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इक्कीस
अगर इस
समय किसी को संसार में सबसे दुखी,
जीवन से निराश, चिंताग्नि में जलते
हुए प्राणी की मूर्ति देखनी हो, तो उस युवक को देखे,
जो साइकिल पर बैठा हुआ, अल्प्रेड
पार्क के सामने चला जा रहा है। इस वक्त अगर कोई काला सांप नज़र आए तो वह
दोनों हाथ फैलाकर उसका स्वागत करेगा और उसके विष को सुधा की तरह पिएगा।
उसकी रक्षा सुधा से नहीं, अब विष ही से हो सकती
है। मौत ही अब उसकी चिंताओं का अंत कर सकती है,
लेकिन क्या मौत उसे बदनामी से भी बचा सकती है?
सबेरा होते ही, यह बात घर- घर फैल जायगी,सरकारी
रूपया खा गया और जब पकडागया,
तब आत्महत्या कर ली! द्दल में कलंक लगाकर,
मरने के बाद भी अपनी हंसी कराके चिंताओं से मुक्त हुआ तो
क्या, लेकिन दूसरा उपाय ही क्या है। अगर वह इस समय
जाकर जालपा से सारी स्थिति कह सुनाए, तो वह उसके
साथ अवश्य सहानुभूति दिखाएगी। जालपा को चाहे कितना ही दुख हो,
पर अपने गहने निकालकर देने में एक क्षण का भी विलंब न करेगी। गहनों को
गिरवी रखकर वह सरकारी रूपये अदा कर सकता है। उसे अपना परदा खोलना पड़ेगा।
इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।
मन में यह
निश्चय करके रमा घर की ओर चला,
पर उसकी चाल में वह तेज़ी न थी जो मानसिक स्फूर्ति का लक्षण
है। लेकिन घर पहुंचकर उसने सोचा,जब
यही करना है,
तो जल्दी क्या है, जब चाहूंगा मांग
लूंगा। कुछ देर गप-शप करता रहा, फिर खाना खाकर
लेटा।
सहसा उसके
जी में आया,
क्यों न चुपके से कोई चीज़ उठा ले जाऊं?’
कुलमर्यादा की रक्षा करने के लिए एक बार उसने ऐसा ही किया था। उसी उपाय से
क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता- अपनी जबान से तो शायद वह कभी अपनी
विपत्ति का हाल न कह सकेगा। इसी प्रकार आगा-पीछा में पड़े हुए सबेरा हो
जायगा। और तब उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिलेगा।
मगर उसे
फिर शंका हुई,
कहीं जालपा की आंख खुल जाय- फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के
सिवा और स्थान ही न रह जायगा। जो कुछ भी हो एक बार तो यह उद्योग करना ही
पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनी छाती पर से हटाया,
और नीचे खडाहो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ कि जालपा हाथ हटाते
ही चौंकी और फिर मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की
जेब से चाभियों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी
निम्नचेतना अपना काम करती रहती है। बालक कितना ही ग़ाफिल सोया हो,
माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है, लेकिन जब चाभी
निकालने के लिए झुका, तो उसे जान पडा जालपा मुस्करा
रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैंप के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख
की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। उसकी
स्वप्न-सुख विलसित छवि देखकर
उसका मन
कातर हो उठा। हा! इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूं?
जिसके लिए मैं अपने प्राणों को भेंट कर सकता हूं,
उसी के साथ यह कपट?
जालपा का
निष्कपट स्नेह-पूर्ण ह्रदय मानो उसके मुखमंडल पर अंकित हो रहा था। आह जिस
समय इसे ज्ञात होगा इसके गहने फिर चोरी हो गए,
इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खायगी,
सिर के बाल नोचेगी। वह किन आंखों से उसका यह क्लेश देखेगा?
उसने सोचा,मैंने
इसे आराम ही कौन?सा
पहुंचाया है। किसी दूसरे से विवाह होता, तो अब तक
वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आई,
जहां कोई सुख नहीं,उल्टे
और रोना पड़ा।
रमा फिर
चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त ज़ालपा की आंखें खुल गई। उसके मुख की ओर देखकर
बोली,
‘तुम
कहां गए थे?
मैं अच्छा सपना देख रही थी। बडा बाग़ है, और हम-तुम
दोनों उसमें टहल रहे हैं। इतने में तुम न जाने कहां चले जाते हो,
एक और साधु आकर मेरे सामने खडा हो जाता है। बिलकुल देवताओं
का-सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है,
‘बेटी,
मैं तुझे
वर देने
आया हूं। मांग,
क्या मांगती है। मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूं कि तुमसे
पूछूं क्या मांग़ूब और तुम कहीं दिखाई नहीं देते। मैं सारा बाग़ छान आई।
पेडों पर झांककर देखा, तुम न-जाने कहां चले गए हो
बस इतने में नींद खुल गई, वरदान न मांगने पाई।
रमा ने
मुस्कराते हुए कहा,
‘क्या
वरदान मांगतीं?’
‘मांगती
जो जी में आता,
तुम्हें क्या बता दूं?’
‘नहीं,
बताओ, शायद तुम बहुत-सा धन
मांगतीं।’
‘धन को
तुम बहुत बडी चीज़ समझते होगे?
मैं तो कुछ नहीं समझती।’
‘हां,
मैं तो समझता हूं। निर्धान रहकर जीना मरने से भी बदतर है।
मैं अगर किसी देवता को पकड़ पाऊं तो बिना काफी रूपये लिये न मानूंब मैं सोने
की दीवार नहीं खड़ी करना चाहता, न राकट्ठलर और
कारनेगी बनने की मेरी इच्छा है। मैं केवल इतना धन चाहता हूं कि जरूरत की
मामूली चीज़ों के लिए तरसना न पड़े। बस कोई देवता मुझे पांच लाख दे दे,
तो मैं फिर उससे कुछ न मांगूंगा। हमारे ही ग़रीब मुल्क़ में
ऐसे कितने ही रईस, सेठ,
ताल्लुकेदार हैं, जो पांच
लाख एक
साल में ख़र्च करते हैं,
बल्कि कितनों ही का तो माहवार खर्च पांच लाख होगा। मैं तो
इसमें सात जीवन काटने को तैयार हूं, मगर मुझे कोई
इतना भी नहीं देता। तुम क्या मांगतीं- अच्छे-अच्छे गहने!’
जालपा ने
त्योरियां चढ़ाकर कहा,
‘क्यों
चिढ़ाते हो मुझे! क्या मैं गहनों पर और स्त्रियों से ज्यादा जान देती हूं-
मैंने तो तुमसे कभी आग्रह नहीं किया?तुम्हें
जरूरत हो, आज इन्हें उठा ले जाओ,
मैं ख़ुशी से दे दूंगी।’
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘तो
फिर बतलातीं क्यों नहीं?’
जालपा—‘मैं
यही मांगती कि मेरा स्वामी सदा मुझसे प्रेम करता रहे। उनका मन कभी मुझसे न
गिरे।’
रमा ने
हंसकर कहा,
‘क्या
तुम्हें इसकी भी शंका है?’
‘तुम
देवता भी होते तो शंका होती,
तुम तो आदमी हो मुझे तो ऐसी कोई स्त्री न मिली,
जिसने अपने पति की निष्ठुरता का दुखडान रोया हो सालदो साल
तो वह खूब प्रेम करते हैं, फिर न जाने क्यों उन्हें
स्त्री से अरूचि-सी हो जाती है। मन चंचल होने लगता है। औरत के लिए इससे बडी
विपत्ति नहीं। उस विपत्ति से बचने के सिवा मैं और क्या वरदान मांगती?’
यह
कहते हुए जालपा ने पति के गले में बांहें डाल दीं और प्रणय-संचित नजरों से
देखती हुई बोली,
‘सच
बताना,
तुम अब भी मुझे वैसे ही चाहते हो,
जैसे पहले चाहते थे?देखो,
सच कहना, बोलो!’
रमा ने
जालपा के गले से चिमटकर कहा,
‘उससे
कहीं अधिक,
लाख गुना!’
जालपा ने
हंसकर कहा,
‘झूठ!
बिलकुल झूठ! सोलहों आना झूठ!’
रमानाथ—‘यह
तुम्हारी ज़बरदस्ती है। आख़िर ऐसा तुम्हें कैसे जान पडा?’
जालपा—‘आंखों
से देखती हूं और कैसे जान पड़ा। तुमने मेरे पास बैठने की कसम खा ली है। जब
देखो तुम गुमसुम रहते हो मुझसे प्रेम होता, तो मुझ
पर विश्वास भी होता। बिना विश्वास के प्रेम हो ही कैसे सकता है?
जिससे तुम अपनी बुरी-से-बुरी बात न कह सको, उससे
तुम प्रेम नहीं कर सकते। हां, उसके साथ विहार कर
सकते हो, विलास कर सकते हो उसी तरह जैसे कोई वेश्या
के पास जाता है। वेश्या के पास लोग आनंद उठाने ही जाते हैं,
कोई उससे मन की बात कहने नहीं जाता। तुम्हारी भी वही दशा
है। बोलो है या नहीं? आंखें क्यों छिपाते हो?
क्या मैं देखती नहीं, तुम बाहर से कुछ घबडाए हुए
आते हो? बातें करते समय देखती हूं,
तुम्हारा मन किसी और तरफ रहता है। भोजन में भी देखती हूं,
तुम्हें कोई आनंद नहीं आता। दाल गाढ़ी है या पतली,
शाक कम है या ज्यादा, चावल में कनी
है या पक गए हैं, इस तरफ तुम्हारी निगाह नहीं जाती।
बेगार की तरह भोजन करते हो और जल्दी से भागते हो मैं यह सब क्या नहीं
देखती- मुझे देखना न चाहिए! मैं विलासिनी हूं, इसी
रूप में तो तुम मुझे देखते हो मेरा काम है,विहार
करना,
विलास करना, आनंद करना। मुझे
तुम्हारी चिंताओं से मतलब! मगर ईश्वर ने वैसा ह्रदय नहीं दिया। क्या करूं?
मैं समझती हूं, जब मुझे जीवन ही
व्यतीत करना है, जब मैं केवल तुम्हारे मनोरंजन की
ही वस्तु हूं, तो क्यों अपनी जान विपत्ति में डालूं?’
जालपा ने
रमा से कभी दिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी विचारशील है,
उसने अनुमान ही न किया था। वह उसे वास्तव में रमणी ही
समझता था। अन्य पुरूषों की भांति वह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था। वह
उसके यौवन पर मुग्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की कभी चेष्टा ही न की।
शायद वह समझता था, इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह
रूप-लावण्य की राशि न होती, तो कदाचित वह उससे
बोलना भी पसंद न करता। उसका सारा आकर्षण,
उसकी सारी
आसक्ति केवल उसके रूप पर थी। वह समझता था,
जालपा इसी में प्रसन्न है। अपनी चिंताओं के बोझ से वह उसे
दबाना नहीं चाहता था, पर आज उसे ज्ञात हुआ,
जालपा उतनी ही चिंतनशील है, जितना
वह ख़ुद था। इस वक्त उसे अपनी मनोव्यथा कह डालने का बहुत अच्छा अवसर मिला था,
पर हाय संकोच! इसने फिर उसकी ज़बान बंद कर दी। जो बातें वह
इतने दिनों तक छिपाए रहा, वह अब कैसे कहे?
क्या ऐसा करना जालपा के आरोपित आक्षेपों
को
स्वीकार करना न होगा?
हां, उसकी आंखों से आज भ्रम का परदा उठ गया। उसे
ज्ञात हुआ कि विलास पर प्रेम का निर्माण करने की चेष्टा करना उसका अज्ञान
था।
रमा
इन्हीं विचारों में पडा-पडा सो गया,
उस समय आधी रात से ऊपर गुज़र गई थी। सोया तो इसी सबब से था
कि बहुत सबेरे उठ जाऊंगा, पर नींद खुली,
तो कमरे में धूप की किरणें आ-आकर उसे जगा रही थीं। वह चटपट
उठा और बिना मुंह-हाथ धोए, कपड़े पहनकर जाने को
तैयार हो गया। वह रमेश बाबू के पास जाना चाहता था। अब उनसे यह कथा कहनी
पड़ेगी। स्थिति का पूरा ज्ञान हो जाने पर वह कुछ-न?कुछ
सहायता करने पर तैयार हो जाएंगे।
जालपा उस
समय भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। रमा को इस भांति जाते देखकर
प्रश्न-सूचक नजरों से देखा। रमा के चेहरे पर चिंता,
भय, चंचलता और हिंसा मानो बैठी घूर
रही थीं। एक क्षण के लिए वह बेसुध-सी हो गई।
एक
हाथ में छुरी और दूसरे में एक करेला लिये हुए वह द्वार की ओर ताकती रही। यह
बात क्या है,
उसे कुछ बताते क्यों नहीं- वह और कुछ न कर सके,
हमदर्दी तो कर ही सकती है। उसके जी में आया,पुकार
कर पूछूं,
क्या बात है? उठकर द्वार तक आई भीऋ
पर रमा सड़क पर दूर निकल गया था। उसने देखा, वह बडी
तेज़ी से चला जा रहा है, जैसे सनक गया हो न दाहिनी
ओर ताकता है, न बाई ओर,
केवल सिर झुकाए, पथिकों से टकराता,
पैरगाडियों की परवा न करता हुआ,
भागा चला जा रहा था। आख़िर वह लौटकर फिर तरकारी काटने लगी,
पर उसका मन उसी ओर लगा हुआ था। क्या बात है,
क्यों मुझसे
इतना
छिपाते हैं?
रमा रमेश
के घर पहुंचा तो आठ बज गए थे। बाबू साहब चौकी पर बैठे संध्या कर रहे थे।
इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा,
कोई आधा घंटे में संध्या समाप्त हुई, बोले,
‘क्या
अभी मुंह-हाथ भी नहीं धोया,
यही लीचड़पन मुझे नापसंद है। तुम और कुछ करो या न करो,
बदन की सगाई तो करते रहो क्या हुआ,
रूपये का कुछ प्रबंध हुआ?’
रमानाथ—‘इसी
फिक्र में तो आपके पास आया हूं।’
रमेश—‘तुम
भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें
क्यों शर्म आती है? यही न होगा,
तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट
से तो छूट जाओगे। उनसे सारी बातें साफ-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएं अक्सर हो
जाया करती हैं। इसमें डरने की क्या बात है! नहीं कहो,
मैं चलकर कह दूं।’
रमानाथ—‘उनसे
कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता! क्या आप कुछ
बंदो।स्त नहीं कर सकते?’
रमेश—‘कर
क्यों नहीं सकता, पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के
साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो,
क्या उनसे नहीं कह सकते?मेरी सलाह
मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रूपये न दें तब
मेरे पास आना।’
रमा को अब
और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो
सकते हैं। वह यहां से उठा,
पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौवैया में आकाश से फिरते हुए
जल-बिंदुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की
हुई। दस कदम तेज़ी से आगे चलता, तो फिर कुछ सोचकर
रूक जाता और दस-पांच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में
घुस जाता,
कभी उस गली में…
सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न
जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयां कह सुनाऊं। मुंह से तो वह कुछ
न कह सकता था, पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल
मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा और बाहर के कमरे में आ
बैठूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा
हुआ घर आया, और तुरंत पत्र लिखा,
‘प्रिये, क्या कहूं,
किस विपत्ति में फंसा हुआ हूं। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ
रूपये का प्रबंध न हो गया, तो हाथों में हथकडियां
पड़ जाएंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले
लूं, किंतु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक
जेवर दे दो, तो मैं गिरों रखकर काम चला लूं।
ज्योंही रूपये हाथ आ जाएंगे, छुडादूंगा। अगर
मजबूरी न आ पड़ती तो, तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के
लिए रूष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुडा दूंगा---’
अभी यह
पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गए और बोले,
‘कहा
उनसे तुमने?
रमा ने
सिर झुकाकर कहा,
‘अभी
तो मौका नहीं मिला।
रमेश—‘तो
क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा- मैं डरता हूं कि कहीं आज भी तुम यों ही
ख़ाली हाथ न चले जाओ, नहीं तो ग़जब ही हो जाय!
’
रमानाथ—‘जब
उनसे मांगने का निश्चय कर लिया, तो अब क्या चिंता!
’
रमेश—‘आज
मौका मिले, तो ज़रा रतन के पास चले जाना। उस दिन
मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है
तुम भूल गए।’
रमानाथ—‘भूल
तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।’
रमेश—‘अपने
बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह
संकोच न होता, तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?’
रमेश बाबू
चले गए,
तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने
का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी।
थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे सुंदर
साड़ी पहनी थी। हाथों में जडाऊ कंगन शोभा दे रहे थे,
गले में चन्द्रहार, आईना सामने रखे हुए कानों में
झूमके पहन रही थी।
रमा को
देखकर बोली,
‘आज
सबेरे कहां चले गए थे?
हाथ-मुंह तक न धोया। दिन?भर तो बाहर रहते ही हो,
शामसबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते,
तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी
सोच रही
थी,
मुझे मैके जाना पड़े, तो मैं जाऊं
या न जाऊं? मेरा जी तो वहां बिलकुल न लगे।
रमानाथ—‘तुम
तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो ।’
जालपा—‘सेठानीजी
ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊंगी।’
रमा की
दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी,
जो हिरनी को अपने शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई
बंदूक कंधो पर रख लेता है, और वह वात्सल्य और प्रेम
की क्रीडादेखने में तल्लीन हो जाता है। उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देखकर जालपा
ने मुस्कराकर कहा,
‘देखो,
मुझे नज़र
न लगा देना। मैं तुम्हारी आंखों से बहुत डरती हूं।’
रमा एक ही
उडान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुंचा। ऐसे
अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनंद से नाच रहा है,
क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर
देगा? वह कौन ह्रदयहीन व्याधा है,
जो चहकती हुई चिडिया की गर्दन पर छुरी चला देगा?
वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी
प्रभात-द्दसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा- रमा इतना ह्रदयहीन,
इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बडा
आघात नहीं
कर सकता उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाए,
उसकी कितनी ही बदनामी क्यों न हो,
उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाए, पर वह इतना
निष्ठुर नहीं हो सकता उसने अनुरक्त होकर कहा,नज़र
तो न लगाऊंगा,
हां, ह्रदय से लगा लूंगा। इसी एक
वाक्य में उसकी सारी चिंताएं, सारी बाधाएं विसर्जित
हो गई। स्नेह-संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के
सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय
उसकी दशा
उस बालक की-सी थी,
जो गोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीडा न सहकर उसके फटने,
नासूर पड़ने, वर्षो खाट पर पड़े रहने
और कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है।
जालपा
नीचे जाने लगी,
तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह
भींच-भींचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य
उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अंतिम
आलिंगन हो उसके करपाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से
चिमट गए थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष की कुजी मुट्ठी में बंद किए
हो, और प्रतिक्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो क्या
मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जाएंगे?
सहसा
जालपा बोली,
‘मुझे
कुछ रूपये तो दे दो,
शायद वहां कुछ जरूरत पड़े।
’
रमा ने
चौंककर कहा,
‘रूपये!
रूपये तो इस वक्त नहीं हैं।’
जालपा—‘हैं
हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो बस मुझे दो रूपये दे दो,
और ज्यादा नहीं चाहती।’
यह कहकर
उसने रमा की जेब में हाथ डाल दिया,
और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया।
रमा ने
हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा,
‘काग़ज़
मुझे दे दो,
सरकारी काग़ज़ है।’
जालपा—‘किसका
ख़त है ।ता दो?’
जालपा ने
तह किए हुए पुरजे क़ो खोलकर कहा,यह
सरकारी काग़ज़ है! झूठे कहीं के! तुम्हारा ही लिखा---
रमानाथ—‘दे
दो, क्यों परेशान करती हो!’
रमा ने
फिर काग़ज़ छीन लेना चाहा,
पर जालपा ने हाथ पीछे उधरकर कहा,मैं
बिना पढ़े न दूंगी। कह दिया ज्यादा ज़िद करोगे,
तो
फाड़
डालूंगी। रमानाथ—‘अच्छा
फाड़ डालो।’
जालपा—‘तब
तो मैं जरूर पढ़ूंगी।’
उसने दो
कदम पीछे हटकर फिर ख़त को खोला और पढ़ने लगी। रमा ने फिर उसके हाथ से काग़ज़
छीनने की कोशिश नहीं की। उसे जान पडा,
आसमान फट पडाहै, मानो कोई भंयकर
जंतु उसे निफलने के लिए बढ़ा चला आता है। वह धड़-धड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और
घर के बाहर निकल गया। कहां अपना मुंह छिपा ले- कहां छिप जाए कि कोई उसे देख
न सके।
उसकी दशा
वही थी,
जो किसी नंगे आदमी की होती है। वह सिर से पांव तक कपड़े
पहने हुए भी नंगा था। आह! सारा परदा खुल गया! उसकी सारी कपटलीला खुल गई!
जिन बातों को छिपाने की उसने इतने दिनों चेष्टा की,
जिनको गुप्त रखने के लिए उसने कौन?कौन?सी
कठिनाइयां नहीं झेलीं, उन सबों ने आज मानो उसके
मुंह पर कालिख पोत दी। वह अपनी दुर्गति अपनी आंखों से नहीं देख सकता जालपा
की सिसकियां, पिता की झिड़कियां,
पड़ोसियों की
कनफुसकियां सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब कोई संसार में न
रहेगा,
तो उसे इसकी क्या परवा होगी, कोई
उसे क्या कह रहा है। हाय! केवल तीन सौ रूपयों के लिए उसका सर्वनाश हुआ जा
रहा है, लेकिन ईश्वर की इच्छा है,
तो वह क्या कर सकता है। प्रियजनों की नज़रों से फिरकर जिए
तो क्या जिए! जालपा उसे कितना नीच, कितना कपटी,
कितना धूर्त, कितना गपोडिया समझ
रही होगी। क्या वह अपना मुंह दिखा सकता है?
क्या
संसार में कोई ऐसी जगह नहीं है,
जहां वह नए जीवन का सूत्रपात कर सके,
जहां वह संसार से अलग-थलग सबसे मुंह मोड़कर अपना जीवन काट
सके। जहां वह इस तरह छिप जाय कि पुलिस उसका पता न पा सके। गंगा की गोद के
सिवा ऐसी जगह और कहां थी। अगर जीवित रहा, तो
महीनेदो महीने में अवश्य ही पकड़ लिया जाएगा। उस समय उसकी क्या दशा
होगी,वह
हथकडियां और बेडियां पहने अदालत में खडाहोगा। सिपाहियों का एक दल उसके ऊपर
सवार होगा। सारे शहर के लोग उसका तमाशा देखने जाएंगे। जालपा भी जाएगी। रतन
भी जाएगी। उसके पिता,
संबंधी, मित्र,
अपने-पराए,सभी
भिन्न-भिन्न भावों से उसकी दुर्दशा का तमाशा देखेंगे। नहीं,
वह अपनी मिट्टी यों न ख़राब करेगा,
न करेगा। इससे कहीं अच्छा है, कि वह डूब मरे! मगर
फिर ख़याल आया कि जालपा किसकी होकर रहेगी! हाय, मैं
अपने साथ उसे भी ले डूबा! बाबूजी और अम्मांजी तो रो-धोकर सब्र कर लेंगे,
पर उसकी रक्षा कौन करेगा- क्या वह छिपकर नहीं रह सकता-
क्या शहर से दूर किसी छोटे-से गांव में वह अज्ञातवास नहीं कर सकता- संभव है,
कभी जालपा को उस पर दया आए, उसके
अपराधों को क्षमा कर दे। संभव है, उसके पास धन भी
हो जाए, पर यह असंभव है कि वह उसके सामने आंखें
सीधी कर सके। न जाने इस समय उसकी क्या दशा होगी! शायद मेरे पत्र का आशय समझ
गई हो शायद परिस्थिति का उसे कुछ ज्ञान हो गया हो शायद उसने अम्मां को मेरा
पत्र दिखाया हो और दोनों घबराई हुई मुझे खोज रही हों। शायद पिताजी को
बुलाने के लिए लड़कों को भेजा गया हो चारों तरफ मेरी तलाश हो रही होगी। कहीं
कोई इधर भी न आता हो कदाचित मौत को देखकर भी वह इस समय इतना भयभीत न होता,
जितना किसी परिचित को देखकर। आगे-पीछे
चौकन्नी
आंखों से ताकता हुआ,
वह उस जलती हुई धूप में चला जा रहा था,कुछ
ख़बर न थी,
किधरब सहसा रेल की सीटी सुनकर वह चौंक पड़ा। अरे,
मैं इतनी दूर निकल आया? रेलगाड़ी
सामने खड़ी थी। उसे उस पर बैठ जाने की प्रबल इच्छा हुई,
मानो उसमें बैठते ही वह सारी बाधाओं से मुक्त हो जाएगा,
मगर जेब में रूपये न थे। उंगली में अंगूठी पड़ी हुई थी।
उसने कुलियों के जमादार को बुलाकर कहा,
‘कहीं
यह अंगूठी बिकवा सकते हो?
एक रूपया तुम्हें दूंगा।
मुझे गाड़ी
में जाना है। रूपये लेकर घर से चला था,
पर मालूम होता है, कहीं फिर गए।
फिर लौटकर जाने में गाड़ी न मिलेगी और बडा भारी नुकसान हो जाएगा।’
जमादार ने
उसे सिर से पांव तक देखा,
अंगूठी ली और स्टेशन के अंदर चला गया। रमा टिकट-घर के
सामने टहलने लगा। आंखें उसकी ओर लगी हुई थीं। दस मिनट गुज़र गए और जमादार का
कहीं पता नहीं। अंगूठी लेकर कहीं गायब तो नहीं हो जाएगा! स्टेशन के अंदर
जाकर उसे खोजने लगा। एक कुली से पूछा, उसने पूछा,
‘जमादार
का नाम क्या है?’रमा
ने ज़बान दांतों से काट ली।
नाम तो
पूछा ही नहीं। बतलाए क्या?
इतने में गाड़ी ने सीटी दी, रमा अधीर हो उठा। समझ
गया, जमादार ने चरका दिया। बिना टिकट लिये ही गाड़ी
में आ बैठा मन में निश्चय कर लिया, साफ कह दूंगा
मेरे पास टिकट नहीं है। अगर उतरना भी पडा, तो यहां
से दस पांच कोस तो चला ही जाऊंगा। गाड़ी चल दी, उस
वक्त रमा को अपनी दशा पर रोना आ गया। हाय,
न जाने
उसे कभी लौटना नसीब भी होगा या नहीं। फिर यह सुख के दिन कहां मिलेंगे। यह
दिन तो गए,
हमेशा के लिए गए। इसी तरह सारी दुनिया से मुंह छिपाए,
वह एक दिन मर जायगा। कोई उसकी लाश पर आंसू बहाने वाला भी
न होगा। घरवाले भी रो-धोकर चुप हो रहेंगे। केवल थोड़े-से संकोच के कारण
उसकी यह दशा हुई। उसने शुरू ही से, जालपा से अपनी
सच्ची हालत कह दी होती, तो आज उसे मुंह पर कालिख
लगाकर क्यों भागना पड़ता। मगर कहता कैसे, वह अपने को
अभागिनी न समझने लगती- कुछ न सही, कुछ दिन तो उसने
जालपा को सुखी रक्खा। उसकी लालसाओं की हत्या तो न होने दी। रमा के संतोष के
लिए अब इतना ही काफी था। अभी गाड़ी चले दस मिनट भी न बीते होंगे। गाड़ी का
दरवाज़ा खुला,और टिकट बाबू अंदर आए। रमा के चेहरे पर
हवाइयां उड़ने लगीं। एक क्षण में वह उसके पास आ जाएगा। इतने आदमियों के
सामने उसे कितना लज्जित होना पड़ेगा। उसका कलेजा धक-धक करने लगा।
ज्यों-ज्यों टिकट बाबू उसके समीप आता था, उसकी नाड़ी
की गति तीव्र होती जाती थी। आख़िर बला सिर पर आ ही गई। टिकट बाबू ने पूछा,
‘आपका
टिकट?’
रमा ने
ज़रा सावधान होकर कहा,
‘मेरा
टिकट तो कुलियों के जमादार के पास ही रह गया। उसे टिकट लाने के लिए रूपये
दिए थे। न जाने किधर निकल गया।’
टिकट बाबू
को यकीन न आया,
बोला,
‘मैं
यह कुछ नहीं जानता। आपको अगले स्टेशन पर उतरना होगा। आप कहां जा रहे हैं?’
टिकट बाबू—‘आगे
के स्टेशन पर टिकट ले लीजिएगा। ’
रमानाथ—‘यही
तो मुश्किल है। मेरे पास पचास का नोट था। खिड़की पर बडी भीड़ थी। मैंने नोट
उस जमादार को टिकट लाने के लिए दिया, पर वह ऐसा
ग़ायब हुआ कि लौटा ही नहीं। शायद आप उसे पहचानते हों। लंबा-लंबा चेचकरू आदमी
है।‘
टिकट बाबू—‘इस
विषय में आप लिखा-पढ़ी कर सकते है?
मगर बिना टिकट के जा नहीं सकते।
रमा ने
विनीत भाव से कहा,
‘भाई
साहब,
आपसे क्या छिपाऊं। मेरे पास और रूपये नहीं हैं। आप जैसा
मुनासिब समझें, करें।’
टिकट बाबू—‘मुझे
अफसोस है,
बाबू साहब, कायदे से मजबूर हूं।’
कमरे के
सारे मुसाफिर आपस में कानाफूसी करने लगे। तीसरा दर्जा था,अधिकांश
मजदूर बैठे हुए थे, जो मजूरी की टोह में पूरब जा
रहे थे। वे एक बाबू जाति के प्राणी को इस भांति अपमानित होते देखकर आनंद
पा रहे थे। शायद टिकट बाबू ने रमा को धक्का देकर उतार दिया होता,
तो और भी ख़ुश होते। रमा को जीवन में कभी इतनी झेंप न हुई
थी। चुपचाप सिर झुकाए खडा
था। अभी
तो जीवन की इस नई यात्रा का आरंभ हुआ है। न जाने आगे क्या?
क्या विपत्तियां झेलनी पडेंगी। किस-किसके हाथों धोखा खाना पड़ेगा। उसके जी
में आया,गाड़ी
से यद पड़ूं,
इस छीछालेदर से तो मर जाना ही अच्छा। उसकी आंखें भर आइ,
उसने खिड़की से सिर बाहर निकाल लिया और रोने लगा। सहसा एक
बूढ़े आदमी ने, जो उसके पास ही बैठा हुआ था,
पूछा,
‘कलकत्ता
में कहां जाओगे,
बाबूजी?’
रमा ने
समझा,
वह गंवार मुझे बना रहा है,
झुंझलाकर बोला,’तुमसे
मतलब,
मैं कहीं जाऊंगा!’
बूढ़े ने
इस उपेक्षा पर कुछ भी ध्यान न दिया,
बोला,
‘मैं
भी वहीं चलूंगा। हमारा-तुम्हारा साथ हो जायगा। फिर धीरे से बोला,किराए
के रूपये मुझसे ले लो,
वहां दे देना।’
अब रमा ने
उसकी ओर ध्यान से देखा। कोई साठ-सत्तर साल का बूढ़ा घुला हुआ आदमी था। मांस
तो क्या हडिडयां तक फूल गई थीं। मूंछ और सिर के बाल मुड़े हुए थे। एक
छोटी-सी बद्दची के सिवा उसके पास कोई असबाब भी न था। रमा को अपनी ओर ताकते
देखकर वह फिर बोला,
‘आप
हाबडे ही उतरेंगे या और कहीं जाएंगे?’
रमा ने
एहसान के भार से दबकर कहा,
‘बाबा,
आगे मैं उतर पड़ूंगा। रूपये का कोई बंदोबस्त करके फिर
आऊंगा। ’
रमानाथ—‘यहीं,
प्रयाग ही में रहता हूं।’
बूढ़े ने
भक्ति के भाव से कहा,मान्य
है प्रयाग,
धन्य है! मैं भी त्रिवेणी का स्नान करके आ रहा हूं,
सचमुच देवताओं की पुरी है। तो कै रूपये निकालूं?’
रमा ने
सकुचाते हुए कहा,
‘मैं
चलते ही चलते रूपया न दे सकूंगा,
यह समझ लो।’
बूढ़े ने
सरल भाव से कहा,
‘अरे
बाबूजी,
मेरे दस-पांच रूपये लेकर तुम भाग थोड़े ही जाओगे। मैंने तो
देखा, प्रयाग के पण्डे यात्रियों को बिना लिखाए
- पढ़ाए रूपये दे देते हैं। दस रूपये में तुम्हारा काम चल
जाएगा?’
रमा ने
सिर झुकाकर कहा,
‘हां,
इतने बहुत हैं।’
टिकट बाबू
को किराया देकर रमा सोचने लगा,यह
बूढ़ा कितना सरल,
कितना परोपकारी, कितना निष्कपट जीव
है। जो लोग सभ्य कहलाते हैं, उनमें कितने आदमी ऐसे
निकलेंगे, जो बिना जान - पहचान किसी यात्री को उबार
लें। गाड़ी के और मुसाफिर भी बूढ़े को श्र'द्धा की
नजरों से देखने लगे। रमा को बूढ़े की बातों से मालूम हुआ कि वह जाति का खटिक
है, कलकत्ता में उसकी शाक-भाजी की दुकान है। रहने
वाला तो बिहार का है, पर चालीस साल से कलकत्ता ही
में रोजगार कर रहा है। देवीदीन नाम है, बहुत दिनों
से तीर्थयात्रा की इच्छा थी, बदरीनाथ की यात्रा
करके लौटा जा रहा है।
रमा ने
आश्चर्य से पूछा,
‘तुम
बदरीनाथ की यात्रा कर आए?
वहां तो पहाड़ों की बडी-बडी चढ़ाइयां हैं।’
देवीदीन—‘भगवान
की दया होती है तो सब कुछ हो जाता है,
बाबूजी! उनकी दया चाहिए।’
रमानाथ—‘तुम्हारे
बाल-बच्चे तो कलकत्ता ही में होंगे?’
देवीदीन
ने रूखी हंसी हंसकर कहा,
‘बाल-बच्चे
तो सब भगवान के घर गए। चार बेटे थे। दो का ब्याह हो गया था। सब चल दिए।
मैं बैठा हुआ हूं। मुझी से तो सब पैदा हुए थे। अपने बोए हुए बीज को किसान
ही तो काटता है!’यह
कहकर वह फिर हंसा,
ज़रा देर बाद बोला,
‘बुढिया
अभी जीती हैं। देखें,
हम दोनों में पहले कौन चलता है। वह कहती है,
पहले मैं जाऊंगी, मैं
कहता हूं
,पहले
मैं जाऊंगा। देखो किसकी टेक रहती है। बन पडा तो तुम्हें दिखाऊंगा। अब भी
गहने पहनती है। सोने की बालियां और सोने की हसली पहने दुकान पर बैठी रहती
है। जब कहा कि चल तीर्थ कर आवें तो बोली,
‘तुम्हारे
तीर्थ के लिए क्या दुकान मिट्टी में मिला दूं?
यह है जिंदगी का हाल, आज मरे कि कल मरे,
मगर दुकान न छोड़ेगी। न कोई आगे, न
कोई पीछे, न कोई रोने वाला,
न कोई हंसने वाला, मगर माया बनी हुई है।अब भी एक-न?एक
गहना बनवाती ही रहती है। न जाने कब उसका पेट भरेगा। सब घरों का यही हाल
है। जहां देखो,हाय
गहने! हाय गहने! गहने के पीछे जान दे दें,
घर के आदमियों को भूखा मारें, घर
की चीज़ें बेचेंब और कहां तक कहूं, अपनी आबरू तक बेच
दें। छोटे-बड़े, अमीर-गरीब सबको यही रोग लगा हुआ है।
कलकत्ता में कहां काम करते हो, भैया?’
रमानाथ—‘अभी
तो जा रहा हूं। देखूं कोई नौकरी-चाकरी मिलती है या नहीं?’
देवीदीन—‘तो
फिर मेरे ही घर ठहरना। दो कोठरियां हैं,
सामने दालान है, एक कोठरी ऊपर है।
आज बेचूं तो दस हज़ार मिलें। एक कोठरी तुम्हें दे दूंगा। जब कहीं काम मिल
जाय, तो अपना घर ले लेना। पचास साल हुए घर से भागकर
हाबडे गया था, तब से सुख भी देखे,
दुख भी देखे। अब मना रहा हूं,
भगवान् ले चलो। हां, बुढिया को अमर कर दो। नहीं,
तो उसकी दुकान कौन लेगा, घर कौन
लेगा और गहने कौन लेगा!
यह कहकर
देवीदीन फिर हंसा, वह इतना हंसोड़,
इतना प्रसन्नचित्त था कि रमा को आश्चर्य हो रहा था। बेबात
की बात पर हंसता था। जिस बात पर और लोग रोते हैं,
उस पर उसे हंसी आती थी। किसी जवान को भी रमा ने यों हंसते न देखा था। इतनी
ही देर में उसने अपनी सारी जीवन?कथा कह सुनाई,
कितने ही लतीफे याद थे। मालूम होता था, रमा से
वर्षो की मुलाकात है। रमा को भी अपने विषय में एक मनगढ़ंत कथा कहनी पड़ी।
देवीदीन
हंसकर बोला,’यह
बडा भारी काम है भैया! इसे तेली की खोपड़ी पर जगाया जाता है। अभी लङके-बाले
तो नहीं हैं न?’
रमानाथ—‘नहीं,
अभी तो नहीं हैं।’
देवीदीन—‘छोटे
भाई भी होंगे?’
रमा चकित
होकर बोला,’हां
दादा,
ठीक कहते हो तुमने कैसे जाना?’
देवीदीन
फिर ठटठा मारकर बोला,यह
सब कर्मों का खेल है। ससुराल धनी होगी,
क्यों? ’
रमानाथ—‘हां
दादा, है तो।’
देवीदीन—‘मगर
हिम्मत न होगी।’
रमानाथ—‘बहुत
ठीक कहते हो, दादा। बडे कम-हिम्मत हैं। जब से विवाह
हुआ अपनी लडकी तक को तो बुलाया नहीं।’
देवीदीन--‘समझ
गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए
कहो चोरी करें, भीख मांगें,
बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।’
तीन दिन
से रमा को नींद न आई थी। दिनभर रूपये के लिए मारा-मारा फिरता,
रात-भर चिंता में पडारहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे
नींद आ गई। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरंत अपनी गठरी खोली,
उसमें से एक दरी निकाली, और तख्त पर बिछाकर बोला,
‘तुम
यहां आकर लेट रहो, भैया! मैं तुम्हारी जगह पर बैठ
जाता हूं।’
रमा लेट
रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आंखों से देखता था,
मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।
बाईस
जब रमा
कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था,
उस वक्त ज़ालपा को इसकी ज़रा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा
जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जी ऐसा झुंझला रहा था कि चलकर रमा
को ख़ूब खरी-खरी सुनाऊं। मुझसे यह छल-कपट! पर एक ही क्षण में उसके भाव बदल
गए। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रूपये ख़र्च कर
डाले हों। यही बात है, रतन के रूपये सराफ को दिए
होंगे। उस दिन रतन को देने के लिए शायद वे सरकारी रूपये उठा लाए
थे। यह
सोचकर उसे फिर क्रोध आया,यह
मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं?
क्यों मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना
भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-ग़रीब दोनों ही होते हैं?क्या
सभी स्त्रियां गहनों से लदी रहती हैं?गहने न पहनना
क्या कोई पाप है? जब और ज़रूरी कामों से रूपये बचते
हैं,तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर,
चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते! क्या
उन्होंने मुझे ऐसी गई-गुजरी समझ लिया! उसने सोचा,
रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूं,
कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान
करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बडी तेज़ी से नीचे उतरीब
उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे हुए इंतज़ार कर रहे
होंगे। कमरे में आई तो उनका पता न था। साइकिल रक्खी हुई थी,
तुरंत दरवाज़े से झांका। सड़क पर भी नहीं। कहां चले गए?
लडके।
दोनों
पढ़ने स्यल गए थे,
किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाए। उसके ह्रदय में एक
अज्ञात संशय अंद्दरित हुआ। फौरन ऊपर गई, गले का हार
और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बांधा, फिर नीचे
उतरी, सड़क पर आकर एक तांगा लिया,
और कोचवान से बोली,चुंगी
कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने
उतारकर तुरंत दे दिए। रास्ते में वह दोनों तरफ बडे ध्यान से देखती जाती थी।
क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आए?
शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज तांगे ही पर गए हैं,
नहीं तो अब तक जरूर मिल गए होते। तांगे वाले से बोली,
‘क्यों
जी,
अभी तुमने किसी बाबूजी को तांगे पर जाते देखा?’
तांगे
वाले ने कहा,’हां
माईजी,
एक बाबू अभी इधर ही से गए हैं।’
जालपा को
कुछ ढाढ़स हुआ,
रमा के पहुंचते-पहुंचते वह भी पहुंच जाएगी। कोचवान से
बार-बार घोडातेज़ करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुंची,
तो ग्यारह बज गए थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे
पूछे? न जाने वह कहां बैठते हैं। सहसा एक चपरासी
दिखलाई दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा,
‘सुनो
जी, ज़रा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।
चपरासी
बोला,उन्हीं
को बुलाने तो जा रहा हूं। बडे बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आई
हैं?’
जालपा—‘हां,
मैं तो घर ही से आ रही हूं। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले
हैं।’
चपरासी—‘यहां
तो नहीं आए।’
जालपा बडे
असमंजस में पड़ी। वह यहां भी नहीं आए,
रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर
गए कहां? उसका दिल बांसों उछलने लगा। आंखें भर-भर
आने लगीं। वहां बडे बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का
अवसर कभी न पडा था, पर इस समय उसका संकोच ग़ायब हो
गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली,ज़रा
बडे बाबू से कह दो---नहीं चलो,
मैं ही चलती हूं। बडे बाबू से कुछ बातें करनी हैं। जालपा
का ठाठ-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया,
उल्टे पांव बडे बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बडे
बाबू खबर पाते ही तुरंत बाहर निकल आए।
जालपा ने
कदम आगे बढ़ाकर कहा,
‘क्षमा
कीजिए, बाबू साहब, आपको
कष्ट हुआ। वह पंद्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या
अभी तक यहां नहीं आए?’
रमेश—‘अच्छा
आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहां नहीं आए। मगर दफ्तर के वक्त सैर - सपाटे
करने की तो उसकी आदत न थी।’
जालपा ने
चपरासी की ओर ताकते हुए कहा,
‘मैं
आपसे कुछ अर्ज़ करना चाहती हूं।’
रमेश—‘तो
चलो अंदर बैठो, यहां कब तक खड़ी रहोगी। मुझे आश्चर्य
है कि वह गए कहां! कहीं बैठे शतरंज खेल रहे होंगे।‘
जालपा—‘नहीं
बाबूजी, मुझे ऐसा भय हो रहा है कि वह कहीं और न चले
गए हों। अभी दस मिनट हुए, उन्होंने मेरे नाम एक
पुरज़ा लिखा था। (जेब से टटोल कर)
जी हां, देखिए वह पुरज़ा मौजूद है। आप उन पर कृपा
रखते हैं, तो कोई परदा नहीं। उनके जिम्मे कुछ
सरकारी रूपये तो नहीं निकलते!’
जालपा—‘कुछ
नहीं। इस विषय में कभी एक शब्द भी नहीं कहा!’
रमेश—‘कुछ
समझ में नहीं आता। आज उन्हें तीन सौ रूपये जमा करना है। परसों की आमदनी
उन्होंने जमा नहीं की थी? नोट थे,
जेब में डालकर चल दिए। बाज़ार में किसी ने नोट निकाल लिए।
(मुस्कराकर) किसी और देवी
की पूजा तो नहीं करते?’
जालपा का
मुख लज्जा से नत हो गया। बोली,
‘अगर
यह ऐब होता, तो आप भी उस इलज़ाम से न बचते। जेब से
किसी ने निकाल लिए होंगे। मारे शर्म के मुझसे कहा न होगा। मुझसे ज़रा भी
कहा होता, तो तुरंत रूपये निकालकर दे देती,
इसमें बात ही क्या थी।’
रमेश बाबू
ने अविश्वास के भाव से पूछा,
‘क्या
घर में रूपये हैं?’
जालपा ने
निशंक होकर कहा,
‘तीन
सौ चाहिए न,
मैं अभी लिये आती हूं।’
रमेश—‘अगर
वह घर पर आ गए हों, तो भेज देना।’
जालपा आकर
तांगे पर बैठी और कोचवान से चौक चलने को कहा। उसने अपना हार बेच डालने का
निश्चय कर लिया। यों उसकी कई सहेलियां थीं,
जिनसे उसे रूपये मिल सकते थे। स्त्रियों में बडा स्नेह होता है। पुरूषों
की भांति उनकी मित्रता केवल पान?पभो तक ही समाप्त
नहीं हो जाती, मगर अवसर नहीं था। सर्राफे में
पहुंचकर वह सोचने लगी, किस दुकान पर जाऊं। भय हो
रहा
था,
कहीं ठगी न जाऊं। इस सिरे से उस सिरे तक चक्कर लगा आई,
किसी दुकान पर जाने की हिम्मत न पड़ी। उधार वक्त भी निकला
जाता था। आख़िर एक दुकान पर एक बूढ़े सर्राफ को देखकर उसका संकोच कुछ कम हुआ।
सर्राफ बडा घाघ था, जालपा की झिझक और हिचक देखकर
समझ गया, अच्छा शिकार फंसा। जालपा ने हार दिखाकर
कहा,आप
इसे ले सकते हैं?’
सर्राफ ने
हार को इधर-उधर देखकर कहा,
‘मुझे
चार पैसे की गुंजाइश होगी,
तो क्यों न ले लूंगा। माल चोखा नहीं है।’
जालपा—‘तुम्हें
लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है,
बेचना होता, तो चोखा होता। कितने
में लोगे?’
सर्राफ—‘आप
ही कह दीजिए।’
सर्राफ ने
साढ़े तीन सौ दाम लगाए,
और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुंचा। जालपा को देर हो रही थी,
रूपये लिये और चल खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से
ख़रीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न
हो गई थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे ज़रा भी दुःख
नहीं हुआ, बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था।
जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रूपये दे दिए हैं,
उन्हें कितना आनंद होगा। कहीं दफ्तर पहुंच गए हों तो बडा
मज़ा हो यह सोचती हुई वह फिर दफ्तर पहुंची। रमेश बाबू उसे देखते हुए बोले,
‘क्या
हुआ,
घर पर मिले?’
जालपा—‘क्या
अभी तक यहां नहीं आए? घर तो नहीं गए। यह कहते हुए
उसने नोटों का पुलिंदा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।
जालपा फिर
तांगे पर बैठकर घर चली तो उसे मालूम हो रहा था,
मैं कुछ ऊंची हो गई हूं। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़
रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिंतित बैठे होंगे।
वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाथों लेगी, और खूब
लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी, लेकिन जब घर में
पहुंची तो रमानाथ का कहीं पता न था।
जागेश्वरी
ने पूछा,
‘कहां
चली गई थीं इस धूप में?’
जालपा—‘एक
काम से चली गई थी। आज उन्होंने भोजन नहीं किया, न
जाने कहां चले गए।’
जागेश्वरी--’दफ्तर
गए होंगे।’
जालपा—‘नहीं,
दफ्तर नहीं गए। वहां से एक चपरासी पूछने आया था।’
यह कहती
हुई वह ऊपर चली गई,
बचे हुए रूपये संदूक में रखे और पंखा झलने लगी। मारे गरमी
के देह फुंकी जा रही थी, लेकिन कान द्वार की ओर लगे थे। अभी तक उसे इसकी
ज़रा भी शंका न थी कि रमा ने विदेश की राह ली है।
चार बजे
तक तो जालपा को विशेष चिंता न हुई लेकिन ज्यों-ज्यों दिन ढलने लगा,
उसकी चिंता बढ़ने लगी। आख़िर वह सबसे ऊंची छत पर चढ़ गई,
हालांकि उसके जीर्ण होने के कारण कोई ऊपर नहीं आता था,
और वहां चारों तरफ नज़र दौडाई, लेकिन रमा किसी तरफ से आता
दिखाई न दिया। जब संध्या हो गई और रमा घर न आया, तो
जालपा का जी घबराने लगा। कहां चले गए? वह दफ्तर से
घर आए बिना कहीं बाहर न जाते थे। अगर किसी मित्र के घर होते,
तो क्या अब तक न लौटते?मालूम नहीं,
जेब में कुछ है भी या नहीं। बेचारे दिनभर से न मालूम कहां
भटक रहे होंगे। वह फिर पछताने लगी कि उनका पत्र पढ़ते ही उसने क्यों न हार
निकालकर दे दिया। क्यों दुविधा में पड़ गई। बेचारे शर्म के मारे घर न आते
होंगे। कहां जाय? किससे पूछे?
चिराग़ जल
गए,
तो उससे न रहा गया। सोचा, शायद रतन
से कुछ पता चले। उसके बंगले पर गई तो मालूम हुआ, आज
तो वह इधर आए ही नहीं। जालपा ने उन सभी पार्को और मैदानों को छान डाला,
जहां रमा के साथ वह बहुधा घूमने आया करती थी,
और नौ बजते-बजते निराश लौट आई। अब तक उसने अपने आंसुओं को
रोका था, लेकिन घर में कदम रखते ही जब उसे मालूम हो
गया कि अब तक वह नहीं आए, तो वह हताश होकर बैठ गई।
उसकी यह शंका अब दृढ़ हो गई कि वह जरूर कहीं चले गए। फिर भी कुछ आशा थी कि
शायद मेरे पीछे आए हों और फिर चले गए हों। जाकर जागेश्वरी से पूछा,
’वह
घर आए थे, अम्मांजी?’
जागेश्वरी--’यार-दोस्तों
में बैठे कहीं गपशप कर रहे होंगे। घर तो सराय है। दस बजे घर से निकले थे,
अभी तक पता नहीं।’
जालपा—‘दफ्तर
से घर आकर तब वह कहीं जाते थे। आज तो आए नहीं। कहिए तो गोपी बाबू को भेज
दूं। जाकर देखें, कहां रह गए।’
जागेश्वरी--’लङके
इस वक्त क़हां देखने जाएंगे। उनका क्या ठीक है। थोड़ी देर और देख लो,
फिर खाना उठाकर रख देना। कोई कहां तक इंतज़ार करे।’
जालपा ने
इसका कुछ जवाब न दिया। दफ्तर की कोई बात उनसे न कही। जागेश्वरी सुनकर घबडा
जाती,
और उसी वक्त रोना-पीटना मच जाता। वह ऊपर जाकर लेट गई और
अपने भाग्य पर रोने लगी। रह-रहकर चित्त ऐसा विकल होने लगा,
मानो कलेजे में शूल उठ रहा हो बार-बार सोचती,
अगर रातभर न आए तो कल क्या करना होगा?
जब तक कुछ पता न चले कि वह किधर गए, तब तक कोई जाय
तो कहां जाय! आज उसके मन ने पहली बार स्वीकार किया कि यह सब उसी की करनी का
फल है। यह सच है कि उसने कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं कियाऋ लेकिन उसने
कभी स्पष्ट रूप से मना भी तो नहीं किया। अगर गहने चोरी जाने के बाद इतनी
अधीर न हो गई होती, तो आज यह दिन क्यों आता। मन की
इस दुर्बल अवस्था में जालपा अपने भार से अधिक भाग अपने ऊपर लेने लगी। वह
जानती थी, रमा रिश्वत लेता है,
नोच-खसोटकर रूपये लाता है। फिर भी कभी उसने मना नहीं किया। उसने ख़ुद क्यों
अपनी कमली के बाहर पांव व्लाया- क्यों उसे रोज़ सैर - सपाटे की सूझती थी?
उपहारों को ले-लेकर वह क्यों फली न समाती थी? इस
जिम्मेदारी को भी इस वक्त ज़ालपा अपने ही ऊपर ले रही थी। रमानाथ ने प्रेम के
वश होकर उसे प्रसन्न करने के लिए ही तो सब कुछ करते थे। युवकों का यही
स्वभाव है। फिर उसने उनकी रक्षा के लिए क्या किया- क्यों उसे यह समझ न आई
कि आमदनी
से ज्यादा ख़र्च करने का दंड एक दिन भोगना पड़ेगा। अब उसे ऐसी कितनी ही बातें
याद आ रही थीं,
जिनसे उसे रमा के मन की विकलता का परिचय पा जाना चाहिए था,
पर उसने कभी उन बातों की ओर ध्यान न दिया।
जालपा
इन्हीं चिंताओं में डूबी हुई न जाने कब तक बैठी रही। जब चौकीदारों की
सीटियों की आवाज़ उसके कानों में आई,
तो वह नीचे जाकर जागेश्वरी से बोली,
’वह
तो अब तक नहीं आए। आप चलकर भोजन कर लीजिए।’
जागेश्वरी
बैठे-बैठे झपकियां ले रही थी। चौंककर बोली,
’कहां चले गए थे? ’
जालपा—‘वह
तो अब तक नहीं आए।’
जागेश्वरी--’अब
तक नहीं आए? आधी रात तो हो गई होगी। जाते वक्त
तुमसे कुछ कहा भी नहीं?’
जालपा—‘कुछ
नहीं।’
जागेश्वरी--’तुमने
तो कुछ नहीं कहा?’
जालपा—‘मैं
भला क्यों कहती।’
जागेश्वरी--’तो
मैं लालाजी को जगाऊं?’
जालपा—‘इस
वक्त ज़गाकर क्या कीजिएगा? आप चलकर कुछ खा लीजिए न।’
जागेश्वरी--’मुझसे
अब कुछ न खाया जायगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा न सुना,
न जाने कहां जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं
इस वक्त न आऊंगा।’
जागेश्वरी
फिर लेट रही,
मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहां तक कि सारी रात गुज़र गई,पहाड़-सी
रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था।
तेईस
एक सप्ताह
हो गया,
रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता है,
कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते
हैं। तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ
ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गए थे। मुंशी दयानाथ का खयाल है,
यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते कि रमा ने
आत्महत्या कर ली। ऐसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने ख़ुद
आंखों से देखी हैं। सास और ससुर दोनों ही जालपा
पर सारा
इलज़ाम थोप रहे हैं। साफ-साफ कह रहे हैं कि इसी के कारण उसके प्राण गए। इसने
उसका नाकों दम कर दिया। पूछो,
थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी, फिर
तुम्हें रोज़ सैर - सपाटे और दावत-तवाज़े की क्यों सूझती थी। जालपा पर किसी
को दया नहीं आती। कोई उसके आंसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसकी तत्परता
और सदबुद्धि की प्रशंसा करते हैं, लेकिन मुंशी
दयानाथ की आंखों में उस कृत्य का कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने
से कोई निर्दोष नहीं हो जाता!
एक दिन
दयानाथ वाचनालय से लौटे,
तो मुंह लटका हुआ था। एक तो उनकी सूरत यों ही मुहर्रमी थी,
उस पर मुंह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि
इनका मिज़ाज बिगडा हुआ है।
जागेश्वरी
ने पूछा,
‘क्या
है,
किसी से कहीं बहस हो गई क्या?’
दयानाथ—‘नहीं
जी, इन तकषज़ों के मारे हैरान हो गया। जिधर जाओ,
उधर
लोग नोचने
दौड़ते हैं,
न जाने कितना कर्ज़ ले रक्खा है। आज तो मैंने साफ कह
दिया,
मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का देनदार नहीं हूं। जाकर
मेमसाहब से मांगो।
इसी वक्त
ज़ालपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गए। इन सात दिनों में उसकी सूरत
ऐसी बदल गई थी कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आंखें सूज आई थीं। ससुर के
ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी,
बोली,
‘जी
हां । आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए,
मैं उन्हें या तो समझा दूंगी, या
उनके दाम चुका दूंगी।’
दयानाथ ने
तीखे होकर कहा,
‘क्या
दे दोगी तुम,
हज़ारों का हिसाब है,सात सौ तो एक
ही सर्राफ के हैं। अभी कै पैसे दिए हैं तुमने?’
जालपा—‘उसके
गहने मौजूद हैं, केवल दो-चार बार पहने गए हैं। वह
आए तो मेरे पास भेज दीजिए।मैं उसकी चीजें वापस कर दूंगी। बहुत होगा,
दसपांच रूपये तावान के ले लेगा।’
यह कहती
हुई वह ऊपर जा रही थी कि रतन आ गई और उसे गले से लगाती हुई बोली,
‘क्या
अब तक कुछ पता नहीं चला?
जालपा को इन शब्दों में स्नेह और सहानुभूति का एक सागर
उमड़ता हुआ जान पड़ा। यह गैर होकर इतनी चिंतित है, और
यहां अपने ही सास और ससुर हाथ धोकर पीछे पड़े हुए हैं। इन अपनों से गैर ही
अच्छे।आंखों में आंसू भरकर बोली,
‘अभी
तो कुछ पता नहीं चला बहन!
‘
रतन—‘यह
बात क्या हुई, कुछ तुमसे तो कहा-सुनी नहीं हुई?’
जालपा—‘ज़रा
भी नहीं, कसम खाती हूं। उन्होंने नोटों के खो जाने
का मुझसे ज़िक्र ही नहीं किया। अगर इशारा भी कर देते,
तो मैं रूपये दे देती। जब वह दोपहर तक नहीं आए और मैं
खोजती हुई दफ्तर गई, तब मुझे मालूम हुआ,
कुछ नोट खो गए हैं। उसी वक्त जाकर मैंने रूपये जमा कर दिए।’
जालपा ने
हकबकाकर पूछा,
‘क्या
तुमने कुछ सुना है?’
रतन—‘नहीं,
सुना तो नहींऋ पर मेरा अनुमान है।’
जालपा—‘नहीं
रतन—‘ मैं इस पर ज़रा भी विश्वास नहीं करती। यह
बुराई उनमें नहीं है, और चाहे जितनी बुराइयां हों।
मुझे उन पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है।’
रतन ने
हंसकर कहा,’इस
कला में ये लोग निपुण होते हैं। तुम बेचारी क्या जानो!’
जालपा
दृढ़ता से बोली,
‘अगर
वह इस कला में निपुण होते हैं,
तो हम भी ह्रदय को परखने में कम निपुण नहीं होतीं। मैं इसे
नहीं मान सकती। अगर वह मेरे स्वामी थे, तो मैं भी
उनकी स्वामिनी थी।’
रतन—‘अच्छा
चलो, कहीं घूमने चलती हो?
चलो, तुम्हें कहीं घुमा लावें।’
जालपा—‘नहीं,
इस वक्त तो मुझे फुरसत नहीं है। फिर घरवाले यों ही प्राण
लेने पर तुले हुए हैं, तब तो जीता ही न छोड़ेंगे।
किधर जाने का विचार है?’
रतन—‘कहीं
नहीं, ज़रा बाज़ार तक जाना था।’
जालपा—‘क्या
लेना है?’
रतन—‘जौहरियों
की दुकान पर एक-दो चीज़ देखूंगी। बस, मैं तुम्हारा
जैसा
कंगन
चाहती हूं। बाबूजी ने भी कई महीने के बाद रूपये लौटा दिए। अब
ख़ुद तलाश
करूंगी।’
जालपा—‘मेरे
कंगन में ऐसे कौन?से रूप लगे हैं। बाज़ार में उससे
बहुत अच्छे मिल सकते हैं।’
रतन—‘मैं
तो उसी नमूने का चाहती हूं।’
जालपा—‘उस
नमूने का तो बना-बनाया मुश्किल से मिलेगा, और
बनवाने में महीनों का झंझट। अगर सब्र न आता हो, तो
मेरा ही कंगन ले लो, मैं फिर बनवा लूंगी।’
रतन ने
उछलकर कहा,
‘वाह,
तुम अपना कंगन दे दो, तो क्या कहना
है!मूसलों ढोल बजाऊं! छः सौ का था न?’
जालपा—‘हां,
था तो छः सौ का, मगर महीनों सर्राफ
की दूकान की खाक छाननी पड़ी थी। जडाई तो ख़ुद बैठकर करवाई थी। तुम्हारे ख़ातिर
दे दूंगी। जालपा ने कंगन निकालकर रतन के हाथों में पहना दिए। रतन के मुख पर
एक विचित्र गौरव का आभास हुआ, मानो किसी कंगाल को
पारस मिल गया हो यही आत्मिक आनंद की चरम सीमा है। कृतज्ञता से भरे हुए स्वर
से बोली,
‘तुम
जितना कहो,
उतना देने को तैयार हूं। तुम्हें दबाना नहीं चाहती।
तुम्हारे लिए यही क्या कम है कि तुमने इसे मुझे दे दिया। मगर एक बात है।
अभी मैं सब रूपये न दे सकूंगी, अगर दो सौ रूपये फिर
दे दूं तो कुछ हरज है?’
जालपा ने
साहसपूर्वक कहा,
‘कोई
हरज नहीं,
जी चाहे कुछ भी मत दो।’
रतन—‘नहीं,
इस वक्त मेरे पास चार सौ रूपये हैं,
मैं दिए जाती हूं। मेरे पास रहेंगे तो किसी दूसरी जगह ख़र्च
हो जाएंगे। मेरे हाथ में तो रूपये टिकते ही नहीं,
करूं क्या जब तक ख़र्च न हो जाएं, मुझे एक चिंता-सी
लगी रहती है, जैसे सिर पर कोई बोझ सवार हो जालपा ने
कंगन की डिबिया उसे देने के लिए निकाली तो उसका दिल मसोस उठा। उसकी कलाई पर
यह कंगन देखकर रमा कितना ख़ुश होता था।’
आज वह
होता तो क्या यह चीज़ इस तरह जालपा के हाथ से निकल जाती! फिर कौन जाने कंगन
पहनना उसे नसीब भी होगा या नहीं। उसने बहुत ज़ब्त किया,
पर आंसू निकल ही आए।
रतन उसके
आंसू देखकर बोली,
‘इस
वक्त रहने दो बहन,
फिर ले लूंगी,जल्दी ही क्या है।’
जालपा ने
उसकी ओर बक्स को बढ़ाकर कहा,
‘क्यों,
क्या मेरे आंसू देखकर? तुम्हारी
खातिर से दे रही हूं, नहीं यह मुझे प्राणों से भी
प्रिय था। तुम्हारे पास इसे देखूंगी, तो मुझे तसकीन
होती रहेगी। किसी दूसरे को मत देना, इतनी दया करना।‘
रतन—‘किसी
दूसरे को क्यों देने लगी। इसे तुम्हारी निशानी समझूंगी। आज बहुत दिन के बाद
मेरे मन की अभिलाषा पूरी हुई। केवल दुःख इतना ही है,
कि बाबूजी अब नहीं हैं। मेरा मन कहता है कि वे जल्दी ही आएंगे।
वे मारे शर्म के चले गए हैं,
और कोई बात नहीं। वकील साहब को भी यह सुनकर बडा दुःख हुआ।
लोग कहते हैं, वकीलों का ह्रदय कठोर होता है,
मगर इनको
तो मैं
देखती हूं,
ज़रा भी किसी की विपत्ति सुनी और तड़प उठे।’
जालपा ने
मुस्कराकर कहा,
‘बहन,
एक बात पूछूं, बुरा तो न मानोगी?
वकील साहब से तुम्हारा दिल तो न मिलता होगा।’
रतन का
विनोद-रंजित,
प्रसन्न मुख एक क्षण के लिए मलिन हो उठा। मानो किसी ने उसे
उस चिर-स्नेह की याद दिला दी हो, जिसके नाम को वह
बहुत पहले रो चुकी थी। बोली,
‘मुझे
तो कभी यह ख़याल भी नहीं आया बहन कि मैं युवती हूं और वे बूढे। हैं। मेरे
ह्रदय में जितना प्रेम,
जितना अनुराग है, वह सब मैंने उनके
ऊपर अर्पण कर दिया। अनुराग, यौवन या रूप या धन से
नहीं
उत्पन्न होता। अनुराग अनुराग से उत्पन्न होता है। मेरे ही कारण वे इस
अवस्था में इतना परिश्रम कर रहे हैं,
और दूसरा है ही कौन। क्या यह छोटी बात है?
कल कहीं चलोगी? कहो तो शाम को आऊं?’
जालपा—‘जाऊंगी
तो मैं कहीं नहीं, मगर तुम आना जरूर। दो घड़ी दिल
बहलेगा। कुछ अच्छा नहीं लगता। मन डाल-डाल दौड़ता-फिरता है। समझ में नहीं
आता, मुझसे इतना संकोच क्यों किया- यह भी मेरा ही
दोष है। मुझमें जरूर उन्होंने कोई ऐसी बात देखी होगी,
जिसके कारण मुझसे परदा करना उन्हें जरूरी मालूम हुआ। मुझे
यही दुःख है कि मैं उनका सच्चा स्नेह न पा सकी। जिससे प्रेम होता है,
उससे हम कोई भेद नहीं रखते।’
रतन उठकर
चली,
तो जालपा ने देखा,कंगन
का बक्स मेज़ पर पडा हुआ है। बोली,
‘इसे
लेती जाओ बहन,
यहां क्यों छोड़े जाती हो ।’
जालपा—‘नहीं,
नहीं, लेती जाओ। मैं न मानूंगी।’
मगर रतन
सीढ़ी से नीचे उतर गई। जालपा हाथ में कंगन लिये खड़ी रही। थोड़ी देर बाद जालपा
ने संदूक से पांच सौ रूपये निकाले और दयानाथ के पास जाकर बोली,यह
रूपये लीजिए,
नारायणदास के पास भिजवा दीजिए। बाकी रूपये भी मैं जल्द ही
दे दूंगी। दयानाथ ने झेंपकर कहा,
‘’रूपये
कहां मिल गए?’
जालपा ने निसंकोच होकर कहा,
‘रतन
के हाथ कंगन बेच दिया।’
दयानाथ
उसका मुंह ताकने लगे।
चौबीस
एक महीना
गुजर गया। प्रयाग के सबसे अधिक छपने वाले दैनिक पत्र में एक नोटिस निकल रहा
है,
जिसमें रमानाथ के घर लौट आने की प्रेरणा दी गई है,
और उसका पता लगा लेने वाले आदमी को पांच सौ रूपये इनाम
देने का वचन दिया गया है, मगर अभी कहीं से कोई ख़बर
नहीं आई। जालपा चिंता और दुःख से घुलती चली जाती है। उसकी दशा देखकर दयानाथ
को भी उस पर दया आने लगी है। आख़िर एक दिन उन्होंने दीनदयाल को लिखा,
‘आप
आकर बहू को
कुछ दिनों
के लिए ले जाइए। दीनदयाल यह समाचार पाते ही घबडाए हुए आए,
पर जालपा ने मैके जाने से इंकार कर दिया। दीनदयाल ने
विस्मित होकर कहा,
‘क्या
यहां पड़े-पड़े प्राण देने का विचार है?’
जालपा ने
गंभीर स्वर में कहा,
‘अगर
प्राणों को इसी भांति जाना होगा,
तो कौन रोक सकता है। मैं अभी नहीं मरने की दादाजी,
सच मानिए। अभागिनों के लिए वहां भी जगह नहीं है।’
दीनदयाल,
‘आख़िर
चलने में हरज ही क्या है। शहजादी और बासन्ती दोनों आई हुई हैं। उनके साथ
हंस-बोलकर जी बहलता रहेगा।
दीनदयाल,
‘यह
बात क्या हुई,
सुनते हैं कुछ कर्ज़ हो गया था,
कोई कहता है, सरकारी रकम खा गए थे।‘
जालपा—‘जिसने
आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।‘
दीनदयाल—‘तो
फिर क्यों चले गए? ‘
जालपा—‘यह
मैं बिलकुल नहीं जानती। मुझे बार-बार ख़ुद यही शंका होती है।‘
दीनदयाल—‘लाला
दयानाथ से तो झगडानहीं हुआ?
’
जालपा—‘लालाजी
के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं
खाते, भला झगडा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक
था। सोचा होगा,यों
तो कोई जाने न देगा,
चलो भाग चलें।’
दीनदयाल—‘
शायद ऐसा ही हो कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहां
जो कुछ तकलीफ हो,
मुझसे साफ-साफ कह दो। ख़रच के लिए कुछ भेज दिया करूं?
‘
जालपा ने
गर्व से कहा,
‘मुझे
कोई तकलीफ नहीं है, दादाजी! आपकी दया से किसी चीज़
की कमी नहीं है।
दयानाथ और
जागेश्वरी दोनों ने जालपा को समझाया,
पर वह जाने पर राज़ी न हुई। तब दयानाथ झुंझलाकर बोले,
‘यहां
दिन-भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है।‘
दीनदयाल
समझ गए यह अभिमानिनी अपनी टेक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गए। संध्या समय चलते
वक्त उन्होंने पचास रूपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा,
‘इसे
रख लो, शायद कोई जरूरत पड़े। जालपा ने सिर हिलाकर
कहा,
‘मुझे
इसकी बिलकुल जरूरत नहीं है,
दादाजी,
हां, इतना चाहती हूं कि आप मुझे आशीर्वाद दें। संभव
है, आपके आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो।’
दीनदयाल
की आंखों में आंसू भर आए,
नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आए।
क्वार का
महीना लग चुका था। मेघ के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी आकाश में दौड़ते नज़र आ
जाते थे। जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघ-खंडों की किलोलें देखा करती।
चिंता-व्यथित प्राणियों के लिए इससे अधिक मनोरंजन की और वस्तु ही कौन है?
बादल के टुकड़े भांति-भांति के रंग बदलते, भांति-
भांति के रूप भरते, कभी आपस में प्रेम से मिल जाते,
कभी ईठकर अलग-अलग हो जाते,
कभी दौड़ने लगते, कभी ठिठक जाते।
जालपा सोचती, रमानाथ भी कहीं बैठे यही
मेघ-क्रीडादेखते होंगे। इस कल्पना में उसे विचित्र आनंद मिलता। किसी माली
को अपने लगाए पौधों से, किसी बालक को अपने बनाए हुए
घरौंदों से जितनी आत्मीयता होती है, कुछ वैसा ही
अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था। विपत्ति में हमारा मन अंतर्मुखी
हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी कि ईश्वर ने मेरे पापों का यह
दंड दिया है। आख़िर रमानाथ किसी का गला दबाकर ही तो रोज़ रूपये लाते थे। कोई
ख़ुशी से तो न दे देता।
यह रूपये
देखकर वह कितनी ख़ुश होती थी। इन्हीं रूपयों से तो नित्य शौक ऋंगारकी चीजें
आती रहती थीं। उन वस्तुओं को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुद्यखों
की मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। वे चीजें उसकी
आंखों में अब कांटों की तरह गड़ती थीं,
उसके ह्रदय में शूल की तरह चुभती थीं।
आख़िर एक
दिन उसने इन चीज़ों को जमा किया,मखमली
स्लीपर,रेशमी
मोज़े, तरह-तरह की बेलें,
गीते, पिन, कंघियां,
आईने, कोई कहां तक गिनाए।
अच्छा-खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर को गंगा में डुबा देगी,
और अब से एक नये जीवन का साूपात करेगी। इन्हीं वस्तुओं के
पीछे, आज उसकी यह गति हो रही है। आज वह इस मायाजाल
को नष्ट कर डालेगी। उनमें कितनी ही चीजें तो ऐसी सुंदर थीं कि उन्हें
ट्ठंकते मोह आता था, मगर ग्लानि की उस
प्रचंड
ज्वाला को पानी के ये छींटे क्या बुझाते। आधी रात तक वह इन चीज़ों को
उठा-उठाकर अलग रखती रही,
मानो किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो हां,
यह वास्तव में यात्रा ही थी,अंधेरे
से उजाले की,
मिथ्या से सत्य की। मन में सोच रही थी,
अब यदि ईश्वर की दया हुई और वह फिर लौटकर घर आए,
तो वह इस तरह रहेगी कि थोड़े-से-थोड़े में निर्वाह हो जाय।
एक पैसा भी व्यर्थ न ख़र्च करेगी। अपनी मजदूरी के ऊपर एक कौड़ी भी घर में न
आने देगी। आज
से उसके
नए जीवन का आरंभ होगा।
ज्योंही
चार बजे,
सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट मिलने लगी। जालपा ने बेग
उठा लिया और गंगा-स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था,
हाथ में उसे लटकाकर दस कदम भी चलना कठिन हो गया। बार-बार
हाथ बदलती थी। यह भय भी लगा हुआ था कि कोई देख न ले। बोझ लेकर चलने का उसे
कभी अवसर न पडाथा। इक्ध वाले पुकारते थे, पर वह इधर
कान न देती थी। यहां तक कि हाथ बेकाम हो गए, तो
उसने बेग को पीठ पर रख लिया और कदम बढ़ाकर चलने लगी। लंबा घूंघट निकाल लिया
था कि कोई पहचान न सके।
वह घाट के
समीप पहुंची,
तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनी मोटर पर आते
देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुंह छिपा ले,
पर रतन ने दूर ही से पहचान लिया,
मोटर रोककर बोली,कहां
जा रही हो बहन,
‘यह
पीठ पर बेग कैसा है?’
जालपा ने
घूंघट हटा लिया और निद्यशंक होकर बोली,’गंगा-स्नान
करने जा रही हूं।’
रतन—‘मैं
तो स्नान करके लौट आई, लेकिन चलो,
तुम्हारे साथ चलती हूं। तुम्हें घर पहुंचाकर लौट जाऊंगी।
बेग रख दो।’
मगर रतन
ने न माना,
कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही लिया
और कार
में रखती हुई बोली,
‘क्या
भरा है तुमने इसमें,
बहुत भारी है। खोलकर देखूं?’
जालपा—‘इसमें
तुम्हारे देखने लायक कोई चीज़ नहीं है।’
बेग में
ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा,
तो विस्मित होकर बोली,
‘इन
चीज़ों को कहां लिये जाती हो?’
जालपा ने
कार पर बैठते हुए कहा,
‘इन्हें
गंगा में बहा दूंगी।’
रतन ने
विस्मय में पड़कर कहा,
‘गंगा
में! कुछ पागल तो नहीं हो गई हो चलो,
घर लौट चलो। बेग रखकर फिर आ जाना।’
जालपा ने
दृढ़ता से कहा,नहीं
रतन—‘
मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊंगी।’
रतन—‘आखिर
क्यों? ’
जालपा—‘पहले
कार को बढ़ाओ, फिर बताऊं।’
रतन—‘नहीं,
पहले बता दो।’
जालपा—‘नहीं,
यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ।’
रतन ने
हारकर कार को बढ़ाया और बोली,
’अच्छा
अब तो बताओगी?
’
जालपा ने
उलाहने के भाव से कहा,
’इतनी
बात तो तुम्हें ख़ुद ही समझ लेनी चाहिए थी। मुझसे क्या पूछती हो अब वे चीज़ें
मेरे किस काम की हैं! इन्हें देख-देखकर मुझे दुख होता है। जब देखने वाला ही
न रहा,
तो इन्हें रखकर क्या करूं?
’
रतन ने एक
लंबी सांस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर कांपते हुए स्वर में बोली,
‘बाबूजी
के साथ तुम यह बहुत बडा अन्याय कर रही हो,
बहन, वे कितनी उमंग से इन्हें लाए
होंगे। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितना प्रसन्न हुए होंगे। एक-एक
चीज़ उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का
घोर अनादर कर रही हो।’
जालपा विचार में डूब गई। मन में संकल्प-विकल्प होने लगा,
किंतु एक ही क्षण में वह फिर संभल गई,
बोली,
‘यह
बात नहीं है ।हन! जब तक ये चीजें मेरी आंखों से दूर न हो जाएंगी,
मेरा चित्त शांत न होगा। इसी विलासिता ने मेरी यह दुर्गति
की है। यह मेरी विपत्ति की गठरी है, प्रेम की
स्मृति नहीं। प्रेम तो मेरे ह्रदय पर अंकित है।’
रतन—‘तुम्हारा
ह्रदय बडा कठोर है। जालपा, मैं तो शायद ऐसा न कर
सकती।’
जालपा—‘लेकिन
मैं तो इन्हें अपनी विपत्ति का मूल समझती हूं।’
एक क्षण
चुप रहने के बाद वह फिर बोली,
‘उन्होंने
मेरे साथ बडा अन्याय किया है,
बहन! जो पुरूष अपनी स्त्री से कोई परदा रखता है,
मैं समझती हूं, वह उससे प्रेम नहीं
करता। मैं उनकी जगह पर होती, तो यों तिलांजलि देकर
न भागती। अपने मन की सारी व्यथा कह सुनाती और जो कुछ करती,
उनकी सलाह से करती। स्त्री और पुरूष में दुराव कैसा!
’
रतन ने
गंभीर मुस्कान के साथ कहा,
‘ऐसे
पुरूष तो बहुत कम होंगे,
जो स्त्री से अपना दिल खोलते हों। जब तुम स्वयं दिल में
चोर रखती हो, तो उनसे क्यों आशा रखती हो कि वे
तुमसे कोई परदा न रक्खें। तुम ईमान से कह सकती हो कि तुमने उनसे परदा नहीं
रक्खा?
जालपा ने
सद्दचाते हुए कहा,
‘मैंने
अपने मन में चोर नहीं रखा।’
रतन ने
ज़ोर देकर कहा,
‘झूठ
बोलती हो,
बिलकुल झूठ, अगर तुमने विश्वास
किया होता, तो वे भी खुलते।’
जालपा इस
आक्षेप को अपने सिर से न टाल सकी। उसे आज ज्ञात हुआ कि कपट का आरंभ पहले
उसी की ओर से हुआ। गंगा का तट आ पहुंचा। कार रूक गई। जालपा उतरी और बेग को
उठाने लगी,
किंतु रतन ने उसका हाथ हटाकर कहा,
‘नहीं,
मैं इसे न ले जाने दूंगी। समझ लो कि डूब गए।’
रतन—‘मुझ
पर दया करो, बहन के नाते।’
जालपा—‘बहन
के नाते तुम्हारे पैर धो सकती हूं, मगर इन कांटों
को ह्रदय में नहीं रख सकती।’
जालपा ने
स्थिर भाव से कहा,
‘हां,
किसी तरह नहीं।’
रतन ने
विरक्त होकर मुंह उधर लिया। जालपा ने बेग उठा लिया और तेज़ी से घाट से उतरकर
जल-तट तक पहुंच गई,
फिर बेग को उठाकर पानी में फेंक दिया। अपनी निर्बलता पर यह
विजय पाकर उसका मुख प्रदीप्त हो गया। आज उसे जितना गर्व और आनंद हुआ,
उतना इन चीज़ों को पाकर भी न हुआ था। उन असंख्य प्राणियों
में जो इस समय स्नान?ध्यान कर रहे थे,
कदाचित किसी को अपने अंप्तःकरण में प्रकाश का ऐसा अनुभव न
हुआ होगा। मानो प्रभात
की सुनहरी
ज्योति उसके रोम-रोम में व्याप्त हो रही है। जब वह स्नान करके ऊपर आई,
तो रतन ने पूछा,
‘डुबा
दिया?’
रतन—‘बडी
निठुर हो’
जालपा—‘यही
निठुरता मन पर विजय पाती है। अगर कुछ दिन पहले निठुर हो जाती,
तो आज यह दिन क्यों आता। कार चल पड़ी।
पच्चीस
रमानाथ को
कलकत्ता आए दो महीने के ऊपर हो गए हैं। वह अभी तक देवीदीन के घर पडाहुआ है।
उसे हमेशा यही धुन सवार रहती है कि रूपये कहां से आवें,
तरह-तरह के मंसूबे बांधाता है, भांति-भांति की
कल्पनाएं करता है, पर घर से बाहर नहीं निकलता। हां,
जब खूब अंधेरा हो जाता है, तो वह
एक बार मुहल्ले के वाचनालय में जरूर जाता है। अपने नगर और प्रांत के
समाचारों के लिए उसका मन सदैव उत्सुक रहता है। उसने वह नोटिस देखी,
जो दयानाथ ने पत्रों में छपवाई थी,
पर उस पर विश्वास न आया। कौन जाने, पुलिस ने उसे
गिरफ्तार करने के लिए माया रची हो रूपये भला किसने चुकाए होंगे?
असंभव... एक दिन उसी पत्र में रमानाथ को जालपा का एक ख़त छपा मिला, जालपा ने
आग्रह और याचना से भरे हुए शब्दों में उसे घर लौट आने की प्रेरणा की थी।
उसने लिखा था,तुम्हारे
ज़िम्मे किसी का कुछ बाकी नहीं है,
कोई तुमसे कुछ न कहेगा। रमा का मन चंचल हो उठा, लेकिन
तुरंत ही उसे ख़याल आया,यह
भी पुलिस की शरारत होगी। जालपा ने यह पत्र लिखा,
इसका क्या प्रमाण है? अगर यह भी
मान लिया जाय कि रूपये घरवालों ने अदा कर दिए होंगे,
तो क्या इस दशा में भी वह घर जा सकता है। शहर भर में उसकी
बदनामी हो ही गई होगी, पुलिस में इत्तला की ही जा
चुकी होगी। उसने निश्चय किया कि मैं नहीं जाऊंगा। जब तक कम-से-कम पांच
हज़ार रूपये हाथ में न हो जायंगे,
घर जाने
का नाम न लूंगा। और रूपये नहीं दिए गए,
पुलिस मेरी खोज में है, तो कभी घर
न जाऊंगा। कभी नहीं।
देवीदीन
के घर में दो कोठरियां थीं और सामने एक बरामदा था। बरामदे में दुकान थी,
एक कोठरी में खाना बनता था, दूसरी
कोठरी में बरतन?भांड़े रक्खे हुए थे। ऊपर एक कोठरी
थी और छोटी-सी खुली हुई छतब रमा इसी ऊपर के हिस्से में रहता था। देवीदीन के
रहने, सोने, बैठने का कोई
विशेष स्थान न था। रात को दुकान बढ़ाने के बाद वही बरामदा शयनगृह बन जाता
था। दोनों वहीं पड़े रहते थे। देवीदीन का काम चिलम पीना और दिनभर गप्पें
लडाना था।
दुकान का
सारा काम बुढिया करती थी। मंडी जाकर माल लाना,
स्टेशन से माल भेजना या लेना, यह
सब भी वही कर लेती थी। देवीदीन ग्राहकों को पहचानता तक न था। थोड़ी-सी हिंदी
जानता था। बैठा-बैठा रामायण, तोता-मैना,
रामलीला या माता मरियम की कहानी पढ़ा करता। जब से रमा आ गया
है, बुडढे को अंग्रेज़ी पढ़ने का शौक हो गया है।
सबेरे ही प्राइमर लाकर बैठ जाता है, और नौ-दस बजे
तक अक्षर पढ़ता रहता है। बीच-बीच में लतीफे भी होते जाते हैं,
जिनका देवीदीन के पास अखंड भंडार है। मगर जग्गो को रमा का आसन जमाना अच्छा
नहीं लगता। वह उसे अपना मुनीम तो बनाए हुए है,हिसाब-किताब
उसी से लिखवाती है,
पर इतने से काम के लिए वह एक आदमी रखना व्यर्थ समझती है।
यह काम तो वह गाहकों से यों ही करा लेती थी। उसे रमा का रहना खलता था,
पर रमा इतना विनम्र, इतना
सेवा-तत्पर, इतना धर्मनिष्ठ है कि वह स्पष्ट रूप से
कोई आपत्ति नहीं कर सकती। हां, दूसरों पर रखकर
श्लेष रूप से उसे सुनासुनाकर दिल का गुबार निकालती रहती है। रमा ने अपने को
ब्राह्मण कह रक्खा है और उसी धर्म का पालन करता है। ब्राह्मण और धर्मनिष्ठ
बनकर वह दोनों प्राणियों का श्रद्धापात्र बन सकता है। बुढिया के भाव और
व्यवहार को वह ख़ूब समझता है, पर करे क्या? बेहयाई
करने पर मजबूर है। परिस्थिति ने उसके आत्मसम्मान का अपहरण कर डाला है। एक
दिन रमानाथ वाचनालय में बैठा हुआ पत्र पढ़रहा था कि एकाएक उसे रतन दिखाई पड़
गई। उसके अंदाज़ से मालूम होता था कि वह किसी को खोज रही है। बीसों आदमी
बैठे पुस्तकें और पत्र पढ़रहे थे। रमा की छाती धकधक करने लगी। वह रतन की
आंखें बचाकर सिर झुकाए हुए कमरे से निकल गया और पीछे के अंधेरे बरामदे में,
जहां पुराने टूटे-फटे संदूक और कुर्सियां पड़ी हुई थीं,
छिपा खडा रहा। रतन से मिलने और घर के समाचार पूछने के लिए
उसकी आत्मा तड़प रही थी पर मारे संकोच के सामने न आ सकता था। आह! कितनी
बातें पूछने की थीं! पर उनमें मुख्य यही थी कि जालपा के विचार उसके विषय
में क्या हैं। उसकी निष्ठुरता पर रोती तो नहीं है। उसकी उद्दंडता पर
क्षुब्धा तो नहीं है? उसे धूर्त और बेईमान तो नहीं
समझ रही है? दुबली तो नहीं हो गई है?
और लोगों के क्या भाव हैं?क्या घर की तलाशी हुई?
मुकदमा चला? ऐसी ही हज़ारों बातें जानने के लिए वह
विकल हो रहा था, पर मुंह कैसे दिखाए ! वह
झांक-झांककर देखता रहा। जब रतन चली गई,
मोटर चल दिया,
तब उसकी जान में जान आई। उसी दिन से एक सप्ताह तक वह वाचनालय न गया। घर से
निकला तक नहीं।
कभी-कभी
पड़े-पड़े रमा का जी ऐसा घबडाता कि पुलिस में जाकर सारी कथा कह सुनाए। जो कुछ
होना है,
हो जाय। साल-दो साल की कैद इस आजीवन कारावास से तो अच्छी
ही है। फिर वह नए सिरे से जीवन?संग्राम में प्रवेश
करेगा, हाथ-पांव बचाकर काम करेगा,
अपनी चादर के बाहर जौ-भर भी पांव न फैलाएगा, लेकिन एक ही
क्षण में हिम्मत टूट जाती। इस प्रकार दो महीने और बीत गए। पूस का महीना
आया। रमा के पास जाड़ों का कोई कपडा न था। घर से तो वह कोई चीज़ लाया ही न था,
यहां भी कोई चीज़ बनवा न सका था। अब तक तो उसने धोती ओढ़कर
किसी तरह रातें काटीं, पर पूस के कडक। डाते जाड़े
लिहाफ या कंबल के बगैर कैसे कटते।
बेचारा
रात-भर गठरी बना पडा रहता। जब बहुत सर्दी लगती,
तो बिछावन ओढ़ लेता। देवीदीन ने उसे एक पुरानी दरी बिछाने
को दे दी थी। उसके घर में शायद यही सबसे अच्छा बिछावन था। इस श्रेणी के लोग
चाहे दस हज़ार के गहने पहन लें, शादी-ब्याह में दस
हज़ार ख़र्च कर दें, पर बिछावन गूदडाही रक्खेंगे। इस सड़ी हुई दरी से जाडाभला
क्या जाता, पर कुछ न होने से अच्छा ही था।
रमा
संकोचवश देवीदीन से कुछ कह न सकता था और देवीदीन भी शायद इतना बडा ख़र्च न
उठाना चाहता था,
या संभव है, इधर उसकी निगाह ही न
जाती हो जब दिन ढलने लगता, तो रमा रात के कष्ट की
कल्पना से भयभीत हो उठता था, मानो काली बला दौड़ती
चली आती हो रात को बार-बार खिड़की खोलकर देखता कि सबेरा होने में कितनी कसर
है। एक दिन शाम को वह वाचनालय जा रहा था कि उसने देखा,
एक बडी कोठी के सामने हज़ारों कंगले जमा हैं। उसने सोचा,यह
क्या बात है,
क्यों इतने आदमी जमा हैं?भीड़ के
अंदर घुसकर देखा, तो मालूम हुआ,
सेठजी कंबलों का दान कर रहे हैं। कंबल बहुत घटिया थे,
पतले और हल्ध; पर जनता एक
पर एक
टूटी पड़ती थी। रमा के मन में आया,
एक कंबल ले लूं। यहां मुझे कौन जानता है। अगर कोई जान भी
जाय, तो क्या हरज़- ग़रीब ब्राह्मण अगर दान का
अधिकारी नहीं तो और कौन है। लेकिन एक ही क्षण में उसका आत्मसम्मान जाग उठा।
वह कुछ देर वहां खडा ताकता रहा, फिर आगे बढ़ा। उसके
माथे पर तिलक देखकर मुनीमजी ने समझ लिया, यह
ब्राह्मण है। इतने सारे कंगलों में ब्राह्मणों की संख्या बहुत कम थी।
ब्राह्मणों को दान देने का पुण्य कुछ और
ही है।
मुनीम मन में प्रसन्न था कि एक ब्राह्मण देवता दिखाई तो दिए! इसलिए जब उसने
रमा को जाते देखा,
तो बोला,
‘पंडितजी,
कहां चले, कंबल तो लेते जाइए!’
रमा मारे संकोच के गड़ गया। उसके मुंह से केवल इतना ही निकला,’मुझे
इच्छा नहीं है।’
मुनीम ने
चकित होकर कहा,
‘आप
यह भेंट न स्वीकार करेंगे,
तो सेठजी को बडा दुःख होगा।’
रमा ने
विरक्त होकर कहा,आपके
आग्रह से मैंने कंबल ले लिया,
पर दक्षिणा नहीं ले सकता मुझे धन की आवश्यकता नहीं। जिस
सज्जन के घर टिका हुआ हूं, वह मुझे भोजन देते हैं।
और मुझे लेकर क्या करना है?’
‘सेठजी
मानेंगे नहीं!’
‘आप मेरी
ओर से क्षमा मांग लीजिएगा। ‘
‘आपके
त्याग को धन्य है। ऐसे ही ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ
देर बैठिए तो,
सेठजी आते होंगे। आपके दर्शन पाकर बहुत प्रसन्न होंगे।
ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। और त्रिकाल संध्या-वंदन करते हैं महाराज,
तीन बजे रात को गंगा-तट पर पहुंच जाते हैं और वहां से आकर
पूजा पर बैठ जाते हैं। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। भोजन पाते हैं,
तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर संध्या करने चले
जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे ठाकुरद्वारे में
कीर्तन सुनते हैं और फिर संध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही
होंगे। आप कुछ देर बैठें, तो बडा अच्छा हो आपका
स्थान कहां है?’
रमा ने
प्रयाग न बताकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बढ़ा,
पर रमा को यह शंका हो रही थी कि कहीं सेठजी ने कोई धार्मिक
प्रसंग छेड़ दिया, तो सारी कलई खुल जायगी। किसी
दूसरे दिन आने का वचन देकर उसने पिंड छुडाया।
नौ बजे वह
वाचनालय से लौटा,
तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कंबल देखकर पूछा,कहां
से लाए,
तो क्या जवाब दूंगा। कोई बहाना कर दूंगा। कह दूंगा,
एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूं। देवीदीन ने कंबल
देखते ही पूछा,
‘सेठ
करोड़ीमल के यहां पहुंच गए क्या,
महाराज?’
रमा ने
पूछा,
‘कौन
सेठ करोड़ीमल?’
‘अरे वही,
जिसकी वह बडी लाल कोठी है।’
रमा कोई
बहाना न कर सका। बोला,
‘हां,
मुनीमजी ने पिंड ही न छोडा! बडा धर्मात्मा जीव है।’
देवीदीन
ने मुस्कराकर कहा,
‘बडा
धर्मात्मा! उसी के थामे तो यह धरती थमी है,
नहीं तो अब तक मिट गई होती!’
रमानाथ—‘काम
तो धर्मात्माओं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर
जाने। जो सारे दिन पूजापाठ और दान?व्रत में लगा रहे,
उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।’
देवीदीन—‘उसे
पापी कहना चाहिए,
महापापी, दया तो उसके पास से होकर
भी नहीं निकली। उसकी जूट की मिल है। मजूरों के साथ जितनी निर्दयता इसकी मिल
में होती है, और कहीं नहीं होती। आदमियों को हंटरों
से पिटवाता है, हंटरों से। चर्बी-मिला घी बेचकर
इसने लाखों कमा लिए। कोई नौकर एक मिनट की भी देर करे तो तुरंत तलब काट लेता
है। अगर साल में दो-चार हज़ार दान न कर दे, तो पाप
का धन पचे कैसे! धर्म-कर्म वाले ब्राह्मण तो उसके द्वार पर
झांकते भी
नहीं। तुम्हारे सिवा वहां कोई पंडित था?’रमा
ने सिर हिलाया।
‘कोई जाता
ही नहीं। हां,
लोभी-लंपट पहुंच जाते हैं। जितने पुजारी देखे,
सबको पत्थर ही पाया। पत्थर पूजते-पूजते इनके दिल भी पत्थर
हो जाते हैं। इसके तीन तो बड़े-बडे धरमशाले हैं,
मुदा है पाखंडी। आदमी चाहे और कुछ न करे, मन में
दया बनाए रखे। यही सौ धरम का एक धरम है।’
दिन की
रक्खी हुई रोटियां खाकर जब रमा कंबल ओढ़कर लेटा,
तो उसे बडी ग्लानि होने लगी। रिश्वत में उसने हज़ारों रूपये
मारे थे, पर कभी एक क्षण के लिए भी उसे ग्लानि न आई
थी। रिश्वत बुद्धिसे, कौशल से,
पुरूषार्थ से मिलती है। दान पौरूषहीन,
कर्महीन या पाखंडियों का आधार है। वह सोच रहा था,मैं
अब इतना दीन हूं कि भोजन और वस्त्र के लिए मुझे दान लेना पड़ता
है! वह
देवीदीन के घर दो महीने से पडाहुआ था,
पर देवीदीन उसे भिक्षुक नहीं मेहमान समझता था। उसके मन में कभी दान का भाव
आया ही न था। रमा के मन में ऐसा उद्वेग उठा कि इसी दम थाने में जाकर अपना
सारा वृत्तांत कह सुनाए। यही न होगा, दो-तीन साल की
सज़ा हो जाएगी, फिर तो यों प्राण सूली पर न टंगे रहेंगे। कहीं डूब ही क्यों
न मईंब इस तरह जीने से फायदा ही क्या! न घर का हूं न घाट का। दूसरों का भार
तो क्या उठाऊंगा, अपने ही लिए दूसरों का मुंह ताकता
हूं। इस जीवन से किसका उपकार हो रहा है? धिक्कार है
मेरे जीने को! रमा ने निश्चय किया, कल निद्यशंक
होकर काम की टोह में निकलूंगा। जो कुछ होना है, हो
छब्बीस
अभी रमा
मुंह-हाथ धो रहा था कि देवीदीन प्राइमर लेकर आ पहुंचा और बोला,
‘भैया,
यह तुम्हारी अंगरेज़ी बडी विकट है। एस-आई-आर ‘सर’ होता है,
तो पी-आई-टी ‘पिट’ क्यों हो जाता है?
बी-यू-टी ‘बट’ है, लेकिन पी-यू-टी ‘पुट’ क्यों होता
है? तुम्हें भी बडी कठिन लगती होगी।
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘पहले
तो कठिन लगती थी,
पर अब तो आसान मालूम होती है।‘
देवीदीन—‘
‘जिस
दिन पराइमर खतम होगी,
महाबीरजी को सवा सेर लडडू चढ़ाऊंगा। पराई-मर का मतलब है,
पराई स्त्री मर जाय। मैं कहता हूं,
हमारीमर, पराई के मरने से हमें क्या सुख! तुम्हारे बाल-बच्चे तो हैं न भैया?’
‘कोई
चिट्ठी-चपाती आई थी?’
‘ना!’
‘और न
तुमने लिखी- अरे! तीन महीने से कोई चिट्ठी ही नहीं भेजी?
घबडाते न होंगे लोग?’
‘जब तक
यहां कोई ठिकाना न लग जाय,
क्या पत्र लिखूं।’
‘अरे भले
आदमी,
इतना तो लिख दो कि मैं यहां कुशल से हूं। घर से भाग आए थे,
उन लोगों को कितनी चिंता हो रही होगी! मां-बाप तो हैं न?’
‘हां,
हैं तो।’
देवीदीन
ने गिड़गिडाकर कहा,’तो
भैया,
आज ही चिट्ठी डाल दो, मेरी बात
मानो।’
रमा ने अब
तक अपना हाल छिपाया था। उसके मन में कितनी ही बार इच्छा हुई कि देवीदीन से
कह दूं,
पर बात होंठों तक आकर रूक जाती थी। वह देवीदीन के मुंह से
आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना चाहता था कि यह क्या सलाह देता है। इस समय
देवीदीन के सद्भाव ने उसे पराभूत कर दिया।
बोला,
‘मैं
घर से भाग आया हूं,
दादा!’
देवीदीन
ने मूंछों में मुस्कराकर कहा,’यह
तो मैं जानता हूं,
क्या बाप से लडाई हो गई?’
‘नहीं!’
‘मां ने
कुछ कहा होगा?’
यह भी
नहीं!’
‘तो फिर
घरवाली से ठन गई होगी। वह कहती होगी,
मैं अलग रहूंगी, तुम कहते होगे मैं
अपने मां-बाप से अलग न रहूंगा। या गहने के लिए ज़िद करती होगी। नाक में दम
कर दिया होगा। क्यों?’
रमा ने
लज्जित होकर कहा,
‘कुछ
ऐसी बात थी,
दादा! वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी,
लेकिन पा जाती थी, तो प्रसन्न हो जाती थी,
और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।’
देवीदीन
के मुंह से मानो आप-ही-आप निकल आया,
‘सरकारी
रकम तो नहीं उडादी?’
रमा को
रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गई। वह सरकारी रकम की बात उससे छिपाना चाहता
था। देवीदीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की
भांति अपनी सेना को घाटियों से,
जासूसों की आंख बचाकर, निकाल ले
जाना चाहता था, पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त-
व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ निश्चय न कर सका
कि इसका क्या जवाब दूं।
देवीदीन
ने उसके मन का भाव भांपकर कहा,
‘प्रेम
बडा बेढब होता है,
भैया! बड़े-बडे चूक जाते हैं, तुम
तो अभी लङके हो ग़बन के हज़ारों मुकदमे हर साल होते हैं। तहकीकात की जाय,
तो सबका कारण एक ही होगा,गहना।
दस-बीस वारदात तो मैं आंखों देख चुका हूं। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुंह से
तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाए,
वह क्यों लाए, रूपये कहां से
आवेंगे,
लेकिन
उसका मन आनंद से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी
से गला काट लिया। एक दूसरे मियां साहब को मैं जानता हूं,
जिनको पांच साल की सज़ा हो गई, जेहल
में मर गए। एक तीसरे पंडितजी को जानता हूं,
जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूं,
मैं ही तीन साल की सज़ा काट चुका हूं। जवानी की बात है,
जब इस बुढिया पर जोबन था, ताकती थी
तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीआर्डर तकसीम किया
करता था। यह कानों के झुमकों के लिए जान खा रही थी। कहती
थी,
सोने ही के लूंगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दुकान थी।
मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नसा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डींगें
मारता रहता था। कभी फूल के हार लाता, कभी मिठाई,
कभी अतर-फुलेलब सहर का हलका था। जमाना अच्छा था।
दुकानदारों से जो चीज़ मांग लेता, मिल जाती थी। आख़िर
मैंने एक मनीआर्डर पर झूठे दस्तखत बनाकर रूपये उडालिए। कुल तीस रूपये थे।
झुमके लाकर इसे दिए। इतनी ख़ुश हुई, इतनी ख़ुश हुई,
कि कुछ
न पूछो,
लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गई। तीन साल की सज़ा हो
गई। सज़ा काटकर निकला तो यहां भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुंह कैसे
दिखाता। हां, घर पत्र भेज दिया। बुढिया खबर पाते ही
चली आई। यह सब कुछ हुआ, मगर गहनों से उसका पेट नहीं
भरा। जब देखो, कुछ-नकुछ बनता ही रहता है। एक चीज़ आज
बनवाई, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज़ बनवाई, यही
तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में
साफ-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर पर एक ख़त
लिख दो, लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी।
कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जायगा। मैं न किसी
से एक ख़त लिखाकर भेज दूं?’
रमा ने
आग्रहपूर्वक कहा,
‘नहीं,
दादा! दया करो। अनर्थ हो जायगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे
घरवालों का भय है।’
देवीदीन—‘घर
वाले खबर पाते ही आ जाएंगे। यह चर्चा ही न उठेगी। उनकी कोई चिंता नहीं। डर
पुलिस ही का है।’
रमानाथ—‘मैं
सज़ा से बिलकुल नहीं डरता। तुमसे कहा नहीं, एक दिन
मुझे वाचनालय में जान - पहचान की एक स्त्री दिखाई दी। हमारे घर बहुत आती-जाती
थी। मेरी स्त्री से बडी मित्रता थी। एक बडे वकील की पत्नी है। उसे देखते ही
मेरी नानी मर गई। ऐसा सिटपिटा गया कि उसकी ओर ताकने की हिम्मतन पड़ी। चुपके
से उठकर पीछे के बरामदे में जा छिपा। अगर उस वक्त उससे दो-चार बातें कर
लेता, तो घर का सारा समाचार मालूम हो जाता और मुझे
यह विश्वास है कि वह इस मुलाकात की किसी से चर्चा भी न करती। मेरी पत्नी से
भी न कहती, लेकिन मेरी हिम्मत ही न पड़ी। अब अगर
मिलना भी चाहूं, तो नहीं मिल सकता उसका पता-ठिकाना
कुछ भी तो नहीं मालूम । देवीदीन—‘तो फिर उसी को
क्यों नहीं एक चिट्ठी लिखते?’
रमानाथ—‘चिटठी
तो मुझसे न लिखी जाएगी।’
देवीदीन—‘तो
कब तक चिट्ठी न लिखोगे?’
रमानाथ—‘देखा
चाहिए।’
देवीदीन—‘पुलिस
तुम्हारी टोह में होगी।’
देवीदीन
चिंता में डूब गया। रमा को भ्रम हुआ,
शायद पुलिस का भय इसे चिंतित कर रहा है। बोला,
‘हां,
इसकी शंका मुझे हमेशा बनी रहती है। तुम देखते हो,
मैं दिन को बहुत कम घर से निकलता हूं,
लेकिन मैं तुम्हें अपने साथ नहीं घसीटना चाहता। मैं तो
जाऊंगा ही, तुम्हें क्यों उलझन में डालूं। सोचता
हूं, कहीं और चला जाऊं,
किसी ऐसे गांव में जाकर रहूं, जहां पुलिस की गंध भी
न हो
देवीदीन
ने गर्व से सिर उठाकर कहा,
‘मेरे
बारे में तुम कुछ चिंता न करो भैया,
यहां पुलिस से डरने वाले नहीं हैं। किसी परदेशी को अपने घर
ठहराना पाप नहीं है। हमें क्या मालूम किसके पीछे पुलिस है?
यह पुलिस का काम है, पुलिस जाने। मैं पुलिस का
मुखबिर नहीं, जासूस नहीं,
गोइंदा नहीं। तुम अपने को बचाए रहो, देखो भगवान
क्या करते हैं। हां, कहीं बुढिया से न कह देना,नहीं
तो उसके पेट में पानी न पचेगा।’
दोनों एक
क्षण चुपचाप बैठे रहे। दोनों इस प्रसंग को इस समय बंद कर देना चाहते थे।
सहसा देवीदीन ने कहा,क्यों
भैया,
कहो तो मैं तुम्हारे घर चला जाऊं। किसी को कानों -कान खबर
न होगी। मैं इधर-उधर से सारा ब्योरा पूछ आऊंगा। तुम्हारे पिता से मिलूंगा,
तुम्हारी माता को समझाऊंगा,
तुम्हारी घरवाली से बातचीत करूंगा। फिर जैसा उचित जान पड़े,
वैसा करना।
रमा ने
मन- ही-मन प्रसन्न होकर कहा,
‘लेकिन
कैसे पूछोगे दादा,
लोग कहेंगे न कि तुमसे इन बातों से क्या मतलब?’
देवीदीन
ने ठट्ठा मारकर कहा,
‘भैया,
इससे सहज तो कोई काम ही नहीं।‘
एक जनेऊ
गले में डाला और ब्राह्मन बन गए। फिर चाहे हाथ देखो,
चाहे, कुंडली बांचो,
चाहे सगुन विचारो, सब कुछ कर सकते
हो बुढिया भिक्षा लेकर आवेगी। उसे देखते ही कहूंगा,
माता तेरे को पुत्र के परदेस जाने का बडा कष्ट है,
क्या तेरा कोई पुत्र विदेस गया है? इतना सुनते ही
घर-भर के लोग आ जाएंगे। वह भी आवेगी। उसका हाथ देखूंगा। इन बातों में मैं
पक्का हूं भैया, तुम निश्चिन्त रहो कुछ कमा लाऊंगा,
देख लेना। माघ-मेला भी होगा। स्नान करता आऊंगा।
रमा की
आंखें मनोल्लास से चमक उठीं। उसका मन मधुर कल्पनाओं के संसार में जा
पहुंचा। जालपा उसी वक्त रतन के पास दौड़ी जायगी। दोनों भांति-भांति के
प्रश्न करेंगी,क्यों
बाबा,
वह कहां गए हैं?अच्छी तरह हैं न?
कब तक घर आवेंगे- कभी बाल-बच्चों की सुधि आती है उनको- वहां किसी कामिनी के
माया-जाल में तो नहीं फंस गए? दोनों शहर का नाम भी
पूछेंगी।
कहीं दादा
ने सरकारी रूपये चुका दिए हों,
तो मज़ा आ जाय। तब एक ही चिंता रहेगी।
देवीदीन
बोला,
‘तो
है न सलाह?’
रमानाथ—‘कहां
जायंगे दादा, कष्ट होगा।’
‘माघ का
स्नान भी तो करूंगा। कष्ट के बिना कहीं पुन्न होता है! मैं तो कहता हूं,
तुम भी चलो। मैं वहां सब रंग-ढंग देख लूंगा। अगर देखना कि
मामला टिचन है, तो चैन से घर चले जाना। कोई खटका
मालूम हो, तो मेरे साथ ही लौट आना।’
रमा ने
हंसकर कहा,
‘कहां
की बात करते हो,
दादा! मैं यों कभी न जाऊंगा। स्टेशन पर उतरते ही कहीं
पुलिस का सिपाही पकड़ ले, तो बस!’
देवीदीन
ने गंभीर होकर कहा,’सिपाही
क्या पकड़ लेगा,
दिल्लगी है! मुझसे कहो, मैं
प्रयागराज के थाने में ले जाकर खडाकर दूं। अगर कोई तिरछी आंखों से भी देख
ले तो मूंछ मुडालूं! ऐसी बात भला! सैकडों खूनियों को जानता हूं जो यहां
कलकत्ता में रहते हैं। पुलिस के अफसरों के साथ दावतें खाते हैं,
पुलिस उन्हें जानती है, फिर भी उनका कुछ नहीं कर
सकती! रूपये में बडा
बल है,
भैया! ’
रमा ने
कुछ जवाब न दिया। उसके सामने यह नया प्रश्न आ खडा हुआ। जिन बातों को वह
अनुभव न होने के कारण महाकष्ट-साकेय समझता था,
उन्हें इस बूढ़े ने निर्मूल कर दिया,
और बूढ़ा शेखीबाजों में नहीं है, वह
मुंह से जो कहता है, उसे पूरा कर दिखाने की
सामर्थ्य रखता है। उसने सोचा, तो क्या मैं सचमुच
देवीदीन के साथ घर चला जाऊं?’ यहां कुछ रूपये मिल
जाते, तो नए सूट बनवा लेता,
फिर शान से जाता। वह उस अवसर की कल्पना करने लगा,
जब वह नया सूट पहने हुए घर पहुंचेगा। उसे देखते ही गोपी और विश्वम्भर
दौड़ेंगे,भैया
आए,
भैया आए! दादा निकल आयंगे। अम्मां को पहले विश्वास न आयगा,
मगर जब दादा जाकर कहेंगे,हां,
आ तो गए, तब वह रोती हुई द्वार की
ओर चलेंगी। उसी वक्त मैं पहुंचकर उनके पैरों पर फिर पडूंगा। जालपा वहां न
आएगी। वह मान किए बैठी रहेगी। रमा ने मन-ही-मन वह वाक्य भी सोच
लिए,
जो वह जालपा को मनाने के लिए कहेगा। शायद रूपये की चर्चा
ही न आए। इस विषय पर कुछ कहते हुए सभी को संकोच होगा। अपने प्रियजनों से
जब कोई अपराध हो जाता है, तो हम उघाङ कर उसे दुखी
नहीं करते। चाहते हैं कि उस बात का उसे ध्यान ही न आए, उसके साथ ऐसा
व्यवहार करते हैं कि उसे हमारी ओर से ज़रा भी भ्रम न हो,
वह भूलकर भी यह न समझे कि मेरी अपकीर्ति हो रही है।
देवीदीन
ने पूछा,
‘क्या
सोच रहे हो?
चलोगे न?’
रमा ने
दबी जबान से कहा,
‘तुम्हारी
इतनी दया है,
तो चलूंगा, मगर पहले तुम्हें मेरे घर जाकर पूरा-पूरा
समाचार लाना पड़ेगा। अगर मेरा मन न भरा, तो मैं लौट
आऊंगा।‘
देवीदीन
ने दृढ़ता से कहा,
‘मंजूर।‘
रमा ने
संकोच से आंखें नीची करके कहा,
‘एक
बात और है?‘
देवीदीन—‘
‘क्या
बात है?
कहो।‘
‘मुझे कुछ
कपड़े बनवाने पड़ेंगे।’
‘बन
जायेंगे।’
‘मैं घर
पहुंचकर तुम्हारे रूपये दिला दूंगा ।’
‘और मैं
तुम्हारी गुरू-दक्षिणा भी वहीं दे दूंगा। ‘
‘गुरू-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ अंग्रेज़ी पढ़ा
दिए,
तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे पाठ पढ़ाए हैं,
उन्हें मैं उम्र- भर नहीं भूल सकता मुंह पर बडाई करना
ख़ुशामद है, लेकिन दादा, मातापिता के बाद जितना
प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने
ऐसे गाढ़े समय मेरी बांह पकड़ी, जब मैं बीच धार में
बहा जा रहा था। ईश्वर ही
जाने,
अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस
घाट लगा होता!’
देवीदीन
ने चुहल से कहा,
‘और
जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?’
रमा ने
हंसकर कहा,
‘दादा
तुम्हें अपना बडा भाई समझेंगे,
तुम्हारी इतनी ख़ातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे। जालपा
तुम्हारे चरण धो-धो पिएगी, तुम्हारी इतनी सेवा
करेगी कि जवान हो जाओगे।‘
‘हां,
पक्की ही है।’
‘दुकान
खुले तो चलें,
कपड़े लावेंब आज ही सिलने को दे दें।’
देवीदीन
के चले जाने के बाद रमा बडी देर तक आनंद-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन
भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था,
जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि
उनमें फिसलकर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था,
उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छंद रूप से
क्रीडाकरने लगा। उसे अब एक नौका मिल गई थी। वह त्रिवेणी की सैर,
वह अल्प्रेड पार्क की बहार, वह
ख़ुसरो बाग़ का आनंद, वह मित्रों के जलसे,
सब याद आ-आकर ह्रदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही
गले लिपट जाएंगे। मित्रगण पूछेंगे, कहां गए थे,
यार- ख़ूब सैर की? रतन उसकी ख़बर
पाते ही दौड़ी आएगी और पूछेगी,तुम
कहां ठहरे थे,
बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान
मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।
सहसा
देवीदीन ने आकर कहा,
‘भैया,
दस बज गए, चलो बाज़ार होते आवें।’
रमा ने
चौंककर पूछा,
‘क्या
दस बज गए?’
देवीदीन—‘
‘दस
नहीं,
ग्यारह का अमल होगा।‘
रमा चलने
को तैयार हुआ,
लेकिन द्वार तक आकर रूक गया।
देवीदीन
ने पूछा,’क्यों
खड़े कैसे हो गए?’
‘‘तुम्हीं
चले जाओ,
मैं जाकर क्या करूंगा!’
‘‘क्या डर
रहे हो?’
‘‘नहीं,
डर नहीं रहा हूं, मगर क्या फायदा?’
‘मैं
अकेले जाकर क्या करूंगा! मुझे क्या मालूम,
तुम्हें कौन कपडा पसंद है। चलकर अपनी पसंद से ले लो। वहीं
दरजी को दे देंगे।’
‘तुम जैसा
कपडा चाहे ले लेना। मुझे सब पंसद है।’
‘तुम्हें
डर किस बात का है?
पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।’’
‘मैं डर
नहीं रहा हूं दादा,
जाने की इच्छा नहीं है।’
‘डर नहीं
रहे हो,
तो क्या कर रहे हो कह रहा हूं कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा,
इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी
जान निकली जाती है!’
देवीदीन
ने बहुत समझाया,
आश्वासन दिया, पर रमा जाने पर राज़ी
न हुआ। वह डरने से कितना ही इंकार करे, पर उसकी
हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था,
अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो
देवीदीन क्या कर लेगा। माना सिपाही से इसका परिचय भी हो,
तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मौी का निर्वाह
करे। यह मिकैत-ख़ुशामद करके रह जाएगा, जाएगी मेरे
सिरब कहीं पकडा जाऊं, तो प्रयाग के बदले जेल जाना
पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।
देवीदीन
घंटे-भर में लौटा,
तो देखा, रमा छत पर टहल रहा है।
बोला,
‘कुछ
खबर है,
कै बज गए? बारह का अमल है। आज रोटी
न बनाओगे क्या? घर जाने की ख़ुशी में खाना-पीना छोड़
दोगे?’
रमा ने
झेंपकर कहा,
‘बना
लूंगा दादा,
जल्दी क्या है।’
‘यह देखो,
नमूने लाया हूं, इनमें जौन-सा
पसंद करो, ले लूं।’’
यह कह कर
देवीदीन ने ऊनी और रेशमी कपड़ों के सैकड़ों नमूने निकालकर रख दिए। पांच-छः
रूपये गज से कम का कोई कपडान था। रमा ने नमूनों को उलट-पलटकर देखा और बोला,इतने
महंगे कपड़े क्यों लाए,
दादा? और सस्ते न थे?’
‘सस्ते थे,
मुदा विलायती थे।‘
‘तुम
विलायती कपड़े नहीं पहनते?’
‘इधर बीस
साल से तो नहीं लिए,
उधर की बात नहीं कहता। कुछ बेसी दाम लग जाता है,
पर रूपया तो देस ही में रह जाता है।’
रमा ने
लजाते हुए कहा,
‘तुम
नियम के बडे पक्के हो दादा! ‘
देवीदीन
की मुद्रा सहसा तेजवान हो गई। उसकी बुझी हुई आंखें चमक उठीं। देह की नसें
तन गई। अकड़कर बोला,जिस
देस में रहते हैं,
जिसका अन्न-जल खाते हैं, उसके लिए
इतना भी न करें तो जीने को धिक्कार है। दो जवान बेटे इसी सुदेसी की भेंट कर
चुका हूं,भैया! ऐसे-ऐसे पट्ठे थे,
कि तुमसे क्या कहें। दोनों बिदेसी कपड़ों की दुकान पर तैनात
थे। क्या मजाल थी कोई गाहक दुकान पर आ जाय। हाथ जोड़कर,
घिघियाकर, धमकाकर,
लजवाकर सबको उधर लेते थे। बजाजे में सियार लोटने लगे।
सबों ने जाकर कमिसनर से फरियाद की। सुनकर आग हो गया। बीस गौजी गोरे भेजे कि
अभी जाकर बज़ार से पहरे उठा दो। गोरों ने दोनों भाइयों से कहा,यहां
से चले जाव,
मुदा वह अपनी जगह से जौ-भर न हिले। भीड़ लग गई। गोरे उन पर
घोड़े चढ़ा लाते थे, पर दोनों चट्टान की तरह डटे खड़े थे। आख़िर जब इस तरह कुछ
बस न चला तो सबों ने डंडों से पीटना सुई किया। दोनों वीर डंडे खाते थे,
पर जगह से न हिलते थे। जब बडा भाई फिर पडातो छोटा उसकी
जगह पर आ खडा हुआ। अगर दोनों अपने डंडे संभाल लेते तो भैया उन बीसों को मार
भगातेऋ लेकिन हाथ उठाना तो बडी बात है, सिर तक न
उठाया। अन्त में छोटा भी वहीं फिर पड़ा। दोनों को लोगों ने उठाकर अस्पताल
भेजा। उसी रात को दोनों सिधार गए। तुम्हारे चरन छूकर कहता हूं भैया,
उस बखत ऐसा जान पड़ता था कि मेरी छाती गज-भर की हो गई है,
पांव ज़मीन पर न पड़ते थे, यही उमंग
आती थी कि भगवान ने औरों को पहले न उठा लिया होता,
तो इस समय उन्हें भी भेज देता। जब अर्थी चली है, तो
एक लाख आदमी साथ थे। बेटों को गंगा में सौंपकर मैं सीधे बजाजे पहुंचा और
उसी जगह खडा हुआ, जहां दोनों बीरों की लहास गिरी
थी। गाहक के नाम चिडिए का पूत तक न दिखाई दिया। आठ दिन वहां से हिला तक
नहीं। बस भोर के समय आधा घंटे के लिए घर आता था और नहा-धोकर कुछ जलपान करके
चला जाता था। नवें दिन दुकानदारों ने कसम खाई कि विलायती कपड़े अब न
मंगावेंगे। तब पहरे उठा लिए गए। तब से बिदेसी दियासलाई तक घर में नहीं
लाया।
रमा ने
सच्चे दिल से कहा,
‘दादा,
तुम सच्चे वीर हो, और वे दोनों
लडके भी सच्चे योद्धा थे। तुम्हारे दर्शनों से आंखें पवित्र होती हैं।‘
देवीदीन
ने इस भाव से देखा मानो इस बडाई को वह बिलकुल अतिशयोक्ति नहीं समझता।
शहीदों की शान से बोला,इन
बड़े-बडे आदमियों के किए कुछ न होगा। इन्हें बस रोना आता है,
छोकरियों की भांति बिसूरने के सिवा इनसे और कुछ नहीं हो
सकता बड़े-बडे देस-भगतों को बिना बिलायती सराब के चैन नहीं आता। उनके घर में
जाकर देखो, तो एक भी देसी चीज़ न मिलेगी।
दिखाने को
दस-बीस कुरते गाढ़े के बनवा लिए,
घर का और सब सामान बिलायती है। सब-के-सब भोग-बिलास में
अंधे हो रहे हैं, छोटे भी और बड़े भी। उस पर दावा यह
है कि देस का उद्धार करेंगे। अरे तुम क्या देस का उद्धार करोगे। पहले अपना
उद्धार तो कर लो। गरीबों को लूटकर बिलायत का घर भरना तुम्हारा काम है।
इसीलिए तुम्हारा इस देस में जनम हुआ है। हां, रोए
जाव, बिलायती सराबें उडाओ,
बिलायती मोटरें दौडाओ, बिलायती मुरब्बे और अचार
चक्खो, बिलायती बरतनों में खाओ,
बिलायती दवाइयां पियो, पर देस के
नाम को रोये जाव।मुदा इस रोने से कुछ न होगा। रोने से मां दूध पिलाती है,
सेर अपना सिकार नहीं छोड़ता। रोओ उसके सामने,
जिसमें दया और धरम हो तुम धमकाकर ही क्या कर लोगे- जिस
धमकी में कुछ दम नहीं है, उस धमकी की परवाह कौन
करता है। एक बार यहां एक बडा भारी जलसा हुआ। एक
साहब
बहादुर खड़े होकर खूब उछले-यदे,
जब वह नीचे आए, तब मैंने उनसे पूछा,साहब,
सच बताओ, जब तुम सुराज का नाम लेते
हो, तो उसका कौनसा रूप तुम्हारी आंखों के सामने आता
है? तुम भी बडी-बडी तलब लोगे,
तुम भी अंगरेज़ों की तरह बंगलों में रहोगे,
पहाड़ों की हवा खाओगे, अंगरेज़ी ठाठ
बनाए घूमोगे, इस सुराज से देस का क्या कल्यान होगा।
तुम्हारी और तुम्हारे भाईबंदों की ज़िंदगी भले आराम और ठाठ से गुज़रे, पर
देस का तो कोई भला न होगा। बस, बगलें झांकने लगे।
तुम दिन में पांच बेर खाना चाहते हो, और वह भी
बढिया माल, ग़रीब किसान को एक जून सूखा चबेना भी
नहीं मिलता। उसी का रक्त चूसकर तो सरकार तुम्हें हुप्रे देती है। तुम्हारा
ध्यान कभी उनकी ओर जाता है? अभी तुम्हारा राज नहीं
है, तब तो तुम भोग-बिलास पर इतना मरते हो,
जब तुम्हारा राज हो जायगा, तब तो
तुम ग़रीबों को पीसकर पी जाओगे। रमा भद्र-समाज पर यह आक्षेप न सुन सका। आख़िर
वह भी तो भद्रसमाज
का ही एक
अंग था। बोला,
‘यह
बात तो नहीं है दादा,
कि पढ़े-लिखे लोग किसानों का ध्यान नहीं करते। उनमें से
कितने ही ख़ुद किसान थे, या हैं। उन्हें अगर विश्वास
हो जाय कि हमारे कष्ट उठाने से किसानों का कोई उपकार होगा और जो बचत होगी,
वह किसानों के लिए ख़र्च की जायगी,
तो वह ख़ुशी से कम वेतन पर काम करेंगे, लेकिन जब वह
देखते हैं कि बचत दूसरे हडप। जाते हैं, तो वह सोचते
हैं, अगर दूसरों को ही खाना है,
तो हम क्यों न खाएं।’
देवीदीन—‘तो
सुराज मिलने पर दस-दस,
पांच-पांच हज़ार के अफसर नहीं रहेंगे?
वकीलों की लूट नहीं रहेगी? पुलिस की लूट बंद हो
जाएगी?’
एक क्षण
के लिए रमा सिटपिटा गया। इस विषय में उसने ख़ुद कभी विचार न किया था,
मगर तुरंत ही उसे जवाब सूझ गया। बोला,
‘दादा,
तब तो सभी काम बहुमत से होगा। अगर बहुमत कहेगा कि
कर्मचारियों के वेतन घटा दिए जाएं, तो घट जाएंगे।
देहातों के संगठनों के लिए भी बहुमत जितने रूपये मांगेगा,
मिल जाएंगे। कुंजी बहुमत के हाथ में रहेगी,
और अभी दस-पांच बरस चाहे न हो लेकिन आगे चलकर बहुमत
किसानों और मजूरों ही का हो जाएगा। देवीदीन ने मुस्कराकर कहा,’
भैया,
तुम भी इन बातों को समझते हो यही मैंने भी सोचा था। भगवान
करे, कुछ दिन और जिऊं। मेरा पहला सवाल यह होगा कि
बिलायती चीज़ों पर दुगुना महसूल लगाया जाय और मोटरों पर चौगुना। अच्छा अब
भोजन बनाओ। सांझ को चलकर कपड़े दरजी को दे देंगे। मैं भी जब तक खा लूं।’
शाम को
देवीदीन ने आकर कहा,
‘चलो
भैया,
अब तो अंधेरा हो गया।’
रमा सिर
पर हाथ धरे बैठा हुआ था। मुख पर उदासी छाई हुई थी। बोला,
‘दादा,
मैं घर न जाऊंगा।’
देवीदीन
ने चकित होकर पूछा,
‘क्यों
क्या बात हुई?’
रमा की
आंखें सजल हो गई। बोला,
‘कौन?सा
मुंह लेकर जाऊं, दादा! मुझे तो डूब मरना चाहिए था।’
यह
कहते-कहते वह खुलकर रो पड़ा। वह वेदना जो अब तक मूर्छित पड़ी थी,
शीतल जल के यह छींटे पाकर सचेत हो गई और उसके क्रंदन ने
रमा के सारे अस्तित्व को जैसे छेद डाला। इसी क्रंदन के भय से वह उसे छेड़ता
न था, उसे सचेत करने की चेष्टा न करता था। संयत
विस्मृति से उसे अचेत ही रखना चाहता था, मानो कोई
दुद्यखिनी माता अपने बालक को इसलिए जगाते
डरती हो
कि वह तुरंत खाने को मांगने लगेगा।
सत्ताईस
कई दिनों
के बाद एक दिन कोई आठ बजे रमा पुस्तकालय से लौट रहा था कि मार्ग में उसे कई
युवक शतरंज के किसी नक्शे की बातचीत करते मिले। यह नक्शा वहां के एक हिंदी
दैनिक पत्र में छपा था और उसे हल करने वाले को पचास रूपये इनाम देने का वचन
दिया गया था। नक्शा असाकेय-सा जान पड़ता था। कम-सेकम इन युवकों की बातचीत से
ऐसा ही टपकता था। यह भी मालूम हुआ कि वहां के और भी कितने ही शतरंजबाज़ों ने
उसे हल करने के लिए भरपूर ज़ोर
लगाया, पर
कुछ पेश न गई। अब रमा को याद आया कि पुस्तकालय में एक पत्र पर बहुत-से आदमी
झुके हुए थे और उस नक्शे की नकल कर रहे थे। जो आता था,
दो-चार मिनट तक वह पत्र देख लेता था। अब मालूम हुआ,
यह बात थी। रमा का इनमें से किसी से भी परिचय न था,
पर वह यह नक्शा देखने के लिए इतना उत्सुक हो रहा था कि उससे बिना पूछे न
रहा गया। बोला,आप
लोगों में किसी के पास वह नक्शा है?
युवकों ने
एक कंबलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने
रूखाई से कहा,
‘हां,
है तो, मगर तुम देखकर क्या करोगे,
यहां अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय,
जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते,
उसे हल करने के लिए सौ रूपये अपने पास से देने को तैयार हैं।
’
दिखाने
में कोई उज्र नहीं है,
देखकर अपनी आंखों को त!प्त कर लो मगर तुम जैसे उल्लू उसे
समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे। जान - पहचान की
एक दुकान में जाकर उन्होंने रमा को नक्शा दिखाया।
रमा को
तुरंत याद आ गया,
यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा,
कहां देखा है?
एक युवक
ने चुटकी ली,
‘आपने
तो हल कर लिया होगा!’
दूसरा,
‘अभी
नहीं किया तो एक क्षण में किए लेते हैं!’
रमा ने
उत्तेजित होकर कहा,यह
मैं नहीं कहता कि मैं उसे हल कर ही लूंगा, मगर ऐसा नक्शा मैंने एक बार हल
किया है,
और संभव है, इसे भी हल कर लूं। ज़रा
काग़ज़-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूं।‘
युवकों का
अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को काग़ज़-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा
नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा,
‘जवाब
किसके पास भेजना होगा?’
एक युवक
ने कहा,’प्रजा-मित्र’
के संपादक के पास।’
रमा ने घर
पहुंचकर उस नक्शे पर दिमाग़ लगाना शुरू किया,
लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहां
देखा। शायद याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जायगा। अन्य प्राणियों की
तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने
से वह मानो छुट्टी पा जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा।
शतरंज की जो बडी-बडी मार्के की बाजियां खेली थीं,
उन सबका नक्शा उसे याद था, पर यह नक्शा कहां देखा?
सहसा उसकी
आंखों के सामने बिजली-सी कौधं गई। खोई हुई स्मृति मिल गई। अहा! राजा साहब
ने यह नक्शा दिया था। हां,
ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग़ लडाने के बाद इसे उसने हल
किया था। नक्शे की नकल भी कर लाया था। फिर तो उसे एक-एक चाल याद आ गई। एक
क्षण में नक्शा हल हो गया! उसने उल्लास के नशे में ज़मीन पर दो-तीन कुलांचें
लगाई, मूछों पर ताव दिया,
आईने में मुंह देखा और चारपाई पर लेट गया। इस तरह अगर महीने में एक
नक्शा
मिलता जाए,
तो क्या पूछना!
देवीदीन
अभी आग सुलगा रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला,
‘दादा,
जानते हो ‘प्रजा-मित्र’ अख़बार का दफ्तर कहां है?’
देवीदीन—‘
‘जानता
क्यों नहीं हूं। यहां कौन अख़बार है,
जिसका पता मुझे न मालूम हो ‘प्रजा-मित्र’ का संपादक एक
रंगीला युवक है, जो हरदम मुंह में पान भरे रहता है।
मिलने जाओ, तो आंखों से बातें करता है,
मगर है हिम्मत का धनी, दो बेर जेहल
हो आया है।’
रमा—‘आज
ज़रा वहां तक जाओगे?’
देवीदीन
ने कातर भाव से कहा,
‘मुझे
भेजकर क्या करोगे?
मैं न जा सकूंगा। ’
‘क्या
बहुत दूर है?’
‘नहीं,
दूर नहीं है।’
‘फिर क्या
बात है?’
देवीदीन
ने अपराधियों के भाव से कहा,
‘बात
कुछ नहीं है,
बुढिया बिगड़ती है। उसे बचन दे चुका हूं कि सुदेसी-बिदेसी
के झगड़े में न पड़ूंगा, न किसी अख़बार के दफ्तर में
जाऊंगा। उसका दिया खाता हूं, तो उसका हुकुम भी तो
बजाना पड़ेगा।’
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘दादा,
तुम तो दिल्लगी करते हो मेरा एक बडा ज़रूरी काम है। उसने
शतरंज का एक नक्शा छापा था, जिस पर पचास रूपया इनाम
है। मैंने वह नक्शा हल कर दिया है। आज छप जाय, तो
मुझे यह इनाम मिल जाय। अख़बारों के दफ्तर में अक्सर खुगिया पुलिस के आदमी
आतेजाते रहते हैं। यही भय है। नहीं, मैं ख़ुद चला
जाता, लेकिन तुम नहीं जा रहे
हो तो
लाचार मुझे ही जाना पड़ेगा। बडी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात
जागता रहा हूं।’
देवीदीन
ने चिंतित स्वर में कहा,
‘तुम्हारा
वहां जाना ठीक नहीं।’
रमा ने
हैरान होकर पूछा,
‘तो
फिर?
क्या डाक से भेज दूं? ’
देवीदीन
ने एक क्षण सोचकर कहा,
‘नहीं,
डाक से क्या भेजोगे। इधर-उधर हो जाय,
तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाय। रजिस्ट्री कराओ,
तो कहीं परसों पहुंचेगा। कल इतवार है। किसी और ने जवाब
भेज दिया, तो इनाम वह मार ले जायगा। यह भी तो हो
सकता है कि अख़बार वाले धांधली कर बैठें और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर
रूपया हजम कर लें।’
रमा ने
दुबिधा में पड़कर कहा,
‘मैं
ही चला जाऊंगा।’
‘तुम्हें
मैं न जाने दूंगा। कहीं फंस जाओ तो बस!’
‘फंसंना
तो एक दिन है ही। कब तक छिपा रहूंगा?’
‘तो मरने
के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो जब फंसोगे,
तब देखी जाएगी। लाओ, मैं चला जाऊं।
बुढिया से कोई बहाना कर दूंगा। अभी भेंट भी हो जाएगी। दफ्तर ही में रहते
भी हैं। फिर घूमने-घामने चल देंगे, तो दस बजे से
पहले न लौटेंगे।’
रमा ने
डरते-डरते कहा,
‘तो
दस बजे बाद जाना,
क्या हरज है।’
देवीदीन
ने खड़े होकर कहा,
‘तब
तक कोई दूसरा काम आ गया,
तो आज रह जाएगा। घंटे-भर में लौट आता हूं। अभी बुढिया देर
में आएगी।’यह
कहते हुए देवीदीन ने अपना काला कंबल ओढ़ा,
रमा से लिफाफा लिया और चल दिया।
जग्गो
साग-भाजी और फल लेने मंडी गई हुई थी। आधा घंटे में सिर पर एक टोकरी रक्खे
और एक बडा-सा टोकरा मजूर के सिर पर रखवाए आई। पसीने से तर थी। आते ही बोली,
‘कहां
गए?
ज़रा बोझा तो उतारो, गरदन टूट गई।’
रमा ने
आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि संभाले न संभलती थी।
जग्गो ने
पूछा,
‘वह
कहां गए हैं?’
रमा ने
बहाना किया,
‘मुझे
तो नहीं मालूम,
अभी इसी तरफ चले गए हैं।’
बुढिया ने
मजूर के सिर का टोकरा उतरवाया और ज़मीन पर बैठकर एक टूटी-सी पंखिया झलती हुई
बोली,
‘चरस
की चाट लगी होगी और क्या,
मैं मरमर कमाऊं और यह बैठे-बैठे मौज उडाएं और चरस पीएं।’
रमा जानता
था,
देवीदीन चरस पीता है, पर बुढिया को
शांत करने के लिए बोला,
‘क्या
चरस पीते हैं?
मैंने तो नहीं देखा!’
बुढिया ने
पीठ की साड़ी हटाकर उसे पंखी की डंडी से खुजाते हुए कहा,
‘इनसे
कौन नसा छूटा है,
चरस यह पीएं, गांजा यह पीएं,
सराब इन्हें चाहिए,भांग इन्हें
चाहिए, हां अभी तक अगीम नहीं खाई,
या राम जाने खाते हों, मैं कौन
हरदम देखती रहती हूं। मैं तो सोचती हूं कौन जाने आगे क्या हो,
हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराए
भी अपने हो जाएंगे, पर इस भले आदमी को रत्ती-
भर चिंता
नहीं सताती। कभी तीरथ है,
कभी कुछ, कभी कुछ,
मेरा तो;नाक पर उंगली रखकरध्द नाक
में दम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाती। तब याद करेंगे
लाला! तब जग्गो कहां मिलेगी, जो कमा-कमाकर गुलछर्रे
उडाने को दिया करेगी। तब रक्त के आंसू न रोएं, तो
कह देना कोई कहता था। (मजूर से)
‘कै
पैसे हुए तेरे?’
मजूर ने
बीड़ी जलाते हुए कहा,
‘बोझा
देख लो दाई,
गरदन टूट गई!’
जग्गो ने
निर्दय भाव से कहा,
‘हां-हां,
गरदन टूट गई! बडी सुकुमार है न? यह
ले, कल फिर चले आना।’
मजूर ने
कहा,
‘यह
तो बहुत कम है। मेरा पेट न भरेगा।’
जग्गो ने
दो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे विदा किया और दुकान सजाने लगी। सहसा उसे
हिसाब की याद आ गई। रमा से बोली,
‘भैया,
ज़रा आज का खरचा तो टांक दो। बाज़ार में जैसे आग लग गई है।’बुढिया
छबडियों में चीज़ें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी। आलू,
टमाटर, कद्दू,
केले, पालक,
सेम, संतरे,
गोभी, सब चीज़ों का तौल और दर उसे
याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना तब उसे संतोष हुआ। इन सब कामों से
छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोढ़े पर बैठकर पीने लगी,
लेकिन उसके अंदाज से मालूम होता था कि वह तंबाकू का रस
लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है।
एक क्षण के बाद बोली,
‘दूसरी
औरत होती तो घड़ी-भर इसके साथ निबाह न होता,
घड़ी- भर, पहर रात से चक्की में जुत
जाती हूं और दस बजे रात तक दुकान पर बैठी सती होती रहती हूं। खाते-पीते
बारह बजते हैं तब जाकर चार पैसे दिखाई देते हैं, और
जो कुछ कमाती हूं, यह नसे में बरबाद कर देता है।
सात कोठरी में छिपा के रक्खूं, पर इसकी निगाह पहुंच
जाती है। निकाल लेता है। कभी एकाध चीज़-बस्त बनवा लेती हूं तो वह आंखों में
गड़ने लगती है। तानों से छेदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं
बदा था, तो क्या करूं! छाती फाड़ के मर जाऊं?
मांगे से मौत भी तो नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता,
तो जवान बेटे चल देते, और इस
पियक्कड़ के हाथों मेरी यह सांसत होती! इसी ने सुदेसी के झगड़े में पड़कर मेरे
लालों की जान ली। आओ, इस कोठरी में भैया,
तुम्हें मुग्दर की जोड़ी दिखाऊं। दोनों इस जोड़ी से
पांच-पांच सौ हाथ उधरते थे।‘
अंधेरी
कोठरी में जाकर रमा ने मुग्दर की जोड़ी देखी। उस पर वार्निश थी,
साफ-सुथरी मानो अभी किसी ने उधरकर रख दिया हो बुढिया ने
सगर्व नजरों से देखकर कहा,लोग
कहते थे कि यह जोड़ी महा ब्राह्मन को दे दे,
तुझे देख-देख कलक होगा। मैंने कहा,यह
जोड़ी मेरे लालों की जुफल जोड़ी है। यही मेरे दोनों लाल हैं। बुढिया के प्रति
आज रमा के ह्रदय में असीम श्रद्धा जाग्रत हुई। कितना पावन धैर्य है,
कितनी विशाल वत्सलता, जिसने लकड़ी
के इन दो टुकड़ों को जीवन प्रदान कर दिया है। रमा ने जग्गो को माया और लोभ
में डूबी हुई, पैसे पर जान देने वाली,
कोमल भावों से सर्वथा विहीन समझ रक्खा था। आज उसे विदित
हुआ कि उसका ह्रदय कितना स्नेहमय, कितना कोमल,
कितना मनस्वी है। बुढिया ने उसके मुंह की ओर देखा,
तो न जाने क्यों उसका मात!-ह्रदय उसे गले लगाने के लिए
अधीर हो उठा। दोनों के ह्रदय प्रेम के सूत्र में बंध गए। एक ओर पुत्र-स्नेह
था, दूसरी ओर मातृ-भक्ति। वह मालिन्य जो अब तक
गुप्त भाव से दोनों को पृथक किए हुए था, आज एकाएक
दूर हो गया। बुढिया ने कहा,
‘मुंह-हाथ
धो लिया है न बेटा,
बडे मीठे संतरे लाई हूं, एक लेकर चखो तो।’
रमा ने
संतरा खाते हुए कहा,
‘आज
से मैं तुम्हें अम्मां कहा करूंगा।’
बुढिया के
शुष्क,
ज्योतिहीन, ठंडे,
कृपण नजरों से मोती के-से दो बिंदु निकल पड़े।
इतने में
देवीदीन दबे पांव आकर खडाहो गया। बुढिया ने तड़पकर पूछा,यह
इतने सबेरे किधर सवारी गई थी सरकार की?’
देवी ने
सरलता से मुस्कराकर कहा,
‘कहीं
नहीं,
ज़रा एक काम से चला गया था।’
‘क्या काम
था,
ज़रा मैं भी तो सुनूं, या मेरे
सुनने लायक नहीं है?’
‘पेट में
दरद था,
ज़रा वैदजी के पास चूरन लेने गया था।’
‘झूठे हो
तुम,
उड़ो उससे जो तुम्हें जानता न हो चरस की टोह में गए थे
तुम।’
‘नहीं,
तेरे चरन छूकर कहता हूं। तू झूठ-मूठ मुझे बदनाम करती है।’
‘तो फिर
कहां गए थे तुम?’
‘बता तो
दिया। रात खाना दो कौर ज्यादा खा गया था,
सो पेट फूल गया,और मीठा-मीठा---’
‘झूठ है,
बिलकुल झूठ! तुम चाहे झूठ बोलो,
तुम्हारा मुंह साफ कहे देता है, यह बहाना है,
चरस, गांजा,
इसी टोह में गए थे तुम। मैं एक न मानूंगी। तुम्हें इस
बुढ़ापे में नसे की सूझती है, यहां मेरी मरन हुई
जाती है। सबेरे के गए-गए नौ बजे लौटे हैं, जानो
यहां कोई इनकी लौंडी है।’
देवीदीन
ने एक झाड़ू लेकर दुकान में झाड़ू लगाना शुरू किया, पर बुढिया ने उसके हाथ से
झाडू छीन लिया और पूछा,तुम
अब तक थे कहां?
जब तक यह न बताओगे, भीतर घुसने न दूंगी।
देवीदीन
ने सिटपिटाकर कहा,
‘क्या
करोगी पूछकर,
एक अख़बार के दफ्तर में तो गया था। जो चाहे कर ले।’
बुढिया ने
माथा ठोंककर कहा,
‘तुमने
फिर वही लत पकड़ी?
तुमने कान न पकडाथा कि अब कभी अख़बारों के नगीच न जाऊंगा। बोलो,
यही मुंह था कि कोई और!’
‘तू बात
तो समझती नहीं,
बस बिगड़ने लगती है।'
‘ख़ूब
समझती हूं। अख़बार वाले दंगा मचाते हैं और ग़रीबों को जेहल ले जाते हैं। आज
बीस साल से देख रही हूं। वहां जो आता-जाता है,
पकड़ लिया जाता है। तलासी तो आए दिन हुआ करती है। क्या
बुढ़ापे में जेहल की रोटियां तोड़ोगे?’
देवीदीन
ने एक लिफाफा रमानाथ को देकर कहा,
‘यह
रूपये हैं भैया,
गिन लो। देख, यह रूपये वसूल करने
गया था। जी न मानता हो, तो आधे ले ले!’
बुढिया ने
आंखें गाड़कर कहा,
‘अच्छा!
तो तुम अपने साथ इस बेचारे को भी डुबाना चाहते हो तुम्हारे रूपये में आग
लगा दूंगी। तुम रूपये मत लेना,
भैया! जान से हाथ धोओगे। अब सेंतमेंत आदमी नहीं मिलते,
तो सब लालच दिखाकर लोगों को फंसाते हैं। बाज़ार में पहरा
दिलावेंगे, अदालत में गवाही करावेंगे! फेंक दो उसके
रूपये, जितने रूपये चाहो,
मुझसे ले जाओ।’
जब रमानाथ
ने सारा वृत्तांत कहा,
तो बुढिया का चित्त शांत हुआ। तनी हुई भवें ढीली पड़ गई,
कठोर मुद्रा नर्म हो गई। मेघ-पट को हटाकर नीला आकाश हंस
पड़ा। विनोद करके बोली,
‘इसमें
से मेरे लिए क्या लाओगे,
बेटा?’
रमा ने
लिफाफा उसके सामने रखकर कहा,
‘तुम्हारे
तो सभी हैं,
अम्मां! मैं रूपये लेकर क्या करूंगा?’
‘घर क्यों
नहीं भेज देते। इतने दिन आए हो गए,
कुछ भेजा नहीं।’
‘मेरा घर
यही है,
अम्मां! कोई दूसरा घर नहीं है।’
बुढिया का
मातृत्व वंचित ह्रदय गद्गद हो उठा। इस मात!-भक्ति के लिए कितने दिनों से
उसकी आत्मा तड़प रही थी। इस कृपण ह्रदय में जितना प्रेम संचित हो रहा था,
वह सब माता के स्तन में एकत्र होने वाले दूध की भांति बाहर
निकलने के लिए आतुर हो गया। उसने नोटों को गिनकर कहा,
‘पचास
हैं,
बेटा! पचास मुझसे और ले लो। चाय का पतीला रखा हुआ है। चाय
की दुकान खोल दो। यहीं एक तरफ चारपांच मोढ़े और मेज़ रख लेना। दो-दो घंटे
सांझ-सवेरे बैठ जाओगे तो गुज़र भर को मिल जायगा। हमारे जितने गाहक आवेंगे,
उनमें से कितने ही चाय भी पी लेंगे।’
देवीदीन
बोला,
‘तब
चरस के पैसे मैं इस दुकान से लिया करूंगा!’
बुढिया ने
विहंसित और पुलकित नजरों से देखकर कहा,
‘कौड़ी-कौड़ी
का हिसाब लूंगी। इस उधर में न रहना।’
रमा अपने
कमरे में गया,
तो उसका मन बहुत प्रसन्न था। आज उसे कुछ वही आनंद मिल रहा
था, जो अपने घर भी कभी न मिला था। घर पर जो स्नेह
मिलता था, वह उसे मिलना ही चाहिए था। यहां जो स्नेह
मिला, वह मानो आकाश से टपका था। उसने स्नान किया,
माथे पर तिलक लगाया और पूजा का स्वांग भरने बैठा कि बुढिया
आकर बोली,बेटा,
तुम्हें रसोई बनाने में बडी तकलीफ होती है। मैंने एक ब्राह्मनी
ठीक कर दी है। बेचारी बडी ग़रीब है। तुम्हारा भोजन बना दिया करेगी। उसके हाथ
का तो तुम खा लोगे, नेम-करम से रहती है बेटा,ऐसी
बात नहीं है। मुझसे रूपये-पैसे उधार ले जाती है। इसी से राजी हो गई है।’
उन वृद्ध
आंखों से प्रगाढ़,
अखंड मात!त्व झलक रहा था, कितना
विशुद्ध, पवित्र! ऊंच-नीच और जाति-मर्यादा का विचार
आप ही आप मिट गया। बोला,
‘जब
तुम मेरी माता हो गई तो फिर काहे का छूत-विचार! मैं तुम्हारे ही हाथ का
खाऊंगा। ’
बुढिया ने
जीभ दांतों से दबाकर कहा,
‘अरे
नहीं बेटा! मैं तुम्हारा धरम न लूंगी,
कहां तुम बराम्हन और कहां हम खटिक ऐसा कहीं हुआ है।’
‘मैं तो
तुम्हारी रसोई में खाऊंगा। जब मां-बाप खटिक हैं,
तो बेटा भी खटिक है। जिसकी आत्मा बडी हो वही ब्राह्मण है।’
‘और जो
तुम्हारे घरवाले सुनें तो क्या कहें! ‘
‘मुझे
किसी के कहने-सुनने की चिंता नहीं है,
अम्मां! आदमी पाप से नीच होता है,
खाने-पीने से नीच नहीं होता। प्रेम से जो भोजन मिलता है,
वह पवित्र होता है। उसे तो देवता भी खाते हैं।’
बुढिया के
ह्रदय में भी जाति-गौरव का भाव उदय हुआ। बोली,
‘बेटा,
खटिक कोई नीच जात नहीं है। हम लोग बराम्हन के हाथ का भी
नहीं खाते। कहार का पानी तक नहीं पीते। मांस-मछरी हाथ से नहीं छूते,
कोई-कोई सराब पीते हैं, मुदा
लुक-छिपकर। इसने किसी को नहीं छोडा, बेटा! बड़े-बडे
तिलकधारी गटाफट पीते हैं। लेकिन मेरी रोटियां तुम्हें अच्छी नहीं लगेंगी?’
रमा ने
मुस्कराकर कहा,
‘प्रेम
की रोटियों में अम!त रहता है,
अम्मां! चाहे गेहूं की हों या बाजरे की।’बुढिया
यहां से चली तो मानो अंचल में आनंद की निधि भरे हो
अट्ठाईस
जब से रमा
चला गया था,
रतन को जालपा के विषय में बडी चिंता हो गई थी। वह किसी
बहाने से उसकी मदद करते रहना चाहती थी। इसके साथ ही यह भी चाहती थी कि
जालपा किसी तरह ताड़ने न पाए। अगर कुछ रूपया ख़र्च करके भी रमा का पता चल
सकता, तो वह सहर्ष ख़र्च कर देती। जालपा की वह रोती
हुई आंख देखकर उसका ह्रदय मसोस उठता था। वह उसे प्रसन्नमुख देखना चाहती थी।
अपने अंधेरे, रोने घर से ऊबकर वह जालपा के घर चली
जाया करती थी। वहां घड़ी-भर हंस-बोल लेने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता था।
अब वहां भी वही नहूसत छा गई। यहां आकर उसे अनुभव होता था कि मैं भी संसार
में हूं, उस संसार में जहां जीवन है,
लालसा है, प्रेम है,
विनोद है। उसका अपना जीवन तो व्रत की वेदी पर अर्पित हो
गया था। वह तन-मन से उस व्रत का पालन करती थी,
पर शिवलिंग के ऊपर रखे हुए घट में क्या वह प्रवाह है,
तरंग है, नाद है,
जो सरिता में है? वह शिव के मस्तक
को शीतल करता रहे, यही उसका काम है,
लेकिन क्या उसमें सरिता के प्रवाह और तरंग और नाद का लोप
नहीं हो गया है?
इसमें
संदेह नहीं कि नगर के प्रतिष्ठित और संपन्न घरों से रतन का परिचय था,
लेकिन जहां प्रतिष्ठा थी, वहां तकल्लुग था,
दिखावा था, ईर्ष्या थी,
निंदा थी। क्लब के संसर्ग से भी उसे अरूचि हो गई थी। वहां
विनोद अवश्य था, क्रीडा अवश्य थी,,
किंतु पुरूषों के आतुर नो भी थे, विकल ह्रदय भी,
उन्मत्त शब्द भी। जालपा के घर अगर वह शान न थी,
वह दौलत न थी, तो वह दिखावा भी न
था, वहईर्ष्याभी न थी। रमा जवान था,
रूपवान था, चाहे रसिक भी
हो, पर
रतन को अभी तक उसके विषय में संदेह करने का कोई अवसर न मिला था,
और जालपा जैसी सुंदरी के रहते हुए उसकी संभावना भी न थी।
जीवन के बाज़ार में और सभी दूकानदारों की कुटिलता और जट्टूपन से तंग आकर
उसने इस छोटी-सी दूकान का आश्रय लिया था, किंतु यह
दूकान भी टूट गई। अब वह जीवन की सामग्रियां कहां बेसाहेगी,
सच्चा माल कहां पावेगी?
एक दिन वह
ग्रामोफोन लाई और शाम तक बजाती रही। दूसरे दिन ताजे मेवों की एक कटोरी लाकर
रख गई। जब आती तो कोई सौगात लिये आती। अब तक वह जागेश्वरी से बहुत कम मिलती
थी,
पर अब बहुधा उसके पास आ बैठती और इधर-उधर की बातें करती।
कभी-कभी उसके सिर में तेल डालती और बाल गूंथती। गोपी और विश्वम्भर से भी अब
स्नेह हो गया। कभीकभी दोनों को मोटर पर घुमाने ले जाती। स्यल से आते ही
दोनों उसके बंगले पर पहुंच जाते और कई लड़कों के साथ वहां खेलते। उनके
रोने-चिल्लाने और झगड़ने में रतन को हार्दिक आनंद प्राप्त होता था। वकील
साहब को भी अब रमा के घरवालों से कुछ आत्मीयता हो गई थी। बार-बार पूछते
रहते थे,
‘रमा
बाबू का कोई ख़त आया- कुछ पता लगा?उन
लोगों को कोई तकलीफ तो नहीं है?’
एक दिन
रतन आई,
तो चेहरा उतरा हुआ था। आंखें भारी हो रही थीं। जालपा ने
पूछा,
‘आज
जी अच्छा नहीं है क्या?’
रतन ने कुंठित स्वर में कहा,’जी
तो अच्छा है,
पर रात-भर जागना पड़ा।
रात से
उन्हें बडा कष्ट है। जाड़ों में उनको दमे का दौरा हो जाता है। बेचारे
जाड़ों-भर एमलशन और सनाटोजन और न जाने कौन-कौन
से रस खाते रहते हैं,
पर यह रोग गला नहीं छोड़ता। कलकत्ता में एक नामी वैद्य हैं। अबकी उन्हीं से
इलाज कराने का इरादा है। कल चली जाऊंगी। मुझे ले तो नहीं जाना चाहते,
कहते हैं, वहां बहुत कष्ट होगा,
लेकिन मेरा जी नहीं मानता। कोई बोलने वाला तो होना चाहिए। वहां दो बार हो
आई हूं, और जब-जब गई हूं,
बीमार हो गई हूं।
मुझे वहां
ज़रा भी अच्छा नहीं लगता,
लेकिन अपने आराम को देखूं या उनकी बीमारी को देखू ।बहन
कभी-कभी ऐसा जी ऊब जाता है कि थोड़ी-सी संखिया खाकर सो रहूं। विधाता से इतना
भी नहीं देखा जाता। अगर कोई मेरा सर्वस्व लेकर भी इन्हें अच्छा कर दे,
कि इस बीमारी की जड़ टूट जावे, तो
मैं ख़ुशी से दे दूंगी।’
जालपा ने
सशंक होकर कहा,’यहां
किसी वैद्य को नहीं बुलाया?’
‘यहां
के वैद्यों को देख चुकी हूं,
बहन! वैद्य -डारुक्टर सबको देख
चुकी!’
‘तो कब तक
आओगी?’
‘कुछ ठीक
नहीं। उनकी बीमारी पर है। एक सप्ताह में आ जाऊं,
महीने -दो महीने लग जायं,
क्या ठीक है, मगर जब तक बीमारी की
जड़ न टूट जायगी, न आऊंगी।’
विधि
अंतरिक्ष में बैठी हंस रही थी। जालपा मन में मुस्कराई। जिस बीमारी की जड़
जवानी में न टूटी,
बुढ़ापे में क्या टूटेगी, लेकिन इस
सदिच्छा से सहानुभूति न रखना असंभव था। बोली,
‘ईश्वर
चाहेंगे,
तो वह वहां से जल्द अच्छे होकर लौटेंगे,
बहन!’
‘तुम भी
चलतीं तो बडा आनंद आता।’
जालपा ने
करूण भाव से कहा,
‘क्या
चलूं बहन,
जाने भी पाऊं। यहां दिन-भर यह आशा
लगी रहती है कि कोई ख़बर मिलेगी। वहां मेरा जी और घबडाया करेगा।
’
‘मेरा दिल
तो कहता है कि बाबूजी कलकत्ता में हैं।’
‘तो ज़रा
इधर-उधर खोजना। अगर कहीं पता मिले तो मुझे तुरंत ख़बर देना।’
‘यह
तुम्हारे कहने की बात नहीं है,
जालपा।’
‘यह
मुझे मालूम है। ख़त तो बराबर भेजती रहोगी?’
‘हां
अवश्य,
रोज़ नहीं तो अंतरे दिन जरूर लिखा करूंगी,
मगर तुम भी जवाब देना।’
जालपा पान
बनाने लगी। रतन उसके मुंह की ओर अपेक्षा के भाव से ताकती रही,
मानो कुछ कहना चाहती है और संकोचवश नहीं कह सकती। जालपा ने
पान देते समय उसके मन का भाव ताड़कर कहा,
‘क्या
है ।हन,
क्या कह रही हो?
रतन—‘कुछ
नहीं, मेरे पास कुछ रूपये हैं,
तुम रख लो। मेरे पास रहेंगे, तो
ख़र्च हो जायंगे।
जालपा ने
मुस्कराकर आपत्ति की,
‘और
जो मुझसे ख़र्च हो जायं?’
रतन ने
पफुल्ल मन से कहा,
टतुम्हारे ही तो हैं बहन,
किसी ग़ैर के तो नहीं हैं।’
जालपा
विचारों में डूबी हुई ज़मीन की तरफ ताकती रही। कुछ जवाब न दिया। रतन ने
शिकवे के अंदाज से कहा,
‘तुमने
कुछ जवाब नहीं दिया बहन,
मेरी समझ में नहीं आता, तुम मुझसे
खिंची क्यों रहती हो मैं चाहती हूं, हममें और
तुममें ज़रा भी अंतर न रहे लेकिन तुम मुझसे दूर भागती हो अगर मान लो मेरे
सौ-पचास रूपये तुम्हीं से ख़र्च हो गए, तो क्या हुआ।
बहनों में तो ऐसा कौड़ी-कौड़ी का हिसाब नहीं होता।’
जालपा ने
गंभीर होकर कहा,
‘कुछ
कहूं,
बुरा तो न मानोगी?’
‘बुरा
मानने की बात होगी तो जरूर बुरा मानूंगी।’
‘मैं
तुम्हारा दिल दुखाने के लिए नहीं कहती। संभव है,
तुम्हें बुरी लगे। तुम अपने मन में सोचो,
तुम्हारे इस बहनापे में दया का भाव मिला हुआ है या नहीं?
तुम मेरी ग़रीबी पर तरस खाकर---’
रतन ने
लपककर दोनों हाथों से उसका मुंह बंद कर दिया और बोली,
‘बस
अब रहने दो। तुम चाहे जो ख़याल करो,
मगर यह भाव कभी मेरे मन में न था और न हो सकता है। मैं तो जानती हूं,
अगर मुझे भूख लगी हो, तो मैं
निस्संकोच होकर तुमसे कह दूंगी, बहन,
मुझे कुछ खाने को दो, भूखी हूं।’
रतन ने
दृढ़ता से कहा,
‘मुझे
उस दशा में भी तुमसे मांगने में संकोच न होगा। मैत्री परिस्थितियों का
विचार नहीं करती। अगर यह विचार बना रहे,
तो समझ लो मैत्री नहीं है। ऐसी बातें करके तुम मेरा द्वार
बंद कर रही हो मैंने मन में समझा था, तुम्हारे साथ
जीवन के दिन काट दूंगी, लेकिन तुम अभी से चेतावनी
दिए देती हो अभागों को प्रेम की भिक्षा भी नहीं मिलती। यह कहते-कहते रतन की
आंखें सजल हो गई। जालपा अपने को दुखिनी समझ रही थी और दुखी जनों को निर्मम
सत्य कहने की स्वाधीनता होती है। लेकिन रतन की मनोव्यथा उसकी व्यथा से कहीं
विदारक थी। जालपा के पति के लौट आने की अब भी आशा थी। वह जवान है,
उसके आते ही जालपा को ये बुरे दिन भूल जाएंगे। उसकी आशाओं
का सूर्य फिर उदय होगा। उसकी इच्छाएं फिर फले-फूलेंगी। भविष्य अपनी सारी
आशाओं और आकांक्षाओं के
साथ उसके
सामने था,विशाल,
उज्ज्वल, रमणीकब रतन का भविष्य
क्या था? कुछ नहीं, शून्य,
अंधकार!
जालपा
आंखें पोंछकर उठ खड़ी हुई। बोली,
‘पत्रों
के जवाब देती रहना। रूपये देती जाओ।’
रतन ने
पर्स से नोटों का एक बंडल निकालकर उसके सामने रख दिया,
पर उसके चेहरे पर प्रसन्नता न थी। जालपा ने सरल भाव से कहा,
‘क्या
बुरा मान गई।’
रतन ने
रूठे हुए शब्दों में कहा,
‘बुरा
मानकर तुम्हारा क्या कर लूंगी।’
जालपा ने
उसके गले में बांहें डाल दीं। अनुराग से उसका ह्रदय गदगद हो गया। रतन से
उसे इतना प्रेम कभी न हुआ था। वह उससे अब तक खिंचती थी,ईर्ष्याकरती
थी। आज उसे रतन का असली रूप दिखाई दिया। यह सचमुच अभागिनी है और मुझसे
बढ़कर। एक क्षण बाद, रतन आंखों में आंसू और हंसी एक
साथ भरे विदा हो गई।
उनतीस
कलकत्ता
में वकील साहब ने ठरहने का पहले ही इंतज़ाम कर लिया था। कोई कष्ट न हुआ। रतन
ने महराज और टीमल कहार को साथ ले लिया था। दोनों वकील साहब के पुराने नौकर
थे और घर के-से आदमी हो गए थे। शहर के बाहर एक बंगला था। उसके तीन कमरे
मिल गए। इससे ज्यादा जगह की वहां जरूरत भी न थी। हाते में तरह-तरह के
फल-पौधो लगे हुए थे। स्थान बहुत सुंदर मालूम होता था। पास-पड़ोस में और
कितने ही बंगले थे। शहर के लोग उधर हवाखोरी के लिए जाया करते थे और हरे
होकर लौटते थे,
पर रतन को वह जगह फाड़े खाती थी। बीमार के साथ वाले भी
बीमार होते हैं। उदासों के लिए स्वर्ग भी उदास है। सगष्र ने वकील साहब को
और भी शिथिल कर दिया था। दो-तीन दिन तो उनकी दशा उससे भी ख़राब रही,
जैसी प्रयाग में थी,, लेकिन दवा
शुरू होने के दो-तीन दिन बाद वह कुछ संभलने लगे। रतन सुबह से आधी रात तक
उनके पास ही कुर्सी डाले बैठी रहती। स्नान-भोजन की
भी सुधि न रहती। वकील साहब चाहते थे कि यह यहां से हट जाय तो दिल खोलकर
कराहें। उसे तस्कीन
देने के
लिए वह अपनी दशा को छिपाने की चेष्टा करते रहते थे। वह पूछती,
आज कैसी तबीयत है? तो वह फीकी
मुस्कराहट के साथ कहते,
‘आज
तो जी बहुत हल्का मालूम होता है।’
बेचारे सारी रात करवटें बदलकर काटते थे,
पर रतन पूछती,
‘रात
नींद आई थी?’
तो कहते,
‘हां,
खूब सोया।’रतन
पथ्य सामने ले जाती,
तो अरूचि होने पर भी खा लेते। रतन समझती,
अब यह अच्छे हो रहे हैं। कविराज जी से भी वह यही समाचार
कहती। वह भी अपने उपचार की
सफलता पर
प्रसन्न थे। एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा,
‘मुझे
डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।’
रतन ने
प्रसन्न होकर कहा,
‘इससे
बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूं कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे
दें। ‘शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो,
तो मेरे अच्छे
हो जाने
पर पड़ना।’
‘कहां
जाऊं,
मेरा तो कहीं जाने को जी ही नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे
अच्छा लगता है।’
वकील साहब
को एकाएक रमानाथ का ख़याल आ गया। बोले,
‘ज़रा
शहर के पार्को में घूम-घाम कर देखो,
शायद रमानाथ का पता चल जाय। रतन को अपना वादा याद आ गया।
रमा को पा जाने की आनंदमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह
पार्क में बैठे मिल जाएं, तो पूछूं कहिए बाबूजी,
अब कहां भागकर जाइएगा? इस कल्पना
से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली,
‘जालपा
से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊंगी,
पर यहां आकर भूल गई।’
वकील साहब
ने साग्रह कहा,
‘आज
चली जाओ। आज क्या,
शाम को रोज़ घंटे-भर के लिए निकल जाया करो।’
रतन ने
चिंतित होकर कहा,
‘लेकिन
चिंता तो लगी रहेगी।’
वकील साहब
ने मुस्कराकर कहा,
‘मेरी?
मैं तो अच्छा हो रहा हूं।’
रतन ने
संदिग्ध भाव से कहा,
‘अच्छा,
चली जाऊंगी।’
रतन को कल
से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ संदेह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे
होने का कोई लक्षण उसे न दिखाई देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन
पीला पड़ता जाता है! इनकी आंखें क्यों हरदम बंद रहती हैं! देह क्यों दिन-दिन
घुलती जाती है! महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराज से पूछते
उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा
मिल जाते,
तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहां हैं,
किसी दूसरे डाक्टर को
दिखाती।
इन कविराज जी से उसे कुछ-कुछ निराशा हो चली थी। जब रतन चली गई,
तो वकील साहब ने टीमल से कहा,
‘मुझे
ज़रा उठाकर बिठा दो,
टीमल, पड़े-पड़े कमर सीधी हो गई। एक
प्याली चाय पिला दो। कई दिन हो गए, चाय की सूरत
नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मारे डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है,
पर उनकी ख़ातिर से पी लेता हूं! मुझे तो इन कविराज की
दवा से
कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्हें क्या मालूम होता है?’
टीमल ने
वकील साहब को तकिए के सहारे बैठाकर कहा,
‘बाबूजी
सो देख लेव,
यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेव,
बहूजी के डर के मारे नहीं कहता था।’
वकील साहब
ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा,
‘मैं
मौत से डरता नहीं,
टीमल! बिलकुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिलकुल विश्वास
नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है,
तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म
किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूं,
मर गया तो क्या होगा।’
टीमल ने
कहा,
‘बाबूजी
सो देख लेव,
आप ऐसी बातें न करें। भगवान चाहेंगे,
तो आप अच्छे हो जाएंगे। किसी दूसरे डाक्टर को बुलाऊं- आप
लोग तो अंगरेज़ी पढ़े हैं, सो देख लेव,
कुछ मानते ही नहीं, मुझे तो कुछ और
ही संदेह हो रहा है। कभी-कभी गंवारों की भी सुन लिया करो। सो देख लेव,
आप मानो चाहे न मानो, मैं तो एक
सयाने को लाऊंगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।’
वकील साहब
ने मुंह उधर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मज़ाक उडाया करते थे। कई ओझों को
पीट चुके थे। उनका ख़याल था कि यह प्रवंचना है,
ढोंग है, लेकिन इस वक्त उनमें इतनी
शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुंह उधर लिया।
महराज ने
चाय लाकर कहा,
‘सरकार,
चाय लाया हूं।’
वकील साहब
ने चाय के प्याले को क्षुधित नजरों से देखकर कहा,
‘ले
जाओ,
अब न पीऊंगा। उन्हें मालूम होगा,
तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूं
मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?’
महराज ने
टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देखकर राय दिया करते थे। ख़ुद
सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है,
आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी
इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है,
तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भांपकर
कहा,
‘हरा
क्यों नहीं हुआ है,
हां, जितना होना चाहिए उतना नहीं
हुआ।’
महराज
बोले,
‘हां,
कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहुत
कम।’
वकील साहब
ने कुछ जवाब नहीं दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और
दस-पांच मिनट शांत अचेत पड़े रहते थे। कदाचित उन्हें अपनी दशा का यथार्थ
ज्ञान हो चुका था। उसके मुख पर,
बुद्धिपर, मस्तिष्क पर मृत्युकी
छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि
शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो उनका दम अब
पहले से ज्यादा फलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की सांस ऊपर ही रह जाती थी।
जान पड़ता था, बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना
होने लगती थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और
बढ़कर जीवन का अंत कर दे।
सामने
उद्यान में चांदनी द्दहरे की चादर ओढ़े,
ज़मीन पर पड़ी सिसक रही थी। फल और पौधो मलिन मुख,
सिर झुकाए, आशा और भय से विकल
हो-होकर मानो उसके वक्ष पर हाथ रखते थे, उसकी शीतल
देह को स्पर्श करते थे और आंसू की दो बूंदें गिराकर फिर उसी भांति देखने
लगते थे। सहसा वकील साहब ने आंखें खोलीं। आंखों के दोनों कोनों में आंसू की
बूंदें मचल रही थीं।
क्षीण
स्वर में बोले,
‘टीमल!
क्या सिद्धू आए थे?’
फिर इस
प्रश्न पर आप ही लज्जित हो मुस्कराते हुए बोले,
‘मुझे
ऐसा मालूम हुआ,
जैसे सिद्धू आए हों।’
फिर गहरी
सांस लेकर चुप हो गए,
और आंखें बंद कर लीं। सिद्धू उस बेटे का नाम था,
जो जवान होकर मर गया था। इस समय वकील साहब को बराबर उसी की
याद आ रही थी। कभी उसका बालपन सामने आ जाता, कभी
उसका मरना आगे दिखाई देने लगता,कितने
स्पष्ट,
कितने सजीव चित्र थे। उनकी स्मृति कभी इतनी मूर्तिमान,
इतनी चित्रमय न थी। कई मिनट के बाद उन्होंने फिर आंखें
खोलीं और इधर-उधर खोई हुई आंखों से देखा। उन्हें अभी ऐसा जान पड़ता था कि
मेरी माता आकर पूछ रही हैं, ‘बेटा,
तुम्हारा जी कैसा है?’
सहसा
उन्होंने टीमल से कहा,
‘यहां
आओ। किसी वकील को बुला लाओ,
जल्दी जाओ, नहीं वह घूमकर आती
होंगी।’
इतने में
मोटर का हार्न सुनाई दिया और एक पल में रतन आ पहुंची। वकील को बुलाने की
बात उड़ गई। वकील साहब ने प्रसन्न-मुख होकर पूछा,
‘कहां?कहां
गई?कुछ उसका पता मिला?’
रतन ने
उनके माथे पर हाथ रखते हुए कहा,
‘कई
जगह देखा। कहीं न दिखाई दिए। इतने बडे शहर में सड़कों का पता तो जल्दी चलता
नहीं,
वह भला क्या मिलेंगे। दवा खाने का समय तो आ गया न?’
वकील साहब
ने दबी ज़बान से कहा,
‘लाओ,
खा लूं।’
रतन ने
दवा निकाली और उन्हें उठाकर पिलाई। इस समय वह न जानेक्यों कुछ भयभीत-सी हो
रही थी। एक अस्पष्ट,
अज्ञात शंका उसके ह्रदय को दबाए हुए थी। एकाएक उसने कहा,
‘उन
लोगों में से किसी को तार दे दूं?’
वकील साहब
ने प्रश्न की आंखों से देखा। फिर आप ही आप उसका आशय समझकर बोले,
‘नहीं-नहीं,
किसी को बुलाने की जरूरत नहीं। मैं अच्छा हो रहा हूं।’
फिर एक
क्षण के बाद सावधान होने की चेष्टा करके बोले,
‘मैं
चाहता हूं कि अपनी वसीयत लिखवा दूं।’
जैसे एक
शीतल,
तीव्र बाण रतन के पैर से घुसकर सिर से निकल गया। मानो उसकी
देह के सारे बंधन खुल गए, सारे अवयव बिखर गए,
उसके मस्तिष्क के सारे परमाणु हवा में उड़ गए। मानो नीचे से
धारती निकल गई, ऊपर से आकाश निकल गया और अब वह
निराधार, निस्पंद, निर्जीव
खड़ी है। अवरूद्ध, अश्रुकंपित कंठ से बोली-घर से
किसी को बुलाऊं?
यहां किससे सलाह ली जाए?
कोई भी तो अपना नहीं है।
‘अपनों’
के लिए इस समय रतन अधीर हो रही थी। कोई भी तो अपना होता,
जिस पर वह विश्वास कर सकती, जिससे
सलाह ले सकती। घर के लोग आ जाते, तो दौड़-धूप करके
किसी दूसरे डाक्टर को बुलाते। वह अकेली क्या? क्या
करे- आख़िर भाई-बंद और किस दिन काम आवेंगे। संकट में ही अपने काम आते हैं।
फिर यह क्यों कहते हैं कि किसी को मत बुलाओ!
वसीयत की
बात फिर उसे याद आ गई! यह विचार क्यों इनके मन में आया?
वैद्य जी ने कुछ कहा तो नहीं? क्या होने वाला है,
भगवान! यह शब्द अपने सारे संसर्गो के साथ उसके ह्रदय को
विदीर्ण करने लगा। चिल्ला-चिल्लाकर रोने के लिए उसका मन विकल हो उठा। अपनी
माता याद आई। उसके अंचल में मुंह छिपाकर रोने की आकांक्षा उसके मन में
उत्पन्न हुई। उस स्नेहमय अंचल में रोकर उसकी बाल-आत्मा को कितना संतोष होता
था। कितनी जल्द उसकी सारी मनोव्यथा शांत हो जाती थी। आह! यह आधार भी अब
नहीं। महराज ने आकर कहा,
‘सरकार,
भोजन तैयार है। थाली परसूं?’
रतन ने
उसकी ओर कठोर नजरों से देखा। वह बिना जवाब की अपेक्षा किए चुपके-से चला
गया।
मगर एक ही
क्षण में रतन को महराज पर दया आ गई। उसने कौन-सी
बुराई की जो भोजन के लिए पूछने आया। भोजन भी ऐसी चीज़ है,
जिसे कोई छोड़ सके! वह रसोई में जाकर महराज से बोली,
‘तुम
लोग खा लो,
महराज! मुझे आज भूख नहीं लगी है।’
महराज ने
आग्रह किया,
‘दो
ही फुलके खा लीजिए,
सरकार!’
रतन ठिठक
गई। महराज के आग्रह में इतनी सह्रदयता,
इतनी संवेदना भरी हुई थी कि रतन को एक प्रकार की सांत्वना
का अनुभव हुआ। यहां कोई अपना नहीं है, यह सोचने में
उसे अपनी भूल प्रतीत हुई। महराज ने अब तक रतन को कठोर स्वामिनी के रूप में
देखा था। वही स्वामिनी आज उसके सामने खड़ी मानो सहानुभूति की भिक्षा मांग
रही थी। उसकी सारी सदवृत्तियां उमड़ उठीं।
रतन को
उसके दुर्बल मुख पर अनुराग का तेज़ नज़र आया। उसने पूछा,
‘क्यों
महराज,
बाबूजी को इस कविराज की दवा से कोई लाभ हो रहा है?’
महराज ने
डरते-डरते वही शब्द दुहरा दिए,
जो आज वकील साहब से कहे थे,कुछ-कुछतो
हो रहा है,
लेकिन जितना होना चाहिए उतना नहीं।
रतन ने
अविश्वास के अंदाज से देखकर कहा,तुम
भी मुझे धोखा देते हो,
महराज!
महराज की
आंखें डबडबा गई। बोले,
‘भगवान
सब अच्छा ही करेंगे बहूजी,
घबडाने से क्या होगा। अपना तो कोई बस नहीं है।’
रतन ने
पूछा,
‘यहां
कोई ज्योतिषी न मिलेगा?
ज़रा उससे पूछते। कुछ पूजापाठ भी करा लेने से अच्छा होता है।’
महराज ने
तुष्टि के भाव से कहा,
‘यह
तो मैं पहले ही कहने वाला था,
बहूजी! लेकिन बाबूजी का मिजाज तो जानती हो इन बातों से वह
कितना बिगड़ते हैं।’
रतन ने
दृढ़ता से कहा,
‘सबेरे
किसी को जरूर बुला लाना।’
‘सरकार
चिढ़ेंगे!’
‘मैं तो
कहती हूं।’
यह कहती
हुई वह कमरे में आई और रोशनी के सामने बैठकर जालपा को पत्र लिखने लगी,
‘बहन,
नहीं कह सकती, क्या होने वाला है।
आज मुझे मालूम हुआ है कि मैं अब तक मीठे भ्रम में पड़ी हुई थी। बाबूजी अब तक
मुझसे अपनी दशा छिपाते थे, मगर आज यह बात उनके काबू
से बाहर हो गई। तुमसे क्या कहूं, आज वह वसीयत लिखने
की चर्चा कर रहे थे। मैंने ही टाला। दिल घबडा रहा है ।हन,
जी चाहता है, थोड़ी-सी संखिया खाकर
सो रहूं। विधाता को संसार
दयालु,
कृपालु, दीन?बंधु
और जाने कौन?कौन?सी
उपाधियां देता है। मैं कहती हूं, उससे निर्दयी,
निर्मम, निष्ठुर कोई शत्रु भी नहीं
हो सकता पूर्वजन्म का संस्कार केवल मन को समझाने की चीज़ है। जिस दंड का
हेतु ही हमें न मालूम हो, उस दंड का मूल्य ही क्या!
वह तो ज़बर्दस्त की लाठी है, जो आघात करने के लिए
कोई कारण गढ़लेती है। इस अंधेरे, निर्जन,
कांटों से भरे हुए जीवन-मार्ग में
मुझे केवल एक टिमटिमाता हुआ दीपक मिला था। मैं उसे अंचल में छिपाए,
विधि को
धन्यवाद देती हुई,
गाती चली जाती थी, पर वह दीपक भी
मुझसे छीना जा रहा है। इस अंधकार में मैं कहां जाऊंगी,
कौन मेरा रोना सुनेगा, कौन मेरी
बांह पकड़ेगा। बहन, मुझे क्षमा करना। मुझे बाबूजी
का पता लगाने का अवकाश नहीं मिला। आज कई पार्को का चक्कर लगा आई,
पर कहीं पता नहीं चला। कुछ अवसर मिला तो फिर जाऊंगी।
‘ माताजी
को मेरा प्रणाम कहना। ‘
पत्र
लिखकर रतन बरामदे में आई। शीतल समीर के झोंके आ रहे थे। प्रकृति मानो
रोग-शय्या पर पड़ी सिसक रही थी। उसी वक्त वकील साहब की सांस वेग से चलने
लगी।
तीस
रात के
तीन बज चुके थे। रतन आधी रात के बाद आरामकुर्सी पर लेटे ही लेटे झपकियां
ले रही थी कि सहसा वकील साहब के गले का खर्राटा सुनकर चौकं पड़ी। उल्टी
सांसें चल रही थीं। वह उनके सिरहाने चारपाई पर बैठ गई और उनका सिर उठाकर
अपनी जांघ पर रख लिया। अभी न जाने कितनी रात बाकी है। मेज़ पर रखी हुई छोटी
घड़ी की ओर देखा। अभी तीन बजे थे। सबेरा होने में चार घंटे की देर थी।
कविराज कहीं नौ बजे आवेंगे! यह सोचकर वह हताश
हो गई।
अभागिनी रात क्या अपना काला मुंह लेकर विदा न होगी! मालूम होता है,
एक युग हो गया! कई मिनट के बाद वकील साहब की सांस रूकी।
सारी देह पसीने में तर थी। हाथ से रतन को हट जाने का इशारा किया और तकिए पर
सिर रखकर फिर आंखें बंद कर लीं।
एकाएक
उन्होंने क्षीण स्वर में कहा,रतन—‘
अब विदाई का समय आ गया। मेरे अपरा के---‘
उन्होंने
दोनों हाथ जोड़ लिए और उसकी ओर दीन याचना की आंखों से देखा। कुछ कहना चाहते
थे,
पर मुंह से आवाज़ न निकली।
रतन ने
चीखकर कहा,
‘टीमल,
महराज, क्या दोनों मर गए?’
महराज ने
आकर कहा,
‘मैं
सोया थोड़े ही था बहूजी,
क्या बाबूजी?’
रतन ने
डांटकर कहा,
‘बको
मत,
जाकर कविराज को बुला लाओ, कहना अभी
चलिए।’
महराज ने
तुरंत अपना पुराना ओवरकोट पहना,
सोटा उठाया और चल दिया। रतन उठकर स्टोव जलाने लगी कि शायद
सेंक से कुछ फायदा हो उसकी सारी घबराहट, सारी
दुर्बलता, सारा शोक मानो लुप्त हो गया। उसकी जगह एक
प्रबल आत्मर्निभरता का उदय हुआ। कठोर कर्तव्य ने उसके सारे अस्तित्व को
सचेत कर दिया। स्टोव जलाकर उसने रूई के गाले से छाती को सेंकना शुरू किया।
कोई पंद्रह मिनट तक ताबड़तोड़ सेंकने के बाद वकील साहब की सांस कुछ थमी।
आवाज़ काबू
में हुई। रतन के दोनों हाथ अपने गालों पर रखकर बोले,
‘तुम्हें
बडी तकलीफ हो रही है मुन्नी! क्या जानता था,
इतनी जल्द यह समय आ जाएगा। मैंने तुम्हारे साथ बडा अन्याय
किया है, प्रिये! ओह कितना बडा अन्याय! मन की सारी
लालसा मन में रह गई। मैंने तुम्हारे जीवन का सर्वनाश कर दिया,क्षमा
करना।‘
यही अंतिम
शब्द थे जो उनके मुख से निकले। यही जीवन का अंतिम सूत्र था,
यही मोह का अंतिम बंधन था।
रतन ने
द्वार की ओर देखा। अभी तक महराज का पता न था। हां,
टीमल खडा था,और
सामने अथाह अंधकारजैसे अपने जीवन की अंतिम वेदना से मूर्छित पडा था।
रतन ने
कहा,
‘टीमल,
ज़रा पानी गरम करोगे?’
टीमल ने
वहीं खड़े-खड़े कहा,
‘पानी
गरम करके क्या करोगी बहूजी,
गोदान करा दो। दो बूंद गंगाजल मुंह में डाल दो।’
रतन ने
पति की छाती पर हाथ रक्खा। छाती गरम थी। उसने फिर द्वार की ओर ताका। महराज
न दिखाई दिए। वह अब भी सोच रही थी,
कविराजजी आ जाते तो शायद इनकी हालत संभल जाती। पछता रही थी
कि इन्हें यहां क्यो लाई- कदाचित रास्ते की तकलीग और जलवायु ने बीमारी को
असाध्य कर दिया। यह भी पछतावा हो रहा था कि मैं संध्या समय क्यों घूमने चली
गई। शायद उतनी ही देर में इन्हें ठंड लग गई। जीवन एक दीर्घ पश्चाताप के
सिवा
और क्या
है! पछतावे की एक-दो बात थी! इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम
पहुंचाया- वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थे,
मैं पड़ी सोती रहती थी। वह संध्या समय भी मुवक्किलों से मामले की बातें करते
थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी,
बाज़ारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के
एक यंत्र के सिवा और क्या समझा! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैठूं
और बातें करूं, पर मैं भागती फिरती थी। मैंने
कभी इनके
ह्रदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की,
कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न
जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनंद उठाती गिरी,मनोरंजन
के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन,
यही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शांत करके मैं
संतुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझे मिली,
इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी। आज रतन को
उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इस विदा होने
वाली आत्मा को उससे था,वह
इस समय भी उसी की चिंता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनंद
था,
कुछ रूचि थी, कुछ उत्साह था। इनके
लिए जीवन में कौन?सा सुख था। न खाने-पीने का सुख,
न मेले-तमाशे का शौक। जीवन क्या,
एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य
का पालन था?
क्या रतन
उनका जीवन सुखी न बना सकती थी?
क्या एक क्षण के लिए कठोर कर्तव्य की चिंताओं से उन्हें मुक्त न कर सकती थी?
कौन कह सकता है कि विराम और विश्राम से यह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न
प्रकाशमान रहता। लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा।
उसकी अंतरात्मा सदैव विद्रोह करती रही, केवल इसलिए
कि इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ?
क्या उस
विषय में सारा अपराध इन्हीं का था! कौन कह सकता है कि दरिद्र मातापिता
ने मेरी
और भी दुर्गति न की होती,जवान
आदमी भी सब-के-सब क्या आदर्श ही होते हैं?उनमें
भी तो व्यभिचारी, क्रोधी,
शराबी सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय
मैं किस दशा में होती। रतन का एक-एक रोआं इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था।
उसने पति के शीतल चरणों पर सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे
कठोर भाव जो
बराबर
उसके मन में उठते रहते थे,
वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे,
इस समय सैकड़ों बिच्छुओं के समान उसे डंक मार रहे थे। हाय!
मेरा यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की
भांति गंभीर था। इस ह्रदय में कितनी कोमलता थी,
कितनी उदारता! मैं एक बीडापान दे देती थी, तो कितना
प्रसन्न हो जाते थे। ज़रा हंसकर बोल देती थी, तो
कितने तृप्त हो जाते थे, पर मुझसे इतना भी न होता
था। इन बातों को याद कर-करके उसका ह्रदय फटा जाता था। उन चरणों पर सिर
रक्खे हुए उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि मेरे प्राण
इसी क्षण
निकल जायें। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके उसके ह्रदय में कितना अनुराग
उमडाआता था,
मानो एक युग की संचित निधि को वह आज ही,
इसी क्षण, लुटा देगी। मृत्युकी
दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अंदर का सारा मालिन्य,
सारी दुर्भावना, सारा विक्रोह मिट गया था। वकील
साहब की आंखें खुली हुई थीं, पर मुख पर किसी भाव का
चिन्ह न था। रतन की विह्नलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर
सकती थी। हर्ष और शोक के बंधन से वह मुक्त हो गए थे,
कोई रोए तो ग़म नहीं, हंसे तो ख़ुशी
नहीं। टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुंह में डाल दिया। आज उन्होंने
कुछ बाधा न दी। वह जो पाखंडों और रूढियों का शत्रु था,
इस समय शांत हो गया था, इसलिए नहीं
कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि
इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से
वह विष का
घूंट पी जाता। मानव-जीवन की सबसे महान घटना कितनी शांति के साथ घटित हो
जाती है।
वह विश्व का एक महान अंग,
वह महत्तवाकांक्षाओं का प्रचंड सागर,
वह उद्योग का अनंत भंडार, वह प्रेम और द्वेष,
सुख और दुःख का लीला-क्षेत्र, वह
बुद्धि और बल की रंगभूमि न जाने कब और कहां लीन हो जाती है,
किसी को ख़बर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक
उच्छवास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती! सागर की
हिलोरों का कहां अंत होता है, कौन बता सकता है।
ध्वनि कहां वायु-मग्न हो जाती है, कौन जानता है।
मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और
क्या है! उसका अवसान भी उतना ही शांत, उतना ही
अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है। भूतों के भक्त पूछते हैं,
क्या वस्तु निकल गई?कोई विज्ञान का
उपासक कहता है, एक क्षीण ज्योति निकल जाती है।
कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आंखों से प्राण
निकले, मुंह से निकले, ब्रह्मांड
से निकले। कोई उनसे पूछे,
हिलोर लय होते समय क्या चमक
उठती है?
ध्वनि लीन होते समय क्या मूर्तिमान हो जाती है? यह
उस अनंत यात्रा का एक विश्राम मात्र है, जहां
यात्रा का अंत नहीं, नया उत्थान होता है। कितना
महान परिवर्तन! वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था,
अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो,
चाहे अग्नि-चिता पर रख दो, उसके माथे पर बल तक न
पड़ेगा।
टीमल ने
वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा,
‘बहूजी,
आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गए!’
यह कहकर
वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आंखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस
वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कही,
कभी तू करके नहीं पुकारा, वह मालिक
अब उसे छोड़े चला जा रहा था।
रतन अभी
तक कविराज की बाट जोह रही थी। टीमल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा
लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रक्खा।
साठ वर्ष
तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर
हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह को स्पर्श करते हुए,
उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हुए, उसे ऐसा विराग हो
रहा था, जो ग्लानि से मिलता था। अभी जिन चरणों पर
सिर रखकर वह रोई थी, उसे छूते हुए उसकी उंगलियां
कटी-सी जाती थीं। जीवन?साू इतना कोमल है,
उसने कभी न समझा था। मौत का ख़याल कभी उसके मन में न आया
था। उस मौत ने आंखों के सामने उसे लूट लिया! एक क्षण के बाद टीमल ने कहा,
‘बहूजी,
अब क्या देखती हो, खाट के
नीचे उतार
दो। जो होना था हो गया।’
उसने पैर
पकडा,
रतन ने सिर पकडाऔर दोनों ने शव को नीचे लिटा दिया और वहीं
ज़मीन पर बैठकर रतन रोने लगी, इसलिए नहीं कि संसार
में अब उसके लिए कोई अवलंब न था, बल्कि इसलिए कि वह
उसके साथ अपने कर्तव्य को पूरा न कर सकी। उसी वक्त मोटर की आवाज़ आई और
कविराजजी ने पदार्पण किया। कदाचित अब भी रतन के ह्रदय में कहीं आशा की कोई
बुझती हुई चिनगारी पड़ी हुई थी! उसने तुरंत आंखें पोंछ डालीं,
सिर का अंचल संभाल लिया, उलझे हुए
केश समेट लिये और खड़ी होकर द्वार की ओर देखने लगी। प्रभात ने आकाश को अपनी
सुनहली किरणों से रंजित कर दिया था। क्या इस आत्मा के नव-जीवन का यही
प्रभात था।
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