रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
राही
मासूम रजा और कैफी आजमी के बहाने लेखकीय ऐक्टिविज्म पर चन्द नोट्स
राही मासूम रजा और कैफी आजमी में कई अद्भुत समानतायें हैं.दोनो आर्थिक
रूप से पिछडे पूर्वी उत्तर प्रदेश में जन्मे, पले, शिक्षा के लिए बाहर गये
, जन पक्षधर राजनीति से जुडे और रोजगार तथा रचनात्मकता के अंतिम पडाव के
रूप में मुम्बई जा बसे . दोनो ने अपने गांव जंवार की मिट्टी को अपनी लेखकीय
ऊर्जा का स्रोत बनाया . राही ने तो गंगौली को हिन्दी समाज की जातीय चेतना
का अविभाज्य अंग बना दिया. उनके लगभग सभी उपन्यासों में गाजीपुर और उसके
आस-पास का परिवेश मौजूद है. वे साम्प्रदायिकता या उपनिवेश वाद के खिलाफ
लडाई में हथियार की तरह भोजपुरी प्रांत की लोक परम्पराओं और समरसता की
तीव्र चेतना का इस्तेमाल करतें हैं. कैफी ने अपनी शायरी में अपने गांव
मिजवां का उस तरह तो उल्लेख नहीं किया है पर साम्राज्यवाद , धार्मिक
कट्टरता और सामाजिक गैर बराबरी के विरूद्ध लिखी गयी उनकी कविताओं में उन
बिम्बों , प्रतीकों और प्रसंगों को तलाशना बहुत मुश्किल नहीं है जो भोजपुरी
और उससे सटे अवधी भाषी इलाकों में बहुतायत से उपलब्ध है. दोनो लेखकों में
एक समानता यह भी है कि उन्हें जब याद किया जाता है तो उनके इलाके का भी
जिक्र किया जाता है. आज जब हमारे बहुत से लेखक आत्मकेन्द्रित और इलाका
विहीन लेखन कर रहें हैं यह एक विशिष्ट तथ्य है जिसे इन दोनो का मूल्यांकन
करते समय हमें ध्यान रखना चाहिए .
इन समानताओं के बावजूद एक ऐसा क्षेत्र भी है जहां ये दोनो अलग अलग खडे
दिखायी देतें हैं. भिन्नता के इस बिंदू को रेखांकित करने के लिए मैं एक
आपबीती सुनाना चाहूंगा . श्री रामानन्द सरस्वती पुस्तकाालय , जोकहरा ,आजमगढ
ने 17-18 अक्तूबर 2003 को ''राही मासूम रजा और हिन्दुस्तानी परम्परा''
शीर्षक से एक राष्ट्रीय विमर्श का आयोजन किया था. इसमें कमलेश्वर, असगर
वजाहत, कुंवरपाल सिंह , नमिता सिंह वगैरह शरीक हुए . इस कार्यक्रम के अंतिम
सत्र के रूप में जोकहरा से गंगौली तक की यात्रा प्रस्तावित थी. पूर्वी
उत्तर प्रदेश की बदहाल सडक़ों से गुजरते हुए लेखकों और संस्कृति कर्मियों का
जत्था देर शाम गंगौली पहुंचा .धूमकेतु जी के उत्साही कार्यकर्ताओं ने पहले
से ही एक सभा की व्यवस्था कर रखी थी . राही के पैतृक आवास के एक बडे से
दालान में गांव के लोगों की भीड ज़मा थी. कुछ लोग गाजीपुर और मऊ से भी आये
थे. पुस्तकालय ने आधा गांव का उर्दू संस्करण छापा था .इसका लोकार्पण होना
था और फिर छोटी सी सभा प्रस्तावित थी . मौजूदा लोगों में राही के निकट के
रिश्तेदार, बाल सखा और कुंवरपाल सिंह जैसे लोग शामिल थे जिनकी राही से
वर्षों घनिष्टता रही थी, इसलिए स्वाभाविक था कि माहौल राही की स्मृति तथा
भावुकता से सराबोर हो उठा. भविष्य में राही पर केन््रद्रित नियमित
कार्यक्रम गंगौली में हो इस पर जोर दिया गया. कुछ वक्ताओं ने गंगौली
वासियों को मीठी लताड भी लगाई कि उन उन्होंने राही के लिए कुछ भी नहीं किया
.यहां तक कि राही का पैतृक आवास भी बुरी हालत में है, सब कुछ टूट फूट रहा
है , कोई नियमित दिया बाती करने वाला भी नहीं है .....वगैरह वगैरह.
मैं किसी काम से सभा के पिछले भाग में गया . किसी भी दूसरी सभा की तरह
वहां खुसुर-पुसुर हो रही थी . मंच के एक वक्ता ने प्रश्न पूछा , ''गंगौली
गांव के लोगों ने राही के लिए क्या किया?''
''राही ने हमारे लिए क्या किया ?'' एक दबी क्रोधित आवाज मेरे कानो से
टकराई .थोडी देर के लिए मैं स्तब्ध रह गया. जिस गंगौली गांव को राही ने
पूरी दुनियां के लिए एक परिचित नाम बना दिया हो उसका कोई बाशिंदा अगर यह
बात कहे तो इस पर क्या कहा जा सकता है?
मैं ने इस असंतोष के कारण तलाशने शुरू किये .
कुछ लोगों से ही बातचीत करने पर कारण भी मिल गये .राही पढने और नौकरी
के सिलसिले में अलीगढ अौर फिर वहां से बम्बई गये .अलीगढ में उन्होंने अपना
कालजयी उपन्यास आधा गांव लिखा. यही वह कृति थी जिसने गंगौली गांव को
हिन्दी समाज का एक परिचित नाम बना दिया . बाद की दूसरी रचनाओं में गाजीपुर
के आस पास इलाका रचता बसता रहा .राही गंगौली को लिखते तो रहे पर वहां लौटे
कभी नहीं .हर साल दो साल पर संदेश जरूर आता या कोई गंगौली वाला टकरा जाता
तो वादा किया जाता कि इस साल मोहर्रम में घर आयेंगे. फिर एक कमजोर आश्वासन
कि इस बार फंस गये पर अगला मोहर्रम तो गंगौली में ही मनाया जायेगा. लेकिन
यह अगला साल कभी नहीं आया. यद्यपि किसी ने कहा नहीं लेकिन जो लोग पूर्वी
उत्तर प्रदेश की गरीबी और बेतकुल्लफी से वाकिफ हैं वे बिना किसी शिकायत
किये भी यह मान सकतें हैं कि इलाज , नौकरी की तलाश या फिर किसी अन्य मदद के
लिए गंगौली से कोई न कोई बम्बई पहुंचता रहा होगा और उसकी अपेक्षा यही रही
होगी कि बम्बई शहर में राही जैसा कामयाब व्यक्ति उन्हें अपने घर में
टिकायेगा, उन्हें बम्बई घुमायेगा, उनकी नौकरी लगवायेगा या फिर उनके इलाज की
व्यवस्था करेगा. अपने भोले ग्रामीण उत्साह में ये भूल जाते रहे होंगे कि
बम्बई जैसे महानगर में कोई नीम का पेड नहीं होता जिसकी छांव तले चारपाई
डालकर आप हफ्तों मेहमानबाजी करातें रहें .अपने मन में कडवाहट लिये ऐसे लोग
लौटते रहें होंगे .
राही ने अपने बचपन और जवानी की दहलीज पर पहुंचने तक गंगौली की मिट्टी से
जो कुछ अर्जित किया था-चाहे वह भाषा रही हो , किस्सागोई की तमीज हो या
गंगोजमनी तहजीब -उसी को जिन्दगी भर बेचते रहे .
इसके बरक्स कैफी क़ा जीवन भिन्न है .उन्होंने आजमगढ क़े मिंजवा गांव से अपनी
रचनात्मक ऊर्जा हासिल की .पढने के लिए लखनऊ के एक मदरसे में दाखिल हुए और
शायरी , इप्टा, पार्टी और जनान्दोलनों से गुजरते हुए राही की ही तरह बम्बई
की फिल्मी दुनियां में दाखिल हुए. बम्बई में उन्होंने शोहरत और दौलत दोनो
मिली . यह बहुत स्वाभाविक होता अगर उन्होंने अपनी जवानी की मुश्किल जिन्दगी
को स्मृतियों में सुरक्षित रखते हुए उम्र का तीसरा और चौथा पहर बम्बई की
आरामदेह दुनियां में बिताने का फैसला लिया होता. पर उन्होंने ऐसा नहीं
किया. जिस समय वे दुनियांदारी के लिहाज से सफलता के शीर्ष पर थे , उन्होंने
फैसला किया कि वे बम्बई छोडक़र मिंजवां में रहेंगे .यह आज से तीस पैंतीस साल
पुराना मिंजवां था जब उत्तर प्रदेश के ज्यादातर दूसरे गांवों की तरह वहां
कोई सडक़ नहीं थी , बिजली का नाम लेते तो लोग हंसने लगते , शिक्षा शहरी
लोगों की विलासिता समझी जाती थी.ऐसे मिंजवां में रहने का फैसला कोई सनकी ही
कर सकता था.कैफी ने यह फैसला किया और उनकी मिंजवां मे वापसी से वहां की
तकदीर भी बदलने लगी .उनकी शख्शियत का ही प्रभाव था कि प्रदेश के राजनैतिक
नेतृत्व और नौकरशाही ने मिंजवां में सडक़ और बिजली पहुंचाई. अपनी जमीन पर
कैफी ने लडक़ियों का स्कूल कायम किया . मिंजवां वापसी के शुरूआती दिनों में
ही कैफी क़ा स्वास्थ्य खराब हो गया.उन्हें फालिज मार गया था. मिंजवां और
उसके आसपास के कस्बों फूलपुर , शाहगंज या आजमगढ में आज भी बहुत अच्छी
स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध नहीं हैं ,उन दिनो तो हालात और भी खराब थे .बम्बई
में, जहां उनके परिवार के दूसरे सदस्य रहते थे, उनकी देखभाल भी बेहतर हो
सकती थी और देश का सर्वोत्कृष्ट इलाज भी उन्हें मिल सकता था. पर वे मिंजवां
छोड क़र नहीं गये . बम्बई और मिंजवां के बीच उनका आन जाना चलता रहता था.बाद
के सालों में जब इलाज के लिए बम्बई रहना ज्यादा जरूरी हो गया तब जाकर इस
व्यवस्था में यह परिवर्तन जरूर आया कि मिंजवां में उनके आने की नियमितता और
रूकने की अवधि कम हो गयी पर पूरी तरह से बंद नहीं हुयी.मृत्यु के बाद ही
मिंजवां से उनका संबंध टूटा .
राही और कैफी में कौन बडा था? यह एक ऐसा सवाल है जिसका कोई सीधा उत्तर
नहीं हो सकता .लेखकों की तुलना के कोई सर्वमान्य निकष नहीं तय हुयें
हैं.ऊपर दोनों के व्यक्तित्वों और जीवन दृष्टि के जिस फर्क को रेखांकित
किया गया है उसपर कुछ बातें की जा सकतीं हैं . सबसे बडा सवाल तो यह है कि
क्या लेखक को ऐक्टिविस्ट होना चाहिए? वह जिस जमीन से जुड क़र लिखता है या
जिस परिवेश से आता है क्या उसका कोई ॠण उस पर होता है ? इस ॠण को उतारने
के लिए उसे कैफी की तरह वहां जाकर कुछ करना चाहिए या राही जैसा लेखन ही
इसके लिए पर्याप्त होगा?
हमारे सामने बहुत से उदाहरण हैं जिनमें लेखकों ने अपने मूल्यों के लिए ,
जिनमें वे यकीन रखते थे, आंदोलनो और सशस्त्र संघर्षों में भाग लिया . 1789
की फ्रांसीसी क्रांति ,सोवियत उभार या स्पेनिश गृह युद्ध जैसे बहुत से
उदाहरण हैं जिनमें संस्कृति कर्मियों ने बढ चढक़र हिस्सा लिया और अपनी जानें
भी दीं .भारत में भी स्वतंत्रता आंदोलन और तेलंगाना के सशस्त्र विद्रोह में
बहुत से लेखकों ने भाग लिया था.हाल के दिनों में नक्सलवादी और जयप्रकाश
नारायण के आंदोलनों में भी लेखकों ने भाग लिया था.इस मसले पर कुछ लेखकों की
राय मिली है.वे मानतें हैं कि उनका लेखन ही उनका ऐक्टिविज्म
है.साम्प्रदायिकता या साम्राज्यवाद के खिलाफ अपने लेखन से वे अपना
प्रोटेस्ट दर्ज करतें हैं और यही उनका ऐक्टिविज्म है. मेरी इस इस सिलसिले
में बहुत से लेखकों से बातें हुयीं हैं और मैने पाया है कि एक बडी संख्या
इसमें यकीन करती है. इस तरह से सोचने वाले सभी कलावादी नहीं हैं.काफी बडी
संख्या में प्रगतिशील भी यही सोचतें हैं .मुझे नहीं लगता कि हम आसानी से
किसी फैसले पर पहुंच सकतें हैं.स्पेनिश गृह युद्ध, आपातकाल , 1984 या
हाल का गुजरात का अनुभव किसी समाज में कभी-कभी आतीं हैं जब फैसला करना
अनिवार्य और आसान हो जाता है. बहुत से लेखक उस समय भी घरों में रहना पसंद
कर सकतें हैं .कैफी ने जिस समय मिंजवां लौटने का फैसला किया उस समय ऐसी कोई
स्थिति नहीं थी .वे किसी तात्कालिक दबाव के तहत नहीं लौटे. लौटे तो अपनी
जमीन और लोगों से ज्यादा सरोकारों के कारण .राही नहीं लौटे. उनके लेखन को
देखा जाय तो उनके गंगौली से सरोकार किसी मायने में कमतर नहीं है फिर भी
उन्होंने एक बार गंगौली छोडा तो फिर कभी नहीं लौटे. मैं जब दोनो के फैसले
की तुलना करता हूं तो किसी निश्चित नतीजे पर नहीं पहुंच पाता पर मुझे लगता
है कि कैफी के मिंजवां वापसी को केन्द्र पर रखकर लेखकों के ऐक्टिविज्म पर
एक बहस जरूर छेडी ज़ा सकती है.
अगला
निबन्ध
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