रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
मैं क्यों लिखता हूं?
मैं क्यों लिखता हूं? मुझे लगता है कि एक लेखक के रूप में सबसे मुश्किल
सवाल शायद यही है. मैंने छोटे बडे बहुत से लेखकों को इस सवाल का उत्तर देते
पढा-सुना है.कई बार उत्तरों की साफगोई या पारदर्शिता से मैं चमत्कृत हुआ
हूं और बाज वक्त उनमें छिपी लेखकीय कौशल से भरपूर हिपोक्रेसी ने मुझे निराश
भी किया है. पर मुझे लगता है कि इस सवाल से हर लेखक को जीवन में कभी न कभी
दो चार होना ही पडता है.
मैं क्यों लिखता हूं से मैं एक दूसरा प्रश्न साहित्य क्यों? जोडक़र बात करना
चाहता हूं . इन दोनो प्रश्नो के जरिये मैं अपनी रचना प्रक्रिया और मनुष्य
के जीवन में साहित्य की जरूरत और प्रासंगिकता को रेखांकित करने की कोशिश
करूंगा. साहित्य की जरूरत और लिखने की मजबूरी -दोनो में जबर्दस्त संबंध है.
साहित्य क्यों? के बहाने उन बहसों का जिक्र किया जा सकता है जो समय-समय पर
साहित्य की दुनियां में होती रही है और जिनमें कभी भी कोई अंतिम फैसला नहीं
सुनाया जा सका है और जो आज भी जारी है . साहित्य क्या स्वांतः सुखाय है या
उसके रचयिता के सामने पाठक अथवा श्रोता के रुप में एक बडा समूह है जिनको
ध्यान में रखकर वह रचता है? साहित्य का मुख्य उद्देश्य क्या लोक रंजन ही है
अथवा उसके कुछ वृहत्तर सामाजिक सरोकार भी हैं? आजकल साहित्य की स्वायत्तता
की बातें की जा रहीं हैं , शब्दों के बीच के शून्य का जिक्र हो रहा है ,
साहित्य का एक अलग लोकत्रंत्र होता है कुछ लोग इसकी घोषणा कर रहें हैं. ऐसे
समय में जब विचारधारा के अंत की बातें की जा रहीं हैं ,तब क्या साहित्य और
विचार के बीच कोई रिश्ता हो सकता है? बहुत सारे प्रश्न हैं जिनपर लम्बे समय
से बहस चल रही है.
मेरा लिखना मेरे बचपन से जुडा है. मेरा बचपन काफी हद तक सुरक्षित था. एक
खास तरह की मध्यवर्गीय सुरक्षा थी जिसमें काफी हद तक शिक्षा, स्वास्थ्य,
भोजन, कपडा के बारे में चिंता करने की जरुरत नहीं थी. पिता सरकारी नौकर थे
और हर दूसरे तीसरे साल उनका तबादला होता रहता था. इसमें दिक्कत यह थी कि हर
तबादले के साथ स्कूल बदल जाते थे और उनके साथ संगी साथी भी बदल जाते.
पुरानी जगह छूटने पर दुख होता. सामान ट्रक पर लद रहा होता और हम लोग घर के
एक-एक कमरे में जाते, पेड पौधों से विदा लेते .बाहर विदा देने खडे दोस्तों
से खतो किताबत और फिर मिलने के वादे किये जाते. छूट रहे शहर में बार-बार
आने के इरादों के साथ हम अलग होते. जल्दी ही नये शहर में मन रम जाता, नये
स्कूल और नयी पाठय पुस्तकें लुभाने लगते और नये दोस्त बन जाते.पुरानो से
खतो किताबत कुछ दिनों तक जोर शोर से चलती और फिर अनियमित होते-होते कब खत्म
हो जाती पता भी नहीं चलता. ज्यादातर छूटे शहरों में फिर लौटना कभी नहीं
हुआ.
इस बचपन मे किताबों का खूब दखल था. चार भाई और एक बहन में दो यानि मैं और
विकास किताबों के शौकीन थे.उन दिनों छोटे शहरों में भी अद्भुत पुस्तकालय
हुआ करते थे .खास तौर से बहराइच का महाराज सिंह पुस्तकालय और आजमगढ का
म्यूनिसपल पुस्तकालय याद आ रहा है. बहराइच में हम दर्जा नौ और दस के छात्र
थे. रोज का औसत एक किताब का रहता . शाम को नियमित पुस्तकालय जाते और घर या
स्कूल में पाठय पुस्तकों के बीच छिपाकर पढी ग़यी किताबें वापस करते. वह
धर्मयुग और हिन्दुस्तान का दौर था. जिस दिन इनके आने का दिन होता हम लोग
स्कूल से दौडते हुये लौटते और कोशिश करते कि पत्रिका पहले हमारे हाथ लगे .
एक पढता रहता और दूसरा ललचाई ईष्यालू निगाहों से उसे ताकता और आस पास
मंडराता. तब किताबों की दुनियां में सरकारी खरीद और लुटेरे प्रकाशकों का भी
प्रवेश नहीं हुआ था. किताबें सस्ती थीं. हिन्द पॉकेट बुक्स से विश्व के
क्लासिक एक रुपये में छपे थे. उनकी घरेलू लाइब्रेरी योजना हर महीने घर बैठे
पाँच-छः अद्भुत पुस्तकें उपलब्ध करा देतीं थी. इन सबने पढने का और खूब पढने
का मौका दिया..इनमें दुनियाँ भर का श्रेष्ठ साहित्य तो था ही साथ में इब्ने
शफी बी.ए. और गुलशन नन्दा का कचरा भी था जिसमें कई बार भांग के पकौडे जैसी
चौसठ पेजी नाम से मशहूर किताबें भी होतीं.
पर इस बचपन में कुछ ऐसा भी था जिसने मुझे अन्तर्मुखी बनाया. अन्तर्मुखी इस
अर्थ में नहीं कि बाहरी दुनियां से संवाद करने की इच्छा नहीं थी . इस अर्थ
में कि इस संवाद के लिये आत्मविश्वास नहीं बचा था. बाहरी दुनियां से संपर्क
होते ही आवाज लडख़डाने लगती या नजरें झुक जातीं. आत्मविश्वास के इस क्षरण के
पीछे बहुत से कारण थे. उनपर कभी फिर विस्तार से लिखूंगा.
बाहर से भीतर की यात्रा में अपने को अभिव्यक्त करने का सबसे सशक्त माध्यम
लेखन हो सकता था. इसमें भीतर उमड घुमड रहे को बाहर निकालने की सुविधा तो थी
ही अपने को दूसरों से अलग दिखाने का संतोष भी था. लिखने की शुरूआत अक्सर
कविता से होती है. मेरी भी उसी से हुयी. बडा लेखक बनने के लिये उपनाम की भी
जरूरत होती है शायद इस तरह का भाव था, इसीलिये एक उपनाम भी चुना गया और कुछ
दिनों तक विभूति नीरद के नाम से लिखता रहा.जल्दी ही दो चीजें साफ हो गयीं.
एक तो कविता अपने बस की नहीं थी और दूसरा उपनाम लेखक बनने के लिये जरूरी
नहीं है. अपने शुरूआती लेखन को अगर एक वाक्य में परिभाषित करना हो तो मैं
यही कहूंगा कि यह एक तरह से अपने को दूसरे से विशिष्ट और अलग साबित करने का
प्रयास था जिससे उस हीनता बोध से बाहर निकला जा सके जो पूरे अस्तित्व को
बुरी तरह जकडे हुये था.
अन्दर की बेचैनी ने मुझे बाहर बहुत भटकाया. यह भटकन सम्बन्धों से लेकर देश
दुनियां को समझने की जिज्ञासा तक फैली थी. इन सब पर भी फिर कभी विस्तार से.
आस पास जो कुछ घट रहा था , खास तौर से देश और दुनियां में, उसे समझने और
थोडा बहुत हस्तक्षेप करने की चाहत आर. एस.एस., लोहिया से होते हुये मार्क्स
तक ले गयी.
बनारस हिन्दू विश्वविद्याालय में बी.ए. करते हुये कवि गोरख पाण्डे से हुयी
दोस्ती ने जीवन को समझने में सबसे ज्यादा मदद की और उनसे मिली शुरूआती
मार्क्सवादी समझ ने आस्था या श्रद्वा के मुकाबले तर्क और विवेक को तरजीह
देना सिखाया.
मुझे मार्क्सवाद ने भी बहुत शक्ति दी है . मार्क्सवाद ने मुझे आशावादी और
नास्तिक बनाया .सोच समझकर नास्तिक बनने से सबसे बडा लाभ यह हुआ कि मैंने
कभी भी अपनी दिक्कतों का हल ईश्वर में नहीं ढूंढा.कश्मीर में दो साल की
तैनाती के दौरान ऐसे मौके कई बार आये जब मुझे लगा कि अब घर लौट पाना
मुश्किल है ,तब भी मुझे ईश्वर याद नहीं आया. आशावाद ने मुझमें मनुष्य की
बुनियादी अच्छाइयों में आस्था जगायी. मैं मार्क्सवाद का बहुत ॠणी हूँ. यह
मार्क्सवाद ही था जिसके कारण बडे _ बडे साम्प्रदायिक दंगों के दौरान भी मैं
हिन्दू होने से बचा रहा.मेरे लिए हिन्दू और मुस्लिम बलवाई एक-जैसे रहे.
मार्क्सवाद नें ही वह आंतरिक शक्ति दी जिसके बल पर मैं सरकारी नौकरी करते
हुये भी हिन्दुत्व के खिलाफ खुलकर बोलता रहा. मजेदार बात यह है कि मुझे
व्यक्तिगत रूप से न जानने वाले आम तौर से यह मान लेतें हैं कि मैं रिटायर
हो चुका हूं. उन्हें इसपर जल्दी यकीन नहीं आता कि नौकरी में रहते हुये कैसे
एक आदमी राज्य के फासीवादी चरित्र की मुखालफत कर सकता है.
साहित्य की दुनियां में एक पुलिस वाले की दखलअंदाजी अमूमन अनाधिकृत मानी
जाती है .जैसे ही सामने वाले को यह पता चलता है कि आप पुलिस में हैं वह
आश्चर्य से मुहँ बा देता है और पहली प्रतिकि्रया यह होती है कि अरे आप
पुलिस में रहते हुए लिखने पढने का काम कैसे कर लेतें हैं ? कुछ ईष्यालू
शुभचिंतक इसे कुछ इस तरह कहतें हैं कि भइये अपने इलाके में ही हाथ पैर
मारो, लिखना , लिखाना तुम्हारे बस का नहीं है.जादुई यथार्थ का 'कापीराइट'
अपने नाम लिखवाये हुए एक कथाकार ने मुझे लताडते हुए एक बार यह दुख भी प्रकट
किया था कि सारे असफल पुलिस अधिकारी सफल लेखक बनने की कोशिश करतें हैं .
उन्होंने मुझे कुछ सफल पुलिस अधिकारियों- जैसा बनने की सलाह भी दी थी .यह
बात दीगर है कि उनकी सूची के कई अधिकारी ऐसे थे जिन्हें ज्यादातर पुलिसवाले
ही नहीं जानते थे और सूची में उनका नाम सिर्फ इसलिए था कि वे ऐसी जगहों पर
थे कि जहाँ से इस कथाकार का कुछ भला कर सकते थे.
दरअसल हिंदी समाज की दिक्कत यह है कि सालों -साल यह समाज एक खास ग्रंथि से
पीडित रहा है .लोग मानतें रहें हैं कि हिंदी में लेखन या तो अध्यापक करेगा
या पत्रकार. थोडे बहुत फ्रीलांसर दिखतें हैं जो सिर्फ लिखकर जीविका चलातें
हैं पर कोई किरानी, व्यापारी, डॉक्टर , वकील, इंजीनियर, आर्किटेक्ट,
पुलिसवाला ,दूसरे सरकारी पेशों से जुडा व्यक्ति या ऐसे ही किसी बाहरी समाज
का सदस्य अगर लेखन में दिलचस्पी दिखाने लगे, तो फौरन हाहाकार मच जाता है.
मुदर्रिस शोर मचाने लगतें हैं यह कव्वा कहाँ से हंसों की पांत में आ गया
,लेकिन सारी अच्छी बातों की तरह यहाँ भी हुआ कुछ इस तरह से है कि सारे
प्रयासों के बावजूद लेखन के हाशिये पर ढकेले गये लोग कूद- फांद कर केन्द्र
में आ गयें हैं. छोटे -बडे और तरह- तरह के पेशों से जुडे लोग रचनात्मक लेखन
से जुड ग़यें हैं.इनका अनुभव संसार भिन्न है , इनके जरिया माश में प्रयुक्त
होने वाली भाषा भिन्न है और ये शिल्प के स्तर पर रचनात्मकता की नयी जमीनें
तोड रहें हैं .
पुलिस के पेशे से जुडे तमाम लोग भी रचनात्मक लेखन में आये और अपराध,
राजनीति तंत्र, भ्रष्टाचार या संवेदनशीलता की दुनियाँ से हिन्दी पाठकों का
ज्यादा प्रामाणिक साक्षात्कार हुआ. यह मानना कि पुलिस की जिंदगी रचनात्मकता
विरोधी है और इसीलिए किसी पुलिसकर्मी का साहित्य सृजन कोई अजूबा है , सही
नहीं है. इस तर्क से तो देश में किसी सरकारी नौकर का रचनात्मक लेखन से
जुडना अजूबा होना चाहिए क्योंकि हमारी पूरी नौकरशाही ही संवेदनहीन और
रचनात्मकता विरोधी है. यहाँ सब- कुछ घिसी-पिटी लकीर पर चलता है.
पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह की राजनीतिक निरंकुशता और लंपटता बढी है,
उसमें नौकरशाह के लिये कुछ नया करने के अवसर और भी कम हो गयें हैं. पूरा
सरकारी तंत्र ही अक्षमता ,भ्रष्ट आचरण , चापलूसी ,असंवेदनशीलता और
निरंकुशता में लिप्त हो गया है. मैं नहीं मानता कि सरकार के दूसरे अंग इस
मामले में पुलिस से कुछ भिन्न हैं.अब अगर इसी पूरी गलाजत में कोई अपनी
रचनात्मकता बचाये रख पाता है तो यह उसकी अपनी व्यक्तिगत उपलब्धि है.
एक पुलिसकर्मी का जीवन जीते हुए साहित्य से जुडे होने पर मनुष्य बने रहने
में मदद मिलती है .मैं मानता हूँ पुलिस में जानवर बनने की संभावना बहुत है
- किसी भी दूसरी सरकारी नौकरी के मुकाबले बहुत ज्यादा .
डी -ह्यूंमिनाइजेशन की यह प्रकि्रया इतनी खामोशी से होती है कि आपको पता भी
नहीं चलता और आप धीरे-धीरे मनुष्य से पशु में परिवर्तित होते जातें हैं. इस
प्रक्रिया से लडने का एक ही उपाय है- आपको रचनात्मकता से जुडे रहना होगा.
जरूरी नहीं है कि यह क्षेत्र साहित्य ही हो. यह क्षेत्र संगीत,पेंटिंग ,
फोटोग्राफी, पर्यटन - कुछ भी हो सकता है. यही जुडाव आपको मनुष्य बने रहने
में मदद करता है .
पुलिस की नौकरी ने मुझे असंख्य पात्र दिये. मेरे सारे उपन्यासों में ऐसे
पात्र भरे हुएं हैं जो कभी न- कभी मुझसे पेशेगत कारणों से टकरायें हैं .
पुलिस अधिकारी की हैसियत से मैं दु:खी ,दरिद्र जनता के करीब आया और इसी
हैसियत से तमाम दलाल, हत्यारे, उचक्के , बलात्कारी ,लुटेरे ,राजनेता
,संवेदन- शून्य नौकरशाह , झूठे ,मक्कार और भोले -भाले लोगों के संपर्क में
आया और मेरे अंदर के लेखक ने उनका करीब से अध्ययन किया है. मैं जितना ॠणी
एक पुलिस अधिकारी के रूप में साहित्य का हूँ, उतना ही एक साहित्यकार के रूप
में पुलिस के पेशे का भी हूँ .अगर मैं इस पेशे में न होता तो बहुत मुमकिन
है कि मैं एक विशाल अनुभव संसार से वंचित रह जाता.
साहित्य कभी मेरे लिये स्वांतः सुखाय नहीं रहा. मुझे यह मानने में हमेशा
हिचक रही है कि साहित्य सिर्फ लोकरंजन के लिये ही है. जब कोई साहित्य के
लोकतंत्र की बात करता है और उसके समाज निरपेक्ष स्वरूप की कामना करता है तब
वह मुझे वह व्यक्ति बहुत आश्वस्त नहीं कर पाता .साहित्य हमेशा से मेरे लिये
एक समाज सापेक्ष कर्म रहा है. मैं यह जरूर मानता हूं कि रचना में कहने की
कला का भी महत्व है. सिर्फ नारा या झण्डा-पताका बडी रचना नहीं बना
सकते.नक्सलवादी आंदोलन के प्रभाव तले लिखी गयी कहानियां इस बात का उदाहरण
हैं कि बडे सरोकारों वाली रचनायें कैसे आसानी से विस्मृत हो जातीं हैं . उस
दौर में हर कहानी के अंत में किसान लाल झण्डों के साथ जमींदार को घेर लेते
थे .अंततः ये कहानियां सिर्फ नारा बन कर रह गयीं. मेरा मानना है कि अपने
सारे सरोकारों के बावजूद कहानी को कहानी भी होना पडेग़ा और कहानी तभी बनेगी
जब उसमें भाषा ,शिल्प, कथ्य और प्रस्तुति के धरातल पर रचनाकार की मेहनत और
मौलिकता दिखायी दे.
कहा जा सकता है कि हम एक भयानक और मुश्किल समय में रह रहें हैं .यह हमारे
जीवन में आदर्शों के फालतू हो जाने का समय है. सोवियत रूस के टूटते ही
घोषित कर दिया गया कि विचार धारा का अंत हो गया. देश और दुनियां के स्तर पर
हम धार्मिक उन्माद , कठमुल्लापन और एक नये तरह के उपनिवेशवाद का उदय देख
रहें हैं.पिछले दो तीन दशकों में बावरी मस्जिद-रामजन्मभूमि विवाद के चलते
बडे पैमाने पर हिन्दुओं के मध्यवर्ग का साम्प्रदायीकरण हुआ है .मजेदार बात
यह है कि इस साम्प्रदायिकता का मुकाबला प्रगतिशील शक्तियां नहीं कर रहीं
हैं. इसके मुकाबले के लिये घोर लंपट, अवसरवादी और जातियों की राजनीति करने
वाली शक्तियां मैदान में हैं. उत्तरप्रदेश और बिहार इस प्रवृत्ति के सबसे
बडे उदाहरण हैं. जातिवादी राजनीति अंततः साम्प्रदायिक हो जाती है. इसीलिये
मुझे तो कभी भी उम्मीद नहीं रही कि इन शक्तियों के बल पर साम्प्रदायिकता का
मुकाबला किया जा सकता है.
बहुसंख्यक समुदाय की साम्प्रदायिकता का सबसे बडा खतरा यह है कि वह राज्य पर
कब्जा कर सकती है और इस तरह एक फासिस्ट स्टेट का निर्माण हो सकता है. हमारे
देश में ऐसा होते -होते रह गया है पर खतरा अभी टला नहीं है. बहुसंख्यक
समुदाय की साम्प्रदायिकता का दूसरा बडा खतरा यह है कि यह अल्पसंख्यकों में
उदार और प्रगतिशील शक्तियों को बेचारा बना देतीं हैं . अपने समुदाय में
जीवित रहने के लिये उन्हें कट्टरपंथियों की भाषा बोलनी पडती हैं.पिछले कुछ
वर्षों में देश में मुल्ला मौलवियों का असर जिस तरह बढा है और जिस तरह वे
हाशिये पर पहुंचे लोगों , खास तौर से औरतों को लेकर और अधिक कट्टर हुयें
हैं वह इसी खतरे की तरफ इशारा करता है . हमारे जीवन में आजादी के बाद
आधुनिकता ,प्रगतिशीलता और विवेक की जो उम्मीदें जगी थी वे खतरे में है.
दुनियां के स्तर पर भी काफी कुछ चिंताजनक घट रहा है .भूमण्डलीकरण ने
दुनियां को एक ध्रुवीय कर दिया है .पूरे विश्व में सिर्फ एक महाशक्ति बची
है जो अपनी जरूरत के मुताबिक तालिबान पैदा करती है और फिर जरूरत खत्म हो
जाने के बाद उन्हें नष्ट करने के लिये बम बरसाती है .पूरी दुनियां में यह
महाशक्ति सैनिक तानाशाहों , धार्मिक कठमुल्लों तथा जनता की दुश्मन सरकारों
को समर्थन देती है और स्वंय को प्रजातंत्र के रक्षक के रूप में भी पेश करती
है . विश्व के सारे व्यापार और युद्ध इसी की मर्जी से हो रहें हैं.
समाजवादी राज्य व्यवस्थायें अपने -अपने अंर्तविरोधों से नष्ट हो गयीं हैं
और साम्राज्यवाद विरोधी किसी भी बडी संभावना के लक्षण नहीं दिखायी दे रहें
हैं.
ऐसे मुश्किल समय में साहित्य की क्या भूमिका हो सकती है ? हमारे यहां तो कई
लोगों ने न लिखने के कारण तलाशने शुरू कर दियें हैं. बहुतों का मानना है कि
पूरा समय ही इतना रचना विरोधी है कि अब लिखने का कोई अर्थ नहीं है. ऐसे समय
में किसी बडी रचना की उम्मीद नहीं की जा सकती .मैं इन लोगों से सहमत नहीं
हो पाता हूं. मेरा तो मानना यह है कि मुश्किल समय में ज्यादा बडी रचना संभव
होती है .सोवियत रूस का उदाहरण सामने है . क्रान्ति के पहले जब रूसी जनता
निरंकुश सांमतों और मनुष्य विरोधी चर्च के बूटों तले रौंदी जा रही थी तब
उसने तालस्ताय ¸ चेखव, पुश्किन ,तुर्गनेव और गोर्की जैसे बडे लेखक पैदा
किये. क्रांति के बाद जब समय अपेक्षाकृत बेहतर हो गया तब एक भी लेखक इनके
पाये का नहीं दिखायी देता. मायकोवस्की या पास्तनाक जैसों का क्या हाल हुआ,
हम सब जानतें हैं.
मुश्किल वक्त बडा साहित्य रचवाता है. पर यह साहित्य शून्य से पैदा नहीं
होता. इसके लिये एक लम्बी वैचारिक तैयारी की जरूरत होती है. आज दिक्कत यही
है कि इस वैचारिक तैयारी के उपकरण गायब हो गयें हैं. विचारधारा के अंत ने
आदर्शों का अंत कर दिया है. लोगों ने बडे सपने देखने बंद कर दियें हैं.
नौजवान भी दुनियां बदलने की नहीं बल्कि लूट में अपना हिस्सा पाने की बातें
करने लगें हैं .यह सब कुछ हमें शार्टकट की ओर ले जाता है. जाहिर है कि
शार्टकट से बडा लेखन नहीं हो सकता.
इस पूरे परिदृश्य में भी मार्क्सवाद मुझे निराश होने से बचाता है. मैं अब
भी मानता हूं कि जिस तरह की दुनियां में हम रह रहें हैं हमें उससे बेहतर
दुनियां चाहिये और हमारे पास न लिखने का कोई कारण नहीं है.
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