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तीस
चलते-चलते संधया हो गई। पहाड़ों की संधया मैदान की रातों से कहीं अधिाक भयानक होती है। तीनों आदमी चले जाते थे; किंतु अभी ठिकाने का पता न था। पहाड़ियों के साये लम्बे हो गए। सूर्य डूबने से पहले ही दिन डूब गया। रास्ता न सुझाई देता था। दोनाेंं आदमी बार-बार इंद्रदत्ता से पूछते, अब कितनी दूर है; पर यही जवाब मिलता कि चले आओ, अब पहुँचे जाते हैं। यहाँ तक कि विनयसिंह ने झुँझलाकर कहा-इंद्रदत्ता, अगर तुम हमारे खून के प्यासे हो, तो साफ-साफ क्यों नहीं कहते? इस भाँति कुढ़ा-कुढ़ाकर क्यों मारते हो! इंद्रदत्ता ने इसका भी जवाब वही दिया कि चले आओ, अब दूर नहीं है; हाँ, जरा सतर्क रहना, रास्ता दुर्गम है। विनय को अब बार-बार पछतावा हो रहा था कि इंद्रदत्ता के साथ क्यों आया, क्यों न पहले उनके हाथों सोफिया को एक पत्रा भेज दिया! पत्रा का उत्तार मिलने पर जब सोफिया की लिपि पहचान लेता, तो निश्चिंत होकर आता। सोफी इतनी वज्र हृदया तो नहीं कि पत्रा का उत्तार ही न देती। यह उतावली करने में मुझसे बड़ी भूल हुई। इंद्रदत्ता की नियत अच्छी नहीं मालूम होती। इन शंकाओं से उसका मार्ग और कठिन हो रहा था। लोग ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते थे, रास्ता बीहड़ और विषम होता जाता था। कभी टीलों पर चढ़ना पड़ता और कभी इतना नीचे उतरना पड़ता कि मालूम होता, रसातल को चले जा रहे हैं। कभी दाएँ-बाएँ गहरे खवें के बीच में एक पतली-सी पगडंडी मिल जाती है। ऑंखें बिलकुल काम न देती थीं। केवल अटकल का सहारा था, जो वास्तव में अंतर्दृष्टि है। विनय पिस्तौल चढ़ाए हुए थे, मन में निश्चय कर लिया था कि जरा भी कोई शंका हुई, तो पहला वार इंद्रदत्ता पर करूँगा। सहसा इंद्रदत्ता रुक गए और बोले-लीजिए, आ गए। बस, आप लोग यहीं ठहरिए, मैं जाकर उन लोगों को सूचना दे दूँ। विनय ने चकित होकर पूछा-यहाँ पर तो कोई नजर नहीं आता, बस सामने एक वृक्ष है। इंद्रदत्ता-राजद्रोहियों के लिए ऐसे गुप्त स्थानों की जरूरत होती है, जहाँ यमराज के दूत भी न पहुँच सकें। विनय-भई यों अकेले छोड़कर मत जाओ। क्यों न यहीं से आवाज दो? या चलो, मैं भी चलता हूँ। इंद्रदत्ता-यहाँ से तो शायद शंख की धवनि भी न पहुँच सके, और दूसरों को ले चलने का मुझे अधिाकार नहीं; क्योंकि घर मेरा नहीं है और दूसरों के घर में आपको क्योंकर ले जा सकता हूँ? इन गरीबों के पास यहाँ कोई सेना या दुर्ग नहीं, केवल मार्ग की दुर्गमता ही उनकी रक्षा करती है। मुझे देर न लगेगी। यह कहकर वह वेग से चला और कई पग चलकर उसी वृक्ष के नीचे अदृश्य हो गया। विनयसिंह कुछ देर तक तो संशय में पड़े हुए उसकी राह देखते रहे, फिर नायकराम से बोले-इस धाूर्त ने तो बुरा फँसाया। यहाँ इस निर्जन स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया कि बिना मौत ही मर जाए। अभी तक लौटकर नहीं आया। नायकराम-तुम्हें क्या चिंता, आसिक लोग तो जान हथेली पर लिए ही रहते हैं, मरे तो हम कि सूखे पर ही रहे। विनय-मैं इसकी नीयत तो ताड़ गया था। नायकराम-तो फिर क्यों बिना कान-पूँछ हिलाए चले आए? अपने साथ मुझे भी डुबाया! क्या इसक में अकिल घनचक्कर हो जाती है? विनय-आधाा घंटा तो हुआ, अभी तक किसी का पता ही नहीं। यहाँ से भागना भी चाहें, तो कहाँ जाएँ। इसने जरूर दगा की। जिंदगी का यहीं तक साथ था। नायकराम-आसिक होकर मरने से डरते हो! मरना तो एक दिन है ही, आज ही सही। डर क्या! जब ओखली में सिर दिया, तो मूसलों का क्या गम, मारे उसका जितना जी चाहे। विनय-कहीं सचमुच सोफिया आ जाए! नायकराम-फिर क्या कहने, लपककर टाँग लेना, मजा तो जब आए कि तुम हाय-हाय करके रोने लगो और वह ऑंचल से तुम्हारे ऑंसू पोंछे। विनय-भई देखना, मैं उसे देखकर रो पड़ईँ, तो हँसना मत। उसे देखते ही दौड़ईँगा और ऐसे जोर से पकड़घँगा कि छुड़ा न सके। नायकराम-यह मेरा ऍंगोछा ले लो, चट से उसके पैर में बाँधा देना। विनय-तुम हँसी उड़ा रहे हो, और मेरा हृदय धाड़क रहा है कि न जाने क्या होनेवाला है। आह! मैं समझ गया! मैं इधार से एक बार गया हूँ। हम जसवंतनगर के आस-पास कहीं हैं। इंद्रदत्ता हमें भ्रम में डालने के लिए इतना चक्कर देकर लाया है। नायकराम-जसवंतनगर यहीं हो, तो हमें क्या। हम चिल्लाएँ, तो कौन सुनेगा! विनय-क्या सचमुच इसने धाोखा किया? मेरा तो जी चाहता है कि यहाँ से किसी ओर को चल दूँ। अगर सोफी ने कठोर बातें कहनी शुरू कीं, तो मेरा दिल फट जाएगा। जिसके हित के लिए इतने अधार्म और अकर्म किए, उसकी निर्दयता कैसे सही जाएगी? ऐसी ही बातों से जी खट्टा हो जाता है। जिसके लिए चोर बने, वही पुकारे चोर! नायकराम-स्त्रिायों का यही हाल है। विनय-हाँ, जो सुना था, वह ऑंखों के आगे आया। नायकराम-मैं यह ऍंगोछा बिछाए देता हूँ, पत्थर ठंडा हो गया है, आराम से लेटो। मिस साहब आएँ, तो हरि-इच्छा, नहीं तो तड़के यहाँ से चल देंगे। कहीं-न-कहीं राह मिल ही जाएगी। मैं यह पिस्तौल लिए बैठा हूँ, कोई खटका हुआ, तो देखी जाएगी। मेरा तो अब यहाँ से जी भर गया; न जाने वह कौन दिन होगा कि फिर घर के दरसन होंगे। विनय-मेरा तो घर से नाता टूट गया। सोफिया के साथ जाऊँगा, तो घुसने ही न पाऊँगा; सोफिया न मिली तो जाऊँगा ही नहीं। यहीं धूनी रमाऊँगा। नायकराम-भैया, तुम्हारे साथ बोलना छोटा मुँह बड़ी बात है, पर साथ रहते-रहते ढीठ हो गया हूँ। मुझे तो मिस साहब ऐसी कोई बड़ी अप्सरा नहीं मालूम होतीं। यहाँ तो भगवान की दया से नित्य ही ऐसी-ऐसी सूरतें देखने में आती हैं कि मिस साहब उनके सामने पानी भरें। मुखड़ा देखो, तो जैसे हीरा दप-दप कर रहा हो। और इनके लिए तुम राज-पाट त्यागने पर तैयार हो। सच कहता हूँ, रानीजी को बड़ा कलक होगा। माँ का दिल दुखाना महापाप है। कुछ हालचाल भी तो नहीं मिला, न जाने चल बसीं कि हैं। विनय-पंडाजी, मैं सोफी के रूप का उपासक नहीं हूँ। मैं स्वयं नहीं जानता कि उसमें वह कौन-सी बात है, जो मुझे इतना आकर्षित कर रही है। मैं उसके लिए राजपाट तो क्या, अपना धार्म तक त्याग सकता हूँ। अगर संसार मेरे अधाीन होता, तो भी मैं उसे सोफिया की भेंट कर देता। अगर आज मुझे मालूम हो जाए कि सोफी इस संसार में नहीं है, तो तुम मुझे जीता न पाओगे। उससे मिलने की आशा ही मेरा जीवन-सूत्रा है। उसके चरणों पर प्राण्ा दे देना ही मेरे जीवन की प्रथम और अंतिम अभिलाषा है। वृक्ष की ओर लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। दो आदमी आ रहे थे। एक के हाथ में लालटेन थी, दूसरे के हाथ में जाजम। विनय ने दोनों को पहचान लिया। एक तो वीरपालसिंह था, दूसरा उसका साथी। वीरपालसिंह ने समीप आकर लालटेन रख दी और विनय को प्रणाम करके दोनों चुपचाप जाजम बिछाने लगे। जाजम बिछाकर वीरपाल बोला-आइए, बैठ जाइए, आपको बड़ा कष्ट हुआ। मिस साहब अभी आ रही हैं। आशा और निराशा की द्विविधा तरंगों में विनय का दिल बैठा जाता था। उन्हें लज्जा आ रही थी कि जिन मनुष्यों को मैंने अधिाकारियों की मदद से मिटा देने का प्रयत्न किया, अंत में उन्हीं के द्वार पर मुझे भिक्षुक बनना पड़ा। मजा तो जब आता कि ये सब हथकड़ियाँ पहने हुए मेरे सामने आते और इन्हें मैं क्षमा प्रदान करता। वास्तव में विजय का सेहरा इन्हीं के सिर रहा। आह! जिन्हें मैं पामर और हत्यारा समझता था, वे ही आज मेरे भाग्यविधााता बने हुए हैं। जब वे जाजम पर जा बैठे तो नायकराम सजग होकर टहलने लगे, तो वीरपाल ने कहा-कुँवर साहब, मेरा परम सौभाग्य है कि आज आपको अपने सामने अदालत की कुर्सी पर बैठे न देखकर अपने द्वार पर बैठे देख रहा हूँ, नहीं तो उन अभागों के साथ मेरी गरदन पर भी छुरी चल जाती, जिन्होंने मार खाकर रोने के सिवा और कोई अपराधा नहीं किया। विनय-वीरपालसिंह, उन दुष्कृत्यों की चर्चा करके मुझे लज्जित न करो। अगर उनका कुछ प्रायश्चित्ता हो सकता है, तो मैं करने को तैयार हूँ। वीरपाल-सच्चे दिल से? विनय-हाँ, अगर मिस सोफिया की तुमने रक्षा की है। वीरपाल-उन्हें तो आप अभी प्रत्यक्ष देख लेंगे। विनय-तो मैं भी तुम्हें मुआफ कराने का यथासाधय उद्योग करूँगा। वीरपाल-आप जानते हैं, मैं मिस साहब को क्यों लाया? इसीलिए कि हम उन्हीं की सेवा और सिफारिश से अपनी रक्षा की आशा रखते थे। हमें आशा थी कि मिस साहब के द्वारा हम प्राण-दान पाने में सफल हो जाएँगे, पर दुर्भाग्यवश उन्हेंं हमारे अनुमान से कहीं ज्यादा गहरा घाव लगा था और उसके भरने में पूरे नौ महीने लग गए। अपने मुँह से क्या कहें, पर जितनी श्रध्दा से हमने उनकी सेवा की, वह हमीं जानते हैं। यही समझ लीजिए कि मुझे छ: महीने तक घर से निकलने का मौका न मिला। इतने दिनों तक जसवंतनगर में नर-हत्या का बाजार गर्म था, रोज-रोज की खबरें सुनता था और माथा ठोंककर रह जाता था। मिस साहब को अपनी रक्षा के लिए लाया था। उनके पीछे सारा इलाका तबाह हो गया। खैर, जो कुछ परमात्मा को मंजूर था, हुआ। अब मेरी आपसे यही विनय है कि हमारे ऊपर दयादृष्टि होनी चाहिए। आपको परमात्मा ने प्रभुता दी है। आपके एक इशारे से हम लोगों की जान बच जाएगी। विनय ने मुक्त हृदय से कहा-मुझे तो पूर्ण विश्वास है कि दरबार तुम्हारे अपराधा क्षमा कर देगा। हाँ, तुम्हें यह वचन देना पड़ेगा कि अब से तुम रियासत के प्रति द्रोहभाव न रखोगे। वीरपाल-मैं इसकी प्रतिज्ञा लेने को तैयार हूँ। कुँवर साहब, सच तो यह है कि आपने हमें बिलकुल अशक्त कर दिया। यह आप ही का दमन है, जिसने हमें इतना कमजोर बना दिया। जिन-जिन आदमियों पर हमें भरोसा था, वे सब दगा दे गए। शत्राु-मित्रा में भेद करना कठिन हो गया। प्रत्येक प्राणी अपनी प्राण-रक्षा के लिए, अपने को निर्दोष सिध्द करने के लिए अथवा अधिाकारियों का विश्वासपात्रा बनने के लिए हमारी आस्तीन का साँप बन गया। वही मैं हूँ, जिसने जसवंतनगर का सरकारी खजाना लूटा था और वही मैं हूँ कि आज चूहे की भाँति बिल में छिपा हूँ। प्रतिक्षण यही डर रहता है कि कहीं पुलिस न आ जाए। विनय-मिस सोफिया कभी मुझे याद करती हैं? वीरपाल-मिस साहब को आपसे जितना प्रेम है, उसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते। (अपने साथी की ओर संकेत करके) इनके आघात से आपको मिस साहब ही ने बचाया था और मिस साहब की खातिर से आप इतने दिनों हमारे हाथों से बचे रहे। हमें आपसे भेंट करने का अवसर न था, पर हमारी बंदूकों को था। मिस साहब आपको याद करके घंटों रोया करती थीं; पर अब उनका हृदय आपसे ऐसा फट गया है कि आपका कोई नाम भी लेता है, तो चिढ़ जाती हैं। वह तो कहती हैं, मुझे ईश्वर ने अपना धार्म-परित्याग करने का यह दंड दिया है। पर मेरा विचार है कि अब भी आपके प्रति उनके हृदय में असीम श्रध्दा है। प्रेम की भाँति मान भी घनिष्ठता ही से उत्पन्न होता है। आप उनसे निराश न हूजिएगा। आप राजा हैं, आपके लिए सब कुछ क्षम्य है। धार्म का बंधान तो छोटे आदमियों के लिए है। सहसा उसी वृक्ष की ओर दूसरी लालटेन का प्रकाश दिखाई दिया। एक वृध्दा लोटा लिए आ रही थी। उसके पीछे सोफी थी-हाथ में एक थाली लिए हुए, जिसमें एक घी का दीपक जल रहा था। वही सोफिया थी, वही तेजस्वी सौंदर्य की प्रतिमा, कांति की मंदता ने उसे एक अवर्णनीय शुभ्रता, आधयात्मिक लावण्य प्रदान कर दिया था, मानो उसकी दृष्टि पंचभूत से नहीं, निर्मल ज्योत्स्ना के परमाणुओं से हुई हो। उसे देखते ही विनय के हृदय में ऐसा उद्गार उठा कि दौड़कर इसके चरणों पर गिर पड़ँई। सौंदर्य-प्रतिमा मोहित नहीं करती, वशीभूत कर लेती है। बुढ़िया ने लोटा रख दिया और लालटेन लिए चली गई। वीरपालसिंह और उसका साथी भी वहाँ से हटकर दूर चले गए। नायकराम भी उन्हीं के साथ हो गए थे। विनय ने कहा-सोफिया, आज मेरे जीवन का स्नबाल कंल है, मैं तो निराश हो चला था। सोफिया-मेरा परम सौभाग्य था कि आपके दर्शन हुए। आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो मरने में कोई कसर न रह गई थी। विनय की आशंकाएँ निर्मूल होती हुई नजर आईं। इंद्रदत्ता अैर वीरपाल ने मुझे अनायास ही चिंता में डाल दिया था! सम्मिलन प्रेम को सजग कर देता है। मनोल्लास के प्रवाह में उनकी सरल बुध्दि किसी पुष्पमाला के समान बहती चली जाती थी। इस वाक्य में कितना तीव्र व्यंग्य था, यह उनकी समझ में न आया। सोफी ने थाल में से दही और चावल निकालकर विनय के मस्तक पर तिलक लगाया और मुस्कराकर बोली-अब आरती करूँगी। विनय ने गद्गद् होकर कहा-प्रिये, यह क्या ढकोसला कर रही हो? तुम भी इन रस्मों के जाल में फँस गईं! सोफी-वाह! आपका आदर-सत्कार कैसे न करूँ? आप मेरे मुक्तिदाता हैं, मुझे इन डाकुओं और वधिाकोें के पंजे से छुड़ा रहे हैं, आपका स्वागत कैसे न करूँ! मेरे कारण आपने रियासत में ऍंधोर मचा दिया, सैकड़ों निरपराधिायों का खून कर दिया, कितने ही घरों के चिराग गुल कर दिए, माताओं को पुत्रा-शोक का मजा चखा दिया, रमणियों को वैधाव्य की गोद में बैठा दिया, और सबसे बड़ी बात यह कि अपनी आत्मा का, अपने सिध्दांतों का, अपने जीवन के आदर्श का मटियामेट कर दिया। इतना कीर्ति-लाभ करने के बाद भी आपका अभिवादन न करूँ? मैं इतनी कृतघ्न नहीं हूँ। अब आप एक तुच्छ सेवक नहीं, रियासत के दाहिने हाथ हैं। राजे-महाराजे आपका सम्मान करते हैं, मैं आपका सम्मान न करूँ। अब विनय की ऑंखें खुलीं। व्यंग्य का एक-एक शब्द शर के समान लगा। बोले-सोफी, मैं तुम्हारा वही भक्त और जाति का वही पुराना सेवक हूँ। तुम इस भाँति मेरा उपहास करके मुझ पर अन्याय कर रही हो। सम्भव है, भ्रम-वश मेरी जात से दूसरों का अहित हुआ, पर मेरा उद्देश्य केवल तुम्हारी रक्षा करना था। सोफिया ने उत्तोजित होकर कहा-बिलकुल झूठ है, मिथ्या है, यह सब मेरी खातिर नहीं, अपनी खातिर था। इसका उद्देश्य केवल उस नीच निरंकुशता को तृप्त करना था, जो तुम्हारे अंतस्तल में सेवा का रूप धाारण किए हुए बैठी हुई है। मैंने तुम्हारी प्रभुताशीलता पर अपने को समर्पित नहीं किया था, बल्कि तुम्हारी सेवा, सहानुभूति और देशानुराग पर। इसलिए तुम्हें अपना उपास्य देव बनाया था कि तुम्हारे जीवन का आदर्श उच्च था, तुममें प्रभु मसीह की दया, भगवान् बुध्द के विराग और लूथर की सत्यनिष्ठा की झलक थी। क्या दुखियों को सतानेवाले, निर्दय, स्वार्थप्रिय अधिाकारियों की संसार मेंं कमी थी? तुम्हारे आदर्श ने मुझे तुम्हारे कदमों पर झुकाया। जब मैं प्राणिमात्रा को स्वार्थ में लिप्त देखते-देखते संसार से घृणा करने लगी थी, तुम्हारी नि:स्वार्थता ने मुझे अनुरक्त कर लिया। लेकिन काल-गति से एक ही पलटे ने तुम्हारा यथार्थ रूप प्रकट कर दिया। मेरा पता लगाने के लिए तुमने धार्माधार्म का विचार भी त्याग दिया। जो प्राणी अपना स्वार्थ सिध्द करने के लिए इतना अत्याचार कर सकता है, वह घोर-से-घोर कुकर्म भी कर सकता है। तुम अपने आदर्श से उसी समय पतित हुए, जब तुमने उसे विद्रोह को शांत करने के लिए शांत उपायों की अपेक्षा क्रूरता और दमन से काम लेना उचित समझा। शैतान ने पहली बार तुम पर वार किया और तुम फिर न सँभले, गिरते ही चले गए। ठोकरों-पर-ठोकरें खाते-खाते अब तुम्हारा इतना पतन हो गया है कि तुममें सज्जनता, विवेक और पुरुषार्थ का लेशांश भी शेष नहीं रहा। तुम्हें देखकर मेरा मस्तक आप-ही-आप झुक जाता था। मेरे प्रेम का आधाार भक्ति थी। वह आधाार जड़ से हिल गया। तुमने मेरे जीवन का सर्वनाश कर दिया। आह! मुझे जितना मुगालता हुआ है, उतना किसी को कभी न हुआ होगा। जिस प्राणी के लिए अपने माता-पिता से विमुख हुई, देश छोड़ा, जिस पर अपने चिरसंचित सिध्दांतों का बलिदान किया, जिसके लिए अपमान, अपवाद, अपकार, सब कुछ शिरोधाार्य किया, वह इतना स्वार्थभक्त, इतना आत्मसेवी, इतना विवेकहीन निकला! कोई दूसरी स्त्राी तुम्हारे इन गुणों पर मुग्धा हो सकती है, प्रेम के विषय में नारियाँ आदर्श और त्याग का विचार नहीं करतीं। लेकिन मेरी शिक्षा, मेरी संगति, मेरा अधययन और सबसे अधिाक मेरे मन की प्रवृत्तिा ने मुझे इन गुणों का आदर करना नहीं सिखाया। अगर आज तुम रियासत के हाथों पीड़ित, दलित, अपमानित और दंडित होकर मेरे सम्मुख आते, तो मैं तुम्हारी बलाएँ लेती, तुम्हारे चरणों की रज मस्तक पर लगाती और अपना धान्य भाग्य समझती। किंतु मुझे उस वस्तु से घृणा है, जिसे लोग सफल जीवन कहते हैं। सफल जीवन पर्याय है खुशामद, अत्याचार और धाूर्तता का। मैं जिन महात्माओं को संसार में सर्वश्रेष्ठ समझती हूँ, उनके जीवन सफल न थे। सांसारिक दृष्टि से वे लोग साधाारण्ा मनुष्यों से भी गए-गुजरे थे, जिन्होंने कष्ट झेले, निर्वासित हुए, पत्थरों से मारे गए, कोसे गए और अंत में संसार ने उन्हें बिना ऑंसू की एक बूँद गिराए बिदा कर दिया, सुरधााम को भेज दिया। तुम पुलिस का एक दल लेकर मुझे खोजने निकले हो। इसका उद्देश्य यही तो है कि प्रजा पर आतंक जमाया जाए! मेरी दृष्टि में जिस राज्य का अस्तित्व अन्याय पर हो, उसका निशान जितनी जल्द मिट जाए, उतना ही अच्छा है। खैर, अब इन बातों से क्या लाभ! तुम्हें अपना सम्मान और प्रभुत्व मुबारक रहे, मैं इसी दशा में संतुष्ट हूँ। जिनके साथ हूँ, वे सहृदय हैं, वे किसी दीन प्राणी की रक्षा प्राणपण से कर सकते हैं, उनमें तुमसे कहीं अधिाक सेवा और उपकार के भाव मौजूद हैं। विनय खिन्न होकर बोले-सोफी, ईश्वर के लिए मुझ पर इतना अन्याय मत करो। अगर मैं प्रभुता और मान-सम्मान का इच्छुक होता, तो मेरी दशा ऐसी हीन न होती। मैंने वही किया, जो मुझे न्यायसंगत जान पड़ा। मैं यथासाधय एक क्षण के लिए भी न्याय-विमुख नहीं हुआ। सोफी-यही तो शोक है कि तुम्हें वह बात क्यों न्यायसंगत जान पड़ी जो न्याय-विरुध्द थी! इससे तुम्हारी आंतरिक प्रवृत्तिा का पता मिलता है। तुम स्वभावत: स्वार्थसेवी हो। मनुष्यों को सभी पदार्थ एक-से प्रिय नहीं होते। कितने ही ऐसे प्राणी हैं, जो कीर्ति के लिए धान को ठीकरों की भाँति लुटाते हैं। वे अपने को स्वार्थरहित नहीं कह सकते। स्वार्थपरता ऊँचे आदर्श से मेल नहीं खाती। जिसकी मनोवृत्तिा इतनी दुर्बल है, उसकी कम-से-कम मैं इज्जत नहीं कर सकती, और इज्जत के बिना प्रेम कलंक का टीका बन जाता है। विनय उन मनुष्यों में न थे, जिन पर प्रतिकूल दशाओं का कोई असर नहीं होता। उन पर निराशा का शीघ्र ही आधिापत्य हो जाता था। विकल होकर बोले-सोफी, मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी। मैंने जो कुछ किया है, न्याय समझकर या परिस्थिति से विवश होकर ही किया है। सोफी-संसार में जितने अकर्म होते हैं, वे भ्रम या परिस्थिति के कारण ही होते हैं। कोई तीसरा कारण मैंने आज तक नहीं सुना। विनय-सोफी, अगर मैं जानता कि मेरी ओर से तुम्हारा हृदय इतना कठोर हो गया है, तो तुम्हें मुख न दिखाता। सोफी-मैं तुम्हारे दर्शनों के लिए उत्सुक न थी। विनय-यह मुझे नहीं मालूम था। मगर मान लो, मैंने अन्याय ही किए, तो क्या मुझे तुम्हारे हाथों यह दंड मिलना चाहिए? इसका भय मुझे माताजी से था, तुमसे न था। आह सोफी! इस प्रेम का यों अंत न होने दो। यों मेरे जीवन का सर्वनाश न करो। उसी प्रेम के नाते, जो कभी तुम्हें मुझसे था, मुझ पर यह अन्याय न करो। यह वेदना मेरे लिए असह्य है। तुम्हें विश्वास न आएगा, क्योंकि इस समय तुम्हारा हृदय मेरी तरफ से पत्थर हो गया है, पर यह आघात मेरे लिए प्राणघातक होगा और अगर मृत्यु के पश्चात् भी कोई जीवन है, तो उस जीवन में भी यही वेदना मेरे हृदय को तड़पाती रहेगी। सोफी, मैं मौत से नहीं डरता, भाले की नोक को हृदय में ले सकता हूँ; पर तुम्हारी यह निष्ठुर दृष्टि, तुम्हारा यह निर्दय आघात मेरे अंतस्तल को छेदे डालता है। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि तुम मुझे विष दे दो। मैं उस प्याले को ऑंखें बंद करके यों पी जाऊँगा, जैसे कोई भक्त चरण्ाामृत पी जाता है। मुझे यह संतोष हो जाएगा कि ये प्राण, जो तुम्हें भेंट कर चुका था, तुम्हारे काम आ गए। ये प्रेम-उच्छृंखल शब्द कदाचित और किसी समय विनय के मुँह से न निकलते, कदाचित् इन्हें फिर स्मरण करके उन्हें आश्चर्य होता कि ये वाक्य कैसे मेरे मुख से निकले, पर इस समय भावोद्गार ने उन्हें प्रगल्भ बना दिया था। सोफी उदासीन भाव से सिर झुकाए खड़ी रही। तब बेदरदी से बोली-विनय, मैं तुमसे याचना करती हूँ, ऐसी बातें न करो। मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति अभी जो कुछ आदर रह गया है, उसे भी पैरों से न कुचलो; क्योंकि मैं जानती हूँ, ये शब्द तुम्हारे अंत:करण से नहीं निकल रहे हैं। इसके विरुध्द तुम इस समय सोच रहे हो कि क्योंकर इससे इस तिरस्कार का बदला लूँ। मुझे आश्चर्य होगा, अगर सूर्योदय के समय यह स्थान खुफिया पुलिस के सिपाहियों का बिहार-स्थल न बन जाए, यहाँ के रहनेवाले हिरासत में न ले लिए जाएँ और उन्हें प्राणदंड न दे दिया जाए। मेरे दंड के लिए तुमने कोई और ही युक्ति सोच रखी होगी। उसके रूप की मैं कल्पना नहीं कर सकती, लेकिन इतना कह सकती हूँ कि अगर मेरी निंदा करके, मेरे आचरण पर आक्षेप करके, तुम मुझे शारीरिक या मानसिक पीड़ा पहुँचा सकोगे, तो तुम्हें उसमें लेश-मात्रा भी विलम्ब न होगा। सम्भव है, मेरा यह अनुमान अन्यायपूर्ण हो, पर मैं इसे दिल से नहीं निकल सकती। कोई ऐसी विभूति, कोई ऐसी सिध्दि नहीं, जो तुम्हें फिर मेरा सम्मानपात्रा बना सके। जिसके हाथ रक्त से रँगे हुए हों, उसके लिए मेरे हृदय में स्थान नहीं। यह न समझो कि इन बातों से दु:ख नहीं हो रहा है। एक-एक शब्द मेरे हृदय को आरे की भाँति चीरे डालता है। यह भी न समझो कि तुम्हें हृदय से निकालकर मैं फिर किसी दूसरी मूर्ति को यहाँ मर्यादित करूँगी, हालाँकि तुम्हारे मन में यह दुष्कल्पना हो, तो मुझे कुतूहल न होगा। नहीं, यही मेरी प्रथम और अंतिम प्रेम-प्रदक्षिणा है। अब यह जीवन किसी दूसरे ही मार्ग का अवलम्बन करेगा। कौन जाने, ईश्वर ने मुझेर् कत्ताव्य-पथ से विचलित होने का तुम्हारे हाथों यह दंड दिलाया हो। तुम्हारे लिए मैंने वह सब कुछ किया, जो न करना चाहिए था। छल, कपट, कौशल, माया, त्रिाया-चरित्रा, एक से भी बाज न आई; क्योंकि मेरी सरल दृष्टि में तुम एक दिव्य, निष्काम, पवित्रा आत्मा थे! तुम अंदाजा नहीं कर सकते थे कि मि. क्लार्क के साथ आने में मुझे कितनी आत्मवेदना सहनी पड़ी। मैंने समझा था, तुम मेरे जीवन-मार्ग के दीपक बनोगे, मेरे जीवन को सुधाारोगे, सँवारोगे, सफल बनाओगे। आखिर मुझमें कौन-सा गुण है, जिस पर तुम रीझे हुए हो? अगर सौंदर्य के इच्छुक हो, तो संसार में सौंदर्य का अभाव नहीं, तुम्हें मुझसे कहीं रूपवती कन्या मिल सकती है। अगर मेरे वचन कर्ण-मधाुर लगते हैं, तो तुम्हें मुझसे कहीं मृदुभाषिणी स्त्रिायाँ मिल सकती हैं। निराश होने की कोई बात नहीं। जल्द या देर में तुम्हें अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार कोई रमणी मिल जाएगी, जिसके साथ तुम अपने ऐश्वर्य और वैभव का आनंद उठा सकोगे, क्योंकि सेवक बनने की क्षमता तुममें नहीं है, और न हो सकती है। मेरा चित्ता तो भूलकर भी प्रणय की ओर ऑंख उठाकर न देखेगा। मैं अब फिर यह रोग न पालूँगी। तुमने मुझे संसार से विरक्त कर दिया, मेरी भोग-तृष्णा को शांत कर दिया। धाार्मिक ग्रंथों के निरंतर पढ़ने से जो मार्ग न मिला, वह नैराश्य ने दिखा दिया। इसके लिए मैं तुम्हारी अनुगृहीत हूँ। धार्म और सत्य की सेवा करके कौन-सा रत्न पाया? अधार्म! अब अधार्म की सेवा करूँगी। जानते हो, क्या करूँगी? उन पापियों से खून का बदला लूँगी, जिन्होंने प्रजा की गरदन पर छुरियाँ चलाई हैं। एक-एक को जहन्नुम की आग में झोंक दूँगी, तब मेरी आत्मा तृप्त होगी। जो लोग आज निरपराधिायों की हत्या करके सम्मान और कीर्ति का उपभोग कर रहे हैं, उन्हें नरक के अग्निक्ुं+ड में जलाऊँगी, और जब तक अत्याचारियों के इस जत्थे का मूलोच्छेद न कर दूँगी, चैन न लूँगी, चाहे इस अनुष्ठान में मुझे प्राणों से ही क्यों न हाथ धाोना पड़े, चाहे रियासत में विप्लव ही क्यों न हो जाए, चाहे रियासत का निशान ही क्यों न मिट जाए? मेरे दिल में यह दुरुत्साह तुम्हीं ने पैदा किया है, और इसका इलजाम तुम्हारी गरदन पर है। ईसा ही की क्षमा और दया, बुध्द के धौर्य और संयम, कृष्ण के प्रेम और वैराग्य की अमर कीर्तियाँ भी अब इस रक्त-पिपासा को नहीं बुझा सकतीं। बरसों का मनन और चिंतन, विचार और स्वाधयाय तुम्हारे कुकर्मों की बदौलत निष्फल हो गया। बस, अब जाओ। मैं जो कुछ करूँगी, वह तुमसे कह चुकी। तुम्हारी जो इच्छा हो, वह तुम करो। मैं आज से क्रांतिकारियों के दल में जाती हूँ, तुम खुफिया पुलिस की शरण लो। जाओ, ईश्वर फिर हमें न मिलाए। यह कहकर सोफी ने थाल उठा लिया और चली गई, जैसे आशा हृदय से निकल जाए। विनय ने एक ठंडी साँस ली, जो आर्तधवनि से कम करुण न थी और जमीन पर बैठ गए, जैसे कोई हतभागिनी विधावा पति की मृत देह उठ जाने के बाद एक आह भरकर बैठ जाए। तीनाेंं आदमी, जो दूर खड़े थे, आकर विनय के पास खड़े हो गए। नायकराम ने कहा-भैया, आज तो खूब-खूब बातें हुईं! तुमने भी पकड़ पाया, तो इतने दिनों की कसर निकाल ली। आ गईं पंजे में न? वह तो मैंने पहले ही कह दिया था, आसिक लोग बड़े चकमेबाज होते हैं। पहले तो खूब आरती उतारी, दही-चावल का टीका लगाया। मेम हैं तो क्या, हम लोगों का तौर-तरीका जानती हैं। कब चलना तय हुआ? जल्दी चलो, मेरा भी घर बसे। विनय के नेत्रा सजल थे, पर इस वाक्य पर हँस पड़े। बोले-बस, अब देर नहीं, घर चिट्ठी लिख दो, तैयारी करें। नायकराम-भैया, आनंद तो जब आए कि दोनों बरातें साथ ही निकलें। विनय-हाँ जी, साथ ही निकलेंगी, पहले तुम्हारी, पीछे मेरी। नायकराम-ठाकुर साहब, अब सवारी-सिकारी का इंतजाम करो, जिसमें हम लोग कल सबेरे ठंडे-ठंडे निकल जाएँ। यहाँ पालकी तो मिल जाएगी न? वीरपाल-सब इंतजाम हो जाएगा। अब भोजन करके आराम कीजिए, देर हो गई। विनय-यहाँ से जसवंतनगर कितनी दूर है? वीरपाल-यह पूछकर क्या कीजिएगा? विनय-मुझे इसी वक्त वहाँ पहुँचना चाहिए। वीरपाल-(सशंक होकर) आप दिन-भर के थके-माँदे हैं, रास्ता खराब है। विनय-कोई चिंता नहीं, चला जाऊँगा। नायकराम-भैया, मिस साहब भी रहेंगी न, रात को कैसे चलोगे? विनय-तुम तो सनक गए हो, मिस साहब मेरी कौन लगती हैं, और मेरे साथ क्यों जाने लगीं। अगर आज मैं मर जाऊँ, तो शायद उनसे ज्यादा खुशी और किसी को न होगी। तुम्हें थकावट आ गई हो, तो आराम करो; पर मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं ठहर सकता। मुझे काँटों की राह भी यहाँ की सेज से अधिाक सुखकर होगी। आप लोगों में से कोई रास्ता दिखा सकता है? वीरपाल-चलने को तो मैं खुद हाजिर हूँ, पर रास्ता अत्यंत भयानक है। विनय-कोई मुजाएका नहीं। मुझे इसी वक्त पहुँचा दीजिए और हो सके, तो ऑंखों पर पट्टी बाँधा दीजिए। मुझे अब अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं रहा। वीरपाल-भोजन तो कर लीजिए। इतना आतिथ्य तो स्वीकार कीजिए। विनय-अगर मेरा आतिथ्य करना है, मुझे तो गोली मार दीजिए। इससे बढ़कर आप मेरा आतिथ्य नहीं कर सकते। मैंने आपका जितना अपकार किया है, यदि आपने उसका शतांश भी मेरे साथ किया होता, तो मुझे किसी प्रेरणा की जरूरत न पड़ती। मैं पिशाच हूँ, हत्यारा हूँ; पृथ्वी मेरे बोझ से जितनी जल्दी हलकी हो जाए, उतना ही अच्छा है! नायकराम-मालूम होता है, मिस साहब सचमुच फिरंट हो गईं। मगर मैं कहे देता हूँ, दो-ही-चार दिन में तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ती फिरेंगी। आसिक की हाय बुरी होती है। वीरपाल-कुँवर साहब, मेरा इतना कहना मानिए, अभी न जाइए। मुझे डर है, कहीं मिस साहब आपके यों चले जाने से घबरा न जाएँ। मैं वादा करता हूँ, कल सूर्योदय तक आप जसवंतनगर पहुँच जाएँगे। इस वक्त कुछ भोजन कर लीजिए। विनय-मेरे लिए अब यहाँ का पानी भी हराम है। अगर तुम्हें नहीं चलना है, तो न सही; मुझे तुमसे इतनी खातिरदारी कराने का अधिाकार नहीं है। मैं अकेला ही चला जाऊँगा। वीरपाल विवश होकर साथ चलने को तैयार हुआ। नायकराम का भूख के मारे बुरा हाल था; पर क्या करते, विनय को चलते देखकर उठ खड़े हुए। तीनों आदमी रवाना हुए। आधा घंटे तक तीनों आदमी चुपचाप चलते रहे। विनय को सोफिया की और सब बातें तो याद न थीं, पर उनकी नीयत पर उसने जो आक्षेप किए थे और उनके विषय में जो द्वेषपूर्ण भविष्यवाणी की थी, उसका एक-एक शब्द उसके कानों में गूँज रहा था। सोफिया मुझे इतना नीच समझती है। परिस्थिति पर जरा भी विचार नहीं करना चाहती, मन की दशा के लिए स्थान नहीं छोड़ती। सहसा उन्हाेंने वीरपाल से पूछा-तुम्हारे विचार में मैं आवेश में आकर यह अन्याय कर बैठा या जैसा मिस सोफिया कहती है, मैं स्वभाव ही का नीच हूँ? वीरपाल-कुँवर साहब, मिस सोफिया की इस वक्त की बातों का जरा भी बुरा न मानिए। जैसे आप आवेश में विवेकहीन हो गए थे, वैसे ही वह भी आवेश में अनर्गल बातें कर गई होंगी। जब आपने सेवाधार्म और परोपकार के लिए राज्य त्याग दिया, तो किसका मुँह है, जो आपको स्वार्थी कह सके? विनय-न जाने इतने कटु शब्द कहाँ से सीख लिए! आदमी भिखारी को भी जवाब दे, तो नम्रता से। इसने तो मुझे इस तरह दुतकारा, मानो कोई कुत्ताा हो। नायकराम-किसी ऍंगरेज को ब्याहेगी, और क्या। यहाँ काले आदमियों के पास क्या धारा है? मुरगी का अंडा कहाँ मिलेगा? विनय-तुम निरे मूर्ख हो, तुम्हें मुर्गी के अंडे की पड़ी है। नायकराम-एक बात कहता था। तुम्हारे साथ वह आजादी कहाँ? ले जाकर रानी बना दोगे, परदे में बैठा दोगे। घोड़ी पर सवार कराकर शिकार खेलने तो न जाओगे! कमर में हाथ डालकर टमटम पर तो न बैठाओगे! टोपी उतारकर हुरे-हुरे तो न करोगे! विनय-फिर वही उपज। अरे पोंगा महाराज, सोफिया को तुमने क्या समझा है? हमारे धार्म का जितना ज्ञान उसे है, उतना किसी पंडित को भी न होगा। वह हमारे यहाँ की देवियों से किसी भाँति कम नहीं। उसे तो किसी राजा के घर जन्म लेना चाहिए था, न जाने ईसाई-खानदान में क्यों पैदा हुई। मुझसे मुँह फेरकर वह अब किसी को मुँह नहीं लगा सकती। इसका मुझे उतना ही विश्वास है, जितना अपनी ऑंखों का। वह अब विवाह ही न करेगी। वीरपाल-आप बहुत सत्य कहते हैं, वास्तव में देवी हैं। विनय-सच कहना, कभी मेरी चर्चा भी करती थीं? वीरपाल-इसके सिवा तो उन्हें और कोई बात ही न थी। घाव गहरा था, अचेत पड़ी रहती थीं, पर चौंक-चौंककर, आपको पुकारने लगतीं। कहतीं-विनय को बुला दो, उन्हें देखकर तब मरूँगी। कभी-कभी तो दिन-के-दिन आप ही की रट लगाती रह जाती थीं। जब किसी को देखतीं, यही पूछतीं, विनय आए? कहाँ हैं? मेरे सामने लाना। उनके चरण कहाँ हैं? हम लोग उनकी बेकसी देख-देखकर रोने लगते थे। जर्राह ने ऐसी चीर-फाड़ की कि आपसे क्या बताऊँ, याद करके रोएँ खड़े हो जाते हैं। उसे देखते ही सूख जाती थीं; लेकिन ज्यों ही कह देते कि आज विनयसिंह के आने की खबर है; तुरंत दिल मजबूत करके मरहम-पट्टी करा लेती थीं। जर्राह से कहतीं-जल्दी करो, वह आनेवाले हैं; ऐसा न हो, आ जाएँ। यह समझिए, आपके नाम ने उन्हें मृत्यु के मुख से निकाल लिया... विनय अवरुध्द कंठ से बोले-बस करो, अब और कुछ न कहो। यह करुण कथा नहीं सुनी जाती। कलेजा मुँह को आता है। वीरपाल-एक दिन उसी दशा में आपके पास जाने को तैयार हो गईं। रो-रोकर कहने लगीं, उन्हें लोगों ने गिरफ्तार कर लिया है, मैं उन्हें छुड़ाने जा रही हूँ... विनय-रहने दो वीरपाल, नहीं तो हृदय फट जाएगा, उसके टुकड़े हो जाएँगे। मुझे जरा कहीं लिटा दो, न जाने क्यों जी डूबा जाता है। आह! मुझ जैसे अभागे का यही उचित दंड है। देवताओं से मेरा सुख न देखा गया। इनसे किसी का कभी कल्याण नहीं हुआ। चले चलो, न लेटँगा। मुझे इसी वक्त जसवंतनगर पहुँचना है। फिर लोग चुपचाप चलने लगे। विनय इतने वेग से चल रहे थे, मानो दौड़ रहे हैं। पीड़ित अंगों में एक विलक्षण स्फूर्ति आ गई थी। बेचारे नायकराम दौड़ते-दौड़ते हाँफ रहे थे। रात के दो बजे होंगे। वायु में प्राणप्रद शीतलता का समावेश हो गया था। निशा-सुंदरी प्रौढ़ा हो गई थी। जब उसकी चंचल छवि माधाुर्य का रूप ग्रहण कर लेती है, जब उसकी मायाविनी शक्ति दुर्निवार्य हो जाती है। नायकराम तो कई बार उँघकर गिरते-गिरते बच गए। विनय को भी विश्राम करने की इच्छा होने लगी कि वीरपाल बोले-लीजिए, जसवंतनगर पहुँच गए। विनय-अरे, इतनी जल्द! अभी तो चलते हुए चार घंटे हुए होंगे। वीरपाल-आज सीधो आए। विनय-आओ, आज यहाँ के अधिाकारियों से तुम्हारी सफाई करा दूँ। वीरपाल-आपसे सफाई हो गई, तो अब किसी का गम नहीं। अब मुझे यहीं से रुखसत कीजिए। विनय-एक दिन के लिए तो मेरे मेहमान हो जाइए! वीरपाल-ईश्वर ने चाहा, तो जल्द ही आपके दर्शन होंगे। मुझ पर कृपा रखिएगा। विनय-सोफिया से मेरा कुछ जिक्र न कीजिएगा। वीरपाल-जब तक वह खुद न छेड़ेंगी, मैं न करूँगा। विनय-मेरी यह घबराहट, यह बावलापन, इसका जिक्र भूलकर भी न कीजिएगा। मैं न जाने क्या-क्या बक रहा हूँ, अपनी भाषा और विचार, एक पर भी मुझे विश्वास नहीं रहा, संज्ञाहीन-सा हो रहा हूँ। आप उनसे इतना ही कह दीजिएगा कि मुझसे कुछ नहीं बोले। इसका वचन दीजिए। वीरपाल-अगर वह मुझसे कुछ न पूछेंगी, तो मैं कुछ न कहूँगा। विनय-मेरी खातिर से इतना जरूर कह दीजिएगा कि आपका ज़रा भी जिक्र न करते थे। वीरपाल-झूठ तो न बोलूँगा। विनय-जैसी तुम्हारी इच्छा।
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