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आलोकधन्वा/
दुनिया रोज़ बनती है
पतंग
एक
उनके रक्तो से ही फूटते हैं पतंग के धागे धूप
गरुड़ की तरह बहुत ऊपर उड़ रही हो या
दो
सबसे काली रातें भादों की गयीं
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