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चंद्रकांता

तीसरा अध्याय

दसवां बयान

सुबह को कुमार ने स्नान-पूजा से छुट्टी पाकर तिलिस्म तोड़ने का इरादा किया और तीनों ऐयारों को साथ ले तिलिस्म में घुसे। कल की तरह तहखाने और कोठरियों में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे। स्याह पत्थर के दलान में बैठ गए र तिलिस्मी किताब खोलकर पढ़ने लगे, यह लिखा हुआ था-

''जब तुम तहखाने में उतर धुएं से जो उसके अंदर भरा होगा दिमाग को बचाकर तारों को काट डालोगे तब उसके थोड़ी ही देर बाद कुल धुआं जाता रहेगा। स्याह पत्थर की बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर चौखूटे सुर्ख पत्थर पर कुछ लिखा हुआ तुमने देखा होगा, उसके छूने से आदमी के बदन में सनसनाहट पैदा होती है बल्कि उसे छूने वाला थोड़ी देर में बेहोश होकर गिर पड़ता है मगर ये कुल बातें उन तारों के कटने से जाती रहेंगी क्योंकि अंदर ही अंदर यह तहखाना उस बारहदरी के नीचे तक चला गया है और उसी सिंहासन से उन तारों का लगाव है जो नीचे मसालों और दवाइयों में घुसे हुए हैं। दूसरे दिन फिर धुएं वाले तहखाने में जाना, धुआं बिल्कुल न पाओगे। मशाल जला लेना और बेखौफ जाकर देखना कि कितनी दौलत तुम्हारे वास्ते वहां रखी हुई है। सब बाहर निकाल लो और जहां मुनासिब समझो रखो। जब तक बिल्कुल दौलत तहखाने में से निकल न जाए तब तक दूसरा काम तिलिस्म का मत करो। स्याह बारहदरी में संगमर्मर के सिंहासन पर जो चौखूटा सुर्ख पत्थर रखा है उसको भी ले जाओ। असल में वह एक छोटा-सा संदूक है जिसके भीतर बहुत-सी नायाब चीजें हैं। उसकी ताली इसी तिलिस्म में तुमको मिलेगी।''

कुमार ने इन सब बातों को फिर दोहरा के पढ़ा, बाद उसके उस धुएं वाले तहखाने में जाने को तैयार हुए। तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी तीनों ने मशाल बाल ली और कुमार के साथ उस तहखाने में उतरे। अंदर उसी कोठरी में गये जिसमें बहुत-सी तारें काटी थीं। इस वक्त रोशनी में मालूम हुआ कि तारें कटी हुई इधर-उधर फैल रही हैं, कोठरी खूब लंबी-चौड़ी है। सैकड़ों लोहे और चांदी के बड़े-बड़े संदूक चारों तरफ पड़े हैं, एक तरफ दीवार में खूंटी के साथ तालियों का गुच्छा भी लटक रहा है।

कुमार ने उस ताली के गुच्छे को उतार लिया। मालूम हुआ कि इन्हीं संदूकों की ये तालियां हैं। एक संदूक को खोलकर देखा तो हीरे के जड़ाऊ जनाने जेवरों से भरा पाया, तुरंत बंद कर दिया और दूसरे संदूक को खोला, कीमती हीरों से जड़ी नायाब कब्जों की तलवारें और खंजर नजर आये। कुमार ने उसे भी बंद कर दिया और बहुत खुश होकर तेजसिंह से कहा-

''बेशक इस कोठरी में बड़ा भारी खजाना है। अब इसको यहां खोलकर देखने की कोई जरूरत नहीं, इन संदूकों को बाहर निकलवाओ, एक-एक करके देखते और नौगढ़ भेजवाते जायेंगे। जहां तक हो जल्दी इन सबों को उठवाना चाहिए।''

तेजसिंह ने जवाब दिया, ''चाहे कितनी ही जल्दी की जाय मगर दस रोज से कम में इन संदूकों का यहां से निकलना मुश्किल है। अगर आप एक-एक को देखकर नौगढ़ भेजने लगेंगे तो बहुत दिन लग जायेंगे और तिलिस्म तोड़ने का काम अटका रहेगा। इससे मेरी समझ में यह बेहतर है कि इन संदूकों को बिना देखे ज्यों का त्यों नौगढ़ भेजवा दिया जाय। जब सब कामों से छुट्टी मिलेगी तब खोलकर देख लिया जायगा। ऐसा करने से किसी को मालूम भी न होगा कि इसमें क्या निकला और दुश्मनों की आंख भी न पड़ेगी। न मालूम कितनी दौलत इसमें भरी हुई है जिसकी हिफाजत के लिए इतना बड़ा तिलिस्म बनाया गया!''

इस राय को कुमार ने पसंद किया और देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी कहा कि ऐसा ही होना चाहिए। चारों आदमी उस तहखाने के बाहर हुए और उसी मालूमी रास्ते से खंडहर के दलान में आकर पत्थर की चट्टान से ऊपर वाले तहखाने का मुंह ढांप तिलिस्मी ताली से बंद कर खंडहर से बाहर हो अपने खेमे में चले आये।

आज ये लोग बहुत जल्दी तिलिस्म के बाहर हुए। अभी कुल दो पहर दिन चढ़ा था। कुमार ने तिलिस्म की और खजाने की तालियों का गुच्छा तेजसिंह के हवाले किया और कहा कि ''अब तुम उन संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने का इंतजाम करो।''

ग्यारहवां बयान

तेजसिंह को तिलिस्म में से खजाने के संदूकों को निकलवाकर नौगढ़ भेजवाने में कई दिन लगे क्योंकि उसके साथ पहरे वगैरह का बहुत कुछ इंतजाम करना पड़ा। रोज तिलिस्म में जाते और पहर दिन जब बाकी रहता तिलिस्म से बाहर निकल आया करते। जब तक कुल असबाब नौगढ़ रवाना नहीं कर दिया गया तब तक तिलिस्म तोड़ने की कार्रवाई बंद रही।

एक रात कुमार अपने पलंग पर सोये हुए थे। आधी रात जा चुकी थी। कुमारी चंद्रकान्ता और वनकन्या की याद में अच्छी तरह नींद नहीं आ रही थी, कभी जागते कभी सो जाते। आखिर एक गहरी नींद ने अपना असर यहां तक जमाया कि सुबह क्या बल्कि दो घड़ी दिन चढ़े तक आंख खुलने न दीं।

जब कुमार की नींद खुली अपने को उस खेमे में न पाया जिसमें सोये थे अथवा जो तिलिस्म के पास जंगल में था बल्कि उसकी जगह एक बहुत सजे हुए कमरे को देखा जिसकी छत में कई बेशकीमती झाड़ और शीशे लटक रहे थे। ताज्जुब में पड़ इधर-उधर देखने लगे। मालूम हुआ कि यह एक बहुत भारी दीवानखाना है जिसमें तीन तरफ संगमर्मर की दीवार और चौथी तरफ बड़े-बड़े खूबसूरत दरवाजे हैं जो इस समय बंद हैं। दीवारों पर कई दीवारगीरें लगी हुई हैं, जिनमें दिन निकल आने पर भी अभी तक मोमी बत्तियां जल रही हैं। ऊपर उसके चारों तरफ बड़ी-बड़ी खूबसूरत और हसीन औरतों की तस्वीरें लटक रही थीं। लंबी दीवार के बीचोंबीच एक तस्वीर आदमी के कद के बराबर सोने के चौखटे में जड़ी दीवार के साथ लगी हुई थी।

कुमार की निगाह तमाम तस्वीरों पर से दोड़ती हुई उस बड़ी तस्वीर पर आकर अटक गई। सोचने लगे बल्कि धीमी आवाज में इस तरह बोलने लगे जैसे अपने बगल में बैठे हुए किसी दोस्त को कोई कहता हो-

''अहा, इस तस्वीर से बढ़कर इस दीवानखाने में कोई चीज नहीं है और बेशक यह तस्वीर भी उसी की है जिसके इश्क ने मुझे तबाह कर रखा है! वाह क्या साफ भोली सूरत दिखलाई है।''

कुमार झट से उठ बैठे और उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये। दीवानखाने के दरवाजे बंद थे मगर हर एक दरवाजे के ऊपर छोटे-छोटे मोखे (सूराख) बने हुए थे जिनमें शीशे की टट्टियां लगी हुई थीं, उन्हीं में से सीधी रोशनी ठीक उस लंबी-चौड़ी तस्वीर पर पड़ रही थी जिसको देखने के लिए कुमार पलंग पर से उतरकर उसके पास गये थे। असल में वह तस्वीर कुमारी चंद्रकान्ता की थी।

कुमार उस तस्वीर के पास जाकर खड़े हो गये और फिर उसी तरह बोलने लगे जैसे किसी दूसरे को जो पास ही खड़ा हो सुना रहे हैं-

''अहा, क्या अच्छी और साफ तस्वीर बनी हुई है! इसमें ठीक उतना ही बड़ा कद है, वैसी ही बड़ी-बड़ी आंखें हैं जिनमें काजल की लकीरें कैसी साफ मालूम हो रही हैं। अहा, गालों पर गुलाबीपन कैसा दिखलाया है, बारीक होंठों में पान की सुर्खी और मुस्कुराहट साफ मालूम हो रही है, कानों में कानबाले, माथे में बेंदी और नाक में नथ तो हई है मगर यह गले की गोप क्या ही अच्छी और साफ बनाई है जिसके बीच के चमकते हुए मानिक और अगल-बगल के कुंदन की उभाड़ में तो हद दर्जे की कारीगरी खर्च की गई है। गोप क्या सभी गहने अच्छे हैं। गले की माला, हाथों के बाजूबंद, कंगन, छंद, पहुंची, अंगूठी सभी चीजें अच्छी बनाई हैं, और देखो एक बगल चपला दूसरी तरफ चंपा क्या मजे में अपनी ठुड्डी पर उंगली रखे खड़ी हैं।''

''हाय, चंद्रकान्ता कहां होगी!'' इतना कह एक लंगी सांस ले एकटक उस तस्वीर की तरफ देखने लगे।

कहीं से पाजेब की छन्न से आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार चौंक पड़े। ऊपर की तरफ कई छोटी-छोटी खिड़कियां थीं जो सब की सब बंद थीं। यह आवाज कहां से आई! इस घर में कौन औरत है! इतनी देर तक तो कुमार अपने पूरे होशहवास में न थे मगर अब चौंके और सोचने लगे-

''हैं, इस जगह मैं कैसे आ गया? कौन उठा लाया? उसने मेरे साथ बड़ी नेकी की जो मेरी प्यारी चंद्रकान्ता की तस्वीर मुझे दिखला दी, मगर कहीं ऐसा न हो कि मैं यह बातें स्वप्न में देखता होऊं? जरूर यह स्वप्न है, चलो फिर उसी पलंग पर सो रहें।''

यह सोच फिर कुमार उसी पलंग पर आ के लेट गये, आंखें बंद कर लीं, मगर नींद कहां से आती। इतने में फिर पाजेब की आवाज ने कुमार को चौंका दिया। अबकी दफे उठते ही सीधो दरवाजों की तरफ गये और सातों दरवाजों को धाक्का दिया, सब खुल गये। एक छोटा-सा हरा-भरा बाग दिखाई पड़ा। दिन अनुमानत: पहर भर के चढ़ चुका होगा।

यह बाग बिल्कुल जंगली फूलों और लताओं से भरा हुआ था, बीच में एक छोटा-सा तालाब भी दिखाई पड़ा। कुमार सीधो तालाब के पास चले गये जो बिल्कुल पत्थर का बना हुआ था। एक तरफ उसके खूबसूरत सीढ़ियां उतरने के लिए बनी हुई थीं, ऊपर उन सीढ़ियों के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े जामुन के पेड़ लगे हुए थे जो बहुत ही घने थे। तमाम सीढ़ियों पर बल्कि कुछ जल तक उन दोनों की छाया पहुंची हुई थी और दोनों पेड़ों के नीचे छोटे-छोटे संगमर्मर के चबूतरे बने हुए थे। बाएं तरफ के चबूतरे पर नरम गलीचा बिछा हुआ था, बगल में एक टोंटीदार चांदी का गड़वा, उसके पास ही शहतूत के पत्तो पर बना-बनाया दातून एक तरफ से चिरा हुआ था, बगल में एक छोटी-सी चांदी की चौकी पर धाोती, गमछा और पहिरने के खूबसूरत और कीमती कपड़े भी रखे हुए थे।

दाहिनी तरफ वाले संगमर्मर के चबूतरे पर चांदी की एक चौकी थी जिस पर पूजा का सामान धारा हुआ था। छोटे-छोटे जड़ाऊ पंचपात्र, तष्टी, कटोरियां सब साफ की हुई थीं और नरम ऊनी आसन बिछा हुआ था जिस पर एक छोटा-सा बेल भी पड़ा था।

कुमार इस बात पर गौर कर रहे थे कि वे कहां आ पहुंचे, उन्हें कौन लाया, इस जगह का नाम क्या है तथा यह बाग और कमरा किसका है? इतने में ही उस पेड़ की तरफ निगाह जा पड़ी जिसके नीचे पूजा का सब सामान सजाया हुआ था। एक कागज चिपका हुआ नजर पड़ा। उसके पास गये, देखा कि कुछ लिखा हुआ है। पढ़ा, यह लिखा था-

''कुंअर वीरेन्द्रसिंह, यह सब सामान तुम्हारे ही वास्ते है। इसी बावली में नहाओ और इन सब चीजों को बरतो, क्योंकि आज के दिन तुम हमारे मेहमान हो।''

कुमार और भी सोच में पड़ गए कि यह क्या, सामान तो इतना लंबा-चौड़ा रखा गया है मगर आदमी कोई भी नजर नहीं पड़ता, जरूर यह जगह परियों के रहने की है और वे लोग भी इसी बाग में फिरती होंगी, मगर दिखाई नहीं पड़तीं! अच्छा इस बाग में पहले घूमकर देख लें कि क्या-क्या है फिर नहाना-धोना होगा, आखिर इतना दिन तो चढ़ ही चुका है। अगर कहीं दरवाजा नजर पड़ा तो इस बाग के बाहर हो जायेंगे, मगर नहीं, इस बाग का मालिक कौन है और वह मुझे यहां क्यों लाया जब तक इसका हाल मालूम न हो इस बाग से कैसे जाने को जी चाहेगा? यही सब सोचकर कुमार उस बाग में घूमने लगे।

जिस कमरे में नींद से कुमार की आंख खुली थी वह बाग के पश्चिम तरफ था। पूरब तरफ कोई इमारत न थी क्योंकि निकलता हुआ सूरज पहले ही से दिखाई पड़ा था जो इस वक्त नेजे बराबर ऊंचा आ चुका होगा। घूमते हुए बाग के उत्तर तरफ एक और कमरा नजर पड़ा जो पूरब तरफ वाले कमरे के साथ सटा हुआ था।

कुमार ने चाहा कि उस कमरे की भी सैर करें मगर न हो सका, क्योंकि उसके सब दरवाजे बंद थे, अस्तु आगे बढ़े और जंगली फूलों, बेलों और खूबसूरत क्यारियों को देखते हुए बाग के दक्षिण तरफ पहुंचे। एक छोटी-सी कोठरी नजर पड़ी जिसकी दीवार पर कुछ लिखा हुआ था, पढ़ने से मालूम हुआ कि पाखाना है। उसी जगह लकड़ी की चौकी पर पानी से भरा हुआ एक लोटा भी रखा था।

दिन डेढ़ पहर से ज्यादे चढ़ चुका होगा, कुमार की तबीयत घबड़ाई हुई थी, आखिर सोच-विचारकर चौकी पर से लोटा उठा लिया और पाखाने गए, बाद इसके बावली में हाथ-मुंह धो, सीढ़ियों के ऊपर जामुन के पेड़ तले चौकी पर बैठकर दातुन किया, बावली में स्नान करके उन्हीं कपड़ों को पहना जो उनके लिए संगमर्मर के चबूतरे पर रखे हुए थे, दूसरे पर बैठ के संध्या-पूजा की।

जब इन सब कामों से छुट्टी पा चुके तो फिर उसी कमरे की तरफ आए जिसमें सोते से आंख खुली थी और कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर देखी थी, मगर उस कमरे के कुल किवाड़ बंद पाये, खोलने की कोशिश की मगर खुल न सके। बाहर दलान में खूब कड़ी धूप फैली हुई थी। धूप के मारे तबीयत घबड़ा उठी, यही जी चाहता था कि कहीं ठण्डी जगह मिले तो आराम किया जाय। आखिर उस जगह से हट कुमार घूमते हुए उस दूसरी तरफ वाले कमरे को देखने चले जिसमें किवाड़ पहर भर पहले बंद पाये थे, वे अब खुले हुए दिखलाई पड़े, अंदर गए।

भीतर से यह कमरा बहुत साफ संगमर्मर के फर्श का था, मालूम होता था कि अभी कोई इसे धोकर साफ कर गया है। बीच में एक काश्मीरी गलीचा बिछा हुआ था। आगे उसके कई तरह की भोजन की चीजें चांदी और सोने के बरतनों में सजाई हुई रखी थीं। आसन पर एक खत पड़ी हुई थी जिसे कुमार ने उठाकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था-

''आप किसी तरह घबड़ाएं नहीं, यह मकान आपके एक दोस्त का है जहां हर तरह से आपकी खातिर की जायगी। इस वक्त आप भोजन करके बगल की कोठरी में जहां आपके लिए पलंग बिछा है कुछ देर आराम करें।''

इसे पढ़कर कुमार जी में सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। भूख बड़े जोर की लगी है पर बिना मालिक के इन चीजों को खाने को जी नहीं चाहता और कुछ पता भी नहीं लगता कि इस मकान का मालिक कौन है जो छिप-छिपकर हमारी खातिरदारी की चीजें तैयार कर रहा है पर मालूम नहीं होता कि कौन किधर से आता है, कहां खाना बनाता है, मालिक मकान या उसके नौकर-चाकर किस जगह रहते हैं या किस राह से आते-जाते हैं। उन लोगों को जब इसी जगह छिपे रहना मंजूर था तो मुझे यहां लाने की जरूरत ही क्या थी?

उसी आसन पर बैठे हुए बड़ी देर तक कुमार तरह-तरह की बातें सोचते रहे, यहां तक कि भूख ने उन्हें बेताब कर दिया, आखिर कब तक भूखे रहते? लाचार भोजन की तरफ हाथ बढ़ाया, मगर फिर कुछ सोचकर रुक गये और हाथ खींच लिया।

भोजन करने के लिए तैयार होकर फिर कुमार के रुक जाने से बड़े जोर के साथ हंसने की आवाज आई जिसे सुनकर कुमार और भी हैरान हुए। इधर-उधर देखने लगे मगर कुछ पता न लगा, ऊपर की तरफ कई खिड़कियां दिखाई पड़ीं मगर कोई आदमी नजर न आया।

कुमार ऊपर वाली खिड़कियों की तरफ देख ही रहे थे कि एक आवाज आई-

''आप भोजन करने में देर न कीजिये, कोई खतरे की जगह नहीं है।''

भूख के मारे कुमार विकल हो रहे थे, लाचार होकर खाने लगे। सब चीजें एक से एक स्वादिष्ट बनी हुई थीं। अच्छी तरह से भोजन करने के बाद कुमार उठे, एक तरफ हाथ धोने के लिए लोटे में जल रखा हुआ था, अपने हाथ से लोटा उठा हाथ धोए और उस बगल वाली कोठरी की तरफ चले। जैसा कि पुरजे में लिखा हुआ था उसी के मुताबिक सोने के लिए उस कोठरी में निहायत खूबसूरत पलंग बिछा हुआ पाया।

मसहरी पर लेटकर तरह-तरह की बातें सोचने लगे। इस मकान का मालिक कौन है और मुलाकात न करने मे उसने क्या फायदा सोचा है, यहां कब तक पड़े रहना होगा, वहां लश्कर वालों की हमारी खोज में क्या दशा होगी, इत्यादि बातों को सोचते-सोचते कुमार को नींद आ गई और बेखबर सो गये।

दो घंटे रात बीते तक कुमार सोये रहे। इसके बाद बीन की और उसके साथ ही किसी के गाने की आवाज कानों में पड़ी। झट आंखें खोल इधर-उधर देखने लगे, मालूम हुआ कि यह वह कमरा नहीं है जिसमें भोजन करके सोये थे, बल्कि इस वक्त अपने को एक निहायत खूबसूरत सजी हुई बारहदरी में पाया जिसके बाहर से बीन और गाने की आवाज आ रही थी।

कुमार पलंग पर से उठे और बाहर देखने लगे। रात बिल्कुल अधेरी थी मगर रोशनी खूब हो रही थी जिससे मालूम पड़ा कि यह बाग भी वह नहीं है जिसमें दिन को स्नान और भोजन किया था।

इस वक्त यह नहीं मालूम होता था कि यह बाग कितना बड़ा है क्योंकि इसके दूसरे तरफ की दीवार बिल्कुल नजर नहीं आती थी। बड़े-बड़े दरख्त भी इस बाग में बहुत थे। रोशनी खूब हो रही थी। कई औरतें जो कमसिन और खूबसूरत थीं, टहलती और कभी-कभी गाती या बजाती हुई नजर पड़ीं, जिनका तमाशा दूर से खड़े होकर कुमार देखने लगे। वे आपस में हंसती और ठिठोली करती हुई एक रविश से दूसरी और दूसरी से तीसरी पर घूम रही थीं। कुमार का दिल न माना और ये धीरे धीरे उनके पास जाकर खड़े हो गये।

वे सब कुमार को देखकर रुक गईं और आपस में कुछ बातें करने लगीं, जिसको कुमार बिल्कुल नहीं समझ सकते थे, मगर उनके हाथ-पैर हिलाने के भाव से मालूम होता था कि वे कुमार को देखकर ताज्जुब कर रही हैं। इतने में एक औरत आगे बढ़कर कुमार के पास आई और उनसे बोली, ''आप कौन हैं और बिना हुक्म इस बाग में क्यों चले आये?''

कुमार ने उसे नजदीक से देखा तो निहायत हसीन और चंचल पाया। जवाब दिया, ''मैं नहीं जानता यह बाग किसका है, अगर हो सके तो बताओ कि यहां का मालिक कौन है?''

औरत-हमने जो कुछ पूछा है पहले उसका जवाब दे लो फिर हमसे जो पूछोगे सो बता देंगे।

कुमार-मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि मैं यहां क्यों कर आ गया!

औरत-क्या खूब! कैसे सीधो-सादे आदमी हैं (दूसरी औरत की तरफ देखकर) बहिन, जरा इधर आना, देखो कैसे भोले-भाले चोर इस बाग में आ गये हैं जो अपने आने का सबब भी नहीं जानते!

उस औरत के आवाज देने पर सबों ने आकर कुमार को घेर लिया और पूछना शुरू किया, ''सच बताओ तुम कौन हो और यहां क्यों आये?''

दूसरी औरत-जरा इनके कमर में तो हाथ डालो, देखो कुछ चुराया तो नहीं?

तीसरी-जरूर कुछ न कुछ चुराया होगा।

चौथी-अपनी सूरत इन्होंने कैसी बना रखी है, मालूम होता है कि किसी राजा ही के लड़के हैं।

पहली-भला यह तो बताइए कि ये कपड़े आपने कहां से चुराये?

इन सबों की बातें सुनकर कुमार बड़े हैरान हुए। जी में सोचने लगे कि अजब आफत में आ फंसे, कुछ समझ में नहीं आता, जरूर इन्हीं लोगों की बदमाशी से मैं यहां तक पहुंचा और यही लोग अब मुझे चोर बनाती हैं। यों ही कुछ देर तक सोचते रहे, बाद इसके फिर बातचीत होने लगी-

कुमार-मालूम होता है कि तुम्हीं लोगों ने मुझे यहां लाकर रखा है।

एक औरत-हम लोगों को क्या गरज थी जो आपको यहां लाते या आप ही खुश हो हमें क्या दे देंगे जिसकी उम्मीद में हम लोग ऐसा करते! अब यह कहने से क्या होता है। जरूर चोरी की नीयत से ही आप आये हैं।

कुमार-मुझको यह भी मालूम नहीं कि यहां आने या जाने का रास्ता कौन है। अगर यह भी बतला दो तो मैं यहां से चला जाऊं।

दूसरी-वाह, क्या बेचारे अनजान बनते हैं! यहां तक आये भी और रास्ता भी नहीं मालूम।

तीसरी-बहिन, तुम नहीं समझतीं यह चालाकी से भागना चाहते हैं।

चौथी-अब इनको गिरफ्तार करके ले चलना चाहिए।

कुमार-भला मुझे कहां ले चलोगी?

एक औरत-अपने मालिक के सामने।

कुमार-तुम्हारे मालिक का क्या नाम है?

एक-ऐसी किसकी मजाल है जो हमारे मालिक का नाम ले!

कुमार-क्या तुम्हें अपने मालिक का नाम बताने में भी कुछ हर्ज है!

दूसरी-हर्ज! नाम लेते ही जुबान कटकर गिर पड़ेगी!

कुमार-तो तुम लोग अपने मालिक से बातचीत कैसे करती होओगी?

दूसरी-मालिक की तस्वीर से बातचीत करते हैं, सामना नहीं होता।

कुमार-अगर कोई पूछे कि तुम किसकी नौकर हो तो कैसे बताओगी?

तीसरी-हम लोग अपने मालिक राजकुमारी की तस्वीर अपने गले में लटकाए रहती हैं जिससे मालूम हो कि हम सब फलाने की लौंडी हैं।

कुमार-क्या यहां कई राजकुमारी हैं जो लौंडियों की पहचान में गड़बड़ी हो जाने का डर है?

पहली-नहीं, यहां सिर्फ दो राजकुमारी हैं और दोनों के यहां यही चलन है, कोई अपने मालिक का नाम नहीं ले सकता। जब पहचान की जरूरत होती है तो गले की तस्वीर दिखा दी जाती है।

कुमार-भला मुझे भी वह तस्वीर दिखाओगी?

''हां, हां, लो देख लो!'' कहकर एक ने अपने गले में की छोटी-सी तस्वीर जो धुकधुकी की तरह लटक रही थी निकालकर कुमार को दिखाई जिसे देखते ही उनके होश उड़ गये। यह तस्वीर तो कुमारी चंद्रकान्ता की है! तो क्या ये सब उन्हीं की लौंडी हैं। नहीं-नहीं, कुमारी चंद्रकान्ता यहां भला कैसे आवेंगी? उनका राज्य तो विजयगढ़ है। अच्छा पूछें तो यह मकान किस शहर में है?

कुमार-भला यह तो बताओ इस शहर का क्या नाम है जिसमें हम इस वक्त हैं!

एक-इस शहर का नाम चित्रनगर है क्योंकि सबों के गले में कुमारी की तस्वीर लटकती रहती है।

कुमार-और इस शहर का यह नाम कब से पड़ा?

एक-बरसों-बरस से यही नाम है और इसी रंग की तस्वीर कई पुश्त से हम लोगों के गले में है। पहले मेरी परदादी को सरकार से मिली थी, होते-होते अब मेरे गले में आ गई।

कुमार-क्या तब से यही राजकुमारी यहां का राज्य करती आई हैं, कोई इनका मां-बाप नहीं है?

दूसरी-अब यह सब हम लोग क्या जानें, कुछ राजकुमारी से तो मुलाकात होती नहीं जो मालूम हो कि यही हैं या दूसरी, जवान हैं या बुङ्ढी हो गईं।

कुमार-तो कचहरी कौन करता है?

दूसरी-एक बड़ी-सी तस्वीर हम लोगों के मालिक राजकुमारी की है, उसी के सामने दरबार लगता है। जो कुछ हुक्म होता है उसी तस्वीर से आवाज आती है।

कुमार-तुम लोगों की बातों ने तो मुझे पागल बना दिया है। ऐसी बातें करती हो जो कभी मुमकिन ही नहीं, अक्ल में नहीं आ सकतीं। अच्छा उस दरबार में मुझे भी ले जा सकती हो?

औरत-इसमें कहने की कौन-सी बात है, आखिर आपको गिरफ्तार करके उसी दरबार में तो ले चलना है, आप खुद ही देख लीजियेगा।

कुमार-जब तुम लोगों का मालिक कोई भी नहीं या अगर है तो एक तस्वीर, तब हमने उसका क्या बिगाड़ा? क्यों हमें बांधा के ले चलोगी?

औरत-हमारी राजकुमारी सबों की नजरों से छिपकर अपने राज्य भर में घूमा करती हैं और अपने मकान और बगीचों की सैर किया करती हैं मगर किसी की निगाह उन पर नहीं पड़ती। हम लोग रोज बाग और कमरों की सफाई करती हैं, और रोज ही कमरों का सामान, फर्श, पलंग के बिछौने वगैरह ऐसे हो जाते हैं जैसे किसी के मसरफ में आये हों। वह रौंदे जाते और मैले भी हो जाते हैं, इससे मालूम होता है कि हमारी राजकुमारी सभो की नजरों से छिपकर घूमा करती हैं, जिनकी हजारों बरस की उम्र है, और इसी तरह हमेशा जीती रहेंगी।

दूसरी-बहिन तुम इनकी बातों का जवाब कब तक देती रहोगी? ये तो इसी तरह जान बचाया चाहते हैं?

पहली-नहीं-नहीं, ये जरूर किसी रईस राजा के लड़के हैं, इनकी बातों का जवाब देना मुनासिब है और इनको इज्जत के साथ कैद करके दरबार में ले चलना चाहिए।

तीसरी-भला इनका और इनके बाप का नामधाम भी तो पूछ लो कि इसी तरह राजा का लड़का समझ लोगी! (कुमार की तरफ देखकर) क्यों जी आप किसके लड़के हैं र आपका नाम क्या है?

कुमार-मैं नौगढ़ के महाराज सुरेन्द्रसिंह का लड़का वीरेन्द्रसिंह हूं।

इनका नाम सुनते ही वे सब खुश होकर आपस में कहने लगीं, ''वाह, इनको तो जरूर पकड़ के ले चलना चाहिए, बहुत कुछ इनाम मिलेगा, क्योंकि इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए सरकार की तरफ से मुनादी की गई थी, इन्होंने बड़ा भारी नुकसान किया है, सरकारी तिलिस्म तोड़ डाला और खजाना लूटकर घर ले गए। अब इनसे बात न करनी चाहिए। जल्दी इनके हाथ-पैर बांधो और इसी वक्त सरकार के पास ले चलो। अभी आधी रात नहीं गई है, दरबार होता होगा, देर हो जायगी तो कल दिन भर इनकी हिफाजत करनी पड़ेगी, क्योंकि हमारे सरकार का दरबार रात ही को होता है।''

इन सबों की ये बातें सुनकर कुमार की तो अक्ल चकरा गई। कभी ताज्जुब कभी सोच, कभी घबराहट से इनकी अजब हालत हो गई। आखिर उन औरतों की तरफ देखकर बोले, ''फसाद क्यों करती हो हम तो आप ही तुम लोगों के साथ चलने को तैयार हैं, चलो देखें तुम्हारी राजकुमारी का दरबार कैसा है।''

एक-जब आप खुद चलने को तैयार हैं तब हम लोगों को ज्यादे बखेड़ा करने की क्या जरूरत है, चलिए।

कुमार-चलो।

वे सब औरतें गिनती में नौ थीं, चार कुमार के आगे चार पीछे हो उनको लेकर रवाना हुईं और एक यह कहकर चली गई कि मैं पहले खबर करती हूं कि फलाने डाकू को हम लोगों ने गिरफ्तार किया है जिसको साथ वाली सखियां लिए आती हैं।

वे सब कुमार को लिए बाग के एक कोने में गईं जहां दूसरी तरफ निकल जाने के लिए छोटा-सा दरवाजा नजर पड़ा जिसमें शीशे की सिर्फ एक सफेद हांडी जल रही थी। वे सब कुमार को लिए हुए इसी दरवाजे में घुसीं। थोड़ी दूर जाकर दूसरा बाग जो बहुत सजा था नजर पड़ा जिसमें हद से ज्यादे रोशनी हो रही थी और कई चोबदार हाथ में सोने-चांदी के आसे लिए इधर-उधर टहल रहे थे। इनके अलावे और भी बहुत से आदमी घूमते-फिरते दिखाई पड़े।

उन औरतों से किसी ने कुछ बातचीत या रोक-टोक न की, ये सब कुमार को लिए हुए बराबर धाड़धाड़ाती हुई एक बड़े भारी दीवानखाने में पहुंचीं जहां की सजावट और कैफियत देख कुमार के होश जाते रहे।

सबसे पहले कुमार की निगाह उस बड़ी तस्वीर के ऊपर पड़ी जो ठीक सामने सोने के जड़ाऊ सिंहासन पर रखी हुई थी। मालूम होता था कि सिंहासन पर कुमारी चंद्रकान्ता सिर पर मुकुट धारे बैठी हैं, ऊपर छत्र लगा हुआ है, और सिंहासन के दोनों तरफ दो जिंदा शेर बैठे हुए हैं जो कभी-कभी डकारते और गुर्राते भी थे। बाद इसके बड़े-बड़े सरदार बेशकीमती पोशाकें पहिरे सिंहासन के सामने दो-पट्टी कतार बांधो सिर झुकाए बैठे थे। दरबार में सन्नाटा छाया हुआ था, सब चुप मारे बैठे थे।

चंद्रकान्ता की तस्वीर और ऐसे दरबार को देखकर एक दफे तो कुमार पर भी रोब छा गया। चुपचाप सामने खड़े हो गए, उनके पीछे और दोनों बगल वे सब औरतें खड़ी हो गईं जिन्होंने कुमार को चोरों की तरह हाजिर किया था।

तस्वीर के पीछे से आवाज आई, ''ये कौन हैं?''

उन औरतों में से एक ने जवाब दिया, ''ये सरकारी बाग में घूमते हुए पकड़े गए हैं और पूछने से मालूम हुआ कि इनका नाम वीरेन्द्रसिंह है, विक्रमी तिलिस्म इन्होंने ही तोड़ा है।'' फिर आवाज आई, ''अगर यह सच है तो इनके बारे में बहुत कुछ विचार करना पड़ेगा, इस वक्त ले जाकर हिफाजत से रखो, फिर हुक्म पाकर दरबार में हाजिर करना।''

उन लौंडियों ने कुमार को एक अच्छे कमरे में ले जाकर रखा जो हर तरह से सजा हुआ था मगर कुमार अपने ख्याल में डूबे हुए थे। नये बाग की सैर और तस्वीर के दरबार ने उन्हें और अचंभे में डाल दिया था। गर्दन झुकाये सोच रहे थे। पहले बाग में जो ताज्जुब की बातें देखीं उनका तो पता लगा ही नहीं, इस बाग में तो और भी बातें दिखाई देती हैं जिसमें कुमारी चंद्रकान्ता की तस्वीर और उनके दरबार का लगना और भी हैरान कर रहा है। इसी सोच-विचार में गर्दन झुकाये लौंडियों के साथ चले गए, इसका कुछ भी ख्याल नहीं कि कहां जाते हैं, कौन लिए जाता है, या कैसे सजे हुए मकान में बैठाये गये हैं।

जमीन पर फर्श बिछा हुआ और गद्दी लगी हुई थी, बड़े तकिए के सिवाय और भी कई तकिए पड़े हुए थे। कुमार उस गद्दी पर बैठ गए और दो घंटे तक सिर झुकाये ऐसा सोचते रहे कि तनोबदन की बिल्कुल खबर न रही। प्यास मालूम हुई तो पानी के लिए इधर-उधर देखने लगे। एक लौंडी सामने खड़ी थी, उसने हाथ जोड़कर पूछा, ''क्या हुक्म होता है?'' जिसके जवाब में कुमार ने हाथ के इशारे से पानी मांगा। सोने के कटोरे में पानी भर के लौंडी ने कुमार के हाथ में दिया, पीते ही एकदम उनके दिमाग तक ठंडक पहुंच गई साथ ही आंखों में झपकी आने लगी और धीरे - धीरे बिल्कुल बेहोश होकर उसी गद्दी पर लेट गये।

बारहवा बयान

कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब होने से उनके लश्कर में खलबली पड़ गई। तेजसिंह और देवीसिंह ने घबराकर चारों तरफ खोज की मगर कुछ पता न लगा। दिन भर बीत जाने पर ज्योतिषीजी ने तेजसिंह से कहा, ''रमल से जान पड़ता है कि कुमार को कई औरतें बेहोशी की दवा सुंघा बेहोश कर उठा ले गई हैं और नौगढ़ के इलाके में अपने मकान के अंदर कैद कर रखा है, इससे ज्यादे कुछ मालूम नहीं होता।''

ज्योतिषीजी की बात सुनकर तेजसिंह बोले, ''नौगढ़ में तो अपना ही राज्य है, वहां कुमार के दुश्मनों का कहीं ठिकाना नहीं। महाराज सुरेन्द्रसिंह की अमलदारी से उनकी रियाया बहुत खुश तथा उनके और उनके खानदान के लिए वक्त पर जान देने को तैयार है फिर कुमार को ले जाकर कैद करने वाला कौन हो सकताहै।''

बहुत देर तक सोच-विचार करते रहने के बाद तेजसिंह कुमार की खोज में जाने के लिए तैयार हुए। देवीसिंह और ज्योतिषीजी ने भी उनका साथ दिया और ये तीनों नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। जाते वक्त महाराज शिवदत्त के दीवान को चुनार बिदा करते गये जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुलाकात को महाराज शिवदत्त की तरफ से तोहफा और सौगात लेकर आये हुए थे और तिलिस्मी किताब फतहसिंह सिपहसालार के सुपुर्द कर दी जो कुंअर वीरेन्द्रसिंह के गायब हो जाने के बाद उनके पलंग पर पड़ी हुई पाई गई थी।

ये तीनों ऐयार आधी रात गुजर जाने के बाद नौगढ़ की तरफ रवाना हुए। पांच कोस तक बराबर चले गये, सबेरा होने पर तीनों एक घने जंगल में रुके और अपनी सूरतें बदलकर फिर रवाना हुए। दिन भर चलकर भूखे-प्यासे शाम को नौगढ़ की सरहद पर पहुंचे। इन लोगों ने आपस में यह राय ठहराई कि किसी से मुलाकात न करें बल्कि जाहिर भी न होकर छिपे ही छिपे कुमार की खोज करें।

तीनों ऐयारों ने अलग-अलग होकर कुमार का पता लगाना शुरू किया। कहीं मकान में घुसकर, कहीं बाग में जाकर, कहीं आदमियों से बातें करके उन लोगों ने दरियाफ्त किया मगर कहीं पता न लगा। दूसरे दिन तीनों इकट्ठे होकर सूरत बदले हुए राजा सुरेन्द्रसिंह के दरबार में गये और एक कोने में खड़े हो बातचीत सुनने लगे।

उसी वक्त कई जासूस दरबार में पहुंचे जिनकी सूरत से घबराहट और परेशानी साफ मालूम होती थी। तेजसिंह के बाप दीवान जीतसिंह ने उन जासूसों से पूछा, ''क्या बात है जो तुम लोग इस तरह घबराये हुए आये हो?''

एक जासूस ने कुछ आगे बढ़के जवाब दिया, ''लश्कर से कुमार की खबर लाया हूं।''

जीत-क्या हाल है, जल्द कहो।

जासूस-दो रोज से उनका कहीं पता नहीं है।

जीत-क्या कहीं चले गये?

जासूस-जी नहीं, रात को खेमे में सोये हुए थे, उसी हालत में कुछ औरतें उन्हें उठा ले गईं, मालूम नहीं कहां कैद कर रखा है।

जीत-(घबराकर) यह कैसे मालूम हुआ कि उन्हें कई औरतें ले गईं?

जासूस-उनके गायब हो जाने के बाद ऐयारों ने बहुत तलाश किया। जब कुछ पता न लगा तो ज्योतिषी जगन्नाथजी ने रमल से पता लगाकर कहा कि कई औरतें उन्हें ले गई हैं और इस नौगढ़ के इलाके में ही कहीं कैद कर रखा है?

जीत-(ताज्जुब से) इसी नौगढ़ के इलाके में! यहां तो हम लोगों का कोई दुश्मन नहीं है!

जासूस-जो कुछ हो, ज्योतिषीजी ने तो ऐसा ही कहा है।

जीत-फिर तेजसिंह कहां गया?

जासूस-कुमार की खोज में कहीं गये हैं, देवीसिंह और ज्योतिषीजी भी उनके साथ हैं। मगर उन लोगों के जाते ही हमारे लश्कर पर आफत आई?

जीत-(चौंककर) हमारे लश्कर पर क्या आफत आई?

जासूस-मौका पाकर महाराज शिवदत्त ने हमला कर दिया।

हमले का नाम सुनते ही तेजसिंह वगैरह ऐयार लोग जो सूरत बदले हुए एक कोने में खड़े थे आगे की सब बातें बड़े गौर से सुनने लगे।

जीत-पहले तो तुम लोग यह खबर लाये थे कि महाराज शिवदत्त ने कुमार की दोस्ती कबूल कर ली और उनका दीवान बहुत कुछ नजर लेकर आया है, अब क्या हुआ?

जासूस-उस वक्त की वह खबर बहुत ठीक थी पर आखिर में उसने धोखा दिया और बेईमानी पर कमर बांधा ली।

जीत-उसके हमले का क्या नतीजा हुआ?

जासूस-पहर भर तक तो फतहसिंह सिपहसालार खूब लड़े, आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गये। उनके गिरफ्तार होते ही बेसिर की फौज तितिर-बितिर हो गई।

अभी तक सुरेन्द्रसिंह चुपचाप बैठे इन बातों को सुन रहे थे। फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और लश्कर के भाग जाने का हाल सुन आंखें लाल हो गईं। दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर बोले, ''हमारे यहां इस वक्त फौज तो है नहीं, थोड़े-बहुत सिपाही जो कुछ हैं उनको लेकर इसी वक्त कूच करूंगा। ऐसे नामर्द को मारना कोई बड़ी बात नहीं है।''

जीत-ऐसा ही होना चाहिए, सरकार के कूच की बात सुनकर भागी हुई फौज भी इकट्ठी हो जायगी।

ये बातें हो ही रही थीं कि दो जासूस और दरबार में हाजिर हुए। पूछने से उन्होंने कहा, ''कुमार के गायब होने, ऐयारों के उनकी खोज में जाने, फतहसिंह के गिरफ्तार हो जाने और फौज के भाग जाने की खबर सुनकर महाराज जयसिंह अपनी कुल फौज लेकर चुनार पर चढ़ गये हैं। रास्ते में खबर लगी कि फतहसिंह के गिरफ्तार होने के दो ही पहर बाद रात को महाराज शिवदत्त भी कहीं गायब हो गये और उनके पलंग पर एक पुर्जा पड़ा हुआ मिला जिसमें लिखा हुआ था कि इस बेईमान को पूरी सजा दी जायगी, जन्म भर कैद से छुट्टी न मिलेगी। बाद इसके सुनने में आया कि फतहसिंह भी छूटकर तिलिस्म के पास आ गये और कुमार की फौज फिर इकट्ठी हो रही है।''

इस खबर को सुनकर राजा सुरेन्द्रसिंह ने दीवान जीतसिंह की तरफ देखा।

जीत-जो कुछ भी हो महाराज जयसिंह ने चढ़ाई कर ही दी, मुनासिब है कि हम भी पहुंचकर चुनार का बखेड़ा ही तय कर दें, यह रोज-रोज की खटपट अच्छी नहीं!

राजा-तुम्हारा कहना ठीक है, ऐसा ही किया जाय, क्या कहें हमने सोचा था कि लड़के के ही हाथ से चुनार फतह हो जिससे उसका हौसला बढ़े मगर अब बर्दाश्त नहीं होता।

इन सब बातों और खबरों को सुन तीनों ऐयार वहां से रवाना हो गए और एकांत में जाकर आपस में सलाह करने लगे।

तेज-अब क्या करना चाहिए?

देवी-चाहे जो भी हो पहले तो कुमार को ही खोजना चाहिए।

तेज-मैं कहता हूं कि तुम लश्कर की तरफ जाओ और हम दोनों कुमार की खोज करते हैं।

ज्यो-मेरी बात मानो तो पहले एक दफे उस तहखाने (खोह) में चलो जिसमें महाराज शिवदत्त को कैद किया था।

तेज-उसका तो दरवाजा ही नहीं खुलता।

ज्यो-भला चलो तो सही, शायद किसी तरकीब से खुल जाय।

तेज-इसकी कोशिश तो आप बेफायदे करते हैं, अगर दरवाजा खुला भी तो क्या काम निकलेगा?

ज्यो-अच्छा चलो तो।

तेज-खैर चलो।

तीनों ऐयार तहखाने की तरफ रवाना हुए।

तेरहवां बयान 

कुंअर वीरेन्द्रसिंह धीरे - धीरे बेहोश होकर उस गद्दी पर लेट गए। जब आंख खुली अपने को एक पत्थर की चट्टान पर सोये पाया। घबराकर इधर-उधर देखने लगे। चारों तरफ ऊंची-ऊंची पहाड़ी, बीच में बहता चश्मा, किनारे-किनारे जामुन के दरख्तों की बहार देखने से मालूम हो गया कि यह वही तहखाना है जिसमें ऐयार लोग कैद किये जाते थे, जिस जगह तेजसिंह ने महाराज शिवदत्त को मय उनकी रानी के कैद किया था, या कुमार ने पहाड़ी के ऊपर चंद्रकान्ता और चपला को देखा था। मगर पास न पहुंच सके थे।

कुमार घबराकर पत्थर की चट्टान पर से उठ बैठे और उस खोह को अच्छी तरह पहचानने के लिए चारों तरफ घूमने और हर एक चीज को देखने लगे। अब शक जाता रहा और बिल्कुल यकीन हो गया कि यह वही खोह है, क्योंकि उसी तरह कैदी महाराज शिवदत्त को जामुन के पेड़ के नीचे पत्थर की चट्टान पर लेटे और पास ही उनकी रानी को बैठे और पैर दबाते देखा। इन दोनों का रुख दूसरी तरफ था, कुमार ने उनको देखा मगर उनको कुमार का कुछ गुमान तक भी न हुआ।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह दौड़े हुए उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर वाले दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को छोड़ तिलिस्म तोड़ने खोह के बाहर गये थे। इस वक्त भी कुमारी को उस दिन की तरह वही मैली और फटी साड़ी पहने उसी तौर से चेहरे और बदन पर मैल चढ़ी और बालों की लट बांधो बैठे हुए देखा।

देखते ही फिर वही मुहब्बत की बला सिर पर सवार हो गई। कुमारी को पहले की तरह बेबसी की हालत में देख आंखों में आंसू भर आये, गला रुक गया और कुछ शर्मा के सामने से हट एक पेड़ की आड़ में खड़े हो जी में सोचने लगे, 'हाय, अब कौन मुंह लेकर कुमारी चंद्रकान्ता के सामने जाऊं और उससे क्या बातचीत करूं? पूछने पर क्या यह कह सकूंगा कि तुम्हें छुड़ाने के लिए तिलिस्म तोड़ने गये थे लेकिन अभी तक वह नहीं टूटा। हा! मुझसे तो यह बात कभी नहीं कही जायगी। क्या करूं वनकन्या के फेर में तिलिस्म तोड़ने की सुधा जाती रही और कई दिन का हर्ज भी हुआ। जब कुमारी पूछेगी कि तुम यहां कैसे आये तो क्या जवाब दूंगा? शिवदत्त भी यहां दिखाई देता है। लश्कर में तो सुना था कि वह छूट गया बल्कि उसका दीवान खुद नजर लेकर आया था, तब यह क्या मामला है!'

इन सब बातों को कुमार सोच ही रहे थे कि सामने से तेजसिंह आते दिखाई पड़े जिनके कुछ दूर पीछे देवीसिंह और पंडित जगन्नाथ ज्योतिषी भी थे। कुमार उनकी तरफ बढ़े। तेजसिंह सामने से कुमार को अपनी तरफ आते देख दौड़े और उनके पास जाकर पैरों पर गिर पड़े, उन्होंने उठाकर गले से लगा लिया। देवीसिंह से भी मिले और ज्योतिषीजी को दण्डवत किया। अब ये चारों एक पेड़ के नीचे पत्थर पर बैठकर बातचीत करने लगे।

कुमार-देखो तेजसिंह, वह सामने कुमारी चंद्रकान्ता उसी दिन की तरह उदास और फटे कपड़े पहिरे बैठी है और बगल में उसकी सखी चपला बैठी अपने आंचल से उनका मुंह पोछ रही है।

तेज-आपसे कुछ बातचीत भी हुई?

कुमार-नहीं कुछ नहीं, अभी मैं यही सोच रहा था कि उसके सामने जाऊं या नहीं।

तेज-कै दिन से आप यह सोच रहे हैं?

कुमार-अभी मुझको इस घाटी में आये दो घड़ी नहीं हुई।

तेज-(ताज्जुब से) क्या आप अभी इस खोह में आये हैं? इतने दिनों तक कहां रहे? आपको लश्कर से आये तो कई दिन हुए! इस वक्त आपको यकायक यहां देख के मैंने सोचा कि कुमारी के इश्क में चुपचाप लश्कर से निकलकर इस जगह आ बैठे हैं।

कुमार-नहीं, मैं अपनी खुशी से लश्कर से नहीं आया, न मालूम कौन उठा ले गया था।

तेज-(ताज्जुब से) हैं, क्या अभी तक आपको यह भी मालूम नहीं हुआ कि लश्कर से आपको कौन उठा ले गया था।

कुमार-नहीं, बिल्कुल नहीं।

इतना कहकर कुमार ने अपना बिल्कुल हाल पूरा-पूरा कह सुनाया। जब तक कुमार अपनी कैफियत कहते रहे तीनों ऐयार अचंभे में भरे सुनते रहे। जब कुमार ने अपनी कथा समाप्त की तब तेजसिंह ने ज्योतिषीजी से पूछा, ''यह क्या मामला है, आप कुछ समझे?''

ज्यो-कुछ नहीं, बिल्कुल ख्याल में ही नहीं आता कि कुमार कहां गये थे और उन्हें ऐसे तमाशे दिखलाने वाला कौन था।

कुमार-तिलिस्म तोड़ने के वक्त जो ताज्जुब की बातें देखी थीं उनसे बढ़कर इन दो-तीन दिनों में दिखाई पड़ीं।

देवी-किसी छोटे दिल के डरपोक आदमी को ऐसा मौका पड़े तो घबरा के जान ही दे दे।

ज्यो-इसमें क्या संदेह है!

कुमार-और एक ताज्जुब की बात सुनो, शिवदत्त भी यहां दिखाई पड़ रहा है।

तेज-सो कहां?

कुमार-(हाथ का इशारा करके) वह, उस पेड़ के नीचे नजर दौड़ाओ।

तेज-हां ठीक तो है, मगर यह क्या मामला है! चलो उससे बात करें, शायद कुछ पता लगे।

कुमार-उसके सामने ही कुमारी चंद्रकान्ता पहाड़ी के ऊपर है, पहले उससे कुछ हाल पूछना चाहिए। मेरा जी तो अजब पेच में पड़ा हुआ है, कोई बात बैठती ही नहीं कि वह क्या पूछेगी और मैं क्या जवाब दूंगा।

तेज-आशिकों की यही दशा होती है, कोई बात नहीं, चलिए मैं आपकी तरफ से बात करूंगा।

चारों आदमी शिवदत्त की तरफ चले। पहले उस पहाड़ी के नीचे गये जिसके ऊपर छोटे दलान में कुमारी चंद्रकान्ता और चपला बैठी थीं। कुमारी की निगाह दूसरी तरफ थी, चपला ने इन लोगों को देखा, वह उठ खड़ी हुई और आवाज देकर कुमार के राजी-खुशी का हाल पूछने लगी। जवाब खुद कुमार ने देकर कुमारी चंद्रकान्ता के मिजाज का हाल पूछा। चपला ने कहा, ''इनकी हालत तो देखने ही से मालूम होती होगी, कहने की जरूरत ही नहीं।''

कुमारी अभी तक सिर नीचे किए बैठी थी। चपला के बातचीत की आवाज सुन चौंककर उसने सिर उठाया। कुमार को देखते ही हाथ जोड़कर खड़ी हो गई और आंखों से आंसू बहाने लगी।

कुंअर वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ''कुमारी तुम थोड़े दिन और सब्र करो। तिलिस्म टूट गया, थोड़ा बाकी है। कई सबबों से मुझे यहां आना पड़ा, अब मैं फिर उसी तिलिस्म की तरफ जाऊंगा!''

चपला-कुमारी कहती हैं कि मेरा दिल यह कह रहा है कि इन दिनों या तो मेरी मुहब्बत आपके दिल से कम हो गई है या फिर मेरी जगह किसी और ने दखल कर ली। मुद्दत से इस जगह तकलीफ उठा रही हूं जिसका ख्याल मुझे कभी भी न था मगर कई दिनों से यह नया ख्याल जी में पैदा होकर मुझे बेहद सता रहा है।

चपला इतना कह के चुप हो गई। तेजसिंह ने मुस्कुराते हुए कुमार की तरफ देखा और बोले, ''क्यों, कहो तो भण्डा फोड़ दूं!''

कुमार इसके जवाब में कुछ कह न सके, आंखों से आंसू की बूंदें गिरने लगीं और हाथ जोड़ के उनकी तरफ देखा। हंसकर तेजसिंह ने कुमार के जुड़े हाथ छुड़ा दिये और उनकी तरफ से खुद चपला को जवाब दिया-

''कुमारी को समझा दो कि कुमार की तरफ से किसी तरह का अंदेशा न करें, तुम्हारे इतना ही कहने से कुमार की हालत खराब हो गई।''

चपला-आप लोग आज यहां किसलिए आये?

तेज-महाराज शिवदत्त को देखने आये हैं, वहां खबर लगी थी कि ये छूटकर चुनार पहुंच गये।

चपला-किसी ऐयार ने सूरत बदली होगी, इन दोनों को तो मैं बराबर यहीं देखती रहती हूं।

तेज-जरा मैं उनसे भी बातचीत कर लूं।

तेजसिंह और चपला की बातचीत महाराज शिवदत्त कान लगाकर सुन रहे थे। अब वे कुमार के पास आये, कुछ कहा चाहते थे कि ऊपर चंद्रकान्ता और चपला की तरफ देखकर चुप हो रहे।

तेज-शिवदत्त, हां क्या कहने को थे, कहो रुक क्यों गये?

शिव-अब न कहूंगा।

तेज-क्यों?

शिव-शायद न कहने से जान बच जाय।

तेज-अगर कहोगे तो तुम्हारी जान कौन मारेगा?

शिव-जब इतना ही बता दूं तो बाकी क्या रहा?

तेज-न बताओगे तो मैं तुम्हें कब छोड़ूंगा।

शिव-जो चाहो करो मगर मैं कुछ न बताऊंगा।

इतना सुनते ही तेजसिंह ने कमर से खंजर निकाल लिया, साथ ही चपला ने ऊपर से आवाज दी, ''नहीं, ऐसा मत करना!'' तेजसिंह ने हाथ रोककर चपला की तरफ देखा।

चपला-शिवदत्त के ऊपर खंजर खींचने का क्या सबब है?

तेज-यह कुछ कहने आये थे मगर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहे, अब पूछता हूं तो कुछ बताते नहीं, बस कहते हैं कि कुछ बोलूंगा तो जान चली जायगी। मेरी समझ में नहीं आता कि यह क्या मामला है। एक तो इनके बारे में हम लोग आप ही हैरान थे, दूसरे कुछ कहने के लिए हम लोगों के पास आना और फिर तुम्हारी तरफ देखकर चुप हो रहना और पूछने से जवाब देना कि कहेंगे तो जान चली जायगी इन सब बातों से तबीयत और परेशान होती है?

चपला-आजकल ये पागल हो गये हैं, मैं देखा करती हूं कि कभी-कभी चिल्लाया और इधर-उधर दौड़ा करते हैं। बिल्कुल हालत पागलों की-सी पाई जाती है, इनकी बातों का कुछ ख्याल मत करो?

शिव-उल्टे मुझी को पागल बनाती है!

तेज-(शिवद्त्त से) क्या कहा, फिर तो कहो?

शिव-कुछ नहीं, तुम चपला से बातें करो, मैं तो आजकल पागल हो गया हूं।

देवी-वाह, क्या पागल बने हैं।

शिव-चपला का कहना बहुत सही है, मेरे पागल होने में कोई शक नहीं।

कुमार-ज्योतिषीजी, जरा इन नई गढ़न्त के पागल को देखना!

ज्यो-(हंसकर) जब आकाशवाणी हो ही चुकी कि ये पागल हैं तो अब क्या बाकी रहा?

कुमार-दिल में कई तरह के खुटके पैदा होते हैं।

तेज-इसमें जरूर कोई भारी भेद है। न मालूम वह कब खुलेगा, लाचारी यही है कि हम कुछ कर नहीं सकते!

देवी-हमारी ओस्तादिन इस भेद को जानती हैं मगर उनको अभी इस भेद को खोलना मंजूर नहीं।

कुमार-यह बिल्कुल ठीक है।

देवीसिंह की बात पर तेजसिंह हंसकर चुप हो रहे। महाराज शिवदत्त भी वहां से उठकर अपने ठिकाने जा बैठे। तेजसिंह ने कुमार से कहा, ''अब हम लोगों को लश्कर में चलना चाहिए। सुनते हैं कि हम लोगों के पीछे महाराज शिवदत्त ने लश्कर पर धावा मारा जिससे बहुत कुछ खराबी हुई। मालूम नहीं पड़ता वह कौन शिवदत्त था, मगर फिर सुनने में आया कि शिवदत्त भी गायब हो गया। अब यहां आकर फिर शिवदत्त को देख रहे हैं!''

कुमार-इसमें तो कोई शक नहीं कि ये सब बातें बहुत ही ताज्जुब की हैं, खैर तुमने जो कुछ जिसकी जुबानी सुना है साफ-साफ कहो।

तेजसिंह ने अपने तीनों आदमियों का कुमार की खोज में लश्कर से बाहर निकलना, नौगढ़ राज्य में सुरेन्द्रसिंह के दरबार में भेष बदले हुए पहुंचकर दो जासूसों की जुबानी लश्कर का हाल सुनना, महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह का चुनार पर चढ़ाई करना इत्यादि सब हाल कहा जिसे सुन कुमार परेशान हो गये, खोह के बाहर चलने के लिए तैयार हुए। कुमारी चंद्रकान्ता से फिर कुछ बातें कर और धीरज दे आंखों से आंसू बहाते कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस खोह के बाहर हुए।

शाम हो चुकी थी जब ये चारों खोह के बाहर आये। तेजसिंह ने देवीसिंह से कहा कि हम लोग यहां बैठते हैं तुम नौगढ़ जाकर सरकारी अस्तबल में से एक उम्दा घोड़ा खोल लाओ जिस पर कुमार को सवार कराके तिलिस्म की तरफ ले चलें, मगर देखो किसी को मालूम न हो कि देवीसिंह घोड़ा ले गए हैं।

देवी-जब किसी को मालूम हो ही गया तो मेरे जाने से फायदा क्या?

तेज-कितनी देर में आओगे?

देवी-यह कोई भारी बात तो है नहीं जो देर लगेगी, पहर भर के अंदर आ जाऊंगा। 1

यह कहकर देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए, उनके जाने के बाद ये तीनों आदमी घने पेड़ों के नीचे बैठ बातें करने लगे।

कुमार-क्यों ज्योतिषीजी, शिवदत्त का भेद कुछ न खुलेगा?

ज्यो-इसमें तो कोई शक नहीं कि वह असल में शिवदत्त ही था जिसने कैद से छूटकर अपने दीवान के हाथ आपके पास तोहफा भेजकर सुलह के लिए कहलाया था, और विचार से मालूम होता है कि वह भी असली शिवदत्त ही है जिसे आप इस वक्त खोह में छोड़ आए हैं, मगर बीच का हाल कुछ मालूम नहीं होता कि क्या हुआ।

कुमार-पिजाती ने चुनार पर चढ़ाई की है, देखें इसका नतीजा क्या होता है। हम लोग भी वहां जल्दी पहुंचते तो ठीक था।

ज्यो-कोई हर्ज नहीं, वहां बोलने वाला कौन है? आपने सुना ही है कि शिवदत्त

 1. उस खोह से नौगढ़ सिर्फ डेढ़ या दो कोस होगा।

फिर गायब हो गया बल्कि उस पुरजे से जो उसके पलंग पर मिला मालूम होता है फिर गिरफ्तार हो गया।

तेज-हां चुनार दखल होने में क्या शक है, क्योंकि सामना करने वाला कोई नहीं, मगर उनके ऐयारों का खौफ जरा बना रहता है।

कुमार-बद्रीनाथ वगैरह भी गिरफ्तार हो जाते तो बेहतर था।

तेज-अबकी चलकर जरूर गिरफ्तार करूंगा।

इसी तरह की बात करते इनको पहर भर से ज्यादे गुजर गया। देवीसिंह घोड़ा लेकर आ पहुंचे जिस पर कुमार सवार हो तिलिस्म की तरफ रवाना हुए, साथ-साथ तीनों ऐयार पैदल बातें करते जाने लगे।

चौदहवां बयान

कुमार के गायब हो जाने के बाद तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी उनकी खोज में निकले हैं इस खबर को सुनकर महाराज शिवदत्त के जी में फिर बेईमानी पैदा हुई। एकांत में अपने ऐयारों और दीवान को बुलाकर उसने कहा, ''इस वक्त कुमार लश्कर से गायब हैं और उनके ऐयार भी उन्हें खोजने गये हैं, मौका अच्छा है, मेरे जी में आता है कि चढ़ाई करके कुमार के लश्कर को खतम कर दूं और उस खजाने को भी लूट लूं जो तिलिस्म में से उनको मिला है।''

इस बात को सुन दीवान तथा बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल ने बहुत कुछ समझाया कि आपको ऐसा न करना चाहिए क्योंकि आप कुमार से सुलह कर चुके हैं। अगर इस लश्कर को आप जीत ही लेंगे तो क्या हो जायेगा, फिर दुश्मनी पैदा होने में ठीक नहीं है इत्यादि बहुत-सी बातें कहके इन लोगों ने समझाया मगर शिवदत्त ने एक न मानी। इन्हीं ऐयारों में नाज़िम और अहमद भी थे जो शिवदत्त की राय में शरीक थे और उसे हमला करने के लिए उकसाते थे।

आखिर महाराज शिवदत्त ने कुंअर वीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर हमला किया और खुद मैदान में आ फतहसिंह सिपहलासार को मुकाबले के लिए ललकारा। वह भी जवांमर्द था, तुरंत मैदान में निकल आया और पहर भर तक खूब लड़ा, लेकिन आखिर शिवदत्त के हाथ से जख्मी होकर गिरफ्तार हो गया।

सेनापति के गिरफ्तार होते ही फौज बेदिल होकर भाग गई। सिर्फ खेमा वगैरह महाराज शिवदत्त के हाथ लगा। तिलिस्मी खजाना उसके हाथ कुछ भी नहीं लगा क्योंकि तेजसिंह ने बंदोबस्त करके उसे पहले ही नौगढ़ भेजवा दिया था, हां तिलिस्मी किताब उसके कब्जे में जरूर पड़ गई जिसे पाकर वह बहुत खुश हुआ और बोला, ''अब इस तिलिस्म को मैं खुद तोड़ कुमारी चंद्रकान्ता को उस खोह से निकालकर ब्याहूंगा।''

फतहसिंह को कैद कर शिवदत्त ने जलसा किया। नाच की महफिल से उठकर खास दीवानखाने में आकर पलंग पर सो रहा। उसी रोज वह पलंग पर से गायब हुआ, मालूम नहीं कौन कहां ले गया, सिर्फ वह पुर्जा पलंग पर मिला जिसका हाल ऊपर लिख चुके हैं। उसके गायब होने पर फतहसिंह सिपहसालार भी कैद से छूट गया, उसकी आंख सुनसान जंगल में खुली। यह कुछ मालूम न हुआ कि उसको कैद से किसने छुड़ाया बल्कि उसके उन जख्मों पर जो शिवदत्त के हाथ से लगे थे पट्टी भी बांधी गई थी जिससे बहुत आराम और फायदा मालूम होता था।

फतहसिंह फिर तिलिस्म के पास आए जहां उनके लश्कर के कई आदमी मिले बल्कि धीरे - धीरे वह सब फौज इकट्ठी हो गई जो भाग गई थी। इसके बाद ही यह खबर लगी कि महाराज शिवदत्त को भी कोई गिरफ्तार कर ले गया।

अकेले फतहसिंह ने सिर्फ थोड़े से बहादुरों पर भरोसा कर चुनार पर चढ़ाई कर दी। दो कोस गया होगा कि लश्कर लिए हुए महाराज जयसिंह के पहुंचने की खबर मिली। चुनार का जाना छोड़ जयसिंह के इस्तकबाल (अगुआनी) को गया और उनका भी इरादा अपने ही-सा सुन उनके साथ चुनार की तरफ बढ़ा।

जयसिंह की फौज ने पहुंचकर चुनार का किला घेर लिया। शिवद्त्त की फौज ने किले के अंदर घुसकर दरवाजा बंद कर लिया। फसीलों 1 पर तोपें चढ़ा दीं, और कुछ रसद का सामान कर फसीलों और बुर्जों पर लड़ाई करने लगे।

पंद्रहवां बयान

चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक्त पंडित बद्रीनाथ, रामनारायण, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।

नाज़िम-क्या कहें हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।

अहमद-अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा।

बद्री-उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो इसमें कोई शक नहीं।

नाज़िम-क्या हम लोग बेईमान हैं?

बद्री-जरूर, इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होवोगे। आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली, और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि कैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियां मार-मारकर तुम दोनों की जान ले लूं।

अहमद-जुबान सम्हालकर बातें करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूंगा!

अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे। उसी जगह

 1. चहारदीवार।

से पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर इस जोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरंत जमीन सूंघकर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता। बड़ा-सा पत्थर छागे 1 में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी जमीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुंचकर मारे लातों के भुरता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन लोगों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे।

पन्ना-अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।

बद्री-महाराज को जरा भी रंज न होगा।

पन्ना-किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज मैदान में निकलकर लड़ नहीं सकती।

चुन्नी-आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे? हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अंदर है, इसके बाद क्या करेंगे।

राम-यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।

बद्री-एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उड़ाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की कैद में आ जायं तो मैदान में निकलकर उनकी फौज को भगाना मुश्किल न होगा।

पन्ना-जरूर ऐसा करना चाहिए, जिसका नमक खाया उसके साथ जान देना हम लोगों का धर्म है।

राम-हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बांधी है। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?

चुन्नी-चाहे जो हो मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना जरूरी है।

बद्री-नाजिम और अहमद ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे जरूर दोनों राजों में सुलह कराऊंगा, तब वीरेन्द्रसिंह की चोबदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार हैं?

पन्ना-अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयारी करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर कैर करें।

बद्री-हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।

पन्ना-वह क्या?

बद्री-हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फांसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊं और तुम लोग रसोईघर के खिदमतगारों को फांसकर उनकी शक्लबना

 1. छागा-एक किस्म का छीका (ढेलवांस) होता है। छीके में चारों तरफ डोरी रहती है मगर छागे में दो ही तरफ। एक तरफ की डोरी कलाई में पहिर लेते हैं और दूसरी डोरी चुटकी में थामकर बीच में से घुमाकर निशाना मारते हैं।

हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज को और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊंगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया।

पन्ना-अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण होगे, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायगा, इसका भी ख्याल जरूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीजों में तेज बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।

बद्री-नहीं-नहीं, क्या मैं ऐसा बेवकूफ हूं, क्या मुझे नहीं मालूम कि राजे लोग पहले दूसरे को खिलाकर देख लेते हैं! ऐसी नरम दवा डालूंगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिल्कुल न मालूम पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीजें खाई हैं।

राम-बस, यह राय पक्की हो गई, अब यहां से उठो।

सोलहवां बयान

राजा सुरेन्द्रसिंह भी नौगढ़ से रवाना हो दौड़ादौड़ बिना मुकाम किये दो रोज में चुनार के पास पहुंचे। शाम के वक्त महाराज जयसिंह को खबर लगी। फतहसिंह सेनापति को जो उनके लश्कर के साथ था इस्तकबाल के लिए रवाना किया।

फतहसिंह की जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह ने सब हाल सुना। सुबह होते-होते इनका लश्कर भी चुनार पहुंचा और जयसिंह के लश्कर के साथ मिलकर पड़ाव डाला गया। राजा सुरेन्द्रसिंह ने फतहसिंह को महाराज जयसिंह के पास भेजा कि आकर मुलाकात के लिए बातचीत करें।

फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे से निकल कुछ ही दूर गये थे कि महाराज जयसिंह के दीवान हरदयालसिंह सरदारों को साथ लिये परेशान और बदहवास आते दिखाई पड़े जिन्हें देख यह अटक गये, कलेजा धाकधाक करने लगा। जब वे लोग पास आये तो पूछा, ''क्या हाल है जो आप लोग इस तरह घबराये हुए आ रहे हैं?''

एक सरदार-कुछ न पूछो बड़ी आफत आ पड़ी!

फतह-(घबराकर) सो क्या?

दूसरा सरदार-राजा साहब के पास चलो, वहीं सब-कुछ कहेंगे।

उन सबों को लिये हुए फतहसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के खेमे में आये, कायदे के माफिक सलाम किया, बैठने के लिए हुक्म पाकर बैठ गये।

राजा सुरेन्द्रसिंह को भी इन लोगों के बदहवास आने से खुटका हुआ। हाल पूछने पर हरदयालसिंह ने कहा, ''आज बहुत सबेरे किले के अंदर से तोप की आवाज आई जिसे सुनकर खबर करने के लिए मैं महाराज के खेमे में आया। दरवाजे पर पहरे वालों को बेहोश पड़े देखकर ताज्जुब मालूम हुआ मगर मैं बराबर खेमे के अंदर चला गया। अंदर जाकर देखा तो महाराज का पलंग खाली पाया। देखते ही जी सन्न हो गया, पहरे वालों को देखकर कविराजजी ने कहा इन लोगों को बेहोशी की दवा दी गई है। तुरंत ही कई जासूस महाराज का पता लगाने के लिए इधर-उधर भेजे गए मगर अभी तक कुछ भी खबर नहीं मिली।''

यह हाल सुनकर सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखा जो उनके बाईं तरफ बैठे हुए थे।

जीतसिंह ने कहा, ''अगर खाली महाराज गायब हुए होते तो मैं कहता कि कोई ऐयार किसी दूसरी तरकीब से ले गया, मगर जब कई आदमी अभी तक बेहोश पड़े हैं तो विश्वास होता है कि महाराज के खाने-पीने की चीजों में बेहोशी की दवा दी गई। अगर उनका रसोइया आवे तो पूरा पता लग सकता है।'' सुनते ही राजा सुरेन्द्रसिंह ने हुक्म दिया कि महाराज के रसोइए हाजिर किए जायं।

कई चोबदार दौड़ गए। बहुत दूर जाने की जरूरत न थी, दोनों लश्करों का पड़ाव साथ ही साथ पड़ा था। चोबदार खबर लेकर बहुत जल्द लौट आये कि रसोइया कोई नहीं है। उसी वक्त कई आदमियों ने आकर यह भी खबर दी कि महाराज के रसोइए और खिदमतगार लश्कर के बाहर पाये गये जिनको डोली पर लादकर लोग यहां लिए आते हैं।

दीवान तेजसिंह ने कहा, ''सब डोलियां बाहर रखी जायं, सिर्फ एक रसोइए की डोली यहां लाई जाय।''

बेहोश रसोइया खेमे के अंदर लाया गया जिसे जीतसिंह लखलख सुंघाकर होश में लाये और उससे बेहोश होने का सबब पूछा। जवाब में उसने कहा कि ''पहर रात गए हम लोगों के पास एक हलवाई खोमचा लिए हुए आया जो बोलने में बहुत ही तेज और अपने सौदे की बेहद तारीफ करता था। हम लोगों ने उससे कुछ सौदा खरीदकर खाया, उसी समय सिर घूमने लगा, दाम देने की भी सुधा न रही, इसके बाद क्या हुआ कुछ मालूम नहीं।''

यह सुन दीवान जीतसिंह ने कहा, ''बस-बस, सब हाल मालूम हो गया, अब तुम अपने डेरे में जाओ।'' इसके बाद थोड़ा & सा लखलखा देकर उन सरदारों को भी बिदा किया और यह कह दिया कि इसे सुंघाकर आप उन लोगों को होश में लाइए जो बेहोश हैं और दीवान हरदयालसिंह को कहा कि अभी आप यहीं बैठिए।

सब आदमी बिदा कर दिए गए, राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और दीवान हरदयालसिंह रह गए।

राजा सुरेन्द्र - (दीवान जीतसिंह की तरफ देखकर) महाराज को छुड़ाने की कोई फिक्र होनी चाहिए।

जीत - क्या फिक्र की जाय, कोई ऐयार भी यहां नहीं जिससे कुछ काम लिया जाय, तेजसिंह और देवीसिंह कुमार की खोज में गए हुए हैं, अभी तक उनका भी कुछ पता नहीं।

राजा - तुम ही कोई तरकीब करो।

जीत - भला मैं क्या कर सकता हूं! मुद्दत हुई ऐयारी छोड़ दी। जिस रोज तेजसिंह को इस फन में होशियार करके सरकार के नजर किया उसी दिन सरकार ने ऐयारी करने से ताबेदार को छुट्टी दे दी, अब फिर यह काम लिया जाता है। ताबेदार को यकीन था कि अब जिंदगी भर ऐयारी की नौबत न आयेगी, इसी ख्याल से अपने पास ऐयारी का बटुआ तक भी नहीं रखता।

राजा - तुम्हारा कहना ठीक है मगर इस वक्त दब जाना या ऐयारी से इनकार करना मुनासिब नहीं, और मुझे यकीन है कि चाहे तुम ऐयारी का बटुआ न भी रखते हो मगर उसका कुछ न कुछ सामान जरूर अपने साथ लाए होगे।

जीत - (मुस्कराकर) जब सरकार के साथ हैं और इस फन को जानते हैं तो सामान क्यों न रखेंगे, तिस पर सफर में!

राजा - तब फिर क्या सोचते हो, इस वक्त अपनी पुरानी कारीगरी याद करो और महाराज जयसिंह को छुड़ाओ।

जीत - जो हुक्म! (हरदयालसिंह की तरफ देखकर) आप एक काम कीजिए, इन बातों को जो इस वक्त हुई हैं छिपाए रहिए और फतहसिंह को लेकर शाम होने के बाद लड़ाई छेड़ दीजिए। चाहे जो हो मगर आज भर लड़ाई बंद न होने पावे यह काम आपके जिम्मे रहा।

हरदयाल - बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।

जीत - आप जाकर लड़ाई का इंतजाम कीजिए, मैं भी महाराज से बिदा हो अपने डेरे जाता हूं क्योंकि समय कम और काम बहुत है।

दीवान हरदयालसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह से बिदा हो अपने डेरे की तरफ रवाना हुए। दीवान जीतसिंह ने फतहसिंह को बुलाकर लड़ाई के बारे में बहुत कुछ समझा & बुझा के बिदा किया और आप भी हुक्म लेकर अपने खेमे में गए। पहले पूजा, भोजन इत्यादि से छुट्टी पाई, तब ऐयारी का सामान दुरुस्त करने लगे।

दीवान जीतसिंह का एक बहुत पुराना बुङ्ढा खिदमतगार था जिसको ये बहुत मानते थे। इनका ऐयारी का सामान उसी के सुपुर्द रहा करता था। नौगढ़ से रवाना होते दफे अपना ऐयारी का असबाब दुरुस्त करके ले चलने का इंतजाम इसी बुङ्ढे के सुपुर्द किया। इनको ऐयारी छोड़े मुद्दत हो चुकी थी मगर जब उन्होंने अपने राजा को लड़ाई पर जाते देखा और यह भी मालूम हुआ कि हमारे ऐयार लोग कुमार की खोज में गये है, शायद कोई जरूरत पड़ जाय, तब बहुत & सी बातों को सोच इन्होंने अपना सब सामान दुरुस्त करके साथ ले लेना ही मुनासिब समझा था। उसी बुङ्ढे खिदमतगार से ऐयारी का संदूक मंगवाया ओैर सामान दुरुस्त करके बटुए में भरने लगे। इन्होंने बेहोशी की दवाओं का तेल उतारा था, उसे भी एक शीशी में बंद कर बटुए में रख लिया। पहर दिन बाकी रहे तक सामान दुरुस्त कर एक जमींदार की सूरत बना अपने खेमे के बाहर निकल गये।

जीतसिंह लश्कर से निकलकर किले के दक्खिन की एक पहाड़ी की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर जाने के बाद सुनसान मैदान पाकर एक पत्थर की चट्टान पर बैठ गये। बटुए में से कलम & दवात और कागज निकाला और कुछ लिखने लगे जिसका मतलब यह था -

''तुम लोगों की चालाकी कुछ काम न आई और आखिर मैं किले के अंदर घुस ही आया। देखो क्या ही आफत मचाता हूं। तुम चारों ऐयार हो और मैं ऐयारी नहीं जानता तिस पर भी तुम लोग मुझे गिरफ्तार नहीं कर सकते, लानत है तुम्हारी ऐयारी पर।''

इस तरह के बहुत से पुरजे लिखकर और थोड़ी & सी गोंद तैयार कर बटुए में रख ली और किले की तरफ रवाना हुए। पहुंचते - पहुंचते शाम हो गई, अस्तु किले के इधर - उधर घूमने लगे। जब खूब अंधेरा हो गया, मौका पाकर एक दीवार पर जो नीची और टूटी हुई थी कमंद लगाकर चढ़ गये। अंदर सन्नाटा पाकर उतरे और घूमने लगे।

किले के बाहर दीवान हरदयालसिंह और फतहसिंह ने दिल खोलकर लड़ाई मचा रखी थी, दनादन तोपों की आवाजें आ रही थीं। किले की फौज बुर्जियों या मीनारों पर चढ़कर लड़ रही थी और बहुत से आदमी भी दरवाजे की तरफ खड़े घबड़ाये हुए लड़ाई का नतीजा देख रहे थे, इस सबब से जीतसिंह को बहुत कुछ मौका मिला।

उन पुरजों को जिन्हें पहले से लिखकर बटुए में रख छोड़ा था, इधर - उधर दीवारों और दरवाजों पर चिपकाना शुरू किया, जब किसी को आते देखते हटकर छिप रहते और सन्नाटा होने पर फिर अपना काम करते, यहां तक कि सब कागजों को चिपका दिया।

किले के फाटक पर लड़ाई हो रही है, जितने अफसर और ऐयार हैं सब उसी तरफ जुटे हुए हैं, किसी को यह खबर नहीं कि ऐयारों के सिरताज जीतसिंह किले के अंदर आ घुसे और अपनी ऐयारी की फिक्र कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि इतने लंबे & चौड़े किले में महाराज जयसिंह कहां कैद हैं इस बात का पता लगावें और उन्हें छुड़ावें, और साथ ही शिवदत्त के भी ऐयारों को गिरफ्तार करके लेते चलें, एक ऐयार भी बचने न पावे जो फंसे हुए ऐयारों को छुड़ाने की फिक्र करे या छुड़ावे।

त्रहवां बयान

फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सबेरे तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। तरद्दुद में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर - उधर घबराये घूम रहे थे कि इतने में एक चोबदार ने आकर गुल & शोर मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गए। चोबदार बिल्कुल जख्मी हो रहा था ओैर उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्री - (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

चोबदार - आप लोग तो इधर के ख्याल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुधा ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुंअर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आए हैं और किले में चारों तरफ घूम - घूमकर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबिला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास जमीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहां तक खबर देने आया हूं। आती दफे रास्ते में उसे दीवारों पर कागज चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

पन्ना - यह बुरी खबर सुनने में आई!

बद्री - वे लोग कै आदमी हैं, तुमने देखा है?

चोब - कई आदमी मालूम होते हैं मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था।

बद्री - तुम उसे पहचान सकते हो?

चोब - हां, जरूर पहचान लूंगा क्योंकि मैंने रोशनी में उसकी सूरत बखूबी देखीहै।

बद्री - मैं उन लोगों को ढूंढने चलता हूं, तुम साथ चल सकते हो?

चोब - क्यों न चलूंगा, मुझे उसने अधामरा कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ना है!

बद्री - अच्छा चलो।

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अंदर की तरफ चले, साथ - साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुंचकर देखा कि एक आदमी जमीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नजर पड़ी, मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंककर कहा, ''देखो - देखो एक और आदमी उसने मारा!'' यह कहकर मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उसी कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना ही मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा, समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, ''आप इसे छोड़िये, चलकर पहले उस बदमाश को ढूंढिए, मैं यही मशाल लिए आपके साथ चलता हूं। कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ा ले जायं।''

बद्रीनाथ ने कहा, ''पहले उसी जगह चलना चाहिए जहां महाराज जयसिंह कैद हैं।'' सबों की राय यही हुई और सब उसी जगह पहुंचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हथकड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उस कोठरी और दरवाजे को देखकर कहा, ''नहीं, वे लोग यहां तक नहीं पहुंचे, चलिए दूसरी तरफ ढूंढें।'' चारों तरफ ढूंढने लगे। घूमते - घूमते दीवारों र दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखे जिसे पढ़ते ही इन ऐयारों के होश जाते रहे। खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, ''देखो - देखो, अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, जरूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था!'' यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा मगर दरवाजे पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुंच गये।

बद्री - (चोबदार से) चलो, अंदर चलो।

चोब - पहले तुम लोग हाथों में खंजर या तलवार ले लो, क्योंकि वह जरूर वार करेगा।

बद्री - हम लोग होशियार हैं, तुम अंदर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशालहै।

चोब - नहीं बाबा, मैं अंदर नहीं जाऊंगा, एक दफे किसी तरह जान बची, अब कौन & सी कम्बख्ती सवार है कि जानबूझकर भाड़ में जाऊं।

बद्री - वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराजों के यहां नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अंदर!

चोब - लो मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी यही बहुत है!

इतना कह चोबदार मशाल और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अंदर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बंद करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी & सी बारूद की चुपड़ी हुई पलीती निकाली हुई थी उसमें आग लगा दी। वह बत्ती बलकर सुरसुराती हुई घुस गई।

पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे। ये ऐयारों के सिरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुमाते & फिराते वह जगह देख ली जहां महाराज जयसिंह कैद थे। फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बंद कर दिया जिसे पहले ही से अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अंदर पहले ही से बेहोशी की बारूद 1 पाव भर के अंदाज कोनेमें रख दी थी और लंबी पलीती बारूद के साथ लगा कर चौखट के बाहर निकाल दीथी।

पलीती में आग लगा और दरवाजे को उसी तरह बंद छोड़ उस जगह गये जहां महाराज जयसिंह कैद थे। वहां बिल्कुल सन्नाटा था, दरवाजा खोल बेड़ी और हथकड़ी काटकर उन्हें बाहर निकाला और अपना नाम बताकर कहा, ''जल्द यहां से चलिए।''

जिधर से जीतसिंह कमंद लगाकर किले में आये थे उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, ''आप नीचे ठहरिये, मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है, एक -  - एक करके कमंद में बांधाकर उन लोगों को लटकाता जाता हूं आप खोलते जाइये। अंत में मैं भी उतरकर आपके साथ लश्कर में चलूंगा।'' महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

 1. बेहोशी की बारूद से आग लगने या मकान उड़ जाने का खौफ नहीं होता, उसमें धाुआं बहुत होता है और जिसके दिमाग में धाुआं चढ़ जाता है वह फौरन बेहोश हो जाता है।

जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फंसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रूई डाल कोठरी के अंदर घुसे, तमाम धूएं से भरा हुआ पाया, त्ती जला बद्रीनाथ वगैरह बेहोश ऐयारों को घसीटकर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक - एक करके सबों को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारो ऐयारो को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुंचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाए, हथकड़ी - बेड़ी डालकर खेमे में कैर कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजों ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे - धीरे सफेदी निकलने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

अठारहवां बयान

तेजसिंह वगैरह ऐयारों के साथ कुमार खोह से निकलकर तिलिस्म की तरफ रवाना हुए। एक रात रास्ते में बिताकर दूसरे दिन सबेरे जब रवाना हुए तो एक नकाबपोश सवार दूर से दिखाई पड़ा जो कुमार की तरफ ही आ रहा था। जब इनके करीब पहुंचा, घोड़े से उतर जमीन पर कुछ रख दूर जा खड़ा हुआ। कुमार ने वहां जाकर देखा तो तिलिस्मी किताब नजर पड़ी और एक खत पाई जिसे देख वे बहुत खुश होकर तेजसिंह से बोले -

''तेजसिंह, क्या करें, यह वनकन्या मेरे ऊपर बराबर अपने अहसान के बोझ डाल रही है। इसमें कोई शक नहीं कि यह उसी का आदमी है तो तिलिस्मी किताब मेरे रास्ते में रख दूर जा खड़ा हुआ है। हाय इसके इश्क ने भी मुझे निकम्मा कर दिया है! देखें इस खत में क्या लिखा है।''

यह कह कुमार ने खत पढ़ी :

''किसी तरह यह तिलिस्मी किताब मेरे हाथ लग गई जो तुम्हें देती हूं। अब जल्दी तिलिस्म तोड़कर कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाओ। वह बेचारी बड़ी तकलीफ में पड़ी होगी। चुनार में लड़ाई हो रही है, तुम भी वहीं जाओ और अपनी जवांमर्दी दिखाकर फतह अपने नाम लिखाओ।

                                  - तुम्हारी दासी...

                                 वियोगिनी।''

कुमार - तेजसिंह तुम भी पढ़ लो।

तेजसिंह - (खत पढ़कर) न मालूम यह वनकन्या मनुष्य है या अप्सरा, कैसे - कैसे काम इसके हाथ से होते हैं!

कुमार - (ऊंची सांस लेकर) हाय, एक बला हो तो सिर से टले!

देवी - मेरी राय है कि आप लोग यहीं ठहरें, मैं चुनार जाकर पहले सब हाल दरियाफ्त कर आता हूं।

कुमार - ठीक है, अब चुनार सिर्फ पांच कोस होगा, तुम वहां की खबर ले आओ तब हम चलें क्योंकि कोई बहादुरी का काम करके हम लोगों का जाहिर होना ज्यादा मुनासिब होगा।

देवीसिंह चुनार की तरफ रवाना हुए। कुमार को रास्ते में एक दिन और अटकना पड़ा, दूसरे दिन देवीसिंह लौटकर कुमार के पास आए और चुनार की लड़ाई का हाल, महाराज जयसिंह के गिरफ्तार होने की खबर, और जीतसिंह की ऐयारी की तारीफ कर बोले - ''लड़ाई अभी हो रही है, हमारी फौज कई दफे चढ़कर किले के दरवाजे तक पहुंची मगर वहां अटककर दरवाजा नहीं तोड़ सकी, किले की तोपों की मार ने हमारा बहुत नुकसान किया।''

इन खबरों को सुनकर कुमार ने तेजसिंह से कहा, ''अगर हम लोग किसी तरह किले के अंदर पहुंचकर फाटक खोल सकते तो बड़ी बहादुरी का काम होता।''

तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि यह बड़ी दिलावरी का काम है, या तो किले का फाटक ही खोल देंगे, या फिर जान से हाथ धोवेंगे।

कुमार - हम लोगो के वास्ते लड़ाई से बढ़कर मरने के लिए और कौन - सा मौका है? या तो चुनार फतह करेंगे या बैकुण्ठ की ऊंची गद्दी दखल करेंगे, दोनों हाथ लड्डू हैं।

तेज - शाबाश, इससे बढ़कर और क्या बहादुरी होगी, तो चलिए हम लोग भेष बदलकर किले में घुस जायं। मगर यह काम दिन में नहीं हो सकता।

कुमार - क्या हर्ज है रात ही को सही। रात - भर किले के अंदर ही छिपे रहेंगे, सुबह जब लड़ाई खूब रंग पर आवेगी उसी वक्त फाटक पर टूट पड़ेंगे। सब ऊपर फसीलों पर चढ़े होंगे, फाटक पर सौ - पचास आदमियों में घुसकर दरवाजा खोल देना कोई बात नहीं है।

देवी - कुमार की राय बहुत सही है, मगर ज्योतिषीजी को बाहर ही छोड़ देना चाहिए।

ज्यो - सो क्यों?

देवी - आप ब्राह्मण हैं, वहां क्यों ब्रह्महत्या के लिए आपको ले चलें, यह काम क्षत्रियों का है, आपका नहीं।

कुमार - हां ज्योतिषीजी, आप किले में मत जाइये।

ज्यो - अगर मैं ऐयारी न जानता होता तो आपका ऐसा कहना मुनासिब था, मगर जो ऐयारी जानता है उसके आगे जवांमर्दी और दिलावरी हाथ जोड़े खड़ी रहतीहैं।

देवी - अच्छा चलिए फिर, हमको क्या, हमें तो और फायदा ही है।

कुमार - फायदा क्या?

देवी - इसमें तो कोई शक नहीं ज्योतिषीजी हम लोगों के पूरे दोस्त हैं, कभी संग न छोड़ेंगे, अगर यह मर भी जायेंगे तो ब्रह्मराक्षस होंगे, और भी हमारा काम इनसे निकला करेगा।

ज्यो - क्या हमारी ही अवगति होगी? अगर ऐसा हुआ तो तुम्हें कब छोड़ूंगा तुम्हीं से ज्यादे मुहब्बत है।

इनकी बातों पर कुमार हंस पड़े और घोड़े पर सवार हो ऐयारों को साथ ले चुनार की तरफ रवाना हुए। शाम होते - होते ये लोग चुनार पहुंचे और रात को मौका पा कमंद लगा किले के अंदर घुस गये।

उन्नीसवां बयान

दिन अनुमान पहर - भर के आया होगा कि फतहसिंह की फौज लड़ती हुई फिर किले के दरवाजे तक पहुंची। शिवदत्त की फौज बुर्जियों पर से गोलों की बौछार मार कर उन लोगों को भगाना चाहती थी कि यकायक किले का दरवाजा खुल गया और जर्द रंग 1 की चार झण्डियां दिखाई पड़ीं जिन्हें राजा सुरेन्द्रसिंह, महाराज जयसिंह और उनकी कुल फौज ने दूर से देखा। मारे खुशी के फतहसिंह अपनी फौज के साथ धाड़धाड़ाकर फाटक के अंदर घुस गया और बाद इसके धीरे - धीरे  कुल फौज किले में दाखिल हुई। फिर किसी को मुकाबले की ताब न रही, साथ वाले आदमी चारों तरफ दिखाई देने लगे। फतहसिंह ने बुर्ज पर से महाराज शिवदत्त का सब्ज झंडा गिराकर अपना जर्द झंडा खड़ा कर दिया और अपने हाथ से चोब उठाकर जोर से तीन चोट डंके पर लगाईं जो उसी झंडे के नीचे रखा हुआ था। 'क्रूम धूम फतह' की आवाज निकली जिसके साथ ही किले वालों का जी टूट गया और कुंअर वीरेन्द्रसिंह की मुहब्बत दिल में असर कर गई।

अपने हाथ से कुमार ने फाटक पर चालीस आदमियों के सिर काटे थे, मगर ऐयारों के सहित वे भी जख्मी हो गये थे। राजा सुरेन्द्रसिंह किले के अंदर घुसे ही थे कि कुमार, तेजसिंह और देवीसिंह झण्डियां लिए चरणों पर गिर पड़े, ज्योतिषीजी ने आशीर्वाद दिया। इससे ज्यादे न ठहर सके, जख्मों के दर्द से चारों बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े और बदन से खून निकलने लगा।

जीतसिंह ने पहुंचकर चारों के जख्मों पर पट्टी बांधी, चेहरा धुलने से ये चारों पहचाने गए। थोड़ी देर में ये सब होश में आ गए। राजा सुरेन्द्रसिंह अपने प्यारे लड़के को देर तक छाती से लगाये रहे और तीनों ऐयारों पर भी बहुत मेहरबानी की। महाराज जयसिंह कुमार की दिलावरी पर मोहित हो तारीफ करने लगे। कुमार ने उनके पैरों को हाथ लगाया और खुशी - खुशी दूसरे लोगों से मिले।

चुनार का किला फतह हो गया। महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह दोनों ने मिलकर उसी रोज कुमार को राजगद्दी पर बैठाकर तिलक दे दिया। जश्न शुरू हुआ

 1. वीरेन्द्रसिंह के लश्कर का जर्द निशान था।

और मुहताजों को खैरात बंटने लगी। सात रोज तक जश्न रहा। महाराज शिवदत्त की कुल फौज ने दिलोजान से कुमार की ताबेदारी कबूल की।

हमारा कोई आदमी जनाने महल में नहीं गया बल्कि वहां इंतजाम करके पहरा मुकर्रर किया गया।

कई दिन के बाद महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह कुंअर वीरेन्द्रसिंह को तिलिस्म तोड़ने की ताकीद करके खुशी - खुशी विजयगढ़ और नौगढ़ रवाना हुए। उनके जाने के बाद कुंअर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों और कुछ फौज साथ ले तिलिस्म की तरफ रवाना हुए।

बयान

तिलिस्म के दरवाजे पर कुंअर वीरेन्द्रसिंह का डेरा खड़ा हो गया। खजाना पहले ही निकाल चुके थे, अब कुल दो टुकड़े तिलिस्म के टूटने को बाकी थे, एक तो वह चबूतरा जिस पर पत्थर का आदमी सोया था दूसरे अजदहे वाले दरवाजे को तोड़कर वहां पहुंचना जहां कुमारी चंद्रकान्ता और चपला थीं। तिलिस्मी किताब कुमार के हाथ लग ही चुकी थी, उसके कई पन्ने बाकी रह गये थे, आज उसे बिल्कुल पढ़ गए। कुमारी चंद्रकान्ता के पास पहुंचने तक जो - जो काम इनको करने थे सब ध्यान में चढ़ा लिए, मगर उस चबूतरे के तोड़ने की तरकीब किताब में न देखी जिस पर पत्थर का आदमी सोया हुआ था, हां उसके बारे में इतना लिखा था कि 'वह चबूतरा एक दूसरे तिलिस्म का दरवाजा है जो इस तिलिस्म से कहीं बढ़ - चढ़ के है और माल - खजाने की तो इन्तहा नहीं कि कितना रखा हुआ है। वहां की एक - एक चीज ऐसे ताज्जुब की है कि जिसके देखने से बड़े - बड़े दिमाग वालों की अक्ल चकरा जाय। उसके तोड़ने की तरकीब दूसरी ही है, ताली भी उसकी उसी आदमी के कब्जे में है जो उस पर सोया हुआ है।'

कुमार ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर कहा, ''क्यों ज्योतिषीजी! क्या वह चबूतरे वाला तिलिस्म मेरे हाथ से न टूटेगा?''

ज्यो - देखा जायगा, पहले आप कुमारी चंद्रकान्ता को छुड़ाइए।

कुमार - अच्छा चलिए, यह काम तो आज ही खत्म हो जाय।

तीनों ऐयारों को साथ लेकर कुंअर वीरेन्द्रसिंह उस तिलिस्म में घुसे। जो कुछ उस तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था खूब ख्याल कर लिया और उसी तरह काम करने लगे।

खंडहर के अंदर जाकर उस मालूमी दरवाजे 1 को खोला जो उस पत्थर वाले चबूतरे के सिरहाने की तरफ था। नीचे उतरकर कोठरी में से होते हुए उसी बाग में पहुंचे जहां खजाने और बारहदरी के सिंहासन के ऊपर का वह पत्थर हाथ लगा

 1. पहले लिख चुके हैं कि इसकी ताली तेजसिंह के सुपुर्द थी।

था जिसको छूकर चपला बेहोश हो गई थी और जिसके बारे में तिलिस्मी किताब में लिखा हुआ था कि 'वह एक डिब्बा है और उसके अंदर एक नायाब चीज रखीहै।'

चारों आदमी नहर के रास्ते गोता मारकर उसी तरह बाग के उस पार हुए जिस तरह चपला उसके बाहर गई थी और उसी की तरह पहाड़ी के नीचे वाली नहर के किनारे - किनारे चलते हुए उस छोटे - से दलान में पहुंचे जिसमें वह अजदहा था जिसके मुंह में चपला घुसी थी।

एक तरफ दीवार में आदमी के बराबर काला पत्थर जड़ा हुआ था। कुमार ने उस पर जोर से लात मारी, साथ ही वह पत्थर पल्ले की तरह खुल के बगल में हो गया और नीचे उतरने की सीढ़ियां दिखाई पड़ीं।

मशाल बाल चारों आदमी नीचे उतरे, यहां उस अजदहे की बिल्कुल कारीगरी नजर पड़ी। कई चरखी और पुरजों के साथ लगी हुई भोजपत्र की बनी मोटी भाथी उसके नीचे थी जिसको देखने से कुमार समझ गये कि जब अजदहे के सामने वाले पत्थर पर कोई पैर रखता है तो यह भाथी चलने लगती है और इसकी हवा की तेजी सामने वाले आदमी को खींचकर अजदहे के मुंह में डाल देती है।

बगल में एक खिड़की थी जिसका दरवाजा बंद था। सामने ताली रखी हुई थी जिससे ताला खोलकर चारों आदमी उसके अंदर गए। यहां से वे लोग छत पर चढ़ गए जहां से गली की तरह एक खोह दिखाई पड़ी।

किताब से पहले ही मालूम हो चुका था कि यही खोह की - सी गली उस दलान में जाने के लिए राह है जहां चपला और चंद्रकान्ता बेबस पड़ी हैं।

अब कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी, इस ख्याल से कुमार का जी धड़कने लगा। चपला की मुहब्बत ने तेजसिंह के पैर हिला दिये। खुशी - खुशी ये लोग आगे बढ़े। कुमार सोचते जाते थे कि 'आज जैसे निराले में कुमारी चंद्रकान्ता से मुलाकात होगी वैसी पहले कभी न हुई थी। मैं अपने हाथों से उसके बाल सुलझाऊंगा, अपनी चादर से उसके बदन की गर्द झाडूंगा। हाय, बड़ी भारी भूल हो गई कि कोई धोती उसके पहनने के लिए नहीं लाए, किस मुंह से उसके सामने जाऊंगा, वह फटे कपड़ों में कैसी दु:खी होगी! मैं उसके लिए कोई कपड़ा नहीं लाया इसलिए वह जरूर खफा होगी और मुझे खुदगर्ज समझेगी। नहीं - नहीं वह कभी रंज न होगी, उसको मुझसे बड़ी मुहब्बत है, देखते ही खुश हो जायगी, कपड़े का कुछ ख्याल न करेगी। हां, खूब याद पड़ा, मैं अपनी चादर अपनी कमर में लपेट लूंगा और अपनी धोती उसे पहिराऊंगा, इस वक्त का काम चल जायगा। (चौंककर) यह क्या, सामने कई आदमियों के पैरों की चाप सुनाई पड़ती है! शायद मेरा आना मालूम करके कुमारी चंद्रकान्ता और चपला आगे से मिलने को आ रही हैं। नहीं - नहीं, उनको क्या मालूम कि मैं यहां आ पहुंचा!'

ऐसी - ऐसी बातें सोचते और धीरे - धीरे कुमार बढ़ रहे थे कि इतने में ही आगे दो भेड़ियों के लड़ने और गुर्राने की आवाज आई जिसे सुनते ही कुमार के पैर दो - दो मन के हो गए। तेजसिंह की तरफ देखकर कुछ कहा चाहते थे मगर मुंह से आवाज न निकली। चलते - चलते उस दलान में पहुंचे जहां नीचे खोह के अंदर से कुमारी और चपला को देखा था।

पूरी उम्मीद थी कि कुमारी चंद्रकान्ता और चपला को यहां देखेंगे, मगर वे कहीं नजर न आईं, हां जमीन पर पड़ी दो लाशें जरूर दिखाई दीं जिनमें मांस बहुत कम था, सिर से पैर तक नुची हड्डी दिखाई देती थीं, चेहरे किसी के भी दुरुस्त न थे।

इस वक्त कुमार की कैसी दशा थी वे ही जानते होंगे। पागलों की - सी सूरत हो गई, चिल्लाकर रोने और बकने लगे - ''हाय चंद्रकान्ता, तुझे कौन ले गया? नहीं, ले नहीं बल्कि मार गया! जरूर इन्हीं भेड़ियों ने तुझे मुझसे जुदा किया जिनकी आवाज यहां पहुंचने के पहले मैंने सुनी थी। हाय वह भेड़िया बड़ा ही बेवकूफ था जो उसने तेरे खाने में जल्दी की, उसके लिए तो मैं पहुंच ही गया था, मेरा खून पीकर वह बहुत खुश होता क्योंकि इसमें तेरी मुहब्बत की मिठास भरी हुई है! तेरे में क्या बचा था, सूख के पहले ही कांटा हो रही थी! मगर क्या सचमुच तुझे भेड़िया खा गया या मैं भूलता हूं? क्या यह दूसरी जगह तो नहीं है? नहीं - नहीं, वह सामने दुष्ट शिवदत्त बैठा है। हाय अब मैं जीकर क्या करूंगा, मेरी जिंदगी किस काम आवेगी, मैं कौन मुंह लेकर महाराज जयसिंह के सामने जाऊंगा! जल्दी मत करो, धीरे -धीरे चलो, मैं भी आता हूं, तुम्हारा साथ मरने पर भी न छोड़ूंगा! आज नौगढ़, विजयगढ़ और चुनारगढ़ तीनों राज्य ठिकाने लग गए। मैं तो तुम्हारे पास आता ही हूं, मेरे साथ ही और कई आदमी आवेंगे जो तुम्हारी खिदमत के लिए बहुत होंगे। हाय, इस सत्यानाशी तिलिस्म ने, इस दुष्ट शिवदत्त ने, इन भेड़ियों ने, आज बड़े - बड़े दिलावरों को खाक में मिला दिया। बस हो गया, दुनिया इतनी ही बड़ी थी, अब खतम हो गई। हां - हां, दौड़ी क्यों जाती हो, लो मैं भी आया!''

इतना कह और पहाड़ी के नीचे की तरफ देख कुमार कूद के अपनी जान दिया ही चाहते थे और तीनों ऐयार सन्न खड़े देख ही रहे थे कि यकायक भारी आवाज के साथ दलान के एक तरफ की दीवार फट गयी और उसमें से एक वृद्ध महापुरुष ने निकलकर कुमार का हाथ पकड़ लिया।

कुमार ने फिरकर देखा लगभग अस्सी वर्ष की उम्र, लंबी - लंबी सफेद रूई की तरह दाढ़ी नाभी तक आई हुई, सिर की लंबी जटा जमीन तक लटकती हुई, तमाम बदन में भस्म लगाये। लाल और बड़ी - बड़ी आंखें निकाले, दाहिने हाथ में त्रिशूल उठाये, बायें हाथ से कुमार को थामे, गुस्से से बदन कंपाते तापसी रूप शिवजी की तरह दिखाई पड़े जिन्होंने कड़क के आवाज दी और कहा, ''खबरदार जो किसी को विधावा करेगा!''

यह आवाज इस जोर की थी कि सारा मकान दहल उठा, तीनों ऐयारों के कलेजे कांप उठे। कुंअर वीरेन्द्रसिंह का बिगड़ा हुआ दिमाग फिर ठिकाने आ गया। देर तक उन्हें सिर से पैर तक देखकर कुमार ने कहा :

''मालूम हुआ, मैं समझ गया कि आप साक्षात शिवजी या कोई योगी हैं, मेरी भलाई के लिए आये हैं। वाह - वाह खूब किया जो आ गए! अब मेरा धर्म बच गया, मैं क्षत्री होकर आत्महत्या न कर सका। एक हाथ आपसे लड़ूंगा और इस अद्भुत त्रिशूल पर अपनी जान न्यौछावर करूंगा? आप जरूर इसीलिए आये हैं, मगर महात्माजी, यह तो बताइये कि मैं किसको विधावा करूंगा? आप इतने बड़े महात्मा होकर झूठ क्यों बोलते हैं? मेरा है कौन? मैंने किसके साथ शादी की है, हाय! कहीं यह बात कुमारी सुनती तो उसको जरूर यकीन हो जाता कि ऐसे महात्मा की बात भला कौन काट सकता है?''

वृद्ध योगी ने कड़ककर कहा, ''क्या मैं झूठा हूं? क्या तू क्षत्री है? क्षत्रियों के यही धर्म होते हैं? क्यों वे अपनी प्रतिज्ञा को भूल जाते हैं? क्या तूने किसी से विवाह की प्रतिज्ञा नहीं की? ले देख पढ़ किसका लिखा हुआ है?''

यह कह अपनी जटा के नीचे से एक खत निकालकर कुमार के हाथ में दे दी। पढ़ते ही कुमार चौंक उठे। ''हैं, यह तो मेरा ही लिखा है! क्या लिखा है? 'मुझे सब मंजूर है!' इसके दूसरी तरफ क्या लिखा है। हां अब मालूम हुआ, यह तो उस वनकन्या की खत है। इसी में उसने अपने साथ ब्याह करने के लिए मुझे लिखा था, उसके जवाब में मैंने उसकी बात कबूल की थी। मगर खत इनके हाथ कैसे लगी! वनकन्या से इनसे क्या वास्ता?''

कुछ ठहरकर कुमार ने पूछा, ''क्या इस वनकन्या को आप जानते हैं?'' इसके जवाब में फिर कड़क के वृद्ध योगी बोले, ''अभी तक जानने को कहता है! क्या उसे तेरे सामने कर दूं?''

इतना कहकर एक लात जमीन पर मारी, जमीन फट गई 1 और उसमें से वनकन्या ने निकलकर कुमार का पांव पकड़ लिया।

 

॥ तीसरा भाग समाप्त॥

 

 

भाग -12

 

 

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