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लोग ही चुनेंगे रंग-  ‘लाल्टू’

 

जागरण काल


जब लूटने को कुछ न बचा तो उन्होंने सपने लूटने की सोची
वे दिन दहाड़े आते रात के अँधेरे में आते
अपनी डायरियाँ खोल तय करते सपनों की कीमत
सपनों के लुटते ही गायब हो जाते डायरी के पन्ने.

महीनों बाद किसी ने ढूँढ लिए डायरी से गायब पन्ने
नुक्कड़ पर गर्भ से गिराए तीन माह के मानव शिशु के मुँह में से निकल रहे पन्ने
लोगों को विश्वास हुआ देर सही अँधेर नहीं.

लोगों ने की बहस मुहल्ले-मुहल्ले, अखबार-अखबार, रेडियो-रेडियो, टी वी-टी वी
बहस में बहस हुई पाँच सौ साल बाद की
जैसे पाँच सौ साल पहले था भक्तिकाल, लोगों ने पाँच सौ साल बाद कहा
पाँच सौ साल पहले हुआ भ्रष्टकाल, न्यायपालिका सक्रियताकाल.

किसी को होना ही था वीतराग, आस-पास भीड़ में चेहरे देखे,
बहुत देर तक देखा - कहा यह है सम्मोहनकाल.

दूर से छोटी बच्ची आ रही कदम-दर-कदम, चल रही दौड़ रही, हँस रही
धीरे-धीरे उसकी गुड़िया खोल रही आँखें.

बच्ची बोली - देखो, देखो, जाग गई.

(पश्यन्ती - 1998; सदी के अंत में कविता - उद्भावना कवितांक – 1998)

 

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