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राकेश श्रीमाल की कविताएँ

अनुक्रम

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कविता
प्रेम जब छूटता है
इधर सुनो

 

 

नाम

: राकेश श्रीमाल

जन्म

: 1963 इंदौर

शिक्षा

: एम.कॉम.

प्रकाशित कृतियाँ

: कविता संग्रह - अन्य

पुरस्कार/सम्मान

:

संप्रति

:D-17,विश्वविद्यालय परिसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा

टेलीफोन

:91-9764495276

ई-मेल

: devyani.shreemal@gmail.com

प्रेम जब छूटता है
इधर सुनो
जब रहती है वह मेरे पास
गई और आई
पतंग
माँ : कुछ शब्द चित्र
मिलना
बेवफाई पर चार कविताए
इधर देखो
गुपचुप जो रहता है प्रेम

प्रेम जब छूटता है

एक

मैं समझ रहा हूँ
तुम्हारा होना
तुम्हारी इच्छाओं से

कितनी छिपी रहती है
हमारे ही प्रेम की इच्छा
हमारे ही प्रेम से दूर

हम किसे समझाते हैं
किसे प्रेम करते हैं
किसे छलते हैं

दो

तुम्हारे साथ
अच्छा लगता है
टमाटर, प्याज खरीदना
धूप में छत पर बैठ मटर छीलना
मौसम की बात करना
कभी-कभी गुंदेचा बंधु को सुनना

ऐसा क्या है
इस जीवन में
जो संभव हो तुम्हारे बिना

तीन

प्रेम ही
एक दिन
अंत कर देता है प्रेम का

इतने सलीके से
कोई स्वेटर भी नहीं बुन पाता होगा

चार घर आगे
दो घर पीछे

कितनी भोली और निश्चल
अनेक प्रेम में बँट जाने की इच्छा
थोड़ा अभिनय
थोड़ा सा झूठ
ढेर सारी भाव-भंगिमाएं
तय कर देते हैं
प्रेम के न होने को

चार

वह मुझे प्रेम करती है
मैं उसके प्रेम को छलता हूँ

चांद, सपने और फिक्र की दुनिया में गुम
उसे पता भी नहीं होता
मेरा प्रेम नकली है

बिना मेरे अंतस को जाने
विश्वास करती है वह
मेरे शब्दों पर

वह नापती है प्रेम को
भावनाओं के बांट से
मैं जो उसका तराजू हूँ
दन्डी मार कर रखता हूँ

मै खेलता हूँ
अपना ही खेल
वह मैदान में ही खड़े रहती है
हारना उसकी नियति है

पाँच

प्रेम जब छूटता है
खुद को छोड़
बहुत कुछ छोड़ जाता है

कहाँ और कब
क्या-क्या कहा था उसने

छोटी-छोटी फिक्रों का जमावड़ा
अलौकिक दुनिया की सैर
कुछ ज्यादा ही निर्भरता

छूट जाता है एक दिन

रहता सब कुछ वही है
आंखे बंद कर देती है देखना
फिर टीस की तरह उभरता है
जो अब नहीं है
हमेशा-हमेशा के लिए

छह

कहने को अब कुछ नहीं बचा
जो बचा है कहने लायक नहीं

यही होता है एक दिन
अमूमन सबके साथ

गर्त में चले जाते हैं सारे वादे
अंगूठा दिखाने लगता है समय भी
अकेला हो जाता है हाथ

एकाएक उपस्थित हो जाती है नियति
अपने क्रूर अट्टहास के साथ

मौका भी नहीं मिलता
समझने के लिए

खुद के साथ बचा रहता है
केवल खुद ही

सात

उसने ही कहा था
ऐसा कुछ नहीं होता
मालूम होने के बावजूद

कब किसकी हो जाती है कोई देह
बिना सार्वजनिक हुए
लगभग किसी रहस्य की तरह

उसने यह नहीं कहा था
मैंने समझ लिया था

दीवार में छिपी रेत
नहीं दिखकर भी
होती तो वहीं है

वह क्या है
जो ना दिखते हुए भी
हमेशा दृश्य में शामिल रहता है

उसने कुछ नहीं बताया था
सिवाए प्रेम के

प्रेम में ही संभव है सब कुछ
जो अन्यत्र कहीं नहीं

ऐसा कोई नहीं
जो प्रेम करते हुए
सिर्फ प्रेम करता हो

आठ

कौन जानता है
सब कुछ सोचते हुए किया है उसने

किसी मजाक की तरह बंधन
बन जाता है तात्कालिक

रंग बदल जाता है नीले का
सरसराती सूखी पत्तियाँ
खामोश रातें
बौझिल सपनें

छोड़ देते हैं शब्द भी साथ
गूँगी हो जाती है आवाज
शून्य में स्थिर हो जाता है जीवन

उड़ जाती है कहीं दूर कोई हरी पत्ती
फिर से न लौटने के लिए

इधर सुनो

एक

इधर सुनो

सच तो यह है कि
झेंपता हुआ चाँद
कभी अपने आकार में मुस्कराता
हम दोनों के बीच
लगभग अकेला
हमेशा मिलता है हमें

हमारी दूरी को
अपने होने से पाटता

छेड़ता कभी तुमको
कभी मुझ संग अठखेलिया करता

इधर सुनो
इस ब्रम्हाण्ड में
किसी और की नहीं
केवल हमारी निकटता के मध्य
तैनात रहता है वह
बेनागा ........

दो

इधर सुनो
कुछ शब्द भटक गए थे कल
नहीं पहुंच पाए तुम तक

उन्हें ढूंढ़ कर
ध्यान से सुन लेना तुम

रास्ते में मिल गए होंगे वे
तुम्हारे कहे शब्दों से
झिझकते हुए
पहचान बढ़ा रहे होंगे अपनी

इधर सुनो
ठीक नहीं
इतना हमारे शब्दों का मिलना

ड़र है मुझे
अकेला न कर दें
हमारे ही शब्द हमें

तीन

इधर सुनो
कल नहीं मिल पाऊंगा मैं तुमसे

बेवजह के काम हैं कुछ

निपटाने हैं कुछ हिसाब-किताब
जवाब देने हैं चिट्ठियों के
चाय पर बुला रखा है पड़ोसी को
छांटना है अखबारों की रद्दी

इधर सुनो
फिर मिल लेना तुम मुझसे आकर
साथ ही रहना पूरे दिन

चार

इधर सुनो
मफलर निकाल लो अब तुम
ढँक कर रखा करो अपने कान

तुम तक पहुंचते-पहुंचते
ठंड ना लग जाए कहीं
मेरे बोले गए शब्दों को

पांच

इधर सुनो
मैं जो बोल रहा हूं
तुम्हें ही समझाना है
मुझे भी उसका अर्थ

छह

इधर सुनो
तुम्हें ही सुनना है
अपने कानों से
मेरे न बोले गए शब्द

सात

इधर सुनो
कई दिनों से
नहीं सुन पाया तुम्हें तसल्ली से

आज की शाम
कर ली है खाली मैंने
तुम्हारे शब्दों से भरने के लिए

आठ

इधर सुनो
अच्छा लगता है मुझे
अकेले नाव में बैठना

तुम चलना मेरे साथ
मेरी पतवार बनकर

नौ

इधर सुनो
थोड़ी ताकीद रखा करो तुम
कोई और न पढ़ पाएं
तुम्हारे लिए लिखे मेरे शब्द

वैसे पढ़ भी ले अगर
नहीं समझ पाएगा वह
इनका अर्थ
जो पहुंचता है तुम तक

दस

इधर सुनो
थक गया हूं मैं अब
लगातार बोलते-बोलते

तुम ऐसा करना
मेरे पिछले शब्दों की
धूल झाड़कर
फिर-फिर से सुन लेना उन्हें

कहीं एकरसता ना हो उनमें
निकाल लेना
अपनी मर्जी से
अपना मनचाहा अर्थ

इधर सुनो
पर खुश रहना तुम
पिछले शब्दों को सुनकर

जब रहती है वह मेरे पास

एक

डर नहीं लगता
न ही कोई होती है ऊहा-पोह
जीवन का पूरा गणित
हो जाता है विषम रहित

ठहर जाता है समय भी थोड़ी देर
अपना मनचाहा स्वप्न देखने के लिए
बादल खोजने लगते हैं अपना साथी
अपने साथ जमीन पर बरसने के लिए

पत्ता चुन लेता है एक और पत्ता
हवा के वशीभूत टहलते हुए
जलने लगती है दीपक की लौ भी
चुपचाप एक जगह स्थिर होकर

कहे गए शब्दों की पारदर्शी बूंदे
गिरने लगती हैं महासागर में
अपना ही प्रतिचक्र बनाते हुए

ऐसे
नीरव क्षणों में
परस्पर देखने लगती हैं एक दूसरे की आँखें
कितना पहचान पाए
बाकी है कितना परिचय
एक दूसरे के लिए अभी भी

काल ही देख पाता है
उनके अपरिचय में दुबका प्रेम

दो

मन की समूची पृथ्वी पर
एकाएक आ जाता है बसंत
खिल जाते हैं पलाश

दूर कहीं
बाँस की छत के नीचे
गोबर से लीपे गए पूरे घर में
ठंड से बचने के लिए
जल जाता है कोई अलाव

वहीं कहीं आँगन में बैठी माँ
करती होगी याद बेटे को
उसकी पसंदीदा सब्जी बनाते हुए

गाँव का कोई पुराना मित्र
एकाएक ही करने लगता होगा याद
बचपन के दिनों की

यही होता है हमेशा
जब भी आती है वह
हमेशा बसंत को लेकर
गड्ड-मड्ड हो जाता है बिताया हुआ जीवन

लगता है
टूट कर बिखर गई है
रेत घड़ी
सब कुछ झुठलाते हुए

तीन

तारीखें भी देखती होंगी
बीच रात में आकर
पूरे दिन की लुका-छिपी में
चुपके से सब कुछ

शायद उसे तो
समय भी पता हो पहले से
कब रहोगी तुम मेरे पास

वह सबसे सुखद समय रहता होगा
तारीख के पास भी

कोई भी हो सकता है दिन
अब तो गिनती नहीं
महीनों की भी

इस बरसात में आई तारीख
याद करती होगी पिछली बरसात
नए सिरे से देखती होगी
पहले जैसा घटा सब कुछ

कितनी और गर्मियां आएंगी ऐसी ही
न मालूम कितनी यात्राओं के दरमियां
कोई नहीं
जो लिख पाए
इसका इतिहास

कैसे दर्ज होगा वह सब कुछ
जब रहती है वह मेरे पास


चार

कितने पल घटने हैं अभी और
होना है
कितनी और बातें
चुप्पी का भी खाता होगा कहीं तो

कितनी हड़बड़ाहट
कितनी धैर्यता
कितना बेसुध हो जाना
घटना है अभी

कितनी मुस्कुराहटें
आँखों का कितना गुस्सा
कितना उदास होना है अभी

कितना उत्साह
कितनी बैचारगी
कितनी निराशा घिरनी है अभी

और यह सब
होना है केवल उन्हीं पलों में
जब रहती है वह मेरे पास

पांच

ईश्वर भी अपने अदृश्य और अभेद्य किले से
आ जाता होगा बाहर
देखता होगा फिर
अपने चमत्कार से बड़ा सहज विस्मय

जब रहती है वह मेरे पास
ईश्वर भी रहता है इर्द-गिर्द
न मालूम किसकी पूजा करता हुआ


छह

पता नहीं कितनी सदियों से
गर्भ में रह रहे शब्द
खुद अपने को प्रस्फुटित होते देखते हैं
फिर बस जाते हैं स्मृतियों में

सात

होता है कभी यूं भी
सूझता ही नहीं वह सब उन क्षणों में
जो सोचा गया था उन्हीं क्षणों के लिए

शायद अच्छा लगता होगा
विचारे हुए को
विस्मृति में जाकर बस जाना
खोजा जा सके ताकि फिर उसे



गई और आई


एक

कहीं भी जाना हो उसे
एक शहर से दूसरे शहर
एक मन से दूसरे मन
एक जीवन से दूसरे जीवन

यह बोलना नहीं भूलती वह
'गई और आई '
मानो उसे आने के लिए जाना हो
या फिर जाने के लिए आना

दो

मानो समय का भेद ही ना रहा हो शेष
स्थिर चित्र सा समय
खुद भौंचक्का रह जाता होगा
उसके मुहँ से यह सुनकर
गई और आई


तीन

शरीर में रक्त जैसा दौड़ता है उसके
अपने होने की मूल प्रवृति के साथ
गई और आई का सूत्र

खड़ा कर देता हे उसे
वर्तमान के सामने
न मालूम किस समय में जाने के लिए


चार

जाना है कहाँ
कहाँ से लौटना है वापस

दर्शन के इस बडे़ से घर में
किराए का एक कमरा लेकर
रहती हैं गई और आई की सारी इच्छाएं

पांच

जब भी बोलती है वह
हमेशा ऐसा लगता है
कि मैं सुन रहा हूँ
मैं आने के लिए जा रही हूँ


छह

उसके होंठों पर
बड़ी ही रहस्यात्मकता के साथ
कहीं अदृश्य चस्पा हैं
गई और आई के शब्द


सात

अपनी साड़ी की खूंसी पर टंगी
घर की चाभियों जैसी ही है
उसकी कहीं गई
गई और आई की आवाज

न रहकर भी छलछलाती है
उसी घर में रखी
पानी की हर एक बंूद में

आठ

यह पता है उसे
सफर बहुत लंबा है
और वह भी जाना है पहली बार

पहुंचने के पहले
लग जाएगा ढूंढने में समय
फिर यह परखने
मंतव्य सही भी है या नहीं
साथ गुजारने
समझने और जानने में
न मालूम लगेगा कितना वक्त

फिर भी तय है उसका यह कहना
गई और आई


पतंग


एक

ऐसे ही उडंती है
खुले आकाश में

उसे पता ही नहीं
कौन लडा रहा है उसे
अपने मांझे में
काँच का कितना चुरन लगाए

किसने
कितनी बार
किया है अभ्यास
दूसरे की पतंग को काटने

कोई नहीं सोचता यह
दूसरी पतंग को काटकर
जीत सकती है कैसे भला
उसकी अपनी पतंग

दो

पतंग तो पतंग है
बिना यह जाने
कौन बना रहा है उसे
उड़ा कौन रहा है

कितने चक्कर मे
कैसे फँसती है दूसरी पतंग
यह जानती ही नहीं
पहली पतंग

किसने किसे गिराया
किसने किसे लूटा
कौन लोग है
जो यह सब देखकर ही खुश हैं

पतंग तो पतंग है
पतले कागज से बनी
किसी कविता की तरह उडती
उड़ाने वालों के
अपरिचित व्योम में


तीन

पतंग के रुप में उड़ते हैं
गुलाबी, हरे, पीले, सफेद और जामुनी रंग

जैसे पृथ्वी ने
थोडी देर के लिए
छोड़ दिए हैं अपने ही अंश

हरे को कतई नहीं पता
कि उसे उड़कर
माराकाट करना है पीले से

गुलाबी यह जानता ही नहीं
कि वह उड़ते और काटते हुए
किन हाथों की असल डोर बन गया है

सब कुछ तय होता है
आकाश में भी
इसी पृथ्वी से

चार

मंजा, डोर और हुचका
बनाते है अलग-अलग लोग
केवल पतंग के लिए

बेचते हैं फिर
अपनी ही शर्तो पर
कौन कितना काट सकता है
उडती हुई पतंगों को
विपरीत दिशा में जारी
हवा में भी

पता नहीं होता
पतंग को भी
किसके हाथ लगती है वह
कटने के बाद
फिर से
थोडी देर
उड़ने का रियाज करने के लिए


पाँच

वह देखो
दौड रहे हैं
सभी उम्र
सभी धर्म
और सभी अपने में एकाकी लोग

देखते है
किसके हाथ लगती है
एक बची खुची
टुटी हुई
लेकिन अपने में स्वतंत्र
एक अदद पतंग

छह

इसी जमीन पर
बनती हैं पतंगें
इसी जमीन से
उड़ जाने के लिए


सात

पतंग वह कुछ नहीं जानती
जो लोग जानते हैं

पतंग वह जानती है
जो कोई नहीं जानता

आठ

एक भोली पतंग
यह नहीं सोचती
कि उसी के समय में
उसी के आकाश में
उड़ती हैं ऐसी भी पतंगें
जो तय करती हैं
मनुष्य होने की पतंगों का भविष्य

माँ : कुछ शब्द चित्र

एक

कभी नहीं बताया होगा
माँ ने तुम्हें
कि देखा था उसने अपने सपने में
अपनी बेटी के प्रेमी का चेहरा

क्या अच्छा लगा होगा
तुम्हारी माँ को
वह सब कुछ देखना
जो मैंने उस समय तुम्हारे साथ बरता होगा

क्या धारणा बनाई होगी माँ ने
आखिर मेरे बारे में

कुछ तो मेरे पक्ष से भी सोचा होगा
यही कि कोई भी होता
तो वह भी वही बरतता

मन ही मन मुस्काई तो होगी जरूर माँ
हो सकता है याद आ गए हांे पुराने दिन भी
और यह भी कि
उनकी माँ भी देखती होगी ऐसे ही कुछ सपने

सच बताना
एक दिन माँ की हैसियत से
तुम यह सपना देखना पसंद करोगी या नहीं

दो

माँ कैसे देखती होगी
तुम्हारी उम्र
तुम्हारी इसी उम्र के बराबर करके

क्या जान जाती होंगी वह
तुम्हारे सारे ऊटपटांग विचार
तुम्हारी इसी उम्र में जाकर

क्या माँ भी तुम्हारी तरह हर रविवार
बांधती होगी दो चोटी
और उन गीतों को गुनगुनाती होगी
जो अब पूरे याद नहीं रहे उसे

माँ अपना ही बिताया जीवन
फिर से देखती होगी
लगभग विस्मय की तरह

तीन

माँ किसी मौसम को नहीं देख पाती होगी उस तरह
जिस तरह देख पाती हो तुम

माँ, देखती होगी
किसी भी मौसम को
उसके बाद आए मौसम से मिलाकर

मसलन ऐसी ठंड तो इसके पहले भी पड़ी थी
हाँ, गर्मी थोड़ी अलग है यह पिछली गर्मी से
अब पहले जैसा समय क्यों नहीं टपकता
बरसात की बूंदों के साथ-साथ

माँ किसी भी मौसम में
नहीं देखती केवल मौसम
वह बीते दिनों को इस बहाने देख लेती होगी
जब हुआ करते थे उसके भी बेहतरीन मौसम


चार

कभी तो सोचकर धक्का लगता होगा माँ को
कहीं तुम्हें धोखा ही ना मिल जाए प्रेम में

फिर विश्वास बहकाता होगा उसे
तुम्हारी ही नीली उड़ानों में
कभी तो चुपचाप बांध देती होगी वह
अपनी अतृप्त इच्छाओं की गठरी

सब जानती है माँ
जो तुम करती हो
हमेशा उससे छिपाकर


पाँच

तुम्हारी उम्र को
किस तरह बढ़ती देखती होगी
माँ अपनी ही आँखों से

अपना ही विस्तार समझकर
या खुद ही जी लेती होगी
तुम्हारी यह उम्र भी
चुपचाप तुम्हारे साथ रहकर


छह

माँ सोचती होगी
क्या-क्या सिखा दूं अपनी बेटी को
और वह भी जल्दी-जल्दी

जो खुद उसने नहीं सीखा कभी


सात

उस दिन
माँ ने ही बताया था
तुम्हारे बचपन का एक मजेदार किस्सा

और हँस दी इस तरह
जैसे अभी-अभी फिर से घटा हो उसके सामने


आठ

किस तरह लेती होगी
हमारे प्रेम को
माँ अपने ही देखने में

ऐसे
जैसे ऐसा होना ही था

या फिर ऐसा
हमेशा ही क्यों होता है


नौ

मेरा सोचना
माँ के सोचने में जाकर
ऐसा गड्ड-मड्ड हो जाता है
ठीक से दिख नहीं पाती तुम

उसके देखने में रहती है अलग जिम्मेदारी
मेरे देखने में अलहदा मस्ती
वह फिक्र की पारदर्शी सीप में रखती है तुम्हें सहेजकर
मैं खुले मैदान में दौड़ता तुम्हारे पीछे
उसकी हर बात धीर गंभीर ै तुम्हारे लिए
मेरी महज छेड़छाड़

तुम खामोशी में अक्सर रहती हो माँ की बेटी बनकर
मुझे अच्छा लगता है तुम्हारा बेटा बनना


दस

माँ ने क्या सोचकर पहनाई थी तुम्हें
अपने जीवन की पहली साड़ी

कितने बंध बार-बार बांधे तुमने
साड़ी पहनना सीखने के दौरान
कितनी बार मीठे से झल्लायी होगी माँ तुम पर
कितनी बार उतरा होगा तुम्हारी आँखों में मेरा अक्स
साड़ी को लपेटते-लपेटते

क्या तुम्हें यकीन है
माँ ने भाँप लिया होगा
साड़ी के पल्लू को छूकर
वहाँ मेरा अदृश्य होना

मिलना

एक

यह न मिल पाने का स्थापत्य है
जिसे बनाया है
समय ने दुष्कर पत्थरों से

इसकी एक खिड़की पर
जहाँ तुम्हें खड़ा होना था
एक शून्य टंगा हुआ है

इसके दरवाजे को
ढंक लिया है
हवा के थपेड़ो ने

कोई नहीं जो आता हो
थोड़ी देर टहलने के लिए यहाँ

किसी ने इसे देखा तक नहीं

यह ऐसा ही स्थिर रहेगा
हमारे न रहने के बाद भी

दो

समय ने सेंध मारकर
चुरा लिया हमारा ही मिलना

ढीठ होकर हँस रहा है अब

इसी समय ने भोलेपन से
मिलाया था कभी हमें
हमेशा साथ रहने
नहीं जानता समय
हमने उससे परे रहना सीख लिया है


तीन

हमारे मिलने पर
जब चुप हो गया था समय
रूक गई थी दीवार घड़ी
तुमने ही कहा था ना
इसी में संभव है
हमारा मिलना


चार

किताब के पन्ने की तरह
चुपके से
समय ने मोड़ दिया हमारा मिलना
फिर कभी मिलने के लिए

कहीं-कहीं निशान भी लगा दिए हैं उसने
फिर-फिर समझने के लिए

पता नहीं
अब कौन से पन्ने को मोडे़गा
किन शब्दों को रेखांकित करेगा

हमारे मिलने की किताब में
बहुत सारे पन्ने अभी बाकी हैं

पाँच

सोचा जाता है
मिलने के लिए
मिलते हुए
सोचा नहीं जाता

सोचा हुआ
मिलना नहीं हुआ अभी
मिलना हुआ है
न सोचा हुआ

छह

एक जैसा नहीं होता
अंतराल के बाद मिलना

हमेशा अलग और अधूरा
बार-बार अपने को खाली करते हुए
स्मृतियाँ बनाते हुए

एक जैसा नहीं होता
मिलने के बाद का अंतराल भी

सात

इन आँखों से
कभी-कभी ही दिखती हो तुम क्यों

वृक्षों की टहनियों में लगी हरी पत्तियाँ
धूप-छाँव का सतत् चलता खेल
मित्रों के साथ नोंक-झोंक भरी गपशप
नींद से पहले जागते हुए सोना
कभी भी देखा जा सकता है

अभी तो अच्छी तरह से
देख भी नहीं पाया हूँ तुम्हें
क्या आँखों से देखा हुआ
हमेशा संपूर्ण नहीं होता

सात



हम नहीं मिलते हुए
कितनी बार मिल जाते हैं
पता नहीं चल पाता

कल किस वक्त
कहाँ और कैसे मिले थे
याद नहीं रह पाता

क्या कहा था तुमने मुझसे
क्या मैंने भी कुछ कहा था
धंुध में ओझल हो जाता है सब

आँख खुद अपनी आँख से
देखती रहती है यह मिलना
परस्पर दूर रहते हुए भी


आठ

एक हाथ
छूता है एक और हाथ
शुरू हो जाता है संवाद
दो देह का

मुस्काने लगती है हरी घास
तिरछी नजरों से देखती हैं पत्तियाँ
शाम भी शरमा जाती है थोड़ी-सी
भर जाता है मन भी

किसने किससे क्या कहा
कोई समझ नहीं पाता

बीतने लगते हैं शब्द
क्षणों की तरह

कल फिर होगा
यही संवाद
अपने को दोहराता हुआ

नौ



आना कभी-कभार मिलने
किताबों, बातों और मुस्कान के बीच
पी लेना एक प्याली चाय

फिर आना कभी बन्द आँखों में
आते ही चले जाने के लिए

बंधे रहना औपचारिकता के परिवेश में
तो कभी खुल जाना
जीवन के कई पहलुओं में

कौन हो तुम
क्या दे सकता हूँ मैं तुम्हें
सिवाए पात्र बनाने के


दस

इतना भर ही कितना होता है

अचानक अच्छे हो जाते हैं कुछ पल
जिज्ञासु हो जाते हैं शब्द
आँख खुद को ही देखने लगती है अनवरत
चुप्पी में भी चलती रहती है बात
दुबारा मिलने का नहीं होता निश्चित
किसी भी पल ले जाती है विदा

इतना भर ही कितना होता है


ग्यारह

न जाने कितने रविवार बीतेेंगे अभी
कितने महीनों में
तब भी क्या यकीन
कोई याद रख पाए अपने कहे को

कितनी जल्दी आ जाता है
यह रविवार भी
धीरे-धीरे बीतने के लिए

प्रतीक्षा से शुरू होती सुबह
मुंदी हुई शाम में ढल जाती है
फिर से नए रविवार तक

आएगा कभी एक रविवार तो
यह भ्रम दिलाने के लिए
कोई याद रखता है अपना कहा
एक अरसे बाद भी

बारह

एक जैसा नहीं होता
अंतराल के बाद मिलना

हमेशा अलग और अधूरा
बार-बार अपने को खाली करते हुए
नई स्मृतियाँ बनाते हुए

एक जैसा नहीं होता
मिलने के बाद का अंतराल भी

बेवफाई पर चार कविताए

एक

प्रेम जब छूटता है
खुद को छोड़
बहुत कुछ छोड़ जाता है

कहाँ और कब
क्या-क्या कहा था उसने

छोटी-छोटी फिक्रों का जमावड़ा
अलौकिक दुनिया की सैर
कुछ ज्यादा ही निर्भरता

छूट जाता है एक दिन

रहता सब कुछ वही है
आंखे बंद कर देती है देखना

फिर टीस की तरह चूभता है
जो अब नहीं है
हमेशा-हमेशा के लिए

दो

कहने को अब कुछ नहीं बचा
जो बचा है कहने लायक नही

यही होता है एक दिन
अमूमन सबके साथ

गर्त में चले जाते है सारे वादे
अंगूठा दिखाने लगता है समय भी
अकेला हो जाता है हाथ

एकाएक उपस्थित हो जाती है नियति
अपने क्रूर अट्टाहास के साथ

मौका भी नही मिलता
समझने के लिए

खुद के साथ बचा रहता है
केवल खुद ही


तीन

उसने ही कहा था
ऐसा कुछ नहीं होता
मालूम होने के बावजूद

कब किसकी हो जाती है कोई देह
बिना सार्वजनिक हुए
लगभग किसी रहस्य की तरह

उसने यह नहीं कहा था
मैंने समझ लिया था

दीवार में छिपी रेत
नहीं दिखकर भी
होती तो वहीं ही है

वह क्या है
जो ना दिखते हुए भी
हमेशा दृश्य में शामिल रहता है

उसने मुझे कुछ नही बताया था
सिवाए प्रेम के

प्रेम में ही संभव है सब कुछ
जो अन्यत्र कहीं नहीं होता

ऐसा कोई नहीं
जो प्रेम करते हुए
सिर्फ प्रेम करता हो


चार

कौन जानता है
सब कुछ सोचते हुए किया है उसने


किसी मजाक की तरह बंधन
बन जाता है तात्कालिक
रंग बदल जाता है नीले का

सरसराती सूखी पत्तियाँ
खामोश रातें
बौझिल सपने

छोड़ देते हैं शब्द भी साथ
गूँगी हो जाती है आवाज
शून्य में स्थिर हो जाता है जीवन

उड़ जाती है कहीं दूर हरी पत्ती
फिर से न लौटने के लिए

इधर देखो

एक

इधर देखो
पहले पहर का चंद्रमा
चाह रहा है हमसे मिलना
उकता ना जाए कहीं वह
हमारी राह देखते हुए


मैं जल्दी से निपटा लेता हूं
अपने सारे काम
तुम तो केवल समय का ध्यान रखना
शेष नहीं करना कुछ

थोड़ा भी झिझकना मत चांद से
वह भी हम जैसा ही होगा
हांलाकि मैं भी मिलूंगा पहली बार ही

हो सकता है
अपनी आदत के मुताबिक
वह दे दे एक सलाह
कैसे बचा सकते हैं हम अपना प्रेम

पर मत आना उसकी बातों पर
बचाने के लिए नहीं है हमारा प्रेम
जैसे कि हमारा जीवन


दो

इधर देखो
मैं तुम्हें खोज रहा हूं

तुम एकाएक ही चली गई
बिना यह बताए
वापस कब आओगी

अभी भी मेरी डायरी
मुस्करा रही है तुम्हारी तरह
लेकिन मुझे वह नहीं देखना

नहीं खोजना मुझे तुम्हें
पिछले सप्ताह के बीते दिनों में
उन्हें समय ने लील लिया देखते-देखते

तुम्हारे हाथ का स्पर्श भी
वाष्प बनकर उड़़ गया
कमरे से बहुत दूर

इन्हीं शब्दों में इस समय
मैं खोज रहा हूं तुम्हें
ना जाने तुम
किस पैराग्राफ के किस वाक्य में
किस छोटी या बड़ी मात्रा में
छिपी बैठी मुझे देख रही हो

तीन

इधर देखो
बहुत उदास हो रहा है मन

इसी उदासी में मिलते हैं
थोड़ी देर आज
कुछ बातें करनी हैं तुमसे

यही कि
कई दिनों से लिख नहीं पाया अच्छी कविता
थोड़ा समंदर देखने की इच्छा है
और तुम्हारे साथ घास पर बैठना चाहता हूं

तुम्हारे पास भी होगीं
थोड़ी बहुत बातें
मसलन चेहरे पर कील निकल आई है
काली बुशर्ट मुझ पर अच्छी लगती है
और मैं समय का ध्यान नहीं रखता

ऐसी बातों से ही तो
उदासी दूर होती है मन की


चार

इधर देखो
हम बीत रहे हैं एक दूसरे में
और कोई
देख भी नहीं पा रहा है इसे

सिवाए एक संदेश के
जो गलत जगह पहुंचकर ठिठक गया होगा
अपने उजागर हो जाने के डर से
(वह संदेश पढ़ने वाला इसे भी पढ़ रहा हो शायद)

केवल समय ही जानता है
इसलिए वह हमें बिता रहा है

हमारे साथ बीत रहे हैं
दुनिया के सारे करतब और कलरव
बीत रही है लय
सूखता जा रहा है थोड़ा हरापन भी
अदृश्य होते जा रहे हैं
कई सारे रिश्ते और डर

बीतते-बीतते
हम अधिक निकट आते जा रहे हैं
क्योंकि हम
एक दूसरे में बीत रहे हैं


पांच

इधर देखो
वह बन सकता है हमारा घर

एक भी दीवार नहीं है उसमें
इसलिए खिड़कियों की जरुरत नहीं
रोज रात को
चांद बन जाया करेगा छत इसकी
दसों दिशाओं में मौजूद ही हैं दरवाजे

मटकी बनाकर रख लेंगे नदी को
प्यास बुझाने के लिए
जो बोएंगे
उसी को खाया जाएगा जीवन भर

सूरज की तपन से
सूखते जाएंगे सारे गीले मौसम
और जीवन का अथक पसीना
लटका दिया जाएगा
पेड़ की टहनी से
हर पल बदलते सपनों को

जीवन के उतार-चढ़ाव को
व्यक्त कर देंगी पहाडि़या पूरा
बियाबान सन्नाटे में
निकाल लिया करेंगे नींद भी

केवल सहेज कर रखना होगा
हमारे लिखे कागजों को
कोई पढ़ना चाहे अगर
हमारे नहीं रहने के बाद

इधर देखो
इधर ही रहते हैं
हमसे परिचय करने को आतुर
हम जैसे कई सारे लोग

छह

इधर देखो
यहां लिखा है
यहां देखने की मनाही है

फिर भी देख लो एक बारगी
कि एकाएक टकरा सकता है दुख
विस्मित कर देगा कभी समय
दूरी भी आ सकती है बिना बताए

इधर देखो
देखकर जानने से
कम हो पाए शायद वह दुख
जो हम नहीं चाहते


सात

इधर देखो
समय की लयकारी में चल रहा गत निकास
अपने पूरे भाव-वैभव के साथ
सुख-दुख की देहभाषा को समेटे
गजब का रियाज है इसे

बिना पलके झपकाएं
देखते रहो इसे
यह जानने के लिए
कितना और कैसा जीना है अभी

इधर देखो
क्योंकि इसे देखने का मतलब ही जीना है


आठ

इधर देखो
हमारा अपना ही चेहरा
दिख रहा है हमें समय में

असंख्य चेहरों से अलग-थलग
एक दूसरे को देखता हुआ
सुकून से तृप्त होने वाली
जिज्ञासाओं को समेटे

कोई जल्दी नहीं कभी भी

हमें मालूम है
खत्म नहीं होने वाली
साथ रहने की अबोध अकेली इच्छा

इधर देखो
हमारे चेहरे
एक दूसरे को बता रहे हैं
हमारे ही चेहरों का पता
कभी भी
अपरिचित न होने के लिए


नौ

इधर देखो
यह हवा ले जाना चाहती है
किसी खुशबू के निकट हमें

इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा उसे
वह पहचान गई है
महसूस करने की हमारी भूख को

चलो
मिल आते हैं उससे
दूर हो जाएगा
उसका अकेलापन भी

साथ ले आएंगे थोड़ी खुशबू
बो देंगे कहीं
यदा-कदा मिलने के लिए


दस

इधर देखो
इस कागज पर क्या लिखा है मैंने

एक ही शब्द की गठरी में
बांध दिए हैं मैंने
आगत-अनागत दुखों और सपनों को
बीते और बीतने वाले समय को
उन पलों की उष्मा को
जिनसे इस गठरी में गांठ बंध पाई

इसी शब्द में
सलीके से तह किए रख दिए हैं
अपने-अपने अधिकार और गुस्सा
बेमतलब की नोंक-झोक के साथ
गूढ़ किस्म की कुछ बातंे भी

ऋतुओं से चुराकर थोड़े-थोड़े मौसम
ठूंस दिए हैं इस शब्द में
कि ठंड के बाद आ सके गर्मी
बारिश का भी मजा लिया जा सके

अदृश्य करके जोड़ दिए हैं
इसी एक शब्द में
बडी संख्या में रविवार भी
मिला जा सकता है
तब दोपहर की नीरवता से

अनंत के धूसर थपेडों से बनी स्याही लेकर
समय के विराट असीम कागज पर लिख दिया है मैंने
प्रे म .......


गुपचुप जो रहता है प्रेम

एक

कहीं कोई फिक्र नहीं
ना ही कोई नोंकझोंक
दूर की बात रही
साथ बैठकर चाय पीना

हवा में उपस्थित
ना जाने कौन सी सुगन्ध
महसूस करा देती है
एक दूसरे का होना

चंद्रमा, सूर्य और नक्षत्र मंडल
रोज
इस प्रेम की खबर लेते हुए
डर जाते होंगे
अरे, ऐसा निस्तब्ध प्रेम
फिर हंसते होंगे
इस मूर्खता को देखकर

आज पहली बार
लिख रहा हूं मैं यह सब
पढ़ लेना इसे
उसी क्षण पहुंचकर तुम
जब लिख रहा था मैं यह


दो

मिल लेते हैं प्रतिदिन
अपने-अपने शहर रहते हुए
अपने-अपने शब्दों से

प्रेम का यह
सबसे निकटतम क्षण होता है
दो क्षणों को मुस्कराने का मौका देने के लिए

कब सोते हैं
कब जागते हैं
कुछ पता नहीं रहता
एक-दूसरे को

ना यह इच्छा
कि मिला जाए कभी

कभी भी घट सकता है कोई क्षण
किसी एक के साथ

अधनींद में कह दे वह
जो
मना है इस प्रेम में

तीन

उड़ते रहते हैं शब्दों के परिधान
एक दूसरे के बीच
अपने को सुंदरतम अवस्था में देखने

कभी आसमानी
तो अक्सर काला ही रहता है परिधान का रंग

एक दूसरे के बीच उड़ते हुए
वे जरुर जानते होंगे
एक-दूसरे के अनेक भेद

ना जाने कितनी अदृश्य जेबें होंगी
उन परिधानों के पास
जहां पर सबसे छुपाकर
वे रखते हांेगे सारे भेद

कभी-कभार
स्नेही बन बताते भी होंगे
एक दूसरे को
अपना-अपना हाल

नित नए परिधान में
उपस्थित होते शब्द
असल में
फिक्र ही जताते हैं एक दूसरे की


चार

कभी कोई शब्द
चिंतित भी हो जाता होगा
कुछ दिन अपने परिजन को न देखकर

इंतजार करता होगा
चुपचाप टुकटुकी लगाए
बिना नींद निकाले

सांत्वना भी देते होंगे
कुछ परिचित-अपरिचित शब्द
वह भी औपचारिक हो
बात करने लगता होगा उनसे
अपनी आँख को
इंतजार में लगाए

पांच

हरी घास पर टहलते
मनपसंद गाने की बात करते
बिखरे बालों को सहलाते
आंखों को प्रगाढ़ परिचय की छूट देते
उंगलियों का कोई खेल
पुराने मित्रों के किस्से
अधिकतर तो सपनों की सैर

थोड़ा रोना-धोना
बेमतलब का गुस्सा
व्यर्थ की फिक्र

कुछ नहीं घटता कभी
सिवाए समय के
दोनों के बीच
ऐसे प्रेम में

छह

कौन करवाता होगा
इस पृथ्वी पर
जनगणना गुपचुप प्रेम की

न मालूम कितने बही खातों में
प्रति पल बदलते रिकार्ड
संभालते होंगे
अनगिनत लोग

गवाही का अंगूठा
लगाते-लगाते
थक गए होंगे पानी, हवा भी

अलबत्ता
रविवार को कुछ नहीं होता होगा
काम करने वाले
करते होंगे खुद कहीं प्रेम

अकुला गए होंगे
चंद्रमा और तारे
गुपचुप प्रेम की नीरवता से

बिना किसी कानून-व्यवस्था
ना ही कोई सत्ता
अंकुश रहित
स्वशासित रहता है यह साम्राज्य

यही गुपचुप प्रेम
अपने होने का सबूत देने के लिए
ढ़ल जाता है कभी कभी
कविता में
शब्दों की तरह


सात

जो खुले आम
दोनों महसूस कर पाते हैं
अपने-अपने अनुशासन में

वही है गुपचुप प्रेम


आठ

कैसे हिम्मत हो जाती है
किसी कविता की
गुपचुप प्रेम को जाहिर करने की

कहां से लाते होंगे शब्द
इसके लिए ऊष्मा
कैसे कोई कागज
सम्मान देता होगा उन्हें
अपनी जमीन पर

कैसे कोई पाठक
ठिठक कर
पढ़ लेता होगा इसे
अपनी स्मृति में दर्ज करने के लिए

किस पुस्तक में
किसी पृष्ठ क्रमांक पर
सांस लेती होगी
यह कविता

नौ

कभी तो करता होगा
गुपचुप प्रेम
अपने जाहिर होने की इकलौती इच्छा

परिचय में बदलने के लिए

दस

एक दूसरे की पसंद-नापसंद
प्रकृति को देखने का अपना तरीका
शाम से मिलने
फिर सोने की भिन्न दिनचर्या

क्या सोचते रहते हैं
एक दूसरे के बारे में
किस तरह से
किस समय में

नहीं पढ़ पाता कुछ भी
अनपढ़ गुपचुप प्रेम

 



 

 

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