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चंद्रकांता

तीसरा अध्याय

पहला बयान

वह नाजुक औरत जिसके हाथ में किताब है और जो सब औरतों के आगे-आगे आ रही है, कौन और कहां की रहने वाली है जब तक यह न मालूम हो जाय तब तक हम उसको वनकन्या के नाम से लिखेंगे।

धीरे-धीरे चलकर वनकन्या जब उन पेड़ों के पास पहुंची जिधर आड़ में कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह छिपे खड़े थे, तो ठहर गई और पीछे फिर के देखा। इसके साथ एक और जवान, नाजुक तथा चंचल औरत अपने हाथ में एक तस्वीर लिए हुए चल रही थी जो वनकन्या को अपनी तरफ देखते देख आगे बढ़ आई। वनकन्या ने अपनी किताब उसके हाथ में दे दी और तस्वीर उससे ले ली।

तस्वीर की तरफ देख लंबी सांस ली, साथ ही आंखें डबडबा आईं, बल्कि कई बूंद आंसुओं की भी गिर पड़ीं। इस बीच में कुमार की निगाह भी उसी तस्वीर पर जा पड़ी, एकटक देखते रहे और जब वनकन्या बहुत दूर निकल गई तब फतहसिंह से बातचीत करने लगे।

कुमार-क्यों फतहसिंह, यह कौन है कुछ जानते हो?

फतहसिंह-मैं कुछ भी नहीं जानता मगर इतना कह सकता हूं कि किसी राजा की लड़की है।

कुमार-यह किताब जो इसके हाथ में है जरूर वही है जो मुझको तिलिस्म से मिली थी, जिसको शिवदत्त के ऐयारों ने चुराया था, जिसके लिए तेजसिंह और बद्रीनाथ में बदाबदी हुई और जिसकी खोज में हमारे ऐयार लगे हुए हैं!

फतहसिंह-मगर फिर वह किताब इसके हाथ कैसे लगी?

कुमार-इसका तो ताज्जुब हई है मगर इससे भी ज्यादे ताज्जुब की एक बात और है, शायद तुमने ख्याल नहीं किया।

फतह-नहीं, वह क्या?

कुमार-वह तस्वीर भी मेरी ही है जिसको बगल वाली औरत के हाथ से उसने लिया था।

फतह-यह तो आपने और भी आश्चर्य की बात सुनाई।

कुमार-मैं तो अजब हैरानी में पड़ा हूं, कुछ समझ ही नहीं आता कि क्या मामला है। अच्छा चलो पीछे-पीछे देखें ये सब जाती कहां हैं।

फतह-चलिए।

कुमार और फतहसिंह उसी तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं। थोड़ी ही दूर गये होंगे कि पीछे से किसी ने आवाज दी। फिर के देखा तो तेजसिंह पर नजर पड़ी। ठहर गये, जब पास पहुंचे उन्हें घबराये हुए और बदहवास देखकर पूछा, ''क्यों क्या है जो ऐसी सूरत बनाए हो?''

तेजसिंह ने कहा, ''है क्या, बस हम आपसे जिंदगी भर के लिए जुदा होते हैं।'' इससे ज्यादे न बोल सके, गला भर आया। आंखों से आंसुओं की बूंदें टपाटप गिरने लगीं। तेजसिंह की अधूरी बात सुन और उनकी ऐसी हालत देख कुमार भी बेचैन हो गये मगर यह कुछ भी न जान पड़ा कि तेजसिंह के इस तरह बेदिल होने का क्या सबब है।

फतहसिंह से इनकी यह दशा देखी न गई। अपने रूमाल से दोनों की आंखें पोंछीं, इसके बाद तेजसिंह से पूछा, ''आपकी ऐसी हालत क्यों हो रही है, कुछ मुंह से तो कहिए। क्या सबब है जो जन्म भर के लिए आप कुमार से जुदा होंगे?'' तेजसिंह ने अपने को सम्हालकर कहा-

''तिलिस्मी किताब हम लोगों के हाथ न लगी और न मिलने की कोई उम्मीद है इसलिए अपने कौल पर सिर मुड़ा के निकल जाना पड़ेगा।''

इसका जवाब कुंअर वीरेन्द्रसिंह और फतहसिंह कुछ दिया ही चाहते थे कि देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी घूमते हुए आ पहुंचे। ज्योतिषीजी ने पुकारकर कहा, ''तेजसिंह, घबराइए मत, अगर आपको किताब न मिली तो उन लोगों के पास भी न रही, जो मैंने पहले कहा था वही हुआ, उस किताब को कोई तीसरा ही ले गया।''

अब तेजसिंह का जी कुछ ठिकाने हुआ। कुमार ने कहा, ''वाह खूब, आप भी रोये और मुझको भी रुलाया। जिसके हाथ में किताब पहुंची उसे मैंने देखा मगर उसका हाल कहने का कुछ मौका तो मिला नहीं तुम पहले से ही रोने लगे!!'' इतना कह के कुमार ने उस तरफ देखा जिधर वे औरतें गई थीं मगर कुछ दिखाई न पड़ा। तेजसिंह ने घबराकर कहा, ''आपने किसके हाथ में किताब देखी? वह आदमी कहां है?'' कुमार ने जवाब दिया, ''मैं क्या बताऊं कहां है, चलो उस तरफ शायद दिखाई दे जाय, हाय विपत पर विपत बढ़ती ही जाती है!''

आगे-आगे कुमार तथा पीछे-पीछे तीनों ऐयार और फतहसिंह उस तरफ चले जिधर वे औरतें गई थीं, मगर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी हैरान थे कि कुमार किसको खोज रहे हैं, वह किताब किसके हाथ लगी है, या जब देखा ही था तो छीन क्यो न लिया! कई दफे चाहा कि कुमार से इन बातों को पूछें मगर उनको घबराए हुए इधर-उधर देखते और लंबी-लंबी सांसें लेते देख तेजसिंह ने कुछ न पूछा। पहर भर तक कुमार ने चारों तरफ खोजा मगर फिर उन औरतों पर निगाह न पड़ी। आखिर आंखें डबडबा आईं और एक पेड़ के नीचे खड़े हो गए।

तेजसिंह ने पूछा, ''आप कुछ खुलासा कहिए भी तो कि क्या मामला है?'' कुमार ने कहा, ''अब इस जगह कुछ न कहेंगे। लश्कर में चलो, फिर जो कुछ है सुन लेना।''

सब कोई लश्कर में पहुंचे। कुमार ने कहा, ''पहले तिलिस्मी खंडहर में चलो। देखें बद्रीनाथ की क्या कैफियत है!'' यह कहकर खंडहर की तरफ चले, ऐयार सब पीछे-पीछे रवाना हुए। खंडहर के दरवाजे के अंदर पैर रखा ही था कि सामने से पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल वगैरह आते दिखाई पड़े।

कुमार-यह देखो वह लोग इधर ही चले आ रहे हैं! मगर हैं, यह बद्रीनाथ छूट कैसे गये?

तेजसिंह-बड़े ताज्जुब की बात है!

देवीसिंह-कहीं किताब उन लोगों के हाथ तो नहीं लग गई। अगर ऐसा हुआ तो बड़ी मुश्किल होगी।

फतह-इससे निश्चिंत रहो, वह किताब इनके हाथ अब तक नहीं लगी, हां आगे मिल जाय तो मैं नहीं कह सकता, क्योंकि अभी थोड़ी ही देर हुई है वह दूसरे के हाथ में देखी जा चुकी है।

इतने में बद्रीनाथ वगैरह पास आ गये। पन्नालाल ने पुकार के कहा, ''क्यों तेजसिंह, अब तो हार गये न!''

तेज-हम क्यों हारे!

बद्री-क्यों नहीं हारे, हम छूट भी गये और किताब भी न दी।

तेज-किताब तो हम पा गये, तुम चाहे आपसे आप छूटो या मेरे छुड़ाने से छूटो! किताब पाना ही हमारा जीतना हो गया, अब तुमको चाहिए कि महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार के साथ रहो।

बद्री-हमको वह किताब दिखा दो, हम अभी ताबेदारी कबूल करते हैं।

तेज-तो तुम ही क्यों नहीं दिखा देते, जब तुम्हारे पास नहीं तो साबित हो गया कि हम पा गये।

बद्री-बस-बस, हम बेफिक्र हो गये, तुम्हारी बातचीत से मालूम हो गया कि तुमने किताब नहीं पाई और उसे कोई तीसरा ही उड़ा ले गया, अभी तक हम डरे हुए थे।

देवी-फिर आखिर हारा कौन यह भी तो कहो?

बद्री-कोई भी नहीं हारा।

कुमार-अच्छा यह तो कहो तुम छूटे कैसे!

बद्री-बस ईश्वर ने छुड़ा दिया, जानबूझ के कोई तरकीब नहीं की गई। पन्नालाल ने उसके सिर पर एक लकड़ी रखी, उस पत्थर के आदमी ने मुझको छोड़ लकड़ी पकड़ी बस मैं छूट गया। उसके हाथ में वह लकड़ी अभी तक मौजूद है।

कुमार-अच्छा हुआ, दोनों की ही बात रह गई।

बद्री-कुमार, मेरा जी तो चाहता है कि आपके साथ रहूं मगर क्या करूं, नमकहरामी नहीं कर सकता, कोई तो सबब होना चाहिए! अब मुझे आज्ञा हो तो बिदा होऊं।

कुमार-अच्छा जाओ।

ज्यो-अच्छा हमारी तरफ नहीं होते तो न सही मगर ऐयारी तो बंद करो।

तेज-वाह ज्योतिषीजी, आखिर वेदपाठी ही रहे। ऐयारी से क्या डरना? ये लोग जितना जी चाहें जोर लगा लें!

पन्ना-खैर देखा जायगा, अभी तो जाते है, जय माया की!

तेज-जय माया की!

बद्रीनाथ वगैरह वहां से चले गए। फिर कुमार भी तिलिस्म में न गये और अपने डेरे में चले आए। रात को कुमार के डेरे में सब ऐयार और फतहसिंह इकट्ठे हुए। दरबानों को हुक्म दिया कि कोई अंदर न आने पावे। तेजसिंह ने कुमार से पूछा, ''अब बताइए किताब किसके हाथ में देखी थी, वह कौन है, और आपने किताब लेने की कोशिश क्यों नहीं की?''

कुमार ने जवाब दिया, ''यह तो मैं नहीं जानता कि वह कौन है लेकिन जो भी हो, अगर कुमारी चंद्रकान्ता से बढ़ के नहीं है तो किसी तरह कम भी नहीं है। उसके हुस्न ने उससे किताब छिनने न दिया।''

तेज-(ताज्जुब से) कुमारी चंद्रकान्ता से और उस किताब से क्या संबंधा? खुलासा कहिए तो कुछ मालूम हो।

कुमार-क्या कहें हमारी तो अजब हालत है! (ऊंची सांस लेकर चुप हो रहे)

तेज-आपकी विचित्र ही दशा हो रही है, कुछ समझ में नहीं आता। (फतहसिंह की तरफ देख के) आप तो इनके साथ थे, आप ही खुलासा हाल कहिए, यह तो बारह दफे लंबी सांस लेगे तो डेढ़ बात कहेंगे! जगह-जगह तो इनको इश्क पैदा होता है, एक बला से छूटे नहीं दूसरी खरीदने को तैयार हो गए।''

फतहसिंह ने सब हाल खुलासा कह सुनाया। तेजसिंह बहुत हैरान हुए कि वह कौन थी और उसने कुमार को पहले कब देखा, कब आशिक हुई और तस्वीर कैसे उतरवा मंगाई?

ज्योतिषीजी ने कई दफे रमल फेंका मगर खुलासा हाल मालूम न हो सका, हां इतना कहा कि किसी राजा की लड़की है। आधी रात तक सब कोई बैठे रहे, मगरकोई काम न हुआ, आखिर यह बात ठहरी कि जिस तरह बने उन औरतों को ढूंढना चाहिए।

सब कोई अपने डेरे में आराम करने चले गये। रात भर कुमार को वनकन्या की याद ने सोने न दिया। कभी उसकी भोली-भाली सूरत याद करते, कभी उसकी आंखों से गिरे हुए आंसुओं के ध्यान में डूबे रहते। इसी तरह करवटें बदलते और लंबी सांस लेते रात बीत गई बल्कि घंटा भर दिन चढ़ आया पर कुमार अपने पलंग पर से न उठे।

तेजसिंह ने आकर देखा तो कुमार चादर से मुंह लपेटे पड़े हैं, मुंह की तरफ का बिल्कुल कपड़ा गीला हो रहा है। दिल में समझ गये कि वनकन्या का इश्क पूरे तौर पर असर कर गया है, इस वक्त नसीहत करना भी उचित नहीं। आवाज दी, ''आप सोते हैं या जागते हैं?''

कुमार-(मुंह खोलकर) नहीं, जागते तो हैं।

तेज-फिर उठे क्यों नहीं? आप तो रोज सबेरे ही स्नान-पूजा से छुट्टी कर लेते हैं, आज क्या हुआ?

''नहीं कुछ नहीं'' कहते हुए कुमार उठ बैठे। जल्दी-जल्दी स्नान से छुट्टी पाकर भोजन किया। तेजसिंह वगैरह इनके पहले ही सब कामों से निश्चित हो चुके थे, उन लोगों ने भी कुछ भोजन कर लिया और उन औरतों को ढूंढने के लिए जंगल में जाने को तैयार हुए। कुमार ने कहा, ''हम भी चलेंगे।'' सभी ने समझाया कि आप चलकर क्या करेंगे हम लोग पता लगाते हैं, आपके चलने से हमारे काम में हर्ज होगा-मगर कुमार ने कहा, ''कोई हर्ज न होगा, हम फतहसिंह को अपने साथ लेते चलते हैं, तुम्हारा जहां जी चाहे घूमना, हम उसके साथ इधर-उधर फिरेंगे।'' तेजसिंह ने फिर समझाया कि कहीं शिवदत्त के ऐयार लोग आपको धोखे में न फंसा लें, मगर कुमार ने एक मानी, आखिर लाचार होकर कुमार और फतहसिंह को साथ ले जंगल की तरफ रवाना हुए।

थोड़ी दूर घने जंगल में जाकर उन लोगों को एक जगह बैठाकर तीनों ऐयार अलग-अलग उन औरतों की खोज में रवाना हुए। ऐयारों के चले जाने पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें करने लगे मगर सिवाय वनकन्या के कोई दूसरा जिक्र कुमार की जुबान पर न था।

दूसरा बयान

कुंअर वीरेन्द्रसिंह बैठे फतहसिंह से बातें कर रहे थे कि एक मालिन जो जवान और कुछ खूबसूरत भी थी हाथ में जंगली फूलों की डाली लिये कुमार के बगल से इस तरह निकली जैसे उसको यह मालूम नहीं कि यहां कोई है। मुंह से कहती जाती थी-''आज जंगली फूलों का गहना बनाने में देर हो गई, जरूर कुमारी खफा होंगी, देखें क्या दुर्दशा होती है।''

इस बात को दोनों ने सुना। कुमार ने फतहसिंह से कहा, ''मालूम होता है यह उन्हीं की मालिन है, इसको बुला के पूछो तो सही।'' फतहसिंह ने आवाज दी, उसने चौंककर पीछे देखा, फतहसिंह ने हाथ के इशारे से फिर बुलाया, वह डरती-कांपती उनके पास आ गई। फतहसिंह ने पूछा, ''तू कौन है और फूलों के गहने किसके वास्ते लिये जा रही है?''

उसने जवाब दिया, ''मैं मालिन हूं, यह नहीं कह सकती कि किसके यहां रहती हूं, और ये फूल के गहने किसके वास्ते लिये जाती हूं। आप मुझको छोड़ दें, मैं बड़ी गरीब हूं, मेरे मारने से कुछ हाथ न लगेगा, हाथ जोड़ती हूं, मेरी जान मत मारिए।''

ऐसी-ऐसी बातें कह मालिन रोने और गिड़गिड़ाने लगी। फूलों की डलिया आगे रखी हुई थी जिनकी तेज खुशबू फैल रही थी। इतने में एक नकाबपोश वहां आ पहुंचा और कुमार की तरफ मुंह करके बोला, ''आप इसके फेर में न पड़ें, यह ऐयार है, अगर थोड़ी देर और फूलों की खुशबू दिमाग में चढ़ेगी तो आप बेहोश हो जायेंगे।''

उस नकोबपोश ने इतना कहा ही था कि वह मालिन उठकर भागने लगी, मगर फतहसिंह ने झट हाथ पकड़ लिया। सवार उसी वक्त चला गया। कुमार ने फतहसिंह से कहा, ''मालूम नहीं सवार कौन है, और मेरे साथ यह नेकी करने की उसको क्या जरूरत थी?'' फतहसिंह ने जवाब दिया, ''इसका हाल मालूम होना मुश्किल है क्योंकि वह खुद अपने को छिपा रहा है, खैर जो हो यहां ठहरना मुनासिब नहीं, देखिये अगर यह सवार न आता तो हम लोग फंस ही चुके थे।''

कुमार ने कहा, ''तुम्हारा यह कहना बहुत ठीक है, खैर अब चलो और इसको अपने साथ लेते चलो, वहां चलकर पूछ लेंगे कि यह कौन है।'' जब कुमार अपने खेमे में फतहसिंह और उस ऐयार को लिये हुए पहुंचे तो बोले, ''अब इससे पूछो इसका नाम क्या है?'' फतहसिंह ने जवाब दिया, ''भला यह ठीक-ठीक अपना नाम क्यों बतावेगा, देखिये मैं अभी मालूम किये लेता हूं।''

फतहसिंह ने गरम पानी मंगवाकर उस ऐयार का मुंह धुलाया, अब साफ पहचाने गये कि यह पंडित बद्रीनाथ हैं। कुमार ने पूछा, ''क्यों अब तुम्हारे साथ क्या किया जाय?'' बद्रीनाथ ने जवाब दिया, ''जो मुनासिब हो कीजिये।''

कुमार ने फतहसिंह से कहा, ''इनकी तुम हिफाजत करो, जब तेजसिंह आवेंगे तो वही इनका फैसला करेंगे!'' यह सुन फतहसिंह बद्रीनाथ को ले अपने खेमे में चले गये। शाम को बल्कि कुछ रात बीते तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी लौटकर आये और कुमार के खेमे में गए। उन्होंने पूछा, ''कहो कुछ पता लगा?''

तेजसिंह-कुछ पता न लगा, दिन भर परेशान हुए मगर कोई काम न चला।

कुमार-(ऊंची सांस लेकर) फिर अब क्या किया जायेगा?

तेज-किया क्या जायेगा, आज-कल में पता लगेगा ही।

कुमार-हमने भी एक ऐयार को गिरफ्तार किया है।

तेज-हैं, किसको? वह कहां है!

कुमार-फतहसिंह के पहरे में है, उसको बुला के देखो कौन है!

देवीसिंह को भेजकर फतहसिंह को मय ऐयार के बुलवाया। जब बद्रीनाथ की सूरत देखी तो खुश हो गये और बोले, ''क्यों, अब क्या इरादा है?''

बद्री-इरादा जो पहले था वही अब भी है?

तेज-अब भी शिवदत्त का साथ छोड़ोगे या नहीं?

बद्री-महाराज शिवदत्त का साथ क्यों छोड़ने लगे?

तेज-तो फिर कैद हो जाओगे।

बद्री-चाहे जो हो।

तेज-यह न समझना कि तुम्हारे साथी लोग छुड़ा ले जायेंगे, हमारा कैदखाना ऐसा नहीं है।

बद्री-उस कैदखाने का हाल भी मालूम है, वहां भेजो भी तो सही।

देवी-वाह रे निडर।

तेजसिंह ने फतहसिंह से कहा, ''इनके ऊपर सख्त पहरा मुकर्रर कीजिए। अब रात हो गई है, कल इनको बड़े घर पहुंचाया जायगा।''

फतहसिंह ने अपने मातहत सिपाहियों को बुलाकर बद्रीनाथ को उनके सुपुर्द किया, इतने ही में चोबदार ने आकर एक खत उनके हाथ में दी और कहा कि एक नकाबपोश सवार बाहर हाजिर है जिसने यह खत राजकुमार को देने के लिए दी है!'' तेजसिंह ने लिफाफे को देखा, यह लिखा हुआ था-

''कुंअर वीरेन्द्रसिंहजी के चरण कमलों में-''

तेजसिंह ने कुमार के हाथ में दिया, उन्होंने खोलकर पढ़ा-

बरवा

        ''सुख सम्पत्ति सब त्याग्यो जिनके हेत।

        वे निरमोही ऐसे, सुधिहु न लेत॥

        राज छोड़ बन जोगी भसम रमाय।

        विरह अनल की धूनी तापत हाय॥'-कोई वियोगिनी

पढ़ते ही आंखें डबडबार् आईं, बंधे गले से अटककर बोले, ''उसको अंदर बुलाओ जो खत लाया है।'' हुक्म पाते ही चोबदार उस नकाबपोश सवार को लेने बाहर गया मगर तुरंत वापस आकर बोला-''वह सवार तो मालूम नहीं कहां चला गया!''

इस बात को सुनते ही कुमार के जी को कितना दुख हुआ वे ही जानते होंगे। वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, उन्होंने भी पढ़ी, ''इसके पढ़ने से मालूम होता है यह खत उसी ने भेजी है जिसकी खोज में दिन भर हम लोग हैरान हुए और यह तो साफ ही है कि वह भी आपकी मुहब्बत में डूबी हुई है, फिर आपको इतना रंज न करना चाहिए।''

कुमार ने कहा, ''इस खत ने तो इश्क की आग में घी का काम किया। उसका ख्याल और भी बढ़ गया घट कैसे सकता है! खैर अब जाओ तुम लोग भी आराम करो, कल जो कुछ होगा देखा जायगा।''

तीसरा बयान

कल रात से आज की रात कुमार को और भी भारी गुजरी। बार-बार उस बरवे को पढ़ते रहे। सबेरा होते ही उठे, स्नान-पूजा कर जंगल में जाने के लिए तेजसिंह को बुलाया, वे भी आये। आज फिर तेजसिंह ने मना किया मगर कुमार ने न माना, तब तेजसिंह ने उन तिलिस्मी फूलों में से गुलाब का फूल पानी में घिसकर कुमार और फतहसिंह को पिलाया और कहा कि ''अब जहां जी चाहे घूमिये, कोई बेहोश करके आपको नहीं ले जा सकता, हां जबर्दस्ती पकड़ ले तो मैं नहीं कह सकता।'' कुमार ने कहा, ''ऐसा कौन है जो मुझको जबर्दस्ती पकड़ ले!''

पांचों आदमी जंगल में गये, कुछ दूर कुमार और फतहसिंह को छोड़ तीनों ऐयार अलग-अलग हो गए। कुंअर वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह के साथ इधर-उधर घूमने लगे। घूमते-घूमते कुमार बहुत दूर निकल गये, देखा कि दो नकाबपोश सवार सामने से आ रहे हैं। जब कुमार से थोड़ी दूर रह गये तो एक सवार घोड़े पर से उतर पड़ा और जमीन पर कुछ रख के फिर सवार हो गया। कुमार उसकी तरफ बढ़े, जब पास पहुंचे तो वे दोनों सवार यह कह के चले गए कि इस किताब और खत को ले लीजिए।

कुमार ने पास जाकर देखा तो वही तिलिस्मी किताब नजर पड़ी, उसके ऊपर एक खत और बगल में कलम दवात और कागज भी मौजूद पाया। कुमार ने खुशी-खुशी उस किताब को उठा लिया और फतहसिंह की तरफ देख के बोले, ''यह किताब देकर दोनों सवार चले क्यों गए सो कुछ समझ में नहीं आता, मगर बोली से मालूम होता है कि वह सवार औरत है जिसने मुझे किताब उठा लेने के लिए कहा। देखें खत में क्या लिखा है?'' यह कह खत खोल पढ़ने लगे, यह लिखा था-

''मेरा जी तुमसे अटका है और जिसको तुम चाहते हो वह बेचारी तिलिस्म में फंसी है। अगर उसको किसी तरह की तकलीफ होगी तो तुम्हारा जी दुखी होगा। तुम्हारी खुशी से मुझको भी खुशी है यह समझकर किताब तुम्हारे हवाले करती हूं। खुशी से तिलिस्म तोड़ो और चंद्रकान्ता को छुड़ाओ, मगर मुझको भूल न जाना, तुम्हें उसी की कसम जिसको ज्यादा चाहते हो। इस खत का जवाब लिखकर उसी जगह रख देना जहां से किताब उठाओगे।''

खत पढ़कर कुमार ने तुरंत जवाब लिखा-

''इस तिलिस्मी किताब को हाथ में लिए मैंने जिस वक्त तुमको देखा उसी वक्त से तुम्हारे मिलने को जी तरस रहा है। मैं उस दिन अपने को बड़ा भाग्यवान जानूंगा जिस दिन मेरी आंखें दोनों प्रेमियों को देख ठण्डी होगी, मगर तुमको तो मेरी सूरत से नफरत है।

-तुम्हारा वीरेन्द्र।''

जवाब लिखकर कुमार ने उसी जगह पर रख दिया। वे दोनों सवार दूर खड़े दिखाई दिये, कुमार देर तक खड़े राह देखते रहे मगर वे नजदीक न आये। जब कुमार कुछ दूर हट गये तब उनमें से एक ने आकर खत का जवाब उठा लिया और देखते-देखते नजरों की ओट हो गया। कुमार भी फतहसिंह के साथ लश्कर में आये।

कुछ रात गये तेजसिंह वगैरह भी वापस आकर कुमार के खेमे में इकट्ठे हुए। तेजसिंह ने कहा, ''आज भी किसी का पता न लगा, हां कई नकाबपोश सवारों को इधर-उधर घूमते देखा। मैंने चाहा कि उनका पता लगाऊं मगर न हो सका क्योंकि वे लोग भी चालाकी से घूमते थे, मगर कल जरूर हम उन लोगों का पता लगा लेंगे।''

कुमार ने कहा, ''देखो तुम्हारे किये कुछ न हुआ मगर मैंने कैसी ऐयारी की कि खोई हुई चीज को ढूंढ निकाला, देखो यह तिलिस्मी किताब।'' यह कह कुमार ने किताब तेजसिंह के आगे रख दी।

तेजसिंह ने कहा, ''आप जो कुछ ऐयारी करेंगे वह तो मालूम ही है मगर यह बताइए कि किताब कैसे हाथ लगी? जो बात होती है ताज्जुब की!''

कुमार ने बिल्कुल हाल किताब पाने का कह सुनाया, तब वह खत दिखाई और जो कुछ जवाब लिखा था वह भी कहा।

ज्योतिषीजी ने कहा, ''क्यों न हो, फिर तो बड़े घर की लड़की है, किसी तरह से कुमार को दु:ख देना पसंद न किया। सिवाय इसके खत पढ़ने से यह भी मालूम होता है कि वह कुमार के पूरे-पूरे हाल से वाकिफ है, मगर हम लोग बिल्कुल नहीं जान सकते कि वह है कौन!''

कुमार ने कहा, ''इसकी शर्म तो तेजसिंह को होनी चाहिए कि इतने बड़े ऐयार होकर दो-चार औरतों का पता नहीं लगा सकते!''

तेज-पता तो ऐसा लगावेंगे कि आप भी खुश हो जायेंगे, मगर अब किताब मिल गई है तो पहले तिलिस्म के काम से छुट्टी पा लेनी चाहिए।

कुमार-तब तक क्या वे सब बैठी रहेंगी?

तेज-क्या अब आपको कुमारी चंद्रकान्ता की फिक्र न रही?

कुमार-क्यों नहीं, कुमारी की मुहब्बत भी मेरे नस-नस में बसी हुई है, मगर तुम भी तो इंसाफ करो कि इसकी मुहब्बत मेरे साथ कैसी सच्ची है, यहां तक कि मेरे ही सबब से कुमारी चंद्रकान्ता को मुझसे भी बढ़कर समझ रखा है।

तेज-हम यह तो नहीं कहते कि उसकी मुहब्बत की तरफ ख्याल न करें, मगर तिलिस्म का भी तो ख्याल होना चाहिए।

कुमार-तो ऐसा करो जिसमें दोनों का काम चले।

तेज-ऐसा ही होगा, दिन को तिलिस्म तोड़ने का काम करेंगे, रात को उन लोगों का पता लगावेंगे।

आज की रात फिर उसी तरह काटी, सबेरे मामूली कामों से छुट्टी पाकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और ज्योतिषीजी तिलिस्म में घुसे, तिलिस्मी किताब साथ थी। जैसे-जैसे उसमें लिखा हुआ था उसी तरह ये लोग तिलिस्म तोड़ने लगे।

तिलिस्मी किताब में पहले ही यह लिखा हुआ था कि तिलिस्म तोड़ने वाले को चाहिए कि जब पहर दिन बाकी रहे तिलिस्म से बाहर हो जाय और उसके बाद कोई काम लितिस्म तोड़ने का न करे।

चौथा बयान

तिलिस्मी खंडहर में घुसकर पहले वे उस दलान में गए जहां पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का आदमी सोया हुआ था। कुमार ने इसी जगह से तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगाया।

जिस चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था उसके सिरहाने की तरफ पांच हाथ हटकर कुमार ने अपने हाथ से जमीन खोदी। गज भर खोदने के बाद एक सफेद पत्थर की चट्टान देखी जिसमें उठाने के लिए लोहे की मजबूत कड़ी लगी हुई भी दिखाई पड़ी। कड़ी में हाथ डाल के पत्थर उठाकर बाहर किया। तहखाना मालूम पड़ा, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियां बनी थीं।

तेजसिंह ने मशाल जला ली, उसी की रोशनी में सब कोई नीचे उतरे। खूब खुलासा कोठरी देखी, कहीं गर्द या कूडे का नाम-निशान नहीं, बीच में संगमर्मर पत्थर की खूबसूरत पुतली एक हाथ में कांटी दूसरे हाथ में हथौड़ी लिए खड़ी थी।

कुमार ने उसके हाथ से हथौड़ी-कांटी लेकर उसी के बाएं कान में कांटी डाल हथौड़ी से ठोक दी, साथ ही उस पुतली के होंठ हिलने लगे और उसमें से बाजे की-सी आवाज आने लगी, मालूम होता था मानो वह पुतली गा रही है।

थोड़ी देर तक यही कैफियत रही, यकायक पुतली के बाएं-दाहिने दोनों अंग के दो टुकड़े हो गये और उसके पेट में से आठ अंगुल का छोटा-सा गुलाब का पेड़ जिसमें कई फूल भी लगे हुए थे और डाल में एक ताली लटक रही थी निकला, साथ ही इसके एक छोटा-सा तांबे का पत्र भी मिला जिस पर कुछ लिखा हुआ था। कुमार ने उसे पढ़ा-

''इस पेड़ को हमारे यहां के वैद्य अजायबदत्ता ने मसाले से बनाया है। इन फूलों से बराबर गुलाब की खुशबू निकलकर दूर-दूर तक फैला करेगी। दरबार में रखने के लिए यह एक नायाब पौधा सौगात के तौर पर वैद्यजी ने तुम्हारे वास्ते रखा है।''

इसको पढ़कर कुमार बहुत खुश हुए और ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, ''यह बहुत अच्छी चीज मुझको मिली, देखिये इस वक्त भी इन फूलों में से कैसी अच्छी खुशबू निकलकर फैल रही है।''

तेज-इसमें तो कोई शक नहीं।

देवी-एक से एक बढ़कर कारीगरी दिखाई पड़ती है!

अभी कुमार बात कर रहे थे कि कोठरी के एक तरफ का दरवाजा खुल गया। अंधेरी कोठरी में अभी तक इन लोगों ने कोई दरवाजा या उसका निशान नहीं देखा था पर इस दरवाजे के खुलने से कोठरी में बखूबी रोशनी पहुंची। मशाल बुझा दी गई और ये लोग उस दरवाजे की राह से बाहर हुए। एक छोटा-सा खूबसूरत बाग देखा। यह बाग वही था जिसमें चपला आई थी और जिसका हाल हम दूसरे भाग में लिख चुके हैं।

बमूजिब लिखे तिलिस्मी किताब के कुमार ने उस ताली में एक रस्सी बांधी जो पुतली के पेट से निकली थी। रस्सी हाथ में थाम ताली को जमीन में घसीटते हुए कुमार बाग में घूमने लगे। हर एक रविशों और क्वारियों में घूमते हुए एक फव्वारे के पास ताली जमीन से चिपक गई। उसी जगह ये लोग भी ठहर गये। कुमार के कहे मुताबिक सबों ने उस जमीन को खोदना शुरू किया। दो-तीन हाथ खोदा था कि ज्योतिषीजी ने कहा, ''अब पहर भर दिन बाकी रह गया, तिलिस्म से बाहर होना चाहिए।''

कुमार ने ताली उठा ली और चारों आदमी कोठरी की राह से होते हुए ऊपर चढ़ के उस दलान में पहुंचे जहां चबूतरे पर पत्थर का आदमी सोया था, उसके सिरहाने की तरफ जमीन खोदकर जो पत्थर की चट्टान निकली थी उसी को उलटकर तहखाने के मुंह पर ढांप दिया। उसके दोनों तरफ उठाने के लिए कड़ी लगी हुई थी, और उलटी तरफ एक ताला भी बना हुआ था। उसी ताली से जो पुतली के पेट से निकली थी यह ताला बंद भी कर दिया।

चारों आदमी खंडहर से निकल कुमार के खेमे में आये। थोड़ी देर आराम कर लेने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से कह के वनकन्या की टोह में जंगल की तरफ रवाना हुए। इस समय दिन अनुमानत: दो घण्टे बाकी होगा।

ये तीनों ऐयार थोड़ी ही दूर गये होंगे कि एक नकाबपोश जाता हुआ दिखा। देवीसिंह वगैरह पेड़ों की आड़ दिये उसी के पीछे-पीछे रवाना हुए। वह सवार कुछ पश्चिम हटता हुआ सीधो चुनार की तरफ जा रहा था। कई दफे रास्ते में रुका, पीछे फिरकर देखा और बढ़ा।

सूरज अस्त हो गया। अंधेरी रात ने अपना दखल कर लिया, घना जंगल अंधेरी रात में डरावना मालूम होने लगा। अब ये तीनों ऐयार सूखे पत्तो की आवाज पर जो टापों के पड़ने से होती थी जाने लगे। घंटे भर रात जाते-जाते उस जंगल के किनारे पहुंचे।

नकाबपोश सवार घोड़े पर से उतर पड़ा। उस जगह बहुत से घोड़े बंधे थे। वहीं पर अपना घोड़ा भी बांधा दिया, एक तरफ घास का ढेर लगा हुआ था, उसमें से घास उठाकर घोड़े के आगे रख दी और वहां से पैदल रवाना हुआ।

उस नकाबपोश के पीछे-पीछे चलते हुए ये तीनों ऐयार पहर रात बीते गंगा किनारे पहुंचे। दूर से जल में दो रोशनियां दिखाई पड़ीं, मालूम होता था जैसे दो चंद्रमा गंगाजी में उतर आये हैं। सफेद रोशनी जल पर फैल रही थी। जब पास पहुंचे देखा कि एक सजी हुई नाव पर कई खूबसूरत औरतें बैठी हैं, बीच में ऊंची गद्दी पर एक कमसिन नाजुक औरत जिसका रोआब देखने वालों पर छा रहा है बैठी है, चांद-सा चेहरा दूर से चमक रहा है। दोनों तरफ माहताब जल रहे हैं।

नकाबपोश ने किनारे पहुंचकर जोर से सीटी बजाई, साथ ही उस नाव में से इस तरह सीटी की आवाज आई जैसे किसी ने जवाब दिया हो। उन औरतों में से जो उस नाव पर बैठी थीं दो औरतें उठ खड़ी हुईं तथा नीचे उतर एक डोंगी जो उस नाव के साथ बंधी थी, खोलकर किनारे ला नकाबपोश को उस पर चढ़ा ले गयीं।

अब ये तीनों ऐयार आपस में बातें करने लगे-

तेज-वाह, इस नाव पर छूटते हुए दो माहताबों के बीच ये औरतें कैसी भली मालूम होती हैं।

ज्योतिषी-परियों का अखाड़ा मालूम होता है, चलो तैर के उनके पास चलें।

देवी-ज्योतिषीजी, कहीं ऐसा न हो कि परियां आपको उड़ा ले जायं, फिर हमारी मंडली में एक दोस्त कम हो जायगा।

तेज-मैं जहां तक ख्याल करता हूं यह उन्हीं लोगों की मंडली है जिन्हें कुमार ने देखा था।

देवी-इसमें तो कोई शक नहीं।

ज्यो-तो तैर के चलते क्यों नहीं? तुम तो जल से ऐसा डरते हो जैसे कोई बुङ्ढा आफियूनी डरता हो।

देवी-फिर तुम्हारे साथ आने से क्या फायदा हुआ? तुम्हारी तो बड़ी तारीफ सुनते थे कि ज्योतिषीजी ऐसे हैं, वैसे हैं, पहिया हैं, चर्खे हैं मगर कुछ नहीं, एक अदनी-सी मंडली का पता नहीं लगा सकते।

ज्यो-मैं क्या खाक बताऊं? वे लोग तो मुझसे भी ज्यादे ओस्ताद मालूम होती हैं! सबों ने अपने-अपने नाम ही बदल दिये हैं, असल नाम का पता लगाना चाहते हैं तो अजीब-गरीब नामों का पता लगता है। किसी का नाम वियोगिनी, किसी का नाम योगिनी, किसी का भूतनी किसी का डाकिनी, भला भताइये क्या मैं मान लूं कि इन लोगों के यही नाम हैं?

तेज-तो इन लोगों ने अपना नाम क्यों बदल लिया?

ज्यो-हम लोगों को उल्लू बनाने के लिए।

देवी-अच्छा नाम जाने दीजिये इनके मकाम का पता लगाइये।

ज्यो-मकाम के बारे में जब रमल से दरियाफ्त करते हैं तो मालूम होता है कि इन लोगों का मकाम जल में है, तो क्या हम समझ लें कि ये लोग जलवासी अर्थात् मछली हैं।

तेज-यह तो ठीक ही है, देखिए जलवासी हैं कि नहीं?

ज्यो-भाई सुनो, रमल के काम में ये चारों पदार्थ-हवा, पानी, मिट्टी और आग हमेशा विघ्न डालते हैं। अगर कोई आदमी ज्योतिषी या रम्माल को छकाना चाहे तो इन चारों के हेर-फेर से खूब छकाया जा सकता है। ज्योतिषी बेचारा खाक न कर सके, पोथी-पत्र बेकार का बोझ हो जाय।

तेज-यह कैसे? खुलासा बताओ तो कुछ हम लोग भी समझें, वक्त पर काम ही आवेगा।

ज्यो-बता देंगे, इस वक्त जिस काम को आये हो वह करो। चलो तैरकर चलें।

तेज-चलो।

ये तीनों ऐयार तैरकर नाव के पास गये। बटुआ ऐयारी का कमर में बांधा कपड़ा-लत्ता किनारे रखकर जल में उतर गये। मगर दो-चार हाथ गये होंगे कि पीछे से सीटी की आवाज आई, साथ ही नाव पर जो माहताब जल रहे थे बुझ गये, जैसे किसी ने उन्हें जल्दी से जल में फेंक दिया हो। अब बिल्कुल अंधेरा हो गया, नाव नजरों से छिप गई। देवीसिंह ने कहा, ''लीजिए, चलिए तैर के!''

तेज-ये सब बड़ी शैतान मालूम होती हैं?

ज्यो-मैंने तो पहले ही कहा कि ये सब की सब आफत हैं, अब आपको मालूम हुआ न कि मैं सच कहता था, इन लोगों ने हमारे नजूम को मिट्टी कर दिया है।

देवी-चलिये किनारे, इन्होंने तो बेढब छकाया, मालूम होता है कि किनारे पर कोई पहरे वाला खड़ा देखता था। जब हम लोग तैर के जाने लगे उसने सीटी बजाई, बस अधेरा हो गया, पहले ही से इशारा बंधा हुआ था।

ज्यो-इस नालायक को यह क्या सूझी कि जब हम लोग पानी में उतर चुके तब सीटी बजाई, पहले ही बजाता तो हम लोग क्यों भीगते?

ये तीनो ऐयार लौटकर किनारे आये, पहिरने के वास्ते अपना कपड़ा खोजते हैं तो मिलता ही नहीं।

देवी-ज्योतिषीजी पालागी, लीजिए कपड़े भी गायब हो गये! हाय इस वक्त अगर इन लोगों में से किसी को पाऊं तो कच्चा ही चबा जाऊं।

तेज-हम तो उन लोगों की तारीफ करेंगे, खूब ऐयारी की।

देवी-हां-हां खूब तारीफ कीजिए जिससे उन लोगों में से अगर कोई सुनता हो तो अब भी आप पर रहम करे और आगे न सतावे।

ज्यो-अब क्या सताना बाकी रह गया! कपड़े तक तो उतरवा लिये!

तेज-चलिए अब लश्कर में चलें, इस वक्त और कुछ करते बन न पड़ेगा।

धी रात जा चुकी होगी जब ये लोग ऐयारी के सताये बदन से नंग-धाड़ंग कांपते-कलपते लश्कर की तरफ रवाना हुए।

पांचवा बयान

तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी के जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह इन लोगों के वापस आने के इंतजार में रात भर जागते रह गए। ज्यों-ज्यों रात गुजरती थी कुमार की तबीयत घबड़ाती थी। सबेरा हुआ ही चाहता था जब ये तीनों ऐयार लश्कर में पहुंचे। तेजसिंह की राय हुई कि इसी तरह नंग-धाड़ंग कुमार के पास चलना चाहिए, आखिर तीनों उसी तरह उनके खेमे में गये।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह जाग रहे थे, शमादान जल रहा था, इन तीनों ऐयारों की विचित्र सूरत देख हैरान हो गये। पूछा, ''यह क्या हाल है?'' तेजसिंह ने कहा, ''बस अभी तो सूरत देख लीजिए बाकी हाल जरा दम ले के कहेंगे।''

तीनों ऐयारों ने अपने-अपने कपड़े मंगवाकर पहरे, इतने में साफ सबेरा हो गया। कुमार ने तेजसिंह से पूछा, ''अब बताओ तुम लोग किस बला में फंस गए?''

तेज-ऐसा धोखा खाया कि जन्म भर याद करेंगे।

कुमार-वह क्या?

तेज-जिनके ऊपर आप जान दिये बैठे हैं, जिनकी खोज में हम लोग मारे-मारे फिरते हैं, इसमें तो कोई शक नहीं कि उनका भी प्रेम आपके ऊपर बहुत है, मगर न मालूम इतनी छिपी क्यों फिरती हैं और इसमें उन्होंने क्या फायदा सोचा है?

कुमार-क्या कुछ पता लगा?

तेज-पता क्या आंख से देख आये हैं तभी तो इतनी सजा मिली। उनके साथ भी एक से एक बढ़ के ऐयार हैं, अगर ऐसा जानते तो होशियारी से जाते।

कुमार-भला खुलासा कहो तो कुछ मालूम भी हो।

तेजसिंह ने सब हाल कहा, कुमार सुनकर हंसने लगे और ज्योतिषीजी से बोले, ''आपके रमल को भी उन लोगों ने धोखा दिया।''

ज्यो-कुछ न पूछिए, सब आफत हैं!

कुमार-उन लोगों का खुलासा हाल नहीं मालूम हुआ तो भला इतना ही विचार लेते कि शिवदत्त के ऐयारों की कुछ ऐयारी तो नहीं है?

ज्यो-नहीं, शिवदत्त के ऐयारों से और उन लोगों से कोई वास्ता नहीं बल्कि उन लोगों को इनकी खबर भी न होगी, इस बात को मैं खूब विचार चुका हूं।

तेज-इतनी ही खैरियत है।

देवी-आज दिन ही को चलकर पता लगायेंगे।

तेज-तिलिस्म तोड़ने का काम कैसे चलेगा?

कुमार-एक रोज काम बंद रहेगा तो क्या होगा?

तेज-इसी से तो मैं कहता हूं कि चंद्रकान्ता की मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है।

कुमार-कभी नहीं, चंद्रकान्ता से बढ़कर मैं दुनिया में किसी को नहीं चाहता मगर न मालूम क्या सबब है कि वनकन्या का हाल मालूम करने के लिए भी जी बेचैन रहता है।

तेज-(हंसकर) खैर पहले तो पंडित बद्रीनाथ ऐयार को ले जाकर उस खोह में कैद करना है फिर दूसरा काम देखेंगे, कहीं ऐसा न हो कि वे छूट के चल दें।

कुमार-आज ही ले जाकर छोड़ आओ।

तेज-हां अभी उनको ले जाता हूं, वहां रखकर रातों-रात लौट आऊंगा, पंद्रह कोस का मामला ही क्या है, तब तक देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की खोज में गये

तेजसिंह की राय पक्की ठहरी, वे स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तैयार हुए, खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर बद्रीनाथ को खिलाई गईं और जब वे बेहोश हो गये तब तेजसिंह गट्ठर बांधाकर पीठ पर लाद खोह की तरफ रवाना हुए। कुमार ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को वनकन्या की टोह में भेजा।

तेजसिंह पंडित बद्रीनाथ की गठरी लिये शाम होते-होते तहखाने में पहुंचे। शेर के मुंह में हाथ डाल जुबान खींची और तब दूसरा ताला खोला, मगर दरवाजा न खुला। अब तो तेजसिंह के होश उड़ गए, फिर कोशिश की, लेकिन किवाड़ न खुला। बैठ के सोचने लगे, मगर कुछ समझ में न आया। आखिर लाचार हो बद्रीनाथ की गठरी लादे वापिस हुए।

 छठवां बयान

देवीसिंह और ज्योतिषीजी वनकन्या की टोह में निकलकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि एक नकाबपोश सवार मिला जिसने पुकार के कहा-

''देवीसिंह कहां जाते हो? तुम्हारी चालाकी हम लोगों से न चलेगी, अभी कल आप लोगों की खातिर की गई है और जल में गोते देकर कपड़े सब छीन लिए गए, अब क्या गिरफ्तार ही होना चाहते हो? थोड़े दिन सब्र करो, हम लोग तुम लोगों को ऐयारी सिखलाकर पक्का करेंगे तब काम चलेगा।''

नकाबपोश सवार की बातें सुन देवीसिंह मन में हैरान हो गए पर ज्योतिषीजी की तरफ देखकर बोले, ''सुन लीजिए! यह सवार साहब हम लोगों को ऐयारी सिखलायेंगे जो शर्म के मारे अपना मुंह तक नहीं दिखा सकते।''

नकाब-ज्योतिषीजी क्या सुनेंगे, यह भी तो शर्माते होंगे क्योंकि इनके रमल को हम लोगों ने बेकार कर दिया, हजार दफे फेंकें मगर पता खाक न लगेगा।

देवी-अगर इस इलाके में रहोगे तो बिना पता लगाए न छोड़ेंगे।

नकाब-रहेंगे नहीं तो जायेंगे कहां? रोज मिलेंगे मगर पता न लगने देंगे।

बात करते-करते देवीसिंह ने चालाकी से कूदकर सवार के मुंह पर से नकाब खींच ली। देखा कि तमाम चेहरे पर रोली मली हुई है, कुछ पहचान न सके।

सवार ने फुर्ती के साथ देवीसिंह की पगड़ी उतार ली और एक खत उनके सामने फेंक घोड़ा दौड़ाकर निकल गया। देवीसिंह ने शर्मिन्दगी के साथ खत उठाकर देखा, लिफाफे पर लिखा हुआ था-

''कुंअर वीरेन्द्रसिंह''

ज्योतिषीजी ने देवीसिंह से कहा, ''न मालूम ये लोग कहां के रहने वाले हैं। मुझे तो मालूम होता है कि इस मंडली में जितने हैं सब ऐयार ही हैं।''

देवी-(खत जेब में रखकर) इसमें तो शक नहीं, देखिए हर दफे हम ही लोग नीचा देखते हैं, समझा था कि नकाब उतार लेने से सूरत मालूम होगी, मगर उसकी चालाकी तो देखिए चेहरा रंग के तब नकाब डाले हुए था।

ज्यो-खैर देखा जायगा, इस वक्त तो फिर से लश्कर में चलना पड़ा क्योंकि खत कुमार को देनी चाहिए, देखें इससे क्या हाल मालूम होता है? अगर इस पर कुमार का नाम न लिखा होता तो पढ़ लेते।

देवी-हां चलो, पहले खत का हाल सुन लें तब कोई कार्रवाई सोचें।

दोनों आदमी लौटकर लश्कर में आये और कुंअर वीरेन्द्रसिंह के डेरे में पहुंचकर सब हाल कह खत हाथ में दे दी। कुमार ने पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

''चाहे जो हो, पर मैं आपके सामने तब तक नहीं हो सकती जब तक आप नीचे लिखी बातों का लिखकर इकरार न कर लें।

( 1) चंद्रकान्ता से और मुझसे एक ही दिन एक ही सायत में शादी हो।

( 2) चंद्रकान्ता से रुतबे में मैं किसी तरह कम न समझी जाऊं क्योंकि मैं हर तरह हर दर्जे में उसके बराबर हूं।

अगर इन दोनों बातों का इकरार आप न करेंगे तो कल ही मैं अपने घर का रास्ता लूंगी। सिवाय इसके यह भी कहे देती हूं कि बिना मेरी मदद के चाहे आप हजार बरस भी कोशिश करें मगर चंद्रकान्ता को नहीं पा सकते।''

कुमार का इश्क वनकन्या पर पूरे दर्जे का था। चंद्रकान्ता से किसी तरह वनकन्या की चाह कम न थी, मगर इस खत को पढ़ने से उनको कई तरह की फिक्रों ने आ घेरा। सोचने लगे कि यह कैसे हो सकता है कि कुमारी से और इससे एक ही सायत में शादी हो, वह कब मंजूर करेगी और महाराज जयसिंह ही कब इस बात को मानेंगे! सिवाय इसके यहां यह भी लिखा है कि बिना मेरी मदद के आप चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते, यह क्या बात है? खैर सो सब जो भी हो वनकन्या के बिना मेरी जिंदगी मुश्किल है, मैं जरूर उसके लिखे मुताबिक इकरारनामा लिख दूंगा पीछे समझा जायगा। कुमारी चंद्रकान्ता मेरी बात जरूर मान लेगी।

देवीसिंह और ज्योतिषीजी को भी कुमार ने वह खत दिखाई। वे लोग भी हैरान थे कि वनकन्या ने यह क्या लिखा और इसका जवाब क्या देना चाहिए।

दिन और रात भर कुमार इसी सोच में रहे कि इस खत का क्या जवाब दिया जाय। दूसरे दिन सुबह होते-होते तेजसिंह भी पंडित बद्रीनाथ ऐयार की गठरी पीठ पर लादे हुए आ पहुंचे।

कुमार ने पूछा, ''वापस क्यों आ गये?''

तेज-क्या बतावें मामला ही बिगड़ गया।

कुमार-सो क्या?

तेज-तहखाने का दरवाजा नहीं खुलता।

कुमार-किसी ने भीतर से तो बंद नहीं कर लिया।

तेज-नहीं भीतर तो कोई ताला ही नहीं है।

ज्यो-दो बातों में से एक बात जरूर है, या तो कोई नया आदमी पहुंचा जिसने दरवाजा खोलने की कल बिगाड़ दी, या फिर महाराज शिवदत्त ने भीतर से कोई चालाकी की।

तेज-भला शिवदत्त अंदर से बंद करके अपने को और बला में क्यों फंसावेंगे? इसमें तो उनका हर्ज ही है कुछ फायदा नहीं।

कुमार-कहीं वनकन्या ने तो कोई तरकीब नहीं की।

तेज-आप भी गजब करते हैं, कहां बेचारी वनकन्या कहां वह तिलिस्मी तहखाना!

कुमार-तुमको मालूम ही नहीं। उसने मुझे खत लिखी है कि-बिना मेरी मदद के तुम चंद्रकान्ता से नहीं मिल सकते। और भी दो बातें लिखी हैं। मैं इसी सोच में था कि क्या जवाब दूं और वह कौन-सी बात है जिसमें मुझको वनकन्या की मदद की जरूरत पड़ेगी, मगर अब तुम्हारे लौट आने से शक पैदा होता है।

देवी-मुझे भी कुछ उन्हीं का बखेड़ा मालूम होता है।

तेज-अगर वनकन्या को हमारे साथ कुछ फसाद करना होता तो तिलिस्मी किताब क्यों वापस देती? देखिये उस खत में क्या लिखा है जो किताब के साथ आया था।

ज्यो-यह भी तुम्हारा कहना ठीक है।

तेज-(कुमार से) भला वह खत तो दीजिए जिसमें वनकन्या ने यह लिखा है कि बिना हमारी मदद के चंद्रकान्ता से मुलाकात नहीं हो सकती।

कुमार ने वह खत तेजसिंह के हाथ में दे दी, पढ़कर तेजसिंह बड़े सोच में पड़ गये कि यह क्या बात है, कुछ अक्ल काम नहीं करती। कुमार ने कहा, ''तुम लोग यह जानते ही हो कि वनकन्या की मुहब्बत मेरे दिल में कैसा असर कर गई है, बिना देखे एक घड़ी चैन नहीं पड़ता, तो फिर उसके लिखे बमूजिब इकरारनामा लिख देने में क्या हर्ज है, जब वह खुश होगी तो उससे जरूर ही कुछ न कुछ भेद मिलेगा।''

तेज-जो मुनासिब समझिये कीजिए, चंद्रकान्ता बेचारी तो कुछ न बोलेगी मगर महाराज जयसिंह यह कब मंजूर करेंगे कि एक ही मड़वे में दोनों के साथ शादी हो। क्या जाने वह कौन, कहां की रहने वाली और किसकी लड़की है?

कुमार-उसकी खत में तो यह भी लिखा है कि 'मैं किसी तरह रुतबे में कुमारी से कम नहीं हूं।'

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, ''एक सिपाही बाहर आया है और जो हाजिर होकर कुछ कहना चाहता है।'' कुमार ने कहा, ''उसे ले आओ।'' चोबदार उस सिपाही को अंदर ले आया, सबों ने देखा कि अजीब रंग-ढंग का आदमी है। नाटा-सा कद, काला रंग, टाट का चपकन पायजामा जिसके ऊपर से लैस टंकी हुई, सिर पर दौरी की तरह बांस की टोपी, ढाल-तलवार लगाये था। उसने झुककर कुमार को सलाम किया।

सबों को उसकी सूरत देखकर हंसी आयी मगर हंसी को रोका। तेजसिंह ने पूछा, ''तुम कौन हो और कहां से आये हो?'' उस बांके जवान ने कहा, ''मैं देवता हूं, दैत्यों की मंडली से आ रहा हूं, कुमार ने उस खत का जवाब चाहता हूं जो कल एक सवार ने देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी को दी थी।''

तेज-भला तुमने ज्योतिषीजी और देवीसिंह का नाम कैसे जाना?

बांका-ज्योतिषीजी को तो मैं तब से जानता हूं जब से वे इस दुनिया में नहीं आये थे, और देवीसिंह तो हमारे चेले ही हैं।

देवी-क्यों बे शैतान, हम कब से तेरे चेले हुए? बेअदबी करता है?

बांका-बेअदबी तो आप करते हैं कि ओस्ताद को बे-बे करके बुलाते हैं, कुछ इज्जत नहीं करते!

देवी-मालूम होता है तेरी मौत तुझको यहां ले आई है।

बांका-मैं तो स्वयं मौत हूं।

देवी-इस बेअदबी का मजा चखाऊं तुझको?

बांका-मैं कुछ ऐसे-वैसे का भेजा नहीं आया हूं, मुझको उसने भेजा है जिसको तुम दिन में साढ़े सत्रह दफा झुककर सलाम करोगे।

देवीसिंह और कुछ कहा ही चाहते थे कि तेजसिंह ने रोक दिया और कहा, ''चुप रहो, मालूम होता है यह कोई ऐयार या मसखरा है, तुम खुद ऐयार होकर जरा दिल्लगी में रंज हो जाते हो!

बांका-अगर अब भी न समझोगे तो समझाने के लिए मैं चंपा को बुला लाऊंगा।

उस बांके-टेढ़े जवान की बात पर सब लोग एकदम हंस पड़े, मगर हैरान थे कि वह कौन है? अजब तमाशा तो यह कि वनकन्या के कुल आदमी हम लोगों का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं और हम लोग कुछ नहीं समझ सकते कि वे कौन हैं!

तेजसिंह उस शैतान की सूरत को गौर से देखने लगे। वह बोला, ''आप मेरी सूरत क्या देखते हैं। मैं ऐयार नहीं हूं, अपनी सूरत मैंने रंगी नहीं है, पानी मंगाइए धोकर दिखा दूं, मैं आज से काला नहीं हूं, लगभग चार सौ वर्षों से मेरा यही रंग रहा है।''

तेजसिंह हंस पड़े और बोले, ''जो हो अच्छे हो, मुझे और जांचने की कोई जरूरत नहीं, अगर दुश्मन का आदमी होता तो ऐसा करते भी मगर तुमसे क्या? ऐयार हो तो, मसखरे हो तो, इसमें कोई शक नहीं कि दोस्त के आदमी हो।''

यह सुन उसने झुककर सलाम किया और कुमार की तरफ देखकर कहा, ''मुझको जवाब मिल जाय क्योंकि बड़ी दूर जाना है।'' कुमार ने उसी खत की पीठ पर यह लिख दिया, ''मुझको सब-कुछ दिलोजान से मंजूर है।'' बाद इसके अपनी अंगूठी से मोहर कर उस बांके जवान के हवाले किया, वह खत लेकर खेमे के बाहर हो गया।

 

सातवां बयान

आज तेजसिंह के वापस आने और बांके-तिरछे जवान के पहुंचकर बातचीत करने और खत लिखने में देर हो गई, दो पहर दिन चढ़ आया। तेजसिंह ने बद्रीनाथ को होश में लाकर पहरे में किया और कुमार से कहा, ''अब स्नान-पूजा करें फिर जो कुछ होगा सोचा जायगा, दो रोज से तिलिस्म का भी कोई काम नहीं होता।''

कुमार ने दरबार बर्खास्त किया, स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर खेमे में बैठे, ऐयार लोग और फतहसिंह भी हाजिर हुए। अभी किसी किस्म की बातचीत नहीं हुई थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया, ''एक बुङ्ढी औरत बाहर हाजिर हुई है, कुछ कहा चाहती है, हम लोग पूछते हैं तो कुछ नहीं बताती, कहती है जो कुछ है कुमार से कहूंगी क्योंकि उन्हीं के मतलब की बात है।''

कुमार ने कहा, ''उसे जल्दी अंदर लाओ।'' चोबदार ने उस बुङ्ढी को हाजिर किया, देखते ही तेजसिंह के मुंह से निकला, ''क्या पिशाचों और डाकिनियों का दरबा खुल पड़ा है?''

उस बुङ्ढी ने भी यह बात सुन ली, लाल-लाल आंखें कर तेजसिंह की तरफ देखने लगी और बोली, ''बस कुछ न कहूंगी जाती हूं, मेरा क्या बिगड़ेगा, जो कुछ नुकसान होगा कुमार का होगा।'' यह कह खेमे के बाहर चली गई। कुमार का इशारा पा चोबदार समझा-बुझाकर उसे पुन: ले आया।

यह औरत भी अजीब सूरत की थी। उम्र लगभग सत्तार वर्ष के होगी, बाल कुछ-कुछ सफेद, आधो से ज्यादा दांत गायब, लेकिन दो बड़े-बड़े और टेढ़े आगे वाले दांत दो-दो अंगुल बाहर निकले हुए थे जिनमें जर्दी और कीट जमी हुई थी। मोटे कपड़े की साड़ी बदन पर थी जो बहुत ही मैली और सिर की तरफ से चिक्कट हो रही थी। बड़ी-सी पीतल की नथ नाक में और पीतल ही के घुंघरू पैर में पहिरे हुए थे।

तेजसिंह ने कहा, ''क्यों क्या चाहती हो?''

बुङ्ढी-जरा दम ले लूं तो कहूं, फिर तुमसे क्यों कहने लगी जो कुछ है खास कुमार ही से कहूंगी।

कुमार-अच्छा मुझ ही से कह, क्या कहती है?

बुङ्ढी-तुमसे तो कहूंगी ही, तुम्हारे बड़े मतलब की बात है। (खांसने लगती है)

देवी-अब डेढ़ घंटे तक खांसेगी तब कहेगी?

बुङ्ढी-फिर दूसरे ने दखल दिया!

कुमार-नहीं-नहीं, कोई न बोलेगा।

बुङ्ढी-एक बात है, मैं जो कुछ कहूंगी तुम्हारे मतलब की कहूंगी जिसको सुनते ही खुश हो जाओगे, मगर उसके बदले में मैं भी कुछ चाहती हूं।

कुमार-हां-हां तुझे भी खुश कर देंगे।

बुङ्ढी-पहले तुम इस बात की कसम खाओ कि तुम या तुम्हारा कोई आदमी मुझको कुछ न कहेगा और मारने-पीटने या कैद करने का तो नाम भी न लेगा!

कुमार-जब हमारे भले की बात है तो कोई तुमको क्यों मारने या कैद करने लगा!

बुङ्ढी-हां यह तो ठीक है, मगर मुझे डर मालूम होता है क्योंकि मैंने आपके लिए वह काम किया है कि अगर हजार बरस भी आपके ऐयार लोग कोशिश करते तो वह न होता, इस सबब से मुझे डर मालूम होता है कि कहीं आपके ऐयार लोग खार खाकर मुझे तंग न करें।

उस बुङ्ढी की बात सुनकर सब दंग हो गये और सोचने लगे कि यह कौन-सा ऐसा काम कर आई है कि आसमान पर चढ़ी जाती है। आखिर कुमार ने कसम खाई कि 'चाहे तू कुछ कहे मगर हम या हमारा कोई आदमी तुझे कुछ न कहेगा' तब वह फिर बोली, ''मैं उस वनकन्या का पूरा पता आपको दे सकती हूं और एक तरकीब ऐसी बता सकती हूं कि आप घड़ी भर में बिल्कुल तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता से जा मिलें।''

बुङ्ढी की बात सुनकर सब खुश हो गये। कुमार ने कहा, ''अगर ऐसा ही है तो जल्द बता कि वह वनकन्या कौन है और घड़ी भर में तिलिस्म कैसे टूटेगा?''

बुङ्ढी-पहले मेरे इनाम की बात तो कर लीजिए।

कुमार-अगर तेरी बात सच हुई तो जो कहेगी वही इनाम मिलेगा।

बुङ्ढी-तो इसके लिए कसम खाइये।

कुमार-अच्छा क्या इनाम लेगी, पहले यह तो सुन लूं।

बुङ्ढी-बस और कुछ नहीं केवल इतना ही कि आप मुझसे शादी कर लें, वनकन्या और चंद्रकान्ता से तो चाहे जब शादी हो मगर मुझसे आज ही हो जाय क्योंकि मैं बहुत दिनों से तुम्हारे इश्क में फंसी हुई हूं, बल्कि तुम्हारे मिलने की तरकीब सोचते-सोचते बुङ्ढी हो चली। आज मौका मिला कि तुम मेरे हाथ फंस गये, बस अब देर मत करो नहीं तो मेरी जवानी निकल जायगी, फिर पछताओगे।

बुङ्ढी की बातें सुन मारे गुस्से के कुमार का चेहरा लाल हो गया और उनके ऐयार लोग भी दांत पीसने लगे मगर क्या करें लाचार थे, अगर कुमार कसम न खा चुके होते तो ये लोग उस बुङ्ढी की पूरी दुर्गति कर देते।

तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ''आप बताइए यह कोई ऐयार है या सचमुच जैसी दिखाई देती है वैसी ही है? अगर कुमार कसम न खाये होते तो हम लोग किसी तरकीब से मालूम कर ही लेते।''

ज्योतिषीजी ने अपनी नाक पर हाथ रखकर स्वांस का विचार करके कहा, ''यह ऐयार नहीं है, जो देखते हो वही है।'' अब तो तेजसिंह और भी बिगड़े, बुङ्ढी से कहा, ''बस तू यहां से चली जा, हम लोग कुमार के कसम खाने को पूरा कर चुके कि तुझे कुछ न कहा, अगर अब जाने में देर करेगी तो कुत्तो से नुचवा डालूगा। क्या तमाशा है! ऐसी-ऐसी चुड़ैलें भी कुमार पर आशिक होने लगीं!''

बुङ्ढी ने कहा, ''अगर मेरी बात न मानोगे तो पछताओगे, तुम्हारा सब काम बिगाड़ दूंगी, देखो उस तहखाने में मैंने कैसा ताला लगा दिया कि तुमसे खुल न सका, आखिर बद्रीनाथ की गठरी लेकर वापस आए, अब जाकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा देती हूं, फिर और फसाद करूंगी!

यह कहती हुई गुस्से के मारे लाल-लाल आंखें किये खेमे के बाहर निकल गई, तेजसिंह के इशारे से देवीसिंह भी उसके पीछे चले गए।

कुमार-क्यों तेजसिंह, यह चुडैल तो अजब आफत मालूम पड़ती है, कहती है कि तहखाने में मैंने ही ताला लगा दिया था।

तेज-क्या मामला है कुछ समझ में नहीं आता!

ज्यो-अगर इसका कहना सच है तो हम लोगों के लिए यह एक बड़ी भारी बला पैदा हुई।

तेज-इसकी सच्चाई-झुठाई तो शिवदत्त के छूटने ही से मालूम हो जायगी, अगर सच्ची निकली तो बिना जान से मारे न छोड़ूंगा।

ज्यो-ऐसी को मारना ही जरूरी है।

तेज-कुमार ने कुछ यह कसम तो खाई नहीं है कि जन्म भर कोई उसको कुछ न कहेगा।

कुमार-(लंबी सांस लेकर) हाय, आज मुझको यह दिन भी देखना पड़ा।

तेज-आप चिंता न कीजिए, देखिये तो हम लोग क्या करते हैं, देवीसिंह उसके पीछे गये ही हैं कुछ पता लिए बिना नहीं आते।

कुमार-आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है, कुछ वनकन्या का पता लगाया, कुछ अब डाकिनी की खबर लोगे!

कुमार की यह बात तेजसिंह और ज्योतिषीजी को तीर के समान लगी मगर कुछ बोले नहीं, सिर्फ उठ के खेमे के बाहर चले गए।

इन लोगों के चले जाने के बाद कुमार खेमे में अकेले रह गये, तरह-तरह की बातें सोचने लगे, कभी चंद्रकान्ता की बेबसी और तिलिस्म में फंस जाने पर, कभी तिलिस्म टूटने में देर और वनकन्या की खबर या ठीक-ठीक हाल न पाने पर, कभी इस बुङ्ढी चुड़ैल की बातों पर जो अभी शादी करने आई थी अफसोस और गम करते रहे। तबीयत बिल्कुल उदास थी। आखिर दिन बीत गया और शाम हुई।

कुमार ने फतहसिंह को बुलाया, जब वे आये तो पूछा, ''तेजसिंह कहां हैं?'' उन्होंने जवाब दिया, ''कुछ मालूम नहीं, ज्योतिषीजी को साथ लेकर कहीं गये हैं?''

आठवां बयान

देवीसिंह उस बुङ्ढी के पीछे रवाना हुए। जब तक दिन बाकी रहा बुङ्ढी चलती गई। उन्होंने भी पीछा न छोड़ा। कुछ रात गये तक वह चुडैल एक छोटे से पहाड़ के दर्रे में पहुंची जिसके दोनों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ियां थीं। थोड़ी दूर इस दर्रे के अंदर जा वह एक खोह में घुस गई जिसका मुंह बहुत छोटा, सिर्फ एक आदमी के जाने लायक था।

देवीसिंह ने समझा शायद यही इसका घर होगा, यह सोच पेड़ के नीचे बैठ गये। रात भर उसी तरह बैठे रह गये मगर फिर वह बुढ़िया उस खोह में से बाहर न निकली। सबेरा होते ही देवीसिंह भी उसी खोह में घुसे।

उस खोह के अंदर बिल्कुल अंधकार था, देवीसिंह टटोलते हुए चले जा रहे थे। अगल-बगल जब हाथ फैलाते तो दीवार मालूम पड़ती जिससे जाना जाता कि यह खोह एक सुरंग के तौर पर है, इसमें कोई कोठरी या रहने की जगह नहीं है। लगभग दो मील गये होंगे कि सामने की तरफ चमकती हुई रोशनी नजर आई। जैसे-जैसे आगे जाते थे रोशनी बढ़ी मालूम होती थी, जब पास पहुंचे तो सुरंग के बाहर निकलने का दरवाजा देखा।

देवीसिंह बाहर हुए, अपने को एक छोटी-सी पहाड़ी नदी के किनारे पाया, इधर-उधर निगाह दौड़ाकर देखा तो चारों तरफ घना जंगल। कुछ मालूम न पड़ा कि कहां चले आए और लश्कर में जाने की कौन-सी राह है। दिन भी पहर भर से ज्यादे जा चुका था। सोचने लगे कि उस बुङ्ढी ने खूब छकाया, न मालूम वह किस राह से निकलकर कहां चली गई, अब उसका पता लगाना मुश्किल है। फिर इसी सुरंग की राह से फिरना पड़ा क्योंकि ऊपर से जंगल-जंगल लश्कर में जाने की राह मालूम नहीं, कहीं ऐसा न हो कि भूल जायं तो और भी खराबी हो, बड़ी भूल हुई कि रात को बुङ्ढी के पीछे-पीछे हम भी इस सुरंग में न घुसे, मगर यह क्या मालूम था कि इस सुरंग में दूसरी तरफ निकल जाने के लिए रास्ता है।

देवीसिंह मारे गुस्से के दांत पीसने लगे मगर कर ही क्या सकते थे? बुङ्ढी तो मिली नहीं कि कसर निकालते, आखिर लाचार हो उसी सुरंग की राह से वापस हुए और शाम होते-होते लश्कर में पहुंचे।

कुमार के खेमे में गये, देखा कि कई आदमी बैठे हैं और वीरेन्द्रसिंह फतहसिंह से बातें कर रहे हैं। देवीसिंह को देख सब कोई खेमे के बाहर चले गये सिर्फ फतहसिंह रह गये। कुमार ने पूछा, ''क्यो उस बुङ्ढी की क्या खबर लाए?''

देवी-बुङ्ढी ने तो बेहिसाब धोखा दिया!

कुमार-(हंसकर) क्या धोखा दिया?

देवीसिंह ने बुङ्ढी के पीछे जाकर परेशान होने का सब हाल कहा जिसे सुनकर कुमार और भी उदास हुए। देवीसिंह ने फतहसिंह से पूछा, ''हमारे ओस्ताद और ज्योतिषीजी कहां हैं?''

उन्होंने जवाब दिया कि ''बुङ्ढी चुड़ैल के आने से कुमार बहुत रंज में थे, उसी हालत में तेजसिंह से कह बैठे कि तुम लोगों की ऐयारी में इन दिनों उल्ली लग गई। इतना सुन गुस्से में आकर ज्योतिषीजी को साथ ले कहीं चले गए, अभी तक नहीं आए।''

देवी-कब गए?

फतह-तुम्हारे जाने के थोड़ी देर बाद।

देवी-इतने गुस्से में ओस्ताद का जाना खाली न होगा, जरूर कोई अच्छा काम करके आवेंगे!

कुमार-देखना चाहिए।

इतने में तेजसिंह और ज्योतिषीजी वहां आ पहुंचे। इस वक्त उनके चेहरे पर खुशी और मुस्कराहट झलक रही थी जिससे सब समझे कि जरूर कोई काम कर आए हैं। कुमार ने पूछा, ''क्यों क्या खबर है?''

तेज-अच्छी खबर है।

कुमार-कुछ कहोगे भी कि इसी तरह?

तेज-आप सुन के क्या कीजिएगा?

कुमार-क्या मेरे सुनने लायक नहीं है?

तेज-आपके सुनने लायक क्यों नहीं है मगर अभी न कहेंगे।

कुमार-भला कुछ तो कहो?

तेज-कुछ भी नहीं।

देवी-भला ओस्ताद हमें भी बताओगे या नहीं?

तेज-क्या तुमने ओस्ताद कहकर पुकारा इससे तुमको बता दें?

देवी-झख मारोगे और बताओगे!

तेज-(हंसकर) तुम कौन-सा जस लगा आए पहले यह तो कहो?

देवी-मैं तो आपकी शागिर्दी में बट्टा लगा आया।

तेज-तो बस हो चुका।

ये बातें हो ही रही थीं कि चोबदार ने आकर हाथ जोड़ अर्ज किया कि ''महाराज शिवदत्त के दीवान आये हैं।'' सुनकर कुमार ने तेजसिंह की तरफ देखा फिर कहा, ''अच्छा आने दो, उनके साथ वाले बाहर ही रहें।''

महाराज शिवदत्त के दीवान खेमे में हाजिर हुए और सलाम करके बहुत-सा जवाहरात नजर किया। कुमार ने हाथ से छू दिया। दीवान ने अर्ज किया, ''यह नजर महाराज शिवदत्त की तरफ से ले आया हूं। ईश्वर की दया और आपकी कृपा से महाराज कैद से छूट गये हैं। आते ही दरबार करके हुक्म दे दिया कि आज से हमने कुंअर वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी कबूल की, हमारे जितने मुलाजिम या ऐयार हैं वे भी आज से कुमार को अपना मालिक समझें, बाद इसके मुझको यह नजर और अपने हाथ की लिखी खत देकर हुजूर में भेजा है, इस नजर को कबूल किया जाय!''

कुमार ने नजर कबूल कर तेजसिंह के हवाले की और दीवान साहब को बैठने का इशारा किया, वे खत देकर बैठ गये।

कुछ रात जा चुकी थी, कुमार ने उसी वक्त दरबारेआम किया, जब अच्छी तरह दरबार भर गया तब तेजसिंह को हुक्म दिया कि खत जोर से पढ़ो। तेजसिंह ने पढ़ना शुरू किया, लंबे-चौड़े सिरनामे के बाद यह लिखा था-

''मैं किसी ऐसे सबब से उस तहखाने की कैद से छूटा जो आप ही की कृपा से छूटना कहला सकता है। आप जरूर इस बात को सोचेंगे कि मैं आपकी दया से कैसे छूटा, आपने तो कैद ही किया था, तो ऐसा सोचना न चाहिए। किसी सबब से मैं अपने छूटने का खुलासा हाल नहीं कह सकता और न हाजिर ही हो सकता हूं। मगर जब मौका होगा और आपको मेरे छूटने का हाल मालूम होगा यकीन हो जायगा कि मैंने झूठ नहीं कहा था। अब मैं उम्मीद करता हूं कि आप मेरे बिल्कुल कसूरों को माफ करके यह नजर कबूल करेंगे। आज से हमारा कोई ऐयार या मुलाजिम आपसे ऐयारी या दगा न करेगा और आप भी इस बात का ख्याल रखें।

                                -आपका शिवदत्त।''

इस खत को सुनकर सब खुश हो गए। कुमार ने हुक्म दिया कि पंडित बद्रीनाथजी, जो हमारे यहां कैद हैं लाये जावें। जब वे आये कुमार के इशारे से उनके हाथ-पैर खोल दिए गए। उन्हें भारी खिलअत पहिराकर दीवान साहब के हवाले किया और हुक्म दिया कि आप दो रोज यहां रहकर चुनार जायें। फतहसिंह को उनकी मेहमानी के लिए हुक्म देकर दरबार बर्खास्त किया।

नौवां बयान

जब दरबार बर्खास्त हुआ आधी रात जा चुकी थी। फतहसिंह दीवान साहब को लेकर अपने खेमे में गये। थोड़ी देर बाद कुमार के खेमे में तेजसिंह, देवीसिंह, और ज्योतिषीजी फिर इकट्ठे हुए। उस वक्त सिवाय इन चारों आदमियों के और कोई वहां न था।

कुमार-क्यों तेजसिंह, बुढ़िया की बात तो ठीक निकली!

तेज-जी हां, मगर महाराज शिवदत्त की खत से तो कुछ और ही बात पाई जाती है।

देवी-उसके लिखने का कौन ठिकाना, कहीं वह धोखा न देता हो।

ज्यो-इस वक्त बहुत सोच-विचारकर काम करने का मौका है। चाहे शिवदत्त कैसी ही सफाई दिखाए मगर दुश्मन का विश्वास कभी न करना चाहिए।

तेज-आप ज्योतिषी हैं, विचारिए तो यह खत शिवदत्त ने सच्चे दिल से लिखी है या खुटाई रख के।

ज्यो-(कुछ विचारकर) यह खत तो उसने सच्चे दिल से लिखी है मगर यह विश्वास नहीं होता कि आगे भी उसका दिल साफ बना रहेगा।

तेज-आजकल तो ऐसे-ऐसे मामले हो रहे हैं कि किसी के सिर-पैर का कुछ पता ही नहीं लगता! अगर यह खत उसने सच्चे दिल से ही लिखी है तो अपने छूटने का खुलासा हाल क्यों नहीं लिखा?

ज्यो-इसका भी जरूर कोई सबब होगा।

कुमार-क्या आप रमल से नहीं बता सकते कि वह कैसे छूटा।

ज्यो-जी नहीं, तिलिस्म में रमल काम नहीं करता और वह तहखाना तिलिस्मी है जिसमें महाराज शिवदत्त कैद किए गए थे।

तेज-कुछ समझ में नहीं आता!

देवी-वह चुडैल भी कोई पूरी ऐयार मालूम होती है।

ज्यो-कभी नहीं, मैं सोच चुका हूं, ऐयारी का तो वह नाम भी नहीं जानती।

कुमार-खैर जो कुछ होगा देखा जायगा, अब कल से तिलिस्म तोड़ने में जरूर हाथ लगाना चाहिए।

तेज-हां कल जरूर तिलिस्म की कार्रवाई शुरू हो।

कुमार-अच्छा अब तुम लोग भी जाओ।

तीनों ऐयार कुमार से बिदा हो अपने डेरे में गए। दूसरे दिन कुंअर वीरेन्द्रसिंह तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में गए। तिलिस्मी किताब और ताली भी साथ ले ली। दलान में पहुंचकर तहखाने का ताला खोल पत्थर की चट्टान को निकालकर अलग किया और नीचे उतरकर कोठरी में होते हुए बाग में पहुंचे जहां थोड़ी-सी जमीन खोदकर छोड़ आये थे।

उसी जमीन को ये लोग मिलकर फिर खोदने लगे। आठ-नौ हाथ जमीन खोदने के बाद एक संदूक मालूम पड़ा जिसके ऊपर का पल्ला बंद था और ताले का मुंह एक छोटे से तांबे के पत्तार से ढंका हुआ था जिससे अंदर मिट्टी न जाने पावे।

कुमार ने चाहा कि संदूक को बाहर निकाल लें मगर न हो सका। ज्यों-ज्यों चारों तरफ से मिट्टी हटाते थे नीचे से संदूक चौड़ा निकल आता था। कोशिश करने पर भी इसका पता न लग सका कि वह जमीन में कितने नीचे तक गड़ा हुआ है। आखिर लाचार होकर कुमार ने तिलिस्मी किताब खोली और पढ़ने लगे। यह लिखा हुआ था-

''ताली में रस्सी बांधाकर जब बाग में उसे घसीटते फिरोगे तो एक जगह वह ताली जमीन से चिपक जायगी। वहां की मिट्टी हटाकर ताली उठा लेना, बाद इसके उस जमीन को खोदना, जब तक कि एक संदूक का मुंह न दिखाई पड़े। जब संदूक के ऊपर का हिस्सा निकल आवे खोदना बंद कर देना क्योंकि असल में यह संदूक नहीं दरवाजा है। बाग के बीचो ंबीच जो फव्वारा है उसके पूरब तरफ ठीक सात हाथ हटकर जमीन खोदना, एक हांडी निकलेगी, उसी में उसकी ताली है, उसे लाकर उस तहखाने का ताला खोलना, सीढ़ियां दिखलाई पड़ेंगी, उसी रास्ते से नीचे उतरना।

भीतर से वह तहखाना बहुत अंधेरा और धुएं से भरा हुआ होगा। खबरदार कोई रोशनी मत करना क्योंकि आग या मशाल के लगने ही से वह धुआं बल उठेगा जिससे बड़ा उपद्रव होगा और तुम लोगों की जान न बचेगी। मुंह पर कपड़ा लपेटकर उस तहखाने में उतरना, टटोलते हुए जिधर रास्ता मिले जल्दी-जल्दी चले जाना जिससे नाक के रास्ते धुआं दिमाग में न चढ़ने पावे। थोड़ी ही दूर जाकर एक चमकती कोठरी मिलेगी जिसमें की कुल चीजें दिखाई पड़ती होंगी। तमाम कोठरी में नीचे से ऊपर तक तार लगे होंगे। बहुत खोज करने की कोई जरूरत नहीं, तलवार से जल्दी-जल्दी इन तारों को काटकर बाहर निकल आना।''

इतना पढ़कर कुमार ने छोड़ दिया। लिखे बमूजिब बाग के बीचोंबीच वाले फव्वारे से सात हाथ पूरब हटकर जमीन खोदी, हांडी निकली, उसमें से ताली निकालकर तहखाने का मुंह खोला। देवीसिंह ने कहा, ''अब अपने-अपने मुंह पर कपड़ा लपेटते जाओ। तिलिस्म क्या है जान जोखम है, रोशनी मत करो, अंधेरा में टटोलते चलो, आंख रहते अंधो बनो और जल्दी-जल्दी चलो, दिमाग में धुआं भी न चढ़ने पावे!''

देवीसिंह की बात सुनकर कुमार हंस पड़े। सबों ने मुंह पर कपड़े लपेटे और घुसकर चमकती हुई कोठरी में पहुंचे। जहां तक हो सका जल्दी-जल्दी उन तारों को काटकर तहखाने से बाहर निकल आये।

मुंह पर कपड़ा तो लपेटे हुए थे तिस पर भी थोड़ा-बहुत धुआं दिमाग में चढ़ ही गया जिससे सबों की तबीयत घबरा गई। तहखाने के बाहर निकलकर दो घंटे तक चारों आदमी बेसुधा पड़े रहे, जब होश-हवाश ठिकाने हुए तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ''अब दिन कितना बाकी है?'' उन्होंने जवाब दिया, ''अभी चार घंटा बाकी है।''

कुमार ने कहा, ''अब कोई काम करने का वक्त नहीं रहा। एक घंटे में क्या हो सकता है?'' ज्येतिषीजी की भी यही राय ठहरी। आखिर चारों आदमी बाग से बाहर रवाना हुए और कोठरी तथा तहखाने के रास्ते होकर खंडहर के दलान में आये। पहले की तरह चट्टान को तहखाने के मुंह पर रख ताला बंद कर दिया और खंडहर के बाहर होकर अपने खेमे में चले आये।

थोड़ी देर आराम करने के बाद कुमार के जी में आया कि जरा जंगल में इधर-उधर घूमकर हवा खानी चाहिए। तेजसिंह से कहा, वह भी इस बात पर मुस्तैद हो गये, आखिर तीनों ऐयारों को साथ लेकर लश्कर के बाहर हुए। कुमार घोड़े पर और तीनों ऐयार पैदल थे।

कुमार धीरे- धीरे जा रहे थे। कोस भर के करीब गये होंगे कि एक मोटे से साखू के पेड़ में कुछ लिखा हुआ एक कागज चिपका नजर पड़ा। तेजसिंह ने कहा, ''देखो यह कैसा कागज चिपका है और क्या लिखा है?'' यह सुनकर देवीसिंह ने उस पेड़ के पास जाकर कागज पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

''क्यों, अब तुमको मालूम हुआ कि मैं कैसी आफत हूं! कहती थी कि मुझसे शादी कर लो तो एक घंटे में तिलिस्म तोड़कर चंद्रकान्ता से मिलने की तरकीब बता दूं। लेकिन तुमने न माना, आखिर मैंने भी गुस्से में आकर महाराज शिवदत्त को छुड़ा दिया। अब क्या इरादा है? शादी करोगे या नहीं? अगर मंजूर हो तो जवाब लिखकर इसी पेड़ से चिपका दो, मैं तुरंत तुम्हारे पास चली आऊंगी, और अगर नामंजूर हो तो साफ जवाब दे दो। अबकी दफे मैं चंद्रकान्ता और चपला को जान से मार कलेजा ठण्डा करूंगी। मुझे तिलिस्म में जाते कितनी देर लगती है। दिन में तेरह दफे जाऊं और आऊं। अपनी भलाई और मेरी जवानी की तरफ ख्याल करो। मेरे सामने तुम्हारे ऐयारों की ऐयारी कुछ न चलेगी। उस दिन देवीसिंह ने मेरा पीछा किया था मगर क्या कर सके? मानो, मानो, जिद्द मत करो, मेरे ही कहने से शिवदत्त तुम्हारा दोस्त बना है। अब भी समझ जाओ!

                                -तुम्हारी सूरजमुखी।''

इसे पढ़ देवीसिंह ने हाथ के इशारे से सबों को अपने पास बुलाया और कहा, ''आप लोग भी इसे पढ़ लीजिए।''

आखिर में 'सूरजमुखी' पढ़कर सबों को हंसी आ गई। कुमार ने कहा, ''देखो इस चुड़ैल ने अपना नाम कैसे मजे का लिखा है।'' तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से कहा, ''देखिए यह सब क्या लिखा है!''

ज्योतिषीजी ने जवाब दिया, ''चाहे जो भी हो, मगर मैं भी ठीक कहे देता हूं कि वह चुड़ैल कुमार का कुछ बिगाड़ नहीं सकती। इस लिखावट की तरफ ख्याल न कीजिये।''

कुमार ने कहा, ''आपका कहना ठीक है मगर वह जो कहती है उसे कर दिखाती है।'' इतना कह कुमार आगे बढ़े। घूमते समय कई पेड़ों पर इसी तरह के लिखे हुए कागज चिपके हुए दिखाई पड़े। ज्योतिषीजी के कहने से कुमार की तबीयत न भरी, उदास होकर अपने लश्कर में लौट आये और तीनों ऐयारों के साथ अपने खेमे में चले गये।

थोड़ी देर उसी सूरजमुखी की बातचीत होती रही। पहर रात गई होगी जब तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''हम लोग इस वक्त बालादवी को जाते हैं, शायद कोई नई बात नजर पड़ जाय।'' यह कहकर तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी कुमार से बिदा हो गश्त लगाने चले गये। कुमार भी कुछ भोजन करके पलंग पर जा लेटे। नींद काहे को आनी थी, पड़े-पड़े कुमारी चंद्रकान्ता की बेबसी, वनकन्या की चाह, और बुङ्ढी चुडैल की शैतानी को सोचते-सोचते आधी रात से भी ज्यादे गुजर गई। इतने में खेमे के अंदर किसी के आने की आहट मिली, दरवाजे की तरफ देखा तो तेजसिंह नजर पड़े। बोले, ''कहो तेजसिंह, कोई नई खबर लाये क्या!''

तेज-हां एक बढ़िया चीज हाथ लगी है?

कुमार-क्या है? कहां है? देखूं।

तेज-खेमे के बाहर चलिये तो दिखाऊं।

कुमार-चलो।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह तेजसिंह के पीछे-पीछे खेमे के बाहर हुए। देखा कुछ दूर पर रोशनी हो रही है और बहुत से आदमी इकट्ठे हैं। पूछा, ''यह भीड़ कैसी है?'' तेजसिंह ने कहा, ''चलिए देखिये, बड़ी खुशी की बात है!''

कुमार के पास पहुंचते ही भीड़ हटा दी गई। कई मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी में कुमार ने देखा कि क्रूरसिंह की खून से भरी हुई लाश पड़ी है, कलेजे में एक खंजर घुसा हुआ अभी तक मौजूद है। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ''क्यों तेजसिंह, आखिर तुमने इसको मार ही डाला।''

तेज-भला हम लोग एकाएक इस तरह किसी को मारते हैं?

कुमार-तो फिर किसने मारा?

तेज-मैं क्या जानूं।

कुमार-फिर लाश को कहां से लाये?

तेज-बालादवी करते (गश्त लगाते) हम लोग इस तिलिस्मी खंडहर के पिछवाड़े चले गये। दूर से देखा कि तीन-चार आदमी खड़े हैं। जब तक हम लोग पास जायं, वे सब भाग गये। देखा तो क्रूर की लाश पड़ी थी। तब देवीसिंह को भेज यहां से डोली और कहार मंगवाये और इस लाश को त्यों का ज्यों उठवा लाए, अभी मरा नहीं है, बदन गर्म है मगर बचेगा नहीं।

कुमार-बड़े ताज्जुब की बात है! इसे किसने मारा? अच्छा वह खंजर तो निकालो जो इसके कलेजे में घुसा हुआ है।

तेजसिंह ने खंजर निकाला और पानी से धो कर कुमार के पास लाये। मशाल की रोशनी में उसके कब्जे पर निगाह की तो कुछ खुदा हुआ मालूम पड़ा। खूब गौर करके देखा तो बारीक हरफों में 'चपला' का नाम खुदा हुआ था। तेजसिंह ने ताज्जुब से कहा, ''देखिए इस पर तो चपला का नाम खुदा है और इस खंजर को मैं बखूबी पहचानता हूं, यह बराबर चपला के कमर में बंधा रहता था। मगर फिर यहां कैसे आया? क्या चपला ही ने इसे मारा है?''

देवी-चपला बेचारी तो खोह में कुमारी चंद्रकान्ता के पास बैठी होगी जहां चिराग भी न जलता होगा।

कुमार-तो वहां से इस खंजर को कौन लाया?

तेज-इसके सिवाय यह भी सोचना चाहिए कि क्रूरसिंह यहां क्यों आया! यह तो महाराज शिवदत्त के साथ था और उनका दीवान खुद ही आया हुआ है जो कहता है कि महाराज अब आपसे दुश्मनी नहीं करेंगे।

कुमार-किसी को भेजकर महाराज शिवदत्त के दीवान को बुलाओ।

तेजसिंह ने देवीसिंह को कहा कि तुम ही जाकर बुला लाओ। देवीसिंह गये, उन्हें नींद से उठाकर कुमार का संदेशा दिया, वे बेचारे भी घबराए हुए जल्दी-जल्दी कुमार के पास आए। फतहसिंह भी उसी जगह पहुंचे। दीवान साहब क्रूरसिंह की लाश देखते ही बोले, ''बस यह बदमाश तो अपनी सजा को पहुंच चुका मगर इसके साथी अहमद और नाज़िम बाकी हैं, उनकी भी यही गति होती तो कलेजा ठण्डा होता।'' कुमार ने पूछा, ''क्या यह आपके यहां अब नहीं है!''

दीवान साहब ने जवाब दिया, ''नहीं, जिस रोज महाराज तहखाने से छूटकर आए और हुक्म दिया कि हमारे यहां का कोई भी आदमी कुमार के साथ दुश्मनी का ख्याल न रखे उसी वक्त क्रूरसिंह अपने बाल-बच्चों तथा नाज़िम और अहमद को साथ लेकर चुनार से भाग गया, पीछे महाराज ने खोज भी कराई मगर कुछ पता न लगा।''

देखते-देखते क्रूरसिंह ने तीन-चार दफे हिचकी ली और दम तोड़ दिया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ''अब यह मर गया, इसको ठिकाने पहुंचाओ और खंजर को तुम अपने पास रखो, सुबह देखा जायगा।'' तेजसिंह ने क्रूरसिंह की लाश को उठवा दिया और सब अपने-अपने खेमे में गए।

भाग -11

 

 

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