पथ के दावेदार
शरतचन्द्र
भाग - 7
जलमार्ग से आने वाले शत्रु के जलयानों को
रोकने के लिए नगर के अंतिम छोर पर नदी के किनारे मिट्टी का एक छोटा-सा किला
है। उसमें संतरी अधिक नहीं रहते। केवल तोपें चलाने के लिए कुछ गोरे गोलंदाज
रहते हैं। अंग्रेजों के इस विघ्नहीन शांतिकाल में यहां विशेष कड़ाई नहीं थी।
प्रवेश की मनाही है। लेकिन अगर कोई भूला-भटका व्यक्ति सीमा के अंदर पहुंच
जाता तो उसे भगा देते हैं। बस इतना ही। भारती कभी-कभी अकेली यहां आ बैठती
थी। जिन लोगों पर किले की रक्षा का भार था उन लोगों ने उसे देखा न हो, ऐसी
बात नहीं थी। लेकिन शायद भले घर की महिला समझकर वह लोग आपत्ति नहीं करते
थे।
सूर्य अभी-अभी अस्त हुआ था। अंधेरा होने में अभी कुछ देर थी। पक्षियों की
आवाजें इधर-उधर मंडरा रही थीं।
सहसा नदी के दायीं ओर के मोड़ से छोटी-सी रोशनी शेम्पेन नाव सामने आ गई। नाव
में मल्लाह के अतिरिक्त और कोई नहीं था। भारती के चेहरे की ओर देखकर उसने
अपनी बंगला भाषा में कहा, ''मां, उस पार जाओगी? एक आना देने से ही उस पार
पहुंचा दूंगा।''
भारती बोली, ''नहीं।''
मल्लाह ने कहा, ''अच्छा दो पैसे ही दे दो-चलो।''
भारती बोली, ''नहीं भैया, मेरा घर इसी पार है।''
मल्लाह गया नहीं। जरा हंसकर बोला, ''पैसा न हो तो न दो। चलो तुम्हें घूमा
लाऊं,'' यह कहकर उसने नाव घाट पर लगा दी।
भारती भयभीत हो उठी। अंधेरा और निर्जन स्थान। वह जानती थी कि चटगांव के
मुसलमान मल्लाह बहुत ही दुष्ट होते हैं। खड़ी होकर क्रुध्द स्वर में बोली,
''चले जाओ वरना पुलिस बुला लूंगी।''
मल्लाह डरकर रुक गया। उसकी उम्र पचास के ऊपर पहुंच चुकी है लेकिन अभी तक
शौक नहीं गया। बेल-बुटेदार लुंगी पहने है। लेकिन तेल और मैल से वह बहुत ही
गंदी हो गई हुई। शरीर पर कीमती फ्राक कोट है। शायद किसी पुराने कपड़ों की
दुकान से खरीदा गया है। सिर पर बेलदार चिथडे क़ी टोपी है।
सहसा पहचानकर भारती बोली, ''भैया, आपका चेहरा चाहे जैसा ही क्यों न हो, आप
तो गले की आवाज तक को बदलकर उसे मुसलमान बना चुके हो।''
मल्लाह बोला, ''जाऊं या पुलिस को बुला रही हो।''
भारती बोली, ''पुलिस को बुलाकर तुमको गिरफ्तार करा देना ही उचित होगा।
अपूर्व बाबू की इच्छा को अपूर्ण क्यों रहने दूं।''
मल्लाह बोला, ''उसी की बात कर रहा हूं। आओ, ज्वार अब अधिक देर तक नहीं
रहेगा। अभी दो कोस रास्ता चलना है।''
भारती नाव पर जा बैठी। उसे ठेलकर डॉक्टर साहब पक्के मल्लाह की तरह आगे बढ़े।
जैसे दोनों हाथों से पतवार चलाना ही उनका पेशा हो।
''लामा जहाज चला गया, देख लिया?'' उन्होंने पूछा।
''हां।''
''अपूर्व उस ओर के फर्स्ट क्लास वाले डेक पर थे।''
''नहीं।''
डॉक्टर बोले, ''उनके डेरे पर या ऑफिस में जाने का कोई उपाय नहीं था। इसलिए
जेटी के एक ओर शेम्पन लगाकर मैं ऊपर खड़ा था। हाथ उठाकर सलाम करते ही....?''
भारती ने बेचैन होकर कहा, ''किसके लिए?- किसके कारण इतना बड़ा और भयानक काम
तुम करने गए थे भैया?''
डॉक्टर ने सिर हिलाकर कहा, ''मैं ठीक उसी कारण से गया था जिस कारण तुम यहां
अकेली बैठी हो बहिन।''
भारती रोती हुई बोली, ''नहीं, बिल्कुल नहीं। यहां तो मैं अक्सर ही आती रहती
हूं। किसी के लिए नहीं आती। क्या उन्होंने तुम्हें पहचान लिया।''
''नहीं।'' डॉक्टर ने कहा, ''दाढ़ी-मूंछे बढ़ाना सहज काम नहीं है। लेकिन मैं
चाहता था कि अपूर्व बाबू मुझे पहचान लेते। पर वह इतने व्यस्त थे कि मुझे
देखने की उन्हें फुर्सत ही नहीं थी।''
''इसके बाद क्या हुआ?''
''विशेष कुछ नहीं।''
''विशेष कुछ नहीं हुआ, यह तो मेरे भाग्य की बात है। पहचान लेने पर वह
तुम्हें गिरफ्तार करा देते और इस अपमान से बचने के लिए मुझे आत्महत्या करनी
पड़ती। नौकरी चली गई, लेकिन प्राण तो बच गए।''
डॉक्टर चुपचाप नाव खेने लगे। कुछ देर मौन रहकर भारती ने पूछा, ''क्या सोच
रहे हो भैया?''
''बताओ तो जानूं।''
''बताऊं?-तुम सोच रहे हो कि भारती लड़की होकर भी मनुष्य को मेरी अपेक्षा
अधिक पहचान सकती है। अपनी प्राण रक्षा के लिए कोई भी पढ़ा-लिखा आदमी इतनी
नीचता कर सकता है-लज्जा नहीं, कृतज्ञता नहीं, मोह, ममता नहीं-खबर नहीं दी,
खबर देने की कोशिश नहीं की। भय के कारण जानवर की तरह भाग गए। मैं कल्पना भी
नहीं कर सकता था। लेकिन भारती असंदिग्ध रूप से जान गई थी-'यही सोच रहे हो न
भैया?''
डॉक्टर ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''मेरी ओर एक बार देखो न भैया?''
डॉक्टर ने ज्यों की भारती की ओर देखा, उसके होंठ थर-थर कांपने लगा। बोली,
''मनुष्य होकर मनुष्यता की कहीं भी कोई बात नहीं, यह कैसे हो सकता है
भैया?''
यह कहकर उसने दोनों दांतों को भींचकर अपने होंठों का कांपना रोक लिया।
लेकिन आंखों की कोरों से आंसू बहने लगे।
डॉक्टर ने न तो सहमति प्रकट की, न प्रतिवाद किया। सांत्वना तक की कोई बात
उसके मुंह से नहीं निकली। केवल क्षण भर के लिए ऐसा लगा जैसे उसकी सुरमा लगी
आंखों की दीप्ति कुछ फीकी पड़ गई हो।
इरावती की यह छोटी शाखा कम गहरी और कम चौड़ी होने के कारण स्टीमर और बड़ी
नावें नहीं चलती थीं। नाव कहां जा रही है, भारती को पता नहीं था।
अचानक एक बहुत बड़े वृक्ष की ओट में बेलों और वृक्षों से भरे नाले में नाव
घुसने लगी तो यह देखकर उसने चकित होकर पूछा, ''मुझे कहां ले जा रहे हो
भैया?''
''अपने डेरे पर।''
''वहां और कौन रहता है?''
''कोई नहीं।''
''मुझे मेरे डेरे पर कब पहुंचाओगे?''
''पहुंचा दूंगा। आज रात या कल सवेरे।''
भारती बोली, ''नहीं भैया, यह नहीं हो सकता। मुझे जहां से लाए हो वही पहुंचा
दो।''
''लेकिन मुझे तुमसे बहुत-सी बातें कहनी हैं भारती।''
भारती ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसी तरह सिर हिलाकर आपत्ति प्रकट करती हुई
बोली, ''नहीं, मुझे वापस पहुंचा आओ।''
''लेकिन क्यों? क्या तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं?''
भारती सिर झुकाए चुप बैठी रही।
डॉक्टर ने कहा, ''तुमने इस प्रकार कितनी ही रातें अपूर्व के साथ बिताई हैं।
क्या वह मुझसे बढ़कर विश्वासपात्र था तुम्हारा?''
भारती चुप रही। उसने हां-ना, कुछ नहीं कहा।
नाले में जितना अंधेरा था उतना ही वह तंग भी था। दोनों किनारों पर खड़े
पेड़ों की डालियां बीच-बीच में उनके शरीर पर आकर लगने लगीं।
डॉक्टर ने कहा, ''भारती, आज मैं तुम्हें ले जा रहा हूं वहां से तुम्हारा
उध्दार कर सके, संसार में ऐसा कोई नहीं है। लेकिन मेरे मन की बात समझने में
शायद अब कुछ शेष न रहा होगा।''
यह कहकर वह जोर से हंसने लगे। अंधेरे में उनके चेहरे को भारती न देख सकी।
लेकिन उनकी हंसी ने जैसे उसे धिक्कारा। मुंह ऊपर उठाकर शंकारहित स्वर में
बोली, ''तुम्हारे मन की बात समझ सकूं, इतनी बुध्दि मुझ में नहीं है। लेकिन
मैं तुम्हारे चरित्र से परिचित हूं। अकेली रहना मेरे लिए उचित नहीं है
इसीलिए कह रही हूं भैया, मुझे क्षमा करो।''
डॉक्टर ने कुछ देर चुप रहकर स्वाभाविक शांत स्वर में कहा, ''भारती, तुम्हें
छोड़कर आने में मुझे कष्ट होता है। तुम मेरी बहिन हो, मेरी मां हो-यदि स्वयं
यह विश्वास न होता तो मैं इस रास्ते से नहीं आता। लेकिन तुम्हारा मूल्य दे
सके ऐसा मनुष्य मेरे अतिरिक्त संसार में और कोई नहीं है। इसके सौवें अंश का
भी एक अंश अगर अपूर्व समझ जाता तो उसका जीवन सार्थक हो जाता। तुम संसार में
लौट जाओ दीदी! हम लोगों के बीच अब मत रहो। केवल तुम्हारी बात कहने के लिए
ही मैं अपूर्व से मिलने गया था।''
भारती चुप रही। आज एक बात तक न कहकर अपूर्व चला गया। नौकरी करने बर्मा आया
था। थोड़े दिनों का ही तो परिचय था।
वह ब्राह्मण का सदाचारी लड़का है। उसका देश है, समाज है, घर-द्वार है,
आत्मीय-स्वजन हैं। और भी क्या-क्या है। और भारती ईसाई की लड़की है। उसका देश
नहीं। घर नहीं। माता-पिता नहीं। अपना कहने के लिए कोई भी नहीं है।
पास ही पेड़-पौधों के बीच हल्की-सी रोशनी दिखाई देने लगी। डॉक्टर ने इशारा
करके कहा, ''यहीं मेरा डेरा है। खूब आजाद था। पता नहीं कैसी माया में जकड़
गया हूं। तुम्हारे लिए ही चिंता में पड़ा हूं। तुम्हें एक निरापद आश्रय मिल
गया है, काश! जाने से पहले इतना ही देख लेता।''
भारती आंसू पोंछकर बोली, ''मैं तो अच्छी हूं भैया।''
डॉक्टर ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ''कहां अच्छी तरह हो बहिन। मेरे एक आदमी
ने आकर बताया कि तुम घर में नहीं हो। सोचा, तुम्हें जेटी पर पा सकूंगा।
वहां जाने पर तुमसे भेंट न को सकी। अभागा तुम्हारा चैन लेकर ही नहीं भागा,
तुम्हारा साहस भी छीन ले गया है।''
इस बात का पूरा अर्थ न समझकर भारती चुप ही रही।
डॉक्टर ने कहा, ''उस दिन रात को निश्चिंत मन से मेरे लिए बिछौना छोड़कर तुम
नीचे सो गई थीं। तुमने हंसकर कहा था-भैया, तुम क्या इन्सान हो जो तुमसे डर
लगेगा। तुम सो जाओ। लेकिन आज वह साहस नहीं रहा। अपूर्व निर्भय करने योग्य
मनुष्य नहीं है। फिर भी वह पास ही था। इसलिए शायद ऐसी आशंका तुम्हारे मन
में कल भी पैदा नहीं हुई। आश्चर्य तो यह है कि तुम जैसी लड़की की भय मुक्त
स्वाधीनता को भी उस जैसा असमर्थ मनुष्य इतनी आसानी से तोड़कर जा सकता है!''
भारती मीठे स्वर में बोली, ''लेकिन उपाय क्या है भैया?''
''उपाय शायद न हो। लेकिन बहिन, तुम्हारे चरित्र पर संदेह करने वाला आज कोई
नहीं है। फिर अगर तुम्हारा ही मन रात-दिन स्वयं पर संदेह करता रहे तो तुम
जीओगी कैसे?''
इस तरह अपने हृदय का विश्लेषण करके देखने का समय भारती के पास नहीं था।
उसकी श्रध्दा और आश्चर्य की सीमा न रही, लेकिन वह मौन ही रही।
डॉक्टर बोले, ''मैं एक और लड़की को जानता हूं। वह रूसी है लेकिन उसकी बात
जाने दो। कब तुम लोगों की भेंट होगी नहीं जानता। लेकिन लगता है एक दिन जरूर
होगी। भगवान करे कि न हो। तुम्हारे प्रेम की तुलना नहीं है। वहां से अपूर्व
को कोई हटा नहीं सकेगा। लेकिन स्वयं को उसके ग्रहण करने योग्य बनाए रखने की
आज से जो अत्यंत सतर्कतापूर्ण जीवनव्यापी साधना आरम्भ होगी, उसकी प्रतिदिन
के असम्मान की ग्लानि तुम्हारे मनुष्यत्व को एकदम छोटा बना देगी भारती।
जहां ऐसे शुध्द-पवित्र हृदय का मूल्य नहीं वहां मन को इसी तरह बहलाना पड़ता
है। कौन जाने भाग्य में उतने दिनों तक जीवित रहने का समय मेरे लिए है या
नहीं। लेकिन यदि हो दीदी तो बहिन कहकर गर्व करने के लिए सव्यसाची के पास
कुछ भी शेष नहीं रहेगा।''
भारती ने पूछा, ''तो तुम मुझे क्या करने को कहते हो? तुमने ही तो मुझसे
बार-बार संसार में लौट जाने को कहा था।''
''लेकिन सिर नीचा करके जाने को नहीं कहा था।''
''लेकिन स्त्रियों का ऊंचा सिर तो कोई भी पसंद नहीं करता।''
''तब मत जाना।''
भारती ने हंसकर कहा, ''तुम निश्चिंत रहना भैया, मेरा जाना नहीं हो सकेगा।
सारे रास्तों को अपने हाथ से बंद करके केवल एक रास्ता खोल रखा था, वह भी आज
बंद हो गया, यह तुम देख आए हो। अब जो रास्ता तुम मुझे दिखा दोगे उसी रास्ते
से चलूंगी। मेरी केवल इतनी-सी प्रार्थना स्वीकार कर लेना कि अपने भयंकर
रास्ते पर मुझे मत बुलाना। भगवान के समान अप्राप्य वस्तु को पाने के भी जब
इतने मार्ग हैं तब तुम्हारे लक्ष्य तक पहुंचने के लिए रक्तपात के अतिरिक्त
क्या दूसरा मार्ग नहीं है? मेरा दृढ़ विश्वास है कि मानव की बुध्दि बिल्कुल
समाप्त नहीं हो गई है। कहीं-न-कहीं दूसरा मार्ग अवश्य ही है। आज से मैं उसी
पथ की खोज में निकलूंगी। भीषण दु:ख क्या है-उस रात को मुझे उसका पता लग गया
था जिस रात तुम लोग उनकी हत्या करने के लिए तैयार हो गए थे।''
डॉक्टर ने कहा, ''यही मेरा डेरा है,'' यह कहकर छोटी नाव को किनारे पर ठेलकर
वह उतर पड़े। फिर हाथ में लालटनें लेकर रास्ता दिखाते हुए बोले, ''जूते
उतारकर आओ। पैरों में कीचड़ लगेगी।''
भारती चुपचाप उतर आई। सागौन के चार-पांच मोटे-मोटे खूंटों पर पुराने और
बेकार तख्तों से काठ का एक मकान बना था। टूटी-फूटी लकड़ी के सीढ़ी से रस्सी
पकड़कर ऊपर पहुंचने पर जब सात-आठ वर्ष के लड़के ने आकर दरवाजा खोला तो भारती
आश्चर्य से अवाक् रह गई। अंदर पांव रखते ही देखा, फर्श पर चटाई बिछाए कम
उम्र की एक बर्मी स्त्री सो रही है। तीन-चार बच्चे जहां-तहां पडे हुए हैं।
एक असहनीय दुर्गंध से कमरे का वायुमंडल विषाक्त हो उठा है। फर्श पर चारों
ओर भात, मछली के कांटे और प्याज-लहसुन के छिलके पड़े हैं। पास ही दो-तीन
कालिख लगी मिट्टी की छोटी-छोटी हंडिया पड़ी हैं।
डॉक्टर के पीछे-पीछे भारती दूसरे कमरे में पहुंच गई। कहीं भी किसी सामान का
झमेला नहीं। फर्श पर चटाई बिछी थी। एक ओर दरी लपेटकर रखी हुई थी। डॉक्टर ने
दरी झाड़कर बिछाते हुए भारती से बैठने के लिए कहा। बर्मी स्त्री ने कुछ
पूछा। डॉक्टर ने बर्मी भाषा में ही उसका उत्तर दिया। थोड़ी देर बाद ही वह
लड़का एक तश्तरी में थोड़ा-सा भात, प्याली में तरकारी और पत्ते पर थोड़ी-सी
झुलसी हुई मछली रखकर चला गया। अपनी लालटेन के प्रकाश में उन खाद्य वस्तुओं
को देखते ही भारती की तबियत मिचलाने लगी।
डॉक्टर ने कहा, ''भूख तो शायद तुम्हें भी लगी होगी। लेकिन यह सब।''
भारती ने कहा, ''नहीं, नहीं, अभी नहीं।''
यह ईसाई जात-पांत नहीं मानती, लेकिन जहां से जिस प्रकार यह चीजें लाई गई
हैं उस स्थान को वह आते समय ही देख आई थी।
डॉक्टर बोले, ''लेकिन मुझे बड़ी भूख लगी है बहिन। पहले पेट भर लूं,'' यह
कहकर हाथ धोकर बड़ी प्रसन्न मुद्रा में खाने बैठ गए।
भारती उस ओर देख नहीं सकी। घृणा और छाती के भीतर की असीम रुलाई की वेदना से
उसने मुंह फेर लिया मानो सैकड़ों धाराओं में बहकर निकलने की इच्छा करने लगी।
हाय रे देश! हाय रे स्वाधीनता की प्यास! संसार में इन लोगों ने अपना कहकर
कुछ भी शेष नहीं रखा। यह घर, यह भोजन, यह घृणित संबंध, जंगली पशुओं जैसा
जीवन-पल भर के लिए भारती को मृत्यु भी इससे अधिक अच्छी और सुखद दिखाई दी।
मृत्यु को तो बहुतेरे सहन कर सकते हैं लेकिन यह तो तन और मन को निरंतर
सताते रहना, इच्छानुसार हर पल आत्महत्या की ओर ले जाना-इस सहिष्णुता की
स्वर्ग या मृत्यु में क्या कहीं कोई तुलना है।
पराधीनता की पीड़ा ने क्या इन लोगों के जीवन के सभी पीड़ा-बोध को पूरी तरह
धोकर साफ कर दिया है? कहीं कुछ भी शेष नहीं?
उसे अपूर्व की याद आ गई उसे अपनी नौकरी छूट जाने का शोक, मित्र-मंडली में
हाथ का काला दाग दिखाई देने की लज्जा.... यह ही तो भारत माता की सहस्र कोटि
संतानें हैं। खाते-पहनते, परीक्षाएं पास करके, नौकरी में सफलता पाकर, जिनका
जन्म से मृत्यु तक का सारा जीवन अत्यंत निर्विघ्न रूप से एक-सा बीतता जा
रहा था-और एक है यह व्यक्ति जो अत्यंत निर्विकार, मन से अत्यंत
तृप्तिपूर्वक भात निगल रहा है। पल भर के लिए भारती को लगा कि हिमालय के
हजारों प्रस्तर खंडों के तिलमात्र हिस्से से भी अधिक वह लोग नहीं हैं और
उन्हीं लोगों में से एक प्यार करके, उसी के घर की गृहिणी बनने से वंचित
होने के दु:ख से आज वह अपनी छाती फाड़-फाड़कर मर रही है।
सहसा वह दृढ़ता भरे स्वर में बोली, ''भैया तुम्हारा चुना हुआ यह खून-खराबी
का मार्ग किसी भी तरह ठीक नहीं है। अतीत के भले ही कितने भी उदाहरण दो, जो
अतीत है, जो बीत चुका है, वही चिरकाल तक भविष्य की छाती रौंदकर उसे
नियंत्रित करता रहेगा, यह विध्न मानव जीवन के लिए किसी भी तरह सत्य नहीं
माना जा सकता। तुम्हारे मार्ग को नहीं लेकिन तुम्हारा सब कुछ विसर्जित करने
वाली देश-सेवा को मैं आज अपने सिर पर उठा लेती हूं। अपूर्व बाबू सुख से
रहें, अब मैं उनके लिए शोक नही करूंगी। आज मैंने अपने जीवन का मंत्र अपनी
आंखों से देख लिया है।
डॉक्टर ने आश्चर्य से मुंह उठाकर भात खाते-खाते अस्फुट स्वर में पूछा,
''क्या हुआ भारती?''
हाथ-मुंह धोकर डॉक्टर बैठ गए। उसी बर्मी लड़के ने एक बहुत मोटा चुरुट पीते
हुए कमरे में प्रवेश किया और कुछ देर नाक-मुंह से धुआं निकालकर फिर वही
चुरुट डॉक्टर के हाथ में देकर चला गया।
डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, ''इसी तरह मुफ्त पा लेने पर मैं संसार में किसी
भी चीज को छोड़ना पसंद नहीं करता भारती। अपूर्व के चाचा जी ने जब रंगून में
गिरफ्तार किया था तब मेरी जेब में से गांजे की चिलम निकल पड़ी थी। वह न होती
तो शायद मुझे छुटकारा भी न मिलता।'' कहकर वह मुस्कुराने लगे।
भारती यह बात सुन चुकी थी। बोली, ''हजार बार छुटकारा न मिलने पर भी तुम
गांजा नहीं पीते, यह मैं जानती हूं। लेकिन यह मकान किसका है?''
''मेरा।''
''और यह बर्मी स्त्री-बच्चे?''
डॉक्टर हंसकर बोले, ''यह सब मेरे एक मुसलमान मित्र की सम्पति हैं। मेरी ही
तरह वह भी फांसी के मुजरिम हैं। इस समय कहीं बाहर गए हैं। परिचय न हो
सकेगा।''
भारती बोली, ''परिचय के लिए मैं व्याकुल नहीं हूं। लेकिन जिस तरह तुमने इस
स्वर्गपुरी में आकर आश्रय लिया है, इससे तो अच्छा था कि मुझे मेरे घर
पहुंचा आते भैया। यहां तो मेरा दम घुटा जा रहा है।''
डॉक्टर-''यह स्वर्गपुरी तुम्हें अच्छी नहीं लगेगी, मैं जानता था। लेकिन
तुमसे कहने के लिए मेरे पास जितनी बातें हैं वह किसी दूसरे स्थान पर नहीं
कही जा सकती थीं भारती! थोड़ा-सा कष्ट आज तुम्हें सहना ही पड़ेगा।''
भारती बोली, ''क्या तुम किसी दूसरी जगह जा रहे हो?''
डॉक्टर बोले, ''हां, उत्तर और पूर्व के देशों में एक बार घूम आना होगा।
लौटने में शायद दो वर्ष लग जाएं। लेकिन आज की रात के बाद फिर तुमसे मिल
सकूंगा, यह भरोसा नहीं।''
डॉक्टर कुछ देर चुप रहे। भारती ने समझ लिया कि इसमें कोई परिवर्तन नहीं हो
सकता। इस रात की समाप्ति के साथ ही वह इस संसार में अकेली रह जाएगी।
डॉक्टर बोले, 'मुझे दक्षिण चीन के केंटन के भीतर और भी आगे पैदल ही जाना
पड़ेगा। उस रास्ते से काम के सिलसिले में अगर अमेरिका न पहुंच पाया तो
प्रशांत महासागर के द्वीपों में घूमकर फिर इसी देश में लौटकर आश्रय लूंगा।
उसके बाद जब तक आग न लगेगी यहीं रहूंगा? और बहिन अगर लौटकर न आ सका तो खबर
तो तुम्हें मिल ही जाएगी।''
इस व्यक्ति के शांत, सहज कंठ की बातें कितनी साधारण हैं लेकिन उनका चेहरा
भारती की आंखों के सामने नाच उठा। कुछ देर चुप रहकर बोली, ''चीन देश में
पैदल जाना कितना भयानक काम है, यह मैं सुन चुकी हूं। लेकिन मैं तुमको डर
दिखलाना नहीं चाहती। अगर यहां से निकल जाना ही चाहते हो तो फिर यहीं क्यों
लौट आना चाहते हो? तुम्हारी अपनी जन्म-भूमि में क्या तुम्हारे लिए कोई काम
नहीं है?''
''उसी के काम के लिए तो मैं इस देश को छोड़कर जा रहा हूं। इस देश में
स्त्रियां स्वतंत्र हैं। स्वतंत्रता का मार्ग वह समझेंगी। उन लोगों की मुझे
बहुत जरूरत है। अगर कभी इस देश मंय आग जलती देखी तो मेरी बात याद कर लेना,
कि उस आग को स्त्रियां ही जला रही हैं। याद रहेगी यह बात?''
भारती ने कहा, ''लेकिन मैं तो तुम्हारे पथ की पथिक नहीं हूं।''
डॉक्टर बोले, ''यह मैं जानता हूं, लेकिन बड़े भाई की बात याद करने में तो
कोई दोष नहीं है। भैया की बीच-बीच में याद तो आ जाएगी।''
भारती बोली, ''बड़े भैया की याद आने के लिए मेरे पास बहुत-सी चीजें हैं। इसी
तरह शायद तुम मनुष्यों को अपने कुमार्ग में खींच लाया करते हो भैया, लेकिन
मुझे नहीं खींच सकते।''
वह सहसा उठ खड़ी हुई। समेटी दरी झाड़कर बिछा दी। फिर बांस के मचान पर कम्बल,
तकिया आदि उतारकर अपने हाथ से बिस्तर बिछाते हुए बोली, ''अपूर्व बाबू के
जहाज के चक्के आज मुझे जिस मार्ग का संकेत दे गए हैं मेरा एक मात्र मार्ग
अब वही है। फिर जिस दिन भेंट होगी उस दिन तुम भी स्वीकार करोगे।''
डॉक्टर व्यग्र होकर बोल उठे, ''तुमने अचानक यह क्या शुरू कर दिया भारती?
क्या इस फटे कम्बल को मैं खुद नहीं बिछा सकता था। इसकी तो कोई जरूरत थी ही
नहीं।''
भारती बोली, ''तुमको जरूरत नहीं थी, लेकिन मुझे तो थी। फिर स्त्रियों के
जीवन में इसकी भी जरूरत न रहे तो किस बात की जरूरत है, बता सकोगे भैया?''
डॉक्टर बोले, ''इसका उत्तर नहीं दे सकूंगा बहिन। मैं हार मानता हूं। लेकिन
तुम्हारे अतिरिक्त मुझे और किसी स्त्री से हार नहीं माननी पड़ी।''
भारती हंसती हुई बोली, ''सुमित्रा जीजी से भी नहीं?'
''नहीं।''
बिछौना बिछ जाने पर डॉक्टर उस पर आ बैठे। भारती पास बैठकर बोली, ''जाने से
पहले एक बात और पूछूं तो क्या छोटी बहन का अपराध क्षमा होगा?''
''क्यों नहीं?''
''सुमित्रा जीजी आपकी कौन हैं?''
कुछ देर चुप रहने के बाद डॉक्टर ने मुस्कराते हुए कहा, ''वह मेरी क्या है,
इसका उत्तर जब तक वह स्वयं न दे तब तक जान लेने का कोई उपाय नहीं है। मैं
तो जिस दिन उसे पहचानता भी नहीं था, उस दिन मैंने स्वयं अपनी पत्नी कहकर
उसका परिचय दिया था। मैंने ही उसका नाम सुमित्रा रखा था। मैंने सुना है कि
उसकी मां यहूदी थी, लेकिन पिता थे बंगाली ब्राह्मण। पहले वह एक सर्कस
पार्टी के साथ जावा गए थे, फिर सरवाया रेल के स्टेशन पर नौकरी करने लगे। जब
तक वे जीवित रहे सुमित्रा मिशनरी स्कूल में पढ़ती रही। उनके मर जाने के बाद
पांच-छह वर्ष के इतिहास को सुनने की तुम्हें कोई जरूरत नहीं।''
भारती बोली, ''नहीं भैया, मुझे सब बताओ।''
डॉक्टर ने कहा, ''मैं भी सब नहीं जानता भारती। केवल इतना ही जानता हूं कि
मां, बेटी, दो मामा, एक चीनी और दो मद्रासी मुसलमान मिलकर जावा में छिपे
ढंग से गांजे के आयात-निर्यात का धंधा कर रहे थे। मैं नहीं जानता था कि वह
लोग क्या करते हैं। बस यही देखा करता था कि बटासिया से सुरवाया तक ट्रेन
द्वारा सुमित्रा अक्सर आया-जाया करती थी। अत्यंत सुंदर होने के कारण बहुत
से लोगों की तरह मेरी नजर भी उस पर पड़ गई थी। बस सब कुछ यहीं तक सीमित था।
लेकिन एक दिन अचानक ही परिचय हो गया तेगा स्टेशन के वेटिंग रूम में। यह
बंगाली लड़की है इस बात का पता मुझे पहले-पहले नहीं चला।''
भारती ने कहा, ''सुंदरी होने के कारण सुमित्रा जीजी को आप फिर भूल नहीं
सके। यही बात है न भैया?''
डॉक्टर बोले, ''एक दिन मैं जावा छोड़कर कहीं और चला गया और शायद उसे भूल ही
गया। लेकिन एक वर्ष के बाद सहसा बेंकुलेन शहर की जेटी पर सुमित्रा से भेंट
हो गई। एक बक्स में अफीम थी और सुमित्रा को घेरे चारों ओर पुलिस खड़ी थी।
मुझे देखकर उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। मुझे संदेह नहीं रहा कि अब मुझे
उसकी रक्षा करनी पड़ेगी। अफीम के बक्स को स्पष्ट अस्वीकार करके मैंने उसे
अपनी पत्नी बता कर परिचय दे दिया। उसने यह नहीं सोचा था, इसलिए वह चौंक
पड़ी। घटना सुमात्रा में हुई थी इसलिए मैंने उसका नाम सुमित्रा रख दिया।
वैसे उसका वास्तविक नाम रोज दाऊद था। उन दिनों बेंकुलेन के मामलों-मुकदमों
की सुनवाई पादांग शहर में होती थी। वहां मेरे घनिष्ठ मित्र थे पाल क्रूगर।
उन्हीं के पास सुमित्रा को ले गया। मुकदमा चला। मजिस्ट्रेट ने सुमित्रा को
रिहा कर दिया। लेकिन सुमित्रा ने मुझे रिहाई नहीं दी।''
भारती हंसकर बोली, ''रिहाई अब मिलेगी भी नहीं भैया।''
डॉक्टर ने कहा, ''धीरे-धीरे उसके दल के लोग समाचार पाकर ताक-झांक करने लगे।
मैंने देखा, मेरे मित्र पाल क्रूगर भी उसके सौंदर्य पर लट्टू हो गए हैं। एक
दिन उन्हीं के पास छोड़कर मैं चुपचाप खिसक गया।''
भारती बोली, ''उन लोगों के बीच अकेली छोड़कर? तुम बहुत निर्दयी हो भैया।''
डॉक्टर बोले, ''हां, अपूर्व की तरह। फिर एक वर्ष बीत गया। उन दिनों मैं
सोलिवस द्वीप के मैकासर नगर के छोटे से अप्रसिध्द होटल में रह रहा था। एक
दिन शाम को कमरे में घुसते ही देखा, सुमित्रा बैठी है। हिंदू स्त्रियों की
तरह टसर की साड़ी पहने। उसने एक हिंदू स्त्री की तरह झुककर प्रणाम किया और
उठकर बोली, ''मैं सब छोड़कर चली आई हूं। सम्पूर्ण अतीत को धो-पोंछकर फेंक आई
हूं। मुझे अपने काम में शामिल कर लो। मुझसे बढ़कर विश्वसनीय साथिन दूसरी
नहीं मिलेगी।''
भारती बोली, ''उसके बाद?''
डॉक्टर ने कहा, ''बाद की घटना....बस इतना ही कह सकता हूं कि सुमित्रा के
विरुध्द शिकायत करने का मुझे आज तक कोई कारण नहीं मिला। जो इक्कीस वर्षों
के सभी संस्कारों को धो-पोंछकर, साफ करके आ सकती है उसके प्रति मेरे मन में
श्रध्दा है लेकिन वह है बड़ी निष्ठुर।''
भारती की इच्छा हुई कि पूछे-'वह निष्ठुर हो सकती है लेकिन तुम उसको कितना
प्यार करते हो।' लेकिन लाज के कारण पूछ न सकी। फिर उस रहस्यपूर्ण युवती के
हृदय के गोपनीय इतिहास का आज उसे पता लग गया। उसका ममताहीन, मौन,
रहस्यपूर्ण इतिहास-किसी का भी अर्थ समझना उसके लिए शेष नहीं रहा।
सहसा डॉक्टर के मुंह से असावधानी से एक लम्बी सांस निकल गई। पल भर के लिए
वह लज्जा से व्याकुल हो उठे, लेकिन उसी एक पल के लिए। दूसरे ही पल उनका
शांत और सहज हास्यपूर्ण स्वर लौट आया। बोले, ''उसके बाद सुमित्रा को साथ
लेकर मुझे केंटन चला आना पड़ा।''
भारती हंसी छिपाकर बोली, ''न आते भैया। तुम्हें सिर की शपथ किसने दी
थी-बताओ? हम लोगों में से तो किसी ने दी-नहीं थी।''
''सिर की शपथ किसी ने नहीं दी, ऐसी बात नहीं है। लेकिन मैंने सोचा था कि वह
बात किसी को भी मालूम न हो सकेगी। लेकिन तुममें एक दोष यह है कि अंत तक न
सुनने से तुम्हारी जिज्ञासा शांत नहीं होती और न सुनाने से तुम बहुत-सी ऐसी
ही बातों का अनुमान करती रहोगी। इसलिए सुना देना ही अच्छा है।''
''मैं भी यही कह रही हूं भैया।''
डॉक्टर बोले, ''बात यह है कि सुमित्रा ने मेरे ही होटल की दूसरी मंजिल पर
एक कमरा किराए पर ले लिया। मैंने बहुत मना किया। लेकिन वह नहीं मानी। तब
मैंने कहा, ऐसी हालत में मुझे यहां से चला जाना होगा।' यह सुनकर उसकी आंखों
से आंसू बहने लगे। बोली, 'आप मुझे आश्रय दीजिए।' दूसरे ही दिन मामला समझ
में आ गया। दाऊद का गैंग वहां दिखाई पड़ा। उस गैंग में लगभग दस आदमी थे।
उनमें से एक आधा अरब और आधा नीग्रो था। छोटे-मोटे हाथी की तरह। वह अनायास
ही दावा कर बैठा कि सुमित्रा उसकी पत्नी है।''
भारती बोली, ''और तुम्हारे ही सामने! उन दोनों में शायद खूब झगड़ा हुआ?''
डॉक्टर बोले, 'हां। सुमित्रा ने अस्वीकार करते हुए कहा, 'सब झूठ है। एक
षडयंत्र है।'-असल में वह लोग उसे चोरी की अफीम बेचने के काम में वापस ले
जाना चाहते थे। प्रशांत महासागर के सभी द्वीपों में उनके अड्डे हैं। गैंग
काफी बड़ा है जिसमें बदमाश लोग शामिल हैं। कोई भी ऐसा काम नहीं है जिसे यह
लोग न कर सकते हों। मैं जान गया कि यह समस्या आसानी से नहीं सुलझेगी। लेकिन
विलम्ब उन्हें सह्य नहीं था। वह तत्काल निर्णय करके सुमित्रा को खींच ले
जाना चाहते थे। मैंने उन्हें रोका। पुलिस बुलाकर गिरफ्तार कराने का डर
दिखाया। तब वह लोग गए। लेकिन धमकी देते गए कि उन लोगों के हाथ से आज तक कोई
नहीं बचा।''
''उसके बाद?'
डॉक्टर ने कहा, ''रात को सावधान रहा। मैं जानता था कि वह लोग दल-बल के साथ
लौटकर आक्रमण करेंगे।''
भारती ने पूछा, ''भाग क्यों नहीं गए? पुलिस को खबर क्यों नहीं दी? डच सरकार
के पास क्या पुलिस नहीं है?''
डॉक्टर ने कहा, ''थाना-पुलिस में जाना मेरे लिए निरापद नहीं था। लेकिन वह
रात शांतिपूर्वक बीत गई । वहां समुद्र के किनारे-किनारे चलने वाली
व्यापारिक नावें मिलती हैं। अगले दिन एक नाव ठीक कर आया। लेकिन सुमित्रा को
बुखार आ गया। वह उठ न सकी। काफी रात बीते दरवाजा खुलने की आवाज से नींद टूट
गई। खिड़की से झांककर देखा, दरवाजा होटल वाले ने खोला है और दस आदमी होटल
में घुस रहे हैं। वह चाहते थे कि मेरे कमरे के दरवाजे को बाहर से बंद कर
दें और बगल की सीढ़ी से ऊपर सुमित्रा के कमरे में चले जाएं।''
भारती सांस रोककर बोली, ''उसके बाद?''
डॉक्टर बोले, ''मैंने दरवाजा खोलकर ऊपर जाने की सीढ़ी रोक ली।''
भारती का चेहरा पीला पड़ गया। बोली, ''उसके बाद?''
डॉक्टर ने कहा, ''उसके बाद की घटना अंधेरे में घटी, इसलिए ठीक-ठीक नहीं बता
सकूंगा। लेकिन अपनी बात मुझे मालूम है। एक गोली मेरे बाएं कंधे में लगी,
दूसरी घुटनों के बीच। सवेरा होते ही पुलिस आ गई। पहरा लग गया। गाड़ी आई और
पुलिस छह-सात आदमियों को उठा ले गई। होटल वालों ने गवाही दी कि डाकुओं ने
धावा बोला था। अंग्रेजी राज्य होता तो मामला कितनी दूर पहुंचता और क्या
होता, नहीं कहा जा सकता। लेकिन सेलिवरु के कानून-कायदे दूसरे ही हैं। मरे
हुए लोगों की जब शिनाख्त नहीं हुई तो शायद उन्हें कहीं गाड़-गूड़ दिया।''
''तुम्हारे हाथ से क्या इतने आदमी मारे गए?''
''मैं तो नाम मात्र था। वह तो अपने हाथों ही मारे गए समझो।''
भारती चुप बैठी रही।
डॉक्टर बोले, ''उसके बाद कुछ दूर नाव से, कुछ दूर घोड़ा गाड़ी से, और कुछ दूर
स्टीमर से हम लोग मेकड़ा शहर में पहुंच गए। वहां से नाम-धाम बदलकर एक चीनी
जहाज से केंटन चले गए। आगे शायद तुम्हें सुनने की इच्छा नहीं है। तुम्हें
केवल यही लग रहा है कि भैया के हाथों में भी मनुष्य का खून लगा हुआ है।''
भारती ने कहा, ''मुझे डेरे पर पहुंचा दीजिए भैया?''
''इसी समय जाओगी?''
''हां, मुझे पहुंचा आओ।''
''चलो'', यह कहकर उन्होंने फर्श से एक तख्ता हटाकर कोई चीज चुपके से
निकालकर अपनी जेब में रख ली। भारती समझ गई कि यह पिस्तौल है। पिस्तौल उसके
पास भी थी। सुमित्रा के आदेश के अनुसार वह उसे बाहर जाते समय अपने साथ रखती
थी। यह ज्ञान उसे आज पहली बार हुआ कि यह मनुष्यों को मार डालने का यंत्र
है।
नाव पर भारती ने धीरे-धीरे कहा, ''तुम जो भी क्यों न करो, तुम्हारे
अतिरिक्त मेरे लिए पृथ्वी पर आश्रय नहीं है, जब तक मेरे मन की अशांति नहीं
मिट जाती तुम तब तक मुझे छोड़कर नहीं जा सकते भैया। बोलो, जाओगे तो नहीं?'
डॉक्टर ने कहा, 'अच्छा, ऐसा ही होगा बहिन!''
नाव पर बैठी हुई भारती मन-ही-मन न जाने कितनी बातें सोचती रही। उसके मन पर
सबसे जबर्दस्त धक्का लगाया सुमित्रा के इतिहास ने। उसके प्रथम यौवन की
दुर्भाग्यपूर्ण अनोखी कहानी ने। सुमित्रा को मित्र समझने का दुस्साहस कोई
भी स्त्री नहीं कर सकती। भारती उसे प्यार नहीं कर सकी है। लेकिन सब बातों
में उसकी असामान्य श्रेष्ठता के कारण उसने अपने हृदय की भक्ति उसे अर्पित
की थी। लेकिन उस दिन, अपूर्व का अपराध कितना भी भयंकर क्यों न हो, नारी
होकर एकदम सहज भाव से उसकी हत्या करने का आदेश देने के कारण उसकी वह भक्ति
भीषण भय में परिवर्तित हो गई। भारती अपूर्व को कितना प्यार करती है यह बात
सुमित्रा से छिपी नहीं थी। प्रेम क्या है, यह बात भी उससे छिपी नहीं है फिर
भी एक नारी के प्रेमी को प्राण-दंड देने में नारी होकर भी उसे रत्ती भर
हिचक नहीं हुई। वेदना की आग से छाती के भीतर जब इस प्रकार की ज्वाला भक-भक
जलने लगती तब वह अपने को यह कहकर समझा लेती किकर्त्तव्य के प्रति इस तरह
निर्मम निष्ठा न होने पर पथ के दावेदारों की अध्यक्षा कौन बनती?''
नाव के घाट पर पहुंचते ही एक आदमी पेड़ के आड़ से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ।
उसे देखते ही भारती के पांव भय से कांप उठे।
डॉक्टर ने बड़ी नर्मी से कहा, ''यह तो अपना हीरा सिंह है। तुमको पहुंचा देने
के लिए खड़ा है। क्यों हीरा सिंह जी, सब ठीक है न?''
हीरा सिंह ने कहा, ''सब ठीक है।'
''क्या मैं भी चल सकता हूं?''
हीरा सिंह बोला, ''आपके जाने से क्या कोई रुकावट डाल सकता है?''
समझ में आ गया कि पुलिस वाले भारती के मकान पर निगाह रख रहे हैं। डॉक्टर का
जाना निरापद नहीं है।
भारती चुपके से बोली, ''मैं नहीं जाऊंगी भैया।''
''लेकिन तुम्हें भागकर छिपने की जरूरत नहीं भारती।''
''जरूरत पड़ने पर भाग सकूंगी। लेकिन इनके साथ नहीं जाऊंगी।''
डॉक्टर इस आपत्ति का कारण समझ गए। अपूर्व के मामले के विचार के दिन हीरा
सिंह ही उसे धोखे से ले आया था। कुछ सोचकर बोले, ''तुम तो जानती हो भारती,
कितना खराब है मुहल्ला। इतनी रात गए तुम्हारा अकेली जाना ठीक नहीं है। और
मैं.....।''
व्याकुल स्वर में भारती बोली, ''नहीं भैया, तुम मुझे पहुंचा दो। मैं पागल
नहीं हूं जो....?''
हाथ छोड़कर भारती को नाव से उतरते न देखकर डॉक्टर ने स्नेहिल स्वर में कहा,
''वहां तुम्हें वापस ले जाते हुए मुझे भी लज्जा मालूम होती है। क्या दूसरी
जगह चलोगी, जहां हमारे कवि जी रहते हैं? वह नदी के उस पार रहते हैं।''
भारती ने पूछा, ''कौन कवि भैया?''
''हमारे उस्ताद जी, बेहला बजाने वाले....!''
भारती ने प्रसन्न होकर कहा, ''वह क्या घर पर मिलेंगे? अगर अधिक शराब पी गए
होंगे तो कहीं बेहोश पड़े होंगे।''
डॉक्टर बोले, ''इसमें आश्चर्य नहीं। लेकिन मेरी आवाज सुनते ही उनका नशा
हिरन हो जाता है। नवतारा उनके पास ही रहती है। सम्भव है तुम्हें कुछ खिलवा
भी सकूं।''
भारती बोली, ''इस ढलती रात में मुझे खिलाने की चेष्टा मत करो, चलो, वहां
चलें। सवेरा होते ही लौट आएंगे।''
डॉक्टर नाव चलाने लगे तो हीरा सिंह अंधेरे में गुम हो गया।
भारती ने आश्चर्य से पूछा, ''भैया, क्या पुलिस इस आदमी पर संदेह नहीं
करती?''
डॉक्टर बोले, ''नहीं। यह तारघर का चपरासी है। लोगों के जरूरी तार उनके घर
पहुंचाया करता है। इसलिए दिन हो या रात, किसी भी समय उसका आना-जाना
संदेहजनक नहीं होता।''
ज्वार अभी-अभी शुरू हुआ है। धीरे-धीरे बड़ी सावधानी से लग्गी ठेलते हुए नाव
ले जाने के परिश्रम का अनुमान करके भारती ने जल्दी से कहा, ''वहां जाने की
जरूरत नहीं। चलिए आपके घर लौट चलें। ज्वार के खिंचाव में आधा घंटा भी नहीं
लगेगा।''
डॉक्टर ने कहा, 'केवल इसी काम से नहीं भारती, एक और विशेष काम से उससे
मिलना चाहता हूं।''
भारती व्यंग्य भरी हंसी के साथ बोली, ''उनसे किसी आदमी को कोई काम हो सकता
है, इस पर मुझे विश्वास नहीं होता।''
डॉक्टर कहने लगे, ''तुम उसे नहीं जानती भारती, उस जैसा सच्चा गुणवान आदमी
तुम्हें कहीं नहीं मिल सकता। अपने टूटे बहले की ही पूंजी के बल पर कोई ऐसा
स्थान नहीं जहां वह न पहुंचा हो। इसके अतिरिक्त वह बहुत बड़ा विद्वान है।
किस पुस्तक में कहां क्या लिखा है-बताने वाला मेरे परिचितों में उस जैसा
दूसरा कोई भी नहीं है। उसे मैं वास्तव में प्यार करता हूं।''
भारती मन-ही-मन अप्रतिभ होकर बोली, ''तब तुम उसकी शराब पीने की आदत छुड़ाने
की कोशिश क्यों नहीं करते?''
डॉक्टर ने कहा, ''मैं किसी से कुछ छुड़वाने की कोशिश नहीं करता भारती। वह
कवि हैं। उन लोगों की जाति ही अलग होती है। उनके भले-बुरे काम हम लोगों से
मेल नहीं खाते, लेकिन इस कारण संसार के भले-बुरे कामों के लिए बने कानून
उन्हें क्षमा नहीं करते। उनके गुणों का तो सभी लोग मिलकर उपभोग करते हैं,
लेकिन अपने दोषों के लिए वह अकेले ही दंड भोगते हैं। इसलिए कभी-कभी जब वह
बेचारा बहुत कष्ट पाता है, जब ऐसा व्यक्ति जो उसके दु:ख का मन-ही-मन सहयोगी
होता है, वह मैं हूं।''
भारती बोली, ''तुम सभी के लिए दु:ख अनुभव करते हो भैया। तुम्हारा मन तो
स्त्रियों के मन से भी कोमल है। लेकिन अपने उस गुणवान पर विश्वास कैसे करते
हो? शराब के नशे में वह सब कुछ प्रकट भी तो कर सकते हैं?''
डॉक्टर बोले, ''केवल इतना ज्ञान ही तो उसमें बचा है। फिर उसकी बातों पर कोई
अधिक विश्वास भी तो नहीं करता?''
भारती ने पूछा, ''उनका नाम क्या है भैया?''
डॉक्टर ने कहा, ''अतुल, सुरेन, धीरेन-जब जो नाम मन में आ जाए। -वास्तविक
नाम है-शशिपद भौमिक।''
''शायद वह नवतारा के कहने पर चलते हैं?
यह कहकर डॉक्टर ने नाव घूमा दी। पानी के तेज बहाव के कारण छोटी-सी नाव बहुत
तेजी से चलने लगी और देखते-ही-देखते उस पार जा लगी। भारती का हाथ पकड़कर
डॉक्टर नाव से उतर पडे। आगे बढ़ने पर एक तंग रास्ता मिला। उसके आस-पास पानी
से भरे छोटे-बड़े गङ्ढे थे। उनके बीच से वह रास्ता अंधेरे में चला गया था।
भारती ने कहा, ''भैया, फिर वैसी ही भयानक जगह में ले आए। बाघ-भालुओं की तरह
ऐसे स्थान के अतिरिक्त तुम लोग और कहीं भी रहना नहीं जानते? और किसी से भले
ही न डरो, सांपों से तो डरो।''
डॉक्टर हंसकर बोला, ''सांप तो विलायत से नहीं आए बहिन। उनमें धर्म ज्ञान
है। अपराध न करने वाले को वह नहीं काटते।''
यह सुनकर भारती को एक दिन की बात याद आ गई। उस दिन उनके ऐसे ही हास्य पूर्ण
स्वर में यूरोप के विरुध्द कितनी असीम घृणा प्रकट हो गई थी। उन्होंने फिर
कहा, ''बाघ-भालुओं की बात कहती हो बहिन। मैं अक्सर ही सोचा करता हूं कि
इन्सान न रहकर अगर यहां बाघ-भालू ही रहते तो सम्भव है यह लोग शिकार करने
विलायत से यहां आया करते। और रात-दिन खून चूसने के लिए यहां चिपककर पड़े
रहते।''
भारती मौन रही। सारी जाति के विरुध्द इतना बड़ा विद्वेष उसे व्यथित कर देता
था। मन-ही-मन कह उठती थी-यह कभी भी सच नहीं हो सकता। ऐसा हो ही नहीं सकता।
सहसा डॉक्टर ठिठककर खड़े हो गए, बोले, ''हमारे उस्ताद जी जाग रहे हैं, और
होश में हैं। ऐसा बेहला तुमने कभी नहीं सुना होगा भारती!''
कुछ आगे बढ़कर भारती रुक गई। उसकी उत्सुकता निरंतर बढ़ती चली जा रही थी। उसका
न कोई आदि था न अंत। इस संसार में उसकी तुलना नहीं हो सकती। दो मिनट के लिए
मानो भारती को होश ही नहीं रहा।
डॉक्टर ने उसके हाथों से जरा-सा दबाकर कहा, ''चलो।''
भारती बोली, ''चलो। मैंने ऐसा कभी नहीं सुना था।''
डॉक्टर बोले, ''मैंने भी इससे अच्छा कभी नहीं सुना। लेकिन इस पागल के हाथों
में पड़कर उस बेचारे बेहला की दुर्दशा का अंत नहीं है। मैंने ही शायद दसियों
बार उसका उध्दार किया होगा। सुना है, अपूर्व के पास पांच रुपए में गिरवी
रखा हुआ था।''
भारती बोली, ''मैं उनके नाम रुपए भेज दूंगी।''
पेड़ों की ओट में एक दो मंजिला मकान है। नीचे की मंजिल पर कीचड़ ज्वार के
पानी और जंगली पौधों ने अधिकार कर रखा है। सामने काठ की एक सीढ़ी है। और उसी
के सबसे ऊंचे स्थान पर एक तोरण-सा बना हुआ है। उसी पर एक बहुत बड़ी रंगीन
चीनी लालटेन लटकी है जो झूलती दिखाई दे रही है। उसकी रोशनी में स्पष्ट
दिखाई दिया, उसके ऊपर बड़े-बड़े काले अंग्रेजी अक्षरों में लिखा हुआ है-
''शशितारा लॉज।''
भारती ने कहा, ''मकान का नाम रखा है 'शशितारा लॉज', लॉज तो समझ गई। लेकिन
शशितारा का क्या अर्थ है?''
डॉक्टर मुस्कराकर बोले, ''शायद शशिपद का शशि और नवतारा का तारा मिलकर
शशितारा बन गया है।''
भारती बोली, ''यह अन्याय है। अन्याय को तुम प्रश्रय क्यों देते हो?''
डॉक्टर हंसकर बोले, ''तुम क्या अपने भैया को सबसे शक्तिमान समझती हो? कोई
अपने लॉज का नाम शशितारा रखे या कोई पैलेस का नाम अपूर्व भारती रखे-मैं
कैसे रोक सकूंगा।''
भारती क्रोधित होकर बोली, ''नहीं भैया, इन सब गंदे कामों के लिए उन्हें मना
कर दो। वरना मैं उनके घर नहीं जाऊंगी।''
डॉक्टर बोले, ''सुना है, दोनों का विवाह होने वाला है। भाग्य प्रसन्न हो तो
मरने में कितनी देर लगती है बहिन! सुना है पंद्रह दिन हुए वह मर गया।''
दु:खी होते हुए भी भारती हंस पड़ी, ''शायद यह खबर झूठी है। अगर सच भी है तो
कम-से-कम एक वर्ष तक तो उन्हें रुकना ही चाहिए। नहीं तो यह काम बहुत ही
अशोभनीय होगा।''
डॉक्टर बोले, ''अच्छी बात है, कहकर देखूंगा। लेकिन रुकने से अशोभनीय दिखाई
देगा या न रुकने से-यह सोचने की बात है।''
इस संकेत से भारती लज्जित होकर चुप हो गई। सीढ़ी पर चढ़ते हुए डॉक्टर बोले,
''इस पागल के लिए ही मुझे कष्ट होता है। सुना है, उस स्त्री को बहुत प्यार
करता है। लेकिन संसार के भले-बुरे की फरमाइश, मित्रों की अभिरुचि- यह सब
बातें अत्यंत तुच्छ हैं भारती। मैं तो केवल इतनी ही कामना करता हूं कि उसके
प्रेम में यदि सच्चाई हो तो यह सच्चाई ही उसका उध्दार करे।''
भारती ने चौंककर पूछा, ''संसार में क्या ऐसा भी होता है भैया।''
तभी वह दोनों बंद दरवाजे के सामने पहुंचकर रुक गए।
बेहला बजना बंद हो गया। थोड़ी देर बाद दरवाजा खोलकर शशिपद बाहर आए तो सहज ही
डॉक्टर को पहचान लिया। फिर भारती को पहचानते ही एकाएक उछलकर बोले,
''आप?.... भारती? आइए, आइए।''
यह कहकर उन्हें अंदर ले गए। उनके आनंद से चमकते चेहरे की कपट रहित
अभ्यर्थना से, उनके अकृत्रिम उत्साह भरे स्वागत से भारती का सारा क्रोध हवा
हो गया। शशि ने बिस्तर के किसी कोने से एक बड़ा-सा लिफाफा निकाल भारती के
हाथ में देकर कहा, ''खोलकर पढ़िए। परसों दस हजार रुपए का ड्राफ्ट आ रहा
है-नाट ए पाई लैस-मैं कहा करता था कि मैं जुआरी हूं, झूठा हूं, शराबी हूं।
कैसे हो गया यह? दस हजार! नाट ए पाई लैस।''
इस दस हजार रुपए के ड्राफ्ट के संबंध में एक पुराना इतिहास है जिसे यहा बता
देना जरूरी है। कोई इस पर विश्वास नहीं करता था। सब मजाक ही उड़ाते रहते थे।
उस्ताद जी का मूलधन यही था। इसी का उल्लेख करके एकदम संकोचहीन होकर वह
लोगों से रुपया उधार मांगा करता था और जल्दी ही ब्याज-मूलधन पूरा चुका देने
की सौगंध भी खा लेता था। पांच-सात वर्ष पहले उसके धनवान नाना की जब मृत्यु
हुई तो उसे अपने ममेरे भाइयों के साथ सम्पत्ति का एक हिस्सा मिला था। उसे
बेचने की बात एक महीने पहले हो गई थी। कलकत्ते के एक एटॉर्नी ने लिखा था कि
रुपए दो-एक दिन में मिल जाएंगे।
पत्र समाप्त करके डॉक्टर ने पूछा, ''बीस हजार रुपए की बात चली थी न शशि?''
शशि बोले, ''दस हजार ही क्या कम हैं? मेरे ममेरे भाई हैं, सम्पत्ति तो अपने
ही घर में ही रही।''
डॉक्टर ने भारती से कहा, ''इसी तरह का एक पागल ममेरा भाई हम लोगों का भी
कोई होता...''कहकर वह हंसने लगे।
शशि को प्रसन्नता नहीं हुई। प्राणपण से यही सिध्द करने लगा कि सम्पत्ति को
बेचे बिना ही इतना रुपया मिल गया। इसलिए कि उसके भाई के समान आदर्श पुरुष
संसार में कोई नहीं है।''
भारती मुस्कराकर बोली, ''ठीक है शशि बाबू! तुम्हारे उन भैया को देखे बिना
ही उनके देव तुल्य चरित्र को मैंने स्वीकार कर लिया।''
शशि बोले, ''लेकिन कल मुझे और दस रुपए देने होंगे, तब उस दिन के दस, कल के
दस और अपूर्व बाबू के साढे आठ-कुल मिलाकर तीस रुपए परसों-तरसों चुका दूंगा।
देने ही पडेंग़े।''
भारती हंसने लगी। शशि कहने लगा, ''ड्राफ्ट आते ही बैंक में जमा कर दूंगा।
जुआरी, शराबी, स्पेथिस्ट- जो भी जी में आता रहा है लोग कहते रहे हैं। लेकिन
इस बार दिखा दूंगा। केवल ब्याज से ही गृहस्थी का खर्च चलाऊंगा। उसमें से भी
बच जाएगा। डाकघर में एकाउंट खोलना पड़ेगा। घर में रखना ठीक नहीं, पांच-छह
साल में ही एक मकान खरीद लूंगा। खरीदना तो पड़ेगा ही, गृहस्थी गर्दन पर आ
पड़ी है।''
डॉक्टर भारती के मुंह की ओर ताकते हुए हंसने लगे। लेकिन वह गम्भीर मुंह किए
दूसरी ओर देखती रही।
शशि ने कहा, ''मैंने शराब छोड़ दी है। शायद आपने सुना हो।''
डॉक्टर बोले, ''नहीं।''
''एकदम। नवतारा ने प्रतिज्ञा करा ली।''
डॉक्टर बोले, ''शशि, जान पड़ता है अब शीघ्र यहां से हिल नहीं सकोगे?''
शशि बोले, ''यह बात कैसे हो सकती है? अब मैं आप लोगों के साथ संबंध न रख
पाऊंगा। लाइफ को अब रिस्क में नहीं डाला जा सकता।''
डॉक्टर ने भारती की ओर मुड़कर मुस्कराते हुए कहा, ''हमारे उस्ताद जी में और
चाहे जो भी दोष हो-लेकिन आंखों का लिहाज इनमें है, ऐसा अपवाद तो बड़े-से-बड़ा
शत्रु भी नहीं लगा सकता। यदि सीख सको तो यह विद्या तुम इनसे सीख लो।''
प्रत्युत्तर में शशि का पक्ष लेकर भारती ने बहुत ही भली लड़की की तरह कहा,
''लेकिन झूठी आशा देने की अपेक्षा स्पष्ट कह देना ही अच्छा है। यह बात
मुझसे नहीं होती। अगर शशि बाबू से मैं यह विद्या सीख पाती तो आज मुझे
छुट्टी मिल जाती भैया।''
उसके कंठ स्वर का अंतिम अंश भारी-सा हो गया। शशि ने ध्यान नहीं दिया। ध्यान
देने पर उसका तात्पर्य शायद समझ भी नहीं पाता। लेकिन इसमें निहित अर्थ जिसे
समझना चाहिए था। उन्हें समझने में देर नहीं लगी।
दो मिनट तक सभी मौन रहे।
डॉक्टर ने बात शुरू की। बोले, ''शशि, दो दिन के भीतर ही मैं जा रहा हूं।
पैदल के रास्ते से। पैसिफिक के सारे आइलैंड एक बार फिर घूम आऊं। कब
लौटूंगा-नहीं जानता। लौटूंगा भी या नहीं, यह कौन जानता है। लेकिन यदि कभी
लौटूं शशि तो तुम्हारे घर में शायद मुझे स्थान नहीं मिलेगा।''
शशि पल भर उनके मुंह की ओर टकटकी लगाकर देखता रहा। फिर बोला उसका चेहरा और
स्वर आश्चर्यजनक रूप से बदल गया। गर्दन हिलाकर बोला, ''मेरे घर पर आपको सदा
स्थान मिलता रहेगा।''
डॉक्टर ने कहा, ''यह क्या कहते हो शशि? मुझे स्थान देने से बड़ी विपत्ति
मनुष्य के लिए और क्या हो सकती है?''
शशि ने कहा, ''यह तो मैं जानता हूं कि मुझे जेल की सजा मिलेगी। मिलने दो।''
कहकर वह चुप हो गया। फिर पलभर बाद भारती को सम्बोधित करके धीरे-धीरे कहने
लगा, ''मेरा ऐसा मित्र और कोई नहीं है। सन् 1911 में जापान के टोकियो शहर
में बम गिरने के कारण जब कोटकू के समूचे गिरोह को फांसी की सजा मिली थी तब
डॉक्टर उनके अखबार के उपसम्पादक थे। मकान के सामने के हिस्से को पुलिस ने
घेर लिया था। मैं रोने लगा तो इन्होंने कहा, डरने से काम नहीं चलेगा शशि,
हम लोगों को भाग जाना चाहिए। पीछे की खिड़की से रस्सी लटकाकर इन्होंने मुझे
उतार दिया फिर स्वयं उतर गए-ओह, याद है आपको डॉक्टर साहब? यह कहकर वह अतीत
की यादों से रोमांचित हो उठा।''
डॉक्टर ने हंसकर कहा, ''याद तो जरूर है।''
शशि ने कहा, ''याद रहने की बात ही है। आप सहायता न करते तो उस दिन हम लोगों
की जीवन-लीला समाप्त हो जाती। शंघाई बोट में फिर कदम न रखना पड़ता। वहां
जैसे नाटे लुच्चे-बदमाश भारत में कहीं भी नहीं मिलेंगे। मैं तो आप लोगों के
बमबाज दस्ते में शामिल नहीं था। बस डेरे पर रहता था। बेहला सिखाया करता था।
लेकिन इस बात को क्या कोई सुनने वाला था? शैतानों के न तो कानून होते हैं न
अदालत। पकड़ पाते तो मुझे जरूर जिबह कर डालते। आज जो ये सब बातें कह रहा
हूं, केवल आपकी उसी कृपा से। ऐसा मित्र संसार में दूसरा नहीं है। ऐसी दया
भी संसार में कहीं नहीं देखी।''
भारती की आंखों में आंसू भर आए। बोली, ''अपनी पूरी कहानी किसी दिन हम लोगों
को सुना दो न भैया। भगवान ने तुमको इतनी बुध्दि दी थी तो क्या केवल इस
अमूल्य प्राण का मूल्य समझने की बुध्दि देना ही भूल गए? जापानियों के देश
में ही अब फिर जाना चाहते हो?''
शशि ने कहा, ''मैं ठीक यही बात कहता हूं भारती। कहता हूं, इतनी बड़ी
स्वार्थी, लोभी और नीच जाति से कुछ आशा मत करो। वह लोग किसी भी दिन आपकी
कोई सहायता नहीं कर सकते।''
डॉक्टर ने हंसते हुए कहा, ''कमर में रस्सी बांधने की घटना भी शशि भूल नहीं
सका। न इस जीवन में वह जापानियों को ही क्षमा कर सका। लेकिन इतना ही उनका
सब कुछ नहीं है भारती। इतनी आश्चर्यजनक जाति भी संसार में और कोई नहीं है।
केवल आज की बात नहीं है। प्रथम दृष्टि में ही जिस जाति ने यह कानून बना
दिया कि जब तक सूर्य-चंद्र रहेंगे। उस राज्य में ईसाइयों का प्रवेश नहीं
होगा। और अगर प्रवेश करें तो उन्हें कठोर दंड दिया जाए। ऐसी जाति भले ही
कुछ भी क्यों न करे हमारे लिए अभिनंदनीय है।''
कहने वाले की दोनों आंखें पलभर में प्रदीप्त दीपशिखा की भांति दमक उठीं। उस
वज्र जैसी कठोर-भयंकर दृष्टि के सामने शशि उद्भ्रांत-सा हो उठा। भयभीत होकर
बार-बार सिर हिलाते हुए बोला, ''यह तो ठीक है। बिल्कुल ठीक है।''
भारती के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। उसका हृदय इस अभूतपूर्व आवेग से
थर-थर कांप उठा। उसे लगा कि इस गहरी आधी रात में आसन्न विदाई से ठीक पहले
पलभर के लिए उसने उस मनुष्य का स्वरूप देख लिया।
डॉक्टर ने अपनी छाती की ओर उंगली दिखाकर कहा, ''तुम क्या कह रही थी भारती
कि इस जीवन का मूल्य समझने योग्य बुध्दि भगवान ने मुझे नहीं दी है? झूठ है।
सुनोगी पूरा सारा इतिहास? केंटन के एक गुप्त सभा में सान्याल सेन ने मुझसे
कहा था....।''
सहसा भारती भयभीत होकर बोल उठी, ''लगता है कुछ लोग सीढ़ी से ऊपर चढ़ रहे
हैं।''
डॉक्टर ने धीरे से पिस्तौल जेब से निकालकर कहा, ''इस अंधकार में मुझे बांध
पाने वाला आदमी इस संसार में नहीं है।''
शशि ने कहा, ''आज नवतारा आदि आने वाली थी, शायद....।''
डॉक्टर हंसकर बोले, ''शायद वह ही है। बहुत हलके कदम हैं। लेकिन उनके साथ
'आदि' कौन लोग हैं?
शशि ने कहा, आपको मालूम नहीं? हम लोगों की प्रेसीडेंट साहिबा आ रही हैं।
शायद....।''
भारती ने विस्मित होकर पूछा, ''कौन प्रेसीडेंट? सुमित्रा जीजी?''
शशि ने सिर हिलाकर कहा, ''हां।''
यह कहकर वह तेजी से कदम बढ़ाकर द्वार खोलने लगा।
भारती डॉक्टर के मुंह की ओर ताकती रही। उसके मन में यह बात आ गई कि वह अपने
यहां आने का कारण समझ चुकी है। आज की रात बेकार नहीं जाएगी। सम्भावित
विघ्न-बाधाओं के बीच पथ के दावेदारों की अंतिम मीमांसा आज होनी आवश्यक है।
हो सकता है-अय्यर हो, तलवलकर हो। और कौन जाने निरापद समझकर ब्रजेन्द्र ने
ही शहर छोड़कर इस जंगल में आश्रय लिया हो। डॉक्टर ने अपने स्वभाव और नियम के
अनुसार पिस्तौल छिपाया नहीं। उसे बाएं हाथ में उसी तरह पकडे रहे। उनके शांत
चेहरे से कोई भी बात जानी नहीं जा सकी। लेकिन भारती का चेहरा एकदम पीला पड़
गया था।
भाग -1
/ 2 /
3 /
4 /
5 /
6 /
7 /
8 /
9 /
10
|