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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’


 

 अहा ग्राम्य जीवन भी...



शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गन्ध उस कमरे में बन्द हो जाती है .
कभी-कभी अँधेरी रातों में रज़ाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना .
साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं .

वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ .
उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच, वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ.
जाते हुए वह दे जाता है किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं .

साल भर इन्तज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी फिर बसन्त राग गाएगी.
फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाज़ा खोलेगी कहेगी कि काटेगा नहीं .

फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...

(पल-प्रतिपल - 2005)

 

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