पहला दृश्य
स्थान : डाकुओं का मकान।
समय : ढाई बजे रात। हलधर डाकुओं के मकान के सामने बैठा हुआ है।
हलधर : (मन में) दोनों भाई कैसे टूटकर गले मिले हैं। मैं न जानता था।
कि बड़े आदमियों में भाई-भाई में भी इतना प्रेम होता है। दोनों के
आंसू ही न थमते थे।बड़ी कुशल हुई कि मैं मौके से पहुंच गया, नहीं तो
वंश का अंत हो जाता। मुझे तो दोनों भाइयों से ऐसा प्रेम हो गया है
मानो मेरे अपने भाई हैं। मगर आज तो मैंने उन्हें बचा लिया। कौन कह
सकता है वह फिर एक-दूसरे के दुश्मन न हो जायेंगी। रोग की जड़ तो मन
में जमी हुई है। उसको काटे बिना रोगी की जान कैसे बचेगी। राजेश्वरी
के रहते हुए इनके मन की मैल न मिटेगी। दो-चार दिन में इनमें फिर अनबन
हो जाएगी। इस अभागिनी ने मेरे कुल में आग लगायी, अब इस कुल का
सत्यानाश कर रही है। उसे मौत भी नहीं आ जाती। जब तक जियेगी मुझे
कलंकित करती रहेगी।
बिरादरी में कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहा। सब लोग मुझे बिरादरी से
निकाल देंगे। हुक्का-पानी बंद कर देंगे।हेठी और बदनामी होगी वह घाते
में । यह तो यहां महल में रानी बनी बैठी अपने कुकर्म का आनंद उठाया
करे और मैं इसके कारण बदनामी उठाऊँ। अब तक उसको मारने का जी न चाहता
था।औरतों पर हाथ उठाना नीचता का काम समझता था।पर अब वह नीचता करनी
पड़ेगी। उसके किए बिना सब खेल बिगड़ जाएगी।
चेतनदास का प्रवेश।
चेतनदास : यहां कौन बैठा है ?
हलधर : मैं हूँ हलधर।
चेतनदास : खूब मिले। बताओ सबलसिंह का क्या हाल हुआ ? वध कर डाला ?
हलधर : नहीं, उन्हें मरने से बचा लिया
चेतनदास : (खुश होकर) बहुत अच्छा किया। मुझे यह सुनकर बड़ी खुशी हुई
सबलसिंह कहां हैं ?
हलधर : मेरे घर
चेतनदास : ज्ञानी जानती है कि वह जिंदा है ?
हलधर : नहीं, उसे अब तक इसकी खबर नहीं मिली।
चेतनदास : तो उसे जल्द खबर दो नहीं तो उससे भेंट न होगी। वह घर में
नहीं है। न जाने कहां गयी ? उसे यह खबर मिल जाएगी तो कदाचित् उसकी
जान बच जाए। मैं उसकी टोह में जा रहा हूँ। इस अंधेरी रात में कहां
खोजूं ? (प्रस्थान)
हलधर : (मन में) यह डाकन न जाने कितनी जानें लेकर संतुष्ट होगी।
ज्ञानीदेवी है। उसने सबलसिंह को कमरे में न देखा होगी। समझी होगी वह
गंगा में डूब मरे। कौन जाने इसी इरादे से वह भी घर से निकल खड़ी हुई
हो, चलकर अपने आदमियों को उसका पता लगाने के लिए दौड़ा दूं। उसकी जान
मुर्ति में चली जाएगी। क्या दिल्लगी है कि रानी तो मारी-मारी फिरे और
कुलटा महल में सुख की नींद सोये।
अचल दूसरी ओर से हवाई बंदूक लिये आता है।
हलधर : कौन ?
अचल : अचलसिंह, कुंअर सबलसिंह का पुत्र।
हलधर : अच्छा, तुम खूब आ गये पर अंधेरी रात में तुम्हें डर नहीं
लगा?
अचल : डर किस बात का ? मुझे डर नहीं लगता। बाबूजी ने मुझे बताया है
कि डरना पाप है`
हलधर : जाते कहां हो ?
अचल : कहीं नहीं।
हलधर : तो इतनी रात गए घर से क्यों निकले ?
अचल : तुम कौन हो ?
हलधर : मेरा नाम हलधर है।
अचल : अच्छा, तुम्हीं ने माताजी की जान बचायी थी ?
हलधर : जान तो भगवान् ने बचायी, मैंने तो केवल डाकुओं को भगा दिया
था। तुम इतनी रात गए अकेले कहां जा रहे हो ?
अचल : किसी से कहोगे तो नहीं ?
हलधर : नहीं, किसी से न कहूँगा
अचल : तुम बहादुर आदमी हो, मुझे तुम्हारे उसपर विश्वास है। तुमसे
कहने में शर्म नहीं है। यहां कोई वेश्या है। उसने चाचा जी को और
बाबूजी को विष देकर मार डाला है। अम्मांजी ने शोक से प्राण त्याग दिए
। वह स्त्री थीं, क्या कर सकती थीं । अब मैं उसी वेश्या के घर जा रहा
हूँ। इसी वक्त बंदूक से उसका सिर उड़ा दूंगा। (बंदूक तानकर दिखाता
है।)
हलधर : तुमसे किसने कहा?
अचल : मिसराइन ने, चाचाजी कल से घर पर नहीं हैं। बाबूजी भी दस बजे
रात से नहीं हैं। न घर में अम्मां का पता है। मिसराइन सब हाल जानती
हैं।
हलधर : तुमने वेश्या का घर देखा है ?
अचल : नहीं, घर तो नहीं देखा है।
हलधर : तो उसे मारोगे उसे ?
अचल : किसी से पूछ लूंगा ।
हलधर : तुम्हारे चाचाजी और बाबूजी तो मेरे घर में हैं।
अचल : झूठ कहते हो, दिखा दोगे ?
हलधर : कुछ इनाम दो तो दिखा दूं।
अचल : चलो, क्या दिखाओगे ! वह लोग अब स्वर्ग में होंगे।हां,
राजेश्वरी का घर दिखा दो तो जो कहो वह दूं।
हलधर : अच्छा मेरे साथ आओ, मगर बंदूक ले लूंगा।
दोनों घर में जाते हैं, सबल और कंचन चकित होकर अचल को देखते हैं, अचल
दौड़कर बाप की गरदन से चिमट जाता है।
हलधर : (मन में) अब यहां नहीं रह सकता। फिर तीनों रोने लगे ? बाहर
चलूं। कैसा होनहार बालक है। (बाहर आकर मन में) यह बच्चा तक उसे
वेश्या कहता है। वेश्या है ही। सारी दुनिया यही कहती होगी। अब तो और
भी गुल खिलेगी। अगर दोनों भाइयों ने उसे त्याग दिया तो पेट के लिए
उसे अपनी लाज बेचनी पड़ेगी। ऐसी हयादार नहीं है कि जहर खाकर मर जाए।
जिसे मैं देवी समझता था। वह ऐसी कुल-कलंकिनी निकली ! तूने मेरे साथ
ऐसा छल किया ! अब दुनिया को कौन मुंह दिखाऊँ। सब की एक ही दवा है । न
बांस रहे न बांसुरी बजेब तेरे जीने से सबकी हानि है। किसी का लाभ
नहीं तेरे मरने से सबका लाभ है, किसी की हानि नहीं उससे कुछ पूछना
व्यर्थ है । रोएगी, गिड़गिड़ाएगी, पैरों पड़ेगी। जिसने लाज बेच दी
वह अपनी जान बचाने के लिए सभी तरह की चालें चल सकती है। कहेगी, मुझे
सबलसिंह जबरदस्ती निकाल लाए, मैं तो आती न थी। न जाने क्या-क्या
बहाने करेगी ! उससे सवाल-जवाब करने की जरूरत नहीं चलते ही काम तमाम
कर दूंगा
हथियार संभालकर चल खड़ा होता है।
दूसरा दृश्य
स्थान : शहर की एक गली।
समय : तीन बजे रात, इंस्पेक्टर और थानेदार की चेतनदास से
मुठभेड़।
इंस्पेक्टर : महाराज, खूब मिले। मैं तो आपके ही दौलतखाने की तरफ जा
रहा था।लाइए दूध के धुले हुए पूरे एक हजार, कमी की गुंजाइश नहीं,
बेशी की हद नहीं।
थानेदार : आपने जमानत न कर ली होती तो उधर भी हजार-पांच सौ पर हाथ
साफ करता।
चेतनदास : इस वक्त मैं दूसरी फिक्र में हूँ। फिर कभी आना।
इंस्पेक्टर : जनाब, हम आपके गुलाम नहीं हैं जो बार-बार सलाम करने को
हाजिर हों। आपने आज का वादा किया था। वादा पूरा कीजिए। कील व काल की
जरूरत नहीं ।
चेतनदास : कह दिया, मैं इस समय दूसरी चिंता में हूँ। फिर इस संबंध
में बातें होंगी।
इंस्पेक्टर : आपका क्या एतबार, इसी वक्त की गाड़ी से हरिद्वार की राह
लें। पुलिस के मुआमले नकद होते हैं।
एक सिपाही : लाओ नगद-नारायन निकालो। पुलिस से ऊ फेरफार न चल पइहैं।
तुमरे ऐसे साधुन का इहां रोज चराइत हैं।
इंस्पेक्टर : आप हैं किस गुमान में ! यह चालें अपने भोले-भाले
चेले-चापड़ों के लिए रहने दीजिए, जिन्हें आप नजात देते हैं। हमारी
नजात के लिए आपके रूपये काफी हैं। उससे हम फरिश्तों को भी राह पर लगा
हुई। दारोगाजी, वह शेर आपको याद है ?
दारोगा : जी हां, ऐ तू खुदा नई, बलेकिन बखुदा हाशा रब्बी व गाफिल हो
जाती।
इंस्पेक्टर : मतलब यह है कि रूपया खुदा नहीं है लेकिन खुदा के दो
सबसे बड़े औसाफ उसमें मौजूद हैं। परवरिश करना और इंसान की जरूरतों को
रफा करना।
चेतनदास : कल किसी वक्त आइए।
इंस्पेक्टर : (रास्ते में खड़े होकर) कल आने वाले पर लानत है। एक भले
आदमी की इज्जत खाक में मिलवाकर अब आप यों झांसा देना चाहते हैं। कहीं
साहब बहादुर ताड़ जाते तो नौकरी के लाले पड़ जाते।
चेतनदास : रास्ते से हटोब (आगे बढ़ना चाहता है।)
इंस्पेक्टर : (हाथ पकड़कर) इधर आइए, इस सीनाजोरी से काम न
चलेगा!
चेतनदास हाथ झटककर छुड़ा लेता है और इंस्पेक्टर को जोर से धक्का मार
कर गिरा देता है।
दारोगा : गिरफ्तारी कर लो।रहजन है।
चेतनदास : अगर कोई मेरे निकट आया तो गर्दन उड़ा दूंगा।
दारोगा पिस्तौल उठाता है, लेकिन पिस्तौल नहीं चलती, चेतनदास उसके हाथ
से पिस्तौल छीनकर उसकी छाती पर निशाना लगाता है।
दारोगा : स्वामीजी, खुदा के वास्ते रहम कीजिए। ताजीस्त आपका गुलाम
रहूँगा।
चेतनदास : मुझे तुझ-जैसे दुष्टों की गुलामी की जरूरत नहीं (दोनों
सिपाही भाग जाते हैं। थानेदार चेतनदास के पैरों पर फिर पड़ता है।)
बोल, कितने रूपये लेगा ?
थानेदार : महाराज, मेरी जां बख्श दीजिए। जिंदा रहूँगा तो आपके एकबाल
से बहुत रूपये मिलेंगे !
चेतनदास : अभी गरीबों को सताने की इच्छा बनी हुई है। तुझे मार क्यों
न डालूं। कम-से-कम एक अत्याचारी का भार तो पृथ्वी पर कम हो जाये।
थानेदार : नहीं महाराज, खुदा के लिए रहम कीजिए। बाल-बच्चे दाने बगैर
मर जाएंगी। अब कभी किसी को न सताऊँगा। अगर एक कौड़ी भी रिश्वत लूं तो
मेरे अस्ल में गर्क समझिए। कभी हराम के माल के करी। न जाऊँगी।
चेतनदास : अच्छा, तुम इस इंस्पेक्टर के सिर पर पचास जूते गिनकर लगाओ
तो छोड़ दूं।
थानेदार : महाराज, वह मेरे अफसर हैं। मैं उनकी शान में ऐसी बे-अदबी
क्यों कर सकता हूँ। रिपोर्ट कर दें तो बर्खास्त हो जाऊँ।
चेतनदास : तो फिर आंखें बंद कर लो और खुदा को याद करो, घोड़ा गिरता
है।
थानेदार : हुजूर जरा ठहर जायें, हुक्म की तामील करता हूँ। कितने जूते
लगाऊँ ?
चेतनदास : पचास से कम न ज्यादाब
थानेदार : इतने जूते पड़ेंगे तो चांद खुल जाएगी। नाल लगी हुई है।
चेतनदास : कोई परवाह नहीं उतार लो जूते।
थानेदार जूते पैर से निकालकर इंस्पेक्टर के सिर पर लगाता है,
इंस्पेक्टर चौंककर उठ बैठता है, दूसरा जूता फिर पड़ता है।
इंस्पेक्टर : शैतान कहीं का।
थानेदार : मैं क्या करूं ? बैठ जाइए, पचास लगा लूं। इतनी इनायत कीजिए
! जान तो बचे।
इंस्पेक्टर उठकर थानेदार से हाथा।पाई करने लगता है, दोनों एक दूसरे
को गालियां देते हैं, दांत काटते हैं।
चेतनदास : जो जीतेगा उसे इनाम दूंगा। मेरी कुटी पर आना । खूब लड़ो,
देखें कौन बाजी ले जाता है। (प्रस्थान।)
इंस्पेक्टर : तुम्हारी इतनी मजाल ! बर्खास्त न करा दिया तो कहना।
थानेदार : क्या करता, सीने पर पिस्तौल का निशाना लगाए तो खड़ा था।
इंस्पेक्टर : यहां कोई सिपाही तो नहीं है ?
थानेदार : वह दोनों तो पहले ही भाग गए।
इंस्पेक्टर : अच्छा, खैरियत चाहो तो चुपके से बैठ जाओ और मुझे गिन कर
सौ जूते लगाने दो, वरना कहे देता हूँ कि सुबह को तुम थाने में न
रहोगी। पगड़ी उतार लो।
थानेदार : मैंने तो आपकी पगड़ी नहीं उतारी थी।
इंस्पेक्टर : उस बदमाश साधु को यह सूझी ही नहीं।
थानेदार : आप तो दूसरे ही हाथ पर उठ खड़े हुए थे !
इंस्पेक्टर : खबरदार, जो यह कलमा फिर मुंह से निकला। दो के दस तो
तुम्हें जरूर लगाऊँगा। बाकी फी पापोश एक रूपये के हिसाब से माफकर
सकता हूँ।
दोनों सिपाही आ जाते हैं, दारोगा सिर पर साफा रख लेता है, इंस्पेक्टर
क्रोधपूर्ण नेत्रों से उसे देखता है और सब गश्त पर निकल जाते हैं।
तीसरा दृश्य
स्थान : राजेश्वरी का कमरा।
समय : तीन बजे रात। फानूस जल रही है, राजेश्वरी पानदान खोले फर्श पर
बैठी है।
राजेश्वरी : (मन में) मेरे मन की सारी अभिलाषाएं पूरी हो गयीं। जो
प्रण करके घर से निकली थी वह पूरा हो गया। जीवन सफल हो गया। अब
जीवन में कौन-सा सुख रखा है। विधाता की लीला विचित्र है। संसार के और
प्राणियों का जीवन धर्म से सफल होता है। अहिंसा ही सबकी मोक्षदाता
है। मेरा जीवन अधर्म से सफल हुआ, हिंसा से ही मेरा मोक्ष हो रहा है।
अब कौन मुंह लेकर मधुबन जाऊँ, मैं कितनी ही पतिव्रता बनूं, किसे
विश्वास आएगा ? मैंने यहां कैसे अपना धर्म निबाहा, इसे कौन मानेगा ?
हाय ! किसकी होकर रहूँगी ? हलधर का क्या ठिकाना ? न जाने कितनी जानें
ली होंगी, कितनों का घर लूटा होगा, कितनों के खून से हाथ रंगे होंगे,
क्या?क्या कुकर्म किये होंगे।वह अगर मुझे पतिता और कुलटा समझते हैं
तो मैं भी उन्हें नीच और अधम समझती हूँ। वह मेरी सूरत न देखना चाहते
हों तो मैं उनकी परछाई भी अपने उसपर नहीं पड़ने देना चाहती। अब उनसे
मेरा कोई संबंध नहीं मैं अनाथा हूँ, अभागिनी हूँ, संसार में कोई मेरा
नहीं है।
कोई किवाड़ खटखटाता है, लालटेन लेकर नीचे जाती है, और किवाड़ खोलती है,
ज्ञानी का प्रवेश।
ज्ञानी : बहिन, क्षमा करना, तुम्हें असमय कष्ट दिया । मेरे स्वामीजी
यहां हैं या नहीं ? मुझे एक बार उनके दर्शन कर लेने दो।
राजेश्वरी : रानीजी, सत्य कहती हूँ वह यहां नहीं आये।
ज्ञानी : यहां नहीं आये !
राजेश्वरी : न ! जब से गए हैं फिर नहीं आयेब
ज्ञानी : घर पर भी नहीं हैं। अब किधर जाऊँ ? भगवन्, उनकी रक्षा करना।
बहिन, अब मुझे उनके दर्शन न होंगे।उन्होंने कोईभयंकर काम कर डाला।
शंका से मेरा ह्रदय कांप रहा है। तुमसे उन्हें प्रेम था।शायद वह एक
बार फिर आएं। उनसे कह देना, ज्ञानी तुम्हारे पदरज को शीश पर चढ़ाने के
लिए आयी थी। निराश होकर चली गयी। उनसे कह देना वह अभागिनी, भ्रष्टा,
तुम्हारे प्रेम के योग्य नहीं रही।
हीरे की कनी खा लेती है।
राजेश्वरी : रानीजी, आप देवी हैं¼ वह पतित हो गए हों, पर आपका चरित्र
उज्ज्वल रत्न है। आप क्यों क्षोभ करती हैं !
ज्ञानी : बहिन, कभी यह घमंड था।, पर अब नहीं है।
उसका मुख पीला होने लगता है और पैर लड़खड़ाते
हैं।
राजेश्वरी : रानीजी, कैसा जी है ?
ज्ञानी : कलेजे में आग-सी लगी हुई है। थोड़ा-सा ठंडा पानी दो। मगर
नहीं, रहने दो। जबान सूखी जाती है। कंठ में कांटे पड़ गए हैं।
आत्मगौरव से बढ़कर कोई चीज नहीं उसे खोकर जिये तो क्या जिये !
राजेश्वरी : आपने कुछ खा तो नहीं लिया?
ज्ञानी : तुम आज ही यहां से चली जाओ। अपने पति के चरणों पर गिरकर
अपना अपराध क्षमा करा लो।वह वीरात्मा हैं। एक बार मुझे डाकुओं से
बचाया था।तुम्हारे उसपर दया करेंगी। ईश्वर इस समय उनसे मेरी भेंट
करवा देते तो मैं उनसे शपथ खाकर कहती, इस देवी के साथ तुमने बड़ा
अन्याय किया है। वह ऐसी पवित्र है जैसे फूल की पंखड़ियों पर पड़ी हुई
ओस की बूंदें या प्रभात काल की निर्मल किरणें। मैं सिद्व करती कि
इसकी आत्मा पवित्र है।
पीड़ा से विकल होकर बैठ जाती है।
राजेश्वरी : (मन में) इन्होंने अवश्य कुछ खा लिया । आंखें पथरायी
जाती हैं, पसीना निकल रहा है। निराशा और लज्जा ने अंत में इनकी जान
ही लेकर छोड़ी, मैं इनकी प्राणघातिका हूँ। मेरे ही कारण इस देवी की
जान जा रही है। इसे मर्यादा?पालन कहते हैं। एक मैं हूँ कि कष्ट और
अपमान भोगने के लिए बैठी हूँ। नहीं देवी, मुझे भी साथ लेती
चलो।तुम्हारे साथ मेरी भी लाज रह जाएगी। तुम्हें ईश्वर ने क्या नहीं
दिया । दूध-पूत, मान-महातम सभी कुछ तो है। पर केवल पति के पतित हो
जाने के कारण तुम अपने प्राण त्याग रही हो, तो मैं, जिसका आंसू
पोंछने वाला भी कोई नहीं, कौन-सा सुख भोगने के लिए बैठी रहूँ।
ज्ञानी : (सचेत होकर) पानीपानीA
राजेश्वरी : (कटोरे में पानी देती हुई) पी लीजिए।
ज्ञानी : (राजेश्वरी को ध्यान से देखकर) नहीं, रहने दो। पतिदेव के
दर्शन कैसे पाऊँ। मेरे मरने का हाल सुनकर उन्हें बहुत दु: ख होगा
राजेश्वरी, उन्हें मुझसे बहुत प्रेम है। इधर वह मुझसे इतने लज्जित थे
कि मेरी तरफ सीधी आंख से ताक भी न सकते थे।(फिर अचेत हो जाती है।)
राजेश्वरी : (मन में) भगवन् अब यह शोक देखा नहीं जाता। कोई और स्त्री
होती तो मेरे खून की प्यासी हो जाती। इस देवी के ह्रदय में कितनी दया
है। मुझे इतनी नीची समझती हैं कि मेरे हाथ का पानी भी नहीं पीतीं, पर
व्यवहार में कितनी भलमनसाहत है। मैं ऐसी दया की मूरत की घातिका हूँ।
मेरा क्या अंत होगा!
ज्ञानी : हाय, पुत्र-लालसा ! तूने मेरा सर्वनाश कर दिया । राजेश्वरी,
साधुओं का भेस देखकर धोखे में न आना। (आंखें बंद कर लेती है।)
राजेश्वरी : कभी किसी साधु ने इसे जट कर रास्ता लिया होगा। वही सुध आ
रही है। तुम तो चली, मेरे लिए कौन रास्ता है ? वह डाकू ही हो गए हैं।
अब तक सबलसिंह के भय से इधर न आते थे।अब वह मुझे कब जीता छोड़ेंगे ? न
जाने क्या?क्या दुर्गति करें? मैं जीना भी तो नहीं चाहती। मन, अब
संसार का मायामोह छोड़ो। संसार में तुम्हारे लिए अब जगह नहीं है। हा !
यही
करना था। तो पहले ही क्यों न किया ? तीन प्राणियों की जान लेकर तब यह
सूझी। कदाचित् तब मुझे मौत से इतना डर न लगता। अब तो जमराज का ध्यान
आते ही रोयें खड़े हो जाते हैं। पर यहां की दुर्दशा से वहां की
दुर्दशा तो अच्छी। कोई हंसने वाला तो न होगा। (रस्सी का फंदा बना कर
छत से लटका देती है।) बस, एक झटके में काम तमाम हो जाएगी। इतनी-सी
जान के लिए आदमी कैसे-कैसे जतन करता है। (गले में फंदा डालती है।)
दिल कांपता है। जरा-सा फंदा खींच लूं और बसब दम घुटने लगेगी।
तड़प-तड़पकर जान निकलेगी। (भय से कांप उठती है) मुझे इतना डर क्यों
लगता है ? मैं अपने को इतनी कायर न समझती थी। सास के एक ताने पर, पति
की एक कड़ी बात पर स्त्रियां प्राण दे देती हैं। लड़कियां अपने विवाह
की चिंता से माता-पिता को बचाने के लिए प्राण दे देती हैं। पहले
स्त्रियां पति के साथ सती हो जाती थीं।डर क्या है ? जो भगवान् यहां
हैं वही भगवान् वहां हैं। मैंने कोई पाप नहीं किया है। एक आदमी मेरा
धर्म बिगाड़ना चाहता था।मैं और किसी तरह उससे न बच सकती थी। मैंने
कौशल से अपने धर्म की रक्षा की। यह पाप नहीं किया। मैं भोग-विलास के
लोभ से यहां नहीं आई ! संसार चाहे मेरी कितनी ही निन्दा करे, ईश्वर
सब जानते हैं। उनसे डरने का कोई काम नहीं
फदा खींच लेती है। तलवार लिए हुए हलधर का
प्रवेश।
हलधर : (आश्चर्य से) अरे ! यहां तो इसने फांसी लगा रखी है।
तलवार से तुरत रस्सी काट देता है और राजेश्वरी को संभालकर फर्श पर
लिट देता है।
राजेश्वरी : (सचेत होकर) वही तलवार मेरी गर्दन पर क्यों नहीं चला
देते ?
हलधर : जो आप ही मर रही है उसे क्या मारूं ?
राजेश्वरी : अभी इतनी दया है ?
हलधर : वह तुम्हारी लाज की तरह बाजार में बेचने की चीज नहीं है।
ज्ञानी : (होश में आकर) कौन कहता है कि इसने अपनी लाज बेच दी? यह आज
भी उतनी ही पवित्र है जितनी अपने घर थी। इसने अपनी लाज बेचने के लिए
इस मार्ग पर पग नहीं रखा, बल्कि अपनी लाज की रक्षा करने के लिए अपनी,
लाज की रक्षा के लिए इसने मेरे कुल का सर्वनाश कर दिया । इसीलिए इसने
यह कपटभेष धारण किया। एक सम्पन्न पुरूष से बचने का इसके सिवा और
कौन-सा उपाय था।तुम उस पर लांछन लगाकर बड़ा अन्याय कर रहे हो, उसने
तुम्हारे कुल को कलंकित नहीं किया, बल्कि उसे उज्ज्वल कर दिया । ऐसी
बिरली ही कोई स्त्री ऐसी अवस्था में अपने व्रत पर अटल रह सकती थी। यह
चाहती तो आजीवन सुख भोग करती, पर इसने धर्म को स्वाद-लिप्सा की भेंट
नहीं चढ़ाया। आह ! अब नहीं बोला जाता। बहुत-सी बातें मन में थीं, सिर
में चक्कर आ रहा है, स्वामी के दर्शन न कर सकी(बेहोश हो जाती है।)
हलधर : ज्ञानी हैं क्या ?
राजेश्वरी : सबल का दर्शन पाने की आशा से यहां आयी थीं, किंतु बेचारी
की लालसा मन में रही जाती है। न जाने उनकी क्या गत हुई ?
हलधर : मैं अभी उन्हें लाता हूँ।
राजेश्वरी : क्या अभी वह...
हलधर : हां, उन्होंने प्राण देना चाहा था।, पिस्तौल का निशाना छाती
पर लगा लिया था।, पर मैं पहुंच गया और उनके हाथ से पिस्तौल छीन ली।
दोनों भाई वहीं हैं। तुम इनके मुंह पर पानी के छींटे देती रहना।
गुलाबजल तो रखा ही होगा, उसे इनके मुंह में टपकाना, मैं अभी आता हूँ।
जल्दी से चला जाता है।
राजेश्वरी : (मन में) मैं समझती थी इनका स्वरूप बदल गया होगा। दया
नाम को भी न रही होगी। नित्य डाका मारते होंगे, आचरण भ्रष्ट हो गया
होगा। पर इनकी आंखों में तो दया की जोत झलकती हुई दिखाई देती है। न
जाने कैसे दोनों भाइयों की जान बचा ली। कोई दूसरा होता तो उनकी घात
में लगा रहता और अवसर पाते ही प्राण ले लेता। पर इन्होंने उन्हें मौत
के मुंह से निकाल दिया । क्या र्इश्वर की लीला है कि एक हाथ से विष
पिलाते हैं और दूसरे हाथ से अमृत मुझी को कौन बचाता। सोचता कि मर रही
है, मरने दो। शायद यह मुझे मारने के ही लिए यहां तलवार लेकर आए
होंगे।मुझे इस दशा में देखकर दया आ गई। पर इनकी दया पर मेरा जी
झुंझला रहा है। मेरी यह बदनामी यह जगहंसाई बिल्कुल निष्फल हो गई।
इसमें जरूर ईश्वर का हाथ है। सबलसिंह के परोपकार ने उन्हें बचाया।
कंचनसिंह की भक्ति ने उनकी रक्षा की। पर इस देवी की जान व्यर्थ जा
रही है। इसका दोष मेरी गरदन पर है। इस एक देवी पर कई सबलसिंह भेंट
किए जा सकते हैं ! (ज्ञानी को ध्यान से देखकर) आंखें पथरा गई, सांस
उखड़ गई, पति के दर्शन न कर सकेंगी, मन की कामना मन में ही रह गयी।
(गुलाबजल के छीटें देकर) छनभर और
ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए ? कहां हैं, जरा मुझे उनके पैर
दिखा दो।
राजेश्वरी : (सजल नयन होकर) आते ही होंगे, अब देर नहीं है। गुलाबजल
पिलाऊँ?
ज्ञानी : (निराशा से) न आएंगे, कह देना तुम्हारे चरणों की याद
में(मूच्र्छित हो जाती है।)
चेतनदास का प्रवेश।
राजेश्वरी : यह समय भिक्षा मांगने का नहीं है। आप यहां कैसे चले
आए ?
चेतनदास : इस समय न आता तो जीवनपर्यन्त पछताता। क्षमा-दान मांगने आया
हूँ।
राजेश्वरी : किससे?
चेतनदास : जो इस समय प्राण त्याग रही है।
ज्ञानी : (आंखें खोलकर) क्या वह आ गए? कोई अचल को मेरी गोद में क्यों
नहीं रख देता?
चेतनदास : देवी, सब-के-सब आ रहे हैं। तुम जरा यह जड़ी मुंह में रख
लो।भगवान् चाहेंगे तो सब कल्याण होगा।
ज्ञानी : कल्याण अब मेरे मरने में ही है।
चेतनदास : मेरे अपराध क्षमा करो।
ज्ञानी के पैरों पर फिर पड़ता है।
ज्ञानी : यह भेष त्याग दो। भगवान् तुम पर दया करें।
उसके मुंह से खून निकलता है और प्राण निकल जाते हैं, अन्तिम शब्द
उसके मुंह से यही निकलता है, अचल तू अमर हो...
राजेश्वरी : अन्त हो गया। (रोती है) मन की अभिलाषा मन में ले गई।
पति और पुत्र से भेंट न हो सकी।
चेतनदास : देवी थी।
सबलसिंह, कंचनसिंह, अचल, हलधर सब आते हैं।
राजेश्वरी : स्वामीजी, कुछ अपनी सिद्वि दिखाइए। एक पल-भर के लिए सचेत
हो जाती तो उनकी आत्मा शांत हो जाती।
चेतनदास : अब ब्रह्मा भी आएं तो कुछ नहीं कर सकते।
अचल रोता हुआ मां के शव से लिपट जाता है,
सबल को ज्ञानी की तरफ देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती।
राजेश्वरी : आप लोग एक पल-भर पहले आ जाते तो इनकी मनो- कामना पूरी हो
जाती। आपकी ही रट लगाए हुए थीं। अन्तिम शब्द जो उनके मुंह से निकला
वह अचलसिंह का नाम था।
सबल : यह मेरी दुष्टता का दंड है। हलधर, अगर तुमने मेरी प्राण रक्षा
न की होती तो मुझे यह शोक न सहना पड़ता। ईश्वर बड़े न्यायी हैं। मेरे
कमोऊ का इससे उचित दंड हो ही नहीं सकता था।मैं तुम्हारे घर का
सर्वनाश करना चाहता था।विधाता ने मेरे घर का सर्वनाश कर दिया । आज
मेरी आंखें खुल गयीं। मुझे विदित हो रहा है कि ऐश्वर्य और सम्पत्ति
जिस पर मानव-समाज मिटा हुआ है, जिसकी आराधना और भक्ति में हम अपनी
आत्माओं को भी भेंट कर देते हैं, वास्तव में एक प्रचंड ज्वाला है, जो
मनुष्य के ह्रदय को जलाकर भस्म कर देती है। यह समस्त पृथ्वी किन
प्राणियों के पाप-भार से दबी हुई है? वह कौन से लोग हैं जो
दुर्व्यसनों के पीछे नाना प्रकार
के पापाचार कर रहे हैं? वेश्याओं की अक्रालिकाएं किन लोगों के दम से
रौनक पर हैं? किनके घरों की महिलाएं रो-रोकर अपना जीवनक्षेप कर रही
हैं? किनकी बंदूकों से जंगल के जानवरों की जान संकट में पड़ी रहती है?
किन लोगों की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आए दिन समर भूमि
रक्तमयी होती रहती है। किनके सुख भोग करने के लिए गरीबों को आए दिन
बेगारें भरनी पड़ती हैं? यह वही लोग हैं जिनकेके पास ऐश्वर्य है,
सम्पत्ति है, प्रभुत्व है, बल है। उन्हीं के भार से पृथ्वी दबी हुई
है, उन्हीं के नखों से संसार पीड़ित हो रहा है। सम्पत्ति ही पाप का
मूल है, इसी से कुवासनाएं जागृत होती हैं, इसी से दुर्व्यसनों की
सृष्टि होती है। गरी। आदमी अगर पाप करता है तो क्षुधा की तृप्ति के
लिए। धनी पुरूष पाप करता है अपनी कुवृत्तियों, और कुवासनाओं की
पूर्ति के लिए। मैं इसी व्याधि का मारा हुआ हूँ। विधाता ने मुझे
निर्धन बनाया होता, मैं भी अपनी जीविका के लिए पसीना बहाता होता,
अपने बाल-बच्चों के उदर-पालन के लिए मजूरी करता होता तो मुझे यह दिन
न देखना पड़ता, यों रक्त के आंसू न रोने पड़ते। धनीजन पुण्य भी करते
हैं, दान भी करते हैं, दु: खी आदमियों पर दया भी करते हैं। देश में
बड़ी-बड़ी धर्मशालाएं, सैकड़ों पाठशालाएं, चिकित्सालय, तालाब, कुएं उनकी
कीर्ति के स्तम्भ रूप खड़े हैं, उनके दान से सदाव्रत चलते हैं, अनाथों
और विधवाओं का पालन होता है, साधुओं और अतिथियों का सत्कार होता है,
कितने ही विशाल मन्दिर सजे हुए हैं, विद्या की उन्नति हो रही है,
लेकिन उनकी अपकीर्तियों के सामने उनकी सुकीर्तियां अंधेरी रात में
जुगुनू की चमक के समान हैं, जो अंधकार को और भी गहन बना देती हैं।
पाप की कालिमा दान और दया से नहीं धुलती। नहीं, मेरा तो यह अनुभव है
कि धनी जन कभी पवित्र भावों से प्रेरित हो ही नहीं सकते। उनकी
दानशीलता, उनकी भक्ति, उनकी उदारता, उनकी दीन-वत्सलता वास्तव में
उनके स्वार्थ को सिद्व करने का साधन-मात्र है। इसी टट्टी की आड़ में
वह शिकार खेलते हैं। हाय क्क तुम लोग मन में सोचते होगे, यह रोने और
विलाप करने का समय है, धन और सम्पदा की निंदा करने का नहीं मगर मैं
क्या करूं? आंसुओं की अपेक्षा इन जले हुए शब्दों से, इन फफोलों के
फोड़ने से, मेरे चित्त को अधिक शांति मिल रही है। मेरे शोक ह्दय-दाह,
और आत्मग्लानि का प्रवाह केवल लोचनों द्वारा नहीं हो सकता, उसके लिए
ज्यादा चौड़े, ज्यादा स्थूल मार्ग की जरूरत है। हाय क्क इस देवी में
अनेक गुण थे।मुझे याद नहीं आता कि इसने कभी एक अप्रिय शब्द भी मुझसे
कहा हो, वह मेरे प्रेम में मग्न थी। आमोद और विलास से उसे लेश-मात्र
भी प्रेम न था।वह संन्यासियों का जीवन व्यतीत करती थी। मेरे प्रति
उनके ह्रदय में कितनी श्रद्वा थी, कितनी शुभकामना। जब तक जी मेरे लिए
जी और जब मुझे सत्पथ से हटते देखा तो यह शोक उसके लिए असह्य हो गया।
हाय , मैं जानता कि वह ऐसा घातक संकल्प कर लेगी तो अपने आत्मपतन का
वृत्तांत उससे न कहता ! पर उसकी सह्दयता और सहानुभूति के रसास्वादन
से मैं अपने को रोक न सका। उसकी यह क्षमा, आत्मकृपा कभी न भूलेगी जो
इस वृत्तांत को सुनकर उसके उदास मुख पर झलकने लगी। रोष या क्रोध का
लेश-मात्र भी चिन्ह न था। वह दयामूर्ति सदा के लिए मेरे ह्दयगृह को
उजाड़ कर अदृश्य हो गई। नहीं, मैंने उसे पटककर चूर-चूर कर दिया ।
(रोता है।) हाय, उसकी याद अब मेरे दिल से कभी न निकलेगी।
चौथा दृश्य
स्थान : गुलाबी का मकान।
समय : दस बजे रातब
गुलाबी : अब किसके बल पर कूदूं। पास जो जमापूंजी थी वह
निकल गई। तीन-चार दिन के अन्दर क्या-से-क्या हो गया। बना-बनाया घर
उजड़ गया। जो राजा थे वह रंक हो गए।
जिस देवी की बदौलत इतनी उम्र सुख से कटी वह संसार से उठ गयीं। अब
वहां पेट की रोटियों के सिवा और क्या रखा
है। न उधर ही कुछ रहा, न इधर ही कुछ रहा। दोनों लोक से गई। उस
कलमुंहे साधु का कहीं पता नहीं न जाने कहां लोप हो गया। रंगा हुआ
सियार था।मैं भी उसके छल में आ गई। अब किसके बल पर कूदूं। बेटा-बहू
यों ही बात न पूछते थे, अब तो एक बूंद पानी को तरसूंगी। अब किस दावे
से कहूँगी, मेरे नहाने के लिए पानी रख दे, मेरी साड़ी छांट दे, मेरा
बदन दाब दे। किस दावे पर धौंस जमाऊँगी। सब रूपये के मीत हैं। दोनों
जानते थे, अम्मां के पास धन है। इसलिए डरते थे, मानते थे, जिस कल
चाहती थी उठाती थी, जिस कल चाहती थी बैठाती थी। उस धूर्त साधु को
पाऊँ तो सैकड़ों गालियां सुनाऊँ, मुंह नोच लूं। अब तो मेरी दशा उस
बिल्ली की-सी है जिसके पंजे कट गए हों, उस बिच्छु की-सी जिसका डंक
टूट गया हो, उस रानी की-सी जिसे राजा ने आखों से गिरा दिया हो,
चम्पा : अम्मां, चलो, रसोई तैयार है।
गुलाबी : चलो बेटी, चलती हूँ। आज मुझे ठाकुर साहब के घर से आने में
देर हो गई। तुम्हें बैठने का कष्ट हुआ।
चम्पा : (मन में) अम्मां आज इतने प्यार से क्यों बातें कर रही हैं,
सीधी बात मुंह से निकलती ही न थी। (प्रकट) कुछ कष्ट नहीं हुआ,
अम्मां, कौन अभी तो नौ बजे हैं।
गुलाबी : भृगुनाथ ने भोजन कर लिया है न?
चम्पा : (मन में) कल तक को अम्मां पहले ही खा लेती थीं, बेटे
को पूछती तक न थीं, आज क्यों इतनी खातिर कर रही हैं?(प्रकट) तुम चलकर
खा लो, हम लोगों को तो सारी रात पड़ी है।
गुलाबी रसोई में जाकर अपने हाथों से पानी निकालतीहै।
चम्पा : तुम बैठो अम्मां, मैं पानी रख देती हूँ।
गुलाबी : नहीं बेटी, मटका भरा हुआ है, तुम्हारी आस्तीन भीग जाएगी।
चम्पा : (पंखा झलने लगती है।) नमक तो ज्यादा नहीं हो गया?
गुलाबी : पंखा रख दो बेटी, आज गरमी नहीं है। दाल में जरा नमक ज्यादा
हो गया है। लाओ, थोड़ा-सा पानी मिलाकर खा लूं।
चम्पा : मैं बहुत अंदाज से छोड़ती हूँ, मगर कभी-कभी कम-बेस हो ही जाता
है।
गुलाबी : बेटी, नमक का अंदाज बुढ़ापे तक ठीक नहीं होता, कभी-कभी धोखा
हो ही जाता है। (भृगु आता है।) आओ बेटा, खाना खा लो, देर हो रही है।
क्या हुआ, कंचनसिंह के यहां जवाब मिल गया?
भृगु : (मन में) आज अम्मां की बातों में कुछ प्यार भरा हुआ जान पड़ता
है। (प्रकट) नहीं अम्मां, सच पूछो तो आज ही मेरी नौकरी लगी है।
ठाकुरद्वारा बनवाने के लिए मसाला जुटाना मेरा काम तय हुआ है।
गुलाबी : बेटा, यह धरम का काम है, हाथ?पांव संभालकर रहना।
भृगु : दस्तूरी तो छोड़ता नहीं, और कहीं हाथ मारने की गुंजाइश नहीं
ठाकुर जी सीधे से दे दें तो उंगली क्यों टेढ़ी करनी पड़े।
भोजन करने बैठता है।
चम्पा : (भृगु से) कुछ और लेना हो तो ले लो, मैं जाती हूँ अम्मां का
बिछावन बिछाने।
गुलाबी : रहने दो बेटी, मैं आप बिछा लूंगी।
भृगु : (चम्पा से) यह आज दाल में नमक क्यों झोंक दिया? नित्य यही काम
करती हो, फिर भी तमीज नहीं आती?
चम्पा : ज्यादा हो गया, हाथ ही तो है।
भृगु : शर्म नहीं आती, उसपर से हेकड़ी करती हो,
गुलाबी : जाने दो बेटा, अंदाज न मिला होगी। मैं तो रसोई बनाते?
बनाते बुङ्ढी हो गई, लेकिन कभी-कभी नमक घट-बढ़ जाता ही है।
भृगु : (मन में) अम्मां आज क्यों इतनी मुलायम हो गई हैं। शायद
ठाकुरों का पतन देख के इनकी आंखें खुल गई हैं। यह अगर इसी तरह प्यार
से बातें करें तो हम लोग तो इनके चरण धो-धोकर पियें।(प्रकट) मैं तो
किसी तरह खा लूंगा, पर तुम तो न खा सकोगी।
गुलाबी : खा लिया बेटा, एक दिन जरा नमक ज्यादा ही सही। देखो बेटी,
खा-पीकर आराम से सो रहना, मेरा बदन दाबने मत आना। रात अधिक हो गई है।
चम्पा : (मन में) आज तो ऐसा जी चाहता है कि इनके चरण धोकर पीऊँ इसी
तरह रोज रहें तो फिर यह घर स्वर्ग हो जाये। (प्रकट) जरा बदन दबा देने
से कौन बड़ी रात निकल
जाएगी
गुलाबी : (मन में) आज कितने प्रेम से बहू मेरी सेवा कर रही है, नहीं
तो जरा-जरा-सी बात पर नाकभौं सिकोड़ा करती थी (प्रकट) जी चाहे तो थोड़ी
देर के लिए आ जाना, तुम्हें प्रेमसाफर सुनाऊँगी
चेतनदास का प्रवेश
गुलाबी : (आश्चर्य से) महाराज, आप कहां चले गए थे? मैं दिन में कई
बार आपकी कुटी पर गई
चेतनदास : आज मैं एक कार्यवश बाहर चला गया था।अब एक महातीर्थ पर जाने
का विचार है। अपना धन ले लो, गिन लेना, कुछ-न-कुछ अधिक ही होगी। मैं
वह मन्त्र भूल गया जिससे धन दूना हो जाता था।।
गुलाबी : (चेतनदास के पैरों पर गिरकर) महाराज, बैठ जाइए, आपने यहां
तक आने का कष्ट किया है, कुछ भोजन कर लीजिए। कृतार्थ हो जाऊँगी।
चेतनदास : नहीं माताजी, मुझे विलम्ब होगी। मुझे आज्ञा दो और मेरी यह
बात ध्यान से सुनो। आगे किसी साधु-महात्मा को अपना धन दूना करने के
लिए मत देना नहीं तो धोखा खाओगी। (चम्पा और भृगु आकर चेतनदास के चरण
छूते हैं।) माता, तेरे पुत्र और वधू बहुत सुशील दीखते हैं। परमात्मा
इनकी रक्षा करें। तू भूल जा कि मेरे पास धन है। धन के बल से नहीं,
प्रेम के बल से अपने घर में शासन कर।
चेतनदास का प्रस्थान
पांचवां दृश्य
स्थान : स्वामी चेतनदास की कुटी
समय : रात, चेतनदास गंगा तट पर बैठे हैं।
चेतनदास : (आप-ही-आप) मैं हत्यारा हूँ, पापी हूँ, धूर्त हूँ। मैंने
सरल प्राणियों को ठगने के लिए यह भेष बनाया है। मैंने इसीलिए योग की
क्रियाएं सीखीं, इसीलिए हिप्नाटिज्म सीखी, मेरा लोग कितना सम्मान,
कितनी प्रतिष्ठा करते हैं। पुरूष मुझसे धन मांगते हैं, स्त्रियां
मुझसे सन्तान मांगती हैं। मैं ईश्वर नहीं कि सबकी मुरादें पूरी कर
सकूं तिस पर भी लोग मेरा पिंड नहीं छोड़ते। मैंने कितने घर तबाह किए,
कितनी सती स्त्रियों को जाल में फंसाया, कितने निश्छल पुरूषों को
चकमा दिया । यह सब स्वांग केवल सुखभोग के लिए, मुझ पर धिक्कार है !
पहले मेरा जीवन कितना पवित्र था।मेरे आदर्श कितने ऊँचे थे।मैं संसार
से विरक्त हो गया। पर स्वार्थी संसार ने मुझे खींच लिया। मेरी इतनी
मान-प्रतिष्ठा थी, मैं पाखंडी हो गया, नर से पिशाच हो गया। हां, मैं
पिशाच हो गया। हां ! मेरे कुकर्म मुझे चारों ओर से घेरे हुए हैं।
उनके स्वरूप कितने भयंकर हैं। वह मुझे निगल जाएंगी। भगवन्, मुझे बचाओ
! वह सब अपने मुंह खोले मेरी ओर लपके चले आते हैं। (आंखें बन्द कर
लेते हैं) ज्ञानी ! ईश्वर के लिए मुझे छोड़ दो। कितना विकराल स्वरूप
है। तेरे मुख से ज्वाला निकल रही है। तेरी आंखों से आग की लपटें आ
रही हैं। मैं जल जाऊँगा। भस्म हो जाऊँगा। तू कैसी सुन्दर थी। कैसी
कोमलांगी थी ! तेरा यह रौद्र रूप नहीं, तू वह सती नहीं, वह कमल की-सी
आंखें, वह पुष्प के-से कपोल कहां हैं। नहीं, यह मेरे अधर्मो का,
मेरे दुष्कर्मो का मूर्तिमान स्वरूप है, मेरे दुष्कर्मो ने यह
पैशाचिक रूप धारण किया है। यह मेरे ही पापों की ज्वाला है। क्या मैं
अपने ही पापों की आग में जलूंगा? अपने ही बनाए हुए नरक में पडूंगा?
(आंखें बंद करके हाथों से हटाने की चेष्टा करके) नहीं, मैं ईश्वर की
शपथ खाता हूँ, अब कभी ऐसे कर्म न करूंगा। मुझे प्राणदान दे। आह, कोई
विनय नहीं सुनता। ईश्वर, मेरी क्या गति होगी ! मैं इस पिशाचिनी के
मुख का ग्रास बना जा रहा हूँ। यह दया-शून्य, ह्दय-शून्य राक्षसी मुझे
निगल जाएगी भगवन् ! कहां जाऊँ, कहां भागूं? अरे रे जला.....
दौड़कर नदी में कूद पड़ता है, और एक बार फिर ऊपर आकर नीचे डूब जाता है।
छठा दृश्य
स्थान : मधुबन।
समय : सावन का महीना, पूजा-उत्सव, ब्रह्मभोज, राजेश्वरी और सलोनी
गांव की अन्य स्त्रियों के साथ गहने-कपड़े पहने पूजा करने जा रही हैं
गीत
जय जगदीश्वरी मात सरस्वती, सरनागत प्रतिपालनहारी।
चंद्रजोत-सा बदन बिराजे, सीस मुकुट माला फलधारी।जय..
बीना बाम अंग में सोहे, सामगीत धुन मधुर पियारी।जय..
श्वेत बसन कमलासन सुन्दर, संग सखी अरू हंस सवारी।जय..
सलोनी : (देवी की पूजा करके राजेश्वरी से) आ, तेरे गले में माला डाल
दूं, तेरे माथे पर भी टीका लगा दूं। तू भी हमारी देवी है। मैं जीती
रही तो इस गांव में तेरा मन्दिर बनवाकर छोडूंगी।
एक वृद्वा : साक्षात् देवी है। इसके कारन हमारे भाग जाग गए, नहीं तो
बेगार भरने और रो-रोकर दिन काटने के सिवा और क्या था।!
सलोनी : (राजेश्वरी से) क्यों बेटी, तूने वह विद्या कहां पढ़ी थी।
धन्न है तेरे माई-बाप को, जिनकेके कोख से तूने जन्म लिया। मैं तुझे
नित्य कोसती थी, कुल-कलंकिनी कहती थी। क्या जानती थी कि तू वहां सबके
भाग संवार रही है।
राजेश्वरी : काकी, मैंने तो कुछ नहीं किया। जो कुछ हुआ ईश्वर की दया
से हुआ। ठाकुर सबलसिंह देवता हैं। मैं तो उनसे अपने अपमान का बदला
लेने गई थी। मन में ठान लिया था। कि उनके कुल का सर्वनाश करके
छोड़ूगी। अगर तुम्हारे भतीजे ने उनकी जान न बचा ली होती तो आज कोई कुल
में पानी देने वाला भी न रहता।
सलोनी : ईश्वर की लीला अपार है।
राजेश्वरी : ज्ञानीदेवी ने अपने प्राण देकर हम सभी को उबार लिया। इस
शोक ने ठाकुर साहब को विरक्त कर दिया । कोई दूसरा समझता, बला से मर
गई, दूसरा ब्याह कर लेंगे, संसार में कौन लड़कियों की कमी है। लेकिन
उनके मन में दया और धर्म की जोत चमक रही थी। ग्लानि उत्पन्न हुई कि
मैंने इस कुमार्ग पर पैर न रखा होता तो यह देवी क्यों लज्जा और शोक
से आत्महत्या करती। उनके मन ने कहा – तुम्हीं हत्यारे हो, तुम्हीं ने
इसकी गरदन पर छुरी चलाई है। इसी ग्लानि की दशा में उनको विदित हुआ कि
इन सारी विपत्तियों का मूल कारन मेरी सम्पत्ति है। यह न होती तो मेरा
मन इतना चंचल न होता। ऐसी सम्पत्ति ही क्यों न त्याग दूं जिससे
ऐसे-ऐसे अनर्थ होते हैं। मैं तो बखानूंगी उस दुधमुंहे अचलसिंह को जो
ठाकुर साहब के मुंह से बात निकलते ही सब कोठी, महल, बाग-बगीचा
त्यागने पर तैयार हो गया। उनके छोटे भाई कंचनसिंह पहले ही से
भगवद्-भजन में मग्न रहते थे।उनकी अभिलाषा एक ठाकुरद्वारा और एक
धर्मशाला बनवाने की थी। राजभवन खाली हो गया। उसी को धर्मशाला
बनायेंगी। घर में सब मिलाकर कोई पचास-साठ हजार नकद रूपये थे।हवागाड़ी,
गिटन, घोड़े, लकड़ी के सामान, झाड़-फानूस, पलंग, मसहरी, कालीन, दरी, इन
सब चीजों के बेचने से पच्चीस हजार मिल गए, दस हजार के ज्ञानदेवी के
गहने थे।वह भी बेच दिए गए। इस तरह सब जोड़कर एक लाख रूपये ठाकुरद्वारा
के लिए जमा हो गए। ठाकुरद्वारे के पास ही ज्ञानीदेवी के नाम का एक
पक्का तालाब बनेगा। जब कोई लोभ ही न रह गया तो जमींदारी रखकर क्या
करते। सब जमीन असामियों के नाम दर्ज कराके तीरथयात्रा करने चले गए।
सलोनी : और अचलसिंह कहां गया? मैं तो उसे देख लेती तो छाती से लगा
लेती। लड़का नहीं है, भगवान् का अवतार है।
एक स्त्री : उसके चरन धोकर पीना चाहिए ।
राजेश्वरी : गुरूकुल में पढ़ने चला गया। कोई नौकर भी साथ नहीं लिया।
अब अकेले कंचनसिंह रह गए हैं। वह ठाकुरद्वारा बनवा रहे हैं।
सलोनी : अच्छा अब चलो, अभी दस मन की पूरियां बेलनी हैं।
सब स्त्रियां गाती हुई लौटती हैं, लक्ष्मी की स्तुति करती हुई जाती
हैं।
फत्तू : चलो, चलो, कड़ाह की तैयारी करो। रात हुई जाती है। हलधर देखो,
देर न हो, मैं जाता हूँ मौलूद सरीफ का इंतजाम करने। फरस और सामियाना
आ गया।
हलधर : तुम उधर थे, इधर थानेदार आए थे ठाकुर सबलसिंह की खोज में।
कहते थे उनके नाम वारंट है। मैंने कह दिया उन्हें जाकर अब स्वर्गधाम
में तलाश करो। मगर यह तो आने का बहाना था।असल में आए थे नजर लेने।
मैंने कहा , नजर तो देते नहीं, हां हजारों रूपये खैरात हो रहे हैं,
तुम्हारा जी चाहे तुम भी ले लो।मैंने तो समझा था। कि यह सुनकर
अपना-सा मुंह लेके चला जाएगा लेकिन इस महकमे वालों को हया नहीं होती,
तुरन्त हाथ फैला दिए । आखिर मैंने पच्चीस रूपये हाथ पर रख दिए ।
फत्तू : कुछ बोला तो नहीं?
हलधर : बोलता क्या, चुपके से चला गया।
फत्तू : गाने वाले आ गए?
हलधर : हां, चौपाल में बैठे हैं, बुलाता हूँ।
मंगई : (गांव की ओर से आकर) हलधर भैया, सबकी सलाह है कि तुम्हारा
विमान सजाकर निकाला जाए, वहां से लौटने पर गाना-बजाना हो,
हरदास : तुम्हारी बदौलत सब कुछ हुआ है, तुम्हारा कुछ तो महातम होना
चाहिए ।
हलधर : मैंने कुछ नहीं किया। सब भगवान् की इच्छा है। जरा गाने वालों
को बुला लो!
हरदास जाता है।
मंगई : भैया, अब तो जमींदार को मालगुजारी न देनी पड़ेगी?
हलधर : अब तो हम आप ही जमींदार हैं, मालगुजारी सरकार को
देंगी।
मंगई : तुमने कागद-पत्तर देख लिये हैं? रजिस्टरी हो गई है?
हलधर : मेरे सामने ही हो गई थी।
हलधर किसी काम से चला जाता है, हरदास गाने वालों को बुला लाता है, वह
सब साज मिलाने लगते हैं।
मंगई : (हरदास से) इसमें हलधर का कौन एहसान है? इनका बस होता तो सब
अपने ही नाम चढ़वा लेते।
हरदास : एहसान किसी का नहीं है। ईश्वर की जो इच्छा होती है वही होता
है। लेकिन यह तो समझ रहे हैं कि मैं ही सबका ठाकुर हूँ। जमीन पर पांव
ही नहीं रखते। चंदे के रूपये ले लिये, लेकिन हमसे कोई सलाह तक नहीं
लेते। फत्तू और यह दोनों जो जी चाहता है, करते हैं।
मंगई : दोनों खासी रकम बना हुई। दो हजार चंदा उतरा है। खरचा
वाजिबी-ही-वाजिबी हो रहा है।
गाना होता है।
जगदीश सकल जगत का तू ही अधार है
भूमि, नीर, अगिन, पवन, सूरज, चंद, शैल, गगन
तेरा किया चौदह भुवन का पसार है।जगदीश...
सुर, नर, पशु, जीव?जंतु, जल, थल, चर है अनंत,
तेरी रचना का नहीं अंत पार है।जगदीश...
करूनानिधि, विश्वभरण, शरणागत, तापहरण,
सत चित सुखरूप सदा निरविकार है।जगदीश...
निरगुन सब गुन-निधान निगमागम करत गान,
सेवक नमन करत बार-बार है।जगदीश
|