल
भूलें कुछ देर कि चमकीली सड़कें भ्रम हैं और नहीं भी
उन पर दौड़ती गाड़ियाँ भ्रम हैं और नहीं भी
जर्जर शब्दों से आगे क्या कुछ है फिलहाल
उसी में ढूँढें जीवन

यह जो पंक्ति तुमने पढ़ी
इसमें क्यों आया वापस
रूखे गद्य की कब्र से निकला
काली सड़कों पर रुका जीवन
क्यों आया वापस यह सच

देखना, लगता है एक और भीड़ आ रही है.

(सदी के अंत में कविता - उद्भावना – 1998; पाठ - 2009)

 

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