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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-1

झूठा भय और मिथ्या अभिमान-I

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झूठा भय और मिथ्या अभिमान

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झूठा भय और मिथ्या अभिमान

सहस्रशीर्षा पुरुष:

जननायक स्वामी सहजानन्द सरस्वती

दया-धाम उद्दाम दार्शनिक, आदि अन्त के अन्तर्यामी।
    स्वयं स्वयंभू सदा सर्वदा, सेवक सहचर, रहकर स्वामी॥
    लाखों भूख-प्यास के मारे, मरी हुई ऑंखों के पानी।
    प्राण पटल पर लिखित अश्रु से, कसक सिसक की करुण कहानी॥

नमन पुनीत अमल को

नहीं फूलते फूल सिर्फ राजाओं के उपवन में।
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज कानन में॥

समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल।
गुदड़ी में रखती चुन-चुनकर बड़े कीमती लाल॥

'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को।
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को॥

ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है।
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है॥

क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग।
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग॥

-दिनकर

 

स्वामी सहजानन्द सरस्वती और किसान

-महापण्डित राहुल सांकृत्यायन

होश सँभालते ही जिसे योग, वैराग्य और वेदान्त ने अपनी ओर खींचा, जिसे मायामय संसार छोड़ अद्वैत ब्रह्म में लीन होने की एक समय भारी साध थी; किसको पता था कि वह संसार के सबसे उपेक्षित, शिक्षा-संस्कृति में सबसे पिछड़े भारतीय किसानों को अपने पैरों पर खड़ा करने की प्रतिज्ञा लेगा? वह एक मेधावी बालक के तौर पर शिक्षा के जिस रास्ते से जा रहा था, उससे वह विश्वविद्यालय का एक सम्मानित स्नातक बनता, कानूनपेशा वकील, सरकारी नौकर या प्रोफेसर बनता; मगर रास्ता एकाएक मुड़ा, और वह दूसरे-भारतीय प्राचीन विद्या के-रास्ते पर चला गया। वह विद्वान् संन्यासी के तौर पर अपनी प्रौढ़ प्रतिभा और व्यापक ज्ञान से एक सर्वमान्य संन्यासी, सैकड़ों छात्रो और शिष्यों का गुरु होता; मगर ब्राह्मणों के मिथ्याभिमान ने व्यक्ति नहीं, एक गौरवपूर्ण जाति को अपमानित करना चाहा, और वह उसे बर्दाश्त नहीं कर सका। उसने अपने दण्ड को उठाया और कुछ ही सालों में भूमिहार ब्राह्मणों में वह भाव भर दिया कि ब्राह्मणों को अपनी शेखी छोड़नी पड़ी। लेकिन समय आया, जब उसकी तीक्ष्ण प्रतिभा ने बतलाया कि उसका कार्यक्षेत्र इतना संकुचित नहीं होना चाहिए, फिर जेल गया। वहाँ पक्के गाँध-शिष्यों की करतूतों को देखकर उसकी देह में आग लग गयी। राजनीतिक आन्दोलन में उसे कोई भी आशा नहीं रह गयी। जिसने योग-साधन, पवित्र जीवन और मोक्ष-प्राप्ति के लिए दर-दर की ठोकर खायी, वर्षों तकलीफें सहीं, उसके मन में इस तरह का भाव आना जरूरी था। वह सबको सन्त के रूप में देखने की आशा तो नहीं रखता था, मगर यह आशा जरूर रखता था कि गाँधीजी के विश्वसनीय भक्त कुछ ज्यादा ईमानदार होंगे। उसने अपने जानते राजनीति से सदा के लिए सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। वह नहीं जानता था कि उसके दिल में एक भारी कमजोरी है-वह गरीबों के ऊपर होते अत्याचार को सहन करने की शक्ति नहीं रखता। हुआ यही और अब वह नाव को डुबोकर परले पार उतर गया। भारत के किसान-आन्दोलन को उठाने और आगे बढ़ाने में जो काम उसने किया है, वह सदा स्मरणीय रहेगा। वह व्यक्ति है स्वामी सहजानन्द।

गाजीपुर जिले में दुल्लहपुर स्टेशन के पास देवा एक छोटा-सा गाँव है, यहाँ कुछ घर भूमिहार ब्राह्मणों के हैं। आज ये लोग भूमिहार ब्राह्मण हैं, लेकिन कुछ पीढ़ियों पहले ये बुन्देलखण्ड के जुझौतिया ब्राह्मण थे। दस-बारह शताब्दियों और पहले ये यमुना से पश्चिम हिमालय की तराई से मेवाड़ तक फैले यौधोय गण के नागरिक थे।

1889 ई. की शिवरात्रि को बेनीराय के घर उनका सबसे छोटा पुत्र पैदा हुआ, जिसका नाम नौरंगराय रखा गया। 3 बरस की आयु में ही माँ मर गयी और नौरंग की माँ का नाम भी नहीं मालूम हो सका। माँ के मरने की क्षीण स्मृति नौरंग के दिल में सदा के लिए रह गयी। लोग रो रहे थे। नौरंग की ऑंखों से ऑंसू निकले या नहीं, इसका उसे पता नहीं। लड़कपन से ही नौरंग का स्वास्थ्य अच्छा था; लेकिन उसे खेल से बिलकुल प्रेम न था।

गाँव में स्कूल न था, मगर पास के गाँव जलालाबाद में प्राइमरी स्कूल था। 1899 के शुरू में नौरंग को जलालाबाद के मदरसे में दाखिल कर दिया गया। यद्यपि पढ़ने की अवस्था के 4 साल उसने बरबाद कर दिये थे; लेकिन उसकी बुध्दि बहुत तीव्र थी, गणित से बहुत ही ज्यादा प्रेम था। मरदसे में हर साल वह दो-दो दर्जे पास करता और अपने दर्जे में सदा प्रथम रहता। 1902 तक 3 सालों के भीतर नौरंग ने 6 साल की पढ़ाई खत्म कर दी। अपर प्राइमरी पास लड़कों की जिला-प्रतियोगिता में उसने बीस में से उन्नीस अंक पाये।

अब नौरंग 13 साल का था। रामायण पढ़ने का उसे बहुत शौक था। किसी ने गीता का माहात्म्य बतलाया और उसे भी अपने पाठ में शामिल कर वह अच्छा-खासा पुजारी बन गया। जलालाबाद के एक अधयापक भी पुजारी थे, नौरंग की पूजा में उनका प्रभाव अवश्य था। पूजा बिना देवता को खुश कैसे किया जा सकता है।

अब मिडिल में पढ़ने के लिए नौरंग गाजीपुर तहसीली स्कूल में दाखिल हुआ। दर्जे में अव्वल तो रहना ही था। सभी विषयों में उसकी गति थी। स्मृति भी तीक्ष्ण थी, 1904 में हिन्दी मिडिल पास किया, सारे युक्त प्रान्त में नौरंग का नम्बर छठा या सातवाँ था। उर्दू को नियमपूर्वक नहीं पढ़ा था; लेकिन उर्दू पढ़ने वाले विद्यार्थियों के साथ बराबर बैठना पड़ता, जिससे सुनते-ही-सुनते नौरंग को उर्दू आने लगी।

गाजीपुर में आकर नौरंग की आक्रामक प्रवृत्ति और बढ़ गयी। यहाँ उसे सनातन धर्म और आर्यसमाज के उपदेशकों के व्याख्यान सुनने को मिलते। धर्म पर श्रध्दा और जमती गयी। वह आर्यसमाजी नहीं बना और रोज नियम से स्नान कर शंकर के ऊपर बेलपत्र और गंगाजल चढ़ाता। शिवजी का व्रत बड़े उत्साह के साथ करता। उस वक्त अमृतराय वहीं अध्यापक थे। वे खुद भी प्रतिभाशाली थे; इसलिए प्रतिभाशाली लड़के की कदर करना जानते थे। नौरंग राय भी उन्हीं के साथ में रहता।

हिन्दी मिडिल पास करने के बाद फिर नौरंग को छात्रावृत्ति मिली और वह गाजीपुर के जर्मन मिशन हाई स्कूल (आजकल के राजकीय सिटी इण्टर कॉलेज, गाजीपुर) में प्रविष्ट हुआ। मारवाड़ियों के टोले में गुणेश्वरनाथ महादेव का मन्दिर है। उसी की एक कोठरी में नौरंग रहा करता था। वहाँ गंगा भी नजदीक थीं और पास में महादेव का मन्दिर भी। नौरंग राय को इन दोनों चीजों की सबसे ज्यादा जरूरत थी। अब नौरंग राय के पाठय में संस्कृत भाषा भी थी। अपने रटे महिम्न:स्तोत्र और गीता के श्लोकों का अर्थ समझने की लालसा में वह उसे बहुत ध्यान से पढ़ता था।

नौरंग का पूजा-पाठ घरवालों को पसन्द न था। देर करने में हानि समझ 16 वर्ष की अवस्था (1905) में नौरंग की शादी कर दी गयी। लेकिन स्त्री एक ही साल बाद परलोक सिधार गयी।

मिडिल इंग्लिश में भी नौरंग राय का नम्बर अच्छा रहा। 1906 में कुछ संन्यासी घूमते-घामते उसी महादेव के मन्दिर में ठहरे। नौरंग धर्म-प्रेमी तो था ही संन्यासियों का गेरुआ वस्त्र तथा उनका उन्मुक्त जीवन उसे और भी आकर्षक मालूम हुए। एक साल पहले भी नौरंग भागकर बनारस और काकोरी तक गया था; लेकिन बरसात का दिन था और अभी दिल मजबूत नहीं हुआ था, इसलिए वहाँ से लौट आया। इस पहली उड़ान का घरवालों में से किसी को पता नहीं था और यह अच्छा ही हुआ, नहीं तो वे और कड़ी निगाह रखते। अबकी नौरंग ने बनारस के संन्यासियों से उनके मठ का पता पूछ लिया था। वह अपने लिए यही रास्ता पसन्द कर चुका था।

अब (1907 में) नौरंग की उम्र 18 साल की थी। वह हाई स्कूल की आखिरी कक्षा का विद्यार्थी और बहुत तेज विद्यार्थी था। मैट्रिक परीक्षा में भी उसे छात्रावृत्ति जरूर मिलती और घर की मदद के बिना भी विश्वविद्यालय की सभी सीढ़ियों को पार कर सकता था। वह जानता था कि वह एक अच्छा वकील बन सकता है, अधयापक बन सकता है या डिप्टी कलेक्टर हो सकता है। लेकिन नौरंग का मन रह-रहकर कह उठता, ''और पढ़-लिखकर क्या करोगे? तुम्हें कोई दूसरा खिला देगा।'' अब वह गीता को कुछ समझ सकता था। उसने लघुकौमुदी पढ़ी। भागवत को भी वह शौक से संस्कृत में पढ़ता। यही नहीं, छोटी-मोटी वेदान्त की पुस्तकें भी पढ़ लेता, इससे उसका दिल वेदान्त से रँग गया।

शायद घरवालों को कुछ भनक लगती जा रही थी। उन्होंने सोचा-जल्दी ही शादी कर दो, नहीं तो लड़का हाथ से बेहाथ होने जा रहा है। नौरंग को भी पता लग गया; खतरे की घण्टी बजी-''भागो अभी।''

शिवरात्रि (1907) के कुछ ही दिनों पहले नौरंग राय भागकर बनारस चले आये। सिध्द अपारनाथ मठ का नाम नोट किया हुआ था। गाजीपुर में पहले के परिचित संन्यासी भी मिल गये। शिवरात्रि जैसे महान् पर्व को हाथ से जाने नहीं देना चाहिए। सलाह हुई, शिवरात्रि के दिन ही संन्यास ले लिया जाय। स्वामी अच्युतानन्द गिरि व्याकरण-मीमांसा के एक अच्छे पण्डित थे। 18 साल के नौरंग उन्हीं से गिरिनामा संन्यासी बने। जब उनके बालमित्रा हरिनारायण् पाण्डेय को पता लगा, तो वे भी आकर संन्यासी हो गये।

चन्द ही दिनों बाद-घरवालों को पता लग गया और लोग बनारस पहुँचे। स्वामी सहजानन्द को घर आना पड़ा। सब लोग समझाने लगे। खाकीजी बुलाकर लाये गये। तरुण संन्यासी के मुँह से ज्ञान-वैराग्य की बात सुनकर कहने लगे-''हमारी समझ से बाहर की बात है, हम क्या समझाएँ?'' खाकीजी की इस देहात में बड़ी प्रसिध्दि थी। वह सिध्द पहुँचे हुए महापुरुष समझे जाते थे। अन्त में हार मानकर घरवालों को स्वामी का रास्ता छोड़ना पड़ा। स्वामी फिर दुल्लहपुर स्टेशन से रेल पकड़ बनारस चले आये।

स्वामी और बालसखा हरिनारायण को संन्यास-जीवन और उससे भी ज्यादा योग-समाधि का शौक था। बनारस में कोई योगी नहीं मिला। उन्होंने अब योगी गुरु को ढूँढ़ निकालने का निश्चय किया। दोनों गंगा के किनारे-किनारे पैदल ही पश्चिम की ओर चल पड़े। भोजन के लिए दस घरों से मधुकरी माँग लेते। झूँसी (प्रयाग) तक किसी योगी से भेंट नहीं हुई। झूँसी में मठ की छत पर नंगे सोने से शरीर में दर्द और बुखार हो आया। किसी ने दवा समझकर चाय पिलाई, मगर बीमार बेहोश हो गया। एक और साधु वैद्यक करने लगे और लोहा पीसकर पिला दिया। किसी समझदार आदमी ने कहा भी-''जहर पिला रहा है, मर जायेगा''; मगर कई खुराक खा चुकने के बाद सारे शरीर में रोएँ-रोएँ पर फुंसियाँ निकल आयीं। आज इस घटना को हुए सालों बीत गये, और स्वामी खाने-पीने में बड़ा संयम रखते हैं; मगर आज भी लोहे का प्रभाव बिलकुल खत्म नहीं हुआ। महीने-भर झूँसी में बीमार पड़े रहे, बड़ी पीड़ा सहनी पड़ी।

शरीर के सँभलते ही फिर योगी की खोज। किसी ने बतलाया-चित्रकूट में योगी रहते हैं। दोनों ने चित्रकूट का रास्ता पकड़ा पैदल ही। मगर वहाँ भी दूर का ढोल सुहावना। जंगल की ओर बढ़े। अनुसूया के बैरागी बाबा को पीटकर चोर सोलह हजार रुपये लेकर चम्पत हो गये थे। कादमगिरि में बैरागियों (वैष्णवों) के स्थान हैं, और शायद ही कोई योगिनी बिना हो। वहाँ रात को रहने के लिए कोई स्थान देने को तैयार न हुआ। चित्रकूट से निराश लौटे। तुलसीदास की जन्मभूमि 'राजापुर' देखी; फिर प्रयाग की सड़क पकड़ी और पश्चिम की ओर मुँह किया। अब ऍंतरिया बुखार आने लगा था। भादों का दिन था, वर्षा हो रही थी। बुखार के दिन पूड़ी मिली, खा लिया, ऊपर से ठण्डी हवा लगी। बुखार और बढ़ा। गाँव में शरण ढूँढ़ने गये, किसी ने बीमार परदेशी संन्यासी को जगह न दी। गाँव में एक टूटी चौपाल थी, जिसमें गोबर का कीचड़ भरा हुआ था, दुर्गन्ध का ठिकाना नहीं था, वहाँ बैठने के लिए भी स्थान नहीं था। पानी-बूँदी में जायँ कहाँ? चौपाल में खड़े रहे, जब वर्षा बन्द हुई, तो फिर उस गाँव को अभागे संन्यासी तरुणों ने सलाम किया। फतेहपुर के पहले महादेव का मन्दिर मिला था, जिसमें दोनों ठहरे। बुखार जाता रहा। पूड़ी ने बुखार को बढ़ाया, महादेवजी ने छुड़ा दिया। घूमने के अलावा इस वक्त गीता और शिव-महिम्न:स्तोत्र का पाठ होता रहता। साथ में कुछ वेदान्त की पुस्तकें थीं, कुछ उन्हें भी किसी-किसी समय देख लेते।

पता लगा, नर्मदा के तट पर योगी रहते हैं। कानपुर से कालपी की ओर मुड़े। उरई, झाँसी, ललितपुर सब पैदल गये। यहाँ 52 घण्टे तक अन्न से भेंट नहीं हुई। श्रध्दा सारे भारत में एक-सी तो बँटी नहीं है। भूख ने दूर चले जाने को मजबूर किया। बेटिकट रेल पकड़ी और बीना में उतर पड़े। फिर पैदल। सागर में नर्मदा पार की। नरसिंहपुर होते हुए मानेपुर (जबलपुर जिला) में पहुँचे। यहाँ हरिनारायणजी के परिचित एक राजपूत गृहस्थ रहते थे। वह संन्यासियों के भक्त और वेदान्त के शौकीन थे। वेदान्त पढ़ते-पढ़ाते तथा कुछ दवा भी करते थे। 15-20 दिन यहीं दोनों जने ठहरे।

पहले भी सुन चुके थे और मानेपुर में भी ओंकारेश्वर के कमलभारती से योग सीखने की लालसा ले खण्डवा होते हुए ओंकार पहुँचे। योगी वहाँ से और उत्तर में जंगल में रहते थे। वहाँ पहुँचने पर मालूम हुआ, वह अनन्त समाधि ले चुके हैं। किसी ने कहा-''योगी-वोगी नहीं थे, कायाकल्प करते थे।'' उनके चेले को भी कोई-कोई योगी कहते थे और उनका योग था-द्वार बन्द कर दिन-भर सोते रहना।

फिर पैदल। पैसे पास नहीं थे, खाने के लिए भिक्षा 'मधुकरी' माँग लेते, और रसवती मालव-भूमि में उसकी कमी नहीं हुई। हाँ, अब योग से निराश हो चले। 'दूर का ढोल सुहावना' की बात ठीक जँचने लगी। हाँ, वैराग्य पर दृढ़ श्रध्दा थी। भर्तृहरि का 'वैराग्यशतक' बड़ा सुन्दर लगता था। इन्दौर होते हुए उज्जैन गये। बीस दिन महाकालेश्वर की नगरी में बीता फिर पैदल ही उत्तर का रास्ता लिया। मथुरा, हाथरस, हरिद्वार होते हुए ऋषिकेश पहुँचे।

अब सन् 1908 था। योग की आशा जाती रही थी। सोचा, कुछ वेदान्त ही पढ़ डालें। कैलाश-आश्रम के किसी संन्यासी के पास 'वेदान्त मुक्तावली' पढ़ने लगे। मगर व्याकरण कच्चा था, इसलिए समझने में कठिनाई होने लगी। कुछ यह भी मन में होने लगा, ''संस्कृत की खान बनारस छोड़, यहाँ टक्करें मारने की जरूरत?''

यहाँ तक आये तो चलो हिमालय की तीर्थयात्रा ही कर डालें। अभी हिमालय के तीर्थ इतने आबाद नहीं हुए थे। रास्ते कठिन थे। धार्मशालाओं-सदावर्तों की आज की भरमार का नाम तक न था। कभी-कभी, दो-दो दिन तक खाना नहीं मिलता और दोनों पथिक ठिठुरकर लेट जाते। केदारनाथ होकर जब तुंगनाथ पहुँचे, तो हरिनारायणजी से अलग हो जाना पड़ा। इतने दिनों के तजुर्बे ने बतला दिया कि यहाँ 'मन मिले का मेला' नहीं है। अब बिलकुल एकाकी-अकेले चलना, अकेले भूखे रहना। बदरीनाथ से ऋषिकेश लौट आये, मगर वहाँ कोई आकर्षण न था।

पाँव फट गये थे, इसलिए पैदल का खयाल छोड़ हरिद्वार में रेल पकड़ी। लक्सर में उतार दिया और मुरादाबाद में भी; लेकिन उतरते-चढ़ते आखिर बनारस पहुँच गये। शायद फिर किसी ने योगी की आशा दिलायी। फिर गंगा किनारे पैदल ही चल पड़े-अब की पूरब की ओर। बलिया तक गये, कहीं न योगी, न योगी की पूँछ दिखायी पड़ी। वर्षा आ गयी थी, भरौली (उजियार) में चौमासा रहे। सोचा, अब छोड़ो योगियों के परपंच को, जिनको लोग योगी समझते हैं, वह हमारे लिए दिन के सोने वाले या कायाकल्प करने वाले से अधिक नहीं होते। अब अच्छा यही है कि चलकर संस्कृत पढ़ो; फिर यदि कोई वास्तविक योगी मिल गया तो देखा जायेगा।

बनारस में विद्याध्ययन-1909 से बनारस में डटकर संस्कृत पढ़ने लगे। अपारनाथ के मठ में ठहरे। पास ही संन्यासी पाठशाला में अपने समय के प्रसिध्द व्याकरणी पण्डित हरिनारायण तिवारी पढ़ाते थे। उनसे सिध्दान्त कौमुदी शुरू की। ढाई वर्ष लगाकर उसे खूब मन से पढ़ा। पढ़ाई आगे जारी ही रही। संस्कृत की जड़ मजबूत हो गयी। पाठशाला के दूसरे अध्य्यापक शंकर भट्टाचार्य से न्याय पढ़ते थे। पं. नित्यानन्द पंजाबी मीमांसा और एक बलिया वाले पं. वेदान्त पढ़ाते थे। संन्यासी के लिए काशी में दुख क्या? पाँच क्षेत्रों में घूम जाते और भोजन के लिए पर्याप्त मधुकरी मिल जाती। रहते कभी किसी मठ में कभी किसी मठ में। विरक्त संन्यासी थे, इसलिए परीक्षा देने का कभी खयाल नहीं आया।

स्वामी अब (1912 में) 23 साल के थे। अभी भी योग और दिव्य-शक्ति पर से उनका विश्वास उठा नहीं था। टक्कर मारकर असफल होने के बाद वह इतना ही समझ पाये थे कि योगी अब कलियुग में दुर्लभ हैं, भाग्य से ही कहीं मिल जायँ। एक दिन उन्होंने एक बूढ़े दण्डी संन्यासी का पता पा, जाकर उनके दर्शन किये। वहाँ एक चमत्कार देखने में आया-दण्डी खर्राटे भरते सो रहे हैं और उनकी अंगुलियाँ माला के मनके गिन रही हैं। स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती-यही दण्डी का नाम था-सीधे-सादे साधु थे, कुछ पढ़े-लिखे भी। तरुण संन्यासी ने जिसके लिए घर छोड़ा था, पूरा नहीं तो उसमें से कुछ तो मिला। स्वामी बार-बार जाने लगे। दण्डीजी ने दण्ड ले लेने के लिए कहा। आखिर शंकराचार्य भी तो दण्डी थे! अभी तक अपारनाथ के गिरि थे। अब उन्होंने स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती का शिष्य सहजानन्द सरस्वती बन दण्ड धारण किया। अद्वैतानन्द बड़े पण्डित न थे कि सहजानन्द को उनसे ज्यादा ज्ञान प्राप्त होने की आशा होती। वह भक्ति-भाव वाले आदमी थे। भक्तिपूर्ण कथा-प्रसंगों को सुनते वक्त उनकी ऑंखों से ऑंसू की धारा बह चलती। उनकी एक मुख्य शिक्षा थी-'अवगुणग्राही साधु, गुणग्राही असाधु जो कि लोक-प्रसिध्द कहावत 'गुणग्राही साधु, अवगुणग्राही असाधु' का उलटा है, और जिसका अर्थ है, साधु पराये के गुणों को ग्रहण करते हैं और असाधु पराये के अवगुणों को। अद्वैतानन्द अपने सूत्र का अभिप्राय लेते थे-''साधु अपने अवगुण को पकड़ते और असाधु अपने गुणों को।''

दण्डी होने पर स्वामी सहजानन्द के नियम कुछ कड़े हो गये; लेकिन दण्डियों का काशी में (और बाहर भी) बहुत मान है, पढ़ना पहले ही की तरह जारी रहा। व्याकरण में मनोरमा, शेखर और महाभाष्य पढ़ा। वात्स्यायन-भाष्य, न्यायवर्तक, तात्पर्य-टीका, न्याय कुसुमांजलि, आत्मत्तव विवेक जैसे प्राचीन न्याय के प्रौढ़ ग्रन्थों का अध्ययन किया। नैयायिक जीवनाथ मिश्र से पक्षता, सामान्य निरुक्ति, सिध्दान्त-लक्षण तथा वाद के ग्रन्थ पढ़े। वेदान्त तो अपने घर का जरूरी विषय था, उसके पढ़ाने वालों में बलिया के पं. अच्युतानन्द त्रिपाठी थे। उनसे उन्होंने खण्डनखण्ड खाद्य, संक्षिप्त शारीरिक, अद्वैतसिध्दि आदि ग्रन्थ पढ़े। जब वह मीमांसा में न्याय-रत्नमाला आदि ग्रन्थों को पढ़कर आगे बढ़ना चाहते थे, उस वक्त देखा कि उनके अध्यापकों को कठिनाई हो रही है। सन्तोष नहीं होता था। खुद सिर पटकने की कोशिश की; मगर उससे काम बनते नहीं दीख पड़ा। अब (1915 में) वह किसी प्रौढ़ मीमांसक गुरु की खोज में थे। साहित्य में नैषध आदि पढ़े थे। मगर योग-वैराग्य के शैदाई सहजानन्द को ये शृंगारपूर्ण ग्रन्थ पसन्द न आते थे। पुराने युग की पुरानपन्थी संस्कृत पुस्तकों तथा योग-वैराग्य के अतिरिक्त और भी दुनिया है, इसका स्वामी को पता न था।

मीमांसा की प्यास बुझी न थी। पता लगा दरभंगा के चित्रधर मिश्र नामक एक बड़े मीमांसक हैं। 1915 में वहाँ पहुँच गये और उन्हीं के पास 7 मास रहकर मीमांसा के कितने ही ग्रन्थ पढ़े। कुमारिल की दुर्लभ पुस्तक टुप्टीका को हाथ से लिखकर पढ़ा। पं. बालकृष्ण मिश्र भी उस वक्त वहीं थे। उन्होंने बड़े स्नेह से स्वामी को वाद (न्याय) तथा काव्यप्रकाश पढ़ाया। चलते वक्त अपने प्रतिभाशाली शिष्य-परन्तु धर्म में गुरु को अपने गुरु द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक भेंट की, जिस पर अपने हाथ से यह स्वरचित पद्य लिख दिया :

प्रेमैव माऽस्तु यदि स्यात् सुजनेन नैव,
   तेनापि चेद् गुणवता न समं कदाचित्।
   तेनापि चेद् भवतु नैव कदापि भङ्गो

   भङ्गो
ऽपि चेद् भवतु वश्यमवश्यमायु:॥

''प्रेम ही मत हो, यदि हो तो सृजन के साथ नहीं, उससे भी हो तो गुणी के साथ कभी न हो। उससे भी हो तो कभी भी (प्रेम का) भंग न हो, भंग भी हो तो आयु अपने वश में जरूर हो।''

एक महायुध्द हो रहा हो, हो नहीं सकता कि स्वामी सहजानन्द ऐसा तीव्र बुध्दि का व्यक्ति अपनी चिर-समाधि को भंग न करे। 1915 से युध्द की खबरों के लिए स्वामी को अखबार पढ़ने की चाह लगी। बाहर की दुनिया का ज्ञान जैसे-जैसे बढ़ता ही जा रहा था, वैसे-वैसे राजनीति में भी दिलचस्पी बढ़ चली। समस्तीपुर (दरभंगा) में उन्होंने फीरोजशाह मेहता के मरे की खबर पढ़ी और यह भी समझा कि संसार में देशभक्ति भी कोई चीज है। लखनऊ-कांग्रेस में हिन्दू-मुस्लिम समझौता हुआ, उसे भी उन्होंने पढ़ा। वह 'प्रताप' (कानपुर) को नियमपूर्वक पढ़ते थे, जिससे भारत की राजनीतिक अवस्था की झलक थोड़ी-थोड़ी सामने आने लगी। 'प्रताप' में तिलक की मृत्यु के बारे में इस पद्य को पढ़कर बड़े प्रभावित हुए-

मुद्दतें काट दीं असीरी में, था जवानी का रंग पीरी में।
   अब कहाँ मुल्क का फिदाई हाय, मौत उस मौत को न आयी हाय॥

स्वामी ने इसे पढ़कर एक दिन-रात खाना नहीं खाया। अब उनकी नजर गाँधीजी की ओर लगी हुई थी। जलियाँवाला बाग काण्ड सुनकर उन्हें सख्त धक्का लगा। उसके बारे में हंटर की सरकारी रिपोर्ट को उन्होंने खूब अच्छी तरह पढ़ा। उसी वक्त 'खयाली क्रान्ति और कैसे उसे दबाया गया' नामक एक अंग्रेजी पुस्तक उनके हाथ आयी। सुख-दु:ख अनुभव करने का एक नया संसार उनके सामने खड़ा हो गया। संस्कृत साहित्य में गोता लगाना छूट गया। ढूँढ़-ढूँढ़कर रोज-रोज की ज्ञातव्य राजनीतिक बातें पढ़ते, अब उनके भाव देश के परतन्त्रकारियों के विरुध्द हो गये। मृत्यु-शय्या पर पड़े तिलक को देखने गाँधीजी बम्बई के सरदारगृह में गये। तिलक ने कहा-'Non-co-operation ' चुप रहकर फिर 'Very high method ' यह कहते हुए लोकमान्य ने आखिरी साँस ली। स्वामी ने कहीं पर ये बातें पढ़ीं।

1920 में गाँधीजी पटना आये। वहाँ मौलाना आज़ाद और कई दूसरे नेताओं के व्याख्यान सुने। आज़ाद के व्याख्यान का बहुत असर पड़ा। 5 दिसम्बर को वे मौलाना मजहरुल्हक के मकान पर गाँधीजी से बात करने गये। संन्यास पर कुछ बात चली, फिर गाँधीजी की राजनीति पर स्वामी ने तर्क करना शुरू किया और कहा कि खिलाफत के सवाल के हल हो जाने के बाद महम्मदअली शौकतअली मुल्क को धोखा तो नहीं देंगे? गाँधीजी ने कहा-''हम तर्क नहीं जानते, धोखा नहीं देंगे।'' आरा की सभा में गाँधीजी ने संन्यासी के इस वार्तालाप का जिक्र किया था। अब स्वामी ने निश्चय किया-देश की सेवा बड़ी चीज है, मैं मुल्क की सेवा करूँगा।

राजनीतिक क्षेत्र में-स्वामी नागपुर कांग्रेस में गये। लौटकर (1921 में) बक्सर चले गये और वहीं काम शुरू किया। कांग्रेस ने कौंसिलों के बायकाट का निश्चय किया था। हथुआ के महाराजा (जो खुद भूमिहार ब्राह्मण हैं) कौंसिल के लिए खड़े हुए। कांग्रेस के लोगों ने एक अनपढ़ धोबी को उनके खिलाफ खड़ा किया। स्वामीजी ने सभा में बोलते हुए कहा था-''राजा-महाराजा से हमारा धोबी कहीं अच्छा है।'' धोबी जीत गया। वहाँ तिलक स्वराज्य फण्ड के लिए चन्दा जमा करने में सहायता की। कुछ लोगों ने रुपयों में गड़बड़ी की, जिसके कारण स्वामीजी का मन बिदक उठा और वे कांग्रेस का काम करने के लिए गाजीपुर चले गये।

अहमदाबाद कांग्रेस (1921) से लौटने पर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। सजा पाकर गाजीपुर, बनारस, फैजाबाद, लखनऊ की जेलों की हवा खाते रहे। वहाँ पर भी आदर्शवादी स्वामी के हृदय में गाँधी अनुयायियों की कितनी ही बातें खटकती थीं-(1) गाँधी-सिध्दान्त को वे दिखाने के लिए मानते थे; (2) कृपलानी, सम्पूर्णानन्द-जैसों का हिन्दू-मुस्लिम-एकता में विश्वास नहीं था, तो भी वे उसका अभिनय करते थे; (3) फजूल बात के लिए जेलवालों से झगड़ते रहते; (4) जब राजनीतिक बन्दियों के डिवीजन (विभाग) का सवाल आया, तो लोगों का रुख देखकर पहले तो कह दिया-''हम हलवा खाने जेल नहीं आये, हम चक्की चलाने आये हैं''; लेकिन जब डिवीजन करके फैजाबाद भेज दिये गये, तब बाँदा के एक तिलक-भक्त ने रोज आधा-सेर घी पाने के लिए भूख-हड़ताल कर दी। यह गलत बात है-इसे बहुत-से लोग मानते थे, तब भी दूसरों ने साथ दिया। खैर, हड़ताल तो टूटनी ही थी, चार दिन बाद सबने फिर खाना शुरू किया।

जनवरी (1923) में स्वामी जेल से छूटकर गाजीपुर लौट आये और कांग्रेस का काम करते रहे। अब आन्दोलन शिथिल हो चला था। शिथिलता का प्रभाव स्वामी पर भी पड़ रहा था। 1924 में वे सेमरी (बिहार) चले गये और वहाँ 'कर्मकलाप' नामक पुस्तक लिखी।

अब बिहार में कांग्रेस ने कितने ही डिस्ट्रिक्ट बोर्डों को दखल कर लिया था। सरकार परस्तों के सिरमौर सर गणेशदत्त सिंह (भूमिहार) मिनिस्टर थे। स्वामीजी का प्रभाव वे जानते थे, इसलिए उनकी बहुत लल्लोचप्पो करते थे। लोग बराबर उनका कान भरा करते थे कि कायस्थ कांग्रेस के नाम पर भूमिहारों के प्रभाव को खत्म कर देना चाहते हैं। बिहार के बड़े जमींदारों में बहुत अधिक संख्या भूमिहारों की है, यह स्वामीजी जानते थे। साथ ही साथ वे यह भी जानते थे कि कांग्रेसकर्मियों में उनकी संख्या कम नहीं है। इसलिए भूमिहारों का अस्तित्व खतरे में, यह बात तो उनके मन में नहीं आती थी; लेकिन तब भी गढ़-गढ़कर कितने ही उदाहरण उनके सामने पेश किये जाते थे। सर गणेश ने एक बार बड़े तपाक के साथ स्वामीजी के सामने कहा था-'पहले देश, फिर बिरादरी'; लेकिन जब गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को उन्होंने कांग्रेसियों के हाथ से निकालने के लिए तोड़ दिया, तो स्वामीजी के मन पर इसका बहुत बुरा असर हुआ। सर गणेश ने बताया कि गवर्नर ने जबरदस्ती ऐसा कराया।

1926 आया। कांग्रेस ने कौंसिलों में जाना तय किया और भिन्न-भिन्न चुनाव-क्षेत्रो के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार खड़े किये जाने लगे। उस वक्त कुछ योग्य कांग्रेसकर्मियों को ठुकराकर दूसरों को वे स्थान दिये गये। स्वामीजी के आस-पास अब भी जात-पाँत की मनोवृत्ति वाले लोग ज्यादा रहते थे। उन्होंने कायस्थ-पक्षपात, भूमिहार-विद्वेष आदि कहकर भड़काना शुरू किया। स्वामीजी ने अन्याय के खिलाफ गाँधीजी को एक लम्बा-चौड़ा पत्र लिखा; लेकिन कोई उत्तर नहीं आया। सर गणेश और बाबू रजनधारी सिंह जैसे गणमान्य नेता स्वामीजी का चरणामृत ले रहे थे। अन्त में स्वामीजी को खींचने में वे सफल हुए। एक चुनाव-क्षेत्र में स्वामीजी और इन पंक्तियों के लेखक दो विरोधी उम्मीदवारों के समर्थक थे। यद्यपि लेखक मानता था और जिले के अधिकांश कांग्रेसकर्मी भी समझते थे कि जिस उम्मीदवार का स्वामीजी समर्थन कर रहे हैं, उसने कांग्रेस के लिए ज्यादा काम किया है, वह ज्यादा जनप्रिय है; किन्तु जब कांग्रेस ने दूसरे उम्मीदवार को खड़ा कर दिया, तो कांग्रेसियों के लिए उसका समर्थन करने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।

धीरे-धीरे स्वामीजी को बिलय्या भक्तों का पता लग गया। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के सभापतित्व के लिए जब मेरठ के कांग्रेस-नेता चौधरी रघुवीर नारायण सिंह का नाम आया, तो उन्होंने किसी राजा-महाराजा को उस जगह बैठाना चाहा। खैर, वे इसमें सफल नहीं हुए और चौधरी साहब ही सभापति बने। गया डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के तोड़ने के बारे में स्वामीजी ने सर गणेश को फटकारते हुए कहा-''अब तुम्हारे यहाँ हम फिर नहीं आयेंगे।''

किसानों के नेता-भूमिहार सामन्तों और जमींदारों की मनोवृत्ति को भीतर से देखकर स्वामीजी की ऑंखें खुलने लगीं। वह समझने लगे कि मुट्ठी-भर जमींदारों, राजा-महाराजाओं के सिवाय सबकी-सब भूमिहार जनता किसान है और इन दोनों के हित एक-दूसरे के खिलाफ हैं। भूमिहार किसानों और गरीबों के वही हित हैं, जो कि भारत के सभी किसानों और गरीबों के। इसलिए सबका उध्दार भारत के सारे किसान-वर्ग के उध्दार में ही है। अब वह पटना जिले में ज्यादा रहते थे। वहीं उन्होंने पहले-पहल भूमिहार किसानों से भूमिहार जमींदारों के अत्याचार सुने। इसके लिए 1927 के अन्त में उन्होंने पश्चिम पटना किसान-सभा बनायी। अभी भी उनका विश्वास था कि परस्पर सहयोग से किसान और जमींदार का भला हो सकता है; लेकिन साथ ही वह समझते थे कि किसानों के मजबूत हुए बिना जमींदार सहयोग नहीं करेंगे। 4 मार्च, 1928 को स्वामीजी ने पश्चिम पटना किसान सभा का बाकायदा संगठन किया। एक पैसा मेम्बरी फीस रखी गयी। घूम-घूमकर गाँवों में किसानों के हित पर स्वामीजी व्याख्यान देने लगे-भरतपुरा के भूमिहार जमींदार की जमींदारी के गाँवों में सभाएँ खासतौर से ज्यादा हुईं।

अगले साल तथा 1929 का भी बहुत-समय बीत गया, स्वामीजी उसी तरह अपनी धुन में लगे हुए थे। उसी साल बिहार में काश्तकारी कानून में सुधार करने की बात जोर-शोर से चलने लगी। सरकार किसानों के रुख को समझ रही थी और चाहती थी कि जिन अत्याचारों के बोझ से-नाजायज नजरानों और करों के बोझ से किसान जनता पिसी जा रही है, उन्हें कुछ कम करना चाहिए, नहीं तो यह मवाद भयंकर हो उठेगा। जमींदारों को भी अभी किसी कांग्रेसी मिनिस्टरी का तजुर्बा न था। वे समझते थे कि कांग्रेसी नेता जिन लम्बी-लम्बी बातों को कहते हैं, मिनिस्टर बनकर वैसा कर बैठेंगे; इसलिए चाहते थे कि सौदा सस्ते में इसी समय पटा लिया जाय। उधार किसानों के भी कुछ नामधारी प्रतिनिधि थे, जो कि कुछ मामूली सुधार कराकर अगले चुनाव के लिए अपने वास्ते रास्ता साफ करना चाहते थे। लेकिन, सरकार ने कह दिया कि जमींदारों और किसानों के समझौते से जो बिल पेश होगा, सरकार उसी का समर्थन करेगी। उस समय एक जमींदार मुखिया ने जमींदारों की ओर से एक बिल पेश किया था और कांग्रेस के भगोड़े एक दूसरे सज्जन ने किसानों की ओर से एक दूसरा बिल रखा था। मिनिस्ट्री के रस से अनभिज्ञ कांग्रेसी नेता घबड़ा रहे थे कि कहीं दोनों समझौता करके कोई कानून न पास कर दें और श्रेय उनको मिल जाय। कांग्रेस नेता बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेम्बली के स्पीकर) ने स्वामीजी के पास आकर कहा कि किसान-सभा का काम जोर से होना चाहिए और सारे प्रान्त के किसानों का संगठन करना चाहिए। इससे 8 साल पहले 1921 में सोनपुर-मेला के समय इन पंक्तियों के लेखक ने भी कुछ कांग्रेसकर्मियों को मिलाकर एक बिहार प्रान्तीय किसान-सभा कायम की थी; मगर यह बात समय से बहुत पहले की गयी; इसलिए वह सिर्फ कागजी रह गयी। अब स्वामीजी के किसानों में ठोस प्रचार तथा कांग्रेस-विरोधियों की चाल से भयभीत कांग्रेस-नेताओं के सहयोग से उसी सोनपुर मेले में 17 नवम्बर (1929) को प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस हुई। कॉन्फ्रेंस के सभापति थे स्वामी सहजानन्द सरस्वती। उन्होंने काश्तकारी बिल के षडयन्त्र की पोल खोली और उसका खूब विरोध किया। प्रान्त के कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता वहाँ मौजूद थे। प्रस्ताव आया, सारे प्रान्त की एक किसान-सभा बनायी जाय। बेनीपुरी ने कांग्रेस के कमजोर हो जाने की बात कहकर उसका विरोध किया, स्वामीजी ने समर्थन किया। प्रस्ताव पास हुआ। बिहार प्रान्तीय किसान-सभा का पहला चुनाव हुआ :

-सभापति-स्वामी सहजानन्द सरस्वती

-मन्त्री-बाबू श्रीकृष्ण सिंह (पीछे बिहार के मुख्यमन्त्री)

मेम्बरों में बाबू राजेन्द्र प्रसाद, बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद, बाबू रामदयालु सिंह (पीछे असेम्बली के स्पीकर), बाबू अनुग्रहनारायण सिंह (पीछे बिहार के अर्थ-सचिव) आदि सभी कांग्रेस के प्रमुख नेता थे। ब्रजकिशोर बाबू ने यह कहकर उसमें रहना पसन्द नहीं किया कि यह बहुत खतरनाक काम हो रहा है। पीछे ब्रजकिशोर बाबू की बात सच निकली, या यों कहिए दूसरे नेताओं ने अपनी क्षमता को जाने बिना ही इतना भारी जोखिम अपने सिर पर लेना चाहा।

लाहौर कांग्रेस (1930) के पहले बिहार में वल्लभ भाई पटेल आये। जगह-जगह बड़ी-बड़ी सभाएँ हुईं। स्वामीजी अपने व्याख्यानों से किसानों में नया जोश भर रहे थे। वल्लभभाई भी उसी सभा में किसानों को उत्साहित कर रहे थे। सीतामढ़ी में वल्लभ भाई ने कहा-जमींदारों की क्या जरूरत? पकड़कर दबा दूँ तो चूर-चूर हो जायँ। अभी बात बनाने का समय था, काम करने का नहीं, वह तो सात वर्ष बाद आने वाला था, फिर 'वचने का दरिद्रता' मुंगेर में प्रान्तीय राजनीतिक सम्मेलन हुआ। वहीं प्रान्तीय किसान-कॉन्फ्रेंस भी हुई। कॉन्फ्रेंस ने प्रस्ताव पास किया कि राजनीतिक मामलों में किसान-सभा कांग्रेस के विरुध्द नहीं जायेगी; किसान-सभा सरकारी काश्तकारी बिल का विरोध करती है और गवर्नमेंट को चाहिए कि उस बिल को उठा ले। पीछे सरकारी मेम्बर ने कौंसिल में यह बात कहते हुए बिल को वापस ले लिया कि किसान-सभा इसका विरोध कर रही है। किसानों ने कौंसिली स्वयंभू नेता उस वक्त मुँह ताकते रह गये।

लाहौर कांग्रेस के बाद स्वतन्त्रता दिवस (26 जनवरी, 1930) आया। नमक-सत्याग्रह छिड़ा। स्वामीजी पकड़कर छह महीने के लिए हजारीबाग जेल में बन्द कर दिये गये। गाँधी-भक्त नेताओं की कमजोरियाँ पहली जेलयात्रा की तरह अब अभी दिखलायी पड़ने लगीं। जरा-जरा-सी सुविधा के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते थे। स्वामीजी को बहुत शोक हुआ। अभी भी राजनीति में स्वामीजी गाँधीवादी थे। उनको घोर निराशा हुई-ऐसे चरित्रहीन लोग कैसे स्वराज्य लेंगे? राजनीति से वे अब उदास हो चले।

सन् 1931 आया। स्वामीजी अब 42 साल के थे। अब उनका ज्ञान और तजुर्बा बहुत विस्तृत था। घर छोड़ते समय उनके सामने जो आदर्श थे, उनका स्थान एक दूसरे उच्चतर आदर्श ने ले लिया था। वैयक्तिक मोक्ष की जगह वे अब सारी जनता को मुक्त देखना चाहते थे। जनता में भी गरीबी और अत्याचार से अत्यन्त पीड़ित किसान ही उनके हृदय में सबसे अधिक स्थान रखते थे। वे किसानों से अलग शहरों के मुहल्लों में बैठकर किसानों का हित-चिन्तन नहीं करते थे। वे गाँवों में घूमते, जहाँ कोई किसान आकर कहता-''स्वामीजी, हमारे जुतते खेत में से छीनकर हमारे हल-बैलों को जमींदार के आदमी ने जिरात (सीर) जोतने में लगा दिया।'' कोई कहता-''हम नाजायज नजराना और रसूमों के साथ मालगुजारी हर साल बेबाक करते रहते हैं; लेकिन जमींदार रसीद नहीं देता, हमारे ऊपर सूद और तावान के साथ 4-4 साल की बाकी मालगुजारी की डिग्री करवाकर हमको तबाह कर रहा है।'' कहीं वे सुनते कि गाय-भैंस न रहने से मुफ्त दूध न दे सकने पर जमींदार ने अपने आदमी से किसान की स्त्री का दूध निकलवाया। कहीं वे देखते, किसानों की बहू-बेटियों की इज्जत जमींदारों के हाथ लुटते देखकर भी कानून कुछ भी मदद करने में असमर्थ है। वे संसार को सुखी देखना चाहते थे और देख रहे थे जनता की सबसे अधिक संख्या-सबसे मेहनती-समुदाय किसानों की नरक की जिन्दगी भोगती। यह भावनाएँ थीं, जिन्होंने स्वामीजी को किसान-सभा तक पहुँचाया। लेकिन, वेदान्ती, आदर्शवाद, संन्यासियों का एकान्ती जीवन और उच्च सदाचार के हाथ में तराजू-ये बातें अब भी उनके दिमाग पर जबर्दस्त प्रभाव रखती थीं। इसीलिए जब उनकी अपनी पुरानी भावुक वृत्तियों पर किसी ओर से चोट पहुँचती, तो उनका कोमल भावुक हृदय तिलमिला उठता। इस तिलमिलाहट में उनका हृदय जनता की व्यथा वाले भाग को भूल जाता और सिर्फ अपनी तत्कालीन चोट को लेकर पुन: 18 साल की उम्र में गाजीपुर से भागने का अभिनय करता।

1931 में बिहार में किसानों की दुर्दशा की कांग्रेस की ओर से जाँच हुई। नेताओं ने लम्बे-लम्बे व्याख्यान दिये। लेकिन उसके परिणामस्वरूप जो परिवर्तन करने पड़ते, उन पर बिहारी कांग्रेस-नेता जो कि खुद जमींदार थे, अभी दूर तक सोच नहीं सके थे। 1932 के आन्दोलन में स्वामीजी शामिल नहीं हुए। दोस्तों ने बहुत कहा, मगर उनका भावुक हृदय हजारीबाग के जेल के दृश्य को भूल नहीं सकता था। लेकिन इसी वक्त दूसरी परिस्थितियाँ उपस्थित हुईं और अपने हृदय के गहन कोने में छिपे स्वामी को फिर बाहर आने के लिए मजबूर होना पड़ा। कुछ अवसरवादी लोगों ने एक और किसाना-सभा बनायी। किसानों के कुछ स्वयंभू नेता कौंसिल में इस नकली किसान-सभा की मदद से फिर कोई कानून पास करवा लेना चाहते थे। इस समय कौंसिल के कांग्रेसी मेम्बर जेलों में बन्द थे, यह उनके लिए सुनहरा अवसर था। इन स्वयंभू किसान-नेताओं ने-जो कि सरकार और जमींदारों के हाथ में खेल रहे थे-जमींदारों के साथ चुपके-चुपके एक समझौता भी कर डाला था और चाहते थे कि उसे उस नकली किसान-सभा से मंजूर करा लिया जाय। 1933 की जनवरी के मध्य में उक्त किसान-सभा को बुलाने का दिन भी निश्चित कर लिया गया। स्वामीजी ने बहुत आश्चर्य से पत्रों में इस समाचार को पढ़ा। कुछ क्षोभ भी हुआ, मगर उन्होंने अपने को दबाया। एक किसान कार्यकर्ता स्वामीजी के पास दौड़े-दौड़े पहुँचे और खतरे की खबर देकर आगे आने के लिए कहा-''स्वामीजी आइये, नहीं तो सारा कामचौपट हो जायेगा।'' स्वामीजी ने दृढ़तापूर्वक 'नहीं' कहा। कार्यकर्ता ने बहुत तरह से समझाया, रात को देर तक गिड़गिड़ाते रहे; मगर स्वामीजी की 'नहीं' को नहीं बदल सके। किसान कार्यकर्ता को एक सख्त फोड़ा निकला हुआ था ओर उस पर से बुखार भी था, जिसके दर्द के मारे उनके मुँह से आह निकलती रहती थी। बीच-बीच में स्वामीजी के पासलेटे उस निस्तब्ध रात्रि में उनके मुँह से शब्द निकल आते-'स्वामीजी नहीं चलेंगे?...चलते तो...क्या करें!' कार्यकर्ता के इन आह भरे शब्दों ने स्वामीजी को सोचने के लिए मजबूर किया। धीरे-धीरे उन्हें मालूम होने लगा कि यह आह एक किसान कार्यकर्ता की नहीं है, यह है करोड़-करोड़ पीड़ित किसानों के दिल की आह।

सवेरे बिना पूछे ही स्वामीजी ने कार्यकर्ता से कह दिया-''मैं चलूँगा।''

गुलाब बाग (पटना) में उक्त सभा की तैयारी थी। किसानों की सभा में राजा सूरुजपुर और मिस्टर सच्चिदानन्द सिंह जैसों को भी बैठे देखकर स्वामीजी का माथा ठनका। सभा के संयोजकों में से एक ने बाबू गुरुसहाय लाल ने पूछा-''यह क्या?'' गुरुसहाय लाल ने जमींदारों के साथ हुए समझौते को स्वामीजी के सामने रखकर कहा-''इसे पास हो जाना चाहिए।'' स्वामीजी ने समझाना शुरू किया कि पास कराना है तो उसे चोरी-चोरी पास नहीं कराना चाहिए। प्रान्तीय किसान-सभा मौजूद है, उससे पास कराओ, दूसरी तारीख मुकर्रर करो। फिर समझौते की बात छेड़ी गयी। स्वामीजी ने कहा-''समझौता किसने किया है?'' राजा साहब बोल उठे-''यह तो कुछ दो और कुछ लो का सवाल है।'' स्वामीजी ने सीधा जवाब दिया-''हाथी के लिए एक चावल देना कुछ भी नहीं है; किन्तु चींटी के लिए वह जीने-मरने का सवाल है।'' गुरुसहाय लाल को स्वामी के सामने दबते देखकर मिलीभगत वाले लोगों को असन्तोष हुआ। नामधारी किसान-सभा के एक नामधारी मन्त्री ने मिस्टर सिंह को धान्यवाद देने के लिए प्रस्ताव रखना चाहा। उस समय पता लगा कि सभा बुलाने में मिस्टर सिंह की उदारता सहायक हुई है। खैर, चाहे जैसे भी हो, लुक-छिपकर किसानों की सभा बुलवायी जाय, लोग स्वामी के प्रभाव, उनके तर्क और भाषण-शक्ति को जानते थे, और यह भी जानते थे कि स्वामी के विरोध करने पर कोई प्रस्ताव पास नहीं हो सकता। सिंह साहब को धान्यवाद नहीं मिला, उसका कितनों को खेद रहा। सभा में प्रस्ताव पास हुआ कि समझौते के मसौदे को छापकर बाँटा जाय और 30 मार्चको किसान-सभा की बैठक की जाय। उसी समय कौंसिल का भी अधिवेशन होने वाला था। किसान-सभा 30 मार्च को तीसरे पहर से 10 बजे रात तक समझौते के हर पहलू पर विचार करती रही और सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास हुआ शिवशंकर झा किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं, गुरुसहाय लाल कौंसिल में जाकर बिल का विरोध करें, कोई इस तरह का कानून पास होना चाहिए। पीछे गुरुसहाय लाल को हिम्मत न हुई।

अब उस काश्तकारी बिल को लेकर सारे बिहार में वह स्मरणीय ऑंधी चली, जिसने सदियों से सोये किसानों की ऑंखों को खोल दिया। जमींदारों और सरकार के स्नेहभाजन गुरुसहाय लाल और शिवशंकर झा सभा करके किसानों को समझाने की कोशिश करते; मगर स्वामी की सभाओं और उनके प्रचार के सामने कौन टिकता? स्वामीजी बवंडर की तरह बिहार में घूमते हुए किसानों के दिलों में आग लगा रहे थे और बतला रहे थे कि कैसे पीठ पीछे गला काटने की कोशिश की जा रही है। जमींदार उस कानून को पास कराने के लिए बहुत उत्सुक थे; क्योंकि उसमें जमींदारी में 100 एकड़ पर 10 एकड़ अपनी खास जिरात (सीर) में लाने का अधिकार दिया गया था। आन्दोलन का यह फल हुआ कि उस 10 सैकड़ा जिरात वाली बात को निकाल देना पड़ा। कानून पास कर दिया गया और कुछ छोटे-मोटे अधिकार किसानों को मिले। सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि किसानों को भ्रम में नहीं डाला जा सका, स्वामी और किसान-सभा की यह पहली सफलता थी।

1934 में बिहार में भूकम्प आया। कांग्रेस-नेता जेलों से छूटकर बाहर चले आये। सभी पीड़ित-सहायता के काम में लग गये। गाँधीजी भी पटना आये थे। स्वामीजी ने फिर उनसे राजनीति-सम्बन्धी कुछ सवाल पूछे, जिनका जवाब स्वामीजी को इतना असन्तोषजनक मालूम हुआ कि उन्होंने वहीं गाँधीजी के सामने गाँधीवाद को आखिरी सलाम किया।

1927 में किसान-सभा गुमनाम तौर पर पैदा हुई। 1929 में प्रान्त के बड़े-बड़े कांग्रेस-नेताओं का उसे सहयोग और आशीर्वाद मिला। अब वह 7 साल की थी। इस बीच उसका जो रूप स्पष्ट होता जा रहा था, उससे जमींदार, कांग्रेसी नेता शंकित होने लगे। तत्कालीन डिक्टेटर सत्यनारायण सिंह ने नोटिस निकाली कि किसान-आन्दोलन में किसी कांग्रेसी को भाग नहीं लेना चाहिए। यह भी पता लगा कि जिस समझौते के विरोध में बिहारी किसानों की इतनी जबर्दस्त राय है, कितने ही कांग्रेसी नेता उसके पक्ष में हैं। उनकी ओर से स्वामीजी के दिल पर यह दूसरा सख्त धक्का लगा। किसान भूकम्प के सर्वनाशकारी प्रभाव से एक ओर त्राहि-त्राहि कर रहे हैं और एक ओर बिहार के एक जमींदार साहब अपने आदमियों के नाम से सर्कुलर निकाल रहे हैं कि जहाँ-जहाँ रिलीफ (सहायता) बँटे, वहाँ-वहाँ पहुँचे रहो और उसी वक्त मालगुजारी वसूल कर लो। बिहार के कमिश्नरों की बैठक में तय किया गया कि जब तक कोई भीषण अवस्था नहीं दीख पड़े तब तक किसानों को छूट-छाट देने की जरूरत नहीं। दरभंगा की जमींदारी की कितनी ही शिकायतें भेजी गयीं, जिस पर गाँधीजी कहते थे-गिरीन्द्र मोहन मिश्र (दरभंगा राज्य के सहायक मैनेजर) अच्छा आदमी है, उससे कहो, वह सभी शिकायतें दूर कर देगा। गिरीन्द्रमोहन कांग्रेसी माने जाते थे। गाँधीजी ने यह भी कहा कि हर एक किसान अपनी शिकायतों को अलग-अलग लिखकर दे। स्वामीजी को बहुत निराशा हुई, किसानों की सभी तकलीफों के बारे में कांग्रेसी नेताओं को टालमटोल करते देखा। यहीं से उनके प्रति स्वामीजी का भाव बदल गया।

1935 में किसान-सभा-कौंसिल में जमींदारी प्रथा को उठा देने का प्रस्ताव रखा गया। स्वामीजी ने विरोधा किया-अभी भी उनके दिल में जमींदारों के लिए कुछ कोमल स्थान था। स्वामीजी के विरोध करने पर भी कौंसिल ने प्रस्ताव पास कर दिया; लेकिन जब स्वामीजी हटने लगे तो लोग घबड़ा गये और प्रस्ताव को लौटा लिया गया।

इसके बाद ही अमाँवा राज्य की जमींदारी के पचास गाँवों में किसानों पर होते अत्याचारों की स्वामीजी ने जाँच की, उन्हें उन्होंने अमाँवा के राजा के सामने रखा। हटा देने का वचन मिला। मैनेजर से 3.30 घण्टा बात करने के बाद भी जवाब गोलमटोल रहा। स्वामी अनुभव को अपना गुरु मानते हैं। इन पचास गाँवों के किसानों के ऊपर होते अत्याचारों को ऑंख से देखकर और सुलह-समझौते के साथ उसके हटाने के लिए विफलप्रयत्न होने के बाद उनकी समझ में आ गया कि जमींदारी प्रथा को हटाना होगा। नवम्बर में हाजीपुर की प्रान्तीय कॉन्फ्रेंस में उन्होंने खुद जमींदारी प्रथा हटा देने के लिए प्रस्ताव पास कराया।

1936 में लखनऊ कांग्रेस के वक्त पहला अखिल भारतीय किसान-सम्मेलन हुआ और स्वामीजी उसके पहले सभापति थे। यहीं किसानों का चार्टर तैयार हुआ, जिसके कारण अगले साल फैजपुर-कांग्रेस को कितनी ही बातें स्वीकार करनी पड़ीं। किसानों की जाँच का सवाल भी स्वामीजी कांग्रेस के सामने लाये। कितने ही लोग विरोध कर रहे थे। जवाहरलाल ने कहा-''जरूर लाना चाहिए, हम इसके लिए स्वामीजी को धन्यवाद देते हैं।'' लखनऊ में किसान-जाँच-कमेटी का प्रस्ताव पास हुआ। उसके अनुसार कितने ही प्रान्तों में जाँच हुई। रिपोर्ट भी तैयार हुई। मगर बिहार के कांग्रेस-नेता किसान-आन्दोलन को कुछ नजदीक से देख चुके थे, इसलिए वे कान में तेल डाल लेना चाहते थे। फैजापुर में फिर पूछताछ हुई, अब क्या करते? जाँच कमेटी के लिए जब स्वामीजी का भी नाम पेश किया गया, तो प्रान्तीय कार्यकारिणी के दूसरे मेम्बरों ने यह कहकर विरोध किया कि रिपोर्ट में हम एकमत चाहते हैं।

कौंसिल के नये चुनाव के लिए कांग्रेस उम्मीदवार नामजद करने लगी। प्रान्तीय नेता इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कोई किसान-पक्षी नेता न आ जाय। किशोरी प्रसन्न सिंह (हमारे कामरेड) जैसे जबर्दस्त जनप्रिय तथा कांग्रेसकर्मी के लिए कोई स्थान नहीं और उनकी जगह एक ऐसे आदमी को स्थान दिया गया, जिसने कांग्रेस में कभी कुछ नहीं किया और स्वयं जमींदार होते हुए एक बड़ी जमींदारी का मैनेजर रहा। इस अन्धे खाते को देखकर स्वामीजी ने प्रान्तीय कांग्रेस कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया। लेकिन, कांग्रेस चुनाव में सरकारपरस्तों से लोहा लेने जा रही थी, यह समझकर उन्होंने अपना इस्तीफा लौटा लिया। स्वामीजी ने चुनाव के लिए खूब परिश्रम किया। कौंसिल के पुराने प्रेसीडेण्ट और एक बड़े जमींदार बाबू रजनधारी सिंह (भूमिहार) एक साधारण कांग्रेसकर्मी के सामने चारों खाने चित्त हो गये। ऐसे ही और भी कितने ही उदाहरण मौजूद हुए।

फैजापुर कांग्रेस के समय (1936) भारतीय किसान सभा की दूसरी कॉन्फ्रेंस हुई। अबकी स्वामीजी जनरल सेक्रेटरी हुए। तब से स्वामीजी (जब कभी भारतीय किसान-सभा के सभापति नहीं हुए) जनरल सेक्रेटरी बराबर बने रहे। भारत में किसान-आन्दोलन अब स्वामीजी के जीवन का एक अभिन्न अंग बन गया। तीसरी कॉन्फ्रेंस (कुमिल्ला) के स्वामीजी सभापति हुए।

किसानों की जिन-जिन लड़ाइयों में स्वामीजी ने भाग लेकर नेतृत्व किया, उनमें से एक-एक के लिए एक-एक पोथी लिखी जा सकती है, (और वह इस लेख का विषय नहीं है) बड़हियाटाल (मुंगेर) के किसान-संघर्ष में स्वामीजी साथी कार्यानन्द की सहायता में पहुँचे रहते। दरमपुर (बिहार शरीफ) के किसानों के संकट में स्वामीजी साथ थे। सोलहंडा को लीजिए या रेवड़ा को, मझियावाँ को लीजिए या अमवारी को; सभी जगह स्वामीजी किसानों का उत्साह बढ़ाते थे। यह लड़ाइयाँ अब कांग्रेस-मिनिस्टरी के जमाने में हो रही थीं। कांग्रेस-मिनिस्टरी और कांग्रेसी बड़े नेता अब अपने असली रूप में सामने आ रहे थे। उन्होंने स्वामीजी को गिरफ्तार कराके अपने को बदनाम करना पसन्द नहीं किया, लेकिन और तरह से स्वामीजी को नीचा दिखाने में कोई कसर उठा नहीं रखी। उन्हें अनुशासन के नाम पर कांग्रेस से सालों के लिए बाहर कर दिया गया। कांग्रेसी अखबार स्वामीजी के खिलाफ कुछ भी अनाप-शनाप बोलने के लिए स्वतन्त्र थे; लेकिन स्वामीजी ने कभी इसकी परवाह न की। उन्होंने किसानों के लिए (मजदूरों के लिए) अपना जीवन अर्पण किया है। उनकी रण-गर्जना को सुनकर किसानों के दिल बल्लियों उछलने लगते और जालिम-जमींदारों के प्राण सूखने लगते हैं। वे कर्ममय हैं। साक्षात् देखने पर चुप रहते समय पर उनकी ऑंखें बोलती मालूम होती हैं, गालों पर उछलती हँसी अत्याचारियों का परिहास करती है, रोयें-रोयें सजग हो कुछ आवाज-सी निकालते दिखाई पड़ते हैं।

महायुध्द आया। स्वामीजी ने साम्राज्यवादी युध्द के बारे में हर तरह के समझौते का विरोध किया। रामगढ़ में (अप्रैल 1940) दिये हुए व्याख्यान के लिए उन पर मुकदमा चलाया गया और 3 साल की सजा हुई। जिस वक्त हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला किया, उसी वक्त हर एक चीज को किसान और शोषित वर्ग के हित की दृष्टि से देखने वाले स्वामीजी को यह समझने में देर नहीं हुई कि अब युध्द का स्वरूप बदल गया; आज फासिस्टवाद के विजयी होने पर किसानों के लिए कोई आशा नहीं, मजदूरों के लिए कोई आशा नहीं, भारत जैसे परतन्त्र देश की स्वतन्त्रता चाहने वाली जनता को कोई आशा नहीं। स्वामीजी ने अपने सहकर्मियों को बुलाकर और दूसरे जरिये से इसे समझाया।

(मार्च 1942) में समय से कुछ पहले स्वामीजी जेल से छोड़ दिये गये। कांग्रेस के कितने ही विरोधी भाइयों ने कहना शुरू किया कि स्वामीजी सरकार को वचन देकर छूटे हैं। स्वामीजी किसी को वचन नहीं देते-उन्होंने अपना वचन सिर्फ किसानों और भारत की शोषित जनता को दिया है, और उसे वे आखिर तक निबाहेंगे। 9 अगस्त के (1942) स्वतन्त्रता युध्द के नाम पर जो आत्महत्या-काण्ड शुरू हुआ, स्वामीजी ने उसका सख्त विरोध किया; यद्यपि इसके लिए भी विरोधियों ने तिल का ताड़ बनाने में कोई कसर नहीं उठा रखी। किसान जानते हैं-उनका स्वामी निर्भय है, जेल क्या, मृत्यु भी उसे डरा नहीं सकती। किसान जानते हैं, उनका स्वामी निर्लोभ है, उसने चरणामृत पीने वाले सरों और महाराजाओं को दुत्कार दिया। किसान जानते हैं, उनका स्वामी उनकी आवाज को दुनिया के सामने रखने में गजब की शक्ति रखता है। फिर वे स्वामी पर क्यों न विश्वास करें, क्यों न न्योछावर हों? हाँ, स्वामी में दोष भी हैं-कौन नहीं जानता कि गुस्सा में वे द्वितीय दुर्वासा हैं; लेकिन दिल कितना मधुर, कितना सरल है! बिलैया दण्डवत् वाले कभी-कभी उसे धोखे में डाल देते हैं; लेकिन महान् उद्देश्य से उसे जरा भी विचलित नहीं कर सकते। और सभी दन्ड़ौतियों को पहचानने की उसके पास एक जबर्दस्त कसौटी है। किसान और शोषित जनता के लिए जो वस्तुत: मरने-जीने वाला है; बस वही उसका अपना रहेगा। उसका पढ़ा वेदान्त और बाल की खाल निकालने वाली पुरानी पोथियाँ अब बहुत कुछ भूल-सी गयी हैं; मगर कभी-कभी वह अनजाने में धर दबाने का प्रयास करती हैं, और उस समय स्वामीजी कुछ विचलित-से दीख पड़ते हैं। लेकिन अब वह उन पोथियों के हाथ में नहीं रह गये हैं, अब वह हैं साधारण जनता के हितों के हाथ में।

प्रस्तुति-रामचन्द्र शर्मा

 

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