रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
कलकतिया पलटन के बहाने
1857 का दलित भाष्य
1857 के महासंग्राम को लेकर कई तरह की अवधारणायें हैं -यह भारत का पहला
राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम था, सिपाहियों का विद्रोह था, अपने अस्तित्व
रक्षा के लिये छटपटा रहे भारतीय सामंतों की आखिरी जद्दोजहद थी, हिन्दी समाज
का नवजागरण था या धर्म और जाति के खातिर लडने वाले सिपाहियों तथा राजे
रजवाडाें के गठबंधन का सशत्र संघर्ष- सारी अवधारणायें इस बात पर निर्भर
करतीं हैं कि इनके व्याख्याता चीजों को किस नजरिये से देखतें हैं.
सावरकर संभवतः पहले बडे प्रयास के रूप में आतें हैं जिन्होंने 1857 को
प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम घोषित किया. यह भी एक दिलचस्प तथ्य है
कि बाद में घनघोर रूप से पिछडी मानसिकता का परिचय देने वाले और हिन्दुत्व
के व्याख्याता सावरकर ने 1857 को हिन्दू मुस्लिम एकता और विदेशी शासकों के
विरूद्ध मिले जुले संघर्ष के प्रतीक के रूप में देखा था. बाद के उन सभी
इतिहासकारों के लिये , जो अँग्रेजों की इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते थे कि
वे भारत में अपने आर्थिक हितों के कारण नहीं बल्कि एक असभ्य कौम को सभ्य
बनाने के दैवीय दायित्व को निभाने के लिये आये थे, यह लगभग आवश्यक हो गया
कि वे विद्रोह के अन्तर्विरोधों को नजरअंदाज करते हुये विद्रोह के दो
प्रमुख स्तंभों -सिपाहियों और सामंतों- में वे सब गुण तलाशें जो अपने समय
मूल्यों की कैद में जकडी ऌन संस्थाओं में थे ही नहीं. सावरकर से शुरू हुये
इस प्रयास में कई झोल रह गये . 1857 का भारत अभी राष्ट्र राज्य बनने के
शुरूआती चरण में था इसलिये इस युद्ध को राष्ट्रीय मुक्ति का संग्राम घोषित
करना अतिरिक्त उत्साह का परिचय देना होगा. हिन्दू और मुसलमान - दोनो धर्मों
के सिपाहियों के लिये पूरी लडाई धर्म और दीन की रक्षा के लिये थी और उनके
सामंती आकाओं के मन में भी कोई विभ्रम की स्थिति नहीं रही. एक तरफ बहादुर
शाह जफर और बिरजिस कदर जैसे मुस्लिम शासक थे जो अँग्रेजों को उखाड फ़ेंकने
के प्रयास को जेहाद का नाम देते थे और दूसरी तरफ रानी लक्ष्मी बाई का
उदाहरण हमारे सामने है जो वक्त पडने पर अपने को एक ऐसी विधवा के रूप में
पेश करतीं हैं जिसके जीवन का उद्देश्य हिन्दू धर्म की रक्षा करना है.
सिपाहियों और सामंतों को हमारे बहुत से इतिहासकार आधुनिक अर्थों में धर्म
निरपेक्ष मनवाना चाहतें हैं जबकि धर्मनिरपेक्षता की आधुनिक परिभाषा
तत्कालीन समाज पर लागू नहीं की जा सकती और यह बहुत स्वाभाविक है कि
अँग्रेजी कम्पनी शासन को उखाड फ़ेंकने के पीछे सबसे बडा कारक अपने धर्म या
दीन को बचाने का प्रयास करना था.
1857 को समझ्ने की प्रक्रिया में हमने उन बिन्दुओं की पूरी तरह से अनदेखी
की जिन से इस बडी घटना के एक नये विमर्श की शुरूआत हो सकती है. यह विमर्श
दलित विमर्श हो सकता है. ज्योतिबा फुले ने विद्रोह कुचल दिये जाने के बाद
उन महार सैनिकों का अभिनन्दन किया था जिन्होंने विद्रोह को कुचलने में
अँेग्रेजों की मदद की थी. फुले ने वायसराय को एक पत्र लिखकर इस बात पर भी
खुशी जाहिर की थी कि 1857 में अँग्रेज जीत गये और इस देश के दलितों और
पिछडों को फिर से उसी ब्राह्यणी व्यवस्था का गुलाम नहीं बनना पडा जो उन्हें
शिक्षा, सम्पत्ति और मनुष्य के रूप में जीने के लिये जरूरी बुनियादी चीजों
से भी वंचित रखती है. फुले से शुरू होकर अम्बेदकर तक प्रौढ हुयी दलित
परम्परा नें लगातार 1857 में अँग्रेजों की विजय पर प्रसन्नता जाहिर की .
अम्बेदकर ने कई जगह लिखा और कहा कि राजनैतिक आजादी से ज्यादा जरूरी सामाजिक
आजादी है और जब तक देश की विशाल शूद्र जनसख्या को मनुष्य के रूप में जीने
का हक नहीं मिलता तब तक राजनैतिक आजादी की बात बेमानी है. वे गाँधी और
दूसरे काँग्रेसी नेतृत्व की इस बात पर सहमत नहीं थे कि एक बार आजादी हासिल
कर लेने के बाद भारतीय जातिगत भेदभाव जैसी समस्याओं का हल स्वयं निकाल
लेंगे. क्या हम फुले और अम्बेदकर को उपनिवेशवाद समर्थक और अँग्रेजों का
पिट्ठू घोषित कर सकतें हैं? क्या हम उन्हें भारतीय समाज की धर्मान्ध
शक्तियों जैसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ , हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के
समकक्ष खडा कर सकतें हैं जिन्होंने न सिर्फ स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई
सक्रिय भागीदारी नहीं की बल्कि प्रछन्न और प्रत्यक्ष रूप में कई बार
साम्राज्य वादियों का साथ भी दिया? निश्चित रूप से ऐसा करना भारतीय समाज की
आन्तरिक संरचना को गलत समझने और उसके अन्तर्विरोधों को नकारने जैसा होगा.
दलित विमर्श की शुरूआत विद्रोह में भाग लेने वाले सिपाहियों और नेतृत्व
प्रदान करने वाले सामंतों के लिये जीवन से भी पवित्र उन मूल्यों के अध्ययन
से हो सकती है जिनके लिये वे युद्ध में कूदे.यहां इस लेख का उद्देश्य सिर्फ
कलकत्ता प्रेसीडेन्सी के सिपाहियों के व्यवहार का अध्ययन करना है और उस के
माध्यम से उस दलित मानसिकता की पडताल करना है जो 1857 में अँग्रेजों के
जीतने पर खुशी मनाती है. यदि हम बहुत स्थूल और सतही निष्कर्षों पर पहुंचना
चाहें तो हम बडी आसानी से ज्योति बा फुले से अम्बेदकर तक की विचारधारा को
उपनिवेश वाद की दलालऔर चाटुकार परम्परा भी घोषित कर सकतें हैं. उस दौर में
जमींदारों, ताल्लुकेदारों , मौलवियों और पंडितों की एक बडी फ़ौज थी जो
अँग्रेजी शासन के पक्ष में तरह तरह के तर्क गढती ही रहती थी. अरूण शौरी ने
भी वर्शिपिंग फाल्स गॉड्स में अम्बेदकर को अँग्रेजों का पिट्ठू सिद्ध करने
की कोशिश की है. पर यदि हम थोडा धैर्य और सहानुभूति के साथ दलित मानसिकता
को समझने की कोशिश करें तो हमें उनके इस तर्क को समझने में बहुत कठिनाई
नहीं होगी कि 1857 में उनके सामने अँग्रेजों और ब्राह्यणों के बीच चुनाव की
जो कठिन चुनौती थी उसमें उन्होंने क्यों अँग्रेजों का चुनाव किया? बंगाल
पलटन के सिपाहियों के वर्णीय चरित्र को समझना इस लिये भी आवश्यक है कि उससे
1857 के एक दलित विमर्श की शुरूआत हो सकती है.
1857 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की फौज मुख्यतः चार भागों में बांटी जा सकती
है. कलकत्ता, बम्बई, और मद्रास की प्रेसिडेन्सियों की पलटने और गोरे
सिपाहियों की क्वीन्स रेजिमेंट. प्रदीप सक्सेना ने अपनी किताब '1857 और
नवजागरण के प्रश्न' में यह स्थापित करने की कोशिश की है कि कम्पनी की फौज
सिर्फ तीन पलटनों में नहीं बंटी थी बल्कि इन तीन के अतिरिक्त हैदराबाद और
पंजाब की पलटने भी थी .उन्होंने अपनी किताब काफी मेहनत से लिखी है और
दुर्लभ मौलिकता का परिचय दिया है जो हिन्दी में समाज शास्त्रीय लेखन में कम
दिखायी देता है पर यहाँ अतिरिक्त उत्साह में उनके लेखन में कुछ अन्तर्विरोध
भी दिखायी देतें हैं .वे जिन दो पलटनों का जिक्र यह सिद्ध करने के लिये
करतें हैं कि भारतीय इतिहासकारों नें 1857 तक सिर्फ तीन पलटनों की बात करके
इतिहास के बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को नजरअंदाज कर दिया है , उन्हीं के बारे
में उन्हें स्वीकार करना पडता है कि 1857 में हैदराबाद और पंजाब की पलटने न
सिर्फ बहुत नयी थी बल्कि काफी हद तक अप्रशिक्षित और अनियमित भी इसलिये 1857
में इन दोनो पलटनों के लिये किसी बडे रोल की कल्पना करना मुश्किल है.
पंजाबी पलटनों को तो स्वतंत्र पहचान भी नहीं मिली थी और वे कलकत्ता पलटन के
ही अंग माने जाते थे . 1857 के विद्रोह में इनमें से ज्यादातर ने कंपनी का
ही साथ दिया था. मद्रास और बम्बई की पलटनों ने न सिर्फ विद्रोह में भाग
नहीं लिया बल्कि इसे कुचलने में योगदान दिया. सिक्खों , जाटों ,गूजरों और
गोरखों ने भी काफी हद तक अँग्रेजों की मदद की .बंगाल आर्मी ने विद्रोह
क्यों किया इसे समझना जरूरी है .यही वह प्रस्थान बिन्दु है जिससे 1857 के
दलित विमर्श की शुरूआत हो सकती है .
1857 में सिपाहियों का विद्रोह मुख्य रूप से कलकतिया पलटन का विद्रोह था
इसलिये मैं अपने अध्ययन को उन्हीं सैनिकों तक सीमित रखूंगा. रूद्रांश
मुखर्जी और साीमा अल्वी ने काफी मेहनत से बंगाल प्रेसीडेन्सी पलटन की
आंतरिक संरचना और उसके सिपाहियों के समाजशास्त्र को समझने की कोशिश की है.
मैंने अपने लेख में उन दोनों के अलावा 1859 से 1870 तक के उपलब्ध सैनिक
इतिहासकारों द्वारा उपलब्ध सामग्री का उपयोग किया है.
पलासी (1757) जीतने और इस तथ्य को भली भांति समझ लेने के बाद कि अपने बढते
साम्राज्य को बचाये रखने के लिये कम्पनी को बडी फ़ौज की जरूरत होगी और इसके
लिये योरोपीय सिपाहियों के अलावा काफी तादाद में भारतीय सिपाहियों की भी
जरूरत पडेग़ी, कंपनी ने अँग्रेजी फौजों की तर्ज पर देशी पलटने खडी क़रने का
फैसला किया.देशी सिपाहियों की भर्ती के पीछे एक कारण यह भी था कि योरापीय
रेजिमेन्टों के मुकााबले भारतीय रेजीमेन्टें कम्पनी के लिये बहुत सस्ती
पडतीं थीं और एक सैनिक इतिहासकार के मुताबिक औसतन एक योरोपियन रेजिमेन्ट के
खर्चे से चार भारतीय रेजिमेन्टें खडी क़ी जा सकतीं थीं. पहली कलकतिया पलटन
पलासी की लडाई से एक साल पहले 1756 मे क्लाइव ने खडी क़ी थी. 400-500
सिपाहियों वाली यह बटालियन पहली बंगाल नेटिव इन्फेन्ट्री के रूप में सरकारी
दस्तावेजों में दर्ज हुयी और जन साधारण के बीच अपने वर्दी की लाल कोट की
वजह से इसका नाम लाल पलटन पडा. पलासी के बाद भर्ती में तेजी आयी और 1757 से
1825 के बीच अंग्रेजों ने 74 देशी पलटनें खडी क़ी . शुरू में बुरहानपुर और
दीनापुर भर्ती के बडे क़ेन्द्र रहे पर बाद में धीरे धीरे भर्ती का इलाका
विस्तृत होता गया और मुख्य रूप से उन क्षेत्रों में पहुंच गया जिन्हें आज
बिहार ,अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश कहतें हैं. रायबरेली, प्रतापगढ,
सुलतानपुर, उन्नाव, फैजाबाद, गोरखपुर और बहराइच जैसे आज के जिले बडी संख्या
में सैनिक देने लगे.डी. बटर ने अपनी किताब में अवध को ब्रिटिश आर्मी की
ग्रेट नर्सरी कहा है.
हिन्दुस्तानी समाज की जटिलतायें तब तक अंग्रेजों की समझ में आने लगीं थीं.
यह बात स्पष्ट हो गयी थी कि जन्माधारित वर्ण श्रेष्ठता कार्मकाण्डों,
पुनर्जन्म और भाग्यवाद के चौखम्भे पर टिकी भारतीय मनीषा की नजरों में
अंग्रेजी शासन तभी वैध हो पायेगा जब हिन्दुओं में उच्च वर्ण खास तौर से
ब्राह्यण उनकी सत्ता स्वीकार कर लेंगे. यद्यपि तत्कालीन ब्रिटिश समाज में
वर्ण व्यवस्था जैसा जन्माधारित , संस्थाबद्ध स्तरीकरण नहीं था पर वह समाज
सामंती जकडबन्दियों से बुरी तरह मोहग्रस्त था. भारतीय पलटनों के अफसर भी
अँग्रेज ही थे. उनमें से बहुतों ने अफसरी खरीदी थी और बहुतों ने अपने कुल
के आधार पर हासिल की थी . सामंती स्तरीकरण को सम्मान से देखने वाले
अँग्रेजों के लिये यह स्वाभाविक था कि वे ब्राह्यणों को विशेष आदर से
देखते. लम्बे चौडे ग़ौर वर्ण का ब्राह्यण सैनिक काले और छोटे कद के महार और
परिया सिपाहियों के मुकाबले अँग्रेज कमाण्डरों को ज्यादा भाता था.
अवध से कम्पनी ने मुख्य रूप से ब्राह्यण और राजपूत किसानों के बेटों को
भरती किया. ये किसानों के बेटे अपने साथ वे सारे सामाजिक मूल्य साथ लेकर
पलटनों में आये जो उनके जीवन के मुख्य आधार थे.वर्णाश्रम पर आधारित ये
मूल्य उनके भोजन, कपडों, शस्त्रों तथा प्रशिक्षण और युद्ध में भाग लेने की
उनकी ललक- गरज कि सैनिक जीवन के हर क्षेत्र में उनके व्यवहार को संचालित
करते थे. ये सिपाही छावनियों में अपनी जातियों के अनुसार अलग अलग झोंपडियां
बनाकर रहते थे. आज की किसी फौजी छावनी की तरह उनका खाना किसी एक लंगर में
नहीं बनता था . वे अपनी अपनी जातियों और जातियों से भी आगे उपजातियों में
बंटकर अपना खाना स्वयं पकाते थे .जहां उनका खाना बनता था वहां नीची जाति के
दूसरे सैनिकों की तो बिसात ही क्या थी खुद उनके अंग्रेज अफसर भी नहीं जा
सकते थे क्योंकि उनकी छाया पडने से उच्चवर्णीय सिपाहियों का भोजन अशुद्ध हो
सकता था.1858 में विद्रोह समाप्त हो जाने के बाद, जब एक अँग्रेज लेखक
कलकतिया पलटन की एक छावनी में गया तो उसे ऐसा लगा कि जैसे वह आग से घिरे
किसी भू प्रदेश में पहुंच गया हो. दरअसल वह गोधूलि की बेला में वहां पहुंचा
था जब उच्च वर्ण के सिपाहियों के हिस्से में कण्डों और लकडियों के सैकडों
चूल्हे जले हुये थे और उनसे निकले हुये धुएं से पूरा आसमान ढक गया
था.आधुनिक सेना की सबसे बडी ताकत उसके सिपाहियों का एक साथ बैरकों में
रहना, एक साथ भोजन करना और एक साथ प्रशिक्षण हासिल करना है. इससे सैनिकों
के मन में अपनी पलटन के लिये खास तरह का लगाव और आपस में भाई चारे की भावना
पैदा होती है. कलकतिया पलटन इससे वंचित थी. कलकतिया पलटन के विभिन्न
रेजिमेन्टों के कमाण्डरों के जो मूल्यांकन उपलब्ध हैं उनके अनुसार
अँग्रेजों का यह मोह कि ये सिपाही हट्टे कट्टे और सुदर्शन व्यक्तित्व के
मालिक थे, युध्दों में घातक सिद्ध हुआ. ये सिपाही खराब सैनिकों के नमूने
साबित हुये. न सिर्फ ये कवायद और शस्त्राभ्यास के लिये अपनी खान पान की
आदतों के कारण देर से पहुंचते थे बल्कि युद्ध के मैदान में भी इन्हीं आदतों
के कारण खराब सैनिक सिद्ध होते थे .ये लम्बी यात्राओं और दुर्गम स्थलों खास
तौर से समुद्री जहाजों में भूखे रहना पसन्द करते थे और अपनी खान पान की
आदतों में परिवर्तन लाने में तैयार नहीं थे. वे अपना काफी समय् पूजा पाठ और
कर्मकाण्डों में बिताते थे तथा इस बात को आसानी से पचा नहीं पाते थे कि
उच्च जाति से इतर कोई दूसरा कमाण्डर उन्हें हुक्म दे .
1850 में बंगाल आर्मी के कमाण्डर सर चार्ल्स नेपियर ने लिखा था कि ''यदि
उच्चवर्ण के हिन्दू को फौजी अनुशासन और अपनी जाति में से चुनना हो तो वे
जाति को चुनेंगे.'' इसके पहले 1826 में ही लार्ड विलियम बेन्टिक ने बंगाल
पलटन को एकदम नाकारा और लडाई के लिये अयोग्य घोषित कर दिया था. इसके अनुसार
अपनी जाति से च्युत होने के भय से ये सिपाही विदेश यात्राओं के लिये तैयार
नहीं थे, वे रणभूमि में मरे अपने साथियों को गाड नहीं सकते थे और नीची जाति
के लांगरियों द्वारा बनाया खाना नहीं खा सकते थे .कम्पनी की फौज में
ज्यादातर लांगरी नीची जातियों के थे क्यों कि उन्हें गोमांस या सूअर पकाने
में कोई एतराज नहीं था . ये सैनिक इन लांगरियों को अपनी पाक शालाओं तक
फटकने तक नहीं देते थे, उनके द्वारा पकाया खाना खाने की तो बात ही क्या थी!
इन सैनिकों की सारी आदतें एक पेशेवर और दक्ष सैनिक बनने से उन्हें रोकती थी
.
कलकत्ता प्रेसीडेन्सी की रेजीमेण्टों को खडा करते समय एक बात का ध्यान रखा
गया था कि उनमें एक निश्चित संख्या में ब्राह्यण, क्षत्रिय , दलित ,
मुसलमान और दूसरी जातियों के लोग रखें जायें. सरकारी आदेशों के मुताबिक हर
रेजीमेण्ट में दो सौ सिक्ख होने चाहिये थे लेकिन कभी भी इस आदेश का पालन
नहीं हुआ.ब्राह्यण हमेशा अपनी संख्या से अधिक भर्ती हुये और सिक्खों को
किसी भी पलटन में पूरा प्रतिनिधित्व नहीं मिला.ऐसा कैसे हुआ? एक समकालीन
सैनिक दस्तावेज से इसका बडा मजेदार कारण पता चलता है. ब्राह्यण अपनी जाति
छिपाकर दूसरी जातियों, खास तौर से क्षत्रियों के कोटे में भर्ती हासिल करते
थे. विद्रोह के बाद बहुत सी रेजीमेंट भंग कर दीं गयीं और उनमें से एक 34
नेटिव इनफेन्ट्री के सदस्यों की , भंग होने के समय , जातियों को जानना
दिलचस्प होगा-
ब्राह्यण
335
क्षत्रिय
237
नीची जातियों के हिन्दू
231
इसाई
12
मुसलमान
200
सिक्ख
74
योग
1089
मजेदार बात यह है कि जिस वर्णाश्रम की दुहाई ब्राह्यण देते थे और जिसके
आधार पर वे अपने लिये अलग रहने और खाने की व्यवस्था चाहते थे और जिसको ढाल
बनाकर वे समुद्र पार कर कठिन रणक्षेत्रों में जाकर लडने से बचते थे वह
व्यवस्था युद्ध जैसा कर्म उनके लिये लगभग वर्जित करती थी और वर्णाश्रमी
मूल्यों के अनुसार ब्राह्यण के लिये जीव हत्या वर्जित है , लेकिन जब अच्छी
तनख्वाह और पेन्शन सेसुरक्षित भविष्य वाले सिपाही का पेशा चुनने की बात आती
थी तो ब्राह्यण के मन में किसी तरह की कोई हिचक नहीं पैदा होती थी और
आवश्यकता पडने पर वह अपनी जाति छिपाकर भी वह पलटन में भर्ती हो जाता था. एक
सैनिक रिकार्ड के अनुसार गाय को पवित्र मानने वाले ब्राह्यण सिपाहियों को
एक रेजीमेण्ट में जब यह विकल्प दिया गया कि यदि वे चमडे क़ा जूता न पहनना
चाहें तो नंगे पैर रह सकतें हैं , उन सिपाहियों ने इस विकल्प को ठुकरा दिया
और वर्दी में जूते पहनने से गुरेज नहीं किया. जाहिर था कि नंगे पैर सैनिक
कर्तव्यों का पालन बहुत मुश्किल था.
अंग्रेज कमाण्डरों के सामने सबसे बडा संकट बंगाल सैनिकों की पलटन को बाहर
लडाइयों में भेजते समय आता था. 1779 में मराठों के विरूद्ध लडते हुये जब
बंगाल से बम्बई प्रेसीडेन्सी को फौजी इमदाद भेजने की जरूरत पडी तो वारेन
हेस्टिंग ने बजाय समुद्र के कुमुक भेजने के लिये जमीन के रास्ते को चुना.
यह रास्ता लम्बा था और जरूरी मदद कई महीने बाद पहुंची लेकिन इस रास्ते को
चुनने के पीछे कारण यही था कि सिपाही अपनी जातिच्युत होने की दुहाई देकर
समुद्र यानि कालापानी के रास्ते जाने से इन्कार कर देते.
पहले आंग्ल सिक्ख (1845-1846) युद्ध में बंगाल आर्मी की फिरोजपुर में स्थित
एक डिवीजन ने भाग लिया था और इस आर्मी का बंगाल आर्मी के कमाण्डर इन चीफ सर
हग गफ ( Sir Hugh Gough) ने नेतृत्व किया था.संभवतः यह सबसे महत्वपूर्ण
युद्ध है जो बंगाल आर्मी के सैनिकों ने कम्पनी के लिये जीता था. इसके
अतिरिक्त बर्मा, फारस और चीन में अंग्रेजों को सेना भेजने की जरूरत पडी अौर
हर बार कलकतिया रेजीमेण्टों ने यह कह कर बाहर जाने से मना कर दिया कि
समुद्र पार करने से उनकी जाति भ्रष्ट हो जायेगी. बर्मा की लडाई के लिये
अडतीसवीं रेजीमेण्ट ने जाने से मना कर दिया और अनिर्णय का शिकाार कम्पनी का
नेतृत्व उन्हें कोई सजा नहीं दे पाया. एक अंग्रेज सैनिक इतिहासकार नें लिखा
है कि अच्छा होता कि ऐसा आदेश जारी ही न किया गया होता जिसका पालन कराने का
सामर्थ्य शासकों में नहीं था. क्योंकि एक बार मुंह में खून लग जाने से ये
सिपाही और शेर हो गये. इस दौरान अंग्रेजों को फारस और चीन में भी कई
युध्दों में भारतीय सैनिकों को भेजना पडा और वे कभी भी बंगाल प्रेसीडेंसी
के सिपाहियों को नहीं भेज पाये. हर बार बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी के
सिपाही ही उनके काम आये.
ऐसा नहीं था कि बम्बई और मद्रास की पलटनों में ब्राह्यण नहीं थे. बम्बई
प्रेसीडेन्सी की तो एक तिहाई फौज ही पुरबिया ब्राह्यणों और क्षत्रियों की
थी. फिर ऐसा कैसे हुआ कि उन्हें काला पानी पार करने से कोई गुरेज नहीं हुआ?
वे वक्त पडने पर समुद्र पार जाकर लडतें रहे ..1857 के विद्रोह के समय
बर्म्ब प्रेसीडेन्सी की फौज का बडा हिस्सा बाहर था. मार्क्स ने 14 अगस्त
1857 को न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में लिखते हुये इस बात की आशंका प्रकट की
थी कि यद्यपि बंगाल और मद्रास की फौजों में अधिकांश भाग नीची जाति का था
किन्तु प्रत्येक रेजिमेन्ट में ऊंची जातियों के भी कुछ लोग हैं और वे अपने
बंगाल के अपने सजातीय सिपाहियों के साथ मिलकर विद्रोहा में भाग ले सकतें
हैं. इसी तरह एक दूसरी जगह मार्क्स ने बंबई प्रेसीडेन्सी के देश से बाहर लड
रहे सिपाहियों के बारे में आशंका व्यक्त करते हुये लिखा कि अगर विद्रोह
जल्दी खत्म नहीं हुआ और ये लोग वापस लौट आये तो बम्बई पलटन के ब्राह्यण और
राजपूत सिपाही भी विद्रोह में भाग ले सकतें हैं. समुद्र पार करने को लेकर
बंगाल और बम्बई के ब्राह्यण सिपाहियों का रूख , बावजूद इसके कि दोनों एक ही
क्षेत्र से आते थे, भिन्न क्यों था इस पर हम आगे विचार करेंगे.
1857 में सिपाहियों की बगावत का फौरी बडा कारण कारतूसों में गाय और सूअर की
चर्बी मिलाया जाना था. यद्यपि कुछ ब््रािटिश इतिहासकारों ने इस बारे में
भ्रम पैदा करने की कोशिश की है पर यहा लगभग सिद्ध हो गया है कि अंगेजों ने
इस मामले में अपने सैनिकों की वर्णीय चेतना को समझने में गहरी भूल की थी और
उन्होंने भारतीय सेना में ऐसा कारतूस वितरित किये जिन्हें बन्दूक में भरने
के पहले मुंह से काटना पडता था और जिन पर गाय और सूअर की चर्बी युक्त ग्रीस
लगी हुयी थी. वर्णाश्रमी मूल्यों में पले बढे सिपाहियों के लिये कारतूस को
मुँह से खोलना अपनी जाति खोने जैसा था. कारतूस में सूअर की चर्बी की आशंका
मुसलमानो को भी उत्तेजित करने के लिये पर्याप्त थी. कारतूसों की चर्चा के
दौरान एक और अफवाह अलग अलग छावनियों में फैलती रही. अक्सर किसी छावनी में
एक दिन यह अफवाह फैलती कि सिपाहियों के खाने के आटे में हड्डियों का चूरा
मिला दिया गया है और सिपाही खाना छोड देते. उनके अँग्रेज कमाण्डरों को इस
भ्रम को दूर करने में पसीने छूट जाते. खाने में हड्डी का चूरा मिलाने या
कारतूस में चर्बी का इस्तेमाल करने के पीछे सबसे आसानी से समझ में आने वाला
तर्क यही हो सकता था कि अँग्रेज उन्हें उनकी जाति से च्युत करना चाहतें हैं
और इसाई बनाना चाहतें हैं . और यही तर्क सिपाहियों की समझ में भी आया.
29 मार्च 1857 को बैरकपुर की छावनी में 34 वीं नेटिव इनफेन्ट्री के सिपाही
मंगल पाण्डे द्वारा एक रविवार के अपराहृ क्वार्टर गार्ड में जाकर अपने साथी
सिपाहियों को विद्रोह के लिये ललकारने और अँग्रेज कमाण्डरों को मारने के
आवान्ह् के पहले 19 इनफेन्ट्री रेजीमेण्ट 26 फरवरी 1957 क़ो पहले ही इस तरह
की बगावत कर चुकी थी जब उसके सैनिकों ने इन कारतूसों को लेने से इंकार कर
दिया था और कम्पनी ने बतौर सजा पूरी पलटन को बर्खास्त कर दिया था. मंगल
पाण्डे के खुले विद्रोह के पीछे एक अफवाह का जिक्र आता है जिसका उल्लेख
तत्त्कालीन बंगाल आर्मी के डिविजनल कमाण्डर मेजर जनरल हियर्से ने भी अपने
एक पत्र में किया है . इसके अनुसार जब एक निचली जाति के खलासी ने गर्मियों
में एक उच्च वर्ण के सिपाही से पानी पीने के लिये उसका लोटा मांगा तो
सिपाही ने उसे यह कह कर झिडक़ दिया कि खलासी के छूने से उसका लोटा अपवित्र
हो जायेगा. यह अफवाह यदि सच नहीं भी है तब भी उस मानसिकता को समझने में
हमें मदद करती है जो कम्पनी की बंगाल आर्मी के ज्यादातर सिपाहियों की थी और
जो 1857 के सिपाही विद्रोह की मुख्य परिचालक शक्ति थी. सिपाहियों की इस
मानसिकता को उनके वे सामंत शासक भी अच्छी तरह से समझते थे जिनके नेतृत्व
में विद्रोह के बाद अपनी अपनी छावनियों से भागकर ये सिपाही लडने के लिये
पहुंचे.अवध के विद्रोह की नेता हजरत महल ने गद्दी के वारिस बिरजिस कदर के
नाम से जो घोषणापत्र जारी किया वह इस बात को बहुत स्पष्ट करता है कि जीतने
के बाद वे मुसलमानों में शेख ,सैयद, मुगल या पठान और हिन्दुओं में
ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थों के सम्मान की रक्षा करेंगे और भंगी
, चमार धानुक या पासी जैसी नीची जातियों के लोग उनसे बराबरी का दर्जा नहीं
मांग पायेंगे .इसी घोषणापत्र में इस बात पर दुख प्रकट किया गया है कि
अँग्रेजी हुकूमत में एक चमार की शिकायत पर किसी नवाब या राजा को हाजिरी के
लिये मजबूर किया जाता है . इसी से मिलता जुलता घोषणापत्र बहादुर शाह जफर ने
भी जारी किया था और उसमें भी आश्वस्त किया गया था कि जातियों की श्रेष्ठता
बरकरार रखी जायेगी.
हमारे बहुत से इतिहासकारों ने 1857 के विद्रोह को एक जनउभार और विशाल
भारतीय जनता की राष्ट्रीय मुक्ति की अदम्य इच्छा के रूप में देखा है. कई
बार इस स्थापना की पुष्टि के लिये वे ऐसे तर्क गढतें हैं जो तथ्यों की
कसौटी पर खरे नहीं उतरते. दुर्भाग्य से इन तर्कों को गढते समय ऐतिहासिक
दस्तावेजों में भी छेड छाड क़ी जाती है. स्थानाभाव के कारण मैं यहां सिर्फ
एक उदाहरण देना चाहूंगा .उत्तर प्रदेश सूचना विभाग द्वारा कई खण्डों में
प्रकाशित फ्रीडम स्ट्रगल इन उत्तर प्रदेश के पहले खण्ड में बिरजिस कदर के
ऊपर उल्लिखित घोषणापत्र में सिर्फ एक शब्द परिवर्तित कर यह बताने की कोशिश
की गयी है कि इस दस्तावेज में आश्वस्त किया गया है कि अँग्रेजों के जाने के
बाद भंगी , चमार धानुक या पासी को ब्राह्यण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थों
के बराबरी का अधिकार होगा. यह दयनीय प्रयास शायद इसलिये किया गया कि हमारे
शासकीय इतिहासकार यह साबित करना चाहते थे कि 1857 का संग्राम हिन्दू मुसलिम
एकता का प्रतीक तो था ही बल्कि समाज से जातियों के आधार पर स्थापित भेदभाव
को समाप्त करने का एक प्रयत्न भी था.शायद इसीलिये बिरजिस कदर और बहादुर शाह
जफर के उन फरमानों का बहुत दबे स्वर में जिक्र होता है जिनमें 1857 को
जेहाद घोषित किया गया था और ईसाइयों तथा यहूदियों के मारने को एक धार्मिक
कृत्य बताया गया था.
डर्क कोल्फ (Dirk Kolff) ने अपनी किताब नौकर, राजपूत एन्ड सिपॉय में गांगेय
इलाकों को मिलेट्री लेबर मार्केट का नाम दिया है. यह संज्ञा संभवतः इस
इलाके से अँग्रेजी फौज के लिये आसानी से मिलने वाले रंगरूटों के कारण दी
गयी.सीमा अलवी ने अपनी पुस्तक द सिपॉय एन्ड द कम्पनी में विस्तार से आज के
बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और अवध के इलाकों से भरती होने वाले कम्पनी के
सिपाहियों के बारे में लिखा है. 1810 में सिर्फ बनारस एवं पूर्वी अवध से
3920 रंगरूट भर्ती हुये थे. यदि हम एक सिपाही द्वारा घर भेजे जाने वाली रकम
को औसतन दो रूपये भी माने तो सिर्फ एक बैच से इस इलाके की सालाना आय 7840
रूपये बैठती है.आज की रूपये की क्रय शक्ति से तुलना करें तो यह राशि लाखों
रूपये बैठेगी. सिपाहियों की कम्पनी की फौज में भर्ती कई कारणों से होती
थी.सूबेदार सीताराम ने , जो तिलोई के एक मझोले दर्जे के जमींदार के बेटे थे
, ने अपनी भर्ती के जो कारण दियें हैं वे तत्कालीन किसान मानसिकता को समझने
में सहायक होंगे.सीता राम पाण्डे के मामा कम्पनी में एक सिपाही थे और
छुट्टियों में घर आने पर कम्पनी बहादुर की समृध्दि के किस्से बखानते थे ,
दूरदराज कै इलाकों के सम्मोहक यात्रा वृतांत सुनाते थे और इन सबसे ज्यादा
बालक सीताराम को उनके पास मौजूद अनगिनत सोने की अशर्फियां लुभातीं थीं.
सीताराम के पिता के लिये उन्हें फौज में भेजने का एक अतिरिक्त कारण यह भी
था कि उनके चार सौ आम के पेडों के एक बाग को लेकर मुकदमेबाजी चल रही थी और
यह सभी जानते थे कि कम्पनी की फौज के सिपाही के कमाण्डिंग अफसर की चिट्ठी
से अवध के दरबार पर जैसा असर पड सकता था वैसा लम्बी घूस या ऊंची सिफारिश से
भी नहीं पडता. बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी प्रांतों के बहुत
सारे राजाओं, ताल्लुके दारों और जमींदारों के लिये अँग्रेजी फौज में
सिपाहियों की भर्ती कराने के पीछे एक मकसद अँग्रेजों की कृपा हासिल करना भी
था. सिपाहियों की भर्ती को वे अपनी जागीरों की हिफाजत की गारटी मानते थे
.इनके अतिरिक्त सिपाहियों द्वारा भेजे गये धन अथवा उनकी पेन्शन इन सामंतों
की समृद्धि में कहीं न कहीं योगदान करते थे. ये वे सिपाही थे जिन्होंने
भारत में पहली बार सही अर्थों में पेशेवर सैनिकों के युग की शुरूआत की थी
.आधुनिक अर्थों में पेशेवर इस रूप में कि उन्हें कुल के आधार पर नहीं बल्कि
अपनी कद काठी के आधार पर चुना गया था,उन्हें पलटन के सदस्य के रूप में एक
साथ रहना पडता था, वे सम्मिलित रूप से फौजी ट्रेनिंग पाते थे ,उन्हें
नियमित वेतन मिलता था, यह वेतन किसी की व्यक्तिगत कृपा या दया पर निर्भर न
होकर एक निर्धारित वेतनमान के रूप में था और वे लौकिक लक्ष्यों के लिये
युद्ध लडते थे.यद्यपि अँग्रेजों के नेतृत्व वाली फौज में वे बहुत ऊपर नहीं
जा सकते थे पर सूबेदार तक के ओहदे वे अपनी वरिष्ठता और बहादुरी से हासिल कर
सकते थे .उनके सरदार भी अपनी काबिलियत के बल पर सेना में आये थे . यह सच है
कि ब्रितानी समाज की सामन्त प्रियता के कारण उनमें से बहुत से सामंतों के
बेटे थे पर एक बडी संख्या उन वर्गों से भी आती थी जिन्हें कामनर्स कहतें
हैं .इस तरह के सिपाही अँग्रेजों के ठीक पहले न मुसलमान शासकों के पास थे
और न ही उनके पहले हिन्दू राजाओं के पास.संगठित, प्रशिक्षित और अनुशासित
सिपाहियों का ही बूता था कि क्लाइव नें पलासी में 3000 (2200 देशी और 800
योरोपियन) सिपाही लेकर सिराजुद्दौला की 30,000 की पलटन को पीट डाला.
सिराजुद्दौला के सिपाहियों को नियमित वेतन नहीं मिलता था और वे युद्ध के
समय विभिन्न सामंतों से माँग जाँच कर इकट्ठी की गयी फौज के अंग थे.
इस तरह की संगठित और एक कैन्टोनमेंट में रहने वाली फौज के कुछ खतरे भी थे
.एक साथ रहने के कारण उनमें असंतोष भडक़ाना आसान था और एक बार बागी हो जाने
के बाद कुचलना बहुत मुश्किल. मई 1857 में अँग्रेजों ने ऐसी ही एक स्थिति का
सामना किया जब एक के बाद एक छावनियों में विद्रोह की ज्वाला भडक़ी और उसे
कुचलने में अँग्रेजों को एक वर्ष से अधिक का समय लग गया.
अंग्रेजों को जैसे ही अपनी गलती का अहसास हुआ उन्होंने पंजाबियों की कुछ
इन्फ्रन्टरी पलटने खडीं क़रने का फैसला किया और 1846 से 1857 के बीच 24
इन्फ्रन्टरी रेजीमेंटें खडीं भी कर लीं .यही वह पंजाबी फौज है जिसका जिक्र
प्रदीप सक्सेना ने किया है .इस फौज में दो प्रमुख तत्व थे- जट सिक्ख और
मजहबी सिक्ख.दलित होने के कारण यह स्वाभाविक था कि मजहबी सिक्खों के मन में
देशी राज्यों के महाराजाओं के लिये लडने का कोई उत्साह नहीं था. जट सिक्ख
भी एक शताब्दी से अधिक पुराने खालसा पन्थ के उदय के कारण ब्राह्यण
कर्मकाण्डों से काफी हद मुक्त हो चुके थे.इन पंजाबी पलटनों ने न सिर्फ 1857
के विद्रोह में भाग नहीं लिया बल्कि उसे कुचलने में कम्पनी के सिपाहियों के
कन्धे से कन्धा मिलाकर लडे भी .
बंगाल पलटन के विपरीत बम्बई और मद्रास पलटनें मुख्य रूप से शूद्रों और
अतिशूद्रों की फौजें थीं. बम्बई आर्मी में महार और मद्रास आर्मी में परिया
तथा माला जैसी जैसी शूद्र जातियों का बोलबाला था. अम्बेदकर के पिता खुद एक
महार पलटन में थे .हाल में टाइम्स आफ इन्डिया में एक दलित नौकरशाह राजा
शेखर वुन्दरूं ने 1930 में डा. अम्बेदकर का वह प्रसिद्ध वक्तव्य उद्धृत्त
किया है जिसमें उन्होने कहा था कि भारत में अंग्रेज सत्ता दलित सैनिकों के
बल पर स्थापित हुयी है .पलासी की लडाई अंग्रेजों के लिये दुसाध सैनिकों ने
जीती थी .पश्चिमी भारत में अंग्रेजों का पैर जमाने के लिये आंग्ल मराठा
युद्ध, मुख्यतः बम्बई आर्मी के महार सैनिकों की मदद से जीता गया. टीपू
सुल्तान को हराने वाली मद्रास आर्मी भी अछूत परिया और माला सैनिकों से भरी
थी.
बम्बई प्रेसीडेन्सी में यद्यपि लगभग एक तिहाई सिपाही पुरबिये ब्राह्यण और
क्षत्रिय थे किन्तु फिर भी उनका आचरण कुछ अर्थों में कलकत्ता प्रेसीडेन्सी
के अपने सजातियों से भिन्न था.अपने खान पान की शुद्धता को लेकर वे भी उतने
ही चिन्तित थे लेकिन फिर भी उन्होंने लडाई के लिये बाहर जाने से गुरेज नहीं
किया . कम्पनी ने उनकी धार्मिक भावनाओं को ख्याल रखते हुये समुद्र यत्राओं
के दौरान विशेष राशन की व्यवस्था की थी. उनके साथी मुसलमान और निचली
जातियों के हिन्दू जहाज पर अपना खाना पका सकते थे किन्तु पका खाना खाने से
उनकी जति नष्ट हो सकती थी अतः समुद्री यात्रा के दौरान उनके लिये ऐसे खाद्य
पदार्थों की व्यवस्था की गयी थी जिन्हें बिना पकाये खाया जा सकता था. इस
गुत्थी को सुलझाना बहुत मुश्किल नहीं है कि बंगाल और बम्बई प्रेसीडेन्सी के
ब्राह्यण सिपाहियों का आचरण कुछ अर्थों में भिन्न क्यों था? उन्नीसवीं
शताब्दी के पूर्वार्ध्द को समझने में हमें मिलेट्री लेबर मार्केट नाम से
मशहूर गांगेय प्रदेश के 150 साल बाद की मानसिक बुनावट के अध्ययन से मदद
मिलेगी. इन प्रदेशों में पिछले 150 वर्षों में बहुत कुछ बदला है. भारत के
एक राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया के धीरे धीरे प्रौढ हो जाने के कारण
स्थानीय निष्ठायें कमजोर पडीं हैं , खान पान की छूत कम हुयी है और जातियों
का ठस्स ढांचे में कुछ हद तक दराार पडी है , किन्तु अभी भी काफी कुछ नहीं
बदला है . अभी भी इन इलाकों में ब्राह्यण बनने की ललक बाकी है . पिछडी
ज़ातियां भी जब आर्थिक या राजनैतिक शक्ति हासिल कर लेतीं हैं, ब्राह्यण बनने
की कोशिश करने लगतीं हैं. ब्राह्यण जीवन पद्धति की सबसे बडी देन शारीरिक
श्रम के प्रति अनास्था है.ब्राह्यण दुनियां की अकेली दार्शनिक व्यवस्था है
जिसमें भीख मांगने को गौरवशाली कर्म समझा जाता है. दुनियां भर में भीख
मांगना एक घृणित और मनुष्य के आत्म सम्मान को छोटा बनाने वाला काम है
किन्तु ब्राह्यण अपने हाथ से काम करने के मुकाबले भीख मांगने को ज्यादा
श्रेष्ठ समझता है .अभी हाल तक इस प्रदेश में हल बैल से खेती होती थी और
विभिन्न कारणों से बहुत सस्ता श्रम उपलब्ध था .इन सभी क्षेत्रों में
अधिकांश जमीनें ऊंची जातियों के पास हैं और उनके बीच में एक आम धारणा यह थी
कि हल का मूठ छू लेने से उनकी जाति भ्रष्ट हो जायेगी. धीरे धीरे खेती के
मशीनीकरण होने और दलितों और पिछडे वर्ग के मजदूरों के लिये बेहतर रोजगार के
अवसर उपलब्ध होने के बाद अब इस स्थिति में थोडा परिवर्तन आया है. तकनीक नें
वर्णीय सम्बन्धों में कुछ दूसरे परिवर्तन भी कियें हैं. उदाहरणार्थ गांवों
से जल के श्रोत के रूप में कुओं के एकाधिकार की समाप्ति और हैन्ड पम्पों की
उपलब्धता ने दलितों की पानी के लिये सवर्णों पर निर्भरता काफी हद तक कम की
है. अब वे पानी के लिये गिडग़िडाते नहीं या कतार के अंत में खडे होकर सबसे
गंदा पानी पीने के लिये अभिशप्त नहीं हैं. इन सबके बावजूद इन क्षेत्रों में
अभी भी शारीरिक श्रम के लिये गहरी अनास्था दिखायी देती है . मजेदार बात यह
है कि जब इन्हीं प्रदेशों के लोग पंजाब और हरियाणा जैसे उन्नत क्षेत्रों
में जातें हैं तब वहां अपने सारे मूल्यों को पीछे छोडक़र हाडतोड मेहनत करतें
हैं. दुनियां भर में इन क्षेत्रों के लोग अपनी गरीबी और रोजगार के साधनों
के अभाव के कारण गयें हैं और उन्होंने वहां अपनी शारीरिक और मानसिक क्षमता
का लोहा मनवाया है. अपने इलाके में श्रम से मुंह चुराने वाले ये लोग बाहर
जाते ही मेहनत की प्रतिमूर्ति बन जातें हैं.मारिशस, फिजी, त्रिनिदाद,
सूरीनाम , पंजाब और हरियाणा इसके ज्वलंत उदाहरण हैं.शायद यही कारण है कि
बम्बई प्रेसीडेन्सी के ब्राह्यण और क्षत्रिय सिपाहियों का आचरण भिन्न था.
उस पलटन में मौजूद शूद्रों और पिछडों की विशाल संख्या इन्हें भी मूल्यों के
स्तर पर कहीं न कहीं प्रभावित करती थी.
गांगेय प्रदेशों की श्रम के लिये अनास्था इलाके के आर्थिक पिछडेपन के लिये
कैसे जिम्मेदार है इसके लिये पंजाब और इन प्रदेशों का तुलनात्मक अध्ययन
दिलचस्प होगा. 1857 के अनुभव के बाद अँग्रेजों ने मार्शल जातियों की
अवधारणा को मजबूत किया और भोजपुरी तथा अवधी भाषी क्षेत्रों से सेना की भरती
काफी कम कर दी . फौज की भर्ती का एक बडा हिस्सा पंजाब को मिला .उस समय
रोजगार का सबसे बडा जरिया फौज थी और फौजी तनखाहें तथा पेंशन किसी भी भू भाग
में समृद्धि ला सकती थी . गांगेय प्रदेश इस अनुभव से होकर गुजर चुका था पर
वहां समृद्धि सिपाही भरती करने वाले जागीरदारों या सिर्फ सिपाहियों के
परिवारों तक सीमित रह गयी.पूरे इलाके की सामान्य खुशहाली पर इसका कोई खास
अस्र नहीं दिखता. 1857 के बाद उपलब्ध रोजगार का अकेला साधन- फौज की भर्ती -
छिन जाने के बाद इन इलाकों के गरीब किसानों को गिरमिटिया मजदूर बनकर समुद्र
पार अनजान देशों में जाना पडा. इसके विपरीत पंजाब के मेहनती किसानों ने
अपने बेटों की फौजी तनख्वाहों और पेन्शनों से अपना कायाकल्प कर लिया. यह
पंजाब में खालसा पंथ के उदय के साथ उन मझोली जतियों के वर्चस्व के बढने के
साथ हुआ जिनके लिये शारीरिक श्रम किसी भी तरह से हेय नहीं था.यह उदाहरण
मैंने सिर्फ इस तथ्य को रेखांकित करने के लिये दिया है कि अपने लोगों के
बीच शारीरिक श्रम को हेय मानने वाला पुरबिया बाहर जाकर इन मूल्यों को आसानी
से छोड सकता है. शायद यही कारण था कि कलकत्ता पलटन के अँग्रेज कमाण्डरों का
यह अनुभव कि उनके सिपाही हथियार तो उठा लेतें हैं किन्तु युद्ध के मैदान
में मोर्चे खोदने के लिये जब फावडा या बेलचा उठाने के लिये कहा जाता है तो
इससे गुरेज करतें हैं , बम्बई और मद्रास पलटनों के कमाण्डरों के सस्मरणों
में नहीं मिलता. अपने से कई गुना अधिक दलित सिपाहियों की उपस्थिति ने
निश्चित रूप से बम्बई और मद्रास पलटन के ब्राह्यण सिपाहियों के आचरण पर असर
डाला था.
एक बार सिपाहियों का वर्णीय चरित्र समझने के बाद विद्रोह का समर्थन करने या
अंग्रेजों का साथ देने के दलित द्वन्द को समझना आसान हो जाता है .उच्च वर्ण
में जन्म होने के दर्प से चूर ब्राह्यण और क्षत्रिय सिपाही अँग्रेजों से
सबसे अधिक नाराज इस बात से थे कि उन्होंने उनकी जाति नष्ट करने की कोशिश की
थी. उनके मन में भय था कि हड्डी का चूरा मिला आटा खाने से या गाय की चर्बी
वाले कारतूसों को मुंह से काटने से उनकी जाति चली जायेगी और घर वापस लौटने
पर उनके सजातीय उनके साथ भोजन नहीं करेंगे. उनकी जाति शूद्र सिपाहियों की
छाया भी भोजन या पकाने के बर्तनों पर पड ज़ाने पर नष्ट हो जाती थी.
अँग्रेजों ने उनकी इस जिद को तो स्वीकार कर लिया कि वे अलग रहेंगे और अलग
खाना पकायेंगे पर कारतूसों के मामले में उनकी भावनाओं को समझने में चूक
गये. ऊपर मैंने एक अँग्रेज सैनिक इतिहासकार के इस उल्लेख का जिक्र किया है
कि कैसे वर्ण व्यवस्था के विधानों का उल्लंघन कर भरती होने और अपने
निर्धारित कोटे से अधिक नौकरियां हासिल करने या चमडे क़ा जूता पहनने से
ब्राह्यणों की जाति नहीं जाती थी लेकिन वर्णीय अहंकार से चूर इन सिपाहियों
को जैसे ही सैनिक कर्तव्य निभाने के लिये कहा जाता उनकी जाति खतरे में पड
ज़ाती थी. एक बार सफल होने के बाद ये अपने सामंत नेतृत्व के साथ मिलकर कैसा
समाज बनाते इसे समझना बहुत मश्किल नहीं है. ऊपर कुछ फरमानों का उदाहरण
मैंने दिया है जिनके माध्यम से सामंती नेतृत्व बार बार सिपाहियों को
आश्वस्त कर रहा था कि अँग्रेजों को खदेडने के बाद ऊंची जातियों के सम्मान
को अक्षुण्ण रखा जायेगा. ज्योतिबा फुले का वायसराय को लिखा खत इसी तरफ
इशारा करता है.शूद्रों को कम्पनी राज्य में शिक्षा , सैनिक और असैनिक
नौकरियों के क्षेत्र में जो थोडा बहुत प्रवेश मिला था वह अँग्रेजों के जाने
के बाद भी बरकरार रह पाता इसमें फुले के मन में जो संदेह था वह निराधार
नहीं था. यही शंका अम्बेदकर के मन में भी थी और उसके पीछे भी वर्णाश्रमी
पाये पर टिके भारतीय समाज के अनुभव हैं. दोनो का कहीं न कहीं यह मानना था
कि एक बार सफल हो जाने के बाद कम्पनी के सिपाही और हिन्दू मुस्लिम राजे
रजवाडे वह सब छीन लेते जो शूद्रों को कम्पनी के शासन में मिला था और जिसके
चलते पशु से मनुष्य के रूप में उनका रूपातंरण संभव हो रहा था. 1857 को याद
करते समय हमें इस शूद्र परंपरा को सहानुभूति से देखना होगा . यदि हम अरूण
शौरी जैसा सरलीकरण करते हुये इसे अँग्रेजों का दलाल घोषित कर देंगे तो
निश्चित रूप से हमें इतिहास माफ नहीं करेगा.
अगला
निबन्ध
|