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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली-2
सम्पादक
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राघव शरण शर्मा
उत्तर भाग-मध्य खण्ड
(20)
(21) पश्चिम पटना किसान-सभा
इस प्रकार मैं सन 1927 ई. के उत्तरार्ध्द में आ जाता हूँ। वह साल बीतने के पहले तथा प्रेस एवं पत्र को भी दूसरे को सौंपने के पूर्व ही एक अन्य जरूरी और ऐतिहासिक कार्य का भी सूत्रपात मैंने किया, जिसका रूप आज न केवल बिहार में, वरन भारत भर में विस्तृत हो गया और हो रहा हैं। मेरा मतलब हैं किसान-सभा से। पटना जिले के जिस इलाके में बिहटा-आश्रम हैं, वह पटना जिले का पश्चिमी भाग होने के साथ ही जालिम जमींदारों का इलाका भी हैं। पटना और शाहाबाद जिले की प्राकृतिक सीमा, सोन नदी बिहटा से तीन ही मील पश्चिम हैं। ईस्ट इंडियन रेल्वे की कलकत्ता-दिल्ली वाली मुख्यलाइन का बिहटा स्टेशन पटना जिले का आखिरी हैं। उससे पश्चिम का स्टेशन कोइलवर सोन के पश्चिम पार शाहाबाद जिले में पड़ता हैं। वैसे तो अब रेल के सिवाय पटना से बस सर्विस भी बिहटा के लिए हैं। वहाँ तारघर के सिवाय चीनी की एक बड़ी मिल, साउथ बिहार सूगर मिल्स के नाम से कई वर्षों से चल रही हैं। लेकिन पहले वह इलाका गुड़ बनाने का प्रधान केन्द्र था। साल में कई लाख मन गुड़ भारत के सभी भागों में वहाँ से जाता था। आज भी लाखों मन जाता हैं। मगर अब पुरानी बात नहीं हैं। वहाँ की मनेरिया ऊख, जो मनेर परगने के नाम से प्रसिद्ध थी, बहुत ही नामी ऊख थी। पुराने जमाने से ही वह इलाका उस ऊख के लिए प्रसिद्ध हैं। अब तो वह खत्म हो गई। अब देश के सभी भागों की तरह उस मनेर में भी कोयम्बटूर वाली ऊख आ गई। गुड़ वहाँ का बहुत अच्छा होता हैं। और भारत की दो-चार गिनी-चुनी जगहों में एक बिहटा भी अच्छे गुड़ के लिए मशहूर हैं। उसके अलावे, पहले भी और अब भी, हफ्ते में दो बार वहाँ गल्ले का बाजार होता हैं खासकर चावल का। 40-50 मील तक के गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर चावल लाते और बेचकर चले जाते हैं। उसी बिहटा से दक्षिण सात-आठ मील जाने पर मसौढ़ा परगना शुरू हो जाता हैं। वह दक्षिण में दूर तक गया जिले में भी चला गया हैं। इस मसौढ़ा परगने के जमींदार बहुत पहले से ही जालिम मशहूर हैं। आज भी उनका बहुत कुछ जुल्म चलता ही हैं। हालाँकि, किसान-सभा ने न सिर्फ उनके होश दुरुस्त किये हैं, प्रत्युत किसानों को भी काफी जगा दिया हैं और उनमें हिम्मत ला दी हैं। मगर जिस समय की बात मैं कह रहा हूँ उस समय तो वहाँ के किसान इतने पस्तहिम्मत थे कि जमींदारी जुल्म के विरुद्ध खुल के जबान भी नहीं हिला सकते थे। यह वही जमींदार हैं जिन्होंने किसानों की लड़कियाँ और बहनें बिकवाकर लगान वसूल किया हैं। इसकी दास्तान कांग्रेस जाँच कमिटी के सामने सन 1937 के पहले पेश हुई थी, जब वह उस इलाके में गई थी। वहाँ जमींदारों के (पटवारी, बराहिल, अमले आदि) ही सब कुछ थे और उनसे किसान थर्राते रहते थे। वहीं के एक जमींदार ने सरौती (गया) के सभी किसानों को सिर्फ एक कटहल के फल के करते बर्बाद कर दिया! उनने ही सन 1921 ई. में कांग्रेस के कुछ लीडरों की मीटिंग तक वहाँ न होने दी! उनका ऐसा कायदा था कि किसानों के घरों पर पारी बँधी रहती थी कि किस दिन कौन-कौन से किसान उनके दरबार में दिन-रात बेगार करने के लिए जायेंगे। जिसके द्वार पर जमींदार का आदमी मोटा सा डण्डा शाम को रख आया, बस उसे नोटिस हुई और दूसरे दिन सुबह सारा काम छोड़कर जाना ही होगा, चाहे वज्र ही क्यों न गिरता हो। अगले दिन वह डण्डा दूसरे के द्वार जा धमकता था। यही क्रम था। एक दिन दुर्भाग्य से रात में ही डण्डेवाले किसान के घर में कोई मर गया। फलत: सुबह बेगारी में जाने के बदले मृतक को जलाने और संस्कार के लिए सारे परिवार को बीस माईल दूर गंगा किनारे जाना पड़ा। धर्म की आखिर बात थी न? फिर तो गजब हुआ। जमींदार ने गुस्से में आकर सारे गाँव को अनेक उपायों से तहस-नहस कर दिया। मसौढ़ा के जमींदारों का जुल्म वहाँ और पास के इलाकों में दूर तक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तक कि कोई भला किसान अपनी लड़की उस मसौढ़ा में पहले ब्याहता न था। फलत: बड़ी दिक्कत से शादी हो पाती थी। लड़की की इज्जत खतरे में कौन डाले? उनके जुल्म के दो-एक नमूने और सुनिये। फसल तैयार होकर खलिहान में जमा हैं और जमींदार के आदमी ने उस पर गोबर लगा दिया जिसे छापा कहते हैं। फिर जब तक जमींदार का हुक्म न होगा तब तक किसान की क्या बिसात कि उसे छुए, चाहे वह सड़, गल या जल ही क्यों न जाये? इस प्रकार एक गाँव, पैपुरा की सारी फसल खलिहान में जल गई और किसानों को दाना न मिला। रब्बी की फसल कई महीने उस छापे के चलते पड़ी रही और बरसात में सड़ने लगी फिर भी जमींदार ने हुक्म न दिया कि उसे दौनी करके ले जाओ। फलत: किसी ने आग लगा दी। वहाँ एक तरीका हैं दानाबन्दी का। वहाँ ज्यादातर जमीनों का लगान नकद न होकर भावली हैं। इससे किसानों को रुपये के बदले जमींदार को तयशुदा गल्ला ही देना पड़ता हैं। वह कितना हो इसको ठीक करने का तरीका दानाबन्दी कहा जाता हैं। जमींदार के अमले (नौकर) ने फसल वाले खेत पर जाकर अन्दाज से कह दिया कि इस खेत में इतने मन गल्ला होगा और वही बज्रलीक हो गया! यदि अमले की पूजा किसान ने न की तो पाँच मन की जगह आठ मन तो वह अमला जरूरी ही कहेगा। वही बात एक कागज पर नोट कर लेता हैं। उसे खेसरा कहते हैं। कभी-कभी तो जमींदार की कचहरी में बैठकर जाली खेसरे बना करते हैं। खासकर भावली खेतों के लगान की नालिश के समय। और असली खसरे फाड़ दिये जाते हैं! क्योंकि नालिश के समय पाँच मन की जगह पचीस मन तो बताना ही होगा, ताकि ज्यादा रुपयों की डिग्री हो। वही खसरे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किये जाते हैं। इस दानाबन्दी का नतीजा होता हैं कि किसान को खेत के साथ-साथ, गाय, बैल, बकरी आदि और कभी-कभी तो लड़कियाँ तक बेचकर, जमींदार का पावना चुकाना होता हैं! जमींदार की शान ऐसी कि यदि वह कुर्सी या चारपाई पर बैठा हो तो किसान चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो, बहुत दूर हट के नीचे खाली जमीन पर ही बैठेगा। सो भी हाथ जोड़कर! सन 1927 ई. के अन्त तक मुझे इन जुल्मों का पूरा ब्योरा तो ज्ञात न था। मगर इतना जरूर जानता था कि वहाँ किसानों पर जुल्म बहुत होता हैं। कुछ खास जुल्मों का पता भी था। ऐसी दशा में मैंने सोचा कि यहाँ बराबर रहना हैं और गंगा स्नान, कचहरी जाने, मुर्दे को गंगा किनारे ले जाने, बाजार में आने तथा मेले में (क्योंकि वहाँ फागुन और वैशाख में शिवरात्रि का बड़ा मेला ब्रह्मपुर की ही तरह लगता हैं) आने के समय किसान खामख्वाह अपनी बातें सुनाया करेंगे। अगर उनके दु:ख सुनकर कोई तेज आन्दोलन चलाया गया तो जमींदार और किसान के झगड़े खड़े हो जायेगे और इस तरह आजादी की लड़ाई में बाधा पहुँचेगी। कारण गृहकलह और आपसी झगड़े तो उसे कमजोर करेंगे ही। और अगर मैं यह सब बातें सोचकर न भी पड़ा तो बहुत से लोग जिनका यही पेशा हैं कि झगड़े लगाया करें और इस प्रकार लीडरी और नाम दोनों ही कमा लें, यह काम जरूर ही करेंगे। फिर तो कांग्रेस और उसकी लड़ाई खामख्वाह कमजोर होगी और मेरी दिक्कतें बढ़ेंगी। तब तक किसानों के नाम पर झूठे आन्दोलन चलाकर कइयों ने किसानों को काफी ठग लिया था और इसकी जानकारी भी मुझे हो चुकी थी। इसीलिए यह खतरा मुझे मालूम हुआ। मैंने देखा, यहाँ तो बारूद का खजाना हैं। कहीं से अगर एक चिनगारी भी उसमें पड़ गयी, जो बहुत सम्भव हैं, तो बड़ा भयंकर भड़ाका होगा और सारा गुड़ गोबर हो जायेगा। इसीलिए कोई उपाय होना चाहिए यह फिक्र मुझे हुई। कुछ और साथियों से भी राय की। अन्त में तय पाया कि यदि हम स्वयं किसानों की एक सभा यहाँ कायम करें और उनका आन्दोलन चलायें तभी खैरियत होगी। क्योंकि ऐसी दशा में एक तो समझ-बूझकर हम पाँव बढ़ायेंगे जिससे किसान-जमींदार संघर्ष न होगा, गृहकलह न होगी और दोनों को समझा-बुझाकर झमेला तय करा दिया जायेगा जैसा कि कांग्रेस का सिद्धान्त हैं। खासकर गांधीजी तो ऐसा ही मानते और कहते हैं। मेरे लिए तो वही पथ दर्शक थे भी। दूसरे ऐसी दशा में गैरजवाबदेह गैर लोगों को यहाँ घुसने और उत्पात मचाने का मौका ही न मिलेगा। क्योंकि वह हमारे आन्दोलन और हमारी सभा को देखकर यहाँ आने की हिम्मत न करेंगे। बस, इसी निश्चय के अनुसार हमने किसानों की सभाएँ जहाँ-तहाँ करना शुरू कर दिया और उनका आन्दोलन जारी किया। यह भी सोचा गया कि कौंसिल के लिए पटना जिला दो चुनाव क्षेत्रों में बँटा हैं, पूर्व पटना और पश्चिम पटना। लेकिन हम तो पश्चिम पटना में ही थे। वहीं काम भी करना था। चुनाव में वोट को लेकर झगड़े होते हैं। गर्मी भी किसानों के बीच काफी पैदा की जाती हैं। फलत: उस चुनाव के समय भी हम फायदा उठा सकते हैं अगर हमारी सभा यहाँ हो। सारे जिले की फिक्र क्यों करें? हमें तो सिर्फ पश्चिम पटना को देखना हैं। इसी ख्याल से पश्चिम पटना में ही हमारा किसान आन्दोलन सन 1927 ई. के बीतते-न-बीतते शुरू हो गया। इसके कुछ ही दिन चलने के बाद हमने नियमित रूप से पश्चिम पटना किसान-सभा का जन्म ता. 4-3-28 को दिया। हमने उस समय उसकी नियमावली आदि बनाई। उसका उद्देश्य क्या हो, उसके मेम्बर कौन हों इत्यादि बातें भी तय पायीं। जो लोग यह तारीख देखकर किसान-सभा का जन्म सन 1928 में मानते हैं, वह भूलते हैं। उस समय तो उसका विधान आदि बन गया और पूरा रूप खड़ा हो गया। मगर इसके लिए तैयारी भी तो चाहिए और उसमें कुछ समय तो लगता ही हैं। इसीलिए किसान-सभा का जन्म असल में सन 1927 ई. के अन्तिम दिनों में ही, आखिरी महीनों में ही, हुआ इतना तो पक्का हैं। हाँ, ठीक तारीख और महीना याद नहीं कि कब हुआ। असल में ऐसी बातों की ठीक तारीखें याद रहती हैं भी नहीं। वह तो तभी याद होती हैं जब संस्थाओं की बैठकें बाकायदा शुरू होती हैं। इस प्रकार साफ हैं कि शुरू में जब हमने किसान-सभा का जन्म दिया तो किसानों तथा जमींदारों के समझौते और उनके हकों के सामंजस्य को सामने रखकर ही यह काम किया यही कांग्रेस का उस समय सिद्धान्त था और आज भी हैं कि किसान, जमींदार, पूँजीपति-मजदूर, अमीर-गरीब आदि सभी के परस्पर विरोधी हकों, अधिकारों और हितों का सामंजस्य करना और उन्हें मिलाना। उसके मत से जो असल में ये अधिकार, ये हक और ये हित परस्पर विरोधी हईं नहीं। किन्तु केवल ऊपर से ऐसे मालूम पड़ते हैं। अत: उसका काम हैं इसी मालूम पड़ने को हटा देना। वह इन दलों के संघर्ष को बहुत बुरा मानती और इससे डरती हैं। इसे वह आजादी की लड़ाई का बड़ा बाधक समझती हैं। मेरी भी दृष्टि उस समय ठीक इसी तरह की थी। मैं सपने में भी दूसरे प्रकार का ख्याल कर न सकता। मैं सोचता था कि हमारे यत्न से यह सामंजस्य हो जायेगा और यह संघर्ष असम्भव हो जायेगा। लेकिन मुझे क्या पता था कि एक दिन यही किसान-सभा परिस्थिति के वश हो इस विचार को त्यागने को मजबूर होगी और इस विरोध को स्वाभाविक तथा असली चीज समझ इस संघर्ष का स्वागत करेगी। यहाँ तक मैं कैसे पहुँचा और मेरे साथ किसान-सभा भी कैसे पहुँची, आगे के पृष्ठ इसी बात को बतायेंगे। पर, यहाँ इतना ही कहना हैं कि मेरे मन में जो पहले पहल किसान आन्दोलन और किसान- सभा का ख्याल आया वह पक्के और कट्टर सुधारक या सुधारवादी (Reformist) की हैंसियत से ही न कि सपने में भी क्रान्तिकारी की हैंसियत से। तब तो मैं क्रान्ति (revolution) को समझता भी न था कि वह असल में क्या चीज हैं?
उत्तर भाग उत्तर खण्ड विश्राम-बुलन्दशहर में
'लोक संग्रह' और प्रेसकार्यी जी को सौंप कर मैं विश्राम के लिए सुलतानपुर (शाहाबाद) चला गया। फिर सोचा कि पास में रहने से बराबर लोग आते ही जाते रहेंगे। इसलिए वहाँ से भी राँची चला गया और सर गणेश के डेरे में महीनों पड़ा रहा। फिर वहाँ से लौटकर सिमरी रहा। सर गणेश के यहाँ जाने की बात आगे विस्तार से लिखी हैं। उसका सिलसिला आगे की बातों से मिलेगा। यहाँ एक प्रासंगिक बात लिख देता हूँ। मैं सन 1929 की गर्मियों में बुलन्दशहर जिले के तौली ग्राम में जो अनूपशहर से 6-7 मील पश्चिम हैं, चला गया। बरसात के दो महीने वहीं कटे। मेरे एक चिर परिचित दण्डी जी हैं स्वामी सोमतीर्थ जी। वे पहले योगाभ्यास करते थे। उसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। मगर उसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि गर्मियों में उन्हें कष्ट ज्यादा रहता हैं। क्योंकि शरीर में गर्मी का असर उस अभ्यास के करते ज्यादा हो गया। फिर भी बड़े ही शान्त और एकान्तवासी हैं। ईधर कुछ दिनों से पता नहीं उनकी क्या हालत हैं? उसी अभ्यास के चलते रोगी तो होई गये हैं। हाँ, तो इस बार हम और वह दोनों ही एक ही साथ तौली गये और वहीं रहे। वहाँ के रईस चौधरी रघुवीर सिंह वगैरह असौढ़े के चौधरी रघुवीरनारायण सिंह के नातेदार पड़ते हैं। इसलिए उन लोगों से पहले ही परिचय था। उनसे आग्रह किया कि उन्हीं के गाँव पर कुछ समय रहा जाये। इसी से वहाँ गये। सचमुच ही वह निरी एकान्त जगह मिली। स्टेशन से बीसियों मील दूर! बुलन्दशहर से ही वहाँ जाना पड़ता हैं। सड़क तो पक्की हैं। पर, उन दिनों बहुत ही खराब थी। सिर्फ, ताँगे से ही वहाँ जाना पड़ा। वहाँ दो चीजें देखने में आयीं। एक तो जिनके यहाँ हम लोग गाँव से अलग हटकर एक बगीचे में ठहरे थे, उनके ही यहाँ नील की खेती देखी। पहले तो बिहार में और दूसरी जगह भी नील की खेती खूब होती थी। इससे रंग तैयार होता था। मगर पीछे जब विलायती रंग चला तो वह चीज जाती रही। फलत: हमें उसका दर्शन वहीं मिला। उन लोगों ने उसकी खेती जारी रखी थी। उससे कुछ नील का रंग भी तैयार करते थे। मगर उन्होंने जो नील की खेती का असली लाभ बताया उससे मैं बहुत आकृष्ट हुआ। बात आज भी ताजी ही हैं। वे लोग खूब ज्यादा खेती करते हैं। खेतों में खाद देने का सबसे उत्तम साधन नील की खेती समझ उन्होंने उसे नहीं छोड़ा। पारी-पारी से सभी खेतों में नील बोते हैं। उसकी जड़ें जमीन में सड़कर अलग खाद का काम देती हैं और खेत में गिरी हुई पत्तियाँ जुदाही खेत की पैदावार बढ़ाती हैं। ये दोनों बातें अनिवार्य हैं अगर नील बोया जाये। पत्तियाँ गिरेंगी ही और जड़ें सड़ेंगी ही। फिर जब नील काट कर हौज में सड़ाते और उसके बाद सड़ा हुआ पानी छानकर बहा देते हैं तो वह भी जमीन को सोना बना देता हैं। मैं उस पानी की बात तो पहले सुन चुका था। लेकिन जड़ों और पत्तियों की नहीं। यों तो सन की खेती करके थोड़ा बढ़ने पर ही यदि खेत जोत दें जिससे सन का पौधा मिट्टी के नीचे पड़ के सड़ जाये तो अच्छी खाद होती हैं। इसे ही हरी खाद (green manure) कहते हैं। मगर नील तो उससे कहीं अच्छी हरी खाद का काम देता हैं। अफसोस कि किसान नील और सन की खाद भूलकर विलायती खादें पैसे से खरीद कर देने लगे हैं।
वहाँ मैंने दूसरी चीज देखी गुड़ और भूरा बनाने का चूल्हा। बिहार और मैं वहाँ एक और चीज देखकर मुग्ध हुआ। पुराने ढंग के चरखे वहाँ बराबर चलते पाये। देहाती हाटों में बहुत ज्यादा सूत ला-लाकर औरतें बेचा करती थीं। उन्हीं की बनी शुद्ध खादी भी बहुत ही सस्ती वहाँ मिलती थी। कपास तो उधर बहुत ही काफी होती हैं। चरखे भी बन्द हुए न थे। इसलिए खादी के लिए वहाँ नये उद्योग की जरूरत ही न थी। सिर्फ सूत खरीदने का काम था। फिर तो जितना चाहिए कता-कताया पाइयेगा। तब तक तो गांधी आश्रम और चरखा संघ वालों का वहाँ दर्शन न हुआ। शायद पीछे पहुँचे हों। वहाँ का बहुत ही सस्ता सूत और सस्ती खादी काम की चीज थी। यह ठीक हैं कि मोटी खादी ही बनती थी। महीन सूत नहीं कतता था। यह भी मालूम हुआ कि लिहाफ या रजाई में एक-दो साल तक रूई रख के उसे निकाल लेते और उसमें नयी रूई देते थे। उसी निकली रूई को धुलाकर धुन लेते और सूत कातते थे। इससे सूत भी सस्ता पड़ता था और रूई का अच्छा आर्थिक उपयोग भी होता था। वह जरा भी खराब या नष्ट होने न पाती थी। किसानों को ऐसी समझ हो ताकि अपनी हरेक चीज का खूब ही उपयोग करें तो कितना अच्छा हो। एक साधु की कहानी हैं कि वह कपड़े की पहले धोती बनाता। धोती फटने पर उसके गमछे। गमछे फटें तो लँगोटियाँ। लँगोटियाँ फटीं तो उन्हें बाटकर रस्सी और रस्सी टूटने पर उसे जलाकर भस्म बनाता और सिर तथा देह में उस भस्म को लगा लेता था। यह कितनी सुन्दर बात हैं। वहाँ कि किसान थोड़ा-बहुत ऐसा ही करते थे। अस्तु, वर्ष के बाद मैं वहाँ से पुन: बिहार लौट आया।
सर गणेश से मनमुटाव
पहले कहा जा चुका हैं कि सर गणेशदत्ता सिंह से सन 1926 की गर्मियों में मेरा कुछ हेलमेल हो गया था कई वर्षों के मनमुटाव के बाद। इसीलिए 'लोक संग्रह' से छुटकारा पाते ही सन 1928 की गर्मियों में मैं राँची गया उनके ही आग्रह से, और कुछ दिन वहाँ ठहरा। गर्मियों के दिन बीत रहे थे और बरसात आने ही वाली थी। मैंने अगस्त वाला कौंसिल का अधिवेशन भी वहीं देखा। फिर वापस आया। राँची में रह के मैं बराबर सुबह-शाम आस-पास के गाँवों में दूर-दूर तक घूमने जाया करता था। मैं हर मुण्डा या उरांव को जो वहाँ के निवासी हैं, देखकर उनके सिर पर नजर दौड़ाता यह देखने के लिए कि चोटी (शिखा) हैं या नहीं। वहाँ ईसाई काफी हैं। उस समय भी थे। इसीलिए देखता था। चोटी देखकर मैं एकाएक अनायास रो पड़ता और सोचता था कि हिन्दुओं की शिखा उनके पूर्वजों के सिर पर न जानें कब आयी थी। ईधर तो हजारों वर्षों तक हिन्दुओं के धर्म के ठेकेदारों ने इनकी खबर भी न ली! फिर भी चुटिया कैसे पड़ी हैं! आश्चर्य हैं! धर्म तो सिखाया सही, मगर पशुवत जीवन बना रहने दिया! मुद्दतों तक पूछा भी नहीं कि मरते हो या जीवित हो। फिर भी अंधविश्वास के करते यह शिखा पड़ी हैं। मगर सभ्यता का एक धक्का लगते ही उड़ जायेगी यह ख्याल होता था। मैं स्त्री, पुरुष, सबों को हट्टा कट्टा देखकर मुग्ध हो जाता था और सोचता कि यदि इन्हें सुन्दर भोजन मिलता तो कैसे अच्छे जवान और मजबूत होते। स्त्रियाँ भी कितनी तगड़ी होतीं। चाहे धर्म-प्रचार के ही ख्याल से सही, मगर घोर जंगलों में सैकड़ों वर्ष पूर्व, जब न रेल थी और न तार, ईसाई यहाँ आये। उन्होंने डेरा जमाया! यह गैरमामूली हिम्मत और बहादुरी थी, अध्यवसाय प्रियता थी। इसीलिए उनकी इस मर्दानगी, धुन और कर्तव्यपरायणता के सामने मैंने सिर झुकाया। लोगों का केवल दोषोद्धाटन और छिद्रान्वेषण कदापि उचित नहीं कि मिशनरी लोग सीधे लोगों को तरह-तरह से फुसलाकर ईसाई बनाते हैं। उन्हीं की तरह त्याग और हिम्मत चाहिए लगन चाहिए और धुन का पक्का होना चाहिए। तभी काम चलेगा। केवल ऐसे ही धुनी को हक हैं कि ईसाइयों का दोष दिखाये! मुझे वहाँ पहले-पहल मालूम हुआ कि छोटा नागपुर के आदिवासी (मुण्डा, उराँव) आदि में तीन गुण थे, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। जैसे-जैसे सभ्यता की हवा पहुँचती जाती हैं! एक समझदार आदमी ने मुझसे एक बार वहीं कहा था कि हिन्दुओं ने तो इन लोगों को पशु बना रखा था। मगर मिशनरियों ने उन्हें, या कम-से-कम उन लोगों को, जो ईसाई बने, आदमी तो बनाया। बात तो ठीक ही हैं। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका पशु जीवन मिटाकर सभ्य बनाया। उनके पढ़ने- लिखने का प्रबन्ध किया। मगर खेद इतना ही हैं कि इसी के साथ उनमें पहले से चले आने वाले तीन अपूर्व गुणों को भी खत्म कर दिया! लेकिन इसमें उनका क्या दोष? सभ्यता तो इसे ही कहते हैं और अगर ईसाई वहाँ न भी जाते तो भी ये तीन गुण मिट ही जाते, जैसा कि अन्यत्रा हुआ हैं। सभ्यता पिशाची उन्हें मिटा ही छोड़ती! वे तीन गुण हैं झूठ कभी न बोलना, व्यभिचार से दूर रहना और मर्दानगी। कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाये लेकिन वे लोग बात कभी छुपाते न थे। असत्य कभी बोलना जानते न थे। इसीलिए चोरी कर न सकते थे। वह तो छिपाने की चीज हैं। मर्दानगी की तो यह बात बतायी जाती हैं कि यदि चाहे पड़ोसी से या किसी गैर से मारपीट हो गयी और कोई मर गया तो मारने वाला डर के छिपने के बजाये, पुलिस या अधिकारियों से जा के साफ कह देता कि हमने मारा हैं। किसी के धमकाने- डराने से वे डरते न थे। इसी प्रकार व्यभिचार के वे सख्त दुश्मन थे। व्यभिचारी की जान तक ले लेते थे। इस सम्बन्ध में दो कहानियाँ प्राय: उसी समय मुझे बतायी गयीं। जब सरकारी मकान बन गये और मिनिस्टर तथा गवर्नर गर्मियों में वहाँ रहने लगे तो आम सड़क के पास खड़े किसी मिनिस्टर के अर्दली ने सड़क से जाने वाली एक स्त्री से दिल्लगी की। इतने ही पर पीछे से आने वाले एक आदिवासी ने अर्दली पर धावा बोलकर उसे पछाड़ ही तो दिया। अनन्तर मजबूर करके जमीन पर नाक रगड़वाई तथा प्रतिज्ञा करवाई कि फिर कभी ऐसा न करेंगे! तब कहीं उसकी जान बख्शी! दूसरी घटना गवर्नर की कोठी की बतायी जाती हैं। उसमें झाड़ई देने वाली एक स्त्री पर किसी चपरासी ने आक्रमण करना चाहा तो बगल में रखे लम्बे चाकू को निकालकर वह दुर्गा जैसी उस पर कूद पड़ी। अगर वह नौ-दो ग्यारह न हो जाता तो खैरियत न थी! मगर अब ये गुण चले गये, चले जा रहे हैं। सभ्यता के लिए हमें यह बड़ी गहरी कीमत चुकानी पड़ी हैं! हाँ, तो सर गणेश की बात सुनिये। बेशक सरकार परस्ती उन्होंने खूब ही की। नहीं, तो उनका त्याग बिहार में तो सानी नहीं रखता। साथ ही, उन जैसा अतिथि-सत्कार करने वाला और प्रतिज्ञा को पूरा करने वाला मनुष्य मैंने नहीं देखा। जो दान देना बोलेंगे उसे फौरन पूरा करेंगे। समझ भी सुन्दर। चालाक भी काफी। एक दिन उन्होंने गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की बात मुझसे राँची में ही छेड़ी। बोले कि श्री अनुग्रह नारायण सिंह, चेयरमैन के करते बहुत गड़बड़ी हुई हैं। फलत: उस बोर्ड के तोड़ने (Superession) की बात चल रही हैं। मैंने पूछा कि आखिर इलजाम क्या हैं? उनसे उन पर कोई कैफियत (reply) भी माँगी गयी हैं या नहीं? उन्होंने कहा कि अभी तक नहीं। लेकिन सारे इलजाम कौंसिल मेम्बरों के पास भेजे जायेगे। मैंने पूछा कि यह तो बहुत ही अच्छी बात होगी। मगर सबसे बड़ी बात यह होगी कि उनसे उन आरोपों (Charges) के बारे में सफाई जरूर तलब की जाये। बिना सफाई का मौका दिये बोर्ड के खिलाफ कोई भी काम करना निहायत नामुनासिब होगा। उन्होंने स्वीकार किया और कहा कि आरोप और उनकी सफाई दोनों ही कौंसिल के मेम्बरों के पास भेजने के बाद ही कोई काम बोर्ड के बारे में किया जायेगा। बस इतनी बात के बाद मैं तो राँची से आ गया और श्री अनिरुद्ध शर्मा के पास उनके गाँव पर नये बगीचे में बने नये मकान में जा के रहने लगा। शर्मा जी ने मेरे ही लिए गाँव से बाहर एक सुन्दर बँगला और उसके भीतर एक तहखाना (गुफा) बना दिया था। वहाँ मैं गर्मियों में बहुत बार रहा हूँ। उसमें हवा तो जाती ही थी। तरी भी बनी रहती, जब कि बाहर लू चला करती थी। बक्सर से सोलह मील दक्षिण वह जगह हैं। वहाँ इक्के भी आसानी से नहीं जा सकते। वैसी सड़क नहीं हैं। वर्ष में तो वह स्थान और भी दुष्प्रवेश हैं। उसका नाम सुलतानपुर हैं। वहाँ का डाकखाना धनसोई हैं। वह बाजार भी हैं। शर्मा जी ने तब से न सिर्फ मेरी अपार सेवा की हैं, वरन कांग्रेस और खासकर किसान-सभा के मामले में मेरा पूरा साथ दिया हैं। वे सुखी और चलता-पुर्जा आदमी भी हैं, खासकर उस इलाके में। इस समय कह नहीं सकता, कि सन 1928 का दिसम्बर था, या कि 1929 ई. की जनवरी। तारीख याद नहीं। भरसक 1929 के जाड़े का ही समय था, जब पटना में कौंसिल की बैठक हो रही थी। कौंसिल जनवरी से मार्च तक प्राय: हुआ करती थी। मैं गंगा के उत्तर किसी सभा में जा रहा था और पटना उतरा। उसी समय पता लगा कि गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को सरकार ने हथिया लिया और चेयरमैन वगैरह हटाये गये। मैं घबराया कि यह क्या बात! न तो उनसे सफाई तलब होने की बात कहीं पढ़ी और न कौंसिल के मेम्बरों के पास सारी बातें भेजने की ही। फिर अचानक यह क्या हो गया? मैं फौरन सर गणेश के बँगले पर गया। वहाँ नीचे ही बैठा। खबर भिजवायी कि मैं आया हूँ। थोड़ी देर में वे ऊपर से उतर कर आये। कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे। मुझसे खड़े-खड़े बातें हुईं। मैंने तो देर तक काफी बातें करने की सोची थी। मगर वे शायद जल्दी में थे। इसीलिए खड़े-खड़े बातें हुईं। मैंने पूछा, ''यह गया के बोर्ड का क्या माजरा हैं?'' उत्तर मिला, ''तोड़ दिया गया।'' मैंने कहा कि ''सो तो ठीक हैं। मगर क्या आपने उन्हें सफाई का मौका दिया था!'' उनने कहा, ''नहीं।'' 'क्यों?'' मैंने पूछा। उत्तर दिया कि ''ऐसी बात हो गयी कि गवर्नर राँची से गया आने को थे। वहाँ कोई अभिनन्दन-पत्र उन्हें मिलने वाला था। उसके उत्तर में बोर्ड के बारे में सरकार का क्या फैसला हैं उन्हें यह भी सुनाना जरूरी था। इसीलिए उन्होंने मुझसे फौरन कोई निर्णय करने को कहा। जब मैं स्वयं इतनी जल्दी कुछ न कर सका तो कार्यकारिणी की मीटिंग में उन्होंने यह मामला पेश कर दिया। उसमें हम दो मिनिस्टर फौरन तोड़ने के फैसले के विरुद्ध रहे। बाकी वे तीन पक्ष में हो गये। फलत: मैं लाचार हो गया।'' मैंने उत्तर दिया कि ''लेकिन वह विभाग तो आपका हैं। अत: जवाबदेही आप ही की मानी जायेगी न?'' उन्होंने कहा, ''सो तो ठीक हैं। मगर गवर्नर की बात भी तो आखिर थी। मैं करता क्या?'' मैंने फिर कहा, ''आप ही ने इसी कौंसिल के चुनाव के जमाने में एक गोपनीय बात मुझसे कही थी कि गवर्नर ने झरिया के कोयले की खानों की सभा वाले अंग्रेजों को वचन दे दिया था कि मानभूम से झरिया को अलग करके स्वतन्त्र जिला उसे बना देंगे। मगर मैं इस बात पर डट गया कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि तब तो झरिया जिला काफी पैसे वाला होने से अफड़ के मरेगा और बाकी मानभूम पैसे बिना भूखों मर जायेगा। फलस्वरूप, आखिर गवर्नर को झुकना पड़ा। गो उनकी बात झूठी हुई। तो फिर यहाँ भी वही क्यों न किया?'' तब उन्होंने कहा कि मैं कारण बताऊँगा। इस पर मैंने कहा कि मुझसे तो आपकी यही बात थी। सो उसका क्या हुआ? उन्होंने कहा कि यह भी पीछे बताऊँगा। ऐसा कह के वे चलते बने। मुझे बड़ा गुस्सा आया। सोचा कि उस समय तो मुझे ठगने के लिए इस शख्स ने अपनी शाबासी की कितनी ही बातें सुनाईं। यों हम भी देशभक्त हैं इसका प्रमाण पेश किया। मगर आज क्या हुआ। माना कि अनुग्रह बाबू या औरों से हमारा मनमुटाव हैं। मगर यह तो समूचे कांग्रेस की और न्याय की बात थी। फिर इसको कैसे बर्दाश्त किया जा सकता हैं? बस, मैंने तय कर लिया कि अब फिर सर गणेश के पास नहीं आऊँगा। मैंने इनका असली रूप पहचान लिया। मुझे शायद सीधा-सादा और बेवकूफ समझते हैं। इसी से पीछे कहने और समझाने की बात कर गये हैं। उसके बाद जो वहाँ से आया तो फिर कभी गया ही नहीं। पीछे 'सर्च लाइट' में तथा दूसरे समाचार-पत्रों में एक लम्बा खुला पत्र भी छपवाया। उसमें सारी बातें लिख दीं। उसके बाद सुना कि लोगों से सर गणेश कहते थे कि स्वामी जी तो तानाशाही (Dictatorship) चाहते हैं। जो उनका हुक्म न माने उस पर रंज हो जाते हैं। भला, इसमें तानाशाही का क्या सवाल था? मगर मुझे तो बहुतों ने ऐसा समझा हैं! सो भी ऐसी ही बातों को लेकर! ताज्जुब!
भूमिहार-ब्राह्मण-सभा का खात्मा
सन
1929 ई. के गर्मियों के दिन थे। मैं सुरताँपुर
(सुलतानपुर) में श्री अनिरुद्ध
शर्मा के बँगले में था। पहले से बात तय थी कि इस बार चातुर्मास्य में मेरठ
की तरफ जा के स्वामी सोमतीर्थ जी के साथ रहूँगा। जैसा कि बुलन्दशहर के तौली
मौजे में जाने और रहने की बात पहले ही कह चुका हूँ।
ईधर
अखबारों में पढ़ा था कि बाबू श्री कृष्ण सिंह और बाबू रामचरित्र सिंह ये दोनों ही उस जिले के कांग्रेस नेता और कौंसिल के सदस्य थे। सर गणेश रामचरित्र बाबू के विरुद्ध कौंसिल के उम्मीदवार भी हुए थे। कौंसिल में ये दोनों सर गणोश को खूब खरी-खोटी सुनाते भी। ईधर श्री कृष्ण सिंह ही भूमिहार ब्राह्मण सभा की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इसीलिए विश्वास नहीं होता था कि जीती मक्खी वे लोग निगलेंगे और अपने विरोधी एवं पक्के सरकार परस्त आदमी को सभापति बनाने को राजी होंगे। मैंने सोचा कि और न सही, तो बाहरी दुनिया में होने वाली बदनामी से तो डरेंगे। क्योंकि लोग खामख्वाह कहेंगे कि कौंसिल में तो विरोध करते हैं पर, घर में उसी आदमी को सिर चढ़ाते हैं! फिर ऐसों का विश्वास क्या! एक बात और भी थी। आगे एकाध ही वर्ष में फिर कौंसिल चुनाव होने को था। ऐसी दशा में सर गणेश को सभापति बनाना साँप को दूध पिलाना ही था। क्योंकि उसके करते समाज में प्रिय और ऊँचे बन के फिर कौंसिल के चुनाव के समय विरोध करेंगे।
इसी उधोड़बुन में था कि सभा का समय आ धमका। उधर दैवात
'भारत
में अंग्रेजी राज्य'
की बी.पी. आ गयी। फिर तो,
बी.पी. छुड़ा के पास में पुस्तक जब मैं गाड़ी में बैठ के मोकामा आया तो गाड़ी में चढ़ के मुंगेर सभा में चलने वाले परिचित लोगों से ही पता लग गया कि सर गणेश दत्ता सिंह ही सभापति होंगे, यह तय पाया गया हैं। अब तो मेरे क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा उनके साथ विरोध था। यह कोई व्यक्तिगत बात या कारण न था। असल में मैंने देखा कि ईधर लगातार चार-पाँच सभाओं में फिर चाहे वे प्रान्तीय हों या अखिल भारतीय, वह एक ही आदमी सभापति होता चला आता था। यह बात बुरी तरह खटकने वाली थी। क्या समाज में कोई और पढ़े-लिखे, योग्य या धनी नहीं रह गये कि एक ही आदमी के हाथ में वह बिक गयी? यह एक बड़ा अपमान उस समाज का था जिसे जगाने और स्वात्माभिमान युक्त बनाने में मैंने काफी परिश्रम किया था और जिसे बगावत का झण्डा गाड़ने के लिए भी तैयार किया था।
एक बात और थी। अगले वर्ष कौंसिल चुनाव होने को था। एक बड़े समाज का सरताज बन
के वह चुनाव में काफी गड़बड़ी करते और कांग्रेस के विरुद्ध समाज की जनता को
सफलतापूर्वक भड़काते। ताकि फिर मिनिस्टर बन जायें। तीसरी बात थी,
श्री कृष्ण बाबू की बड़ी बदनामी की। लोग खामख्वाह कहते कि ये ऊपर से तो
राष्ट्रवादी बनते हैं। मगर भीतर से कांग्रेसी और जी हुजूर सब एक हैं। यदि
यह अक्ल उन्हें न आयी तो मैं क्यों अन्ध बनूँ और उन्हें न बचाऊँ! आखिर
एक दिन जो आदमी कांग्रेस या, यों कहिये कि स्वराज्य पार्टी के खिलाफ सर गणेश को कौंसिल में जिताने गया था, वही दो ही वर्ष के बाद आज उन्हीं सर गणेश को देख नहीं सकता और भरी सभा में उन्हें अपमानित करने पर तुला बैठा हैं! वह नहीं चाहता कि वह फिर कौंसिल में जाये और मिनिस्टर बनें! ऐसा आदमी जातिवादी (communalist) हो सकता हैं या नहीं, यह निष्पक्षपात लोग ही बता सकते हैं। अब तो मुंगेर पहुँचते ही हो-हल्ला मच गया। ऐसी सनसनी फैली कि सभी लोग बेचैन थे। लोगों को यह तो निश्चय होई गया कि मैं विरोध करूँगा ही और उसके वोट लेने पर सर गणेशदत्ता सिंह कदापि सभापति चुने न जायेगे। लोग दल के दल मुझे समझाने आये। मगर निरुत्तर हो के चले गये। अब हमारे दोस्तों और लीडरों को, रामचरित्र बाबू को और श्री कृष्ण बाबू को, यह फिक्र हुई कि उनके जिले में आकर यदि सर गणेश की छीछालेदर हुई तो समाज में उनकी बदनामी होगी। मगर इसका अपराधी कौन! उन्होंने ऐसा होने ही क्यों दिया? वे लोग समझाने आये तो मैंने साफ कह दिया कि मुझे तो यह कह के बदनाम किया गया कि मैं कांग्रेस-विरोधी और सर गणेश का पिट्ठू हूँ। मगर आप तो कांग्रेस के लीडर हैं। फिर यह उलटी बात क्यों? मैं सर गणेश का विरोध करूँ और आप लोग उससे हैंरान हों? आप उनके समर्थक हों? मैंने अनजान में उनका समर्थन किया और जान लेने पर आज उनका पक्का विरोधी हूँ। मगर आप लोग जानकर क्यों उनके साथी बनते हैं? दुनिया आपको क्या कहेगी? इसका उत्तर वे लोग क्या देते? मैंने उनसे साफ कह दिया कि इतना ही नहीं। चुनाव में वे जहाँ खड़े होंगे मैं उनका विरोध सारी ताकत लगा के करूँगा और देखूँगा कि मिनिस्टर बन के वे आगे सरकार-परस्ती कैसे करते हैं। इस पर वे लोग चले गये। फिर बाबू राम दयालु सिंह को मेरे पास भेजा। क्योंकि जानते थे कि उनकी बात मैं शायद मान सकूँ।
श्री राम दयालु सिंह मेरे पास आये। देर तक बातें होती रहीं। आखिर में मैंने
यह कहा कि सभा में जाने पर तो मैं उनके सभापतित्व का विरोध अवश्य करूँगा।
क्योंकि यह बात कह चुका हूँ। उसे टाल नहीं सकता। पर यदि आप लोगों की यही
मर्जी हैं कि वे सभापति बनें ही तो लीजिये मैं सभा में जाऊँगा ही नहीं। आप
लोग सँभालें और करें। वह खुश हुए। यह जानकर औरों की चिन्ता घटी। मगर इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मण महासभा भंग हो गयी। हालाँकि, मैं बाहर ही था। मेरे पास दौड़े-दौड़े एक सज्जन पहुँचे कि 'सभा में तूफान हैं, चलिए शान्त कीजिये' मैं समझ न सका। पीछे उनसे कहा कि मैं जल्दी में चला आया हूँ। शायद सर गणेश पिट गये। हालत नाजुक हैं। इस पर मैं दौड़ के सभा में पहुँचा तो हंगामा देखा। मुझे देखते ही लोग ठण्डे हो गये। लोग यही तो चाहते थे कि मैं आऊँ। खैर मैंने समझा-बुझा के शान्त किया और न आने का कारण बताया। गड़बड़ी करने वालों को फटकारा भी। लेकिन यह तो ठीक ही हैं कि सभा सदा के लिए भंग हो गयी। अच्छा ही हुआ। उससे भलाई तो कुछ होती न थी। हाँ बुराई जरूर हो जाया करती। अब ईधर सुना हैं, दस वर्षों के बाद उसे फिर जिलाने का यत्न हो रहा हैं। नहीं जानता कि वह सफल होगा या नहीं। दस वर्षों तक तो मेरे डर से सभा का नाम लेने की किसी को हिम्मत होती न थी। लोग जानते थे कि यदि उन्होंने सभा की मैं जाकर उसमें विरोध करूँगा और उनकी एक न चलने दूँगा। इस प्रकार उसे फिर भंग कर दूँगा। मगर अब जब सबों को पता लग गया हैं कि मुझे उससे अब कोई वास्ता नहीं हैं और उसमें जाऊँगा ही नहीं। तब शायद हिम्मत बँधा रही हैं!
बिहार प्रान्तीय किसान-सभा
मुंगेर की घटना के बाद सर गणेश के पिट्ठू लोग अखबारों में कुछ ऊलजलूल बातें लिखते रहे। उसका जवाब उन्हें दिया गया, सो भी मुँहतोड़। फिर तो वे लोग चुप्पी साधा गये। मुंगेर के बाद श्री कृष्ण सिंह को पटना में लोगों की बातें, उन लोगों की जो कटु समालोचक और छिद्रान्वेषी थे, सुनने के बाद मैंने यह कहते खुद ही सुना या यों कहिये मेरे ही सामने उन्होंने कहा कि विरोधी लोगों ने भी स्वीकार किया हैं कि आप लोगों ने साफ सिद्ध कर दिया कि आपका समाज पक्का राष्ट्रवादी हैं, “They have proved that they are nationalists” लेकिन यदि मैं न रहता तो यकीन करना चाहिए कि ठीक उलटी बात कही जाती। क्योंकि वह काण्ड होता ही नहीं। फिर तो एक ही नतीजा निकाला जाता कि ये सभी जातिवादी हैं। उसके बाद, जैसा कि लिख चुका हूँ, तौली चला गया। वहाँ से सितम्बर में लौटा। ठीक उसी समय कौंसिल के मेम्बर स्वराज्य पार्टी की तरफ से श्री रामदयालु सिंह, बाबू श्री कृष्ण सिंह, श्री बलदेव सहाय वगैरह थे। काश्तकारी कानून में सुधार करने के लिए उसी कौंसिल में एक बिल सरकार की तरफ से आने वाला था। चारों ओर उसकी चर्चा थी। क्या किया जाना चाहिए यह सोचा जा रहा था। इतने ही में नवम्बर का महीना आ गया। सन 1929 ई. के नवम्बर का महीना बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। मैं अचानक किसी कार्यवश मुजफ्फरपुर गया हुआ था। पं. यमुनाकार्यी के मकान में जहाँ प्रेस भी था, ठहरा था। छत के ऊपर वाली कोठरी में था। वह मकान 'कल्याणी चौक' पर था। भूकम्प में धवस्त हो गया। सवेरे का समय था। श्री रामदयालु बाबू आ गये और कार्यी जी के साथ मेरे स्थान पर पहुँच कर बातों के सिलसिले में शुरू किया कि बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की नींव दी जानी चाहिए। उन लोगों ने समझ लिया था कि बिना किसान-सभा के सरकार मानेगी नहीं, काश्तकारी कानून में खतरनाक तरमीम (संशोधन) करके किसानों का गला रेत देगी और हम लोग कुछ कर भी न सकेंगे। कारण, बहुमत कौंसिल में हैं नहीं। इसीलिए बिहार प्रान्तीय किसान-सभा की बात सूझी। मैंने कहा, ठीक हैं बनाइये। सभा तो बननी ही चाहिए। फिर सोचा गया कि उसके पदाधिकारी कौन हों। उन्हीं लोगों ने बाबू श्री कृष्ण सिंह को जेनरल सिक्रेटरी तथा पं. यमुनाकार्यी, श्री गुरु सहाय लाल, श्री कैलाशबिहारी लाल को डिवीजनल सेक्रेटरी चुना। इसीलिए कि यदि हर डिवीजन या कमिश्नरी के लिए एक-एक मन्त्री रहें तो काम ठीक चले। इसके बाद सभापति कौन हो यह सवाल आया। मैंने कहा कि बाबू राजेन्द्र प्रसाद को सभापति बना लीजिये। इस पर वे लोग कुछ देर चुप रहे। फिर रामदयालु बाबू ने कहा कि सभापति तो आपको ही बनना चाहिए। मैं ताज्जुब में आया कि मेरा नाम क्यों लेने लगे। मैंने सपने में भी यह सोचा न था कि प्रान्तीय किसान-सभा बनेगी और मैं उसका अध्यक्ष बनूँगा। इसीलिए तैयार होने की बात सोची तक न थी। मैंने फौरन इन्कार किया कि मैं इसमें पड़ नहीं सकता। फिर तो कहा-सुनी चली। दोनों आदमियों का हठ होने लगा कि मेरे बिना सभा का काम ठीक नहीं चल सकता। वह जैसी चाहिए बन नहीं सकती। लेकिन मेरा जैसा स्वभाव हैं धीरे-धीरे आगे बढ़ता हूँ। मैं उसी की जवाबदेही लेता हूँ जिसे अच्छी तरह सँभाल सकूँ। अभी तक तो एक जिले की भी किसान-सभा न चलाकर सिर्फ आधे पटना की ही पश्चिम पटना किसान-सभा चलाता रहा। फिर एकाएक प्रान्त भर की जवाबदेही कैसे लेता? इसीलिए मैं बराबर नाहीं करता रहा। उधर वह लोग भी कहते ही रह गये कि आप ही को बनना होगा। बात तय न पायी। फिर सोचा गया कि सोनपुर का मेला इसी नवम्बर में ही होने वाला हैं। इसलिए अभी से नोटिसें बाँटी जाये और तैयारी की जाये कि मेले में ही इस सभा को बाकायदा जन्म दिया जाये। तदनुसार ही नोटिसें छपीं और बँटने लगीं। अखबारों में भी खबर निकली। तैयारी भी होने लगी। मेला भी आ गया। वहाँ हम लोग ठीक समय पर पहुँच भी गये। खासा लम्बा शामियाना खड़ा था। लोगों का जमावड़ा भी अच्छा था। एक तो सभा, दूसरे मेला। फिर जमावड़े में कमी क्यों हो? मैं ही उस मीटिंग का सभापति चुना गया। रामदयालु बाबू बहुत मुस्तैद थे। मेरा भी भाषण हुआ और बाकी लोगों का भी। बिहार प्रान्त में किसान-सभा की जरूरत बतायी गयी। काश्तकारी कानून में किये जाने वाले खतरनाक संशोधनों का भी जिक्र किया गया। यदि किसान-सभा के द्वारा किसानों का संगठन न होगा तो काश्तकारी कानून बहुत ही खराब बन जायेगा। लोगों में काफी जोश था। नयी चीज थी। सभी चाहते थे। कुछ लोगों ने सभा बनाने का विरोध भी किया औरों की तो याद नहीं। लेकिन श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने तो खासा विरोध किया। कांग्रेस के रहते किसान-सभा कायम करने की कोई जरूरत नहीं यह बात उन्होंने कही। उनका ख्याल था कि कांग्रेस ही सब कुछ कर सकती हैं। फिर किसान-सभा अलग क्यों बनें? कांग्रेस में तो अधिकांश किसान ही हैं। असल में वही तो किसान-सभा हैं। अलग किसान-सभा बनने से कांग्रेस कमजोर हो जायेगी। क्योंकि जो लोग किसान-सभा में काम करेंगे वह कांग्रेस का पूरा काम न कर सकेंगे। कांग्रेस के लिए आगे खतरा भी किसान-सभा से हो सकता हैं, यह भी कहा गया। उन दिनों श्री बेनीपुरी से मेरा कोई विशेष परिचय न था। विशेष परिचय तो हुआ तब जब वह सोशलिस्ट नेता बने और भूकम्प के बाद सन 1934-35 में किसान-सभा के समर्थक हुए। आखिर में राय ली गयी और सभा स्थापित करने का फैसला हुआ। इसके बाद पदाधिकारी चुने गये। मैं बराबर ही अस्वीकार करता रहा। लेकिन मैं ही सभापति और पूर्वोक्त सज्जन मन्त्री आदि चुने गये। सदस्यों में बाबू राजेन्द्र प्रसाद से लेकर जितने प्रमुख कांग्रेसी थे सभी का नाम दिया गया। तय किया गया कि सभी लोगों से फौरन इसके बाद ही पूछकर स्वीकृति भी ले ली जायेगी। किया भी ऐसा ही गया। सबने स्वीकार किया। किसी ने भी इन्कार नहीं किया सिवाय बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के। उन्होंने कहला भेजा कि मेरा नाम हटा दिया जाये। सोनपुर वाली इस मीटिंग की पूरी कार्यवाही लिखी-लिखायी पड़ी हैं, जिसमें सभी के नाम हैं। इतना ही नहीं। उसके बाद की हर मीटिंगों की कार्यवाही लिपिबद्ध पड़ी हुई हैं। एक दिलचस्प बात इसी सम्बन्ध में हुई। कुछ कांग्रेसी लोगों के नाम मेम्बरों में न दिये जा सके और छूट गये। दृष्टान्त के लिए बाबू मथुरा प्रसाद का नाम छूटा था। उन्होंने इसका उलाहना दिया। फिर तो बाबू बलदेव सहाय के डेरे पर जो मीटिंग शीघ्र ही हुई उसमें उनका नाम भी सदस्यों में जोड़ दिया गया। आज तो मेरे और कार्यी जी के सिवाय उन लोगों में शायद ही कोई हैं जो इस बिहार प्रान्तीय किसान-सभा के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोधी न हों। अब तो वे लोग इसे फूटी आँखों देख नहीं सकते, इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते और जड़-मूल से मिटा देना चाहते हैं। मगर इसका इतिहास साफ कहता हैं कि शुरू में वही लोग इसके आश्रयदाता और कर्त्ताधर्त्ता थे। शुरू में ही क्यों? सन 1934 ई. तक बराबर इस सभा के साथ रहे, इससे सहानुभूति रखते रहे और इसमें रहना चाहते थे। उन्होंने इसकी बड़ाई की, इसका समर्थन किया। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। वह तो बदलता रहता हैं। पाँच-छ: वर्षों तक जिस सभा का समर्थन किया उसका विरोध उन्हीं लोगों को करना होगा और उसके खिलाफ जेहाद करना होगा यह पता उस समय किसी को भी कहाँ था? जिन लोगों ने मुझे घसीट कर इसमें आगे किया, आज वही मेरी टाँग पकड़ के बेमुरव्वती से खींच रहे हैं। यह भी एक जमाना हैं और वह भी एक समय था। पता नहीं मैं आगे गया, सभा आगे गयी, या वही लोग पीछे चले गये? कौन बतायेगा? शायद इतिहास लिखने वाले बतायें! समय तो बतायेगा ही। लेकिन इसमें तो शक नहीं कि मैं और सभा दोनों ही आगे गये। हाँ, उन लोगों के हिसाब से हो सकता हैं, हम बहुत आगे चले गये हों।
श्री बल्लभ भाई का दौरा
सोनपुर के बाद हमने पटना में कार्यकारिणी की मीटिंग की और कुछ लोगों के नाम और जोड़े। एक प्रस्ताव के द्वारा यह भी तय पाया कि राजनीतिक मामलों में किसान- सभा कांग्रेस के विरुद्ध न जायेगी। इस प्रकार किसान-सभा कांग्रेस की समकक्ष स्वतन्त्र राजनीतिक संस्था न बन जाये इस खतरे को रोकने या मिटा देने की कोशिश हुई। लेकिन, हम सम्बन्ध में एक बहुत जरूरी बात कहनी हैं। सन 1929 ई. के दिसम्बर में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होने वाला था। उसके ठीक पहले और सोनपुर के बाद ही सरदार बल्लभ भाई पटेल का दौरा बिहार में हुआ। उनके लिए हर जिले में मीटिंगों का प्रबन्ध किया गया। ठीक उसी अवसर पर मैंने भी दौरा किया और उनके आने के पहले हर जगह किसानों को किसान-सभा का महत्त्व समझाया। यह भी जान लेना चाहिए कि उस समय के बल्लभ भाई आज वाले न थे। दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर हैं। उस बल्लभ भाई ने तो हाल में ही बारदौली में किसानों की लड़ाई जीती थी-उनके हकों के लिए सत्याग्रह संग्राम लड़कर उसमें विजय पाई थी। फलत: सब जगह किसानों की ही बातें बोलते थे। उन्होंने एक सभा में तो 'एक संन्यासी' कह के हमारी किसान-सभा का उल्लेख भी किया था और अगर मैं भूलता नहीं तो इस संन्यासी के काम का स्वागत किया था। लोगों को यह भी कहा था कि इसमें मदद करें। हालाँकि, आज तो इस संन्यासी को और इस किसान-सभा को वे सहन नहीं कर सकते। उन्होंने सीतामढ़ी की सभा में साफ ही कहा था कि बिहार में या हमारे मुल्क में इन जमींदारों की क्या जरूरत हैं? ये लोग कौन-सा काम हमारे मुल्क के लिए करते हैं? सुना हैं, किसानों को बहुत सताते हैं और इनसे किसान बहुत डरते हैं।
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