रणभूमि में भाषा
विभूति नारायण राय
जिन्ना की धर्मनिरपेक्षता
लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र देते समय शायद
यह नहीं सोचा था कि उनके वक्तव्य को लेकर इतने विवाद खडे होंगे या उसके
इतने निहितार्थ निकाले जायेंगे.इस प्रकरण में सबसे दिलचस्प बात यह है कि उन
लोगों ने, जिन्हें आडवाणी और संघ परिवार पिछले पचास वर्षों से छद्म
धर्मनिरपेक्ष या सूडो सेकुलरिस्ट कहते चले आ रहें हैं, इस विवाद में कोई
खास दिलचस्पी नहीं दिखायी. इस विवाद में आडवाणी के पक्ष या विपक्ष में वे
लोग कूदे जो अपने को कभी भी धर्मनिरपेक्ष कहना पसंद नहीं करेंगे .इनमे
हिन्दू और मुस्लिम कट्टरपंथी शरीक हैं. ये लोग गाहे बगाहे हिन्दू राज या
निजामे मुस्तफा कायम करने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता घोषित करते रहतें हैं.
आडवाणी ने पाकिस्तान में जो कुछ कहा उसमें दो बातें महत्वपूर्ण हैं.पहली
जिन्ना धर्मनिरपेक्ष थे और इसके पक्ष में पाकिस्तान की नेशनल असेम्बली में
11 अगस्त 1947 को दिये गये जिन्ना के प्रसिद्ध भाषण का हवाला देतें हैं
जिसमे उन्होंने कहा था कि नये राष्ट्र पाकिस्तान में अब न कोई हिन्दू होगा
और न मुसलमान.सभी पाकिस्तानी होंगे और राज्य सभी धर्मावलम्बियों से समान
व्यवहार करेगा . अब यह अलग बात है कि जिन्ना की इस सलाह पर पाकिस्तानी
हुक्मरानों ने बिल्कुल अमल नहीं किया .
आडवाणी की जिन्ना को लेकर दूसरी स्थापना यह है कि देश के विभाजन के लिये
जिन्ना ही अकेले जिम्मेदार नहीं हैं. इस बात को इधर भारतीय उपमहाद्वीप पर
लिखने वाले बहुत से विद्वानों ने रेखांकित किया है . सरकारी इतिहास का
मुलम्मा उतर जाने के बाद यह मानना बहुत मुश्किल नहीं है कि देश की बहुसंख्य
हिन्दू जनता और कांग्रेसी नेतृत्व ने थोडी सहिष्णुता का प्रदर्शन किया होता
तो न जिन्ना राष्ट्रवादी से पृथकतावादी मुस्लिम नेता हुये होते और न ही
मुस्लिम लीग को द्विराष्ट्र सिध्दान्त पर अडक़र पाकिस्तान मांगने की जरूरत
पडती. तब शायद इतिहास दूसरा होता और हमें 1947 या 48 में कैबिनेट मिशन के
सुझावों वाला एक ढीला ढाला संघ प्राप्त हुआ होताा और आज एक अविभाजित भारत
होता.बहरहाल जो हुआ उसे अब स्वीकारना होगा पर आडवाणी की उपरोक्त दोनों
स्थापनाओं पर जो लोग बहस में मुब्तिला हैं उनपर गौर करना जरूर दिलचस्प होगा
.
आडवाणी के जिन्ना को सेकुलर कहने पर हिन्दुत्ववादियों ने जिस तरह से उसका
तीखा विरोध किया उससे ऐसा लगा कि संघ परिवार के लोग धर्मनिरपेक्ष होना
सम्मानजनक समझतें हैं और उनकी नजर में जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष कहना उन्हें
एक ऐसा सम्मान देना है जिसके वे हकदार नहीं हैं .सवाल यह है कि यदि धर्म
निरपेक्ष होना अच्छा है तो फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उससे जुडे संगठन
स्वयं धर्म निरपेक्ष होने से क्यों परहेज करतें हैं ?
मुस्लिम कट्टरपंथियों और हिन्दू कट्टरपंथियों के बीच धर्म निरपेक्षता को
लेकर एक खास तरह की सहमति इस बात को लेकर तो है कि दोनों इस जीवनदर्शन को
नकारतें हैं पर हिन्दू कट्टरपंथियों के प्रतिनिधि संघ परिवार में इसे लेकर
कुछ-कुछ विभ्रम की सी स्थिति है और उनके अंदर मुस्लिम कठमुल्लों जैसा साहस
नहीं है कि वे धर्म निरपेक्षता को सिरे से नकार दें .वे इस मामले में
रणनैतिक कौशल अपनाने का प्रयास करतें हैं .उन्हें धर्म निरपेक्षता की वह
सर्वमान्य परिभाषा स्वीकृत नहीं है जिसमें राज्य और धर्म को अलग करने का
प्रयास किया गया है.वे राजनीति और धर्म को अलग रखने वालों को सूडो
सेकुलरिस्ट कहतें हैं .उनके अनुसार हिन्दुत्व पर आधारित राज्य व्यवस्था की
स्थापना ही वास्तविक रूप में धर्म निरपेक्षता है.
सेकुलरिज्म, जिसका तमगा आडवाणी ने जिन्ना को दिया है, इस्लाम और हिन्दू
दोनो परम्पराओं के लिये विदेशी है.यह एक इसाई अवधारणा है जो राज्य और चर्च
के अन्तर्सम्बन्धों को लेकर चली एक लम्बी टकराहट और योरोप के कुछ हिस्सों
में फली फूली एक अद्भुत बौद्धिक क्रांति , जिसे पुनर्जागरण कहतें हैं, की
परिणति थी.1886 में जार्ज जेकब होल्योके ने यह सुझाव दिया कि 'राज्य और
राज्य व्यवस्था को धार्मिक मान्यताओं के नियंत्रण से मुक्त रखा जाय.' 1789
की फ्रांसीसी क्रांति में भी चर्च और राज्य को अलग करने का मसला एक
महत्वपूर्ण मुद्दे की तरह था. इसलिये किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसने इस्लाम
के नाम पर एक नये राष्ट्र की परिकल्पना की थी , सेकुलर कहना इस बुनियादी
तथ्य को झुठलाना होगा कि सेकुलरिज्म न सिर्फ इस्लाम के लिये अपरिचित
अवधारणा है बल्कि उसके विरूद्ध भी है. एक इस्लामी राज्य कुरान और सुन्ना पर
ही आधारित हो सकता है. मलेशिया के इस्लामी विद्वान सैय्यद मुहम्मद नकीब अल
अतरस ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम,सेकुलरिज्म ऐन्ड फिलासफी आफ द फ्यूचर' में
इस्लाम और सेकुलरिज्म के द्वैध को बहुत स्पष्ट ढंग से रेखांकित किया है_
''सेकुलरिज्म केवल गैर इस्लामी विचारधारा ही नहीं अपितु सरासर इस्लाम
विरोधी है और मुसलमानों को चाहिये कि जहां भी इसे पायें_अपनों के बीच या
अपने मन में इसका जबर्दस्त विरोध करें और कुचल दें क्यों कि यह सच्चे धर्म
के लिये घातक विष है.'' (पृष्ठ -38) इसी पुस्तक में थोडा पहले नकीब ने जोर
देकर कहा कि ''इस्लाम स्वयं , सेकुलर या सेक्यूलरीकरण और सेक्यूलरवाद की
अवधारणाओं और उनके प्रयोगों को पुरी तरह से नकारता है , क्योंकि वे उसके
अंग नहीं हैं और वे इस्लाम से सभी बातों में भिन्न हैं , और वे पश्चिमी
इसाई धर्म के अनुभवों के बौद्धिक इतिहास के अंग और उसके स्वभावतः अनुरूप
हैं.'' (पृष्ठ -23)
दुनियां भर के मुसलमानों की यह सबसे बडी ट्रैजेडी है कि जब वे अल्पमत में
होतें हैं तो सेकुलरिज्म के सबसे बडे झंडाबरदार होतें हैं .उन सभी भू भागों
में जहां वे बहुसंख्यक हैं उनका प्रयास शरीयत पर आधारित इस्लामी हुकूमत
कायम करने का होता है .खुद अल्पसंख्यक होने पर वे राज्य से जिन सुविधाओं और
अधिकारों की अपेक्षा करतें हैं वही सुविधायें और अधिकार किसी इस्लामी
हुकूमत में अपने अल्पसंख्यकों को देने के लिये कत्तई तैयार नहीं होते .
भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों की भी यही ट्रैजेडी है . इस द्वैध को प्रो.
मुशीरूल हसन ने अपनी पुस्तक 'इस्लाम इन सेकुलर इन्डिया' में बडी बेबाकी से
व्यक्त किया है.उनके अनुसार ''भारतीय मुसलमानों में एक छोटे से वर्ग को
छोडक़र बहुसंख्यक समाज किसी भी प्रकार से सेक्यूलर नहीं है.''(पृष्ठ-1) ''
उनमें से अधिकांश उलेमाओं का विश्वास है कि राज्य तो सेक्यूलर रहे परन्तु
मुसलमानो को सेक्यूलरिज्म से बचाया जाय.'' (पृष्ठ-12) भारतीय मुसलमान अपने
जीवन और सामुदायिक गतिविधियों में सेकुलर नहीं होना चाहते पर भारतीय राज्य
सेक्यूलर देखना चाहतें हैं इसका उत्तर भी प्रो. हसन के यहां है _ ''भारत के
मुस्लिम समुदायों ने भी सेक्यूलर राज्य का स्वागत किया है क्योंकि उन्हें
डर है कि इसका विकल्प हिन्दू राज्य ही होगा.'' (पृष्ठ-8) .इसलिये किसी भी
ऐसे व्यक्ति को जिसने एक धर्मांधारित राज्य बनवाया , सेकुलर कहना न सिर्फ
सेकुलररिज्म शब्द का गलत इस्तेमाल है बल्कि शायद उसके साथ भी ज्यादती है.
हिन्दुत्व की जो शक्तियां जिन्ना को सेकुलर कहे जाने पर दुखी हैं वे स्वयं
सेकुलरिज्म के प्रति कितनी गम्भीर हैं उसे सिर्फ इसी तथ्य से समझा जा सकता
है कि भारत में दो राष्ट्रों की बात सबसे पहले इन्हीं लोगों ने प्रारम्भ की
थी.बंकिमचन्द्र ,सावरकर और गोलवरकर इस धारा के सबसे बडे व्याख्याकार हैं और
उनके अनगिनत उद्धरण उपलब्ध हैं जिनमें उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को
दो अलग राष्ट्रों के रूप में परिभाषित किया है.चौधरी रहमत अली या मुस्लिम
लीग के द्विराष्ट्र सिध्दान्त अपनाये जाने के पहले सावरकर ने लिखा था _
''आर्यपुरूष इतिहास के अरूणोदय में ही भारत में बस गये थे और तभी एक
राष्ट्र का जन्म हुआ था जो अब मात्र हिन्दुओं में ही निहित है .'' एक दूसरे
लेख में उन्होंने लिखा _ '' हिन्दुस्तान में हिन्दू स्वयं ही एक राष्ट्र है
.'' गोलवरकर के मन में भी कहीं कोई शंका नहीं है कि '' हिन्दुओं को इस बात
का विस्मरण कराने का प्रयास किया जा रहा है कि वास्तव में वे ही एक राष्ट्र
हैं.'' आज कई बार संघ के व्याख्याकार हिन्दू का वृहद अर्थ निकालने की बात
करतें हैं और यह सिद्व करने की कोशिश करतें हैं कि भारत में रहने वाले सभी
हिन्दू हैं पर गोलवरकर के यहां इसे लेकर भी कोई भ्रम नहीं है .उन्होंने
विचार नवनीत में कई प्रसंगों में लिखा है कि कुछ कांग्रेसी उनसे हिन्दू की
जगह भारतीय शब्द का प्रयोग करने का आग्रह करतें हैं पर ''सत्य तो यह है कि
जिस विचार का हम प्रतिनिधित्व करतें हैं उसका शुद्ध एवं स्पष्ट रूप से
वर्णन 'हिन्दू' शब्द द्वारा ही हो सकता है .उनके लिये हिन्दू का मतलब सारे
भारतीय होता तो वे विचार नवनीत में स्पष्ट रूप से देश के तीन शत्रुओं के
रूप में कम्यूनिस्टों के साथ मुसलमानों और ईसाइयों पर एक एक अध्याय लिखने
की मेहनत नहीं करते. दरअसल हिन्दुत्व के पुरोधाओं ने न सिर्फ मुस्लिम
कट्टरपंथियों से पहले हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग राष्ट्र घोषित कर
दिया था बल्कि यह भी रेखांकित करने की कोशिश की थी कि ये दोनो एक साथ नहीं
रह सकते.यह एक अलग बात है कि हिन्दुओं को एक अलग राष्ट्र मानने वालों को
देश विभाजित करने की जरूरत नहीं थी .अंग्रेजी राज्य ने धीरे धीरे भारत को
एक ऐसे राष्ट्रराज्य में तब्दील कर दिया था जो आजादी मिलने तक बालिग
मताधिकार पर आधारित गणराज्य बन गया.इस गणराज्य में , जहां हर व्यक्ति को एक
वोट का अधिकार था, यह स्वाभाविक था कि बहुसंख्यक हिन्दुओं का देश की राज्य
सत्ता पर अधिकार होता .यह भी स्वाभाविक ही था कि कि ऐसी स्थिति में
अल्पसंख्यक मुसलमानों के मन में अपनी पहचान और विशेषाधिकार खोने का भय
था.इस समय जरूरी था कि गांधी जी और कांग्रेस उन्हें यह विश्वास दिलाने का
ईमानदार प्रयास करते कि हिन्दू बहुल स्वतंत्र भारत में उनकी हैसियत बराबर
के हिस्सेदार की होगी .उस समय एक आदर्श स्थिति एक ढीला ढाला संघ होता
जिसमें राज्यों के पास आज के मुकाबले अधिक अधिकार होता. कैबिनेट मिशन के
सुझावों को थोडे बहुत परिवर्तनों के साथ मान लेने से ऐसी स्थिति बन सकती
थी.यह सब नहीं हुआ और परिस्थितियां ऐसी बनती गयी कि देश विभाजित हो गया.यह
सब अब इतिहास है.यदि आडवाणी सचमुच इसमें विश्वास करतें हैं कि देश के
विभाजन के लिये सिर्फ जिन्ना (अर्थ विस्तार में मुस्लिम लीग और थोडा और आगे
जाने पर मुसलमान) ही देश के विभाजन के लिये जिम्मेदार नहीं हैं तो इससे
सहमत होने में हमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिये .पर सच शायद यह नहीं
है.अपनी हालिया पाकिस्तान यात्रा के पहले हजारों बार आडवाणी जिन्ना,
मुस्लिम लीग और मुसलमानों के बारे में जो कुछ कहते रहें हैं वह उनके इस
बयान से पूरी तरह भिन्न था. ऐसा नहीं हो सकता कि उन्होंने जिन्ना का ग्यारह
अगस्त का भाषण पहली बार पाकिस्तान जाते समय पढा था.
यह मानना ज्यादा तर्कसंगत होगा कि आडवाणी का हृदय परिवर्तन एक अति सरलीकृत
अवसरवाद के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है यदि किसी व्यक्ति के जीवन को समग्रता
में न देखकर सिर्फ एक भाषण के आधार पर मूल्यांकित किया जाय तो आडवाणी भी
धर्मनिरपेक्ष साबित होंगे.उन्होंने भी कई बार छः दिसम्बर को अपने जीवन का
दुःखद दिन घोषित किया है.पर उनकी इस घोषणा पर किसी को यकीन नहीं होता
क्योंकि सभी जानतें हैं कि छः दिसम्बर को संभव बनाने में उनकी रथ यात्रा का
कितना बडा योगदान था.
यह सही है कि जिन्ना ने 11 अगस्त 1947 को पाकिस्तानी नेशनल असेम्बली में एक
ऐसा भाषण दिया था जो किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की बुनियाद बन सकता है
पर उससे बडा सच यह है कि जिन्ना ने 1940 में लाहौर के मुस्लिम लीग के
अधिवेशन में जो कुछ कहा था अगर उसपर यकीन किया जाय तो हिन्दू और मुसलमान न
सिर्फ दो राष्ट्र हैं बल्कि इनके साथ साथ रहने की कोई भी संभावना नहीं है
.जिन्ना के अनुसार हिन्दुओं और मुसलमानों का इतिहास , खानपान, वेशभूषा और
यहां तक कि कैलेण्डर भी अलग है. जिन्ना और उनकी पार्टी के डाइरेक्ट ऐक्शन
डे के कारण हजारों हिन्दुओं और मुसलमानों को अपने जान से हाथ धोना पडा और
इस हिंसा की स्मृति ने ही देश के विभाजन को और हिंसक बनाया.इस तथ्य से
जिन्ना एक उदार और आधुनिक व्यक्ति नहीं हो सकते कि वे शराब पीते थे, सूअर
खाते थे तथा नमाज सही ढंग से पढना नहीं जानते थे.उनकी उदार छवि निर्मित
करने के समय यह भी याद करना चाहिये कि उन्होंने जिद करके अपने पारसी पत्नी
को शिया कब्रिस्तान में दफन करवाया और अपनी बेटी को एक पारसी से शादी करने
की न सिर्फ इजाज़त नहीं दी बल्कि उसके पारसी से विवाह करने पर जीवन भर उसका
मुंह नहीं देखा. शायद यह एक मुस्लिम नेता बने रहने की जिद से उत्पन्न
त्रासदी थी जिससे जिन्ना बच नहीं सकते थे.उनके 11अगस्त 1947 के भाषण पर
उनके जीवनीकार स्टैनले वाल्पर्ट ने बहुत सही टिप्पणी की है , '' वे क्या
कहना चाहतें हैं? क्या वे भूल गयें हैं कि वे कहां खडें हैं? क्या घटनाओं
के झंझावात ने उन्हें इतना विचलित कर दिया कि वे अपने विरोधी का मुकदमा
लडने लगे ? क्या वे पाकिस्तान निर्माण की संध्या पर एकीकरण की बात कर रहें
हैं. ''ज़ाहिर है कि 11 अगस्त 1947 का भाषण एक ऐसे व्यक्ति का भाषण है जो
विभाजन के अवसर पर हो रही हिंसा से विचलित होकर अपनी ही निर्मिति के खिलाफ
प्रालाप कर रहा है .
संघ परिवार की जिन्ना को धर्मनिरपेक्षता का प्रमाणपत्र दिये जाने से
उत्पन्न नाराजगी का कोई मतलब नहीं है क्योंकि वे खुद धर्मनिरपेक्ष नहीं है
और लगातार धर्म और राजनीति में घालमेल करता रहता है. इस नाराजगी को दरकिनार
कर भी दिया जाय तो आडवाणी के इस प्रमाणपत्र का कोई मतलब नहीं है .रक्तरंजित
रास्तों से एक धर्मांधारित राज्य बनाने वाला व्यक्ति किसी भी अर्थ में
धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता. उसके जीवन की विरोधाभासी हरकतें ज्यादा से
ज्यादा उसे एक चालाक अवसरवादी ही सिद्ध कर सकतीं हैं .यह वैसे ही है जैसे
कभी कभार बावरी मस्जिद ध्वंस पर विलाप करने से आडवाणी धर्मनिरपेक्ष नहीं हो
सकते. वे खून सने हाथों को कितना भी छिपायें पर उन्हीं के साथ जीने के लिये
अभिशप्त हैं.
अगला
निबन्ध
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