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ग्यारह
महाशय
दयानाथ को जब रमा के नौकर हो जाने का हाल मालूम हुआ, तो बहुत खुश हुए।
विवाह होते ही वह इतनी जल्द चेतेगा इसकी उन्हें आशा न थी। बोले--’जगह
तो अच्छी है। ईमानदारी से काम करोगे, तो किसी अच्छे
पद पर पहुंच जाओगे। मेरा यही उपदेश है कि पराए पैसे को हराम समझना।’
रमा के जी
में आया कि साफ कह दूं--’अपना
उपदेश आप अपने ही लिए रखिए, यह मेरे अनुकूल नहीं
है।’ मगर इतना बेहया न था।
दयानाथ ने
फिर कहा--’यह
जगह तो तीस रूपये की थी, तुम्हें बीस ही रूपए मिले?’
रमानाथ--’नए
आदमी को पूरा वेतन कैसे देते, शायद साल-छः महीने
में बढ़ जाय। काम बहुत है।’
दयानाथ--’तुम
जवान आदमी हो, काम से न घबडाना चाहिए।’
रमा ने
दूसरे दिन नया सूट बनवाया और फैशन की कितनी ही चीज़ें खरीदीं। ससुराल से
मिले हुए रूपये कुछ बच रहे थे। कुछ मित्रों से उधार ले लिए। वह साहबी ठाठ
बनाकर सारे दफ्तरपर रोब जमाना चाहता था। कोई उससे वेतन तो पूछेगा नहीं, महाजन लोग उसका ठाठ-बाट देखकर सहम जाएंगे। वह जानता था, अच्छी आमदनी तभी हो सकती है जब अच्छा ठाठ हो,
सड़क के चौकीदार
को एक पैसा काफी समझा जाता है, लेकिन उसकी जगह सार्जंट हो, तो
किसी की हिम्मत ही न पड़ेगी कि उसे एक पैसा दिखाए। फटेहाल भिखारी के लिए
चुटकी बहुत समझी जाती है, लेकिन गेरूए रेशम धारण
करने वाले बाबाजी को लजाते-लजाते भी एक रूपया देना ही पड़ता है। भेख और भीख
में सनातन से मित्रता है।
तीसरे दिन
रमा कोट-पैंट पहनकर और हैट लगाकर निकला, तो उसकी शान ही कुछ और हो गई। चपरासियों ने झुककर सलाम
किए। रमेश बाबू से मिलकर जब वह अपने काम का चार्ज लेने आया, तो देखा एक बरामदे में फटी हुई मैली दरी पर एक मियां साहब
संदूक पर रजिस्टर फैलाए बैठे हैं और व्यापारी लोग उन्हें चारों तरफ से घेरे
खड़े हैं। सामने गाडियों, ठेलों और इक्कों का बाज़ार
लगा हुआ है। सभी अपने-अपने काम की जल्दी मचा रहे हैं। कहीं लोगों में
गाली-गलौज
हो रही है, कहीं चपरासियों में हंसी-दिल्लगी। सारा काम बड़े ही
अव्यवस्थित रूप से हो रहा है। उस फटी हुई दरी पर बैठना रमा को अपमानजनक जान
पड़ा। वह सीधे रमेश बाबू से जाकर बोला--’क्या मुझे
भी इसी मैली दरी पर बिठाना चाहते हैं?एक अच्छी-सी
मेज़ और कई कुर्सियां भिजवाइए और चपरासियों को हुक्म दीजिए कि एक आदमी से
ज्यादा मेरे सामने
न आने
पावे। रमेश बाबू ने मुस्कराकर मेज़ और कुर्सियां भिजवा दीं। रमा शान से
कुर्सी पर बैठा बूढ़े मुंशीजी उसकी उच्छृंखलता पर दिल में हंस रहे थे। समझ
गए, अभी नया जोश है, नई सनक है। चार्ज
दे दिया। चार्ज में था ही क्या, केवल आज की आमदनी
का हिसाब समझा देना था। किस जिंस पर किस हिसाब से चुंगी ली जाती है, इसकी छपी हुई तालिका मौजूद थी, रमा
आधा घंटे में अपना काम समझ गया। बूढ़े मुंशीजी ने यद्यपि खुद ही यह जगह छोड़ी
थी, पर इस वक्त जाते हुए उन्हें दुःख हो रहा था।
इसी जगह वह तीस साल से बराबर बैठते चले आते थे। इसी जगह की बदलौत उन्होंने
धन और यश दोनों ही कमाया था। उसे छोड़ते हुए क्यों न दुःख होता। चार्ज देकर
जब वह विदा होने लगे तो रमा उनके साथ जीने के नीचे तक गया। खां साहब उसकी
इस नम्रता से प्रसन्न हो गए। मुस्कराकर बोले--’हर
एक बिल्टी पर एक आना बंधा हुआ है, खुली हुई बात है।
लोग शौक से देते हैं। आप अमीर आदमी हैं, मगर रस्म न
बिगाडिएगा। एक बार कोई रस्म टूट जाती है, तो उसका
बंधना मुश्किल हो जाता है। इस एक आने में आधा चपरासियों का हक है। जो बडे
बाबू पहले थे, वह पचीस रूपये महीना लेते थे, मगर यह कुछ नहीं लेते।’
रमा ने
अरूचि प्रकट करते हुए कहा--’गंदा
काम है, मैं सगाई से काम करना चाहता हूं।’
बूढ़े
मियां ने हंसकर कहा--’अभी
गंदा मालूम होता है, लेकिन फिर इसी में मज़ा आएगा।’
खां साहब
को विदा करके रमा अपनी कुर्सी पर आ बैठा और एक चपरासी से बोला--’इन
लोगों से कहो, बरामदे के नीचे चले जाएं । एक-एक
करके नंबरवार आवें, एक कागज पर सबके नाम नंबरवार
लिख लिया करो।’
एक बनिया, जो दो घंटे से खडा था, खुश होकर
बोला--’हां सरकार, यह बहुत
अच्छा होगा।’
रमानाथ--’जो
पहले आवे, उसका काम पहले होना चाहिए। बाकी लोग अपना
नंबर आने तक बाहर रहें। यह नहीं कि सबसे पीछे वाले शोर मचाकर पहले आ जाएं
और पहले वाले खड़े मुंह ताकते रहें। ’
इतना
नियंत्रण रमा का रोब जमाने के लिए काफी था। वणिक-समाज में आज ही उसके
रंग-ढंग की आलोचना और प्रशंसा होने लगी। किसी बड़े कॉलेज के प्रोफसर को इतनी
ख्याति उम्रभर में न मिलती। दो-चार दिन के अनुभव से ही रमा को सारे
दांव-घात मालूम हो गए। ऐसी-ऐसी बातें सूझ गई जो खां साहब को ख्वाब में भी न
सूझी थीं। माल की तौल, गिनती और परख में इतनी धांधली थी जिसकी कोई हद नहीं। जब इस
धांधली से व्यापारी लोग सैकड़ों की रकम डकार जाते हैं, तो रमा बिल्टी पर एक आना लेकर ही क्यों संतुष्ट हो जाय, जिसमें आधा आना चपरासियों का है। माल की तौल और परख में
दृढ़ता से नियमों का पालन करके वह धन और कीर्ति,
दोनों ही कमा सकता है। यह अवसर वह क्यों छोड़ने लगा – विशेषकर जब बडे बाबू
उसके गहरे दोस्त थे। रमेश बाबू इस नए रंग ईट की कार्य-पटुता पर मुग्ध हो
गए। उसकी पीठ ठोंककर बोले--’कायदे के अंदर रहो और
जो चाहो करो। तुम पर आंच तक न आने पायेगी।’
रमा की
आमदनी तेज़ी से बढ़ने लगी। आमदनी के साथ प्रभाव भी बढ़ा। सूखी कलम घिसने वाले
दफ्तरके बाबुओं को जब सिगरेट, पान, चाय या जलपान की इच्छा होती, तो रमा के पास चले आते, उस बहती
गंगा में सभी हाथ धो सकते थे। सारे दफ्तर में रमा की सराहना होने लगी।
पैसे को तो वह ठीकरा समझता है! क्या दिल है कि वाह! और जैसा दिल है, वैसी ही ज़बान भी। मालूम होता है,
नस-नस में शराफत भरी हुई है। बाबुओं का जब यह हाल था, तो
चपरासियों
और मुहर्रिरों का पूछना ही क्या?
सब-के-सब रमा के बिना दामों गुलाम थे। उन गरीबों की आमदनी ही नहीं, प्रतिष्ठा भी खूब बढ़ गई थी। जहां गाड़ीवान तक फटकार दिया
करते थे, वहां अब अच्छे-अच्छे की गर्दन पकड़कर नीचे
ढकेल देते थे। रमानाथ की तूती बोलने लगी।
मगर जालपा
की अभिलाषाएं अभी एक भी पूरी न हुई। नागपंचमी के दिन मुहल्ले की कई
युवतियां जालपा के साथ कजली खेलने आइ, मगर जालपा अपने कमरे के बाहर नहीं निकली। भादों में
जन्माष्टमी का उत्सव आया। पड़ोस ही में एक सेठजी रहते थे, उनके यहां बडी धूमधाम से उत्सव मनाया जाता था। वहां से सास
और बहू को बुलावा आया। जागेश्वरी गई, जालपा ने जाने
से इंकार किया। इन तीन महीनों में उसने रमा से एक बार भी आभूषण की चर्चा न
की,पर उसका
यह एकांत-प्रेम, उसके आचरण से उत्तेजक था। इससे ज्यादा उत्तेजक वह पुराना
सूची-पत्र था, जो एक दिन रमा कहीं से उठा लाया था।
इसमें भांति- भांति के सुंदर आभूषणों के नमूने बने हुए थे। उनके मूल्य भी
लिखे हुए थे। जालपा एकांत में इस सूची-पत्र को बडे ध्यान से देखा करती।
रमा को देखते ही वह सूची-पत्र छिपा लेती थी। इस हार्दिक कामना को प्रकट
करके वह अपनी हंसी न उड़वाना चाहती थी।
रमा आधी
रात के बाद लौटा, तो देखा, जालपा चारपाई पर पड़ी है।
हंसकर बोला-बडा अच्छा गाना हो रहा था। तुम नहीं गई;
बड़ी गलती की।’
जालपा ने
मुंह उधर लिया, कोई उत्तर न दिया।
रमा ने
फिर कहा--’यहां
अकेले पड़े-पड़े तुम्हारा जी घबराता रहा होगा! ’
जालपा ने
तीव्र स्वर में कहा--’तुम
कहते हो, मैंने गलती की,
मैं समझती हूं, मैंने अच्छा किया। वहां किसके मुंह
में कालिख लगती।’
जालपा
ताना तो न देना चाहती थी, पर रमा की इन बातों ने उसे उत्तेजित कर दिया। रोष का एक
कारण यह भी था कि उसे अकेली छोड़कर सारा घर उत्सव देखने चला गया। अगर उन
लोगों के ह्रदय होता, तो क्या वहां जाने से इंकार न
कर देते?
रमा ने
लज्जित होकर कहा--’कालिख
लगने की तो कोई बात न थी, सभी जानते हैं कि चोरी हो
गई है, और इस ज़माने में दो-चार हज़ार के गहने बनवा
लेना, मुंह का कौर नहीं है।’
चोरी का
शब्द ज़बान पर लाते हुए, रमा का ह्रदय धड़क उठा। जालपा पति की ओर तीव्र दृष्टि से
देखकर रह गई। और कुछ बोलने से बात बढ़ जाने का भय था, पर रमा को उसकी दृष्टि से ऐसा भासित हुआ, मानो उसे चोरी का रहस्य मालूम है और वह केवल संकोच के कारण
उसे खोलकर नहीं कह रही है। उसे उस स्वप्न की बात भी याद आई, जो जालपा ने चोरी की रात को देखा था। वह दृष्टि बाण के
समान उसके ह्रदय को छेदने लगी; उसने सोचा, शायद मुझे भम्र हुआ। इस दृष्टि में रोष के सिवा और कोई भाव
नहीं है, मगर यह कुछ बोलती क्यों नहीं- चुप क्यों
हो गई?उसका चुप हो जाना ही गजब था। अपने मन का संशय
मिटाने और जालपा के मन की थाह लेने के लिए रमा ने मानो डुब्बी मारी--’यह
कौन जानता था कि डोली से उतरते ही यह विपत्ति तुम्हारा स्वागत करेगी।’
जालपा
आंखों में आंसू भरकर बोली--’तो
मैं तुमसे गहनों के लिए रोती तो नहीं हूं। भाग्य में जो लिखा था, वह हुआ। आगे भी वही होगा, जो लिखा
है। जो औरतें गहने नहीं पहनतीं, क्या उनके दिन नहीं
कटते?’
इस वाक्य
ने रमा का संशय तो मिटा दिया, पर इसमें जो तीव्र वेदना छिपी हुई थी, वह उससे छिपी न रही। इन तीन महीनों में बहुत प्रयत्न करने
पर भी वह सौ रूपये से अधिक संग्रह न कर सका था। बाबू लोगों के आदर-सत्कार
में उसे बहुत-कुछ फलना पड़ता था; मगर बिना खिलाए-पिलाए
काम भी तो न चल सकता था। सभी उसके दुश्मन हो जाते और उसे उखाड़ने की घातें
सोचने लगते। मुफ्त का धन अकेले नहीं हजम होता, यह
वह अच्छी तरह जानता था। वह स्वयं एक पैसा भी व्यर्थ खर्च न करता। चतुर
व्यापारी की भांति वह जो कुछ खर्च करता था, वह केवल
कमाने के लिए। आश्वासन देते हुए बोला--’ईश्वर ने
चाहा तो दो-एक महीने में कोई चीज़ बन जाएगी।’
जालपा--’मैं
उन स्त्रियों में नहीं हूं, जो गहनों पर जान देती
हैं। हां, इस तरह किसी के घर आते-जाते शर्म आती ही
है।’
रमा का
चित्त ग्लानि से व्याकुल हो उठा। जालपा के एक-एक शब्द से निराशा टपक रही
थी। इस अपार वेदना का कारण कौन था?क्या
यह भी उसी का दोष न था कि इन तीन महीनों में उसने कभी गहनों की चर्चा नहीं
की?जालपा यदि संकोच के कारण इसकी चर्चा न करती थी, तो रमा को उसके आंसू पोंछने के लिए, उसका मन रखने के लिए, क्या मौन के
सिवा दूसरा उपाय न था?मुहल्ले
में रोज़ ही एक-न-एक उत्सव होता रहता है, रोज़ ही
पासपड़ोस की औरतें मिलने आती हैं, बुलावे भी रोज आते
ही रहते हैं, बेचारी जालपा कब तक इस प्रकार आत्मा
का दमन करती रहेगी, अंदर-ही-अंदर कुढती रहेगी।
हंसने-बोलने को किसका जी नहीं चाहता, कौन कैदियों
की तरह अकेला पडा रहना पसंद करता है? मेरे ही कारण
तो इसे यह भीषण यातना सहनी पड़ रही है। उसने सोचा,
क्या किसी सर्राफ से गहने उधार नहीं लिए जा सकते?कई बडे
सर्राफों से उसका परिचय था, लेकिन उनसे वह यह बात कैसे कहता- कहीं वे इंकार कर दें तो-
या संभव है, बहाना करके टाल दें। उसने निश्चय किया
कि अभी उधार लेना ठीक न होगा। कहीं वादे पर रूपये न दे सका, तो व्यर्थ में थुक्का-फजीहत होगी। लज्जित होना पड़ेगा। अभी
कुछ दिन और धैर्य से काम लेना चाहिए। सहसा उसके मन में आया, इस विषय में जालपा की राय लूं। देखूं वह क्या कहती है। अगर
उसकी इच्छा हो तो किसी सर्राफ से वादे पर चीज़ें ले ली
जायं, मैं इस अपमान और संकोच को सह लूंगा। जालपा को संतुष्ट
करने के लिए कि उसके गहनों की उसे कितनी फिक्र है! बोला--’तुमसे
एक सलाह करना चाहता हूं। पूछूं या न पूछूं। ’
जालपा को
नींद आ रही थी, आंखें बंद किए हुए बोली--’अब सोने
दो भई, सवेरे उठना है।’
रमानाथ--’अगर
तुम्हारी राय हो, तो किसी सर्राफ से वादे पर गहने
बनवा लाऊं। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।’
जालपा की
आंखें खुल गई। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना--’कहिए
तो आपके लिए भोजन लाऊं, कितनी बडी अशिष्टता है।
इसका तो यही आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि
चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना
चाहिए था कि दाम देकर लाया हूं। तब वह अलबत्ता खुश होती।
इस विषय
में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आंखों से
देखकर बोली--’मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं
हूं।’
रमानाथ--’नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है
कि किसी सर्राफ से चीजें ले लूं। धीरे-धीरे उसके रूपये चुका दूंगा।’
जालपा ने
दृढ़ता से कहा--’नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूं कि
तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता लूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है।
अगर मुझे सारी उम्र बे-गहनों के रहना पड़े, तो भी
मैं कुछ लेने को न कहूंगी। औरतें गहनों की इतनी भूखी नहीं होतीं। घर के
प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेकिन तुमने तो
पहले कहा था कि जगह बडी आमदनी की है, मुझे तो कोई
विशेष बचत दिखाई नहीं देती।’
रमानाथ--’बचत
तो जरूर होती और अच्छी होती, लेकिन जब अहलकारों के
मारे बचने भी पाए। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि
यहां इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।’
जालपा--’तो
अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।’
रमानाथ--’खैर, तुम्हारी सलाह है, तो एक-आधा महीने
और चुप रहता हूं। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।’
जालपा ने
गदगद होकर कहा--’तुम्हारे
पास अभी इतने रूपये कहां होंगे?’
रमानाथ--’इसका
उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंद है?’
जालपा अब
अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची-पत्र
निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना लाकर रक्खा हुआ है,
सुनार बैठा हुआ है, केवल डिज़ाइन ही पसंद करना बाकी
है। उसने सूची के दो डिज़ाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे।
पर रमा उनका मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक- एक हज़ार का था, दूसरा आठ सौ का।
रमानाथ--’ऐसी
चीज़ें तो शायद यहां बन भी न सकें, मगर कल मैं ज़रा
सर्राफ की सैर करूंगा।’
जालपा ने
पुस्तक बंद करते हुए करूण स्वर में कहा--’इतने
रूपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उंह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों
के बिना मरा जाता है।’
रमा को आज
इसी उधेड़बुन में बडी रात तक नींद न आई। ये जडाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों
पर कितने खिलेंगे। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गई।
बारह
दूसरे दिन
सवेरे ही रमा ने रमेश बाबू के घर का रास्ता लिया। उनके यहां भी
जन्माष्टमी में झांकी होती थी। उन्हें स्वयं तो इससे कोई अनुराग न था, पर उनकी
स्त्री
उत्सव मनाती थी, उसी की यादगार में अब तक यह उत्सव मनाते जाते
थे। रमा
को देखकर बोले--’आओ
जी, रात क्यों नहीं आए? मगर
यहां गरीबों के घर
क्यों आते। सेठजी की झांकी कैसे छोड़ देते। खूब बहार रही होगी!
रमेश--’सेठजी
ने तो वचन दिया था कि वेश्याएं न आने पावेंगी, फिर
यह क्या
किया। इन मूर्खो के हाथों हिन्दू-धर्म का सर्वनाश हो जायगा। एक तो
वेश्याओं
का नाम यों भी बुरा, उस पर ठाकुरद्वारे में! छिः-छिः, न
जाने इन गधों को कब
अक्ल आवेगी।’
रमानाथ--’वेश्याएं
न हों, तो झांकी देखने जाय ही कौन- सभी तो आपकी तरह योगी
और तपस्वी नहीं हैं।’
रमेश--’मेरा
वश चले, तो मैं कानून से यह दुराचार बंद कर दूं।
खैर, फुरसत हो तो आओ
एक-आधा बाज़ी हो जाय।’
रमानाथ--’और
आया किसलिए हूं; मगर आज आपको मेरे साथ ज़रा सर्राफ तक चलना
पड़ेगा। यों कई बडी-बडी कोठियों से मेरा परिचय है; मगर आपके
रहने से
कुछ और ही बात होगी।’
रमेश--’चलने
को चला चलूंगा, मगर इस विषय में मैं बिलकुल कोरा
हूं।न कोई चीज बनवाई न खरीदी। तुम्हें क्या कुछ लेना है?’
रमानाथ--’लेना-देना
क्या है, ज़रा भाव-ताव देखूंगा।’
रमेश--’मालूम
होता है, घर में फटकार पड़ी है।’
रमानाथ--’जी, बिलकुल नहीं। वह तो जेवरों का नाम तक नहीं लेती। मैं कभी
पूछता भी हूं, तो मना करती हैं, लेकिन अपना कर्तव्य भी तो कुछ है। जब से गहने चोरी चले गए, एक चीज़ भी नहीं बनी।’
रमेश--’मालूम
होता है, कमाने का ढंग आ गया। क्यों न हो, कायस्थ के
बच्चे हो
कितने रूपये जोड़ लिए?
’
रमानाथ--’रूपये
किसके पास हैं, वादे पर लूंगा। ’
रमेश--’इस
ख़ब्त में न पड़ो। जब तक रूपये हाथ में न हों, बाज़ार
की तरफ जाओ ही मत। गहनों से तो बुड्ढे नई बीवियों का दिल खुश किया करते हैं, उन बेचारों के पास गहनों के सिवा होता ही क्या है। जवानों
के लिए और बहुत से लटके हैं। यों मैं चाहूं, तो
दो-चार हज़ार का माल दिलवा सकता हूं,मगर भई, कर्ज़ की लत बुरी है।’
रमानाथ-- ’मैं
दो-तीन महीनों में सब रूपये चुका दूंगा। अगर मुझे इसका विश्वास न होता, तो मैं जिक्र ही न करता।’
रमेश--’तो
दो-तीन महीने और सब्र क्यों नहीं कर जाते?कर्ज़ से
बडा पाप दूसरा नहीं। न इससे बडी विपत्ति दूसरी है। जहां एक बार धड़का खुला
कि तुम आए दिन सर्राफ की दुकान पर खड़े नज़र आओगे। बुरा न मानना। मैं जानता
हूं, तुम्हारी आमदनी अच्छी है, पर भविष्य के भरोसे पर और चाहे जो काम करो,
लेकिन कर्ज क़भी मत लो। गहनों का मर्ज़ न जाने इस दरिद्र देश में कैसे फैल
गया। जिन लोगों के भोजन का ठिकाना नहीं, वे भी
गहनों के पीछे प्राण देते हैं। हर
साल अरबों रूपये केवल सोना-चांदी खरीदने में व्यय हो जाते हैं। संसार के और
किसी देश में इन धातुओं की इतनी खपत नहीं। तो बात क्या है?
उन्नत देशों में धन व्यापार में लगता है, जिससे
लोगों की परवरिश होती है, और धन बढ़ता है। यहां धन!
ऋंगार में खर्च होता है, उसमें उन्नति और उपकार की
जो दो महान शक्तियां हैं, उन दोनों ही का अंत हो
जाता है। बस यही समझ लो कि जिस देश के लोग जितने ही मूर्ख होंगे, वहां जेवरों का प्रचार भी उतना
ही अधिक
होगा। यहां तो खैर नाक-कान छिदाकर ही रह जाते हैं, मगर कई ऐसे देश भी हैं, जहां होंठ
छेदकर लोग गहने पहनते हैं।
रमा ने
कौतूहल से कहा-- याद नहीं आता, पर शायद अफ्रीका हो, हमें यह सुनकर
अचंभा होता है, लेकिन अन्य देश वालों के लिए
नाक-कान का छिदना कुछ कम अचंभे की बात न होगी। बुरा मरज है, बहुत ही बुरा। वह धन, जो भोजन में
खर्च होना चाहिए, बाल-बच्चों का पेट काटकर गहनों की
भेंट कर दिया जाता है। बच्चों को दूध न मिले न सही। घी की गंध तक उनकी नाक
में न पहुंचे, न सही। मेवों और फलों के दर्शन
उन्हें न हों, कोई परवा नहीं, पर देवीजी गहने जरूर पहनेंगी और स्वामीजी गहने जरूर
बनवाएंगे। दस-दस, बीस-बीस रूपये पाने वाले क्लर्को
को देखता हूं, जो सड़ी हुई कोठरियों में पशुओं की
भांति जीवन काटते हैं, जिन्हें सवेरे का जलपान तक
मयस्सर नहीं होता, उन पर भी गहनों की सनक सवार रहती
है। इस प्रथा से हमारा सर्वनाश होता जा रहा है। मैं तो कहता हूं, यह गुलामी पराधीनता से कहीं बढ़कर है। इसके कारण हमारा
कितना आत्मिक, नैतिक, दैहिक, आर्थिक और धार्मिक पतन हो रहा है,
इसका अनुमान ब्रह्मा भी नहीं कर सकते।
रमानाथ-- ‘मैं
तो समझता हूं, ऐसा कोई भी देश नहीं, जहां
स्त्रियां गहने न पहनती हों। क्या योरोप में गहनों का रिवाज नहीं है?’
रमेश-- ‘तो
तुम्हारा देश योरोप तो नहीं है। वहां के लोग धानी हैं। वह धन लुटाएं, उन्हें शोभा देता है। हम दरिक्र हैं, हमारी कमाई का एक पैसा भी फजूल न खर्च होना चाहिए।’
रमेश बाबू
इस वाद-विवाद में शतरंज भूल गए। छुट्टी का दिन था ही,दो-चार
मिलने वाले और आ गए, रमानाथ चुपके से खिसक आया। इस
बहस में एक बात ऐसी थी, जो उसके दिल में बैठ गई।
उधार गहने लेने का विचार उसके मन से निकल गया। कहीं वह जल्दी रूपया न चुका
सका, तो कितनी बडी बदनामी होगी। सराट्ठ तक गया
अवश्य, पर किसी दुकान में जाने का साहस न हुआ। उसने
निश्चय किया, अभी तीन-चार महीने तक गहनों का नाम न
लूंगा।
वह घर
पहुंचा, तो नौ बज गए थे। दयानाथ ने उसे देखा तो पूछा—‘आज
सवेरे-सवेरे कहां चले गए थे?’
रमानाथ—‘ज़रा
बडे बाबू से मिलने गया था।’
दयानाथ—‘घंटे-आधा
घंटे के लिए पुस्तकालय क्यों नहीं चले जाया करते। गप-शप में दिन गंवा देते
हो अभी तुम्हारी पढ़ने-लिखने की उम्र है। इम्तहान न सही, अपनी योग्यता तो बढ़ा सकते हो एक सीधा-सा खत लिखना पड़ जाता
है, तो बगलें झांकने लगते हो असली शिक्षा स्कूल
छोड़ने के बाद शुरू होती है, और वही हमारे जीवन में
काम भी आती है। मैंने तुम्हारे विषय में कुछ ऐसी बातें सुनी हैं, जिनसे मुझे बहुत खेद हुआ है और तुम्हें समझा देना मैं अपना
धर्म
समझता हूं। मैं यह हरगिज नहीं चाहता कि मेरे घर में हराम की एक कौड़ी भी आए।
मुझे नौकरी करते तीस साल हो गए। चाहता, तो अब तक हज़ारों रूपये जमा कर लेता, लेकिन मैं कसम खाता हूं कि कभी एक पैसा भी हराम का नहीं
लिया। तुममें यह आदत कहां से आ गई, यह मेरी समझ में
नहीं आता। ’
दयानाथ—‘किसी
ने भी कहा हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम उसकी मूंछें उखाड़ लोगे, इसलिए बताऊंगा नहीं, लेकिन बात सच
है या झूठ, मैं इतना ही पूछना चाहता हूं।’
रमानाथ—‘बिलकुल
झूठ! ’
दयानाथ—‘बिलकुल
झूठ? ’
रमानाथ—‘जी
हां, बिलकुल झूठ? ’
दयानाथ—‘तुम
दस्तूरी नहीं लेते? ’
रमानाथ—‘दस्तूरी
रिश्वत नहीं है, सभी लेते हैं और खुल्लम-खुल्ला लेते हैं। लोग बिना मांगे
आप-ही-आप देते हैं, मैं किसी से मांगने नहीं जाता। ’
रमानाथ—‘दस्तूरी
को बंद कर देना मेरे वश की बात नहीं। मैं खुद न लूं,
लेकिन चपरासी और मुहर्रिर का हाथ तो नहीं पकड़ सकता आठ-आठ, नौनौ पाने वाले नौकर अगर न लें, तो
उनका काम ही नहीं चल सकता मैं खुद न लूं, पर उन्हें
नहीं रोक सकता ।’
यह कहते
हुए दयानाथ दफ्तर चले गए। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने निस्पृह बनकर क्या
कर लिया, जो मुझे दोष दे रहे हैं। हमेशा पैसे-पैसे
को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न पहना सके। यह डींग
मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती और
जीवन भी सुख से कटता।
रमा घर
में गया तो माता ने पूछा—‘आज
कहां चले गए बेटा, तुम्हारे बाबूजी इसी पर बिगड़ रहे थे।‘
रमानाथ—‘इस
पर तो नहीं बिगड़ रहे थे, हां, उपदेश दे रहे थे कि दस्तूरी
मत लिया करो। इससे आत्मा दुर्बल होती है और बदनामी होती है।’
जागेश्वरी—‘तुमने
कहा नहीं, आपने बडी ईमानदारी की तो कौन-से झंडे गाड़ दिए! सारी जिंदगी
पेट पालते रहे।’
रमानाथ—‘कहना
तो चाहता था, पर चिढ़जाते। जैसे आप कौड़ी-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं। आपको लेने का शऊर तो है
नहीं। जब देखा कि यहां दाल नहीं गलती , तो भगत बन
गए। यहां ऐसे घोंघा- बसंत नहीं हैं। बनियों से रूपये ऐंठने के लिए अक्ल
चाहिए, दिल्लगी नहीं है! जहां किसी ने भगतपन किया
और मैं समझ गया, बुद्धू है। लेने की तमीज नहीं, क्या करे बेचारा। किसी तरह आंसू तो पोंछे।’
जागेश्वरी—‘बस-बस
यही बात है बेटा, जिसे लेना आवेगा, वह जरूर लेगा।
इन्हें तो बस घर में कानून बघारना आता है और किसी के सामने बात तो मुंह से
निकलती नहीं। रूपये निकाल लेना तो मुश्किल है।’
रमा ने
तीनों चिट्ठियां जेब में रख लीं। डाकखाना सामने से निकल गया,
पर उसने उन्हें छोडा नहीं। यह अभी तक यही समझती है कि मैं इसे धोखा दे रहा
हूं- क्या करूं, कैसे विश्वास दिलाऊं- अगर अपना वश
होता तो इसी वक्त आभूषणों के टोकरे भर-भर जालपा के सामने रख देता, उसे किसी बड़े सर्राफ की दुकान पर ले जाकर कहता, तुम्हें जो-जो चीजें लेनी हों, ले
लो। कितनी अपार
वेदना है, जिसने विश्वास का भी अपहरण कर लिया है। उसको आज उस चोट का
सच्चा अनुभव हुआ, जो उसने झूठी मर्यादा की रक्षा
में उसे पहुंचाई थी। अगर वह जानता, उस अभिनय का यह
फल होगा, तो कदाचित् अपनी डींगों का परदा खोल देता।
क्या ऐसी दशा में भी, जब जालपा इस शोक-ताप से फुंकी
जा रही थी, रमा को कर्ज़ लेने में संकोच करने की जगह
थी? उसका ह्रदय कातर हो उठा। उसने पहली बार सच्चे
ह्रदय से ईश्वर से याचना की,भगवन्,
मुझे चाहे दंड देना, पर मेरी जालपा को मुझसे मत
छीनना। इससे पहले मेरे प्राण हर लेना।
उसके रोम-रोम से आत्मध्वनि-सी निकलने लगी--ईश्वर, ईश्वर! मेरी दीन दशा पर दया करो। लेकिन इसके साथ ही उसे
जालपा पर क्रोध भी आ रहा था। जालपा ने क्यों मुझसे यह बात नहीं कही। मुझसे
क्यों परदा रखा और मुझसे परदा रखकर अपनी सहेलियों से यह दुखडा रोया?
जालपा ने
उसे देखते ही पूछा, ‘मेरी
चिट्ठियां छोड़ तो नहीं दीं?
‘
रमा ने
बहाना किया, ‘अरे
इनकी तो याद ही नहीं रही। जेब में पड़ी रह गई।’
जालपा—‘यह
बहुत अच्छा हुआ। लाओ, मुझे दे दो, अब न भेजूंगी।’
रमानाथ—‘क्यों, कल भेज दूंगा।’
जालपा—‘नहीं, अब मुझे भेजना ही नहीं है, कुछ ऐसी
बातें लिख गई थी,जो मुझे न लिखना चाहिए थीं। अगर
तुमने छोड़ दी होती, तो मुझे दुःख होता। मैंने
तुम्हारी निंदा की थी। यह कहकर
वह मुस्कराई।
रमानाथ—‘जो
बुरा है, दगाबाज है, धूर्त है, उसकी निंदा होनी ही चाहिए।’
जालपा ने
व्यग्र होकर पूछा—‘तुमने
चिट्ठियां पढ़लीं क्या?’
रमा ने
निद्यसंकोच भाव से कहा,हां, यह कोई अक्षम्य अपराध है?’
जालपा
कातर स्वर में बोली,तब
तो तुम मुझसे बहुत नाराज होगे?’
आंसुओं के
आवेग से जालपा की आवाज़ रूक गई। उसका सिर झुक गया और झुकी हुई आंखों से
आंसुओं की बूंदें आंचल पर फिरने लगीं। एक क्षण में उसने स्वर को संभालकर
कहा,’मुझसे
बडा भारी अपराध हुआ है। जो चाहे सज़ा दो; पर मुझसे अप्रसन्न मत हो ईश्वर जानते हैं, तुम्हारे जाने के बाद मुझे कितना दुःख हुआ। मेरी कलम से न
जाने कैसे ऐसी बातें निकल गई।’
जालपा
जानती थी कि रमा को आभूषणों की चिंता मुझसे कम नहीं है, लेकिन मित्रों से अपनी व्यथा कहते समय हम बहुधा अपना दुःख
बढ़ाकर कहते हैं। जो बातें परदे की समझी जाती हैं,
उनकी चर्चा करने से एक तरह का अपनापन जाहिर होता है। हमारे मित्र समझते हैं, हमसे ज़रा भी दुराव नहीं रखता और उन्हें हमसे सहानुभूति हो
जाती है। अपनापन दिखाने की यह आदत औरतों में कुछ अधिक होती है।
रमा जालपा
के आंसू पोंछते हुए बोला—‘मैं
तुमसे अप्रसन्न नहीं हूं, प्रिये! अप्रसन्न होने की तो कोई बात ही नहीं है। आशा का
विलंब ही दुराशा है, क्या मैं इतना नहीं जानता। अगर
तुमने मुझे मना न कर दिया होता, तो अब तक मैंने
किसी-न-किसी तरह दो-एक चीजें अवश्य ही बनवा दी होतीं। मुझसे भूल यही हुई कि
तुमसे सलाह ली। यह तो वैसा ही है जैसे मेहमान को पूछ-पूछकर भोजन दिया जाय।
उस वक्त मुझे यह ध्यान न रहा कि संकोच में आदमी इच्छा होने
पर भी
‘नहीं-नहीं’ करता है। ईश्वर ने चाहा तो तुम्हें बहुत दिनों तक इंतजार न
करना पड़ेगा।’
जालपा ने
सचिंत नजरों से देखकर कहा,तो
क्या उधार लाओगे?’
रमानाथ—‘हां, उधार लाने में कोई हर्ज नहीं है। जब सूद नहीं देना है, तो
जैसे नगद
वैसे उधार। ऋण से दुनिया का काम चलता है। कौन ऋण नहीं लेता!हाथ में
रूपया आ जाने से अलल्ले-तलल्ले खर्च हो जाते हैं। कर्ज सिर पर सवार
रहेगा, तो उसकी चिंता हाथ रोके रहेगी।‘
जालपा—‘मैं
तुम्हें चिंता में नहीं डालना चाहती। अब मैं भूलकर भी गहनों का नाम न
लूंगी।’
रमानाथ—‘नाम
तो तुमने कभी नहीं लिया, लेकिन तुम्हारे नाम न लेने से मेरे कर्तव्य का अंत तो नहीं
हो जाता। तुम कर्ज से व्यर्थ इतना डरती हो रूपये जमा होने के इंतजार में
बैठा रहूंगा, तो शायद कभी न जमा होंगे। इसी तरह
लेतेदेते साल में तीन-चार चीज़ें बन जाएंगी।’
जालपा—‘मगर
पहले कोई छोटी-सी चीज़ लाना।’
रमानाथ—‘हां, ऐसा तो करूंगा ही।’
रमा बाज़ार
चला, तो खूब अंधेरा हो गया था। दिन रहते जाता तो संभव था, मित्रों में से किसी की निगाह उस पर पड़ जाती। मुंशी दयानाथ
ही देख लेते। वह इस मामले को गुप्त ही रखना चाहता था।
तेरह
सर्राफे
में गंगू की दुकान मशहूर थी। गंगू था तो ब्राह्मण, पर बडा ही व्यापारकुशल!
उसकी
दुकान पर नित्य गाहकों का मेला लगा रहता था। उसकी कर्मनिष्ठा गाहकों में
विश्वास पैदा करती थी। और दुकानों पर ठगे जाने का भय था। यहां किसी तरह का
धोखा न था। गंगू ने रमा को देखते ही मुस्कराकर कहा, ‘आइए
बाबूजी, ऊपर आइए। बडी दया की। मुनीमजी, आपके वास्ते पान मंगवाओ। क्या हुक्म है बाबूजी, आप तो जैसे मुझसे नाराज हैं। कभी आते ही
नहीं, गरीबों पर भी कभी-कभी दया किया कीजिए।‘
गंगू की
शिष्टता ने रमा की हिम्मत खोल दी। अगर उसने इतने आग्रह से न बुलाया होता तो
शायद रमा को दुकान पर जाने का साहस न होता। अपनी साख का उसे अभी तक अनुभव न
हुआ था। दुकान पर जाकर बोला, ‘यहां
हम जैसे मजदूरों का कहां गुज़र है, महाराज! गांठ में कुछ हो भी तो!
गंगू—‘यह
आप क्या कहते हैं सरकार, आपकी दुकान है, जो चीज़ चाहिए ले
जाइए, दाम आगे-पीछे मिलते रहेंगे। हम लोग आदमी
पहचानते हैं बाबू साहब, ऐसी बात नहीं है। धान्य भाग
कि आप हमारी दुकान पर आए तो। दिखाऊं कोई जडाऊ चीज़?
कोई कंगन, कोई हार- अभी हाल ही में दिल्ली से माल
आया है।’
रमानाथ—‘कोई
हलके दामों का हार दिखाइए।’
गंगू—‘यही
कोई सात-आठ सौ तक?’
रमानाथ—‘अजी
नहीं, हद चार सौ तक।’
गंगू—‘मैं
आपको दोनों दिखाए देता हूं। जो पसंद आवें, ले
लीजिएगा। हमारे यहां किसी तरह का दफल-गसल नहीं बाबू साहब! इसकी आप ज़रा भी
चिंता न करें। पांच बरस का लड़का हो या सौ बरस का बूढ़ा, सबके साथ एक बात रखते हैं। मालिक को भी एक दिन मुंह दिखाना
है, बाबू!’
संदूक
सामने आया, गंगू ने हार निकाल-निकालकर दिखाने शुरू किए। रमा की आंखें
खुल गई, जी लोट-पोट हो गया। क्या सगाई थी! नगीनों
की कितनी सुंदर सजावट! कैसी आब-ताब! उनकी चमक दीपक को मात करती थी। रमा ने
सोच रखा था सौ रूपये से ज्यादा उधार न लगाऊंगा,
लेकिन चार सौ वाला हार आंखों में कुछ जंचता न था। और जेब में द्दः तीन सौ
रूपये थे। सोचा, अगर यह हार ले गया और जालपा ने पसंद न किया, तो फायदा ही क्या? ऐसी चीज़ ले जाऊं
कि वह देखते ही भड़क उठे। यह जडाऊ हार उसकी गर्दन में कितनी शोभा देगा। वह
हार एक सहस्र मणि-रंजित नजरों से उसके मन को खींचने लगा। वह अभिभूत होकर
उसकी ओर ताक रहा था, पर मुंह से कुछ कहने का साहस न
होता था। कहीं गंगू ने तीन सौ रूपये उधार लगाने से इंकार कर दिया, तो उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। गंगू ने उसके मन का संशय
ताड़कर कहा, ‘आपके
लायक तो बाबूजी यही चीज़ है, अंधेरे घर में रख दीजिए,
तो उजाला हो जाय।‘
रमानाथ—‘पसंद
तो मुझे भी यही है, लेकिन मेरे पास कुल तीन सौ
रूपये हैं, यह समझ लीजिए।
शर्म से
रमा के मुंह पर लाली छा गई। वह धड़कते हुए ह्रदय से गंगू का मुंह देखने लगा।गंगू ने
निष्कपट भाव से कहा,
‘बाबू
साहब, रूपये का तो ज़िक्र ही न कीजिए। कहिए दस हज़ार का माल साथ
भेज दूं। दुकान आपकी है, भला कोई बात है?
हुक्म हो, तो एक-आधा चीज़ और दिखाऊं?
एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, ज़रा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम का भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगा।‘
रमा ने
मुस्कराकर कहा, ‘महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्टे छुरे से न मूंड़ लेना, गहनों के मामले में बिलकुल अनाड़ी हूं। ‘
गंगू—‘बाबूजी, ढाई सौ रूपये तो कारीगर की सगाई के इनाम हैं। यह एक चीज़
है।‘
रमानाथ—‘हां, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो, कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहां तक हो
सकेगा, जल्दी दे दूंगा।‘
गंगू ने
दोनों चीजें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दीं। फिर मुनीमजी से
नाम टंकवाया और पान खिलाकर विदा किया। रमा के मनोल्लास की इस समय सीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था,
इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था
जिसने
माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो; बल्कि उस बालक का, जिसने पैसे
चुराकर ली हो, उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं, पर दिल कांपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे।
साढ़े छः सौ रूपये चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाय तो वह छः महीने में चुका देगा। भय यही था कि
बाबूजी सुनेंगे तो जरूर नाराज़ होंगे, लेकिन
ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से
सुशोभित देखने की उत्कंठा इस शंका पर विजय पाती थी।
घर पहुंचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरा छाया हुआ था। बादल तो
उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में
घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रे की तरह
पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुका था। उसे
शंका हुई, इस अंधकारमें कोई आकर दोनों चीज़ें छीन न
ले, पानी की झरझर में कोई आवाज़ भी न सुने। अंधेरी
गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक
इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुंचता, तो
ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद-कल्पनाओं में बाधा डाल
दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेनें दिखाई दीं। प्रकाश
कितनी विश्वास उत्पन्न करने वाली शक्ति है, आज इसका
उसे यथार्थ अनुभव हुआ। वह घर पहुंचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह
उस कमरे में न गया। उनकी आंख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका, ‘इस
वक्त कहां गए थे?‘
रमा ने
उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अख़बार सुनाने लगे, तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार
पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से
छतरी ले ली और बोली,
‘तुम तो बिलकुल भीग गए। कहीं ठहर क्यों न गए।‘
रमानाथ—‘पानी
का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे।‘
यह कहता
हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछेपीछे आती होगी, पर वह
नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो
उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिलकुल भूल गई है कि रमा सर्राफे से
आया है। रमा ने कपड़े बदले और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय
दयानाथ भोजन करने आ गए। सब लोग भोजन करने बैठ गए। जालपा ने ज़ब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज उससे कुछ खाया न गया। जब वह
ऊपर पहुंची, तो रमा चारपाई पर लेटा हुआ था। उसे
देखते ही कौतुक से बोला,
‘आज सर्राफे का जाना तो व्यर्थ ही गया। हार कहीं तैयार ही
न था। बनाने को कह आया हूं। जालपा की उत्साह से चमकती हुई मुख-छवि मलिन पड़
गई, बोली,
‘वह तो पहले ही जानती थी। बनते-बनते पांच-छः महीने तो लग
ही जाएंगे।‘
रमानाथ—‘नहीं
जी, बहुत जल्द बना देगा,
कसम खा रहा था।‘
जालपा—‘ऊह, जब चाहे दे! ‘
उत्कंठा
की चरम सीमा ही निराशा है। जालपा मुंह उधरकर लेटने जा रही थी, कि रमा ने ज़ोर से कहकहा मारा। जालपा चौंक पड़ी। समझ गई, रमा ने शरारत की थी। मुस्कराती हुई बोली,
‘तुम भी बडे नटखट हो क्या लाए?
रमानाथ—‘
कैसा चकमा दिया?’
जालपा—‘यह
तो मरदों की आदत ही है, तुमने नई बात क्या की?’
जालपा
दोनों आभूषणों को देखकर निहाल हो गई। ह्रदय में आनंद की लहरें-सी उठने
लगीं। वह मनोभावों को छिपाना चाहती थी कि रमा उसे ओछी न समझे, लेकिन एक-एक अंग खिल जाता था। मुस्कराती हुई आंखें, दमकते हुए कपोल और खिले हुए अधर उसका भरम गंवाए देते थे।
उसने हार गले में पहना, शीशफल जूड़े में सजाया और
हर्ष से उन्मत्त होकर बोली, ‘तुम्हें आशीर्वाद
देती हूं, ईश्वर तुम्हारी सारी मनोकामनाएं पूरी करे।‘
आज जालपा की वह अभिलाषा पूरी हुई, जो बचपन ही से
उसकी कल्पनाओं का एक स्वप्न, उसकी आशाओं का
क्रीडास्थल बनी हुई थी। आज उसकी वह साध पूरी हो गई। यदि मानकी यहां होती, तो वह सबसे पहले यह
हार उसे
दिखाती और कहती,
‘तुम्हारा हार तुम्हें मुबारक हो! ‘
रमा पर
घड़ों नशा चढ़ा हुआ था। आज उसे अपना जीवन सफल जान पड़ा। अपने जीवन में आज पहली
बार उसे विजय का आनंद प्राप्त हुआ। जालपा ने पूछा,
‘जाकर अम्मांजी को दिखा आऊं?
रमा ने
नम्रता से कहा,
‘अम्मां को क्या दिखाने जाओगी। ऐसी कौन-सी बडी चीज़ें हैं।
जालपा—‘अब
मैं तुमसे साल-भर तक और किसी चीज़ के लिए न कहूंगी। इसके रूपये देकर ही मेरे
दिल का बोझ हल्का होगा।‘
रमा गर्व
से बोला,
‘रूपये की क्या चिंता! हैं ही कितने! ‘
जालपा—‘ज़रा
अम्मांजी को दिखा आऊं, देखें क्या कहती हैं!
‘
रमानाथ—‘मगर
यह न कहना, उधार लाए हैं।‘
जालपा इस
तरह दौड़ी हुई नीचे गई, मानो उसे वहां कोई निधि मिल जायगी।
आधी रात
बीत चुकी थी। रमा आनंद की नींद सो रहा था। जालपा ने छत पर आकर एक बार आकाश
की ओर देखा। निर्मल चांदनी छिटकी हुई थी,वह
कार्तिक की चांदनी जिसमें संगीत की शांति हैं, शांति का माधुर्य और माधुर्य का उन्मादब जालपा ने कमरे में
आकर अपनी संदूकची खोली और उसमें से वह कांच का चन्द्रहार निकाला जिसे एक
दिन पहनकर उसने अपने को धन्य माना था। पर अब इस नए चन्द्रहार के सामने उसकी
चमक उसी भांति मंद पड़ गई थी, जैसे इस निर्मल
चन्द्रज्योति के सामने तारों का आलोकब उसने उस नकली हार को तोड़ डाला और
उसके दानों को नीचे गली में गेंक दिया, उसी भांति
जैसे पूजन समाप्त हो जाने के बाद कोई उपासक मिट्टी की मूर्तियों को जल में
विसर्जित कर देता है।
चौदह
उस दिन से
जालपा के पति-स्नेह में सेवा-भाव का उदय हुआ। वह स्नान करने जाता, तो उसे अपनी धोती चुनी हुई मिलती। आले पर तेल और साबुन भी
रक्खा हुआ पाता। जब दफ्तर जाने लगता, तो जालपा उसके
कपड़े लाकर सामने रख देती। पहले पान मांगने पर मिलते थे, अब ज़बरदस्ती खिलाए जाते थे। जालपा उसका रूख देखा करती।
उसे कुछ कहने की जरूरत न थी। यहां तक कि जब वह भोजन करने बैठता, तो वह पंखा झला करती। पहले वह बडी अनिच्छा से भोजन
बनाने जाती थी और उस पर भी बेगार-सी टालती थी। अब बडे प्रेम से रसोई में
जाती। चीजें अब भी वही बनती थीं, पर उनका स्वाद बढ़गया था। रमा को इस मधुर स्नेह के सामने वह
दो गहने बहुत ही तुच्छ जंचते थे।
उधर जिस
दिन रमा ने गंगू की दुकान से गहने ख़रीदे, उसी दिन दूसरे सर्राफों को भी उसके आभूषण-प्रेम की सूचना
मिल गई। रमा जब उधर से निकलता, तो दोनों तरफ से
दुकानदार उठ-उठकर उसे सलाम करते,
‘आइए बाबूजी, पान तो खाते जाइए।
दो-एक चीज़ें हमारी दुकान से तो देखिए।‘
रमा का
आत्म-संयम उसकी साख को और भी बढ़ाता था। यहां तक कि एक दिन एक दलाल रमा के
घर पर आ पहुंचा, और उसके नहीं-नहीं करने पर भी अपनी संदूकची खोल ही दी।
रमा ने
उससे पीछा छुडाने के लिए कहा,
‘भाई, इस वक्त मुझे कुछ नहीं लेना
है। क्यों अपना और मेरा समय नष्ट करोगे। दलाल ने बडे विनीत भाव से कहा,
‘बाबूजी, देख तो लीजिए। पसंद आए तो
लीजिएगा, नहीं तो न लीजिएगा। देख लेने में तो कोई
हर्ज नहीं है। आखिर रईसों के पास न जायं, तो किसके
पास जायं। औरों ने आपसे गहरी रकमें मारीं, हमारे
भाग्य में भी बदा होगा, तो आपसे चार पैसा पा
जाएंगे। बहूजी और माईजी को दिखा लीजिए! मेरा मन तो कहता है
कि आज आप ही के हाथों बोहनी होगी।‘
रमानाथ—‘औरतों
के पसंद की न कहो, चीज़ें अच्छी होंगी ही। पसंद आते
क्या देर लगती है, लेकिन भाई, इस वक्त हाथ ख़ाली है।‘
दलाल
हंसकर बोला,
‘बाबूजी, बस ऐसी बात कह देते हैं
कि वाह! आपका हुक्म हो जाय तो हज़ार-पांच सौ आपके ऊपर निछावर कर दें। हम लोग
आदमी का मिज़ाज देखते हैं, बाबूजी! भगवान् ने चाहा
तो आज मैं सौदा करके ही उठूंगा।‘
दलाल ने
संदूकची से दो चीज़ें निकालीं, एक तो नए फैशन का जडाऊ कंगन था और दूसरा कानों का रिंग
दोनों ही चीजें अपूर्व थीं। ऐसी चमक थी मानो दीपक जल रहा हो दस बजे थे, दयानाथ दफ्तर जा चुके थे, वह भी
भोजन करने जा रहा था। समय बिलकुल न था, लेकिन इन
दोनों चीज़ों को देखकर उसे किसी बात की सुध ही न रही। दोनों केस लिये हुए घर
में आया। उसके हाथ में
केस देखते ही दोनों स्त्रियां टूट पड़ीं और उन चीज़ों को निकाल-निकालकर देखने
लगीं। उनकी चमक-दमक ने उन्हें ऐसा मोहित कर लिया कि गुण-दोष की विवेचना
करने की उनमें शक्ति ही न रही।
जालपा—‘मुझे
तो उन पुरानी चीज़ों को देखकर कै आने लगती है। न जाने उन दिनों औरतें कैसे
पहनती थीं।‘
रमा ने
मुस्कराकर कहा,’तो
दोनों चीज़ें पसंद हैं न?’
जालपा—‘पसंद
क्यों नहीं हैं, अम्मांजी,
तुम ले लो।’
जागेश्वरी
ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सिर झुका लिया। जिसका सारा जीवन ग!हस्थी की
चिंताओं में कट गया, वह आज क्या स्वप्न में भी इन गहनों के पहनने की आशा कर
सकती थी! आह! उस दुखिया के जीवन की कोई साध ही न पूरी हुई। पति की आय ही
कभी इतनी न हुई कि बाल-बच्चों के पालन-पोषण के उपरांत कुछ बचता। जब से घर
की स्वामिनी हुई, तभी से मानो
उसकी तपश्चर्या का आरंभ हुआ और सारी लालसाएं एक-एक करके धूल में मिल गई।
उसने उन आभूषणों की ओर से आंखें हटा लीं। उनमें इतना आकर्षण था कि उनकी ओर
ताकते हुए वह डरती थी। कहीं उसकी विरक्ति का परदा न खुल जाय। बोली,’मैं
लेकर क्या करूंगी बेटी, मेरे पहनने-ओढ़ने के दिन तो निकल गए। कौन लाया है बेटा?
क्या दाम हैं इनके?’
रमानाथ—‘एक
सर्राफ दिखाने लाया है, अभी दाम-आम नहीं पूछे, मगर ऊंचे दाम होंगे। लेना तो था ही नहीं, दाम पूछकर क्या करता ?’
जालपा—‘लेना
ही नहीं था, तो यहां लाए क्यों?’
जालपा ने
यह शब्द इतने आवेश में आकर कहे कि रमा खिसिया गया। उनमें इतनी उत्तेजना,
इतना तिरस्कार भरा हुआ था कि इन गहनों को लौटा ले जाने की
उसकी हिम्मत न पड़ी। बोला,तो
ले लूं?’
जालपा—‘अम्मां
लेने ही नहीं कहतीं तो लेकर क्या करोगे- क्या मुफ्त में दे रहा है?’
रमानाथ—‘समझ
लो मुफ्त ही मिलते हैं।‘
जालपा—‘सुनती
हो अम्मांजी, इनकी बातें। आप जाकर लौटा आइए। जब हाथ
में रूपये होंगे, तो बहुत गहने मिलेंगे।‘
जागेश्वरी
ने मोहासक्त स्वर में कहा,’रूपये
अभी तो नहीं मांगता?’
जालपा—‘उधार
भी देगा, तो सूद तो लगा ही लेगा?’
रमानाथ—‘तो
लौटा दूं- एक बात चटपट तय कर डालो। लेना हो, ले लो, न लेना हो, तो लौटा दो। मोह और
दुविधा में न पड़ो…’
जालपा को
यह स्पष्ट बातचीत इस समय बहुत कठोर लगी। रमा के मुंह से उसे ऐसी आशा न थी।
इंकार करना उसका काम था, रमा को लेने के लिए आग्रह करना चाहिए था। जागेश्वरी की ओर
लालायित नजरों से देखकर बोली,’लौटा
दो। रात-दिन के तकाज़े कौन सहेगा।‘
वह केसों
को बंद करने ही वाली थी कि जागेश्वरी ने कंगन उठाकर पहन लिया, मानो एक क्षण-भर पहनने से ही उसकी साध पूरी हो जायगी। फिर
मन में इस ओछेपन पर लज्जित होकर वह उसे उतारना ही चाहती थी कि रमा ने कहा,
‘अब तुमने पहन लिया है अम्मां, तो
पहने रहो मैं तुम्हें भेंट करता हूं।‘
जागेश्वरी
की आंखें सजल हो गई। जो लालसा आज तक न पूरी हो सकी, वह आज रमा की मातृ-भक्ति से पूरी हो रही थी, लेकिन क्या वह अपने प्रिय पुत्र पर ऋण का इतना भारी बोझ रख
देगी ?अभी वह बेचारा बालक है, उसकी सामर्थ्य ही क्या है? न जाने
रूपये जल्द हाथ आएं या देर में। दाम भी तो नहीं मालूम। अगर ऊंचे दामों का
हुआ, तो बेचारा देगा कहां से- उसे कितने तकाज़े सहने
पड़ेंगे और कितना लज्जित होना पड़ेगा। कातर स्वर में बोली,
‘नहीं बेटा, मैंने यों
ही पहन लिया था। ले जाओ, लौटा दो।‘
माता का
उदास मुख देखकर रमा का ह्रदय मातृ-प्रेम से हिल उठा। क्या ऋण के भय
से वह अपनी त्यागमूर्ति माता की इतनी सेवा भी न कर सकेगा?माता
के प्रति उसका कुछ कर्तव्य भी तो है? बोला,रूपये
बहुत मिल जाएंगे अम्मां, तुम इसकी चिंता मत करो। जागेश्वरी
ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही थी कि रमा मुझ पर कितना अत्याचार कर रहा
है। जालपा
उदासीन भाव से बैठी थी। कदाचित उसे भय हो रहा था कि माताजी यह कंगन ले न
लें। मेरा कंगन पहन लेना बहू को अच्छा नहीं लगा, इसमें जागेश्वरी को संदेह नहीं रहा। उसने तुरंत कंगन उतार
डाला, और जालपा की ओर बढ़ाकर बोली,’मैं
अपनी ओर से तुम्हें भेंट करती हूं, मुझे जो कुछ पहनना-ओढ़ना था, ओढ़-पहन
चुकी। अब ज़रा तुम पहनो, देखूं,’
जालपा को
इसमें ज़रा भी संदेह न था कि माताजी के पास रूपये की कमी नहीं। वह समझी, शायद आज वह पसीज गई हैं और कंगन के रूपए दे देंगी। एक
क्षण पहले उसने समझा था कि रूपये रमा को देने पड़ेंगे, इसीलिए इच्छा रहने पर भी वह उसे लौटा देना चाहती थी। जब
माताजी उसका दाम चुका रही थीं, तो वह क्यों इंकार
करती, मगर ऊपरी मन से बोली,’
रूपये न हों, तो रहने दीजिए अम्मांजी, अभी कौन
जल्दी है?’
रमा ने
कुछ चिढ़कर कहा,’तो
तुम यह कंगन ले रही हो?’
जालपा—‘अम्मांजी
नहीं मानतीं, तो मैं क्या करूं?
रमानाथ—‘और
ये रिंग, इन्हें भी क्यों नहीं रख लेतीं?’
जालपा—‘जाकर
दाम तो पूछ आओ।
रमा ने
अधीर होकर कहा,’तुम
इन चीज़ों को ले जाओ, तुम्हें दाम से क्या मतलब!’
रमा ने
बाहर आकर दलाल से दाम पूछा तो सन्नाटे में आ गया। कंगन सात सौ के थे, और रिंग डेढ़ सौ के, उसका अनुमान था
कि कंगन अधिकसे-अधिक तीन सौ के होंगे और रिंग चालीस-पचास रूपये के,
पछताए कि पहले ही दाम क्यों न पूछ लिए, नहीं तो इन
चीज़ों को घर में ले जाने की नौबत ही क्यों आती?
उधारते हुए शर्म आती थी, मगर कुछ भी हो, उधारना तो पड़ेगा ही। इतना बडा बोझ वह सिर पर नहीं ले सकता
दलाल से बोला, ‘बडे
दाम हैं भाई, मैंने तो तीन-चार सौ के भीतर ही आंका
था।‘
रमानाथ—‘तो
भाई इन दामों की चीजें तो इस वक्त हमें नहीं लेनी हैं।‘
चरनदास—‘ऐसी
बात न कहिए, बाबूजी! आपके लिए इतने रूपये कौन बडी
बात है। दो महीने भी माल चल जाय तो उसके दूने हाथ आ जायंगे। आपसे बढ़कर कौन
शौकीन होगा। यह सब रईसों के ही पसंद की चीज़ें हैं। गंवार लोग इनकी कद्र
क्या जानें।‘
रमानाथ—‘साढ़े
आठ सौ बहुत होते हैं भई!‘
चरनदास—‘रूपयों
का मुंह न देखिए बाबूजी, जब बहूजी पहनकर बैठेंगी,
तो एक निगाह में सारे रूपये तर जायंगे।‘
रमा को
विश्वास था कि जालपा गहनों का यह मूल्य सुनकर आप ही बिचक जायगी। दलाल से और
ज्यादा बातचीत न की। अंदर जाकर बडे ज़ोर से हंसा और बोला,
‘आपने इस कंगन का क्या दाम समझा था, मांजी?’
जागेश्वरी
कोई जवाब देकर बेवकूफ न बनना चाहती थी,इन
जडाऊ चीज़ों में नाप-तौल का तो कुछ हिसाब रहता नहीं जितने में तै हो जाय, वही ठीक है।
रमानाथ—‘अच्छा, तुम बताओ जालपा, इस कंगन का कितना
दाम आंकती हो? ’
जालपा—‘छः
सौ से कम का नहीं।’
रमा का
सारा खेल बिगड़ गया। दाम का भय दिखाकर रमा ने जालपा को डरा देना चाहा था, मगर छः और सात में बहुत थोडा ही अंतर था। और संभव है
चरनदास इतने ही पर राज़ी हो जाय। कुछ झेंपकर बोला,कच्चे
नगीने नहीं हैं।’
जालपा—‘कुछ
भी हो, छः सौ से ज्यादा का नहीं।’
रमानाथ—‘और
रिंग का? ’
जालपा—‘अधिक
से अधिक सौ रूपये! ’
रमानाथ—‘यहां
भी चूकीं, डेढ़सौ मांगता है।’
जालपा—‘जट्टू
है कोई, हमें इन दामों लेना ही नहीं।
रमा की
चाल उल्टी पड़ी, जालपा को इन चीज़ों के मूल्य के विषय में बहुत धोखा न हुआ
था। आख़िर रमा की आर्थिक दशा तो उससे छिपी न थी, फिर
वह सात सौ रूपये की चीजों के लिए मुंह खोले बैठी थी। रमा को क्या मालूम था
कि जालपा कुछ और ही समझकर कंगन पर लहराई थी। अब तो गला छूटने का एक ही उपाय
था और वह यह कि दलाल छः सौ पर राज़ी न हो बोला,
‘वह साढ़े आठ से कौड़ी कम न लेगा।‘
रमानाथ—‘मुझे
तो लौटाते शर्म आती है। अम्मां, ज़रा आप ही दालान
में चलकर कह दें, हमें सात सौ से ज्यादा नहीं देना
है। देना होता तो दे दो, नहीं चले जाओ।‘
जागेश्वरी--’हां
रे, क्यों नहीं, उस दलाल से
मैं बातें करने जाऊं! ‘
जालपा—‘तुम्हीं
क्यों नहीं कह देते, इसमें तो कोई शर्म की बात
नहीं।‘
रमानाथ—‘मुझसे
साफ जवाब न देते बनेगा। दुनिया-भर की ख़ुशामद करेगा। चुनी चुना,आप
बडे आदमी हैं, रईस हैं, राजा हैं। आपके लिए डेढ़सौ
क्या चीज़ है। मैं उसकी बातों में आ जाऊंगा। ‘
जालपा—‘अच्छा, चलो मैं ही कहे देती हूं।‘
रमानाथ—‘वाह, फिर तो सब काम ही बन गया।
रमा पीछे
दुबक गया। जालपा दालान में आकर बोली,
‘ज़रा यहां आना जी, ओ सर्राफ! लूटने
आए हो, या माल बेचने आए हो! ‘
चरनदास
बरामदे से उठकर द्वार पर आया और बोला,
‘क्या हुक्म है, सरकार।
जालपा—‘माल
बेचने आते हो, या जटने आते हो?
सात सौ रूपये कंगन के मांगते हो? ‘
चरनदास—‘सात
सौ तो उसकी कारीगरी के दाम हैं, हूजूर! ‘
जालपा—‘अच्छा
तो जो उस पर सात सौ निछावर कर दे, उसके पास ले जाओ।
रिंग के डेढ़सौ कहते हो, लूट है क्या?
मैं तो दोनों चीज़ों के सात सौ
से अधिक न
दूंगी।
जालपा—‘तुम्हारी
खुशी, अपनी चीज़ ले जाओ।‘
चरनदास—‘इतने
बडे दरबार में आकर चीज़ लौटा ले जाऊं?’ आप यों ही
पहनें। दस-पांच रूपये की बात होती, तो आपकी ज़बान ने
उधरता। आपसे झूठ नहीं कहता बहूजी, इन चीज़ों पर पैसा
रूपया नगद है। उसी एक पैसे में दुकान का भाडा,
बका-खाता, दस्तूरी, दलाली
सब समझिए। एक बात ऐसी समझकर कहिए कि हमें भी चार पैसे मिल जाएं
।सवेरे-सवेरे लौटना न पड़े।
जालपा—‘कह
दिए, वही सात सौ।‘
चरनदास ने
ऐसा मुंह बनाया, मानो वह किसी धर्म-संकट में पड़ गया है। फिर बोला—‘सरकार, है तो घाटा ही, पर आपकी बात नहीं
टालते बनती। रूपये कब मिलेंगे?’
जालपा—‘जल्दी
ही मिल जायंगे।’
जालपा
अंदर जाकर बोली—‘आख़िर
दिया कि नहीं सात सौ में- डेढ़सौ साफ उडाए लिए जाता था। मुझे पछतावा हो रहा
है कि कुछ और कम क्यों न कहा। वे लोग इस तरह गाहकों को लूटते हैं।’
रमा इतना
भारी बोझ लेते घबरा रहा था, लेकिन परिस्थिति ने कुछ ऐसा रंग पकडा कि बोझ उस पर लद ही
गया। जालपा तो ख़ुशी की उमंग में दोनों चीजें लिये ऊपर चली गई, पर रमा सिर झुकाए
चिंता में डूबा खडाथा। जालपा ने उसकी दशा जानकर भी इन चीज़ों को क्यों ठुकरा
नहीं दिया, क्यों ज़ोर देकर नहीं कहा—‘ मैं न
लूंगी, क्यों दुविधो में पड़ी रही। साढ़े पांच सौ भी
चुकाना मुश्किल था, इतने और कहां से आएंगे।‘
असल में
ग़लती मेरी ही है। मुझे दलाल को दरवाजे से ही दुत्कार देना चाहिए था। लेकिन
उसने मन को समझाया। यह अपने ही पापों का तो प्रायश्चित है। फिर आदमी इसीलिए
तो कमाता है। रोटियों के लाले थोड़े ही थे?
भोजन करके जब रमा ऊपर कपड़े पहनने गया, तो जालपा
आईने के सामने खड़ी कानों में रिंग पहन रही थी। उसे देखते ही बोली —‘आज
किसी अच्छे का मुंह
देखकर उठी थी। दो चीज़ें मुफ्त हाथ आ गई।‘
रमा ने
विस्मय से पूछा , ‘मुफ्त
क्यों? रूपये न देने पड़ेंगे? ‘
जालपा—‘रूपये
तो अम्मांजी देंगी? ‘
रमानाथ—‘क्या
कुछ कहती थीं? ‘
जालपा—‘उन्होंने
मुझे भेंट दिए हैं, तो रूपये कौन देगा? ‘
रमा ने
उसके भोलेपन पर मुस्कराकर कहा, यही समझकर तुमने यह चीज़ें ले लीं ? अम्मां को देना होता तो उसी वक्त दे देतीं जब गहने चोरी गए
थे।क्या उनके पास
रूपये न थे?‘
जालपा
असमंजस में पड़कर बोली, तो मुझे क्या मालूम था। अब भी तो लौटा सकते हो कह
देना, जिसके लिए लिया था, उसे पसंद नहीं
आया। यह कहकर उसने तुरंत कानों से रिंग निकाल लिए। कंगन भी उतार डाले और
दोनों चीजें केस में रखकर उसकी तरफ इस तरह बढ़ाई,
जैसे कोई बिल्ली चूहे से खेल रही हो वह चूहे को अपनी पकड़ से बाहर नहीं होने
देती। उसे छोड़कर भी नहीं छोड़ती। हाथों को फैलाने का साहस नहीं होता था।
क्या उसके ह्रदय की भी यही दशा न थी? उसके मुख पर
हवाइयां उड़ रही थीं। क्यों वह रमा की ओर न देखकर भूमि की ओर देख रही थी -
क्यों सिर ऊपर न उठाती थी? किसी संकट से बच जाने
में जो हार्दिक आनंद होता है, वह कहां था?
उसकी दशा ठीक उस माता की-सी थी, जो अपने बालक को
विदेश जाने की अनुमति दे
रही हो वही विवशता, वही कातरता, वही ममता इस समय जालपा
के मुख पर उदय हो रही थी। रमा उसके हाथ से केसों को ले सके, इतना कडा संयम उसमें न था। उसे तकाज़े सहना, लज्जित होना, मुंह छिपाए फिरना, चिंता की आग में जलना, सब कुछ सहना
मंजूर था। ऐसा काम करना नामंजूर था जिससे जालपा का दिल टूट जाए, वह अपने को अभागिन समझने लगे। उसका सारा ज्ञान, सारी चेष्टा, सारा विवेक इस आघात
का विरोध करने लगा। प्रेम और परिस्थितियों के संघर्ष में प्रेम ने विजय
पाई।
उसने
मुस्कराकर कहा, ‘रहने
दो, अब ले लिया है, तो क्या
लौटाएं। अम्मांजी भी हंसेंगी।
जालपा ने
बनावटी कांपते हुए कंठ से कहा,अपनी चादर देखकर ही पांव फैलाना चाहिए। एक नई
विपत्ति मोल लेने की क्या जरूरत है! रमा ने मानो जल में डूबते हुए कहा,
ईश्वर मालिक है। और तुरंत
नीचे चला गया। हम क्षणिक मोह और संकोच में पड़कर अपने जीवन के सुख और शांति
का कैसे होम कर देते हैं! अगर जालपा मोह के इस झोंके में अपने को स्थिर रख
सकती, अगर रमा संकोच के आगे सिर न झुका देता, दोनों के ह्रदय में प्रेम का सच्चा प्रकाश होता, तो वे पथ-भ्रष्ट होकर सर्वनाश की ओर न जाते। ग्यारह बज गए
थे। दफ्तर के लिए देर हो रही थी, पर रमा इस तरह जा
रहा था, जैसे कोई अपने प्रिय बंधु की दाह-क्रिया
करके लौट रहा हो।
पन्द्रह
जालपा अब
वह एकांतवासिनी रमणी न थी, जो दिन-भर मुंह लपेटे उदास पड़ी रहती थी। उसे अब घर में
बैठना अच्छा नहीं लगता था। अब तक तो वह मजबूर थी,
कहीं आ-जा न सकती थी। अब ईश्वर की दया से उसके पास भी गहने हो गए थे। फिर
वह क्यों मन मारे घर में पड़ी रहती। वस्त्राभूषण कोई मिठाई तो नहीं जिसका
स्वाद एकांत में लिया जा सके। आभूषणों को संदूकची में बंद करके रखने से
क्या फायदा। मुहल्ले या बिरादरी में कहीं से बुलावा आता, तो वह सास के
साथ अवश्य जाती। कुछ दिनों के बाद सास की जरूरत भी न रही। वह अकेली
आने-जाने लगी। फिर कार्य-प्रयोजन की कैद भी नहीं रही। उसके रूप-लावण्य, वस्त्र-आभूषण और शील-विनय ने मुहल्ले की स्त्रियों में उसे
जल्दी ही सम्मान के पद पर पहुंचा दिया। उसके बिना मंडली सूनी रहती थी। उसका
कंठ-स्वर इतना कोमल था, भाषण इतना मधुर, छवि इतनी अनुपम कि वह मंडली की रानी मालूम होती थी। उसके
आने से मुहल्ले के नारी-जीवन
एक दिन इस
मंडली को सिनेमा देखने की धुन सवार हुई। वहां की बहार देखकर सब-की-सब मुग्ध
हो गई। फिर तो आए दिन सिनेमा की सैर होने लगी। रमा को अब तक सिनेमा का शौक
न था। शौक होता भी तो क्या करता। अब हाथ में पैसे आने लगे थे, उस पर जालपा का आग्रह, फिर भला वह
क्यों न जाता- सिनेमा-गृह में ऐसी कितनी ही रमणियां मिलतीं, जो मुंह खोले निसंकोच हंसती-बोलती रहती थीं। उनकी आज़ादी
गुप्तरूप से जालपा पर भी जादू डालती जाती थी। वह घर से बाहर निकलते ही मुंह
खोल लेती, मगर संकोचवश परदेवाली स्त्रियों के ही
स्थान पर बैठती। उसकी कितनी इच्छा होती कि रमा भी उसके साथ बैठता। आख़िर वह
उन फैशनेबुल औरतों से किस बात में कम है? रूप-रंग
में वह हेठी नहीं। सजधज में किसी से कम नहीं। बातचीत करने में कुशल। फिर वह
क्यों परदेवालियों के साथ बैठे। रमा बहुत शिक्षित न होने पर भी देश
और काल के प्रभाव से उदार था। पहले तो वह परदे का ऐसा अनन्य भक्त था, कि माता को कभी गंगा-स्नान कराने लिवा जाता, तो पंडों तक से न बोलने देता। कभी माता की हंसी मर्दाने
में सुनाई देती, तो आकर बिगड़ता,
तुमको ज़रा भी शर्म नहीं है अम्मां! बाहर लोग बैठे हुए हैं, और तुम हंस रही हो, मां लज्जित हो जाती थीं। किंतु अवस्था
के साथ रमा का यह लिहाज़ ग़ायब होता जाता था। उस पर जालपा की रूप-छटा उसके
साहस को और भी उभोजित करती थी। जालपा रूपहीन,
काली-कलूटी, फूहड़ होती तो वह ज़बरदस्ती उसको परदे
में बैठाता। उसके साथ घूमने या बैठने में उसे शर्म आती। जालपा-जैसी अनन्य
सुंदरी के साथ सैर करने में आनंद के साथ गौरव भी तो था। वहां के सभ्य समाज
की कोई महिला रूप, गठन और ऋंगारमें जालपा की बराबरी
न कर सकती थी। देहात की लडकी होने पर भी शहर के रंग में वह इस तरह रंग गई
थी, मानो जन्म से शहर ही में रहती आई है। थोड़ी-सी
कमी अंग्रेज़ी शिक्षा की थी,उसे भी
रमा पूरी किए देता था। मगर परदे का यह बंधन टूटे कैसे। भवन में रमा के
कितने ही मित्र, कितनी ही जान - पहचान के लोग बैठे नज़र आते थे। वे उसे
जालपा के साथ बैठे देखकर कितना हंसेंगे। आख़िर एक दिन उसने समाज के सामने
ताल ठोंककर खड़े हो जाने का निश्चय कर ही लिया। जालपा से बोला, ‘आज
हम-तुम सिनेमाघर में साथ बैठेंगे।’
जालपा के
ह्रदय में गुदगुदी-सी होने लगी। हार्दिक आनंद की आभा चेहरे पर झलक उठी।
बोली,
‘सच!
नहीं भाई, साथवालियां जीने न देंगी।‘
रमानाथ—‘इस
तरह डरने से तो फिर कभी कुछ न होगा। यह क्या स्वांग है कि स्त्रियां मुंह
छिपाए चिक की आड़ में बैठी रहें।‘
इस तरह यह
मामला भी तय हो गया। पहले दिन दोनों झेंपते रहे, लेकिन दूसरे दिन से हिम्मत खुल गई। कई दिनों के बाद वह समय
भी आया कि रमा और जालपा संध्या समय पार्क में साथ-साथ टहलते दिखाई दिए।
जालपा ने
मुस्कराकर कहा,’कहीं
बाबूजी देख लें तो?’
रमानाथ—‘तो
क्या, कुछ नहीं।’
जालपा—‘मैं
तो मारे शर्म के गड़ जाऊं।’
रमानाथ-अभी तो मुझे भी शर्म आएगी, मगर बाबूजी ख़ुद ही इधर न आएंगे।’
जालपा-‘और
जो कहीं अम्मांजी देख लें!’
रमानाथ—‘अम्मां
से कौन डरता है, दो दलीलों में ठीक कर दूंगा।’
दस ही
पांच दिन में जालपा ने नए महिला-समाज में अपना रंग जमा लिया। उसने इस समाज
में इस तरह प्रवेश किया, जैसे कोई कुशल वक्ता पहली बार परिषद के मंच पर आता है।
विद्वान लोग उसकी उपेक्षा करने की इच्छा होने पर भी उसकी प्रतिभा के सामने
सिर झुका देते हैं। जालपा भी ‘आई, देखा और विजय कर
लिया।’ उसके सौंदर्य में वह गरिमा, वह कठोरता, वह शान, वह तेजस्विता थी जो कुलीन
महिलाओं के लक्षण हैं। पहले ही दिन एक महिला ने जालपा को चाय का निमांण दे
दिया और जालपा इच्छा न रहने पर भी उसे अस्वीकार न कर सकी। जब दोनों
प्राणी वहां से लौटे, तो रमा ने चिंतित स्वर में कहा, ‘तो
कल इसकी चाय-पार्टी में जाना पड़ेगा?’
जालपा—‘क्या
करती- इंकार करते भी तो न बनता था! ’
रमानाथ—‘तो
सबेरे तुम्हारे लिए एक अच्छी-सी साड़ी ला दूं?
’
जालपा—‘क्या
मेरे पास साड़ी नहीं है, ज़रा देर के लिए पचास-साठ
रूपये खर्च करने से फायदा! ’
रमानाथ—‘तुम्हारे
पास अच्छी साड़ी कहां है। इसकी साड़ी तुमने देखी?ऐसी
ही तुम्हारे लिए भी लाऊंगा।’
जालपा ने
विवशता के भाव से कहा,मुझे
साफ कह देना चाहिए था कि फुरसत नहीं है।’
रमानाथ—‘फिर
इनकी दावत भी तो करनी पडेगी।’
जालपा—‘यह
तो बुरी विपत्ति गले पड़ी।’
रमानाथ—‘विपत्ति
कुछ नहीं है, सिर्फ यही ख़याल है कि मेरा मकान इस
काम के लायक नहीं। मेज़, कुर्सियां, चाय के सेट रमेश के यहां से मांग लाऊंगा,
लेकिन घर के लिए क्या करूं ! ’
जालपा—‘क्या
यह ज़रूरी है कि हम लोग भी दावत करें?’
रमा ने
ऐसी बात का कुछ उत्तर न दिया। उसे जालपा के लिए एक जूते की जोड़ी और सुंदर
कलाई की घड़ी की फिक्र पैदा हो गई। उसके पास कौड़ी भी न थी। उसका ख़र्च रोज़
बढ़ता जाता था। अभी तक गहने वालों को एक पैसा भी देने की नौबत न आई थी। एक
बार गंगू महाराज ने इशारे से तकाजा भी किया था, लेकिन यह भी तो नहीं हो सकता कि जालपा फटे हालों चाय- पार्टी
में जाय। नहीं, जालपा पर वह इतना अन्याय नहीं कर सकता इस अवसर पर जालपा की
रूप-शोभा का सिक्का बैठ जायगा। सभी तो आज चमाचम साडियां पहने हुए थीं।
जडाऊ कंगन और मोतियों के हारों की भी तो कमी न थी,
पर जालपा अपने सादे आवरण में उनसे कोसों आगे थी। उसके सामने एक भी नहीं
जंचती थी। यह मेरे पूर्व कर्मो का फल है कि मुझे ऐसी सुंदरी मिली। आख़िर यही
तो खाने-पहनने और जीवन का आनंद उठाने के दिन हैं। जब जवानी ही में
सुख न उठाया, तो बुढ़ापे में क्या कर लेंगे! बुढ़ापे में मान लिया धन हुआ
ही तो क्या यौवन बीत जाने पर विवाह किस काम का- साड़ी और घड़ी लाने की उसे
धुन सवार हो गई। रातभर तो उसने सब्र किया। दूसरे दिन दोनों चीजें लाकर ही
दम लिया। जालपा ने झुंझलाकर कहा, ‘मैंने
तो तुमसे कहा था कि इन चीज़ों का काम नहीं है। डेढ़सौ से कम की न होंगी?
रमानाथ—‘डेढ़सौ!
इतना फजूल-ख़र्च मैं नहीं हूं।‘
जालपा—‘डेढ़सौ
से कम की ये चीज़ें नहीं हैं।‘
जालपा ने
घड़ी कलाई में बांधा ली और साड़ी को खोलकर मंत्रमुग्ध नजरों से देखा।
रमानाथ—‘तुम्हारी
कलाई पर यह घड़ी कैसी खिल रही है! मेरे रूपये वसूल हो गए।
जालपा—‘सच
बताओ, कितने रूपये ख़र्च हुए?
रमानाथ—‘सच
बता दूं- एक सौ पैंतीस रूपये। पचहत्तर रूपये की साड़ी,
दस के जूते और पचास की घड़ी।‘
जालपा—‘यह
डेढ़सौ ही हुए। मैंने कुछ बढ़ाकर थोड़े कहा था, मगर यह
सब रूपये अदा कैसे होंगे? उस चुडै।ल ने व्यर्थ ही
मुझे निमांण दे दिया। अब मैं बाहर जाना ही छोड़ दूंगी।‘
रमा भी
इसी चिंता में मग्न था, पर उसने अपने भाव को प्रकट करके जालपा के हर्ष में बाधा न
डाली। बोला,सब
अदा हो जायगा। जालपा ने तिरस्कार के भाव से कहां,कहां
से अदा हो जाएगा, ज़रा सुनूं। कौड़ी तो बचती नहीं, अदा
कहां से हो जायगा? वह तो कहो बाबूजी घर का ख़र्च
संभाले हुए हैं, नहीं तो मालूम होता। क्या तुम
समझते हो कि मैं गहने और साडियों पर मरती हूं? इन
चीज़ों को लौटा आओ। रमा ने प्रेमपूर्ण नजरों से कहा,
‘इन चीज़ों को रख लो। फिर तुमसे बिना पूछे कुछ न लाऊंगा।‘
संध्या
समय जब जालपा ने नई साड़ी और नए जूते पहने, घड़ी कलाई पर बांधी और
आईने में अपनी सूरत देखी, तो मारे गर्व और उल्लास के उसका मुखमंडल प्रज्वलित हो उठा।
उसने उन चीज़ों के लौटाने के लिए सच्चे दिल से कहा हो, पर इस समय वह इतना त्याग करने को तैयार न थी। संध्या समय
जालपा और रमा छावनी की ओर चले। महिला ने केवल बंगले का नंबर बतला दिया था।
बंगला आसानी से मिल गया। गाटक पर साइनबोर्ड था,’इन्दुभूषण,
ऐडवोकेट, हाईकोर्ट’ अब रमा को मालूम हुआ कि वह
महिला पं. इन्दुभूषण की पत्नी
थी। पंडितजी काशी के नामी वकील थे। रमा ने उन्हें कितनी ही बार देखा था, पर इतने बडे आदमी से परिचय का सौभाग्य उसे कैसे होता! छः
महीने पहले वह कल्पना भी न कर सकता था, कि किसी दिन
उसे उनके घर निमंत्रित होने का गौरव प्राप्त होगा,
पर जालपा की बदौलत आज वह अनहोनी बात हो गई। वह काशी के बडे वकील का मेहमान
था। रमा ने सोचा था कि बहुत से स्त्री-पुरूष निमंत्रित होंगे, पर यहां वकील साहब और उनकी पत्नी रतन के सिवा और कोई न था।
रतन इन दोनों को देखते ही बरामदे में निकल आई और उनसे हाथ मिलाकर अंदर ले
गई और अपने पति से उनका परिचय कराया। पंडितजी ने आरामकुर्सी पर
लेटे-ही-लेटे दोनों मेहमानों से हाथ मिलाया और मुस्कराकर कहा, ‘क्षमा
कीजिएगा बाबू साहब, मेरा
स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। आप यहां किसी आफिस में हैं?’
रमा ने
झेंपते हुए कहा,’जी
हां, म्युनिसिपल आफिस में हूं। अभी हाल ही में आया हूं। कानून
की तरफ जाने का इरादा था, पर नए वकीलों की यहां जो
हालत हो रही है, उसे देखकर हिम्मत न पड़ी। ’
रमा ने
अपना महत्व बढ़ाने के लिए ज़रा-सा झूठ बोलना अनुचित न समझा। इसका असर बहुत
अच्छा हुआ। अगर वह साफ कह देता,
‘मैं पच्चीस रूपये का क्लर्क हूं,
तो शायद वकील साहब उससे बातें करने में अपना अपमान समझते। बोले, ‘आपने
बहुत अच्छा किया जो इधर नहीं आए। वहां दो-चार साल के बाद अच्छी जगह पर
पहुंच जाएंगे, यहां संभव है दस साल तक आपको कोई
मुकदमा ही न मिलता।‘
जालपा को
अभी तक संदेह हो रहा था कि रतन वकील साहब की बेटी है या पत्नी वकील साहब की
उम्र साठ से नीचे न थी। चिकनी चांद आसपास के सफेद बालों के बीच में वारनिश
की हुई लकड़ी की भांति चमक रही थी। मूंछें साफ थीं, पर माथे की शिकन और गालों की झुर्रियां बतला रही थीं कि
यात्री संसार-यात्रा से थक गया है। आरामकुर्सी पर लेटे हुए वह ऐसे मालूम होते थे, जैसे बरसों के मरीज़ हों! हां, रंग
गोरा था, जो साठ साल की गर्मीसर्दी खाने पर भी उड़ न
सका था। ऊंची नाक थी, ऊंचा माथा और बडी-बडी आंखें, जिनमें अभिमान भरा हुआ था! उनके मुख से ऐसा भासित होता था
कि उन्हें किसी से बोलना या किसी बात का जवाब देना भी अच्छा नहीं लगता।
इसके प्रतिकूल रतन सांवली, सुगठित युवती थी, बडी मिलनसार, जिसे गर्व ने छुआ तक
न था। सौंदर्य का उसके रूप में कोई लक्षण न था। नाक चिपटी थी,
मुख गोल, आंखें छोटी, फिर
भी वह रानी-सी लगती थी। जालपा उसके सामने ऐसी लगती थी, जैसे सूर्यमूखी के सामने जूही का फूल। चाय आई। मेवे, फल, मिठाई,
बर्ग की कुल्फी, सब मेज़ों पर सजा दिए गए। रतन और जालपा एक मेज़ पर बैठीं।
दूसरी मेज़ रमा और वकील साहब की थी।
रमा मेज़ के सामने जा बैठा, मगर वकील साहब अभी आरामकुर्सी पर लेटे ही हुए थे।
रमा ने
मुस्कराकर वकील साहब से कहा,
‘आप भी तो आएं। ‘
वकील साहब
ने लेटे-लेटे मुस्कराकर कहा,
‘आप शुरू कीजिए, मैं भी आया जाता
हूं।‘
लोगों ने
चाय पी, फल खाए, पर वकील साहब के सामने
हंसते-बोलते रमा और जालपा दोनों ही झिझकते थे। जिंदादिल बूढ़ों के साथ तो
सोहबत का आनंद उठाया जा सकता है, लेकिन ऐसे रूखे, निर्जीव मनुष्य जवान भी हों, तो
दूसरों को मुर्दा बना देते हैं। वकील साहब ने बहुत आग्रह करने पर दो घूंट
चाय पी। दूर से बैठे तमाशा देखते रहे। इसलिए जब रतन ने जालपा से कहा,चलो,
हम लोग ज़रा बाग़ीचे की सैर करें, इन दोनों महाशयों
को समाज और नीति की
विवेचना करने दें, तो मानो जालपा के गले का गंदा छूट गया। रमा ने पिंजड़े में
बंद पक्षी की भांति उन दोनों को कमरे से निकलते देखा और एक लंबी सांस ली।
वह जानता कि यहां यह विपत्ति उसके सिर पड़ जायगी, तो
आने का नाम न लेता।
वकील साहब
ने मुंह सिकोड़कर पहलू बदला और बोले,
‘मालूम नहीं, पेट में क्या हो गया
है, कि कोई चीज़ हज़म ही नहीं होती। दूध भी नहीं हज़म
होता। चाय को लोग न जाने क्यों इतने शौक से पीते हैं, मुझे तो इसकी सूरत से भी डर लगता है। पीते ही बदन में
ऐंठन-सी होने लगती है और आंखों से चिनगारियां-सी निकलने लगती हैं।‘
रमा ने
कहा,
‘आपने हाज़मे की कोई दवा नहीं की? ‘
वकील साहब
ने अरूचि के भाव से कहा,
‘दवाओं पर मुझे रत्ती-भर भी विश्वास नहीं। इन वैद्य और
डाक्टरों से ज्यादा बेसमझ आदमी संसार में न मिलेंगे। किसी में निदान की
शक्ति नहीं। दो वैद्यों, दो डाक्टरों के निदान कभी
न मिलेंगे। लक्षण वही है, पर एक वैद्य रक्तदोष
बतलाता है, दूसरा पित्तदोष,
एक डाक्टर फेफड़े का सूजन बतलाता है, दूसरा आमाशय का
विकार। बस, अनुमान से दवा की जाती है और निर्दयता
से रोगियों की गर्दन पर छुरी ट्ठरी जाती है। इन डाक्टरों ने मुझे तो अब तक
जहन्नुम पहुंचा दिया होता; पर मैं उनके पंजे से
निकल भागा। योगाभ्यास
की बडी प्रशंसा सुनता हूं पर कोई ऐसे महात्मा नहीं मिलते, जिनसे कुछ सीख सकूं। किताबों के आधार पर कोई क्रिया करने
से लाभ के बदले हानि होने का डर रहता है। यहां तो
आरोग्य-शास्त्र का खंडन हो रहा था, उधार दोनों महिलाओं में प्रगाढ़स्नेह की बातें हो रही थीं।
रतन ने
मुस्कराकर कहा, ‘मेरे
पतिदेव को देखकर तुम्हें बडा आश्चर्य हुआ होगा। ‘
जालपा को
आश्चर्य ही नहीं, भम्र भी हुआ था। बोली,
‘वकील साहब का दूसरा विवाह होगा।
रतन,
‘हां, अभी पांच ही बरस तो हुए हैं।
इनकी पहली स्त्री को मरे पैंतीस वर्ष हो गए। उस समय इनकी अवस्था कुल पच्चीस
साल की थी। लोगों ने समझाया, दूसरा विवाह कर लो, पर इनके एक लड़का हो चुका था, विवाह
करने से इंकार कर दिया और तीस साल तक अकेले रहे,
मगर आज पांच वर्ष हुए, जवान बेटे का देहांत हो गया, तब विवाह करना आवश्यक हो गया। मेरे मां-बाप न थे। मामाजी
ने मेरा पालन किया था। कह नहीं सकती, इनसे कुछ ले
लिया या इनकी सज्जनता पर मुग्ध हो गए। मैं तो समझती हूं, ईश्वर की यही इच्छा थी, लेकिन मैं
जब से आई हूं, मोटी होती चली जाती हूं। डाक्टरों का
कहना है कि तुम्हें संतान नहीं हो सकती। बहन, मुझे
तो संतान की लालसा नहीं है, लेकिन मेरे पति मेरी
दशा देखकर बहुत दुखी रहते हैं। मैं ही इनके सब रोगों की जड़ हूं। आज ईश्वर
मुझे एक संतान दे दे, तो इनके सारे रोग भाग जाएंगे।
कितना चाहती हूं कि दुबली हो जाऊं, गरम पानी से
टब-स्नान करती हूं, रोज़ पैदल घूमने जाती हूं, घी-दूध कम खाती हूं, भोजन आधा कर
दिया है, जितना परिश्रम करते बनता है, करती हूं, फिर भी दिन-दिन मोटी ही
होती जाती हूं। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूं।
जालपा—‘वकील
साहब तुमसे चिढ़ते होंगे? ‘
रतन,
‘नहीं बहन, बिलकुल नहीं, भूलकर भी कभी मुझसे इसकी चर्चा नहीं की। उनके मुंह से कभी
एक शब्द भी ऐसा नहीं निकला, जिससे उनकी मनोव्यथा
प्रकट होती, पर मैं जानती हूं, यह चिंता उन्हें मारे डालती है। अपना कोई बस नहीं है। क्या
करूं। मैं जितना चाहूं, ख़र्च करूं, जैसे चाहूं रहूं, कभी नहीं बोलते।
जो कुछ पाते हैं, लाकर मेरे हाथ पर रख देते हैं।
समझाती हूं, अब तुम्हें वकालत करने की क्या जरूरत
है, आराम क्यों नहीं करते,
पर इनसे घर पर बैठे रहा नहीं जाता। केवल दो चपातियों से नाता है। बहुत ज़िद
की तो दो चार दाने अंगूर खा लिए। मुझे तो उन पर दया आती है, अपने से जहां तक हो सकता है, उनकी
सेवा करती हूं। आख़िर वह मेरे ही लिए तो अपनी जान खपा रहे हैं।‘
जालपा—‘ऐसे
पुरूष को देवता समझना चाहिए। यहां तो एक स्त्री मरी नहीं कि दूसरा ब्याह रच
गया। तीस साल अकेले रहना सबका काम नहीं है।‘
जालपा—‘हां, बडे अच्छे कारीगर का बनाया हुआ है।‘
रतन—‘मैं
तो यहां किसी को जानती ही नहीं। वकील साहब को गहनों के लिए कष्ट देने की
इच्छा नहीं होती। मामूली सुनारों से बनवाते डर लगता है, न जाने क्या मिला दें। मेरी सपत्नीजी के सब गहने रक्खे हुए
हैं, लेकिन वह मुझे अच्छे नहीं लगते। तुम बाबू
रमानाथ से मेरे लिए ऐसा ही एक जोडाकंगन बनवा दो।‘
जालपा—‘देखिए, पूछती हूं।‘
रतन—‘—‘आज
तुम्हारे आने से जी बहुत ख़ुश हुआ। दिनभर अकेली पड़ी रहती हूं। जी घबडाया
करता है। किसके पास जाऊं?’ किसी से परिचय नहीं और न
मेरा मन ही चाहता है कि उनसे मौी करूं। दो-एक महिलाओं को बुलाया,
उनके घर गई, चाहा कि उनसे बहनापा जोड़ लूं, लेकिन उनके आचार-विचार देखकर उनसे दूर रहना ही अच्छा मालूम
हुआ। दोनों ही मुझे उल्लू बनाकर जटना चाहती थीं। मुझसे रूपये उधार ले गई और
आज तक दे रही हैं। ऋंगार की चीज़ों पर मैंने उनका इतना प्रेम देखा, कि कहते लज्जा आती है। तुम घड़ी-आधा घड़ी के लिए रोज़ चली आया
करो बहन।‘
जालपा—‘वाह
इससे अच्छा और क्या होगा.‘
रतन—‘मैं
मोटर भेज दिया करूंगी।‘
जालपा—‘क्या
जरूरत है। तांगे तो मिलते ही हैं।‘
रतन—‘न-जाने
क्यों तुम्हें छोड़ने को जी नहीं चाहता। तुम्हें पाकर रमानाथजी अपना भाग्य
सराहते होंगे।‘
जालपा ने
मुस्कराकर कहा, ‘भाग्य-वाग्य
तो कहीं नहीं सराहते, घुड़कियां जमाया करते हैं।‘
रतन—‘सच!
मुझे तो विश्वास नहीं आता। लो, वह भी तो आ गए।
पूछना,ऐसा दूसरा कंगन बनवा देंगे।‘
जालपा—‘(रमा
से) क्यों चरनदास से कहा जाए तो ऐसा कंगन कितने दिन में बना देगा! रतन ऐसा
ही कंगन बनवाना चाहती हैं।‘
रतन—‘इस
जोड़े के क्या लिए थे? ‘
जालपा—‘आठ
सौ के थे।‘
रतन—‘कोई
हरज़ नहीं, मगर बिलकुल ऐसा ही हो, इसी नमूने का।‘
रतन—
‘मगर भाई, अभी मेरे पास रूपये नहीं
हैं।
रूपये के
मामले में पुरूष महिलाओं के सामने कुछ नहीं कह सकता क्या वह कह सकता है, इस वक्त मेरे पास रूपये नहीं हैं। वह मर जाएगा, पर यह उज्र न करेगा। वह कर्ज़ लेगा, दूसरों की ख़ुशामद करेगा, पर स्त्री
के सामने अपनी मजबूरी न दिखाएगा। रूपये की चर्चा को ही वह तुच्छ समझता है।
जालपा पति की आर्थिक दशा अच्छी तरह जानती थी। पर यदि रमा ने इस समय कोई
बहाना कर दिया होता, तो उसे बहुत बुरा मालूम होता।
वह मन में डर रही थी कि कहीं यह महाशय यह न कह बैठें, सर्राफ से पूछकर कहूंगा। उसका दिल धड़क रहा था, जब रमा ने वीरता के साथ कहा,
—‘हां-हां, रूपये की कोई बात नहीं, जब चाहे दे दीजिएगा, तो वह ख़ुश हो
गई।
रतन—‘तो
कब तक आशा करूं? ‘
रमानाथ—‘मैं
आज ही सर्राफ से कह दूंगा, तब भी पंद्रह दिन तो लग
हीजाएंगे।‘
जालपा—‘अब
की रविवार को मेरे ही घर चाय पीजिएगा। ‘
रतन ने
निमंत्रण सहर्ष स्वीकार किया और दोनों आदमी विदा हुए। घर पहुंचे, तो शाम हो गई थी। रमेश बाबू बैठे हुए थे। जालपा तो तांगे
से उतरकर अंदर चली गई, रमा रमेश बाबू के पास जाकर
बोला—‘क्या आपको आए देर हुई?
रमेश—‘नहीं, अभी तो चला आ रहा हूं। क्या वकील साहब के यहां गए थे?‘
रमा—‘जी
हां, तीन रूपये की चपत पड़ गई।‘
रमेश—‘कोई
हरज़ नहीं, यह रूपये वसूल हो जाएंगे। बडे आदमियों से
राहरस्म हो जाय तो बुरा नहीं है, बड़े-बडे काम
निकलते हैं। एक दिन उन लोगों को भी तो बुलाओ।‘
रमा—‘अबकी
इतवार को चाय की दावत दे आया हूं।‘
रमानाथ—‘तब
तो बडा मज़ा रहेगा। मैं तो बडी चिंता में पडा हुआ था।‘
रमेश—‘चिंता
की कोई बात नहीं, उसी लौंडे को जोत दूंगा। कहूंगा, जगह चाहते हो तो कारगुजारी दिखाओ। फिर देखना, कैसी दौड़-धूप करता है।‘
रमेश—‘अजी, अभी छः और बाकी हैं। पूरे सात जीव हैं। ज़रा बैठ जाओ, ज़रूरी चीज़ों की सूची बना ली जाए। आज ही से दौड़-धूप होगी,
तब सब चीजें जुटा सकूंगा। और कितने मेहमान
होंगे? ’
रमानाथ—‘मेम
साहब होंगी, और शायद वकील साहब भी आएं।’
रमेश—‘यह
बहुत अच्छा किया। बहुत-से आदमी हो जाते, तो भभ्भड़
हो जाता। हमें तो मेम साहब से काम है। ठलुओं की ख़ुशामद करने से क्या फायदा? ’
दयानाथ—‘मैंने
सैकड़ों अंगरेज़ों के ड्राइंग-ईम देखे हैं, कहीं आईना
नहीं देखा। आईना ऋंगार के कमरे में रहना चाहिए। यहां आईना रखना बेतुकी-सी
बात है।‘
रमेश—‘मुझे
सैकड़ों अंगरेज़ों के कमरों को देखने का अवसर तो नहीं मिला है, लेकिन दो-चार जरूर देखे हैं और उनमें आईना लगा हुआ देखा।
फिर क्या यह जरूरी बात है कि इन ज़रा-ज़रा-सी बातों में भी हम अंगरेज़ों की
नकल करें- हम अंगरेज़ नहीं, हिन्दुस्तानी हैं।
हिन्दुस्तानी रईसों के कमरे में बड़े-बड़े आदमकद आईने रक्खे जाते हैं। यह तो
आपने हमारे बिगड़े हुए बाबुओं कीसी बात कही, जो
पहनावे में, कमरे की सजावट में, बोली में, चाय और शराब में, चीनी की प्यालियों में, ग़रज़ दिखावे की सभी बातों में तो
अंगरेज़ों का मुंह चिढ़ाते हैं, लेकिन जिन बातों ने
अंगरेज़ों को अंगरेज़ बना दिया है, और जिनकी बदौलत वे
दुनिया पर राज़ करते हैं, उनकी हवा तक नहीं छू जाती।
क्या आपको भी बुढ़ापे में, अंगरेज़ बनने का शौक
चर्राया है?‘
दयानाथ
अंगरेजों की नकल को बहुत बुरा समझते थे। यह चाय-पार्टी भी उन्हें बुरी
मालूम हो रही थी। अगर कुछ संतोष था, तो यही कि दो-चार बडे आदमियों से परिचय हो जायगा।
उन्होंने अपनी जिंदगी में कभी कोट नहीं पहना था। चाय पीते थे, मगर चीनी के सेट की कैद न थी। कटोरा-कटोरी,
गिलास, लोटा-तसला किसी से भी उन्हें आपत्ति न थी, लेकिन इस वक्त उन्हें अपना पक्ष
निभाने की पड़ी थी। बोले, ‘हिन्दुस्तानी
रईसों के कमरे में मेज़ें-कुर्सियां नहीं होतीं,
फर्श होता है। आपने कुर्सी-मेज़ लगाकर इसे अंगरेज़ी ढंग पर तो बना दिया, अब आईने के लिए हिन्दुस्तानियों की मिसाल दे रहे हैं। या
तो हिन्दुस्तानी रखिए या अंगरेज़ीब यह क्या कि आधा तीतर आधा बटेरब कोटपतलून
पर चौगोशिया टोपी तो नहीं अच्छी मालूम होती! रमेश बाबू ने समझा था कि
दयानाथ की ज़बान बंद हो जायगी, लेकिन यह जवाब सुना
तो चकराए। मैदान हाथ से जाता हुआ दिखाई दिया। बोले, ‘तो
आपने किसी अंगरेज़ के कमरे में आईना नहीं देखा- भला ऐसे दस-पांच अंगरेजों के
नाम तो बताइए? एक आपका वही किरंटा हेड क्लर्क है, उसके सिवा और किसी अंगरेज़ के कमरे में तो शायद आपने कदम भी
न रक्खा हो उसी किरंटे को आपने अंगरेज़ी रूचि का आदर्श समझ लिया है खूब!
मानता हूं।‘
रमेश इसका
कोई जवाब सोच ही रहे थे कि एक मोटरकार द्वार पर आकर रूकी, और रतनबाई उतरकर बरामदे में आई। तीनों आदमी चटपट बाहर निकल
आए। रमा को इस वक्त रतन का आना बुरा मालूम हुआ। डर रहा था कि कहीं कमरे में
भी न चली आए, नहीं तो सारी कलई खुल जाए। आगे बढ़कर
हाथ मिलाता हुआ बोला,
‘आइए, यह मेरे पिता हैं, और यह मेरे दोस्त रमेश बाबू हैं,
लेकिन उन दोनों सज्जनों ने न हाथ बढ़ाया और न जगह से हिले। सकपकाए- से खड़े
रहे। रतन ने भी उनसे हाथ मिलाने की जरूरत न समझी। दूर ही से उनको नमस्कार
करके रमा से बोली, ‘नहीं, बैठूंगी नहीं। इस वक्त फुरसत नहीं है। आपसे कुछ कहना था।‘ यह कहते
हुए वह रमा के साथ मोटर तक आई और आहिस्ता से बोली, ‘आपने
सर्राफ से कह तो दिया होगा?
‘
रमा ने
निःसंकोच होकर कहा,
‘जी
हां, बना रहा है।‘
रतन—‘उस
दिन मैंने कहा था, अभी रूपये न दे सकूंगी, पर मैंने समझा शायद आपको कष्ट हो,
इसलिए रूपये मंगवा लिए। आठ सौ चाहिए न?‘
जालपा ने
कंगन के दाम आठ सौ बताए थे। रमा चाहता तो इतने रूपये ले सकता था। पर रतन
की सरलता और विश्वास ने उसके हाथ पकड़ लिए। ऐसी उदार, निष्कपट रमणी के साथ वह विश्वासघात न कर सका। वह
व्यापारियों से दो-दो, चार-चार आने लेते ज़रा भी न
झिझकता था। वह जानता था कि वे सब भी ग्राहकों को उल्टे छुरे से मूंड़ते हैं।
ऐसों के साथ ऐसा व्यवहार करते हुए उसकी आत्मा को लेशमात्र भी संकोच न होता
था, लेकिन इस देवी के साथ यह कपट व्यवहार करने के
लिए किसी पुराने पापी की जरूरत थी। कुछ सकुचाता हुआ बोला,क्या
जालपा ने कंगन के दाम आठ सौ बतलाए थे?
उसे शायद याद न रही होगी। उसके कंगन छः सौ के हैं। आप चाहें तो आठ सौ का
बनवा दूं! रतन—‘नहीं, मुझे
तो वही पसंद है। आप छः सौ का ही बनवाइए।‘
उसने मोटर
पर से अपनी थैली उठाकर सौ-सौ रूपये के छः नोट निकाले।
रमा ने
कहा,
‘ऐसी जल्दी क्या थी, चीज़ तैयार हो
जाती, तब हिसाब हो जाता।‘
रतन—‘मेरे
पास रूपये खर्च हो जाते। इसलिए मैंने सोचा, आपके
सिर पर लाद आऊं। मेरी आदत है कि जो काम करती हूं,
जल्द-से-जल्द कर डालती हूं। विलंब से मुझे उलझन होती है।‘
यह कहकर
वह मोटर पर बैठ गई, मोटर हवा हो गई। रमा संदूक में रूपये रखने के लिए अंदर चला
गया, तो दोनों वृद्ध'जनों
में बातें होने लगीं।
रमेश—‘देखा?‘
दयानाथ—‘जी
हां, आंखें खुली हुई थीं। अब मेरे घर में भी वही
हवा आ रही है। ईश्वर ही बचावे।‘
रमेश—‘बात
तो ऐसी ही है, पर आजकल ऐसी ही औरतों का काम है।
जरूरत पड़े, तो कुछ मदद तो कर सकती हैं। बीमार पड़
जाओ तो डाक्टर को तो बुला ला सकती हैं। यहां तो चाहे हम मर जाएं, तब भी क्या मजाल कि स्त्री घर से बाहर पांव निकाले।‘
दयानाथ—‘हमसे
तो भाई, यह अंगरेज़ियत नहीं देखी जाती। क्या करें।
संतान की ममता है, नहीं तो यही जी चाहता है कि रमा
से साफ कह दूं, भैया अपना घर अलग लेकर रहो आंख फटी, पीर गई। मुझे तो उन मर्दो पर क्रोध आता है, जो स्त्रियों को यों सिर चढ़ाते हैं। देख लेना, एक दिन यह औरत वकील साहब को दगा देगी।‘
रमेश—‘महाशय, इस बात में मैं तुमसे सहमत नहीं हूं। यह क्यों मान लेते हो
कि जो औरत बाहर आती-जाती है, वह जरूर ही बिगड़ी हुई
है? मगर रमा को मानती बहुत है। रूपये न जाने किसलिए
दिए? ‘
दयानाथ—‘मुझे
तो इसमें कुछ गोलमाल मालूम होता है। रमा कहीं उससे कोई चाल न चल रहा हो?
‘
इसी समय
रमा भीतर से निकला आ रहा था। अंतिम वाक्य उसके कान में पड़ गया। भौंहें
चढ़ाकर बोला, ‘जी
हां, जरूर चाल चल रहा हूं। उसे धोखा देकर रूपये ऐंठ
रहा हूं। यही तो मेरा पेशा है! ‘
दयानाथ ने
झेंपते हुए कहा,तो
इतना बिगड़ते क्यों हो,
‘मैंने तो कोई ऐसी बात नहीं कही।‘
रमानाथ—‘पक्का
जालिया बना दिया और क्या कहते?आपके दिल में ऐसा
शुबहा क्यों आया- आपने मुझमें ऐसी कौन?सी बात देखी, जिससे आपको यह ख़याल पैदा हुआ- मैं ज़रा साफ-सुथरे कपड़े
पहनता हूं, ज़रा नई प्रथा के अनुसार चलता हूं, इसके सिवा आपने मुझमें कौन?सी
बुराई देखी- मैं जो कुछ ख़र्च करता हूं, ईमान से
कमाकर ख़र्च करता हूं। जिस दिन धोखे और फरेब की नौबत आएगी, ज़हर खाकर प्राण दे दूंगा। हां, यह
बात है कि किसी को ख़र्च करने की तमीज़
होती है, किसी को नहीं होती। वह अपनी सुबुद्धि है, अगर इसे आप धोखेबाज़ी समझें, तो
आपको अख्तियार है। जब आपकी तरफ से मेरे विषय में ऐसे संशय होने लगे, तो मेरे लिए यही अच्छा है कि मुंह में कालिख लगाकर कहीं
निकल जाऊं। रमेश बाबू यहां मौजूद हैं। आप इनसे मेरे विषय में जो कुछ चाहें, पूछ सकते हैं। यह मेरे खातिर झूठ न बोलेंगे।‘
सत्य के
रंग में रंगी हुई इन बातों ने दयानाथ को आश्वस्त कर दिया। बोले, ‘जिस
दिन मुझे मालूम हो जायगा कि तुमने यह ढंग अख्तियार किया है,
उसके पहले मैं मुंह में कालिख लगाकर निकल जाऊंगा। तुम्हारा बढ़ता हुआ ख़र्च
देखकर मेरे मन में संदेह हुआ था, मैं इसे छिपाता
नहीं हूं, लेकिन जब तुम कह रहे हो तुम्हारी नीयत
साफ है, तो मैं संतुष्ट हूं। मैं केवल इतना ही
चाहता हूं कि मेरा लड़का चाहे ग़रीब रहे, पर नीयत न
बिगाड़े। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि वह
तुम्हें सत्पथ पर रक्खे।‘
रमेश ने
मुस्कराकर कहा,
‘अच्छा, यह किस्सा तो हो चुका, अब यह बताओ, उसने तुम्हें रूपये
किसलिए दिए! मैं गिन रहा था, छः नोट थे, शायद सौ-सौ के थे।‘
रमानाथ—‘ठग
लाया हूं।‘
रमेश—‘मुझसे
शरारत करोगे तो मार बैठूंगा। अगर जट ही लाए हो, तो
भी मैं तुम्हारी पीठ ठोकूंगा, जीते रहो खूब जटो, लेकिन आबरू पर आंच न आने पाए । किसी को कानोंकान ख़बर न हो
ईश्वर से तो मैं डरता नहीं। वह जो कुछ पूछेगा, उसका
जवाब मैं दे लूंगा, मगर आदमी से डरता हूं। सच बताओ,
किसलिए रूपये दिए - कुछ दलाली मिलने वाली हो तो मुझे भी शरीक कर लेना।‘
रमानाथ—‘जडाऊ
कंगन बनवाने को कह गई हैं।‘
रमेश—‘तो
चलो, मैं एक अच्छे सर्राफ से बनवा दूं। यह झंझट
तुमने बुरा मोल ले लिया। औरत का स्वभाव जानते नहीं। किसी पर विश्वास तो
इन्हें आता ही नहीं। तुम चाहे दो-चार रूपये अपने पास ही से खर्च कर दो, पर वह यही समझेंगी कि मुझे लूट लिया। नेकनामी तो शायद ही
मिले, हां, बदनामी तैयार
खड़ी है।‘
रमानाथ—‘आप
मूर्ख स्त्रियों की बातें कर रहे हैं। शिक्षित स्त्रियां ऐसी नहीं होतीं।‘
ज़रा देर
बाद रमा अंदर जाकर जालपा से बोला, ‘अभी
तुम्हारी सहेली रतन आई थीं।‘
जालपा—‘सच!
तब तो बडा गड़बड़ हुआ होगा। यहां कुछ तैयारी तो थी ही नहीं।‘
रमानाथ—‘कुशल
यही हुई कि कमरे में नहीं आई। कंगन के रूपये देने आई थीं। तुमने उनसे शायद
आठ सौ रूपये बताए थे। मैंने छः सौ ले लिए। ‘
सोलह
चाय-पार्टी में कोई विशेष बात नहीं हुई। रतन के साथ उसकी एक नाते की बहन और
थी। वकील साहब न आए थे। दयानाथ ने उतनी देर के लिए घर से टल जाना ही उचित
समझाब हां, रमेश बाबू बरामदे में बराबर खड़े रहे। रमा ने कई बार चाहा
कि उन्हें भी पार्टी में शरीक कर लें, पर रमेश में
इतना साहस न था। जालपा ने
दोनों मेहमानों को अपनी सास से मिलाया। ये युवतियां उन्हें कुछ ओछी जान
पड़ीं। उनका सारे घर में दौड़ना, धम-धम करके कोठे पर जाना, छत पर
इधर-उधर उचकना, खिलखिलाकर हंसना, उन्हें हुड़दंगपन मालूम होता था। उनकी नीति में बहू-बेटियों
को भारी और लज्जाशील होना चाहिए था। आश्चर्य यह था कि आज जालपा भी उन्हीं
में मिल गई थी। रतन ने आज कंगन की चर्चा तक न की।
अभी तक
रमा को पार्टी की तैयारियों से इतनी फुर्सत नहीं मिली थी कि गंगू की दुकान
तक जाता। उसने समझा था, गंगू को छः सौ रूपये दे दूंगा तो पिछले हिसाब में जमा हो
जाएंगे। केवल ढाई सौ रूपये और रह जाएंगे। इस नये हिसाब में छः सौ और मिलाकर
फिर आठ सौ रह जाएंगे। इस तरह उसे अपनी साख जमाने का सुअवसर मिल जायगा।
दूसरे दिन रमा ख़ुश होता हुआ गंगू की दुकान पर पहुंचा और रोब से बोला, ‘क्या
रंग-ढंग है महाराज, कोई नई चीज़ बनवाई है इधर?’
रमा के
टालमटोल से गंगू इतना विरक्त हो रहा था कि आज कुछ रूपये मिलने की आशा भी
उसे प्रसन्न न कर सकी। शिकायत के ढंग से बोला,
‘बाबू
साहब, चीज़ें कितनी बनीं और कितनी बिकीं,
आपने तो दुकान पर आना ही छोड़ दिया। इस तरह की दुकानदारी हम लोग नहीं करते।
आठ महीने हुए, आपके यहां से एक पैसा भी नहीं मिला।
रमानाथ—‘भाई, ख़ाली हाथ दुकान पर आते शर्म आती है। हम उन लोगों में नहीं
हैं, जिनसे तकाज़ा करना पड़े। आज यह छः सौ रूपये जमा
कर लो, और एक अच्छा-सा कंगन तैयार कर दो।’
गंगू ने
रूपये लेकर संदूक में रखे और बोला,’बन
जाएंगे। बाकी रूपये कब तक मिलेंगे?’
रमानाथ—‘बहुत
जल्द।’
गंगू—‘हां
बाबूजी, अब पिछला साफ कर दीजिए।’
गंगू ने
बहुत जल्द कंगन बनवाने का वचन दिया, लेकिन एक बार सौदा करके उसे मालूम हो गया था कि यहां से
जल्द रूपये वसूल होने वाले नहीं। नतीजा यह हुआ कि रमा रोज़ तकाज़ा करता और
गंगू रोज़ हीले करके टालता। कभी कारीगर बीमार पड़ जाता, कभी अपनी स्त्री की दवा कराने ससुराल चला जाता,
कभी उसके लङके बीमार हो जाते। एक महीना गुज़र गया और कंगन न बने। रतन के
तकाज़ों के डर से रमा ने पार्क जाना छोड़ दिया, मगर
उसने घर तो देख ही रक्खा
था। इस एक महीने में कई बार तकाज़ा करने आई। आख़िर जब सावन का महीना आ गया तो
उसने एक दिन रमा से कहा, ‘वह
सुअर नहीं बनाकर देता, तो तुम किसी और कारीगर को
क्यों नहीं देते?’
रमानाथ—‘उस
पाजी ने ऐसा धोखा दिया कि कुछ न पूछो, बस रोज़ आजकल
किया करता है। मैंने बडी भूल की जो उसे पेशगी रूपये दे दिये। अब उससे रूपये
निकलना मुश्किल है।‘
रतन—‘आप
मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए, मैं उसके बाप से वसूल
कर लूंगी। तावान अलग। ऐसे बेईमान आदमी को पुलिस में देना चाहिए।‘
जालपा ने
कहा,
‘हां और क्या सभी सुनार देर करते हैं, मगर ऐसा नहीं, रूपये डकार जायं और
चीज़ के लिए महीनों दौडाएं।
रमा ने
सिर खुजलाते हुए कहा, ‘आप
दस दिन और सब्र करें, मैं आज ही उससे रूपये लेकर
किसी दूसरे सर्राफ को दे दूंगा।‘
रतन—‘आप
मुझे उस बदमाश की दुकान क्यों नहीं दिखा देते। मैं हंटर से बात करूं।‘
रमानाथ—‘कहता
तो हूं। दस दिन के अंदर आपको कंगन मिल जाएंगे।‘
रतन—‘आप
खुद ही ढील डाले हुए हैं। आप उसकी लल्लो-चप्पो की बातों में आ जाते होंगे।
एक बार कड़े पड़ जाते, तो मजाल थी कि यों हीलेहवाले
करता! ‘
आख़िर रतन
बडी मुश्किल से विदा हुई। उसी दिन शाम को गंगू ने साफ जवाब दे दिया,बिना
आधे रूपये लिये कंगन न बन सकेंगे। पिछला हिसाब भी बेबाक हो जाना चाहिए।‘
रमा को
मानो गोली लग गई। बोला, ‘महाराज, यह तो भलमनसी नहीं है। एक महिला की चीज़ है, उन्होंने पेशगी रूपये दिए थे। सोचो, मैं उन्हें क्या मुंह दिखाऊंगा। मुझसे अपने रूपयों के लिए
पुरनोट लिखा लो, स्टांप लिखा लो और क्या करोगे?
‘
गंगू—‘पुरनोट
को शहद लगाकर चाटूंगा क्या? आठ-आठ महीने का उधार
नहीं होता। महीना, दो महीना बहुत है। आप तो बडे
आदमी हैं, आपके लिए पांच-छः सौ रूपये कौन बडी बात
है। कंगन तैयार हैं।‘
रमा ने
दांत पीसकर कहा, ‘अगर
यही बात थी तो तुमने एक महीना पहले क्यों न कह दी?
अब तक मैंने रूपये की कोई फिक्र की होती न!‘
गंगू—‘मैं
क्या जानता था, आप इतना भी नहीं समझ रहे हैं।‘
रमा निराश
होकर घर लौट आया। अगर इस समय भी उसने जालपा से सारा वृत्तांत साफ-साफ कह
दिया होता तो उसे चाहे कितना ही दुःख होता,
पर वह कंगन उतारकर दे देती, लेकिन रमा में इतना
साहस न था। वह अपनी आर्थिक कठिनाइयों की दशा कहकर उसके कोमल ह्रदय पर आघात
न कर सकता था। इसमें
संदेह नहीं कि रमा को सौ रूपये के करीब ऊपर से मिल जाते थे,
और वह किफायत करना जानता तो इन आठ महीनों में दोनों सर्राफों के कमसे- कम
आधे रूपये अवश्य दे देता, लेकिन ऊपर की आमदनी थी तो
ऊपर का ख़र्च भी था। जो कुछ मिलता था, सैर - सपाटे
में ख़र्च हो जाता और सर्राफों का देना किसी एकमुश्त रकम की आशा में रूका
हुआ था। कौडियों से रूपये बनाना वणिकों का ही काम है। बाबू लोग तो रूपये की
कौडियां ही बनाते हैं। कुछ रात जाने पर रमा ने एक बार फिर सर्राफे का चक्कर
लगाया। बहुत चाहा, किसी सर्राफ को झांसा दूं, पर कहीं दाल न गली। बाज़ार में बेतार की ख़बरें चला करती
हैं।
जालपा—‘मुझे
भी लेते चलोगे न?‘
रमानाथ—‘तुम्हें
परदेश में कहां लिये-लिये फिरूंगा? ‘
जालपा—‘तो
मैं यहां अकेली रह चुकी। एक मिनट तो रहूंगी नहीं। मगर जाओगे
कहां? ‘
रमानाथ—‘अभी
कुछ निश्चय नहीं कर सका हूं।‘
जालपा—‘तो
क्या सचमुच तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? मुझसे तो एक
दिन भी न रहा जाय। मैं समझ गई, तुम मुझसे मुहब्बत
नहीं करते। केवल मुंह देखे की प्रीति करते हो।‘
रमानाथ—‘तुम्हारे
प्रेम-पाश ही ने मुझे यहां बांधा रक्खा है। नहीं तो अब तक कभी चला गया
होता।‘
जालपा—‘बातें
बना रहे हो अगर तुम्हें मुझसे सच्चा प्रेम होता, तो
तुम कोई परदा न रखते। तुम्हारे मन में जरूर कोई ऐसी बात है, जो तुम मुझसे छिपा रहे हो कई दिनों से देख रही हूं, तुम चिंता में डूबे रहते हो, मुझसे
क्यों नहीं कहते। जहां विश्वास नहीं है, वहां प्रेम
कैसे रह सकता है? ‘
रमानाथ—‘यह
तुम्हारा भ्रम है, जालपा! मैंने तो तुमसे कभी परदा
नहीं रखा।‘
जालपा—‘तो
तुम मुझे सचमुच दिल से चाहते हो? ‘
रमानाथ—‘यह
क्या मुंह से कहूंगा जभी! ‘
जालपा—‘अच्छा, अब मैं एक प्रश्न करती हूं। संभले रहना। तुम मुझसे क्यों
प्रेम करते हो! तुम्हें मेरी कसम है, सच बताना।‘
रमानाथ—‘यह
तो तुमने बेढब प्रश्न किया। अगर मैं तुमसे यही प्रश्न पूछूं तो तुम मुझे
क्या जवाब दोगी? ‘
जालपा—‘मैं
तो जानती हूं।‘
रमानाथ—‘बताओ।‘
जालपा—‘तुम
बतला दो, मैं भी बतला दूं।‘
रमानाथ—‘मैं
तो जानता ही नहीं। केवल इतना ही जानता हूं कि तुम मेरे रोम-रोम में रम रही
हो।‘
जालपा—‘सोचकर
बतलाओ। मैं आदर्श-पत्नी नहीं हूं, इसे मैं खूब
जानती हूं। पति-सेवा अब तक मैंने नाम को भी नहीं की। ईश्वर की दया से
तुम्हारे लिए अब तक कष्ट सहने की जरूरत ही नहीं पड़ी। घर-गृहस्थी का कोई काम
मुझे नहीं आता। जो कुछ सीखा, यहीं सीखाब फिर
तुम्हें मुझसे क्यों प्रेम है? बातचीत में निपुण
नहीं। रूप-रंग भी ऐसा आकर्षक नहीं। जानते हो, मैं
तुमसे क्यों
प्रश्न कर रही हूं?‘
रमानाथ—‘क्या
जाने भाई, मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है।‘
जालपा—‘मैं
इसलिए पूछ रही हूं कि तुम्हारे प्रेम को स्थायी बना सकूं।‘
रमानाथ—‘मैं
कुछ नहीं जानता जालपा, ईमान से कहता हूं। तुममें कोई कमी है, कोई दोष है, यह बात आज तक मेरे
ध्यान में नहीं आई, लेकिन तुमने मुझमें कौन?सी
बात देखी- न मेरे पास धन है, न रूप है। बताओ?‘
जालपा—‘बता
दूं? मैं तुम्हारी सज्जनता पर मोहित हूं। अब तुमसे
क्या छिपाऊं, जब मैं यहां आई तो यद्यपि तुम्हें
अपना पति समझती थी, लेकिन कोई बात कहते या करते समय
मुझे चिंता होती थी कि तुम उसे पसंद करोगे या नहीं। यदि तुम्हारे बदले मेरा
विवाह किसी दूसरे पुरूष से हुआ होता तो उसके साथ भी मेरा यही व्यवहार होता।
यह पत्नी और पुरूष का रिवाजी नाता है, पर अब मैं
तुम्हें गोपियों के कृष्ण से भी न बदलूंगी। लेकिन तुम्हारे दिल में अब भी
चोर है। तुम
अब भी मुझसे किसी-किसी बात में परदा रखते हो!‘
रमानाथ—‘यह
तुम्हारी केवल शंका है, जालपा! मैं दोस्तों से भी
कोई दुराव नहीं करता। फिर तुम तो मेरी ह्रदयेश्वरी हो।‘
जालपा—‘मेरी
तरफ देखकर बोलो, आंखें नीची करना मर्दो का काम नहीं
है!‘
रमा के जी
में एक बार फिर आया कि अपनी कठिनाइयों की कथा कह सुनाऊं, लेकिन मिथ्या गौरव ने फिर उसकी ज़बान बंद कर दी। जालपा जब
उससे पूछती, सर्राफों को रूपये देते जाते हो या
नहीं, तो वह बराबर कहता, ‘हां
कुछ-न?कुछ हर महीने देता जाता हूं, पर आज रमा की दुर्बलता ने जालपा के मन में एक संदेह पैदा
कर दिया था। वह उसी संदेह को मिटाना चाहती थी। ज़रा देर बाद उसने पूछा, ‘सर्राफ
के तो अभी सब रूपये अदा न हुए होंगे? ‘
रमानाथ—‘अब
थोड़े ही बाकी हैं।‘
जालपा—‘कितने
बाकी होंगे, कुछ हिसाब-किताब लिखते हो? ‘
रमानाथ—‘हां, लिखता क्यों नहीं। सात सौ से कुछ कम ही होंगे।‘
जालपा—‘तब
तो पूरी गठरी है, तुमने कहीं रतन के रूपये तो नहीं
दे दिए? ‘
रमा दिल
में कांप रहा था, कहीं जालपा यह प्रश्न न कर बैठे। आख़िर उसने यह प्रश्न पूछ
ही लिया। उस वक्त भी यदि रमा ने साहस करके सच्ची बात स्वीकार कर ली होती तो
शायद उसके संकटों का अंत हो जाता। जालपा एक मिनट तक अवश्य सन्नाटे में आ
जाती। संभव है, क्रोध और निराशा के आवेश में दो-चार
कटु शब्द मुंह से निकालती, लेकिन फिर शांत हो जाती।
दोनों मिलकर
कोई-न?
कोई युक्ति सोच निकालते। जालपा यदि रतन से यह रहस्य कह सुनाती, तो रतन अवश्य मान जाती, पर हाय रे
आत्मगौरव, रमा ने यह बात सुनकर ऐसा मुंह बना लिया मानो जालपा ने उस पर कोई
निष्ठुर प्रहार किया हो बोला, ‘रतन
के रूपये क्यों देता। आज चाहूं, तो दो-चार हज़ार का
माल ला सकता हूं। कारीगरों की आदत देर करने की होती ही है। सुनार की खटाई
मशहूर है। बस और कोई बात नहीं। दस दिन में या तो चीज़ ही लाऊंगा या रूपये
वापस कर दूंगा, मगर यह शंका तुम्हें क्यों हुई?
पराई रकम भला मैं अपने ख़र्च में कैसे लाता।’
जालपा—‘कुछ
नहीं, मैंने यों ही पूछा था।’
जालपा को
थोड़ी देर में नींद आ गई, पर रमा फिर उसी उधेड़बुन में पड़ा। कहां से रूपये लाए। अगर
वह रमेश बाबू से साफ-साफ कह दे तो वह किसी महाजन से रूपये दिला देंगे, लेकिन नहीं, वह उनसे किसी तरह न कह
सकेगा। उसमें इतना साहस न था। उसने प्रातःकाल नाश्ता करके दफ्तर की राह
ली। शायद वहां कुछ प्रबंध हो जाए! कौन प्रबंध करेगा, इसका उसे ध्यान न था। जैसे रोगी वैद्य के पास जाकर
संतुष्ट हो जाता है पर यह नहीं जानता, मैं अच्छा
हूंगा या नहीं। यही दशा इस समय रमा की थी। दफ्तर में चपरासी के सिवा और कोई
न था। रमा रजिस्टर खोलकर अंकों की जांच करने लगा। कई दिनों से मीज़ान नहीं
दिया गया था, पर बडे बाबू के हस्ताक्षर मौजूद थे।
अब मीज़ान दिया, तो ढाई हजार निकले। एकाएक उसे एक
बात सूझी। क्यों न ढाई हजार की जगह मीज़ान दो हजार लिख दूं। रसीद बही की
जांच कौन करता है। अगर चोरी पकड़ी भी गई तो कह दूंगा, मीजान लगाने में गलती हो गई। मगर इस विचार को उसने मन में
टिकने न दिया। इस भय से, कहीं चित्त चंचल न हो जाए, उसने पेंसिल के अंकों पर रोशनाई उधर दी, और रजिस्टर को दराज में बंद करके इधर-उधर घूमने लगा।
इक्की-दुक्की गाडियां आने लगीं। गाड़ीवानों ने देखा,
बाबू साहब आज यहीं हैं, तो सोचा जल्दी से चुंगी
देकर छुक्री पर जायं। रमा ने इस कृपा के लिए दस्तूरी की दूनी रकम वसूल की, और गाड़ीवानों ने शौक से दी क्योंकि यही मंडी का समय था और
बारह-एक बजे तक चुंगीघर से फुरसत पाने की दशा में चौबीस घंटे का हर्ज होता
था, मंडी दस-ग्यारह बजे के बाद बंद हो जाती थी, दूसरे दिन का इंतज़ार करना पड़ता था। अगर भाव रूपये में आधा
पाव भी फिर गया, तो सैकड़ों के मत्थे गई। दस-पांच
रूपये का बल खा जाने में उन्हें क्या आपत्ति हो सकती थी। रमा को आज यह नई
बात मालूम हुई। सोचा, आख़िर सुबह को मैं घर ही पर
बैठा रहता हूं। अगर यहां आकर बैठ जाऊं तो रोज़ दसपांच रूपये हाथ आ जायं। फिर
तो छः महीने में यह सारा झगडासाफ हो जाय। मान लो रोज़ यह चांदी न होगी, पंद्रह न सही, दस मिलेंगे, पांच मिलेंगे। अगर सुबह को रोज़ पांच रूपये मिल जायं और
इतने ही दिनभर में और मिल जायं, तो पांच-छः महीने
में मैंर् ऋण से मुक्त हो जाऊं। उसने दराज़ खोलकर फिर रजिस्टर निकाला। यह
हिसाब लगा लेने के बाद अब रजिस्टर में हेर-उधर कर देना उसे इतना भंयकर न
जान पड़ा। नया रंगरूट जो पहले बंदूक की आवाज़ से चौंक पड़ता है, आगे चलकर गोलियों की वर्षा में भी नहीं घबडाता। रमा दफ्तर
बंद करके भोजन करने घर जाने ही वाला था कि एक बिसाती का ठेला आ पहुंचा। रमा
ने कहा, लौटकर चुंगी लूंगा। बिसाती ने मिकैत करनी
शुरू की। उसे कोई बडा ज़रूरी काम था। आख़िर दस रूपये पर मामला ठीक हुआ। रमा
ने चुंगी ली, रूपये जेब में रक्खे और घर चला।
पच्चीस रूपये केवल दो-ढाई घंटों में आ गए। अगर एक महीने भी यह औसत रहे तो
पल्ला पार है। उसे
इतनी ख़ुशी हुई कि वह भोजन करने घर न गया। बाज़ार से भी कुछ नहीं मंगवाया।
रूपये भुनाते हुए उसे एक रूपया कम हो जाने का ख़याल हुआ। वह शाम तक बैठा काम
करता रहा। चार रूपये और वसूल हुए। चिराग़ जले वह घर चला, तो उसके मन पर से चिंता और निराशा का बहुत कुछ बोझ उतर
चुका था। अगर दस दिन यही तेज़ी रही, तो रतन से मुंह
चुराने की नौबत न आएगी।
सतरह
नौ दिन
गुजर गए। रमा रोज़ प्रातः दफ्तर जाता और चिराग जले लौटता। वह रोज़ यही आशा
लेकर जाता कि आज कोई बडा शिकार फंस जाएगा। पर वह आशा न पूरी होती। इतना ही
नहीं। पहले दिन की तरह फिर कभी भाग्य का सूर्य न चमका। फिर भी उसके लिए कुछ
कम श्रेय की बात नहीं थी कि नौ दिनों में ही उसने सौ रूपये जमा कर लिए थे।
उसने एक पैसे का पान भी न खाया था। जालपा ने कई बार कहा, चलो कहीं घूम आवें, तो उसे भी उसने
बातों में ही टाला। बस, कल का दिन और था। कल आकर
रतन कंगन मांगेगी तो उसे वह क्या जवाब देगा। दफ्तर से आकर वह इसी सोच में
बैठा हुआ था। क्या वह एक महीना-भर के लिए और न मान जायगी। इतने दिन वह और न
बोलती तो शायद वह उससे उऋण हो जाता। उसे विश्वास था कि मैं उससे
चिकनी-चुपड़ी बातें करके राज़ी कर लूंगा। अगर उसने ज़िद की तो मैं उससे कह
दूंगा, सर्राफ रूपये नहीं लौटाता। सावन के दिन थे, अंधेरा हो चला था, रमा सोच रहा था, रमेश बाबू के पास चलकर दो-चार बाज़ियां खेल आऊं, मगर बादलों को देख-देख रूक जाता था। इतने
में रतन आ पहुंची। वह प्रसन्न न थी। उसकी मुद्रा कठोर हो रही थी। आज वह
लड़ने के लिए घर से तैयार होकर आई है और मुरव्वत और मुलाहजे की कल्पना को भी
कोसों दूर रखना चाहती है।
रतन ने
निष्ठुरता से कहा,
‘मुझे
आज तो बहुत जल्द घर लौट जाना है। बाबूजी को कल की याद दिलाने आई हूं।’
रमा उसका
लटका हुआ मुंह देखकर ही मन में सहम रहा था। किसी तरह उसे प्रसन्न करना
चाहता था। बडी तत्परता से बोला, ‘जी
हां, खूब याद है, अभी सर्राफ की दुकान
से चला आ रहा हूं। रोज़ सुबह-शाम घंटे-भर हाज़िरी देता हूं, मगर इन चीज़ों में समय बहुत लगता है। दाम तो कारीगरी के
हैं। मालियत देखिए तो कुछ नहीं। दो आदमी लगे हुए हैं, पर शायद अभी एक हीने से कम में चीज़ तैयार न हो, पर होगी लाजवाबब जी ख़ुश हो जायगा।’
पर रतन
ज़रा भी न पिघली। तिनककर बोली, ‘अच्छा!
अभी महीना-भर और लगेगा। ऐसी कारीगरी है कि तीन महीने में पूरी न हुई! आप
उससे कह दीजिएगा मेरे रूपये वापस कर दे। आशा के कंगन देवियां पहनती होंगी, मेरे लिए जरूरत नहीं!’
रमानाथ—‘एक
महीना न लगेगा, मैं जल्दी ही बनवा दूंगा। एक महीना
तो मैंने अंदाजन कह दिया था। अब थोड़ी ही कसर रह गई है। कई दिन तो नगीने
तलाश करने में लग गए।’
रतन—‘मुझे
कंगन पहनना ही नहीं है, भाई! आप मेरे रूपये लौटा
दीजिए, बस, सुनार मैंने भी
बहुत देखे हैं। आपकी दया से इस वक्त भी तीन जोड़े कंगन मेरे पास होंगे, पर ऐसी धांधली कहीं नहीं देखी। ’
धांधली के
शब्द पर रमा तिलमिला उठा, ‘धांधली
नहीं, मेरी हिमाकत कहिए। मुझे क्या जरूरत थी कि
अपनी जान संकट में डालता। मैंने तो पेशगी रूपये इसलिए दे दिए कि सुनार खुश
होकर जल्दी से बना देगा। अब आप रूपये मांग रही हैं, सर्राफ रूपये नहीं लौटा सकता।’
रतन ने
तीव्र नजरों से देखकर कहा,क्यों, रूपये क्यों न लौटाएगा? ’
रमानाथ—‘इसलिए
कि जो चीज़ आपके लिए बनाई है, उसे वह कहां बेचता
गिरेगा। संभव है, साल-छः महीने में बिक सके। सबकी
पसंद एक-सी तो नहीं होती।’
रतन ने
त्योरियां चढ़ाकर कहा,’मैं
कुछ नहीं जानती, उसने देर की है, उसका दंड भोगे।
मुझे कल या तो कंगन ला दीजिए या रूपये। आपसे यदि सर्राफ से दोस्ती है, आप मुलाहिजे और मुरव्वत के सबब से कुछ न कह सकते हों, तो मुझे उसकी दुकान दिखा दीजिए।नहीं आपको शर्म आती हो तो
उसका नाम बता दीजिए, मैं पता लगा लूंगी। वाह, अच्छी दिल्लगी! दुकान नीलाम करा दूंगी। जेल भिजवा दूंगी।
इन बदमाशों से लडाई के बगैर काम नहीं चलता।’ रमा अप्रतिभ होकर ज़मीन की ओर ताकने लगा। वह कितनी मनहूस
घड़ी थी, जब उसने रतन से रूपये लिए! बैठे-बिठाए
विपत्ति मोल ली।
रमा ने
कांपते हुए कहा,’अच्छी
बात है, आपको रूपये कल मिल जायंगे।’
रतन—‘कल
किस वक्त?’
रमानाथ—‘दफ्तर
से लौटते वक्त लेता आऊंगा।’
रतन—‘पूरे
रूपये लूंगी। ऐसा न हो कि सौ-दो सौ रूपये देकर टाल दे।’
रमानाथ—‘कल
आप अपने सब रूपये ले जाइएगा।’
यह कहता
हुआ रमा मरदाने कमरे में आया, और रमेश बाबू के नाम एक रूक्का लिखकर गोपी से बोला,इसे
रमेश बाबू के पास ले जाओ। जवाब लिखाते आना। फिर उसने एक दूसरा रूक्का लिखकर
विश्वम्भरदास को दिया कि माणिकदास को दिखाकर जवाब लाए। विश्वम्भर ने कहा,’पानी
आ रहा है।’
रमानाथ—‘तो
क्या सारी दुनिया बह जाएगी! दौड़ते हुए जाओ।’
विश्वम्भर—‘और
वह जो घर पर न मिलें?’
रमानाथ—‘मिलेंगे।
वह इस वक्त क़हीं नहीं जाते।’
आज जीवन
में पहला अवसर था कि रमा ने दोस्तों से रूपये उधार मांगे। आग्रह और विनय के
जितने शब्द उसे याद आये, उनका उपयोग किया। उसके लिए यह बिलकुल नया अनुभव था। जैसे
पत्र आज उसने लिखे, वैसे ही पत्र उसके पास कितनी ही
बार आ चुके थे। उन पत्रों को पढ़कर उसका ह्रदय कितना द्रवित हो जाता था, पर विवश होकर उसे बहाने करने पड़ते थे। क्या रमेश बाबू भी
बहाना कर जायंगे- उनकी आमदनी ज्यादा है, ख़र्च कम, वह चाहें तो रूपये का इंतजाम
कर सकते हैं। क्या मेरे साथ इतना सुलूक भी न करेंगे?
अब तक दोनों लङके लौटकर नहीं आए। वह द्वार पर टहलने लगा। रतन की मोटर अभी
तक खड़ी थी। इतने में रतन बाहर आई और उसे टहलते देखकर भी कुछ बोली नहीं।
मोटर पर बैठी और चल दी। दोनों कहां रह गए अब तक! कहीं खेलने लगे होंगे।
शैतान तो हैं ही। जो कहीं रमेश रूपये दे दें, तो
चांदी है। मैंने दो सौ नाहक मांगे, शायद इतने रूपये
उनके पास न हों। ससुराल वालों की नोच-खसोट से कुछ रहने भी तो नहीं पाता।
माणिक चाहे तो हज़ार-पांच सौ दे सकता है, लेकिन देखा
चाहिए, आज परीक्षा हो जायगी। आज अगर इन लोगों ने
रूपये न दिए, तो फिर बात भी न पूछूंगा। किसी का
नौकर नहीं हूं कि जब वह शतरंज खेलने को बुलायें तो दौडाचला जाऊं। रमा किसी
की आहट पाता, तो उसका दिल ज़ोर से धड़कने लगता था।
आखिर विश्वम्भर लौटा, माणिक ने लिखा था,आजकल
बहुत तंग हूं। मैं तो तुम्हीं से मांगने वाला था। रमा ने पुर्ज़ा फाड़कर फेंक
दिया। मतलबी कहीं का! अगर सब-इंस्पेक्टर ने मांगा होता तो पुर्ज़ा देखते ही
रूपये लेकर दौड़े जाते। ख़ैर, देखा जायगा। चुंगी के लिए माल तो आयगा ही। इसकी कसर तब
निकल जायगी। इतने में गोपी भी लौटा। रमेश ने लिखा था,मैंने
अपने जीवन में दोचार नियम बना लिए हैं। और बडी कठोरता से उनका पालन करता
हूं। उनमें से एक नियम यह भी है कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न
करूंगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जाएगा कि जहां मित्रों से लेन-देन
शुरू हुआ, वहां मनमुटाव होते देर नहीं लगती। तुम
मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना
चाहता। इसलिए मुझे क्षमा करो। रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और
कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बांधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखाई देता
था, इसमें संदेह है। इतनी ही एकाग्रता से वह कदाचित
आकाश की काली, अभेध मेघ-राशि की ओर ताकता! मन की एक
दशा वह भी होती है, जब आंखें खुली होती हैं और कुछ
नहीं सूझता, कान खुले रहते हैं और कुछ नहीं सुनाई
देता।
अठारह
संध्या हो
गई थी, म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी
एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ू लगा रहा था। चपरासियों ने भी
जूते पहनना शुरू कर दिया था। खोंचेवाले दिनभर की बिक्री के पैसे गिन रहे
थे। पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था। आज भी वह
प्रातःकाल आया था, पर आज भी कोई बडा शिकार न फंसा,
वही दस रूपये मिलकर रह गए। अब अपनी आबरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय
था! रमा ने रतन को झांसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह
अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रूपये मैंने ख़र्च कर दिए। अगर उसे मालूम
हो जाए कि उसके रूपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह
शांत हो जाएगी। रमा उसे रूपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका संदेह मिटा देना
चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज
जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रूपये उसके पास थे। इसे वह
अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या ग़रज़ थी कि रमा
से आज की आमदनी मांगता। रूपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिनभर वही
लिखते-लिखते और रूपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को जब
मालूम हो गया कि खजांची साहब दूर निकल गए होंगे, तो
उसने रजिस्टर बंद कर दिया और चपरासी से बोला, ‘थैली
उठाओ। चलकर जमा कर आएं।’
चपरासी ने
कहा,
‘खजांची
बाबू तो चले गए!’
रमा ने
आखें गाड़कर कहा,
‘खजांची
बाबू चले गए! तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं- अभी कितनी दूर गए होंगे?’
चपरासी—‘सड़क
के नुक्कड़ तक पहुंचे होंगे।’
रमानाथ—‘यह
आमदनी कैसे जमा होगी?’
चपरासी—‘हुकुम
हो तो बुला लाऊं?’
रमानाथ—‘अजी, जाओ भी, अब तक तो कहा नहीं, अब उन्हें आधे रास्ते से बुलाने जाओगे। हो तुम भी निरे
बछिया के ताऊब आज ज्यादा छान गए थे क्या? ख़ैर, रूपये इसी दराज़ में रखे रहेंगे। तुम्हारी ज़िम्मेदारी
रहेगी।’
चपरासी—‘नहीं
बाबू साहब, मैं यहां रूपया नहीं रखने दूंगा। सब घड़ी बराबर नहीं जाती।
कहीं रूपये उठ जायं, तो मैं बेगुनाह मारा जाऊं।
सुभीते का ताला भी तो नहीं है यहां।’
रमानाथ—‘तो
फिर ये रूपये कहां रक्खूं?’
चपरासी—‘हुजूर, अपने साथ लेते जाएं।’
रमा तो यह
चाहता ही था। एक इक्का मंगवाया, उस पर रूपयों की थैली रक्खी और घर चला। सोचता जाता था कि
अगर रतन भभकी में आ गई, तो क्या पूछना! कह दूंगा, दो-ही-चार दिन की कसर है। रूपये सामने देखकर उसे तसल्ली हो
जाएगी।
जालपा ने
थैली देखकर पूछा,क्या
कंगन न मिला?’
रमानाथ—‘अभी
तैयार नहीं था, मैंने समझा रूपये लेता चलूं जिसमें
उन्हें तस्कीन हो जाय।
जालपा—‘क्या
कहा सर्राफ ने?’
रमानाथ—‘कहा
क्या, आज-कल करता है। अभी रतन देवी आइ नहीं?’
जालपा—‘आती
ही होगी, उसे चैन कहां?’
जब चिराग
जले तक रतन न आई, तो रमा ने समझा अब न आएगी। रूपये आल्मारी में रख दिए और
घूमने चल दिया। अभी उसे गए दस मिनट भी न हुए होंगे कि रतन आ पहुंची और
आते-ही-आते बोली,कंगन
तो आ गए होंगे?’
जालपा—‘हां
आ गए हैं, पहन लो! बेचारे कई दफा सर्राफ के पास गए।
अभागा देता ही नहीं, हीले-हवाले करता है।’
रतन—‘कैसा
सर्राफ है कि इतने दिन से हीले-हवाले कर रहा है। मैं जानती कि रूपये झमेले
में पड़ जाएंगे, तो देती ही क्यों। न रूपये मिलते
हैं, न कंगन मिलता है!’
रतन ने यह
बात कुछ ऐसे अविश्वास के भाव से कही कि जालपा जल उठी। गर्व से बोली,आपके
रूपये रखे हुए हैं, जब चाहिए ले जाइए। अपने बस की बात तो है नहीं। आखिर जब
सर्राफ देगा, तभी तो लाएंगे?’
रतन—‘कुछ
वादा करता है, कब तक देगा?’
जालपा—‘उसके
वादों का क्या ठीक, सैकड़ों वादे तो कर चुका है।’
रतन—‘तो
इसके मानी यह हैं कि अब वह चीज़ न बनाएगा?’
जालपा—‘जो
चाहे समझ लो!’
रतन—‘तो
मेरे रूपये ही दे दो, बाज आई ऐसे कंगन से।’
जालपा
झमककर उठी, आल्मारी से थैली निकाली और रतन के सामने पटककर बोली,
‘ये
आपके रूपये रखे हैं, ले जाइए।’
वास्तव
में रतन की अधीरता का कारण वही था, जो रमा ने समझा था। उसे भ्रम हो रहा था कि इन लोगों ने
मेरे रूपये ख़र्च कर डाले। इसीलिए वह बार-बार कंगन का तकाजा करती थी। रूपये
देखकर उसका भ्रम शांत हो गया। कुछ लज्जित होकर बोली,
‘अगर
दो-चार दिन में देने का वादा करता हो तो रूपये रहने दो।’
जालपा—‘मुझे
तो आशा नहीं है कि इतनी जल्द दे दे। जब चीज़ तैयार हो जायगी तो रूपये मांग
लिए जाएंगे।’
रतन—‘क्या
जाने उस वक्त मेरे पास रूपये रहें या न रहें। रूपये आते तो दिखाई देते हैं, जाते नहीं दिखाई देते। न जाने किस तरह उड़ जाते हैं। अपने
ही पास रख लो तो क्या बुरा?’
रतन—‘अच्छी
बात है, मैं रूपये लिये जाती हूं; मगर देखना निश्चिन्त न हो जाना। बाबूजी से कह देना सर्राफ
का पिंड न छोड़ें।’
रतन चली
गई। जालपा खुश थी कि सिर से बोझ टला। बहुधा हमारे जीवन पर उन्हीं के हाथों
कठोरतम आघात होता है, जो हमारे सच्चे हितैषी होते हैं। रमा कोई नौ बजे घूमकर
लौटा, जालपा रसोई बना रही थी। उसे देखते ही बोली,
‘रतन
आई थी, मैंने उसके सब रूपये दे दिए।’
रमा के
पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक गई। आंखें फैलकर माथे पर जा पहुंचीं। घबराकर
बोला, ‘क्या
कहा, रतन को रूपये दे दिए? तुमसे किसने
कहा था कि उसे रूपये दे देना?’
जालपा—‘उसी
के रूपये तो तुमने लाकर रक्खे थे। तुम ख़ुद उसका इंतजार करते रहे। तुम्हारे
जाते ही वह आई और कंगन मांगने लगी। मैंने झल्लाकर उसके रूपये फेंक दिए।
रमा ने
सावधन होकर कहा, ‘उसने
रूपये मांगे तो न थे?’
जालपा—‘मांगे
क्यों नहीं। हां, जब मैंने दे दिए तो अलबत्ता कहने
लगी, इसे क्यों लौटाती हो,
अपने पास ही पडारहने दो। मैंने कह दिया, ऐसे शक्की
मिज़ाज वालों का रूपया मैं नहीं रखती।’
रमानाथ—‘ईश्वर
के लिए तुम मुझसे बिना पूछे ऐसे काम मत किया करो।’
जालपा—‘तो
अभी क्या हुआ, उसके पास जाकर रूपये मांग लाओ, मगर अभी से रूपये घर में लाकर अपने जी का जंजाल क्यों मोल
लोगे।’
रमा इतना
निस्तेज हो गया कि जालपा पर बिगड़ने की भी शक्ति उसमें न रही। रूआंसा होकर
नीचे चला गया और स्थिति पर विचार करने लगा। जालपा पर बिगड़ना अन्याय था। जब
रमा ने साफ कह दिया कि ये रूपये रतन के हैं,
और इसका संकेत तक न किया कि मुझसे पूछे बगैर रतन को रूपये मत देना,
तो जालपा का कोई अपराध नहीं। उसने सोचा,इस
समय झल्लाने और बिगड़ने से समस्या हल न होगी। शांत चित्त होकर विचार करने की
आवश्यकता थी। रतन से रूपये वापस लेना अनिवार्य था। जिस समय वह यहां आई है, अगर मैं खुद मौजूद होता तो कितनी खूबसूरती से सारी मुश्किल
आसान हो जाती। मुझको क्या शामत सवार थी कि घूमने निकला! एक दिन न घूमने
जाता, तो कौन मरा जाता था! कोई गुप्त शक्ति मेरा
अनिष्ट करने पर उताई हो गई है। दस मिनट की अनुपस्थिति ने सारा खेल बिगाड़
दिया। वह कह रही थी कि रूपये रख लीजिए। जालपा ने ज़रा समझ से काम लिया होता
तो यह नौबत काहे को आती। लेकिन फिर मैं बीती हुई बातें सोचने लगा। समस्या
है, रतन से रूपये वापस कैसे लिए जाएं ।क्यों न चलकर
कहूं, रूपये लौटाने से आप नाराज हो गई हैं। असल में
मैं आपके लिए रूपये न लाया था। सर्राफ से इसलिए मांग लाया था, जिसमें वह चीज़ बनाकर दे दे। संभव है, वह खुद ही लज्जित होकर क्षमा मांगे और रूपये दे दे। बस इस
वक्त वहां जाना चाहिए।
यह निश्चय
करके उसने घड़ी पर नज़र डाली। साढ़े आठ बजे थे। अंधकार छाया हुआ था। ऐसे समय
रतन घर से बाहर नहीं जा सकती। रमा ने साइकिल उठाई और रतन से मिलने चला।
रतन के
बंगले पर आज बडी बहार थी। यहां नित्य ही कोई-न-कोई उत्सव, दावत, पार्टी होती रहती थी। रतन का
एकांत नीरस जीवन इन विषयों की ओर उसी भांति लपकता था, जैसे प्यासा पानी की ओर लपकता है। इस वक्त वहां बच्चों का
जमघट था। एक आम के वृक्ष में झूला पडा था, बिजली की
बत्तियां जल रही थीं, बच्चे झूला झूल रहे थे और रतन
खड़ी झुला रही थी। हू-हा मचा
हुआ था। वकील साहब इस मौसम में भी ऊनी ओवरकोट पहने बरामदे में बैठे सिगार
पी रहे थे। रमा की इच्छा हुई, कि झूले के पास जाकर रतन से बातें करे, पर वकील साहब को खड़े देखकर वह संकोच के मारे उधर न जा सका।
वकील साहब ने उसे देखते ही हाथ बढ़ा दिया और बोले, ‘आओ
रमा बाबू, कहो, तुम्हारे
म्युनिसिपल बोर्ड की क्या खबरें हैं?’
रमा ने
कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ‘कोई
नई बात तो नहीं हुई।‘
वकील,--‘आपके
बोर्ड में लड़कियों की अनिवार्य शिक्षा का प्रस्ताव कब पास होगा?
और कई बोडोऊ ने तो पास कर दिया। जब तक स्त्रियों की शिक्षा का काफी प्रचार
न होगा, हमारा कभी उद्धार न होगा। आप तो योरप न गए
होंगे? ओह! क्या आज़ादी है,
क्या दौलत है, क्या जीवन है, क्या उत्साह है! बस मालूम होता है,
यही स्वर्ग है। और स्त्रियां भी सचमुच देवियां हैं। इतनी
हंसमुख, इतनी स्वच्छंद, यह सब
स्त्री-शिक्षा का प्रसाद है! ‘
रमा ने
समाचार-पत्रों में इन देशों का जो थोडा-बहुत हाल पढ़ा था, उसके आधार पर बोला,वहां
स्त्रियों का आचरण तो बहुत अच्छा नहीं है।‘
वकील--‘नान्सेसं
! अपने-अपने देश की प्रथा है। आप एक युवती को किसी युवक के साथ एकांत में
विचरते देखकर दांतों तले उंगली दबाते हैं। आपका अंप्तःकरण इतना मलिन हो गया
है कि स्त्री-पुरूष को एक जगह देखकर आप संदेह किए बिना रह ही नहीं सकते, पर जहां लङके और लड़कियां एक साथ शिक्षा पाते हैं, वहां यह जाति-भेद बहुत महत्व की वस्तु नहीं रह जाती,आपस में स्नेह
और सहानुभूति की इतनी बातें पैदा हो जाती हैं कि कामुकता का अंश बहुत
थोडारह जाता है। यह समझ लीजिए कि जिस देश में स्त्रियों की जितनी अधिक
स्वाधीनता है, वह देश उतना ही सभ्य है। स्त्रियों को कैद में, परदे में, या पुरूषों से कोसों दूर
रखने का तात्पर्य यही निकलता है कि आपके यहां जनता इतनी आचार-भ्रष्ट है कि
स्त्रियों का अपमान करने में ज़रा भी संकोच नहीं करती। युवकों के लिए
राजनीति, धर्म, ललित-कला, साहित्य, दर्शन, इतिहास, विज्ञान और हज़ारों ही ऐसे
विषय हैं, जिनके आधार पर वे युवतियों से गहरी
दोस्ती पैदा कर सकते हैं। कामलिप्सा उन देशों के लिए आकर्षण का प्रधान विषय
है, जहां लोगों की मनोवृत्तियां संकुचित रहती हैं।
मैं सालभर योरप और अमरीका में रह चुका हूं। कितनी ही सुंदरियों के साथ मेरी
दोस्ती थी। उनके साथ खेला हूं, नाचा भी हूं, पर कभी मुंह से ऐसा शब्द न निकलता था, जिसे सुनकर किसी युवती को लज्जा से सिर झुकाना पड़े, और फिर अच्छे और बुरे कहां नहीं हैं?’
से ब्याह
कर लेता है तो क्यों अख़बारों में इतना कुहराम मच जाता है। योरप में अस्सी
बरस के बूढ़े युवतियों से ब्याह करते हैं, सत्तर वर्ष की वृद्धाएं युवकों से विवाह करती हैं, कोई कुछ नहीं कहता। किसी को कानोंकान ख़बर भी नहीं होती। हम
बूढ़ों को मरने के पहले ही मार डालना चाहते हैं। हालांकि मनुष्य को कभी किसी
सहगामिनी की जरूरत होती है तो वह बुढ़ापे में, जब
उसे हरदम किसी अवलंब की इच्छा होती है, जब वह
परमुखापेक्षी हो जाता है। रमा का ध्यान झूले की ओर था। किसी तरह रतन से
दो-दो बातें करने का अवसर मिले। इस समय उसकी सबसे बडी यही कामना थी। उसका
वहां जाना शिष्टाचार के विरूद्ध था। आख़िर उसने एक क्षण के बाद झूले की ओर
देखकर कहा, ‘ये
इतने लङके किधर से आ गए?’
वकील—‘रतन
बाई को बाल-समाज से बडा स्नेह है। न जाने कहां?कहां
से इतने लङके जमा हो जाते हैं। अगर आपको बच्चों से प्यार हो, तो जाइए! रमा तो यह चाहता ही था,
चट झूले के पास जा पहुंचा। रतन उसे देखकर मुस्कराई और बोली,
‘इन
शैतानों ने मेरी नाक में दम कर रक्खा है। झूले से इन सबों का पेट ही नहीं
भरता। आइए, ज़रा आप भी बेगार कीजिए, मैं तो थक
गई। यह कहकर वह पक्के चबूतरे पर बैठ गई। रमा झोंके देने लगा। बच्चों ने नया
आदमी देखा, तो सब-के-सब अपनी बारी के लिए उतावले
होने लगे। रतन के हाथों दो बारियां आ चुकी थीं? पर
यह कैसे हो सकता था कि कुछ लङके तो तीसरी बार झूलें, और बाकी बैठे मुंह ताकें! दो उतरते तो चार झूले पर बैठ
जाते। रमा को बच्चों से नाममात्र को भी प्रेम न था पर इस वक्त फंस गया था, क्या करता! आख़िर आधा घंटे की बेगार के बाद उसका जी ऊब गया।
घड़ी में साढ़े नौ बज रहे थे। मतलब की बात कैसे छेड़े। रतन तो झूले में इतनी
मग्न थी, मानो उसे
रूपयों की सुध ही नहीं है। सहसा रतन ने झूले के पास जाकर कहा, ‘बाबूजी, मैं बैठती हूं, मुझे झुलाइए, मगर नीचे से नहीं, झूले पर खड़े
होकर पेंग मारिए।’
रमा बचपन
ही से झूले पर बैठते डरता था। एक बार मित्रों ने जबरदस्ती झूले पर बैठा
दिया, तो उसे चक्कर आने लगा, पर इस
अनुरोध ने उसे झूले पर आने के लिए मजबूर कर दिया। अपनी अयोग्यता कैसे प्रकट
करे। रतन दो बच्चों को लेकर बैठ गई, और यह गीत गाने
लगी,
कदम की
डरिया झूला पड़ गयो री, राधा
रानी झूलन आई।
रमा झूले
पर खडा होकर पेंग मारने लगा, लेकिन उसके पांव कांप रहे थे, और
दिल बैठा जाता था। जब झूला ऊपर से फिरता था, तो उसे
ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई तरल वस्तु उसके वक्ष में
चुभती चली जा रही है,और
रतन लड़कियों के साथ गा रही थी,
कदम की
डरिया झूला पड़ गयो री, राधा
रानी झूलन आई।
एक क्षण
के बाद रतन ने कहा, ‘ज़रा
और बढ़ाइए साहब, आपसे तो झूला बढ़ता ही नहीं।’
रमा ने
लज्जित होकर और ज़ोर लगाया पर झूला न बढ़ा,
रमा के सिर में चक्कर आने लगा।
रतन—‘आपको
पेंग मारना नहीं आता, कभी झूला नहीं झूले?’
रमा ने
झिझकते हुए कहा,
‘हां, इधर तो वर्षो से नहीं बैठा।’
रतन—‘तो
आप इन बच्चों को संभालकर बैठिए, मैं आपको झुलाऊंगी।’
अगर उस
डाल से न छू ले तो कहिएगा! रमा के प्राण सूख गए। बोला,आजतो
बहुत देर हो गई है, फिर कभी आऊंगा। ’
रतन—‘अजी
अभी क्या देर हो गई है, दस भी नहीं बजे, घबडाइए
नहीं, अभी बहुत रात पड़ी है। खूब झूलकर जाइएगा। कल
जालपा को लाइएगा, हम दोनों झूलेंगे।’
रमा झूले
पर से उतर आया तो उसका चेहरा सहमा हुआ था। मालूम होता था, अब गिरा, अब गिरा> वह लड़खडाता हुआ
साइकिल की ओर चला और उस पर बैठकर तुरंत घर भागा। कुछ दूर
तक उसे कुछ होश न रहा। पांव आप ही आप पैडल घुमाते जाते थे, आधी दूर जाने के
बाद उसे होश आया। उसने साइकिल घुमा दी, कुछ दूर चला, फिर उतरकर सोचने लगा,आज
संकोच में पड़कर कैसी बाज़ी हाथ से खोई,
वहां से चुपचाप अपना-सा मुंह लिये लौट आया। क्यों उसके मुंह से आवाज़ नहीं
निकली। रतन कुछ हौवा तो थी नहीं, जो उसे खा जाती।
सहसा उसे याद आया, थैली में आठ सौ रूपये थे, जालपा ने झुंझलाकर थैली की थैली उसके हवाले कर दी। शायद, उसने भी गिना नहीं, नहीं जरूर
कहती। कहीं ऐसा न हो, थैली किसी को दे दे, या और रूपयों में मिला दे, तो गजब
ही हो जाए। कहीं का न रहूं। क्यों न इसी वक्त चलकर बेशी रूपये मांग लाऊं, लेकिन देर बहुत हो गई है, सबेरे
फिर आना पड़ेगा। मगर यह दो सौ रूपये मिल भी गए, तब
भी तो पांच सौ रूपयों की कमी रहेगी। उसका क्या प्रबंध होगा?
ईश्वर ही बेडा पार लगाएं तो लग सकता है।
सबेरे कुछ
प्रबंध न हुआ, तो क्या होगा! यह सोचकर वह कांप उठा। जीवन में ऐसे अवसर भी
आते हैं, जब निराशा में भी हमें आशा होती है। रमा
ने सोचा, एक बार फिर गंगू के पास चलूं, शायद दुकान पर मिल जाय, उसके
हाथ-पांव जोडूं। संभव है, कुछ दया आ जाय। वह
सर्राफे जा पहुंचा मगर गंगू की दुकान बंद थी। वह लौटा ही था कि चरनदास आता
हुआ दिखाई दिया।
रमा को
देखते ही बोला,बाबूजी, आपने तो इधर का रास्ता ही छोड़ दिया। कहिए रूपये कब तक
मिलेंगे?’
रमा ने
विनम्र भाव से कहा,
‘अब
बहुत जल्द मिलेंगे भाई, देर नहीं है। देखो गंगू के रूपये चुकाए हैं, अब की तुम्हारी बारी है।’
चरनदास,
‘वह
सब किस्सा मालूम है, गंगू ने होशियारी से अपने रूपये न ले लिये होते, तो हमारी तरह टापा करते। साल-भर हो रहा है। रूपये सैकड़े का
सूद भी रखिए तो चौरासी रूपये होते हैं। कल आकर हिसाब कर जाइए, सब नहीं तो आधा-तिहाई कुछ दे दीजिए।लेते-देते रहने से
मालिक को ढाढ़स रहता है। कान में तेल डालकर बैठे रहने से तो उसे शंका होने
लगती है कि इनकी नीयत
ख़राब है। तो कल कब आइएगा?’
रमानाथ—‘भई, कल मैं रूपये लेकर तो न आ सकूंगा,
यों जब कहो तब चला आऊं। क्यों, इस वक्त अपने सेठजी
से चार-पांच सौ रूपयों का बंदोबस्त न करा दोगे?’तुम्हारी
मुट्ठी भी गर्म कर दूंगा। ’
चरनदास—‘कहां
की बात लिये फिरते हो बाबूजी, सेठजी एक कौड़ी तो
देंगे नहीं। उन्होंने यही बहुत सलूक किया कि नालिश नहीं कर दी। आपके पीछे
मुझे बातें सुननी पड़ती हैं। क्या बडे मुंशीजी से कहना पड़ेगा?’
रमा ने
झल्लाकर कहा,
‘तुम्हारा देनदार मैं हूं, बडे
मुंशी नहीं हैं। मैं मर नहीं गया हूं, घर छोड़कर
भागा नहीं जाता हूं। इतने अधीर क्यों हुए जाते हो? ’
चरनदास—‘साल-भर
हुआ, एक कौड़ी नहीं मिली,
अधीर न हों तो क्या हों। कल कम-से-कम दो सौ की गिकर कर रखिएगा।’
रमानाथ—‘मैंने
कह दिया, मेरे पास अभी रूपये नहीं हैं।’
चरनदास—‘रोज़
गठरी काट-काटकर रखते हो, उस पर कहते हो, रूपये नहीं हैं। कल रूपये जुटा रखना। कल आदमी जाएगा जरूर।’
रमा ने
उसका कोई जवाब न दिया, आगे बढ़ा। इधर आया था कि कुछ काम निकलेगा, उल्टे तकाज़ा सहना पड़ा। कहीं दुष्ट सचमुच बाबूजी के पास
तकाज़ा न भेज दे। आग ही हो जायंगे। जालपा भी समझेगी,
कैसा लबाडिया आदमी है। इस समय रमा की आंखों से आंसू तो न निकलते थे, पर उसका एक- एक रोआं रो रहा था। जालपा से अपनी असली हालत
छिपाकर उसने कितनी भारी भूल की! वह समझदार औरत है,
अगर उसे मालूम हो जाता कि मेरे घर में भूंजी
भांग भी नहीं है, तो वह मुझे कभी उधार गहने न लेने देती। उसने तो कभी अपने
मुंह से कुछ नहीं कहा। मैं ही अपनी शान जमाने के लिए मरा जा रहा था। इतना
बडा बोझ सिर पर लेकर भी मैंने क्यों किफायत से काम नहीं लिया? मुझे एक-एक पैसा दांतों से पकड़ना चाहिए था। साल-भर में
मेरी आमदनी सब मिलाकर एक हज़ार से कम न हुई होगी। अगर किफायत से चलता,
तो इन दोनों महाजनों के आधे-आधे रूपये जरूर अदा हो जाते, मगर यहां तो सिर पर शामत सवार थी। इसकी क्या जरूरत थी कि
जालपा मुहल्ले भर की औरतों को जमा करके रोज सैर करने जाती- सैकड़ों रूपये तो
तांगे वाला ले गया होगा, मगर यहां तो उस पर रोब
जमाने की पड़ी हुई थी। सारा बाज़ार जान जाय कि लाला निरे लफंगे हैं, पर अपनी स्त्री न जानने पाए! वाह री बुद्धि, दरवाज़े के लिए
परदों की क्या जरूरत थी! दो लैंप क्यों लाया, नई
निवाड़ लेकर चारपाइयां
क्यों बिनवाई, उसने रास्ते ही में उन ख़र्चो का हिसाब तैयार कर लिया,
जिन्हें उसकी हैसियत के आदमी को टालना चाहिए था। आदमी जब तक स्वस्थ रहता है, उसे इसकी चिंता नहीं रहती कि वह क्या खाता है, कितना खाता है, कब खाता है, लेकिन जब कोई विकार उत्पन्न हो जाता है, तो उसे याद आती है कि कल मैंने पकौडियां खाई थीं। विजय
बहिर्मुखी होती है, पराजय अन्तर्मुखी। जालपा ने
पूछा, ‘कहां
चले गए थे, बडी देर लगा दी।’
रमानाथ—‘तुम्हारे
कारण रतन के बंगले पर जाना पड़ा। तुमने सब रूपये उठाकर दे दिए, उसमें दो सौ रूपये मेरे भी थे। ’
जालपा—‘तो
मुझे क्या मालूम था, तुमने कहा भी तो न था, मगर उनके पास से रूपये कहीं जा नहीं सकते, वह आप ही भेज देंगी।’
रमानाथ—‘माना, पर सरकारी रकम तो कल दाख़िल करनी पड़ेगी।’
जालपा—‘कल
मुझसे दो सौ रूपये ले लेना, मेरे पास हैं।’
रमा को
विश्वास न आया। बोला—‘कहीं
हों न तुम्हारे पास! इतने रूपये कहां से आए? ’
जालपा—‘तुम्हें
इससे क्या मतलब, मैं तो दो सौ रूपये देने को कहती
हूं।’
रमा का
चेहरा खिल उठा। कुछ-कुछ आशा बंधी। दो-सौ रूपये यह देदे,
दो सौ रूपये रतन से ले लूं, सौ रूपये मेरे पास हैं
ही, तो कुल तीन सौ की कमी रह जाएगी, मगर यही तीन सौ रूपये कहां से आएंगे?
ऐसा कोई नज़र न आता था, जिससे इतने रूपये मिलने की
आशा की जा सके। हां, अगर रतन सब रूपये दे दे तो
बिगड़ी बात बन जाय। आशा का यही एक आधार रह गया था।
जब वह
खाना खाकर लेटा, तो जालपा ने कहा, ‘आज
किस सोच में पड़े हो?’
रमानाथ—‘सोच
किस बात का- क्या मैं उदास हूं?’
जालपा—‘हां, किसी चिंता में पड़े हुए हो, मगर
मुझसे बताते नहीं हो!’
रमानाथ—‘ऐसी
कोई बात होती तो तुमसे छिपाता?’
जालपा—‘वाह, तुम अपने दिल की बात मुझसे क्यों कहोगे? ऋषियों की आज्ञा नहीं है।’
रमानाथ—‘मैं
उन ऋषियों के भक्तों में नहीं हूं।’
जालपा—‘वह
तो तब मालूम होता, जब मैं तुम्हारे ह्रदय में पैठकर
देखती।’
रमानाथ—‘वहां
तुम अपनी ही प्रतिमा देखतीं।’
रात को
जालपा ने एक भयंकर स्वप्न देखा, वह चिल्ला पड़ी। रमा ने चौंककर पूछा,‘क्या
है?
जालपा, क्या स्वप्न देख रही हो? ’
जालपा ने
इधर-उधर घबडाई हुई आंखों से देखकर कहा,‘बडे
संकट में जान पड़ी थी। न जाने कैसा सपना देख रही थी! ’
रमानाथ—‘क्या
देखा?’
जालपा—‘क्या
बताऊं, कुछ कहा नहीं जाता। देखती थी कि तुम्हें कई
सिपाही पकड़े लिये जा रहे हैं। कितना भंयकर रूप था उनका!’
रमा का
ख़ून सूख गया। दो-चार दिन पहले, इस स्वप्न को उसने हंसी में उडा दिया होता, इस समय वह अपने को सशंकित होने से न रोक सका,
पर बाहर से हंसकर बोला, ‘तुमने
सिपाहियों से पूछा नहीं, इन्हें क्यों पकड़े लिये जाते हो?’
जालपा—‘तुम्हें
हंसी सूझ रही है, और मेरा ह्रदय कांप रहा है।’
थोड़ी देर
के बाद रमा ने नींद में बकना शुरू किया,
‘अम्मां, कहे देता हूं, फिर मेरा मुंह न
देखोगी, मैं डूब मरूंगा।’
जालपा को
अभी तक नींद न आई थी, भयभीत होकर उसने रमा को ज़ोर से हिलाया और बोली, ‘मुझे
तो हंसते थे और ख़ुद बकने लगे। सुनकर रोएं खड़े हो गए। स्वप्न देखते थे क्या? ’
रमा ने
लज्जित होकर कहा,
-- हां जी, न जाने क्या देख रहा था कुछ याद नहीं।’
जालपा ने
पूछा,
‘अम्मांजी
को क्यों धमका रहे थे। सच बताओ, क्या देखते थे? ’
रमा ने
सिर खुजलाते हुए कहा,
‘कुछ
याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूंगा।’
जालपा—‘अच्छा
तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।’
रमा करवट
पौढ़ गया, पर ऐसा जान पड़ता था, मानो चिंता और
शंका दोनों आंखों में बैठी हुई निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं।
जगते हुए दो बज गए। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही
से पानी उंड़ेलती हुई बोली,
‘बडी
प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग ही रहे हो? ’
रमा—‘हां
जी, नींद उचट गई है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रूपये कहां से आ गए?
मुझे इसका आश्चर्य है।’
जालपा—‘ये
रूपये मैं मायके से लाई थी, कुछ बिदाई में मिले थे, कुछ पहले से रक्खे थे। ’
रमानाथ—‘तब
तो तुम रूपये जमा करने में बडी कुशल हो यहां क्यों नहीं कुछ जमा किया?’
जालपा ने
मुस्कराकर कहा,
‘तुम्हें
पाकर अब रूपये की परवाह नहीं रही।’
रमानाथ—‘अपने
भाग्य को कोसती होगी!’
जालपा—‘भाग्य
को क्यों कोसूं, भाग्य को वह औरतें रोएं, जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्त्री को छेदता रहे,
बात-बात पर बिगड़े। पुरूष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी
प्रसन्न रहेगी।’
रमा ने
विनोद भाव से कहा,
‘तो
मैं तुम्हारे मन का हूं! ’
जालपा ने
प्रेम-पूर्ण गर्व से कहा,
‘मेरी
जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियां हैं। एक का
भी पति ऐसा नहीं। एक एम.ए.
है पर सदा रोगी। दूसरा विद्वान भी है और धनी भी, पर
वेश्यागामीब तीसरा घरघुस्सू है और बिलकुल निखट्टू…’
रमा का
ह्रदय गदगद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी के साथ उसने कितना
बडा विश्वासघात किया। इतना दुराव रखने पर भी जब इसे मुझसे इतना प्रेम है, तो मैं अगर उससे निष्कपट होकर रहता, तो मेरा जीवन कितना आनंदमय होता!
उन्नीस
प्रातःकाल
रमा ने रतन के पास अपना आदमी भेजा। ख़त में लिखा, मुझे बडा खेद है कि कल जालपा ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया, जो उसे न करना चाहिए था। मेरा विचार यह कदापि न था कि
रूपये आपको लौटा दूं, मैंने सर्राफ को ताकीद करने
के लिए उससे रूपये लिए थे। कंगन दो-चार रोज़ में अवश्य मिल जाएंगे। आप
रूपये भेज दें। उसी थैली में दो सौ रूपये मेरे भी थे। वह भी भेजिएगा।
अपने सम्मान की रक्षा करते हुए जितनी विनम्रता उससे हो सकती थी, उसमें कोई कसर नहीं रक्खी। जब
तक आदमी लौटकर न आया, वह बडी व्यग्रता से उसकी राह देखता रहा। कभी सोचता, कहीं बहाना न कर दे, या घर पर मिले
ही नहीं, या दो-चार दिन के बाद देने का वादा करे।
सारा दारोमदार रतन के रूपये पर था। अगर रतन ने साफ जवाब दे दिया, तो फिर सर्वनाश! उसकी कल्पना से ही रमा के प्राण सूखे जा
रहे थे। आख़िर नौ बजे आदमी लौटा। रतन ने दो सौ रूपये तो दिए थे। मगर खत का
कोई जवाब न दिया था। रमा ने निराश आंखों से आकाश की ओर देखा। सोचने लगा, रतन ने ख़त का जवाब क्यों नहीं दिया- मामूली शिष्टाचार भी
नहीं जानती? कितनी मक्कार औरत है! रात को ऐसा मालूम
होता था कि साधुता और सज्जनता की प्रतिमा ही है, पर
दिल में यह गुबार भरा हुआ था! शेष रूपयों की चिंता में रमा को नहाने-खाने
की भी सुध न रही। कहार अंदर
गया, तो जालपा ने पूछा, ‘तुम्हें
कुछ काम-धंधो की भी ख़बर है कि मटरगश्ती ही करते रहोगे! दस बज रहे हैं, और अभी तक तरकारी-भाजी का कहीं पता नहीं?’
कहार ने
त्योरियां बदलकर कहा,
‘तो
का चार हाथ-गोड़ कर लेई! कामें से तो गवा रहिनब बाबू मेम साहब के तीर रूपैया
लेबे का भेजिन रहा।’
जालपा—‘कौन
मेम साहब?’
जालपा—‘तो
लाए रूपये?’
कहार —‘लाए
काहे नाहींब पिरथी के छोर पर तो रहत हैं, दौरत-दौरत
गोड़ पिराय लाग।’
जालपा—‘अच्छा
चटपट जाकर तरकारी लाओ।’
कहार तो
उधर गया, रमा रूपये लिये हुए अंदर पहुंचा तो जालपा ने कहा,
‘तुमने
अपने रूपये रतन के पास से मंगवा लिए न?
अब तो मुझसे न लोगे?’
रमा ने
उदासीन भाव से कहा,
‘मत
दो!’
जालपा—‘मैंने
कह दिया था रूपया दे दूंगी। तुम्हें इतनी जल्द मांगने की क्यों सूझी?
समझी होगी, इन्हें मेरा इतना विश्वास भी नहीं।’
रमा ने
हताश होकर कहा,
‘मैंने
रूपये नहीं मांगे थे। केवल इतना लिख दिया था कि थैली में दो सौ रूपये
ज्यादे हैं। उसने आप ही आप भेज दिए।’
जालपा ने
हंसकर कहा,
‘मेरे
रूपये बडे भाग्यवान हैं, दिखाऊं? चुनचुनकर नए रूपये रक्खे
हैं। सब इसी साल के हैं, चमाचम! देखो तो आंखें ठंडी
हो जाएं।
इतने में
किसी ने नीचे से आवाज़ दी,
‘
बाबूजी, सेठ ने रूपये के लिए भेजा है।’
दयानाथ
स्नान करने अंदर आ रहे थे, सेठ के प्यादे को देखकर पूछा,
‘कौन
सेठ, कैसे रूपये? मेरे यहां किसी के
रूपये नहीं आते!’
प्यादा—‘छोटे
बाबू ने कुछ माल लिया था। साल-भर हो गए, अभी तक एक पैसा नहीं दिया। सेठजी ने कहा है, बात बिगड़ने पर रूपये दिए तो क्या दिए। आज कुछ जरूर दिलवा
दीजिए।’
दयानाथ ने
रमा को पुकारा और बोले,
‘देखो, किस सेठ का आदमी आया है। उसका कुछ हिसाब बाकी है, साफ क्यों नहीं कर देते?कितना बाकी
है इसका?’
रमा कुछ
जवाब न देने पाया था कि प्यादा बोल उठा,
‘पूरे
सात सौ हैं, बाबूजी!’
दयानाथ की
आंखें फैलकर मस्तक तक पहुंच गई,
‘सात
सौ! क्यों जी,यह
तो सात सौ कहता है?’
रमा ने
टालने के इरादे से कहा,
‘मुझे
ठीक से मालूम नहीं।’
प्यादा—‘मालूम
क्यों नहीं। पुरजा तो मेरे पास है। तब से कुछ दिया ही नहीं,कम
कहां से हो गए।’
रमा ने
प्यादे को पुकारकर कहा,
‘चलो
तुम दुकान पर, मैं ख़ुद आता हूं।’
प्यादा—‘हम
बिना कुछ लिए न जाएंगे, साहब! आप यों ही टाल दिया करते हैं, और बातें हमको सुननी पड़ती हैं।’
रमा सारी
दुनिया के सामने जलील बन सकता था, किंतु पिता के सामने जलील बनना उसके लिए मौत से कम न था।
जिस आदमी ने अपने जीवन में कभी हराम का एक पैसा न छुआ हो, जिसे किसी से उधार लेकर भोजन करने के बदले भूखों सो रहना
मंजूर हो, उसका लड़का इतना बेशर्म और बेगैरत हो! रमा
पिता की आत्मा का यह घोर अपमान न कर सकता था। वह उन पर यह बात प्रकट न होने
देना चाहता था कि उनका पुत्र उनके नाम को बट्टा लगा रहा है। कर्कश
स्वर में प्यादे से बोला, ‘तुम
अभी यहीं खड़े हो?
हट जाओ, नहीं तो धक्का देकर निकाल दिए जाओगे।’
प्यादा—‘हमारे
रूपये दिलवाइए, हम चले जायं। हमें क्या आपके द्वार पर मिठाई मिलती है! ’
रमानाथ—‘तुम
न जाओगे! जाओ लाला से कह देना नालिश कर दें।’
दयानाथ ने
डांटकर कहा,
‘क्या
बेशर्मी की बातें करते हो जी,
जब फिरह में रूपये न थे, तो चीज़ लाए ही क्यों?
और लाए, तो जैसे बने वैसे रूपये अदा करो। कह दिया, नालिश कर दो। नालिश कर देगा, तो
कितनी आबरू रह जायगी? इसका भी कुछ ख़याल है! सारे
शहर में उंगलियां उठेंगी, मगर तुम्हें इसकी क्या
परवा। तुमको यह सूझी क्या कि एकबारगी इतनी बडी गठरी सिर पर लाद ली। कोई
शादी-ब्याह का अवसर होता, तो एक बात भी थी। और वह
औरत कैसी है जो पति
को ऐसी बेहूदगी करते देखती है और मना नहीं करती। आख़िर तुमने क्या सोचकर यह
कर्ज लिया?
तुम्हारी ऐसी कुछ बडी आमदनी तो नहीं है!’
रमा को
पिता की यह डांट बहुत बुरी लग रही थी। उसके विचार में पिता को इस विषय में
कुछ बोलने का अधिकार ही न था। निसंकोच होकर बोला,
‘आप
नाहक इतना बिगड़ रहे हैं, आपसे रूपये मांगने जाऊं तो कहिएगा। मैं अपने वेतन से
थोडा-थोडा करके सब चुका दूंगा।’
अपने मन
में उसने कहा,
‘यह
तो आप ही की करनी का फल है। आप ही के पाप का प्रायश्चित्ता कर रहा हूं।’
प्यादे ने
पिता और पुत्र में वाद-विवाद होते देखा, तो चुपके से अपनी राह ली। मुंशीजी भुनभुनाते हुए स्नान
करने चले गए। रमा ऊपर गया, तो उसके मुंह पर लज्जा
और ग्लानि की फटकार बरस रही थी। जिस अपमान से बचने के लिए वह डाल-डाल, पात-पात भागता-फिरता था, वह हो ही
गया। इस अपमान के सामने सरकारी रूपयों की फिक्र भी ग़ायब हो गई। कर्ज़ लेने
वाले बला के
हिम्मती होते हैं। साधारण बुद्धिका मनुष्य ऐसी परिस्थितियों में पड़कर घबरा
उठता है, पर बैठकबाजों के माथे पर बल तक नहीं पड़ता। रमा अभी इस कला
में दक्ष नहीं हुआ था। इस समय यदि यमदूत उसके प्राण हरने आता,
तो वह आंखों से दौड़कर उसका स्वागत करता। कैसे क्या होगा, यह शब्द उसके एक-एक रोम से निकल रहा था। कैसे क्या होगा!
इससे अधिक वह इस समस्या की और व्याख्या न कर सकता था। यही प्रश्न एक
सर्वव्यापी पिशाच की भांति उसे घूरता
दिखाई देता था। कैसे क्या होगा! यही शब्द अगणित बगूलों की भांति चारों ओर
उठते नज़र आते थे। वह इस पर विचार न कर सकता था। केवल उसकी ओर से आंखें बंद
कर सकता था। उसका चित्त इतना खिन्न हुआ कि आंखें सजल हो गई।
जालपा ने
पूछा, ‘तुमने
तो कहा था, इसके अब थोड़े ही रूपये बाकी हैं।’
रमा ने
सिर झुकाकर कहा,
‘यह
दुष्ट झूठ बोल रहा था, मैंने कुछ रूपये दिए हैं।’
जालपा—‘दिए
होते, तो कोई रूपयों का तकषज़ा क्यों करता?
जब तुम्हारी आमदनी इतनी कम थी तो गहने लिए ही क्यों?
मैंने तो कभी ज़िद न की थी। और मान लो, मैं दो-चार
बार कहती भी, तुम्हें समझ-बूझकर काम करना चाहिए था।
अपने साथ मुझे भी चार बातें सुनवा दीं। आदमी सारी दुनिया से परदा रखता है, लेकिन अपनी स्त्री से परदा नहीं रखता। तुम मुझसे भी परदा
रखते हो अगर मैं जानती, तुम्हारी आमदनी इतनी थोड़ी
है, तो मुझे क्या ऐसा शौक चर्राया था कि मुहल्ले-भर
की स्त्रियों को तांगे पर बैठा-बैठाकर सैर कराने ले जाती। अधिक-से-अधिक यही
तो होता, कि कभी-कभी चित्त दुखी हो जाता, पर यह तकाज़े तो न सहने पड़ते। कहीं नालिश कर दे, तो सात सौ के एक हज़ार हो जाएं। मैं क्या जानती थी कि तुम
मुझ से यह छल कर रहे हो कोई वेश्या तो थी नहीं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना
घर भरना मेरा काम होता। मैं तो भले- बुरे दोनों ही की साथिन हूं। भले में
तुम चाहे मेरी बात मत पूछो, बुरे में तो मैं तुम्हारे
गले पड़ूंगी ही।’
रमा के
मुख से एक शब्द न निकला,
दफ्तर का समय आ गया था। भोजन करने का अवकाश न था। रमा ने कपड़े पहने, और दफ्तर चला। जागेश्वरी ने कहा,
‘क्या
बिना भोजन किए चले जाओगे?’
रमा ने
कोई जवाब न दिया, और घर से निकलना ही चाहता था कि जालपा झपटकर नीचे आई और
उसे पुकारकर बोली,
‘मेरे
पास जो दो सौ रूपये हैं, उन्हें क्यों नहीं सर्राफ को दे देते?’
रमा ने
चलते वक्त ज़ान-बूझकर
जालपा से रूपये न मांगे थे। वह जानता था, जालपा
मांगते ही दे देगी, लेकिन इतनी बातें सुनने के बाद
अब रूपये के लिए उसके सामने हाथ व्लाते उसे संकोच ही नहीं, भय होता था। कहीं वह फिर न उपदेश देने बैठ जाए,इसकी
अपेक्षा आने वाली विपत्तियां कहीं हल्की थीं। मगर जालपा ने उसे पुकारा, तो कुछ आशा बंधीब ठिठक गया और बोला,
‘अच्छी बात है, लाओ दे दो।’
वह बाहर
के कमरे में बैठ गया। जालपा दौड़कर ऊपर से रूपये लाई और गिन-गिनकर
उसकी थैली में डाल दिए। उसने समझा था, रमा रूपये
पाकर फूला न समाएगा, पर उसकी आशा पूरी न हुई। अभी
तीन सौ रूपये की फिक्र करनी थी। वह कहां से आएंगे?
भूखा आदमी इच्छापूर्ण भोजन चाहता है, दो-चार फुलकों
से उसकी तुष्टि नहीं होती। सड़क पर
आकर रमा ने एक तांगा लिया और उससे जार्जटाउन चलने को कहा,शायद
रतन से भेंट हो जाए। वह चाहे तो तीन सौ रूपये का बडी आसानी से प्रबंध कर
सकती है। रास्ते में वह सोचता जाता था, आज बिलकुल संकोच न करूंगा। ज़रा देर में जार्जटाउन आ गया।
रतन का बंगला भी आया। वह बरामदे में बैठी थी। रमा ने उसे देखकर हाथ उठाया, उसने भी हाथ उठाया, पर वहां उसका
सारा संयम टूट गया। वह बंगले में न जा सका। तांगा सामने से निकल गया। रतन
बुलाती, तो वह चला जाता। वह बरामदे में न बैठी होती तब भी शायद वह
अंदर जाता, पर उसे सामने बैठे देखकर वह संकोच में
डूब गया। जब तांगा गवर्नमेंट हाउस के पास पहुंचा,
तो रमा ने चौंककर कहा, ‘चुंगी
के दफ्तर चलो। तांगे वाले ने घोडा उधर मोङ दिया।
ग्यारह
बजते-बजते रमा दफ्तर पहुंचा। उसका चेहरा उतरा हुआ था। छाती धड़क रही थी। बडे
बाबू ने जरूर पूछा होगा। जाते ही बुलाएंगे। दफ्तर में ज़रा भी रियायत नहीं
करते। तांगे से उतरते ही उसने पहले अपने कमरे की तरफ निगाह डाली। देखा, कई आदमी खड़े उसकी राह देख रहे हैं। वह उधर न जाकर रमेश
बाबू के कमरे की ओर गया।
रमेश बाबू
ने पूछा, ‘तुम
अब तक कहां थे जी, ख़ज़ांची साहब तुम्हें खोजते फिरते हैं?चपरासी
मिला था?’
रमा ने
अटकते हुए कहा,
‘मैं
घर पर न था। ज़रा वकील साहब की तरफ चला गया था। एक बडी मुसीबत में फंस गया
हूं।’
रमेश—‘कैसी
मुसीबत, घर पर तो कुशल है।’
रमानाथ—‘जी
हां, घर पर तो कुशल है। कल शाम को यहां काम बहुत था, मैं उसमें ऐसा फंसा कि वक्त क़ी कुछ ख़बर ही न रही। जब काम
ख़त्म करके उठा, तो ख़जांची साहब चले गए थे। मेरे
पास आमदनी के आठ सौ रूपये थे। सोचने लगा इसे कहां रक्खूं,
मेरे कमरे में कोई संदूक है नहीं। यही निश्चय किया कि साथ लेता जाऊं। पांच
सौ रूपये नकद थे, वह तो मैंने थैली में रक्खे तीन
सौ रूपये के नोट जेब में रख लिए और घर चला। चौक में एक-दो चीज़ें लेनी थीं।
उधार से होता हुआ घर पहुंचा तो नोट गायब थे। रमेश बाबू ने आंखें गाड़कर कहा,
‘तीन
सौ के नोट गायब हो गए?’
रमानाथ—‘जी
हां, कोट के ऊपर की जेब में थे। किसी ने निकाल लिए?’
रमेश—‘और
तुमको मारकर थैली नहीं छीन ली?’
रमानाथ—‘क्या
बताऊं बाबूजी, तब से चित्त की जो दशा हो रही है, वह बयान नहीं कर सकता तब से अब तक इसी फिक्र में दौड़ रहा
हूं। कोई बंदोबस्त न हो सका।’
रमेश—‘अपने
पिता से तो कहा ही न होगा?
’
रमानाथ—‘उनका
स्वभाव तो आप जानते हैं। रूपये तो न देते, उल्टी
डांट सुनाते।’
रमेश—‘तो
फिर क्या फिक्र करोगे?’
रमानाथ—‘आज
शाम तक कोई न कोई फिक्र करूंगा ही।’
रमेश ने
कठोर भाव धारण करके कहा,
‘तो
फिर करो न! इतनी लापरवाही तुमसे हुई कैसे! यह मेरी समझ में नहीं आता। मेरी
जेब से तो आज तक एक पैसा न गिरा,
आंखें बंद करके रास्ता चलते हो या नशे में थे? मुझे
तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता। सच-सच बतला दो,
कहीं अनाप-शनाप तो नहीं ख़र्च कर डाले? उस दिन तुमने
मुझसे क्यों रूपये मांगे थे? ’
रमा का
चेहरा पीला पड़ गया। कहीं कलई तो न खुल जाएगी। बात बनाकर बोला,
‘क्या
सरकारी रूपया ख़र्च कर डालूंगा?
उस दिन तो आपसे रूपये इसलिए मांगे थे कि बाबूजी को एक जरूरत आ पड़ी थी। घर
में रूपये न थे। आपका ख़त मैंने उन्हें सुना दिया था। बहुत हंसे, दूसरा इंतजाम कर लिया। इन नोटों के गायब होने का तो मुझे
ख़ुद ही आश्चर्य है।’
रमेश—‘तुम्हें
अपने पिताजी से मांगते संकोच होता हो, तो मैं ख़त
लिखकर मंगवा लूं।’
रमा ने
कानों पर हाथ रखकर कहा,
‘नहीं
बाबूजी, ईश्वर के लिए ऐसा न कीजिएगा। ऐसी ही इच्छा हो, तो मुझे गोली मार दीजिए।’
रमेश ने
एक क्षण तक कुछ सोचकर कहा, ‘तुम्हें
विश्वास है, शाम तक रूपये मिल जाएंगे?’
रमानाथ—‘हां, आशा तो है।’
रमेश—‘तो
इस थैली के रूपये जमा कर दो, मगर देखो भाई, मैं साफ-साफ कहे देता हूं, अगर कल
दस बजे रूपये न लाए तो मेरा दोष नहीं। कायदा तो यही कहता है कि मैं इसी
वक्त तुम्हें पुलिस के हवाले करूं, मगर तुम अभी
लङके हो, इसलिए क्षमा करता हूं। वरना तुम्हें मालूम
है, मैं सरकारी काम में किसी प्रकार की मुरौवत नहीं
करता। अगर तुम्हारी जगह मेरा भाई या बेटा होता, तो
मैं उसके साथ भी यही सलूक करता, बल्कि शायद इससे
सख्त। तुम्हारे साथ तो फिर भी बडी नर्मी कर रहा हूं। मेरे पास रूपये होते
तो तुम्हें दे देता, लेकिन मेरी हालत तुम जानते हो
हां, किसी का कर्ज़ नहीं रखता। न किसी को कर्ज देता
हूं, न किसी से लेता हूं। कल रूपये न आए तो बुरा
होगा। मेरी दोस्ती भी तुम्हें पुलिस के पंजे से न बचा सकेगी। मेरी दोस्ती
ने आज अपना हक अदा कर दिया वरना इस वक्त तुम्हारे हाथों में हथकडियां
होतीं।’
हथकडियां!
यह शब्द तीर की भांति रमा की छाती में लगा। वह सिर से पांव तक कांप उठा। उस
विपत्ति की कल्पना करके उसकी आंखें डबडबा आई। वह धीरे-धीरे सिर झुकाए, सज़ा पाए हुए कैष्दी की भांति जाकर अपनी कुर्सी पर बैठ गया, पर यह भयंकर शब्द बीच-बीच में उसके ह्रदय में गूंज जाता
था। आकाश पर काली घटाएं छाई थीं। सूर्य का कहीं पता न था, क्या वह भी उस घटारूपी कारागार में बंद है, क्या उसके हाथों में भी हथकडियां हैं?
बीस
रमा शाम
को दफ्तर से चलने लगा, तो रमेश बाबू दौड़े हुए आए और कल रूपये लाने की ताकीद की।
रमा मन में झुंझला उठा। आप बडे ईमानदार की दुम बने हैं! ढोंगिया कहीं का!
अगर अपनी जरूरत आ पड़े, तो दूसरों के तलवे सहलाते
गिरेंगे, पर मेरा काम है,
तो आप आदर्शवादी बन बैठे। यह सब दिखाने के दांत हैं, मरते समय इसके प्राण भी जल्दी नहीं निकलेंगे! कुछ दूर चलकर
उसने सोचा, एक बार फिर रतन के पास चलूं। और ऐसा कोई
न था जिससे रूपये मिलने की आशा होती। वह जब उसके बंगले पर पहुंचा, तो वह अपने बगीचे में गोल चबूतरे पर बैठी हुई थी। उसके पास
ही एक गुज़राती जौहरी बैठा संदूक से सुंदर आभूषण निकाल-निकालकर दिखा रहा था।
रमा को देखकर वह बहुत ख़ुश हुई। ‘आइये बाबू साहब,
देखिए सेठजी कैसी अच्छी-अच्छी चीजें लाए हैं। देखिए, हार कितना सुंदर है, इसके दाम बारह सौ रूपये
बताते हैं।’
रमा ने
हार को हाथ में लेकर देखा और कहा,हां, चीज़ तो अच्छी मालूम होती है!’
रतन—‘दाम
बहुत कहते हैं।’
जौहरी—‘बाईजी, ऐसा हार अगर कोई दो हज़ार में ला दे, तो जो जुर्माना कहिए, दूं। बारह सौ
मेरी लागत बैठ गई है।’
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘ऐसा
न कहिए सेठजी, जुर्माना देना पड़ जाएगा।’
जौहरी—‘बाबू
साहब, हार तो सौ रूपये में भी आ जाएगा और बिलकुल ऐसा ही। बल्कि
चमक-दमक में इससे भी बढ़कर। मगर परखना चाहिए। मैंने ख़ुद ही आपसे मोल-तोल की
बात नहीं की। मोल-तोल अनाडियों से किया जाता है। आपसे क्या मोल-तोल,
हम लोग निरे रोजगारी नहीं हैं बाबू साहब, आदमी का
मिज़ाज देखते हैं। श्रीमतीजी ने क्या अमीराना मिज़ाज दिखाया है कि वाह! ’
रतन ने
हार को लुब्ध नजरों से देखकर कहा,
‘कुछ
तो कम कीजिए, सेठजी! आपने तो जैसे कसम खा ली! ’
जौहरी—‘कमी
का नाम न लीजिए, हुजूर! यह चीज़ आपकी भेंट है।’
रतन—‘अच्छा, अब एक बात बतला दीजिए, कम-से-कम
इसका क्या लेंगे?’
जौहरी ने
कुछ क्षुब्ध होकर कहा,
‘बारह
सौ रूपये और बारह कौडियां होंगी, हुजूर, आप से कसम खाकर कहता हूं, इसी शहर में पंद्रह सौ का बेचूंगा,
और आपसे कह जाऊंगा, किसने लिया।’
यह कहते
हुए जौहरी ने हार को रखने का केस निकाला। रतन को विश्वास हो गया, यह कुछ कम न करेगा। बालकों की भांति अधीर होकर बोली,
‘आप
तो ऐसा समेटे लेते हैं कि हार को नजर लग जाएगी! ’
जौहरी—‘क्या
करूं हुज़ूर! जब ऐसे दरबार में चीज़ की कदर नहीं होती,तो
दुख होता ही है।’
रतन ने
कमरे में जाकर रमा को बुलाया और बोली,
‘आप
समझते हैं यह कुछ और उतरेगा?’
रमानाथ—‘मेरी
समझ में तो चीज़ एक हज़ार से ज्यादा की नहीं है।’
रतन—‘उंह, होगा। मेरे पास तो छः सौ रूपये हैं। आप चार सौ रूपये का
प्रबंध कर दें, तो ले लूं। यह इसी गाड़ी से काशी जा
रहा है। उधार न मानेगा। वकील साहब किसी जलसे में गए हैं, नौ-दस बजे के पहले न लौटेंगे। मैं आपको कल रूपये लौटा
दूंगी।’
रमा ने
बडे संकोच के साथ कहा,
‘विश्वास
मानिए, मैं बिलकुल खाली हाथ हूं। मैं तो आपसे रूपये मांगने आया
था। मुझे बडी सख्त जरूरत है। वह रूपये मुझे दे दीजिए, मैं आपके लिए कोई अच्छा-सा हार यहीं से ला दूंगा। मुझे
विश्वास है, ऐसा हार सात-आठ सौ में मिल जायगा। ’
रतन—‘चलिए, मैं आपकी बातों में नहीं आती। छः महीने में एक कंगन तो
बनवा न सके, अब हार क्या लाएंगे! मैं यहां कई
दुकानें देख चुकी हूं, ऐसी चीज़ शायद ही कहीं निकले।
और निकले भी, तो इसके ड्योढ़े दाम देने पड़ेंगे।’
रतन—‘अच्छा
कहिए, देखिए क्या कहता है।’
दोनों
कमरे के बाहर निकले,
रमा ने जौहरी से कहा, ‘तुम
कल आठ बजे क्यों नहीं आते?’
जौहरी—‘नहीं
हुजूर, कल काशी में दो-चार बडे रईसों से मिलना है। आज के न जाने
से बडी हानि हो जाएगी।’
रतन—‘मेरे
पास इस वक्त छः सौ रूपये हैं, आप हार दे जाइए, बाकी के रूपये काशी से लौटकर ले जाइएगा। ’
जौहरी—‘रूपये
का तो कोई हर्ज़ न था, महीने-दो महीने में ले लेता, लेकिन
हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहां हैं, कल वहां हैं, कौन जाने यहां फिर कब
आना हो! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे
दीजिएगा। ’
रमानाथ—‘तो
सौदा न होगा।’
जौहरी—‘इसका
अख्तियार आपको है, मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।’
रमानाथ—‘रूपये
होंगे तो माल बहुत मिल जायगा। ’
जौहरी—‘कभी-कभी
दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।’यह
कहकर जौहरी ने फिर हार को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रूकेगा।
रतन का
रोयां-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खडा हो उसके
ह्रदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और
चेष्टा उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके
प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके
जन्मजन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक
बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती, पर रूपये कहीं
न मिले। सहसा मोटर की आवाज़ सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ
रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले।
रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा, ‘आप
तो नौ बजे आने को कह गए थे?’
वकील,
‘वहां
काम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता! कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है? ’
जौहरी ने
उठकर सलाम किया।
वकील साहब
रतन से बोले,
‘क्यों, तुमने कोई चीज़ पसंद की ?’
रतन—‘हां, एक हार पसंद किया है, बारह सौ
रूपये मांगते हैं। ’
वकील,
‘बस!
और कोई चीज़ पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज़ नहीं है।’
रतन—‘इस
वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीज़ें कौन पहनता है।’
वकील
--‘लेकर
रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने
देख लिया, तो कहोगी, मेरे
पास होता, तो मैं भी पहनती।’
जरूरत
होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फल चढ़ाए, किसे गंगा-जल से नहलाए, किसे
स्वादिष्ट चीज़ों का भोग लगाए। इसी भांति वकील साहब को भी पत्नी की जरूरत
थी। रतन उनके लिए सदेह कल्पना मात्र थी जिससे उनकी आत्मिक पिपासा शांत होती
थी। कदाचित रतन के बिना उनका जीवन उतना ही सूना होता, जितना आंखों के बिना मुखब।
रतन ने
केस में से हार निकालकर वकील साहब को दिखाया और बोली,
‘इसके
बारह सौ रूपये मांगते हैं।’
वकील साहब
की निगाह में रूपये का मूल्य आनंददायिनी शक्ति थी। अगर हार रतन को पसंद है, तो उन्हें इसकी परवा न थी कि इसके क्या दाम देने पड़ेंगे।
उन्होंने चेक निकालकर जौहरी की तरफ देखा और पूछा,
‘सच-सच
बोलो, कितना लिखूं! ।’
जौहरी ने
हार को उलट-पलटकर देखा और हिचकते हुए बोला,
‘साढ़े
ग्यारह सौ कर दीजिए।।’वकील
साहब ने चेक लिखकर उसको दिया, और वह सलाम करके चलता हुआ। रतन का
मुख इस समय वसन्त की प्राकृतिक शोभा की भांति विहसित था। ऐसा गर्व, ऐसा उल्लास उसके मुख पर कभी न दिखाई दिया था। मानो उसे
संसार की संपत्ति मिल गई है। हार को
गले में लटकाए वह अंदर चली गई। वकील साहब के आचारविचार में नई और पुरानी
प्रथाओं का विचित्र मेल था। भोजन वह अभी तक किसी ब्राह्मण के हाथ का भी न
खाते थे। आज रतन उनके लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनाने गई, अपनी कृतज्ञता को वह कैसे ज़ाहिर करे।
रमा कुछ
देर तक तो बैठा वकील साहब का योरप-गौरव-गान सुनता रहा, अंत को निराश होकर चल दिया।
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