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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है
 

 

शरीर


स्त्रियों ने रचा जिसे युगों में
युगों की रातों में उतने नि‍जी हुए शरीर
आज मैं चला ढूँढने अपने शरीर में।

1995
 


 

 

एक ज़माने की कविता


वहाँ डाल पर फल पकते थे
और उनसे रोशनी निकलती थी

हम बहुत तेज़ दौड़ते थे
मैदान से घर की ओर
कभी तो आगे-आगे हम
और पीछे-पीछे बारिश

ऊँची घास की जड़ों के बीच
छोटे-छोटे फूल खिलते थे
किसी और ही पौधे से
घास के अंदर झाँकने पर
ही दिखते थे

कभी जब अचानक मेघ घिर आते
और शाम से पहले शाम हो जाती
माँ हमें पुकारती हुई
गाँव के बाहर तक आ जाती

अगर हम देर तक जगे होते
तो अँधेरे में कई तरह की आवाज़ें सुनते
जिन्हें दिन में कभी नहीं सुन पाते
 

 

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