राम का राज्य
राज्याभिषेक का उत्सव समाप्त होने के उपरांत सुगरीव, विभीषण अंगद
इत्यादि तो विदा हुए, किन्तु हनुमान को रामचन्द्र से इतना परेम हो
गया था कि वह उन्हें छोड़कर जाने पर सहमत न हुए। लक्ष्मण, भरत इत्यादि
ने उन्हें बहुत समझाया, किन्तु वह अयोध्या से न गये। उनका सारा जीवन
रामचन्द्र के साथ ही समाप्त हुआ। वह सदैव रामचन्द्र की सेवा करने को
तैयार रहते थे। बड़े से बड़ा कठिन काम देखकर भी उनका साहस मन्द न होता
था।
रामचन्द्र के समय में अयोध्या के राज्य की इतनी उन्नति हुई, परजा
इतनी परसन्न थी कि ‘रामराज्य’ एक कहावत हो गयी है। जब किसी समय की
बहुत परशंसा करनी होती है, तो उसे ‘रामराज्य’ कहते हैं। उस समय में
छोटेबड़े सब परसन्न थे, इसीलिए कोई चोरी न करता था। शिक्षा अनिवार्य
थी, बड़ेबड़े ऋषि लड़कों को पॄाते थे, इसीलिए अनुचित कर्म न होते थे।
विद्वान लोग न्याय करते थे इसलिए झूठी गवाहियां न बनायी जाती थीं।
किसानों पर सख्ती न की जाती थी, इसलिए वह मन लगाकर खेती करते थे।
अनाज बहुतायत से पैदा होता था। हर एक गांव में कुयें और तालाब खुदवा
दिये गये थे, नहरें बनवा दी गयी थीं, इसलिए किसान लोग आकाशवर्षा पर
ही निर्भर न रहते थे। सफाई का बहुत अच्छा परबन्ध था। खानेपीने की
चीजों की कमी न थी। दूधघी विपुलता से पैदा होता था, क्योंकि हर एक
गांव में साफ चरागाहें थीं, इसलिए देश में बीमारियां न थीं। प्लेग,
हैजा, चेचक इत्यादि बीमारियों के नाम भी कोई न जानता था। स्वस्थ रहने
के कारण सभी सुन्दर थे। कुरूप आदमी कठिनाई से मिलता था, क्योंकि
स्वास्थ्य ही सुन्दरता का भेद है। युवा मृत्युएं बहुत कम होती थीं,
इसलिए अपनी पूरी आयु तक जीते थे। गलीगली अनाथालय न थे, इसलिए कि देश
में अनाथ और विधवायें थीं ही नहीं।
उस समय में आदमी की परतिष्ठा उसके धन या परसिद्धि के अनुसार न की
जाती थी, बल्कि धर्म और ज्ञान के अनुसार। धनिक लोग निर्धनों का रक्त
चूसने की चिन्ता में न रहते थे, न निर्धन लोग धनिकों को धोखा देते
थे। धर्म और कर्तव्य की तुलना में स्वार्थ और परयोजन को लोग तुच्छ
समझते थे। रामचन्द्र परजा को अपने लड़के की तरह मानते थे। परजा भी
उन्हें अपना पिता समझती थी। घरघर यज्ञ और हवन होता था।
रामचन्द्र केवल अपने परामर्शदाताओं ही की बातें न सुनते थे। वह स्वयं
भी परायः वेश बदलकर अयोध्या और राज्य के दूसरे नगरों में घूमते रहते
थे। वह चाहते थे कि परजा का ठीकठीक समाचार उन्हें मिलता रहे। ज्योंही
वह किसी सरकारी पदाधिकारी की बुराई सुनते, तुरन्त उससे उत्तर मांगते
और कड़ा दण्ड देते। सम्भव न था कि परजा पर कोई अत्याचार करे और
रामचन्द्र को उसकी सूचना न मिले। जिस बराह्मण को धन की ओर झुकते
देखते, तुरन्त उसका नाम वैश्यों में लिखा देते। उनके राज्य में यह
सम्भव न था कि कोई तो धन और परतिष्ठा दोनों ही लूटे, और कोई दोनों
में से एक भी न पाये।
कई साल इसी तरह बीत गये। एक दिन रामचन्द्र रात को अयोध्या की गलियों
में वेश बदले घूम रहे थे कि एक धोबी के घर में झगड़े की आवाज सुनकर वे
रुक गये और कान लगाकर सुनने लगे। ज्ञात हुआ कि धोबिन आधी रात को बाहर
से लौटी है और उसका पति उससे पूछ रहा है कि तू इतनी रात तक कहां रही।
स्त्री कह रही थी, यहीं पड़ोस में तो काम से गयी थी। क्या कैदी बनकर
तेरे घर में रहूं? इस पर पति ने कहा—मेरे पास रहेगी तो तुझे कैदी
बनकर ही रहना पड़ेगा, नहीं कोई दूसरा घर ूंढ़ ले। मैं राजा नहीं हूं कि
तू चाहे जो अवगुण करे, उस पर पर्दा पड़ जाय। यहां तो तनिक भी ऐसीवैसी
बात हुई तो विरादरी से निकाल दिया जाऊंगा। हुक्कापानी बन्द हो जायगा।
बिरादरी को भोज देना पड़ जायगा। इतना किसके घर से लाऊंगा। तुझे अगर
सैरसपाटा करना है, तो मेरे घर से चली जा। इतना सुनना था कि रामचन्द्र
के होश उड़ गये। ऐसा मालूम हुआ कि जमीन नीचे धंसी जा रही है। ऐसेऐसे
छोटे आदमी भी मेरी बुराई कर रहे हैं! मैं अपनी परजा की दृष्टि में
इतना गिर गया हूं! जब एक धोबी के दिल में ऐसे विचार पैदा हो रहे हैं
तो भले आदमी शायद मेरा छुआ पानी भी न पियें। उसी समय रामचन्द्र घर की
ओर चले और सारी रात इसी बात पर विचार करते रहे। कुछ बुद्धि काम न
करती थी कि क्या करना चाहिए! इसके सिवा कोई युक्ति न थी कि सीता जी
को अपने पास से अलग कर दें। किन्तु इस पवित्रता की देवी के साथ इतनी
निर्दयता करते हुए उन्हें आत्मिक दुःख हो रहा था।
सबेरे रामचन्द्र ने तीनों भाइयों को बुलवाया और रात की घटना की चचार
करके उनकी सलाह पूछी। लक्ष्मण ने कहा—उस नीच धोबी को फांसी दे देनी
चाहिए, जिसमें कि फिर किसी को ऐसी बुराई करने का साहस न हो।
शत्रुघ्न ने कहा—उसे राज्य से निकाल दिया जाय। उसकी बदजवानी की यही
सजा है।
भरत बोले—बकने दीजिए। इन नीच आदमियों के बकने से होता ही क्या है।
सीता से अधिक पवित्र देवी संसार में तो क्या, देवलोक में भी न होगी।
लक्ष्मण ने जोश से कहा—आप क्या कहते हैं, भाई साहब! इन टके के
आदमियों को इतना साहस कि सीता जी के विषय में ऐसा असन्टोष परकट करें?
ऐसे आदमी को अवश्य फांसी देनी चाहिए। सीता जी ने अपनी पवित्रता का
परमाण उसी समय दे दिया जब वह चिता में कूदने को तैयार हो गयीं।
रामचन्द्र ने देर तक विचार में डूबे रहने के बाद सिर उठाया और
बोले—आप लोगों ने सोचकर परामर्श नहीं दिया। क्रोध में आ गये। धोबी को
मार डालने से हमारी बदनामी दूर न होगी, बल्कि और भी फैलेगी। बदनामी
को दूर करने का केवल एक इलाज है, और वह है कि सीताजी का परित्याग कर
दिया जाय। मैं जानता हूं कि सीता लज्जा और पवित्रता की देवी हैं।
मुझे पूरा विश्वास है कि उन्होंने स्वप्न में भी मेरे अतिरिक्त और
किसी का ध्यान नहीं किया, किन्तु मेरा विश्वास जब परजा के दिलों में
विश्वास नहीं पैदा कर सकता, तो उससे लाभ ही क्या। मैं अपने वंश में
कलंक लगते नहीं देख सकता। मेरा धर्म है कि परजा के सामने जीवन का ऐसा
उदाहरण उपस्थित करुं जो समाज को और भी ऊंचा और पवित्र बनाये। यदि मैं
ही लोकनिन्दा और बदनामी से न डरुंगा तो परजा इसकी कब परवाह करेगी और
इस परकार जनसाधारण को सीधे और सच्चे मार्ग से हट जाना सरल हो जायगा।
बदनामी से ब़कर हमारे जीवन को सुधारने की कोई दूसरी ताकत नहीं है।
मैंने जो युक्ति बतलायी, उसके सिवाय और कोई दूसरी युक्ति नहीं है।
तीनों भाई रामचन्द्र का यह वार्तालाप सुनकर गुमसुग हो गये। कुछ जवाब
न दे सके। हां, दिल में उनके बलिदान की परशंसा करने लगे। वह जानते
हैं कि सीता जी निरपराध हैं, फिर भी समाज की भलाई के विचार से अपने
हृदय पर इतना अत्याचार कर रहे हैं। कर्तव्य के सामने, परजा की भलाई
के समाने इन्हें उसकी भी परवाह नहीं है, जो इन्हें दुनिया में सबसे
पिरय है। शायद यह अपनी बुराई सुनकर इतनी ही तत्परता से अपनी जान दे
देते।
रामचन्द्र ने एक क्षण के बाद फिर कहा—हां, इसके सिवा अब कोई दूसरी
युक्ति नहीं है। आज मुझे एक धोबी से लज्जित होना पड़ रहा है मैं इसे
सहन नहीं कर सकता। भैया लक्ष्मण, तुमने बड़े कठिन अवसरों पर मेरी
सहायता की है यह काम भी तुम्हीं को करना होगा। मुझसे सीता से बात
करने का साहस नहीं है, मैं उनके सामने जाने का साहस नहीं कर सकता।
उनके सामने जाकर मैं अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से हट जाऊंगा, इसलिए तुम
आज ही सीता जी को किसी बहाने से लेकर चले जाओ। मैं जानता हूं कि
निर्दयता करते हुए तुम्हारा हृदय तुमको कोसेगा; किन्तु याद रक्खो,
कर्तव्य का मार्ग कठिन है। जो आदमी तलवार की धार पर चल सके, वहीं
कर्तव्य के रास्ते पर चल सकता है।
यह आज्ञा देकर रामचन्द्रजी दरबार में चले गये। लक्ष्मण जानते थे कि
यदि आज रामचन्द्र की आज्ञा का पालन न किया गया तो वह अवश्य आत्महत्या
कर लेंगे। वह अपनी बदनामी कदापि नहीं सह सकते। सीता जी के साथ छल
करते हुए उनका हृदय उनको धिक्कार रहा था, किन्तु विवश थे। जाकर सीता
जी से बोले—भाभी ! आप जंगलों की सैर का कई बार तकाजा कर चुकी हैं,
मैं आज सैर करने जा रहा हूं। चलिये, आपको भी लेता चलूं।
बेचारी सीता क्या जानती थीं कि आज यह घर मुझसे सदैव के लिए छूट रहा
है! मेरे स्वामी मुझे सदैव के लिए वनवास दे रहे हैं! बड़ी परसन्नता से
चलने को तैयार हो गयीं। उसी समय रथ तैयार हुआ, लक्ष्मण और सीता उस पर
बैठकर चले। सीता जी बहुत परसन्न थीं। हर एक नयी चीज को देखकर परश्न
करने लगती थीं, यह क्या है, वह क्या चीज है? किन्तु लक्ष्मण इतने
शोकगरस्थ थे कि हूंहां करके टाल देते थे। उनके मुंह से शब्द न निकलता
था। बातें करते तो तुरंत पर्दा खुल जाता, क्योंकि उनकी आंखों में
बारबार आंसू भर आते थे। आखिर रथ गंगा के किनारे जा पहुंचा।
सीताजी बोलीं—तो क्या हम लोग आज जंगलों ही में रहेंगे? शाम होने को
आयी, अभी तो किसी ऋषिमुनि के आश्रम में भी नहीं गयी। लौटेंगे कब तक?
लक्ष्मण ने मुंह फेरे हुए उत्तर दिया—देखिये, कब तक लौटते हैं।
मांझी को ज्योंही रानी सीता के आने की सूचना मिली, वह राज्य की नाव
खेता हुआ आया। सीता रथ से उतरकर नाव में जा बैठीं, और पानी से खेलने
लगीं। जंगल की ताजी हवा ने उन्हें परफुल्लित कर दिया था।
सीतावनवास
नदी के पार पहुंचकर सीताजी की दृष्टि एकाएक लक्ष्मण के चेहरे पर पड़ी
तो देखा कि उनकी आंखों से आंसू बह रहे हैं। वीर लक्ष्मण ने अब तक तो
अपने को रोका था, पर अब आंसू न रुक सके। मैदान में तीरों को रोकना
सरल है, आंसू को कौन वीर रोक सकता है !
सीताजी आश्चर्य से बोलीं—लक्ष्मण, तुम रो क्यों रहे हो? क्या आज वन
को देखकर फिर बनवास के दिन याद आ रहे हैं ?
लक्ष्मण और भी फूटफूटकर रोते हुए सीता जी के पैरों पर गिर पड़े और
बोले—नदी देवी! इसलिए कि आज मुझसे अधिक भाग्यहीन, निर्दय पुरुष संसार
में नहीं। क्या ही अच्छा होता, मुझे मौत आ जाती। मेघनाद की शक्ति ही
ने काम तमाम कर दिया होता तो आज यह दिन न देखना पड़ता। जिस देवी के
दर्शनों से जीवन पवित्र हो जाता है, उसे आज मैं वनवास देने आया हूं।
हाय! सदैव के लिए !
सीताजी अब भी कुछ साफसाफ न समझ सकीं। घबराकर बोलीं—भैया, तुम क्या कह
रहे हो, मेरी समझ में नहीं आता। तुम्हारी तबीयत तो अच्छी है? आज तुम
रास्ते पर उदास रहे। ज्वर तो नहीं हो आया ?
लक्ष्मण ने सीता जी के पैरों पर सिर रगड़ते हुए—माता! मेरा अपराध
क्षमा करो। मैं बिल्कुल निरपराध हूं। भाई साहब ने जो आज्ञा दी है,
उसका पालन कर रहा हूं। शायद इसी दिन के लिए मैं अब तक जीवित था।
मुझसे ईश्वर को यही बधिक का काम लेना था। हाय!
सीता जी अब पूरी परिस्थिति समझ गयीं। अभिमान से गर्दन उठाकर बोलीं—तो
क्या स्वामी जी ने मुझे वनवास दे दिया है ? मेरा कोई अपराध, कोई दोष
? अभी रात को नगर में भरमण करने के पहले वह मेरे ही पास थे। उनके
चेहरे पर क्रोध का निशान तक न था। फिर क्या बात हो गई ? साफसाफ कहो,
मैं सुनना चाहती हूं ! और अगर सुनने वाला हो तो उसका उत्तर भी देना
चाहती हूं।
लक्ष्मण ने अभियुक्तों की तरह सिर झुकाकर कहा—माता! क्या बतलाऊं, ऐसी
बात है जो मेरे मुंह से निकल नहीं सकती। अयोध्या में आपके बारे में
लोग भिन्नभिन्न परकार की बात कह रहे हैं। भाई साहब को आप जानती हैं,
बदनामी से कितना डरते हैं। और मैं आपसे क्या कहूं।
सीता जी की आंखों में न आंसू थे, न घबराहट, वह चुपचाप टकटकी लगाये
गंगा की ओर देख रही थीं, फिर बोलीं—क्या स्वामी को भी मुझ पर संदेह
है?
लक्ष्मण ने जबान को दांतों से दबाकर कहा—नहीं भाभी जी, कदापि नहीं।
उन्हें आपके ऊपर कण बराबर भी सन्देह नहीं है। उन्हें आपकी पवित्रता
का उतना ही विश्वास है, जितना अपने अस्तित्व का। यह विश्वास किसी
परकार नहीं मिट सकता, चाहे सारी दुनिया आप पर उंगली उठाये। किन्तु
जनसाधारण की जबान को वह कैसे रोक सकते हैं। उनके दिल में आपका जितना
परेम है, वह मैं देख चुका हूं। जिस समय उन्होंने मुझे यह आज्ञा दी
है, उनका चेहरा पीला पड़ गया था, आंखों से आंसू बह रहे थे; ऐसा परतीत
हो रहा था कि कोई उनके सीने के अन्दर बैठा हुआ छुरियां मार रहा है।
बदनामी के सिवा उन्हें कोई विचार नहीं है, न हो सकता है।
सीता जी की आंखों से आंसू की दो बड़ीबड़ी बूंदें टपटप गिर पड़ीं। किन्तु
उन्होंने अपने को संभाला और बोलीं—प्यारे लक्ष्मण, अगर यह स्वामी का
आदेश है तो मैं उनके सामने सिर झुकाती हूं। मैं उन्हें कुछ नहीं
कहती। मेरे लिए यही विचार पयार्प्त है कि उनका हृदय मेरी ओर से साफ
है। मैं और किसी बात की चिन्ता नहीं करती। तुम न रोओ भैया, तुम्हारा
कोई दोष नहीं, तुम क्या कर सकते हो। मैं मरकर भी तुम्हारे उपकारों को
नहीं भूल सकती। यह सब बुरे कर्मों का फल है, नहीं तो जिस आदमी ने कभी
किसी जानवर के साथ भी अन्याय नहीं किया, जो शील और दया का देवता है,
जिसकी एकएक बात मेरे हृदय में परेम की लहरें पैदा कर देती थी, उसके
हाथों मेरी यह दुर्गति होती? जिसके लिए मैंने चौदह साल रोरोकर काटे,
वह आज मुझे त्याग देता? यह सब मेरे खोटे कर्मों का भोग है। तुम्हारा
कोई दोष नहीं। किन्तु तुम्हीं दिल में सोचो, क्या मेरे साथ यह न्याय
हुआ है? क्या बदनामी से बचने के लिए किसी निर्दोष की हत्या कर देना
न्याय है? अब और कुछ न कहूंगी भैया, इस शोक और क्रोध की दशा में संभव
है मुंह से कोई ऐसा शब्द निकल जाय, जो न निकलना चाहिए। ओह! कैसे सहन
करुं? ऐसा जी चाहता है कि इसी समय जाकर गंगा में डूब मरुं! हाय! कैसे
दिल को समझाऊं? किस आशा पर जीवित रहूं; किसलिए जीवित रहूं? यह पहाड़सा
जीवन क्या रोरोकर काटूं? स्त्री क्या परेम के बिना जीवित रह सकती है?
कदापि नहीं। सीता आज से मर गयी।
गंगा के किनारे के लम्बेलम्बे वृक्ष सिर धुन रहे थे। गंगा की लहरें
मानो रो रही थीं ! अधेरा भयानक आकृति धारण किये दौड़ा चला आता था।
लक्ष्मण पत्थर की मूर्ति बने; निश्चल खड़े थे मानो शरीर में पराण ही
नहीं। सीता दोतीन मिनट तक किसी विचार में डूबी रहीं, फिर बोलीं—नहीं
वीर लक्ष्मण; अभी जान न दूंगी। मुझे अभी एक बहुत बड़ा कर्तव्य पूरा
करना है। अपने बच्चे के लिए जिऊंगी। वह तुम्हारे भाई की थाती है। उसे
उनको सौंपकर ही मेरा कर्तव्य पूरा होगा। अब वही मेरे जीवन का आधार
होगा। स्वामी नहीं हैं, तो उनकी स्मृति ही से हृदय को आश्वासन दूंगी!
मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। अपने भाई से कह देना, मेरे हृदय
में उनकी ओर से कोई दुर्भावना नहीं है। जब तक जिऊंगी, उनके परेम को
याद करती रहूंगी। भैया! हृदय बहुत दुर्बल हो रहा है। कितना ही रोकती
हूं, पर रहा नहीं जाता। मेरी समझ में नहीं आता कि जब इस तपोवन के
ऋषिमुनि मुझसे पूछेंगे; तेरे स्वामी ने तुझे क्यों वनवास दिया है; तो
क्या कहूंगी। कम से कम तुम्हारे भाई साहब को इतना तो बतला ही देना
चाहिए था। ईश्वर की भी कैसी विचित्र लीला है कि वह कुछ आदमियों को
केवल रोने के लिए पैदा करता है। एक बार के आंसू अभी सूखने भी न पाये
थे कि रोने का यह नया सामान पैदा हो गया। हाय! इन्हीं जंगलों में
जीवन के कितने दिन आराम से व्यतीत हुए हैं। किन्तु अब रोना है और
सदैव के लिए रोना है। भैया, तुम अब जाओ। मेरा विलाप कब तक सुनते
रहोगे ! यह तो जीवन भर समाप्त न होगा। माताओं से मेरा नमस्कार कह
देना! मुझसे जो कुछ अशिष्टता हुई हो उसे क्षमा करें। हां, मेरे पाले
हुए हिरन के बच्चों की खोजखबर लेते रहना। पिंजरे में मेरा हिरामन
तोता पड़ा हुआ है। उसके दानेपानी का ध्यान रखना। और क्या कहूं ! ईश्वर
तुम्हें सदैव कुशल से रखे। मेरे रोनेधोने की चचार अपने भाई साहब से न
करना। नहीं शायद उन्हें दुःख हो। तुम जाओ। अंधेरा हुआ जाता है। अभी
तुम्हें बहुत दूर जाना है।
लक्ष्मण यहां से चले, तो उन्हें ऐसा परतीत हो रहा था कि हृदय के
अन्दर आगसी जल रही है। यह जी चाहता था कि सीता जी के साथ रह कर सारा
जीवन उनकी सेवा करता रहूं। पगपग, मुड़मुड़कर सीता जी को देख लेते थे।
वह अब तक वहीं सिर झुकाये बैठी हुई थीं। जब अंधेरे ने उन्हें अपने
पर्दे में छिपा लिया तो लक्ष्मण भूमि पर बैठ गये और बड़ी देर तक
फूटफूटकर रोते रहे। एकाएक निराशा में एक आशा की किरण दिखायी दी! शायद
रामचन्द्र ने इस परश्न पर फिर विचार किया हो और वह सीता जी को वापस
लेने को तैयार हों। शायद वह फिर उन्हें कल ही यह आज्ञा दें कि जाकर
सीता को लिवा लाओ। इस आशा ने खिन्न और निराश लक्ष्मण को बड़ी
सान्त्वना दी। वह वेग से पग उठाते हुए नौका की ओर चले।
लव और कुश
जहां सीता जी निराश और शोक में डूबी हुई रो रही थीं, उसके थोड़ी ही
दूर पर ऋषि वाल्मीकि का आश्रम था। उस समय ऋषि सन्ध्या करने के लिए
गंगा की ओर जाया करते थे ! आज भी वह जब नियमानुसार चले तो मार्ग में
किसी स्त्री के सिसकने की आवाज कान में आयी! आश्चर्य हुआ कि इस समय
कौन स्त्री रो रही है। समझे, शायद कोई लकड़ी बटोरने वाली औरत रास्ता
भूल गयी हो! सिसकियों की आहट लेते हुए निकट आये तो देखा कि एक स्त्री
बहुमूल्य कपड़े और आभूषण पहने अकेली रो रही है। पूछा—बेटी, तू कौन है
और यहां बैठी क्यों रो रही है ?
सीता ऋषि वाल्मीकि को पहचानती थीं। उन्हें देखते ही उठकर उनके चरणों
से लिपट गयीं और बोलीं—भगवन ! मैं अयोध्या की अभागिनी रानी सीता हूं।
स्वामी ने बदनामी के डर से मुझे त्याग दिया है! लक्ष्मण मुझे यहां
छोड़ गये हैं।
वाल्मीकि ने परेम से सीता को अपने पैरों से उठा लिया और बोले—बेटी,
अपने को अभागिनी न कहो। तुम उस राजा की बेटी हो, जिसके उपदेश से हमने
ज्ञान सीखा है। तुम्हारे पिता मेरे मित्र थे। जब तक मैं जीता हूं,
यहां तुम्हें किसी बात का कष्ट न होगा। चलकर मेरे आश्रम में रहो।
रामचन्द्र ने तुम्हारी पवित्रता पर विश्वास रखते हुए भी केवल बदनामी
के डर से त्याग दिया, यह उनका अन्याय है। लेकिन इसका शोक न करो। सबसे
सुखी वही आदमी है, जो सदैव परत्येक दशा में अपने कर्तव्य को पूरा
करता रहे। यह बड़े सौंदर्य की जगह है यहां तुम्हारी तबीयत खुश होगी।
ऋषियों की लड़कियों के साथ रहकर तुम अपने सब दुःख भूल जाओगी। राजमहल
में तुम्हें वही चीजें मिल सकती थीं; जिनसे शरीर को आराम पहुंचता है,
यहां तुम्हें वह चीजें मिलेंगी, जिनसे आत्मा को शान्ति और आराम
पराप्त होता है उठो, मेरे साथ चलो। क्या ही अच्छा होता, यदि मुझे
पहले मालूम हो जाता, तो तुम्हें इतना कष्ट न होता।
सीता जी को ऋषि वाल्मीकि की इन बातों से बड़ा सन्टोष हुआ। उठकर उनके
साथ उनकी कुटिया में आई। वहां और भी कई ऋषियों की कुटियां थीं। सीता
उनकी स्त्रियों और लड़कियों के साथ रहने लगीं। इस परकार कई महीने के
बाद उनके दो बच्चे पैदा हुए। ऋषि वाल्मीकि ने बड़े का नाम लव और छोटे
का नाम कुश रखा। दोनों ही बच्चे रामचन्द्र से बहुत मिलते थे। जहीन और
तेज इतने थे कि जो बात एक बार सुन लेते, सदैव के लिए हृदय पर अंकित
हो जाती। वह अपनी भोलीभाली तोतली बातों से सीता को हर्षित किया करते
थे। ऋषि वाल्मीकि दोनों बच्चों को बहुत प्यार करते थे। इन दोनों
बच्चों के पालनेपोसने में सीता अपना शोक भूल गयीं।
जब दोनों बच्चे जरा बड़े हुए तो ऋषि वाल्मीकि ने उन्हें पॄाना परारम्भ
किया। अपने साथ वन में ले जाते और नाना परकार के फलफूल दिखाते। बचपन
ही से सबसे परेम और झूठ से घृणा करना सिखाया। युद्ध की कला भी खूब मन
लगाकर सिखाई। दोनों इतने वीर थे कि बड़ेबड़े भयानक जानवरों को भी मार
गिराते थे। उनका गला बहुत अच्छा था। उनका गाना सुनकर ऋषि लोग भी मस्त
हो जाते थे। वाल्मीकि ने रामचन्द्र के जीवन का वृत्तान्त पद्य में
लिखकर दोनों राजकुमारों को याद करा दिया था। जब दोनों गागाकर सुनाते,
तो सीता जी अभिमान और गौरव की लहरों में बहने लगती थीं।
अश्वमेध यज्ञ
सीता को त्याग देने के बाद रामचन्द्र बहुत दुःखित और शोकाकुल रहने
लगे। सीता की याद हमेशा उन्हें सताती रहती थी। सोचते, बेचारी न जाने
कहां होगी, न जाने उस पर क्या बीत रही होगी ! उस समय को याद करके जो
उन्होंने सीता जी के साथ व्यतीत किया था, वह परायः रोने लगते थे। घर
की हर एक चीज उन्हें सीता की याद दिला देती थी। उनके कमरे की
तस्वीरें सीता जी की बनायी हुई थीं। बाग के कितने ही पौधे सीताजी के
हाथों के लगाये हुए थे। सीता के स्वयंवर के समय की याद करते, कभी
सीता के साथ जंगलों के जीवन का विचार करते। उन बातों को याद करके वह
तड़पने लगते। आनंदोत्सवों में सम्मिलित होना उन्होंने बिल्कुल छोड़
दिया। बिल्कुल तपस्वियों की तरह जीवन व्यतीत करने लगे। दरबार के
सभासदों और मंत्रियों ने समझाया कि आप दूसरा विवाह कर लें। किसी
परकार नाम तो चले। कब तक इस परकार तपस्या कीजियेगा? किन्तु रामचन्द्र
विवाह करने पर सहमत न हुए। यहां तक कि कई साल बीत गये।
उस समय कई परकार के यज्ञ होते थे। उसी में एक अश्वमेद्य यज्ञ भी था।
अश्व घोड़े को कहते हैं। जो राजा यह आकांक्षा रखता था कि वह सारे देश
का महाराजा हो जाय और सभी राजे उसके आज्ञापालक बन जायं, वह एक घोड़े
को छोड़ देता था। घोड़ा चारों ओर घूमता था। यदि कोई राजा उस घोड़े को
पकड़ लेता था, तो इसके अर्थ यह होते थे कि उसे सेवक बनना स्वीकार
नहीं। तब युद्ध से इसका निर्णय होता था। राजा रामचन्द्र का बल और
सामराज्य इतना ब़ गया कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ करने का निश्चय किया।
दूरदूर के राजाओं, महर्षियों, विद्वानों के पास नवेद भेजे गये।
सुगरीव, विभीषण, अंगद सब उस यज्ञ में सम्मिलित होने के लिए आ पहुंचे।
ऋषि वाल्मीकि को भी नवेद मिला। वह लव और कुश के साथ आ गये। यज्ञ की
बड़ी धूमधाम से तैयारियां होने लगीं। अतिथियों के मनबहलाव के लिए नाना
परकार के आयोजन किये गये थे। कहीं पहलवानों के दंगल थे, कहीं रागरंग
की सभायें। किन्तु जो आनन्द लोगों को लव और कुश के मुंह से रामचन्द्र
की चचार सुनने में आता था वह और किसी बात में न आता था। दोनों लड़के
सुर मिलाकर इतने पिरयभाव से यह काव्य गाते थे कि सुनने वाले मोहित हो
जाते थे। चारों ओर उनकी वाहवाह मची हुई थी। धीरेधीरे रानियों को भी
उनका गाना सुनने का शौक पैदा हुआ। एक आदमी दोनों बरह्मचारियों को
रानिवास में ले गया। यहां तीन बड़ी रानियां, उनकी तीनों बहुएं और
बहुतसी स्त्रियां बैठी हुई थीं। रामचन्द्र भी उपस्थित थे। इन लड़कों
के लंबेलंबे केश, वन की स्वास्थ्यकर हवा से निखरा हुआ लाल रंग और
सुन्दर मुखमण्डल देखकर सबके-सब दंग हो गये। दोनों की सूरत रामचन्द्र
से बहुत मिलती थी। वही ऊंचा ललाट था, वही लंबी नाक, वही चौड़ा वक्ष।
वन में ऐसे लड़के कहां से आ गये, सबको यही आश्चर्य हो रहा था।
कौशिल्या मन में सोच रही थीं कि रामचन्द्र के लड़के होते तो वह भी ऐसे
ही होते। जब लड़कों ने कवित्त गाना परारम्भ किया, तो सबकी आंखों से
आंसू बहने शुरू हो गये। लड़कों का सुर जितना प्यारा था, उतनी ही
प्यारी और दिल को हिला देने वाली कविता थी। गाना सुनने के बाद
रामचन्द्र ने बहुत चाहा कि उन लड़कों को कुछ पुरस्कार दें, किन्तु
उन्होंने लेना स्वीकार न किया। आखिर उन्होंने पूछा—तुम दोनों को गाना
किसने सिखाया और तुम कहां रहते हो ?
लव ने कहा—हम लोग ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में रहते हैं उन्होंने हमें
गाना सिखाया है।
रामचन्द्र ने फिर पूछा—और यह कविता किसने बनायी?
लव ने उत्तर दिया—ऋषि वाल्मीकि ने ही यह कविता भी बनायी है।
रामचन्द्र को उन दोनों लड़कों से इतना परेम हो गया था कि वह उसी समय
ऋषि वाल्मीकि के पास गये और उनसे कहा—महाराज! आपसे एक परश्न करने आया
हूं, दया कीजियेगा।
ऋषि ने मुस्कराकर कहा—राजा रंक से परश्न करने आया है? आश्चर्य है।
कहिये।
रामचन्द्र ने कहा—मैं चाहता हूं कि इन दोनों लड़कों को, जिन्होंने
आपके रचे हुएपद सुनाये हैं, अपने पास रख लूं। मेरे अंधेरे घर के दीपक
होंगे। हैं तो किसी अच्छे वंश के लड़के?
वाल्मीकि ने कहा—हां, बहुत उच्च वंश के हैं। ऐसा वंश भारत में दूसरा
नहीं है।
राम—तब तो और भी अच्छा है। मेरे बाद वही मेरे उत्तराधिकारी होंगे।
उनके मातापिता को इसमें कोई आपत्ति तो न होगी?
वाल्मीकि—कह नहीं सकता। सम्भव है आपत्ति हो पिता को तो लेशमात्र भी न
होगी, किन्तु माता के विषय में कुछ भी नहीं कह सकता। अपनी मयार्दा पर
जान देने वाली स्त्री है।
राम—यदि आप उसे देवी को किसी परकार सम्मत कर सकें तो मुझ पर बड़ी कृपा
होगी।
वाल्मीकि—चेष्टा करुंगा। मैंने ऐसी सज्जन, लज्जाशीला और सती स्त्री
नहीं देखी। यद्यपि उसके पति ने उसे निरपराध, अकारण त्याग दिया है,
किन्तु यह सदैव उसी पति की पूजा करती है।
रामचन्द्र की छाती धड़कने लगी। कहीं यह मेरी सीता न हो। आह दैव, यह
लड़के मेरे होते! तब तो भाग्य ही खुल जाता।
वाल्मीकि फिर बोले—बेटा, अब तो तुम समझ गये होगे कि मैं किस ओर संकेत
कर रहा हूं।
रामचन्द्र का चेहरा आनन्द से खिल गया। बोले—हां, महाराज, समझ गया।
वाल्मीकि—जब से तुमने सीता को त्याग दिया है वह मेरे ही आश्रम में
है। मेरे आश्रम में आने के दोतीन महीने के बाद वह लड़के पैदा हुए थे।
वह तुम्हारे लड़के हैं। उनका चेहरा आप कह रहा है। क्या अब भी तुम सीता
को घर न लाओगे? तुमने उसके साथ बड़ा अन्याय किया है। मैं उस देवी को
आज पन्द्रह सालों से देख रहा हूं। ऐसी पवित्र स्त्री संसार में
कठिनाई से मिलेगी। तुम्हारे विरुद्ध कभी एक शब्द भी उसके मुंह से
नहीं सुना। तुम्हारी चचार सदैव आदर और परेम से करती है। उसकी दशा
देखकर मेरा कलेजा फटा जाता है। बहुत रुला चुके, अब उसे अपने घर लाओ।
वह लक्ष्मी है।
रामचन्द्र बोले—मुनि जी, मुझे तो सीता पर किसी परकार का सन्देह कभी
नहीं हुआ। मैं उनको अब भी पवित्र समझता हूं। किन्तु अपनी परजा को
क्या करुं ? उनकी जबान कैसे बन्द करुं? रामचन्द्र की पत्नी को सन्देह
से पवित्र होना चाहिए। यदि सीता मेरी परजा को अपने विषय में विश्वास
दिला दें, तो वह अब भी मेरी रानी बन सकती हैं। यह मेरे लिए अत्यन्त
हर्ष की बात होगी।
वाल्मीकि ने तुरंत अपने दो चेलों को आदेश दिया कि जाकर सीता जी को
साथ लाओ। रामचन्द्र ने उन्हें अपने पुष्पकविमान पर भेजा, जिनसे वह
शीघर लौट आयें। दोनों चेले दूसरे दिन सीता जी को लेकर आ पहुंचे। सारे
नगर में यह समाचार फैल गया था कि सीता जी आ रही हैं। राजभवन के
सामने, यज्ञशाला के निकट लाखों आदमी एकत्रित थे। सीता जी के आने की
खबर पाते ही रामचन्द्र भी भाइयों के साथ आ गये। एक क्षण में सीता जी
भी आईं। वह बहुत दुबली हो गयी थीं, एक लाल साड़ी के अलावा उनके शरीर
पर और कोई आभूषण न था। किन्तु उनके पीले मुरझाये हुए चेहरे से परकाश
की किरणेंसी निकल रही थीं। वह सिर झुकाये हुए महर्षि वाल्मीकि के
पीछेपीछे इस समूह के बीच में खड़ी हो गयीं।
महर्षि एक कुश के आसान पर बैठ गये और बड़े दृ़ भाव से बोले—देवी !
तेरे पति वह सामने बैठे हुए हैं। अयोध्या के लोग चारों ओर खड़े हैं।
तू लज्जा और झिझक को छोड़कर अपने पवित्र और निर्मल होने का परमाण इन
लोगों को दे और इनके मन से संदेह को दूर कर।
सीता का पीला चेहरा लाल हो गया। उन्होंने भीड़ को उड़ती हुई दृष्टि से
देखा, फिर आकाश की ओर देखकर बोलीं—ईश्वर! इस समय मुझे निरपराध सिद्ध
करना तुम्हारी ही दया का काम है। तुम्हीं आदमियों के हृदयों में इस
संदेह को दूर कर सकते हो। मैं तुम्हीं से विनती करती हूं! तुम सबके
दिलों का हाल जानते हो। तुम अन्तयार्मी हो। यदि मैंने सदैव परकट और
गुप्त रूप में अपने पति की पूजा न की हो, यदि मैंने अपने पति के साथ
अपने कर्तव्य को पूर्ण न किया हो, यदि मैं पवित्र और निष्कलंक न हूं,
तो तुम इसी समय मुझे इस संसार से उठा लो। यही मेरी निर्मलता का परमाण
होगा।
अंतिम शब्द मुंह से निकलते ही सीता भूमि पर गिर पड़ी। रामचन्द्र
घबराये हुए उनके पास गये, पर वहां अब क्या था? देवी की आत्मा ईश्वर
के पास पहुंच चुकी थी। सीता जी निरंतर शोक में घुलतेघुलते योंही
मृतपराय हो रही थीं, इतने बड़े जनसमूह के सम्मुख अपनी पवित्रता का
परमाण देना इतना बड़ा दुःख था, जो वह सहन न कर सकती थीं। चारों ओर
कुहराम मच गया।
सब लोग फूटफूटकर रोने लगे। सबके जबान पर यही शब्द थे—‘यह सचमुच
लक्ष्मी थी, फिर ऐसी स्त्री न पैदा होगी।’ कौशल्या, कैकेयी, सुमित्रा
छाती पीटने लगीं और रामचन्द्र तो मूर्छित होकर गिर पड़े। जब बड़ी
कठिनता से उन्हें चेतना आयी तो रोते हुए बोले—मेरी लक्ष्मी, मेरी
प्यारी सीता! जा, स्वर्ग की देवियां तेरे चरणों पर सिर झुकाने के लिए
खड़ी हैं। यह संसार तेरे रहने के योग्य न था। मुझ जैसा बलहीन पुरुष
तेरा पति बनने के योग्य न था। मुझ पर दया कर, मुझे क्षमा कर। मैं भी
शीघर तेरे पास आता हूं। मेरी यही ईश्वर से परार्थना है कि यदि मैंने
कभी किसी पराई स्त्री का स्वप्न में ध्यान किया हो, यदि मैंने सदैव
तुझे देवी की तरह हृदय में न पूजा हो, यदि मेरे हृदय में कभी तेरी ओर
से सन्देह हुआ हो, तो पतिवरता स्त्रियों में तेरा नाम सबसे ब़कर हो।
आने वाली पीयिं सदैव आदर से तेरे नाम की पूजा करें। भारत की देवियां
सदैव तेरे यश के गीत गायें।
अश्वमेद्ययज्ञ कुशल से समाप्त हुआ। रामचन्द्र भारतवर्ष के सबसे बड़े
महाराज मान लिये गये। दो योग्य, वीर और बुद्धिमान पुत्र भी उनके थे।
सारे देश में कोई शत्रु न था। परजा उन पर जान देती थी। किसी बात की
कमी न थी। किन्तु उस दिन से उनके होंठों पर हंसी नहीं आयी। शोकाकुल
तो वह पहले भी रहा करते थे, अब जीवन उन्हें भार परतीत होने लगा।
राजकाज में तनिक भी जी न लगता। बस यही जी चाहता कि किसी सुनसान जगह
में जाकर ईश्वर को याद करें। शोक और खेद से बेचैन हृदय को ईश्वर के
अतिरिक्त और कौन सान्त्वना दे सकता था !
लक्ष्मण की मृत्यु
किन्तु अभी रामचन्द्र की विपत्तियों का अन्त न हुआ था। उन पर एक बड़ी
बिजली और गिरने वाली थी। एक दिन एक साधु उनसे मिलने आया और बोला—मैं
आपसे अकेले में कुछ कहना चाहता हूं। जब तक मैं बातें करता रहूं, कोई
दूसरा कमरे में न आने पाये। रामचन्द्र महात्माओं का बड़ा सम्मान करते
थे। इस विचार से कि किसी साधारण द्वारपाल को द्वार पर बैठा दूंगा तो
सम्भव है कि वह किसी बड़े धनीमानी को अन्दर आने से रोक न सके,
उन्होंने लक्ष्मण को द्वार पर बैठा दिया और चेतावनी दे दी कि सावधान
रहना, कोई अंदर न आने पाये। यह कहकर रामचन्द्र उस साधु से कमरे में
बातें करने लगे। संयोग से उसी समय दुवार्सा ऋषि आ पहुंचे और
रामचन्द्र से मिलने की इच्छा परकट की। लक्ष्मण ने कहा—अभी तो महाराज
एक महात्मा से बातें कर रहे हैं। आप तनिक ठहर जायं तो मैं मिला
दूंगा। दुवार्सा अत्यन्त क्रोधी थे। क्रोध उनकी नाक पर रहता था।
बोले—मुझे अवकाश नहीं है। मैं इसी समय रामचन्द्र से मिलूंगा। यदि तुम
मुझे अंदर जाने से रोकोगे तो तुम्हें ऐसा शाप दे दूंगा कि तुम्हारे
वंश का सत्यानाश हो जायगा।
बेचारे लक्ष्मण बड़ी दुविधा में पड़े। यदि दुवार्सा को अंदर जाने देते
हैं तो रामचन्द्र अपरसन्न होते हैं, नहीं जाने देते तो भयानक शाप
मिलता है। आखिर उन्हें रामचन्द्र की अपरसन्नता ही अधिक सरल परतीत
हुई। दुवार्सा को अंदर जाने की अनुमति दे दी। दुवार्सा अंदर पहुंचे।
उन्हें देखते ही वह साधु बहुत बिगड़ा और रामचन्द्र को सख्तसुस्त कहता
चला गया। दुवार्सा भी आवश्यक बातें करके चले गये। किन्तु रामचन्द्र
को लक्ष्मण का यह कार्य बहुत बुरा मालूम हुआ। बाहर आते ही लक्ष्मण से
पूछा—जब मैंने तुमसे आगरहपूर्वक कह दिया था तो तुमने दुवार्सा को
क्यों अंदर जाने दिया? केवल इस भय से कि दुवार्सा तुम्हें शाप दे
देते।
लक्ष्मण ने लज्जित होकर कहा—महाराज! मैं क्या करता। वह बड़ा भयानक शाप
देने की धमकी दे रहे थे।
राम—तो तुमने एक साधु के शाप के सामने राजा की आज्ञा की चिंता नहीं
की। सोचो, यह उचित था? मैं राजा पहले हूं—भाई, पति, पुत्र या पति
पीछे। तुमने अपने बड़े भाई की इच्छा के विरुद्ध काम नहीं किया है,
बल्कि तुमने अपने राजा की आज्ञा तोड़ी है। इस दण्ड से तुम किसी परकार
नहीं बच सकते। यदि तुम्हारे स्थान पर कोई द्वारपाल होता तो तुम समझते
हो, मैं उसे क्या दण्ड देता? मैं उस पर जुमार्ना करता। लेकिन तुम
इतने समझदार, उत्तरदायित्व के ज्ञान से इतने पूर्ण हो, इसलिए वह
अपराध और भी बड़ा हो गया है और उसका दण्ड भी बड़ा होना चाहिए। मैं
तुम्हें आज्ञा देता हूं कि आज ही अयोध्या का राज्य छोड़कर निकल जाओ।
न्याय सबके लिए एक है। वह पक्षपात नहीं जानता।
यह था रामचन्द्र की कर्तव्यपरायणता का उदाहरण! जिस निर्दयता से
कर्तव्य के लिए पराणों से पिरय अपनी पत्नी को त्याग दिया उसी
निर्दयता से अपने पराणों से प्यारे भाई को भी त्याग दिया। लक्ष्मण ने
कोई आपत्ति नहीं की। आपत्ति के लिए स्थान ही न था। उसी समय बिना किसी
से कुछ कहेसुने राजमहल के बाहर चले गये और सरयू के किनारे पहुंचकर
जान दे दी।
अन्त
रामचन्द्र को लक्ष्मण के मरने का समाचार मिला तो मानो सिर पर पहाड़
टूट पड़ा। संसार में सीताजी के बाद उन्हें सबसे अधिक परेम लक्ष्मण से
ही था। लक्ष्मण उनके दाहिने हाथ थे। कमर टूट गयी। कुछ दिन तक तो
उन्होंने ज्योंत्यों करके राज्य किया। आखिर एक दिन सामराज्य बेटों को
देकर आप तीनों भाइयों के साथ जंगल में ईश्वर की उपासना करने चले गये।
यह है रामचन्द्र के जीवन की संक्षिप्त कहानी। उनके जीवन का अर्थ केवल
एक शब्द है, और उसका नाम है ‘कर्तव्य’। उन्होंने सदैव कर्तव्य को
परधान समझा। जीवन भर कर्तव्य के रास्ते से जौ भर भी नहीं हटे।
कर्तव्य के लिए चौदह वर्ष तक जंगलों में रहे, अपनी जान से प्यारी
पत्नी को कर्तव्य पर बलिदान कर दिया और अन्त में अपने पिरयतम भाई
लक्ष्मण से भी हाथ धोया। परेम, पक्षपात और शील को कभी कर्तव्य के
मार्ग में नहीं आने दिया। यह उनकी कर्तव्यपरायणता का परसाद है कि
सारा भारत देश उनका नाम रटता है और उनके अस्तित्व को पवित्र समझता
है। इसी कर्तव्यपरायणता ने उन्हें आदमियों के समूह से उठाकर देवताओं
के समकक्ष बैठा दिया। यहां तक कि आज निन्यानवे परतिशत हिन्दू उन्हें
आराध्य और ईश्वर का अवतार समझते हैं।
लड़को ! तुम भी कर्तव्य को परधान समझो। कर्तव्य से कभी मुंह न मोड़ो।
यह रास्ता बड़ा कठिन है। कर्तव्य पूरा करने में तुम्हें बड़ीबड़ी
कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा; किन्तु कर्तव्य पूरा करने के बाद
तुम्हें जो परसन्नता पराप्त होगी, वह तुम्हारा पुरस्कार होगा। |