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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/कपड़े के जूते(iii)-नींद
 

 

कपड़े के वे जूते इतने पुराने हो चुके हैं
कोई कह सकता है कि
जहाँ वे जूते हैं वहाँ कोई समय नहीं है-
मृत्यु भी अब उन जूतों को पहनना नहीं चाहेगी
लेकिन कवि उसे पहनते हैं
और शताब्दियाँ पार करते हैं!

1979
 

 

 

 

नींद
 

रात के आवारा
मेरी आत्मार के पास भी रुको
मुझे दो ऐसी नींद
जिस पर एक तिनके का दबाव भी न हो
 

ऐसी नींद
जैसे चाँद में पानी की घास।


1995
 

 

 

 


 

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