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 आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/एक जमाने की कविता(ii)
 

 

कुएँ में डोल डुबोने की आवाज़
जानवरों की भारी साँस
कोई अकेला पक्षी ऊपर तारों के बीच
बोलता जाता हुआ

फ़सल की कटाई के समय
पिता थके-माँदे लौटते
तो माँ
कितने मीठे कंठ से बात करती

काली रात बहुत काली होती थी
सफ़ेद रात बहुत सफ़ेद होती थी

बहन की सहेली थी सुजाता
पोखर के घाट पर गाती थी
एक लड़का था घुँघराले बाल वाला दिवाकर
छिपकर उसका गाना सुनता
एक दिन सुजाता चली गयी बंगाल
उसका परिवार भी
और दिवाकर रह गया बिहार में

कई लोग गाँव छोड़कर चले जाते
फिर कभी वापस नहीं आते

बरसात में चलती पुरवाई
बहन के साथ हम
बाग़ीचे में भटकते
बहन दिखाती कि एक पेड़ कैसे भीगता है
ऊपर पत्तों से चू रहा होता पानी
 
जबकि भीतर की शाख़ें
बिल्कुल कम गीली
और नीचे का मोटा तना तो
शायद ही कभी पूरा भीगता
वहाँ छाल पर हम गोंद छूते
बाग़ीचे में हर ओर एक महक होती
ख़ूब अच्छी लगती

माँ जब भी नयी साड़ी पहनती
गुनगुनाती रहती
हम माँ को तंग करते
उसे दुल्ह न कहते
माँ तंग नहीं होती
बल्कि नया गुड़ देती
गुड़ में मूँगफली के दाने भी होते

जब माँ फ़ुरसत में होती
तो हमें उन दिनों की बातें सुनाती
जब वह ख़ुद बच्ची थी
हमें मुश्किल से यक़ीन होता
कि माँ भी कभी बच्ची थी

दियाबाती के समय माँ गाती
शाम में रोशनी करते हुए गाना
उसे हर बार अच्छात लगता

माँ थी अनपढ़
लेकिन उसके पास गीतों की कमी नहीं थी
कई बार नये गीत भी सुनाती
 

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