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आलोकधन्वा/ दुनिया रोज़ बनती है/एक जमाने की कविता(iii)-गोली दागो पोस्टर(i)

 

रही होगी एक अनाम ग्राम-कवि

शाम की रोशनी के सामने वह गाती
हम सभी भाई-बहन उसके बदन से लगकर
चुप हो उसे सुनते
वह इतना बढ़िया गाती कि लगता
वह कोई और काम न करे
लेकिन तभी उसे जाना पड़ता रसोई में

आँचल की ओट में दीप की लौ को
हवा से बचाती
वह आँगन पार करती
गोधूलि में नीम के नीचे से
हम उसे देखते रसोई में जाते हुए
जैसे-जैसे रात होती जाती
हम माँ से तनिक दूर नहीं रह पाते

आज सालों बाद भी मैं नहीं भूला
माँ का शाम में गाना
चाँद की रोशनी में
नदी के किनारे जगली बेर का झरना
इन सबको मैंने बचाया दर्द की आँधियों से।

1995
 

 

 

गोली दागो पोस्टर


यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या
किसी पेशेवर हत्यारे का दायाँ हाथ या किसी जासूस
का चमड़े का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर
टिका हुआ धब्बा है
जो भी हो - इसे मैं केवल एक दिन नहीं कह सकता !

जहाँ मैं लिख रहा हूँ
यह बहुत पुरानी जगह है
यहाँ आज भी शब्दों से अधिक तम्बारकू का
इस्तेमाल होता है

आकाश यहाँ एक सूअर की ऊँचाई भर है
यहाँ जीभ का इस्तेकमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ आँख का इस्तेदमाल सबसे कम हो रहा है
यहाँ कान का इस्ते माल सबसे कम हो रहा है
यहाँ नाक का इस्ते माल सबसे कम हो रहा है

यहाँ सिर्फ़ दाँत और पेट हैं
मिट्टी में धँसे हुए हाथ हैं
आदमी कहीं नहीं है
केवल एक नीला खोखल है
जो केवल अनाज माँगता रहता है-
 

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