अबकी सुधा के साथ निर्मला को भी आना पड़ा। वह तो मैके में कुछ दिन और
रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रही! उसको आखिर आना ही
पड़ा। रुक्मिणी ने भूंगी से कहा- देखती है, बहू मैके से कैसा निखरकर
आयी है!
भूंगी ने कहा- दीदी, मां के हाथ की रोटियां लड़कियों को बहुत अच्छी
लगती है।
रुक्मिणी- ठीक कहती है भूंगी, खिलाना तो बस मां ही जानती है।
निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं।
मुंशीजी ने खुशी तो बहुत दिखाई, पर हृदयगत चिनता को न छिपा सके।
बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था। वह आशा की मूर्ति-सी थी भी।
देखकर सारी चिन्ता भाग जाती थी। मुंशीजी ने उसे गोद में लेना चाहा,
तो रोने लगी, दौड़कर मां से लिपट गयी, मानो पिता को पहचानती ही नहीं।
मुंशीजी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा। घर में कोई नौकर तो था
नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयां लाने को कहा।
जियराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा- हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयां
नहीं आतीं।
मंशीजी ने झुंझलाकर कहा- तुम लोग बच्चे नहीं हो।
जियाराम- और क्या बूढ़े हैं? मिठाइयां मंगवाकर रख दीजिए, तो मालूम हो
कि बच्चे हैं या बूढ़े। निकालिए चार आना और आशा के बदौलत हमारे नसीब
भी जागें।
मुंशीजी- मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं है। जाओ सिया, जल्द जाना।
जियाराम- सिया नहीं जाएेगा। किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की
बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है।
मुंशीजी- क्या फजूज की बातें करते हो। नन्हीं-सी बच्ची की बराबरी
करते तुम्हें शर्म नही आती? जाओ सियाराम, ये पैसे लो।
जियाराम- मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर नहीं हो।
सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने
जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क
देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फरियाद लेकर जाएेगा। बोला-
मैं न जाऊंगा।
मुंशीजी ने धमकाकर कहा- अच्छा, तो मेरे पास फिर कोई चीज मांगने मत
आना।
मुंशीजी खुद बाजार चले गये और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे। दो आने
की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल
में क्या कहेगा?
मिठाई लिए हुए मुंशीजी अन्दर चले गये। सियाराम ने मिठाई का बड़ा-सा
दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुख हुआ। अब वह किस मुंह
से मिठाई लेने अन्द जाएेगा। बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन जियाराम को
चोटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा।
सहसा भूंगी ने दो तश्तरियां दोनो के सामने लाकर रख दीं। जियाराम ने
बिगड़कर कहा- इसे उठा ले जा!
भूंगी- काहे को बिगड़ता हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?
जियाराम- मिठाई आशा के लिए आयी है, हमारे लिए नहीं आयी? ले जा, नहीं
तो सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते ह। औ यहां
रुपये की मिठाई आती है।
भूंगी- तुम ले लो सिया बाबू, यह न लेंगे न सहीं।
सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डांटकर कहा- मत
छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा। लालची कहीं का!
सियाराम यह धुड़की सुनकर सहम उठा, मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी।
निर्मला ने यह कथा सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशजी ने
कड़ी कसम रख दी।
निर्मला- आप समझते नहीं है। यह सारा गुस्सा मुझ पर है।
मुंशीजी- गुस्ताख हो गया है। इस खयाल से कोई सख्ती नहीं करता कि लोग
कहेंगे, बिना मां के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी
भर में निकाल दूं।
निर्मला- इसी बदनामी का तो मुझे डर है।
मुंशीजी- अब न डरुंगा, जिसके जी में जो आये कहे।
निर्मला- पहले तो ये ऐसे न थे।
मुंशीजी- अजी, कहता है कि आपके लड़के मौजूद थे, आपने शादी क्यों की!
यह कहते भी इसे संकोच नहीं हाता कि आप लोगों ने मंसाराम को विष दे
दिया। लड़का नहीं है, शत्रु है।
जियाराम द्वार पर छिपकर खड़ा था। स्त्री-पुरुष मे मिठाई के विषय मे
क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था। मुंशीजी का अन्तिम वाक्य
सुनकर उससे न रहा गया। बोल उठा- शत्रु न होता, तो आप उसके पीछे क्यों
पड़ते? आप जो इस वक्त कर हरे हैं, वह मैं बहुत पहले समझे बैठा हूं।
भैया न समझ थे, धोखा ख गये। हमारे साथ आपकी दाला न गलेगी। सारा जमाना
कह रहा है कि भाई साहब को जहर दिया गया है। मैं कहता हूं तो आपको
क्यों गुस्सा आता है?
निर्मला तो सन्नाटे में आ गयी। मालूम हुआ, किसी ने उसकी देह पर
अंगारे डाल दिये। मंशजी ने डांटकर जियाराम को चुप कराना चाहा,
जियाराम नि:शं खड़ा ईंट का जवाब पत्थर से देता रहा। यहां तक कि
निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा, किसी काम का न काज
का, यो खड़ा टर्रा रहा है, जैसे घर भर का पालन-पोषण यही करता हो।
त्योंरियां चढ़ाकर बोली- बस, अब बहुत हुआ जियाराम, मालूम हो गया, तुम
बड़े लायक हो, बाहर जाकर बैठो।
मुंशीजी अब तक तो कुछ दब-दबकर बोलते रहे, निर्मला की शह पाई तो दिल
बढ़ गया। दांत पीसकर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़
सकें, एक थप्पड़ चला ही दिया। थप्पड़ निर्मला के मुंह पर पड़ा, वही
सामने पडी। माथा चकरा गया। मुंशीजी ने सूखे हाथों में इतनी शक्ति है,
इसका वह अनुमान न कर सकती थी। सिर पकड़कर बैठ गयी। मुंशीजी का क्रोध
और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया पर अबकी जियाराम ने उनका हाथ पकड़
लिया और पीछे ढकेलकर बोला- दूर से बातें कीजिए, क्यांे नाहक अपनी
बेइज्जती करवाते हैं? अम्मांजी का लिहाज कर रहा हूं, नहीं तो दिखा
देता।
यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुंशीजी संज्ञा-शून्य से खड़े रहे। इस
वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक
आनन्द होता। जिस पुत्र का कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के
प्रति आज भांति-भांति की दुष्कल्पनाएं मन में आ रही थीं।
रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थी। अब आकर बोली-बेटा आपने बराबर
का हो जाएे तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए।
मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा- मैं इसे घर से निकालकर छोडूंगा। भीख मांगे
या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं।
रुक्मिणी- नाक किसकी कटेगी?
मुंशीजी- इसकी चिन्ता नहीं।
निर्मला- मैं जानती कि मेरे आने से यह तुफान खड़ा हो जाएेगा, तो
भूलकर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे न
रहा जाएेगा।
रुक्मिणी- तुम्हारा बहुत लिहाज करता है बहू, नहीं तो आज अनर्थ ही हो
जाता।
निर्मला- अब और क्या अनर्थ होगा दीदीजी? मैं तो फूंक-फूंककर पांव
रखती हूं, फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पांव रखते देर नहीं
हुई और यह हाल हो गेया। ईश्वर ही कुशल करे।
रात को भोजन करने कोई न उठा, अकेले मुंशीजी ने खाया। निर्मला को आज
नयी चिन्ता हो गयी- जीवन कैसे पार लगेगा? अपना ही पेट होता तो विशेष
चिन्ता न थी। अब तो एक नयी विपत्ति गले पड़ गयी थी। वह सोच रही थी-
मेरी बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम?
चिन्ता में नींद कब आती है? निर्मला चारपाई पर करवटें बदल रही थी।
कितना चाहती थी कि नींद आ जाएे, पर नींद ने न आने की कसम सी खा ली
थी। चिराग बुझा दिया था, खिड़की के दरवाजे खोल दिये थे, टिक-टिक करने
वाली घड़ी भी दूसरे कमरे में रख आयीय थी, पर नींद का नाम था। जितनी
बातें सोचनी थीं, सब सोच चुकी, चिन्ताओं का भी अन्त हो गया, पर पलकें
न झपकीं। तब उसने फिर लैम्प जलाया और एक पुस्तक पढ़ने लगी। दो-चार ही
पृष्ठ पढ़े होंगे कि झपकी आ गयी। किताब खुली रह गयी।
सहसा जियाराम ने कमरे में कदम रखा। उसके पांव थर-थर कांप रहे थे।
उसने कमरे मे ऊपर-नीचे देखा। निर्मला सोई हुई थी, उसके सिरहाने ताक
पर, एक छोटा-सा पीतल का सन्दूकचा रक्खा हुआ था। जियाराम दबे पांव
गया, धीरे से सन्दूकचा उतारा और बड़ी तेजी से कमरे के बाहर निकला।
उसी वक्त निर्मला की आंखें खुल गयीं। चौंककर उठ खड़ी हुई। द्वार पर
आकर देखा। कलेजा धक् से हो गया। क्या यह जियाराम है? मेरे केमरे मे
क्या करने आया था। कहीं मुझे धोखा तो नहीं हुआ? शायद दीदीजी के कमरे
से आया हो। यहां उसका काम ही क्या था? शायद मुझसे कुछ कहने आया हो,
लेकिन इस वक्त क्या कहने आया होगा? इसकी नीयत क्या है? उसका दिल कांप
उठा।
मुंशीजी ऊपर छत पर सो रहे थे। मुंडेर न होने के कारण निर्मला ऊपर न
सो सकती थी। उसने सोचा चलकर उन्हें जगाऊं, पर जाने की हिम्मत न पड़ी।
शक्की आदमी है, न जाने क्या समझ बैठें और क्या करने पर तैयार हो
जाएें? आकर फिर पुस्तक पढ़ने लगी। सबेरे पूछने पर आप ही मालूम हो
जाएेगा। कौन जाने मुझे धोखा ही हुआ हो। नींद मे कभी-कभी धोखा हो जाता
है, लेकिन सबेरे पूछने का निश्चय कर भी उसे फिर नींद नहीं आयी।
सबेरे वह जलपान लेकर स्वयं जियाराम के पास गयी, तो वह उसे देखकर चौंक
पड़ा। रोज तो भूंगी आती थी आज यह क्यों आ रही है? निर्मला की ओर
ताकने की उसकी हिम्मत न पड़ी।
निर्मला ने उसकी ओर विश्वासपूर्ण नेत्रों से देखकर पूछा- रात को तुम
मेरे कमरे मे गये थे?
जियाराम ने विस्मय दिखाकर कहा- मैं? भला मैं रात को क्या करने जाता?
क्या कोई गया था?
निर्मला ने इस भाव से कहा, मानो उसे उसकी बात का पूरी विश्वास हो
गया- हां, मुझे ऐसा मालूम हुआ कि कोई मेरे कमरे से निकला। मैंने उसका
मुंह तो न देखा, पर उसकी पीठ देखकर अनुमान किया कि शयद तुम किसी काम
से आये हो। इसका पता कैसे चले कौन था? कोई था जरुर इसमें कोई सन्देह
नहीं।
जियाराम अपने को निरपराध सिद्व करने की चेष्टा कर कहने लगा- मै। तो
रात को थियेटर देखने चला गया था। वहां से लौटा तो एक मित्र के घर लेट
रहा। थोड़ी देर हुई लौटा हूं। मेरे साथ और भी कई मित्र थे। जिससे जी
चाहे, पूछ लें। हां, भाई मैं बहुत डरता हूं। ऐसा न हो, कोई चीज गायब
हो गयी, तो मेरा नामे लगे। चोर को तो कोई पकड़ नहीं सकता, मेरे मत्थे
जाएेगी। बाबूजी को आप जानती हैं। मुझो मारने दौडेंगे।
निर्मला- तुम्हारा नाम क्यों लगेगा? अगर तुम्हीं होते तो भी तुम्हें
कोई चोरी नहीं लगा सकता। चोरी दूसरे की चीज की जाती है, अपनी चीज की
चोरी कोई नहीं करता।
अभी तक निर्मला की निगाह अपने सन्दूकचे पर न पड़ी थी। भोजन बनाने
लगी। जब वकील साहब कचहरी चले गये, तो वह सुधा से मिलने चली। इधर कई
दिनों से मुलाकात न हुई थी, फिर रातवाली घटना पर विचार परिवर्तन भी
करना था। भूंगी से कहा- कमरे मे से गहनों का बक्स उठा ला।
भूंगी ने लौटकर कहा- वहां तो कहीं सन्दूक नहीं हैं। ककहां रखा था?
निर्मला ने चिढ़कर कहा- एक बार में तो तेरा काम ही कभी नहीं होता।
वहां छोड़कर और जाएेगा कहां। आलमारी में देखा था?
भूंगी- नहीं बहूजी, आलमारी में तो नहीं देखा, झूठ क्यों बोलूं?
निर्मला मुस्करा पड़ी। बोली- जा देख, जल्दी आ। एक क्षण में भूंगी फिर
खाली हाथ लौट आयी- आलमारी में भी तो नहीं है। अब जहां बताओ वहां
देखूं।
निर्मला झुंझलाकर यह कहती हुई उठ खड़ी हुई- तुझे ईश्वर ने आंखें ही न
जाने किसलिए दी! देख, उसी कमरे में से लाती हूं कि नहीं।
भूंगी भी पीछे-पीछे कमरे में गयी। निर्मला ने ताक पर निगाह डाली,
अलमारी खोलकर देखी। चारपाई के नीचे झांककार देखा, फिर कपड़ों का बडा
संदूक खोलकर देखा। बक्स का कहीं पता नहीं। आश्चर्य हुआ, आखिर बक्सा
गया कहां?
सहसा रातवाली घटना बिजली की भांति उसकी आंखों के सामने चमक गयी।
कलेजा उछल पड़ा। अब तक निश्चिन्त होकर खोज रही थी। अब ताप-सा चढ़
आया। बड़ी उतावली से चारों ओर खोजने लगी। कहीं पता नहीं। जहां खोजना
चाहिए था, वहां भी खोजा और जहां नहीं खोजना चाहिए था, वहां भी खोजा।
इतना बड़ा सन्दूकचा बिछावन के नीचे कैसे छिप जाता? पर बिछावन भी
झाड़कर देखा। क्षण-क्षण मुख की कान्ति मलिन होती जाती थी। प्राण नहीं
मे समाते जाते थे। अनत में निराशा होकर उसने छाती पर एक घूंसा मारा
और रोने लगी।
गहने ही स्त्री की सम्पत्ति होते हैं। पति की और किसी सम्पत्ति पर
उसका अधिकार नहीं होता। इन्हीं का उसे बल और गौरव होता है। निर्मला
के पास पांच-छ: हजार के गहने थे। जब उन्हें पहनकर वह निकलती थी, तो
उतनी देर के लिए उल्लास से उसका हृदय खिला रहता था। एक-एक गहना मानो
विपत्ति और बाधा से बचाने के लिए एक-एक रक्षास्त्र था। अभी रात ही
उसने सोचा था, जियाराम की लौंडी बनकर वह न रहेगी। ईश्वर न करे कि वह
किसी के सामने हाथ फैलाये। इसी खेवे से वह अपनी नाव को भी पार लगा
देगी और अपनी बच्ची को भी किसी-न-किसी घाट पहुंचा देगी। उसे किस बात
की चिन्त है! उन्हें तो कोई उससे न छीन लेगा। आज ये मेरे सिंगार हैं,
कल को मेरे आधार हो जाएेंगे। इस विचार से उसके हृदय को कितनी
सान्तवना मिली थी! वह सम्पत्ति आज उसके हाथ से निकल गयी। अब वह
निराधार थी। संसार उसे कोई अवलम्ब कोई सहारा न था। उसकी आशाओं का
आधार जड़ से कट गया, वह फूट-फूटकर रोने लगी। ईश्चर! तुमसे इतना भी न
देखा गया? मुझ दुखिया को तुमने यों ही अपंग बना दिया थ, अब आंखे भी
फोड़ दीं। अब वह किसके सामने हाथ फैलायेगी, किसके द्वार पर भीख
मांगेगी। पसीने से उसकी देह भीग गयी, रोते-रोते आंखे सूज गयीं।
निर्मला सिर नीचा किये रा रही थी। रुक्मिणी उसे धीरज दिला रही थीं,
लेकिन उसके आंसू न रुकते थे, शोके की ज्वाल केम ने होती थी।
तीन बजे जियाराम स्कूल से लौटा। निर्मला उसने आने की खबर पाकर
विक्षिप्त की भांति उठी और उसके कमरे के द्वार पर आकर बोली-भैया,
दिल्लगी की हो तो दे दो। दुखिया को सताकर क्या पाओगे?
जियाराम एक क्षण के लिए कातर हो उठा। चोर-कला में उसका यह पहला ही
प्रयास था। यह कठारेता, जिससे हिंसा में मनोरंजन होता है अभी तक उसे
प्राप्त न हुई थी। यदि उसके पास सन्दूकचा होता और फिर इतना मौका
मिलता कि उसे ताक पर रख आवे, तो कदाचित् वह उसे मौके को न छोड़ता,
लेकिन सन्दूक उसके हाथ से निकल चुका था। यारों ने उसे सराफें में
पहुंचा दिया था और औने-पौने बेच भी डाला थ। चोरों की झूठ के सिवा और
कौन रक्षा कर सकता है। बोला-भला अम्मांजी, मैं आपसे ऐसी दिल्लगी
करुंगा? आप अभी तक मुझ पर शक करती जा रही हैं। मैं कह चुका कि मैं
रात को घर पर न था, लेकिन आपको यकीन ही नहीं आता। बड़े दु:ख की बात
है कि मुझे आप इतना नीच समझती हैं।
निर्मला ने आंसू पोंछते हुए कहा- मैं तुम्हारे पर शक नहीं करती भैया,
तुम्हें चोरी नहीं लगाती। मैंने समझा, शायद दिल्लगी की हो।
जियाराम पर वह चोरी का संदेह कैसे कर सकती थी? दुनिया यही तो कहेगी
कि लड़के की मां मर गई है, तो उस पर चोरी का इलजाम लगाया जा रहा है।
मेरे मुंह मे ही तो कालिख लगेगी!
जियाराम ने आश्वासन देते हुए कहा- चलिए, मैं देखूं, आखिर ले कौन गया?
चोर आया किस रास्ते से?
भूंगी- भैया, तुम चोरों के आने को कहते हो। चूहे के बिल से तो निकल
ही आते हैं, यहां तो चारो ओर ही खिड़कियां हैं।
जियाराम- खूब अच्छी तरह तलाश कर लिया है?
निर्मला- सारा घर तो छान मारा, अब कहां खोजने को कहते हो?
जियाराम- आप लोग सो भी तो जाती हैं मुर्दों से बाजी लगाकर।
चार बजे मुंशीजी घर आये, तो निर्मला की दशा देखकर पूछा- कैसी तबीयत
है? कहीं दर्द तो नहीं है? कह कहकर उन्होंने आशा को गोद में उठा
लिया।
निर्मला कोई जवाब न दे सकी, फिर रोने लगी।
भूंगी ने कहा- ऐसा कभी नहीं हुआ था। मेरी सारी उर्म इसी घर मं कट
गयी। आज तक एक पैसे की चोरी नहीं हुई। दुनिया यही कहेगी कि भूंगी का
कोम है, अब तो भगेवान ही पत-पानी रखें।
मुंशीजी अचकन के बटन खोल रहे थे, फिर बटन बन्द करते हुए बोले- क्या
हुआ? कोई चीज चोरी हो गयी?
भूंगी- बहूजी के सारे गहने उठ गये।
मुंशीजी- रखे कहां थे?
निर्मला ने सिसकियां लेते हुए रात की सारी घटना बयाना कर दी, पर
जियाराम की सूरत के आदमी के अपने कमरे से निकलने की बात न कही।
मुंशीजी ने ठंडी सांस भरकर कहा- ईश्वर भी बड़ा अन्यायी है। जो मरे
उन्हीं को मारता है। मालूम होता है, अदिन आ गये हैं। मगर चोर आया तो
किधर से? कहीं सेंध नहीं पड़ी और किसी तरफ से आने का रास्ता नहीं।
मैंने तो कोई ऐसा पाप नहीं किया, जिसकी मुझे यह सजा मिल रही है।
बार-बार कहता रहा, गहने का सन्दूकचा ताक पर मत रखो, मगेर कौन सुनता
है।
निर्मला- मैं क्या जानती थी कि यह गजब टूट पड़ेगा!
मुंशीजी- इतना तो जानती थी कि सब दिन बराबर नहीं जाते। आज बनवाने
जाऊं, तो इस हजार से कम न लगेंगे। आजकल अपनी जो दशा है, वह तुमसे
छिपी नहीं, खर्च भर का मुश्किल से मिलता है, गहने कहां से बनेंगे।
जाता हूं, पुलिस में इत्तिला कर आता हूं, पर मिलने की उम्मीद न समझो।
निर्मला ने आपत्ति के भाव से कहा- जब जानते हैं कि पुलिस में इत्तिला
करने से कुद न होगा, तो क्यों जा रहे हैं?
मुंशीजी- दिल नहीं मानता और क्या? इतना बड़ा नुकसान उठाकर चुपचाप तो
नहीं बैठ जाता।
निर्मला- मिलनेवाले होते, तो जाते ही क्यों? तकदीर में न थे, तो कैसे
रहते?
मुंशीजी- तकदीर मे होंगे, तो मिल जाएेंगे, नहीं तो गये तो हैं ही।
मुंशीजी कमरे से निकले। निर्मला ने उनका हाथ पकड़कर कहा- मैं कहती
हूं, मत जाओ, कहीं ऐसा न हो, लेने के देने पड़ जाएें।
मुंशीजी ने हाथ छुड़ाकर कहा- तुम भी बच्चों की-सी जिद्द कर रही हो।
दस हजार का नुकसान ऐसा नहीं है, जिसे मैं यों ही उठा लूं। मैं रो
नहीं रहा हूं, पर मेरे हृदय पर जो बीत रही है, वह मैं ही जानता हूं।
यह चोट मेरे कलेजे पर लगी है। मुंशीजी और कुछ न कह सके। गला फंस गया।
वह तेजी से कमरे से निकल आये और थाने पर जा पहुँचे। थानेदार उनका
बहुत लिहाज करता था। उसे एक बार रिश्वत के मुकदमे से बरी करा चुके
थे। उनके साथ ही तफ्तीश करने आ पहुंचा। नाम था अलायार खां।
शाम हो गयी थी। थानेदार ने मकान के अगवाड़े-पिछवाड़े घूम-घूमकर देखा।
अन्दर जाकर निर्मला के कमरे को गौर से देखा। ऊपर की मुंडेर की जांच
की। मुहल्ले के दो-चार आदमियों से चुपके-चुपके कुछ बातें की और तब
मुंशीजी से बोले- जनाब, खुदा की कसम, यह किसी बाहर के आदमी का काम
नहीं। खुदा की कसम, अगर कोई बाहर की आमदी निकले, तो आज से थानेदारी
करना छोड़ दूं। आपके घर में कोई मुलाजिम ऐसा तो नहीं है, जिस पर आपको
शुबहा हो।
मुंशीजी- घर मे तो आजकल सिर्फ एक महरी है।
थानेदार-अजी, वह पगली है। यह किसी बड़े शातिर का काम है, खुदा की
कसम।
मुंशीजी- तो घर में और कौन है? मेरे दोने लड़के हैं, स्त्री है और
बहन है। इनमें से किस पर शक करुं?
थानेदार- खुदा की कसम, घर ही के किसी आदमी का काम है, चाहे, वह कोई
हो, इन्शाअल्लाह, दो-चार दिन में मैं आपको इसकी खबर दूंगा। यह तो
नहीं कह सकता कि माल भी सब मिल जाएेगा, पर खुदा की कसम, चोर जरुर
पकड़ दिखाऊंगा।
थानेदार चला गया, तो मुंशीजी ने आकर निर्मला से उसकी बातें कहीं।
निर्मला सहम उठी- आप थानेदार से कह दीजिए, तफतीश न करें, आपके पैरों
पड़ती हूं।
मुंशीजी- आखिर क्यों?
निर्मला- अब क्यों बताऊं? वह कह रहा है कि घर ही के किसी का काम है।
मुंशीजी- उसे बकने दो।
जियाराम अपने कमरे में बैठा हुआ भगवान् को याद कर रहा था। उसक मुंह
पर हवाइयां उड़ रही थीं। सुन चुका थाकि पुलिसवाले चेहरे से भांप जाते
हैं। बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ती थी। दोनों आदमियों में क्या
बातें हो रही हैं, यह जानने के लिए छटपटा रहा था। ज्योंही थानेदार
चला गया और भूंगी किसी काम से बाहर निकली, जियाराम ने पूछा-थानेदार
क्या कर रहा था भूंगी?
भूंगी ने पास आकर कहा- दाढ़ीजार कहता था, घर ही से किसी आदमी का काम
है, बाहर को कोई नहीं है।
जियाराम- बाबूजी ने कुछ नहीं कहा?
भूंगी- कुछ तो नहीं कहा, खड़े ‘हूं-हूं’ करते रहे। घर मे एक भूंगी ही
गैर है न! और तो सब अपने ही हैं।
जियाराम- मैं भी तो गैर हूं, तू ही क्यों?
भूंगी- तुम गैर काहे हो भैया?
जियाराम- बाबूजी ने थानेदार से कहा नहीं, घर में किसी पर उनका शुबहा
नहीं है।
भूंगी- कुछ तो कहते नहीं सुना। बेचारे थानेदार ने भले ही कहा- भूंगी
तो पगली है, वह क्या चोरी करेगी। बाबूजी तो मुझे फंसाये ही देते थे।
जियाराम- तब तो तू भी निकल गयी। अकेला मैं ही रह गया। तू ही बता,
तूने मुझे उस दिन घर में देखा था?
भूंगी- नहीं भैया, तुम तो ठेठर देखने गये थे।
जियाराम- गवाही देगी न?
भूंगी- यह क्या कहते हो भैया? बहूजी तफ्तीश बन्द कर देंगी।
जियराम- सच?
भूंगी- हां भैया, बार-बार कहती है कि तफ्तीश न कराओ। गहने गये, जाने
दो, पर बाबूजी मानते ही नहीं।
पांच-छ: दिन तक जियाराम ने पेट भर भोजन नहीं किया। कभी दो-चार कौर खा
लेता, कभी कह देता, भूख नहीं है। उसके चेहरे का रंग उड़ा रहता था।
रातें जागतें कटतीं, प्रतिक्षण थानेदार की शंका बनी रहती थी। यदि वह
जानता कि मामला इतना तूल खींचेंगा, तो कभी ऐसा काम न करता। उसने तो
समझा था- किसी चोर पर शुबहा होगा। मेरी तरफ किसी का ध्यान भी न
जाएेगा, पर अब भण्डा फूटता हुआ मालूम होता था। अभागा थानेदार जिस
ढंगे से छान-बीन कर रहा था, उससे जियाराम को बड़ी शंका हो रही थी।
सातवें दिन संध्या समय घर लौटा तो बहुत चिन्तित था। आज तक उसे बचने
की कुछ-न-कुछ आशा थी। माल अभी तक कहीं बरामद न हुआ था, पर आज उसे माल
के बरामद होने की खबर मिल गयी थी। इसी दम थानेदार कांस्टेबिल के लिए
आता होगा। बचने को कोई उपाय नहीं। थानेदार को रिश्वत देने से सम्भव
है मुकदमे को दबा दे, रुपये हाथ में थे, पर क्या बात छिपी रहेगी? अभी
माल बरामद नही हुआ, फिर भी सारे शहर में अफवाह थी कि बेटे ने ही माल
उड़ाया है। माल मिल जाने पर तो गली-गली बात फैल जाएेगी। फिर वह किसी
को मुंह न दिखा सकेगा।
मुंशीजी कचहरी से लौटे तो बहुत घबराये हुए थे। सिर थामकर चारपाई पर
बैठ गये।
निर्मला ने कहा- कपड़े क्यों नहीं उतारते? आज तो और दिनों से देर हो
गयी है।
मुंशीजी- क्या कपडे ऊतारुं? तुमने कुछ सुना?
निर्मला- क्य बात है? मैंने तो कुछ नहीं सुना?
मुंशीजी- माल बरामद हो गया। अब जिया का बचना मुश्किल है।
निर्मला को आश्चर्य नहीं हुआ। उसके चेहरे से ऐसा जान पड़ा, मानो उसे
यह बात मालूम थी। बोली- मैं तो पहले ही कर रही थी कि थाने में इत्तला
मत कीजिए।
मुंशीजी- तुम्हें जिया पर शका था?
निर्मला- शक क्यों नहीं था, मैंने उन्हें अपने कमरे से निकलते देखा
था।
मुंशीजी- फिर तुमने मुझसे क्यों न कह दिया?
निर्मला- यह बात मेरे कहने की न थी। आपके दिल में जरुर खयाल आता कि
यह ईर्ष्यावश आक्षेप लगा रही है। कहिए, यह खयाल होता या नहीं? झूठ न
बोलिएगा।
मुंशीजी- सम्भव है, मैं इन्कार नहीं कर सकता। फिर भी उसक दशा में
तुम्हें मुझसे कह देना चाहिए था। रिपोर्ट की नौबत न आती। तुमने अपनी
नेकनामी की तो- फिक्र की, पर यह न सोचा कि परिणाम क्या होगा? मैं अभी
थाने में चला आता हूं। अलायार खां आता ही होगा!
निर्मला ने हताश होकर पूछा- फिर अब?
मुंशीजी ने आकाश की ओर ताकते हुए कहा- फिर जैसी भगवान् की इच्छा।
हजार-दो हजार रुपये रिश्वत देने के लिए होते तो शायद मामेला दब जाता,
पर मेरी हालत तो तुम जानती हो। तकदीर खोटी है और कुछ नहीं। पाप तो
मैंने किया है, दण्ड कौन भोगेगा? एक लड़का था, उसकी वह दशा हुई,
दूसरे की यह दशा हो रही है। नालायक था, गुस्ताख था, गुस्ताख था,
कामचोर था, पर था ता अपना ही लड़का, कभी-न-कभी चेत ही जाता। यह चोट
अब न सही जाएेगी।
निर्मला- अगर कुछ दे-दिलाकर जान बच सके, तो मैं रुपये का प्रबन्ध कर
दूं।
मुंशीजी- कर सकती हो? कितने रुपये दे सकती हो?
निर्मला- कितना दरकार होगा?
मुंशीजी- एक हजार से कम तो शायद बातचीत न हो सके। मैंने एक मुकदमे
में उससे एक हजार लिए थे। वह कसर आज निकालेगा।
निर्मला- हो जाएेगा। अभी थाने जाइए।
मुंशीजी को थाने में बड़ी देर लगी। एकान्त में बातचीत करने का बहुत
देर मे मौका मिला। अलायार खां पुराना घाघ थ। बड़ी मुश्किल से अण्टी
पर चढ़ा। पांच सौ रुवये लेकर भी अहसान का बोझा सिर पर लाद ही दिया।
काम हो गया। लौटकर निर्मला से बोला- लो भाई, बाजी मार ली, रुपये
तुमने दिये, पर काम मेरी जबान ही ने किया। बड़ी-बड़ी मुश्किलों से
राजी हो गया। यह भी याद रहेगी। जियाराम भोजन कर चुका है?
निर्मला- कहां, वह तो अभी घूमकर लौटे ही नहीं।
मुंशीजी- बारह तो बज रहे होंगें।
निर्मला- कई दफे जा-जाकर देख आयी। कमरे में अंधेरा पड़ा हुआ है।
मुंशीजी- और सियाराम?
निर्मला- वह तो खा-पीकर सोये हैं।
मुंशीजी- उससे पूछा नहीं, जिया कहां गया?
निर्मला- वह तो कहते हैं, मुझसे कुछ कहकर नहीं गये।
मुंशीजी को कुछ शंका हुई। सियाराम को जगाकर पूछा- तुमसे जियाराम ने
कुछ कहा नहीं, कब तक लौटेगा? गया कहां है?
सियाराम ने सिर खुजलाते और आंखों मलते हुए कहा- मुझसे कुछ नहीं कहा।
मुंशीजी- कपड़े सब पहनकर गया है?
सियाराम- जी नहीं, कुर्ता और धोती।
मुंशीजी- जाते वक्त खुश था?
सियाराम- खुश तो नहीं मालूम होते थे। कई बार अन्दर आने का इरादा
किया, पर देहरी से ही लौट गये। कई मिनट तक सायबान में खड़े रहे। चलने
लगे, तो आंखें पोंछ रहे थे। इधर कई दिन से अक्सा रोया करते थे।
मुंशीजी ने ऐसी ठंडी सांस ली, मानो जीवन में अब कुछ नहीं रहा और
निर्मला से बोले- तुमने किया तो अपनी समझ में भले ही के लिए, पर कोई
शत्रु भी मुझ पर इससे कठारे आघात न कर सकता था। जियाराम की माता
होती, तो क्या वह यह संकोच करती? कदापि नहीं।
निर्मला बोली- जरा डॉक्टर साहब के यहां क्यों नहीं चले जाते? शायद
वहां बैठे हों। कई लड़के रोज आते है, उनसे पूछिए, शायद कुछ पता लग
जाएे। फूंक-फूंककर चलने पर भी अपयश लग ही गया।
मुंशीजी ने मानो खुली हुई खिड़की से कहा- हां, जाता हूं और क्या
करुंगा।
मुंशीज बाहर आये तो देखा, डॉक्टर सिन्हा खड़े हैं। चौंककर पूछा- क्या
आप देर से खड़े हैं?
डॉक्टर- जी नहीं, अभी आया हूं। आप इस वक्त कहां जा रहे हैं? साढ़े
बारह हो गये हैं।
मुंशीजी- आप ही की तरफ आ रहा था। जियाराम अभी तक घूमकर नहीं आया।
आपकी तरफ तो नहीं गया था?
डॉक्टर सिन्हा ने मुंशीजी के दोनों हाथ पकड़ लिए और इतना कह पाये थे,
‘भाई साहब, अब धैर्य से काम..’ कि मुंशीजी गोली खाये हुए मनुष्य की
भांति जमीन पर गिर पड़े। |