प्रकाशिका
-स्व. आचार्य कुबेरनाथ राय
'झूठा भय और मिथ्या अभिमान' शीर्षक पुस्तिका में स्वामीजी ने भूमिहार
ब्राह्मण समाज को पुरोहिती पेशे को ग्रहण करने की प्रेरणा दी है। भूमिहार
ब्राह्मण पुरोहिती नहीं करते क्योंकि उनके मन में कुशिक्षा और अन्धा
संस्कार के कारण एक धार्मिक 'भय' है कि जिस काम को बाप-दादों ने कभी नहीं
किया उसे करने में कोई क्षति न हो जाय, अथवा उनके मन में मिथ्या अभिमान है
कि हम तो भू-स्वामी या उच्च पदस्थ हैं, हम ऐसे पेशे को क्यों ग्रहण करें
जिसकी प्रथम शर्त ही दान लेना है और शास्त्र भी कहता है 'पुरोहिती कर्म अति
मन्दा!' स्वामीजी ने इस पुस्तिका में दोनों प्रकार की मनोवृत्तियों की
असरता को बताते हुए भूमिहार ब्राह्मण् युवावर्ग का आवाहन किया है कि वे
निर्भीक होकर पूरे स्वाभिमान के साथ पुरोहिती करें और इसकी तैयारी के रूप
में संस्कृत भाषा और संस्कृत-शास्त्र का अधययन करें! तर्क और शास्त्र
प्रमाण जो कहें परन्तु शेष जनसामान्य के मन में यह समीकरण दृढ़तापूर्वक बैठ
गया है कि ब्राह्मण वही है जो पूजा-पाठ करे और पुरोहिती करावे। अत:
आवश्यकता है अपने को भी उसी जनविश्वास के अनुकूल बनाने की। 'झूठा भय और
मिथ्या अभिमान' की संक्षेप में यही 'थीम' है। इसी बात को स्वामीजी ने अपने
भाषण में जो 'महासभा केर् कर्तव्य' शीर्षक से छपा है, पुन: दोहराया है :
''कोई समय था, जब पुरोहिती न करने में गर्व था-इसे न करने की महत्ता हिन्दू
समाज सामान्यत: और ब्राह्मण मात्र विशेषत: समझते थे। साथ ही, पुरोहिती को
निन्दित समझ त्याग करने वाले नौकरी, सूदखोरी, जालसाजी, चापलूसी, वकालत,
मुखतारी, मुकदमे की पैरवी आदि घृणित उपायों द्वारा धन-संग्रह का नाम भी
लेना महापाप समझते थे। इसके साथ ही उन्हें वेदशास्त्र पढ़ाने और पढ़ने एवं
शिल, उछ, कृषि आदि का गर्व था। एकबात और भी थी। वह यह कि पुरोहिती
ब्राह्मणता के गले में बाँधाकर लटकायी नहीं गयी थी। यह नहीं था कि जो
पुरोहिती न करे वह ब्राह्मण ही नहीं। मगर आज यह सब बातें उलटी हैं। आज
ब्राह्मणों का जो समाज पुरोहिती से शून्य हो वह ब्राह्मण माना ही नहीं जा
सकता। ब्राह्मणता का एकमात्र चिद्द यही रह गया है। चाहे कोई ब्राह्मण ऐसा न
भी करता हो, परन्तु यदि समय पर ऐसा न कर ले या करने को तैयार न हो जाय तो
वह ब्राह्मणता से अलग कर दिया जायेगा। यही हिन्दू-समाज की आज धारणा है और
आप में शक्ति नहीं कि इसे बदल सकें-कम से कम तब तक जब तक कि आप स्वयं
पुरोहिती न कर लें। साथ ही, पूर्व सैकड़ों पतित और घृणित उपायों से जब आप
धनार्जन करने में जरा भी नहीं हिचकते जो ब्राह्मणों के लिए कभी भी उचित
नहीं है, तो फिर आपको यह कहने का मुख नहीं हो सकता कि हम पुरोहिती नहीं कर
सकते, वह नीच कर्म है। क्योंकि पुरोहिती तो अन्ततोगत्वा ब्राह्मण का ही
धर्म है, फिर वह चाहे आपत्तिकाल के ही लिए क्यों न हो ओर इससे बढ़कर
आपत्तिकाल और क्या हो सकता है? यहाँ आपकी जाति की रक्षा ही इसी से हो
सकेगी। आपको शास्त्र के पढ़ने-पढ़ाने का गर्व भी अब कहाँ है? वह भी तो इसी
पुरोहिती के साथ चला गया। यदि आप फिर उस अभिमान को लाना चाहते हैं, तो अपने
समाज में पुरोहिती को स्थान दीजिए।''
स जातो येन जातेन
याति वंश: समुन्नतिम्।
परिवख्रतनि संसारे
मृत: को वा न जायते॥
(शीर्ष पर वापस)
पूर्व वक्तव्य
आज तक पश्चिम, भूमिहार, जमींदार, त्यागी, महियाल आदि नामधारी ब्राह्मणों के
सम्बन्ध में जितने आक्षेप-कटाक्ष हुए हैं उनका सारांश यही है कि इन लोगों
में ब्राह्मणों के यजन यजनादि, अर्थात् पुरोहिती का नितान्त अभाव है।
यद्यपि यह कथन सर्वांश में सत्य नहीं है, कारण, गजरौला-बिजनौर वगैरह
स्थानों के त्यागी और हजारीबाग के इटखोरी और चौपारन थानों के भूमिहार
वंशपरम्परा से पुरोहिती पेशा वाले हैं और गया के देवों का सूर्यमन्दिर भी
भूमिहार-सोनभदरियों के ही हाथ बराबर रहा है और वही उसके पुजारी रहे हैं।
प्रयाग-त्रिवेणी के पण्डे भी भूमिहार या जमींदार ही हैं और तिरहुत के
मुजफ्फरपुर, दरभंगा आदि जिलों में जैथरिया, दोनवार, दिघवैत आदि मूल के
भूमिहार या पश्चिमा लोग ही महापत्रा का काम करते हैं। फिर भी, भूमिहार,
त्यागी, जमींदार या पश्चिमा लोग उसे अच्छा नहीं समझते रहे हैं और उनका यह
बराबर यत्न रहा है कि पुरोहिती का नाम भी समाज में रह जाय, जिसका भयंकर
दुष्परिणाम आज ऑंखों के सामने है। प्रस्तुत पुस्तिका में यही दिखलाया गया
है कि भूमिहारों या त्यागियों वगैरह की यह धारणा नितान्त भ्रान्त है। इसलिए
अपने समाज में पुरोहिती को निर्मूल करने की उनकी प्रवृत्ति सर्वथा और
सर्वदा हानिकर अतएव हेय है। फलत: इस प्रवृत्ति का जितनी जल्दी अन्त हो के
समाज समष्टि रूप से यजन-याजनादि षट् कर्मों को अपनावे उतना ही श्रेयस्कर
है। इसी से समाज की लुप्तप्राय प्रतिष्ठा की पुन: प्राप्ति एवं अन्यान्य
ब्राह्मण समाजों की समकक्षता में गणना हो सकेगी।
-स्वामी सहजानन्द सरस्वती
(शीर्ष पर वापस)
झूठा भय और मिथ्या अभिमान
कालचक्र ने पलटा खाया है। इसीलिए इस समय भूमिहार, पश्चिमा आदि ब्राह्मण
समाज में, जिसे पुरोहिती छोड़ने का झूठा या सच्चा गर्व था, उसी पुरोहिती के
प्रचार की विशेष चर्चा हो रही है। केवल चर्चा ही नहीं; किन्तु कम से कम
सैकड़ों स्थानों में ये लोग पुरोहिती करने लग गये हैं और पुराने पुरोहितों
को निकाल बाहर किया है और कर रहे हैं। सैकड़ों कर्मकाण्डी तैयार हो गये और
हजारों
हो रहे हैं। फिर भी यह संख्या इतने बड़े समाज के लिए पर्याप्त नहीं है। जब
तक 10-20 हजार अच्छे-अच्छे कर्मकाण्ड के ज्ञाता ओर कर्ता पुरोहित इस
समाज-भर में न हो जावें तब तक काम नहीं चलने का। मगर इस काम में अभी अड़चन
पड़ रही है और वह यों है कि सैकड़ों बरस का अभ्यास, भ्रान्त धारणा कि हमें
पुरोहिती करना न चाहिए, मूर्खता, स्वरूप-विस्मृति और सबके ऊपर बबुआई का
झूठा-सच्चा गर्व, इन्हीं के कारण लोग इस काम में आगे आने से हिचकते हैं। कई
पुश्त
की रूढ़ि के विपरीत चलना इस समय भारत के लिए, और विशेषत: अवनति-गर्त-पतित
ब्राह्मण समाज के लिए आसान काम नहीं है। यह तो एक प्रकार से नक्कू
बनने का साहस है। मगर कालगति ऐसी है कि अब रुकने का नहीं। फिर भी
लोगों को जो इस विषय में झूठा भय और मिथ्या अभिमान हो रहा है उसे दूर
कर देना उचित है।
यह कहना कि पुरोहिती करना उचित नहीं है, क्योंकि इससे हमारी अयाचकता जाती
रहेगी, वास्तविक स्थिति के अज्ञान का सूचक है। ब्राह्मणों की याचकता या
अयाचकता कोई सामूहिक या सामुदायिक धर्म नहीं है। ब्राह्मणों में कोई दल ऐसा
नहीं हो सकता जो सर्वात्मना पुरोहिती से अलग हो, जिसमें पुरोहिती की गन्ध
भी न हो। ऐसा होने से उस ब्राह्मण समाज और क्षत्रिय आदि में देखने के लिए
क्या अन्तर होगा? शास्त्र कौन देखने जाता है? सर्व साधारण तो पोथीपत्रा
पढ़ते नहीं कि उससे किसी बात का निश्चय करें और न उनके लिए यह सम्भव ही है।
वह तो सिर्फ बाहरी व्यवहार-आचार को देखते और पढ़ते हैं और उसी से ही फैसला
किया करते हैं। यही कारण है कि 25-30 वर्ष से महासभा करते ही रह गये परन्तु
अभी तक जनता इस समाज को साफ तौर से ब्राह्मण कहने और मानने को तैयार नहीं
है। यह कोई छिपी बात नहीं है। यह तो अप्रिय सत्य है। क्या इतने पर भी ऑंखें
नहीं खुलतीं? वह अयाचकता का मिथ्या अभिमान किस कौड़ी का जिसके करते
वर्णसंकर, पतित, नीच, क्षत्रिय, बनिया और शूद्र बनने तक की नौबत आ पहुँची
थी? जिस अयाचकता के जाने का झूठा भय इस तरह बेकार कर देता है क्या वह जाति
और धार्म से प्यारी है? तो क्या उसके करते अभी तक जाति बनी ही है? क्या
ब्राह्मणों के जितने भी सर्यूपारी, कनौजिया, गौड़ आदि दल हैं उनमें से किसी
को इस अयाचकता या पुरोहिती त्याग का अभिमान है? तो क्या वह ब्राह्मण ही
नहीं? या आप लोगों से किसी भी बात में नीचे हैं? कनौजिया तो हर बातों में
बढ़े-चढ़े हैं। तो फिर अकेले आप लोगों का ही यह 'मुरारेस्तृतीय: पन्थ:'
क्यों? इस तरह तो आप अपनी ही मिट्टी पलीद कर रहे हैं। पुरोहिती का करना, न
करना व्यक्तिगत धर्म है। समाज का कोई व्यक्ति चाहे तो उसे करे और दूसरा न
चाहे तो न करे। आज करे और कल छोड़ दे, परसों फिर भी करे। इसके लिए कोई नियम
तो
हो ही नहीं सकता। ब्राह्मणों के किसी भी समाज को यह अधिकार नहीं है कि
वह अपने समाज में किसी भी पुरोहिती करने वाले को 'स्थान नहीं है'-No
admission कह सके। ब्राह्मण तो सदा से ही स्वावलम्बी और स्वाधीन होते आये
हैं। उन्हें
औरों के बल और विद्या का कभी भी भरोसा नहीं रहा है। ब्राह्मणों के लिए तो
मनुजी कहते हैं कि क्षत्रियादि के बल की अपेक्षा अपनी सामर्थ्य ठीक
है-'स्ववीर्याद्राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तारम्' (11/32)। फिर भी होम और
संस्कार या यज्ञ-यागादि के
लिए कभी मैथिल, कभी सर्यूपारी, कभी गौड़ और कभी कनौजिया पुरोहित सामने दीनता
और साष्टांग प्रणिपात करनेवाले ब्राह्मणों के किसी भी समाज को चिल्लू-भर
पानी में डूब मरने के लिए भी जगह नहीं है। इस प्रकार मँगनी, उधार, भाड़े
के, अथवा खरीदे हुए धर्म के ठेकेदारों से ब्राह्मणों का धर्म कैसे निभ सकता
है? क्या केवल पम्प या नली की बाहरी हवा से शरीर रह सकता है, जबकि भीतर
स्वयमेव वह शक्ति न हो, प्राणवायु न हो? क्या आजकल कोई भी ब्राह्मण
समाज ऐसा करता है कि दूसरे समाज के आचार्य या पुरोहितों पर ही निर्भर रहे?
वही खा-पीकर उसे और उसके पूर्वजों को तारें, नहीं तो नरक में ही सड़ना
होगा? फिर या तो ब्राह्मण कहना छोड़ना होगा, या अन्यान्य ब्राह्मण दलों की
जो परिपाटी है, अपने ही दल के आचार्य, गुरु, पुरोहित रखना, वही करना होगा,
दूसरा कोई उपाय ही नहीं है। ब्राह्मणों में इस समय जितने राजे, महाराजे या
बाबुआन हैं, उनमें सब नहीं तो अधिकांश के इतिहास से पता चलता है कि
उनके पूर्वजों ने इसी पुरोहिती, बल्कि प्रतिग्रह के बल से ही यह राज्य और
ठाटबाट सम्पादन किया है। फिर वंशपरम्परागत अयाचकता की दुहाई कैसी? यदि
व्यास, वसिष्ठ और पराशर आदि के ही वंश में अपने आपको मानते हैं और
उन्होंने न तो पुरोहिती छोड़ी ही थी और न ऐसा आदेश ही दिया था कि कोई
भी उसे न करे, तो फिर उन्हीं के वंशधारों का यह मिथ्या गर्व नहीं तो और
क्या है? बाप-दादों ने नहीं किया है, इसलिए हम भी न करेंगे, इस कथन का अर्थ
क्या है? क्या बाप-दादों के भीतर व्यास, वसिष्ठ आदि नहीं आते, किन्तु सिर्फ
दो ही चार पुश्त के लोग?
यदि कहा जाय कि वसिष्ठ ने तो अवश्यमेव पुरोहिती की शिकायत की
है, 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा'-'पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्'
(अधया. 2/2/28), तो फिर उन्होंने स्वयं क्यों दशरथ के वंश की-रघुवंश
की-पुरोहिती स्वीकार की? यदि उन्हें रामचन्द्र के गुरु होने का लोभ था तो
क्या आपको जाति की रक्षा नहीं करनी है? तो क्या पुरोहिती के बिना जाति को
बचा सके या बचा सकते हैं? क्या समाज के लोगों को यह नहीं मालूम कि थोड़े
दिनों में ही कम से कम सैकड़ों जगह पुरोहितों ने सिर्फ इसलिए क्रियाकर्म
करना छोड़ दिया या
छोड़ देने की धमकी दी है कि आप लोग यदि ब्राह्मण हैं तो जाइये पिण्ड-पानी
लीजिये? मैं तो ऐसे कितने स्थान जानता हूँ जहाँ सिर्फ ब्राह्मण कहने के
महान् अपराध के कारण ही द्वादशाह का पिण्डदान कराना उन्होंने ऐन मौके पर
छोड़ दिया!! मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि पुरोहित समाज को आज
मालूम हो जाय कि आपके समाज भर में कोई भी पिण्ड-पानी कराने योग्य है
ही नहीं तो कल ही आपके बड़े-बड़े लोगों को यह साफ धमकी दे देंगे कि ''खबरदार,
यदि आप लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहा तो ठीक नहीं, आपकी कर्म-क्रिया
ऐसी ही पड़ी रह जायेगी।'' क्या आप लोग कलेजे पर हाथ देकर कह सकते हैं
कि आप लोगों की ब्राह्मणत पुरोहित समाज को तीर की तरह चुभ नहीं रही
है? स्मरण् रहे, इसके लिए उसी समाज से आपकी प्रधान लड़ाई है। और जिससे लड़ना
हो उसी के हाथ की सामग्री पर निर्भर रहकर लड़ाई या उसमें विजय
की आशा केवल मनमोदक है। एतदर्थ तो उस समाज से निरपेक्ष होना ही होगा। दूसरा
चारा ही नहीं।
यह भी तो विचारना चाहिए कि वसिष्ठ आदि ने जो पुरोहती की निन्दा की उसका नाम
लेना आप लोगों के लिए शोभा देता है या नहीं। यदि उन्होंने उसकी शिकायत की
तो उनका जीवन बड़ा उच्च था। वह दीनता, गुलामी, सूदखोरी, चोरी, झूठ-सच,
धोखेबाजी से और भी दूर रहते थे। नौकरी से अर्थ-सम्पादन में उन्हें घोर घृणा
थी। उन्होंने कहा था कि नौकरी श्वानवृत्ति है, उसे किसी भी दशा में
ब्राह्मण कर ही नहीं सकता। 'सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्ता परिवर्जयेत्'
(मनु. 4/6)। वकालत, मुख्तारी और पुलिस की घूसखोरी को वे पतित काम समझते थे।
वे किसी की नौकरी लगने पर उससे यह प्रश्न नहीं करते थे कि वेतन के सिवाय
ऊपर की आमदनी भी कुछ है या नहीं? इजलास पर जाकर जर-जमीन के लिए गंगा-तुलसी
उठाना घोर पाप समझते थे। ओर हम लोग? हमने तो इन सबों को सहर्ष
पावन-शिरोधार्य कर लिया है! इन बातों में व्यास-वसिष्ठ का नाम भी लेना
अपनार् कर्तव्य नहीं समझते-उनका उदाहरण पेश करना नहीं चाहते। मगर, पुरोहिती
के बारे में? उसके लिए तो दिन-रात उनके वाक्य हमारी जबान पर ही हैं! इसे ही
कहते हैं, 'मीठा-मीठा गप्प और कड़वा-कड़वा थू।' इसे ही कहते हैं,
'उत्तरदायित्व-ज्ञान शून्यता।' मगर इससे भला न होगा। किसी भी प्रकार विचारा
जाय, तो यही मानना होगा कि व्यास-वसिष्ठ की कसौटी बहुत ही ऊँचे दर्जे की
है। वह हमारे लिए आदर्श भले ही हो, पर व्यवहार में कम से कम इस समय उस
कसौटी पर जाँच नहीं की जा सकती।
जो यह भय दिखलाता है कि पुरोहिती करने से समाज में गरीबी और
भिक्षावृत्ति बढ़ेगी, वह भी निर्मूल ही है। काशी, बेतिया, नरहन, सुरसंड,
शिवहर
आदि के राजे-महाराजे और एकसरिया, जैथरिया, दंसवार, गौतम, दोनवार वगैरह
वंशों के जितने बाबुआन हैं उनकी वर्तमान सम्पत्ति और महाराजा दरभंगा का
राज्य भी उसी पुरोहिती, दक्षिणा या प्रतिग्रह वृत्ति के फल हैं। शायद इनमें
एकाध ही
न हों तो न हों। इनके इतिहास के मूल में यही मिलेगा कि इनके पूर्वजों ने
इसी तरह भूमि प्राप्त की। इस प्रकार जब वे लोग गरीब और भिक्षुक न हुए
तो समझ में नहीं आता कि किस बुध्दि से यह कल्पना की जा सकती है कि
भविष्य में ऐसे हो जायेंगे! साधारणतया तो त्यागी, जमींदार, भूमिहार या
पश्चिमा नामधारी समाज का इतिहास ही इस बात का साक्षी है कि पुरोहिती वृत्ति
से ही
यह समाज बना है, या इसकी भूसम्पत्ति और धनवृध्दि हुई है। फिर कैसे कहें
कि जिस रास्ते से, जिस काम से इस उच्च सिंहासन पर आसीन हुए उसी से
नीचे गिर जायेंगे? यह तो समझ से बाहर की बात है। यह भी समझ में नहीं
आता है कि प्रतिवर्ष समाज का जो करोड़ों रुपया दूसरे समाज में जा रहा है और
उसके जाने का द्वार यही गुरुवाई और पुरोहिती है, यदि वह समाज में ही उसी के
द्वारा रख लिया जावे तो कैसे समाज गरीब और भिक्षुक हो जायेगा? मैं तो
सैकड़ों नहीं, हजारों दृष्टान्त ऐसे बता सकता हूँ जहाँ पर इस समाज की
पुरोहिती करने वाले दूसरे लोग धनी होकर इन्हीं की भूमि को खरीद रहे हैं और
ये लोग
गरीब हो रहे हैं! पुरोहित दल को जो आजकल बड़ा भारी भय है वह यही है कि इस
समाज की पुरोहिती और गुरुवाई तो सोने की चिड़िया है, कहीं ऐसा न हो कि हाथ
से ही निकल जाय।
यह भी तो देखना चाहिए कि मनु आदि, चाहे किसी भी दशा में सही, जब ब्राह्मण
के लिए यहर् कर्तव्य बताया है कि पुरोहिती करे, तो फिर हम नहीं कह सकते कि
अपने को ब्राह्मण कहने और मानने वाला समाज ही उससे इनकार कैसे कर सकता है।
यह भी नहीं कि उन ऋषियों का यह अभिप्राय रहा हो कि ब्राह्मण भिक्षुक ही हो
जायँ। क्योंकि वह लोग तो ब्राह्मणों की भिक्षावृत्ति के कट्टर विरोधी थे।
पराशर ने तो यहाँ तक कह डाला है कि जिस गाँव में क्रिया, कर्म और संस्कार
से रहित ब्राह्मण केवल भिक्षावृत्ति से जीविका करते हों; राजा उस गाँव को
दण्ड दे। क्योंकि वह तो चोरों का पालने वाला है : 'अव्रता ह्यनधायान यत्रा
भैक्ष्यचरा द्विजा:। तं ग्रामं दण्डयेद्राजा चौरभक्तप्रदो हि स:' (1/66)।
यही श्लोक वसिष्ठस्मृति के तीसरे अध्याय में और अत्रिस्मृति का 22वाँ है।
उन्होंने तो ऐसों को चोर ही बना डाला! फिर कैसे कहा जा सकता है कि जिस
पुरोहिती से वह भिक्षावृत्ति और गरीबी अनिवार्य है उसके ही करने की आज्ञा
वे लोग दे सकते हैं? वे इस बात का विचार तक भी कैसे कर सकते हैं? यह भी तो
सोचना चाहिए कि ब्राह्मण कहना न कहना घर की बात या लबेद नहीं है। यह तो
हमारे धर्म-ग्रन्थों और ऋषियों का बनाया मार्ग है और उसमें पुरोहिती रूप
काँटा-क्योंकि बहुतों की दृष्टि ही ऐसी है-जान-बूझकर उन्होंने रख छोड़ा है।
यदि आप उस मार्ग से जाना चाहते हैं, अपने को ब्राह्मण कहना चाहते हैं, तब
तो आपके लिए वह काँटा अनिवार्य है। आप
उससे बच ही नहीं सकते। और यदि खामखाह बचने की ही मर्जी है तो फिर उस मार्ग
को छोड़िये, अपने को ब्राह्ममण कहना बन्द कीजिये। दूसरा उपाय ही नहीं। दोनों
बातें तो साथ चल नहीं सकतीं कि ब्राह्मण भी कहें और समाज भर को उस पुरोहिती
से अलग भी रखना चाहे। यहाँ तो 'दुइ कि होंहिं एक संग भुवालू' वाली बात है।
यह भी समझ में नहीं आता कि जब तक भूमिहार, त्यागी या पश्चिमा ब्राह्मण समाज
सभी ब्राह्मण दलों की विवेक बुध्दि का ठेकेदार न हो जाय, अपने हाथ में उसका
एकाधिपत्य मानकर 'सर्वाधिकार संरक्षित' का दावा न कर ले, तब तक पुरोहिती के
सम्बन्ध में इतने गहरे पानी में उतरने का उसे अधिकार ही क्या है? पुरोहिती
के सिर इतनी बड़ी बला लादने का हक ही उसे क्या है? सभी ब्राह्मण दल, जो इस
समय सैकड़ों हैं, पुरोहिती से सम्बन्ध रखते हैं और यह भी नहीं कि उन्हें
अपनी प्रतिष्ठा और भूमि, धन, सम्पत्ति का खयाल ही न हो, या उनमें राजा,
महाराजा और जमींदार, बाबुआन ही न हों। फिर भी, आज तक किसी ने इस पुरोहिती
बेचारी को इतनी अस्पृश्य और ग्रहित मानने का विचार तक न किया! हालाँकि
उनमें सहस्रों धुरन्धर विद्वान् पड़े हैं। विपरीत इसके, उनने, उनकी सभाओं ने
और उनके राजे- महाराजे और धनिकों ने इसकी वृध्दि में ही सहायता की है और
अपने समाज को संस्कृत पढ़ाने में विशेष उद्योग किया है और करते हैं।
हालाँकि, वे ही जानते हैं कि इसके पढ़ने वाले सब नहीं तो अधिकांश पुरोहिती
या दक्षिणावृत्ति अवश्य करते हैं और करेंगे। फिर ब्राह्मण नामधारी एक समाज
की पुरोहिती को इस तरह बदनाम करना अनधिकार चेष्टा नहीं तो और क्या है? क्या
किसी भी ब्राह्मण समाज में आपकी अपेक्षा प्रतिष्ठा या धन-सम्पत्ति कम है?
और पुरोहिती भी हरेक समाज में है ही। तो क्या किसी गौड़ या मैथिल वगैरह को
गौड़ या मैथिल स्वीकार करने में गर्व के सिवाय हीनता या लज्जा भी प्रतीत
होती है? क्या महाराज दरभंगा को मैथिल और राजा फतेह सिंह को गौड़ बनने में
कोई आनाकानी है? तो क्या उनकी प्रतिष्ठा या सम्पत्ति आपसे कम हो गयी है?
प्रत्युत गौड़ या मैथिल कहने में उनका सिर और समाजों के सामने ऊँचा और आपके
भूमिहारादि का नीचा रहता है। यह स्वयं सिध्द बात है। क्या इस कलंक कालिमा
को दूर करना समाज का कर्तव्य नहीं? क्या इस रोग के निदान का विचार किया गया
है? तो क्या केवल पुरोहिती के बायकाट- बहिष्कार-(No admission) को छोड़कर और
भी कोई कारण इस सामाजिक अप्रतिष्ठा का है? क्या अब भी ऑंखें न खुलीं? तो
फिर कब खुलेंगी? संसार में धन, जन, जमींदारी या पदवी वगैरह की चाह लोगों को
सिर्फ इसीलिए होती है कि उससे संसार में प्रतिष्ठा ओर समाज के सामने मुख
उज्ज्वल रहेगा। मगर यदि इन सभी कुछ के रहते भी केवल पुरोहिती के न रहने से
ही समाज में लज्जित और बदनाम होना पड़ता है और यह मान भी लें कि पुरोहिती के
करने से जर-जमीन कुछ भी न रह जायेगी, तो भी जिनके दिलों में आत्मसम्मान है
और जो सम्मान मनुष्यमात्र का जन्मसिध्द साथी है, वे सबको लात मारकर भी उस
प्यारी पुरोहिती को क्यों न शिरोधार्य करेंगे? क्योंकि आत्मसम्मानी तो इसके
सामने मरना ही पसन्द करता है-'सम्भावितस्य चाकीतिर्मरणादतिरिच्यते' (गीता,
2/34)।
ब्राह्मणों में जो समाजपार्थक्य या दलबन्दी हुई है उसका आधार यही
सर्वात्मना स्वतन्त्रता और स्वावलम्बन ही है। हम देख रहे हैं कि आप लोगों
को छोड़कर शेष जितने ब्राह्मण समाज हैं वह हर बात में और खासकर धार्मिक
कामों में सर्वात्मना एक-दूसरे से स्वतन्त्र हैं, स्वावलम्बी हैं। इसीलिए
जब चाहें दूसरे को ललकार या दबा सकते हैं। इसीलिए किसी की भी हिम्मत नहीं
पड़ती कि उनकी ओर उँगली उठावे या उनके हक को हड़पने का यत्न भी करे। मगर आप
लोगों की क्या दशा है? कम से कम जातीय और धार्मिक मामलों में तो आप लोग
'जुलाहे की बकरी' हो रहे हैं। जो ही चाहता है दो बात सुना देता और समूचे
समाज को नीच, वर्णसंकर बना डालता है। कभी दीवानजी और मुंशीजी के भाई सिर
उठाते हैं, कभी साहूजी त्यौरी बदलते और आप विधाता बन बैठते हैं और कभी
पुरोहितों और गुरुओं की करारी डाँट आती है कि खबरदार हमारे सामने ब्राह्मण
होने का नाम भी मत लेना, नहीं तो सात पुश्तों तक नरक में ही सड़ते रह जाओगे,
सब कर्म-धर्म और पिण्ड-पानी यों ही रह जायेगा! इतने पर भी खूबी यह है कि आप
लोग अपना एक अलग ब्राह्मण दल बनाते हैं और उसे कायम रखना भी चाहते हैं। यह
कब सम्भव है? या तो धर्म-कर्म के मामलों में भी अपने को अन्यान्य ब्राह्मण
दलों की तरह स्वतन्त्रा बनाइये, नहीं तो वर्तमान गौड़ आदि ब्राह्मणदलों में
जहाँ के तहाँ मिल जाइये। और अगर यह दोनों नहीं कर सकते, तो अपने को
ब्राह्मण कहना छोड़िये। और कर ही क्या सकते हैं? चौथा रास्ता तो कोई भी हई
नहीं। यदि गौड़, मैथिल आदि में मिल जायेंगे तब तो उन्हीं के पुरोहितों से आप
का काम चल जायेगा। यद्यपि यह बात अभी तुच्छ मालूम होती है, तथापि यदि अब भी
इस बदनाम पुरोहिती के बारे में समाज की यही मनोवृत्ति रही, तो फिर यह
छिन्न-भिन्नता अनिवार्य है और लोग अब इस पर विचार करने भी लग गये हैं। जो
हो, अभी भी अवसर हाथ से चूका नहीं है। बुध्दि से काम लेने से सब ठीक हो
सकता है।
हम खूब जानते हैं कि इस काम में सबसे बड़े बाधक बड़े-बड़े राजे-महाराजे और
बाबू लोग हैं। उन्हें क्या है? उनके सामने तो बड़े-बड़े साहूजी, दीवानजी, और
पण्डितजी दूर से ही झुकते और हाथ जोड़ते हैं। साथ-साथ, थोड़ी सी बड़ाई भी कर
देते हैं और यदि ऐसा ही मौका आ गया तो कभी-कभी ऊपरी दिल से 'आप तो ब्राह्मण
ही हैं' भी कह देते हैं। बस वे लोग तो इतने से ही फूल कर कुप्पा हो जाते
हैं और इतने से ही पण्डितजी वगैरह का तो काम ही बन जाता है। वह बाबू साहब
तो समझते हैं कि ऐसी दशा सर्वत्रा है और पण्डितजी लोग या इनके भाई-बन्धु
समाज-भर में सर्वत्र ऐसा ही करते होंगे। क्योंकि जिसके पाँव में जूता होता
है उसके लिए तो सारी भूमि पर चमड़े बिछे हैं। मगर इधर तो गरीबों या मध्यम
श्रेणी के ऊपर जो बीतती है सो वहीजानते हैं। पत्रों, पुस्तकों, सभाओं में
और जनसाधारण के सामने उनकी जो दुर्दशा और अवमानना की जाती है उसे उनका
छिन्न-भिन्न और विदीर्ण दिल ही जानता है। ऐसी विषमता के रहते हुए यदि बाबू,
राजे पुरोहिती को न चाहें
और समाज के शेष लोग चाहें, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि उस आदमी
को छाया के सुख का क्या अनुभव होगा और उसे दिल से क्यों चाहेगा जिसने कड़ी
धूप की ज्वाला का सामना नहीं किया है? गरीब लोग क्या दूसरों की बबुआई और
राज्य को लेकर चाटेंगे, जब उनकी जातीय दुर्दशा होती ही रहेगी, उनके लिए
'वही कद्दू की तरकारी जो पहले थी सो अब भी है' ही सदा चरितार्थ होने
को है और उनके साथ पुरोहितों और गुरुओं की 'वही रफ्तार बेढंगी जो पहले
थी सो अब भी है।' वे बेचारे तो दुविधा में दोनों ओर से गये, न तो माया ही
मिली और न राम ही मिले-न तो बबुआई के आनन्द की झलक ही मिली
और न जाति या समाज में प्रतिष्ठा ही।
यह कहना तो कि पुरोहिती खराब है, इसलिए उसे नहीं करते, केवल आत्मप्रवंचना
मात्र दुनिया को उल्लू समझना है। इतने ही से संसार यह न समझ लेगा और न समझ
ही रहा है कि वास्तव में आप पुरोहिती को नीच समझ कर ही नहीं करते इसलिए आप
उच्च कोटि के ब्राह्मण हैं। वह तो आपके उसी व्यवहार से आपको नीच समझता हुआ
इस कथन को ढोंग मानता है, जिस व्यवहार के करने से आपकी आत्मप्रवंचना-Self
deception-सिध्द होती है। यदि आप और आपका समाज वस्तुत: पुरोहिती को हीन
समझते हैं तो उसके करने वालों को राह चलते क्यों साष्टांग करते फिरते और
सिर पर उनके चरण-रज चढ़ाकर पवित्र होते हैं? क्या इसमें कोई दूसरा रहस्य है?
क्या यही बात नहीं है कि 'हाथी का दाँत दिखलाने का और होता है और खाने का
और' यदि सचमुच आप उसे नीच कर्म समझते हैं तो उसको प्रणाम करें, न कि उलटा
आप ही उनके पाँव पर सिर रगड़ते फिरें! यह दोनों बातें तो एक साथ असम्भव हैं।
इससे तो यह प्रतीत होता है कि आप जो कुछ एक कहते हैं, माने बैठे हैं, ठीक
उसका उलटा। यह आत्मप्रवंचना नहीं तो और क्या है? इससे काम नहीं चलने का।
सत्य को स्वीकार करने की हिम्मत होनी चाहिए। सिर्फ इस झूठे भय और मिथ्या
अभिमान से-'अपने मुँह मियाँ मिट्ठू' बनने से काम न चलेगा।
इस बात का भी विचार करना चाहिए कि जो इस समाज में आधे पुरुष बिना ब्याहे रह
जाते हैं और यह संख्या क्रमश: उन्नति ही करती जाती है, इसका कारण क्या है।
निस्सन्देह यदि अविवाहितों की संख्या-वृध्दि का यही स्रोत रहा और वह किसी
प्रकार बन्द न किया गया तो अतिनिकट भविष्य में समाज का उच्छेद अनिवार्य है।
जिन स्थानों में संख्यावली का कार्य हो रहा है वहाँ के कार्यकर्ता ही मेरे
इस कथन की पुष्टि अपने अनुभव से करेंगे। मैं तो यह बात सभी प्रान्तों के
ग्रामों में भ्रमण कर अनुभव प्राप्त करने के कारण कह रहा हूँ। निस्सन्देह
बिहार के पूर्वीय जिलों में, युक्त प्रान्त या बिहार के ही पश्चिमी जिलों
की अपेक्षा यह अविवाह रोग कम भीषण है। मगर अन्यत्र इसकी भीषणता विचार मात्र
से ही आतंक उत्पन्न करनेवाली है। निस्सन्देह इस विनाशोन्मुख प्रवाह में
वैवाहिक कुरीतियाँ भी कारण हैं और उनमें भी तिलक, दहेज की प्रथा उतना नहीं
जितना कि असमान विवाह प्रथा। मगर यदि केवल यही कारण होता तो पुरोहिती
प्रधान समाज में भी उन ब्राह्मणों में भी जिनमें अभी पुरोहिती मौजूद है-यह
दशा उतनी ही भीषण होती। मगर बात यह नहीं है। पुरोहितों में शायद ही कोई
मिलेगा जिसका विवाह न हुआ हो। उसकी जमींदारी और रुपये के लेन-देन का
कारोबार कोई भी देखने नहीं जाता। खाने-पीने भर की सामर्थ्य रहने से ही
विवाह हो जाता है। पर, आपके समाज में राजपूतों या बनिये की तरह रुपये का
लेन-देन और भारी जमींदारी देखकर ही विवाह किया जाता है! जिसके खानदान में
दो ही चार आदमी हैं और 15-20 बीघा जमींदारी या शरहमुअय्यन काश्तकारी है
उसकी भी शादी नहीं हो रही है, जैसे राजपूतों की नहीं होती। सारांश,
ब्राह्मणता का भाव चले जाने और राजपूती एवं बनिये का भाव आ जाने से ही
अविवाहितों की संख्यावृध्दि विशेष रूप से हो रही है और पुरोहितों में इसके
विपरीत भाव रहने से यह बात नहीं है। उनमें भी जो आपकी ही तरह राजपूती या
बनियेपन के भाव के हैं और पुरोहिती नहीं करते और न संस्कृत ही पढ़ते या
ब्राह्मणों का आचार ही रखते, किन्तु धान या जमींदारी की झूठी गर्मी से फूले
हैं, उनकी दशा आप सरीखी ही है! क्या आप लोगों ने इस पर कभी विचार किया है?
यदि किया है तो क्या मेरी बातें वहाँ नजर आई हैं? यदि न भी आई हों तो
पुनरपि विचार कर देखिये और पता चलेगा कि मेरा कथन अक्षरश: ठीक है। तो फिर
इस भीषण महामारी को समाज से दूर करने का उपाय क्या है? बेशक समान विवाह
प्रथा कुछ अंश में इसे दूर कर सकती है। पर उसको जारी करने के लिए समाज में
जीवन और जीवित संगठन लाने की जरूरत होगी। यह आसान बात नहीं है। आपकी सभा
में अभी तक कोई बल ही नहीं कि समाज में समान विवाह प्रथा ला दे, जबकि तिलक,
दहेज को सिर्फ रोक देना असम्भव हो रहा है। इसके सिवाय वर विक्रय की ही तरह
यदि कन्या विक्रय की प्रथा मैथिलों की तरह सर्वत्र आपके समाज में जारी कर
दी जाय तो शायद वह भी कुछ अंश में कुछ समय तक काम करे और तिरहुत की ही तरह
अन्यत्र भी अविवाहितों की कुछ कमी हो जाय। पर एक तो यह स्थायी औषधि नहीं हो
सकती; क्योंकि 'बुराई से बुराई को दूर करने' का सिध्दान्त ठीक नहीं। तीसरी
और सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि धर्मशास्त्रों द्वारा सहस्रश: निन्दित इस
दुष्कर्म के प्रचार का नाम कौन ले सकता है? इसलिए हारकर यही मानना होगा कि
समाज में से राजपूती भाव और बनियेपन की प्रधानता हटाकर ब्राह्मण भाव एवं
आचरण की प्रधानता की स्थापना हो। मगर यह बात संस्कृत पठन और धर्मग्रन्थों
के यथार्थ ज्ञान के बिना हो सकती नहीं और पुरोहिती के प्रचार बिना-क्योंकि
पुरोहिती और गुरुवाई लौकिक मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और अर्थार्जन का साधन
हैं-यह दोनों बातें असम्भव हैं। केवल ज्ञान और मुक्ति के लिए संस्कृत पढ़ने
की फुर्सत किसे है? सबसे बड़ी बात यह है कि जब तक ब्राह्मण और जगत्-पूज्य
होने का अभिमान समाज में न आवेगा तब तक संस्कृत, ब्रह्मज्ञान और ब्राह्मणों
के आचार के पीछे माथापच्ची कौन करेगा? और वह अभिमान इस समय सिवाय पुरोहिती
के अन्य उपायों से आ ही नहीं सकता। पुरोहितों के 5 वर्ष के बच्चे बेखटके
अपने को ब्राह्मण मानते, आपके 60 वर्ष के बूढ़ों को आशीर्वाद देते और जगत्
के सामने अपना पाँव 'पखारने' के लिए फैला देते हैं। मगर आपके 60 और 80 वर्ष
के बूढ़े भी ऐसा नहीं कर सकते! उनमें यह हिम्मत ही नहीं होती! इसके नाम पर
ही गोया उन्हें मिर्गी आ जाती है! यह क्यों होता है? क्या आप लोगों ने इस
पर ध्यान दिया है? क्या इससे यह सिध्द नहीं होता कि इस गये-गुजरे जमाने में
ब्राह्मणता और पूज्यता का स्वाभिमान दिलाने वाली एकमात्र पुरोहिती ही है और
उसी के बिना आपका समाज सुप्त या मृत सिंहवत् पड़ा है, जिसके ऊपर आज गीदड़
अपने पाँव की रौंद लगाकर किलकारें करते हैं? तो क्या आपका या महासभा का यह
पवित्रतम कर्तव्य नहीं है कि पुरोहिती के मन्त्र का शंख फूँक उसे जगावें,
या इसी अमृत-बिन्दु से उसे जीवित कर इस घोर अपमान का प्रतिकार करें?
जो बाप-दादों की दुहाई देकर रूढ़ि के उपासक बनने में सभी अपमान को मृतक की
तरह बर्दाश्त करने और विचार को ताक पर रख देने को तैयार हैं और जिनके
बाप-दादों की सीमा भी दो-चार या छह पुश्तों तक है, जो व्यास, वसिष्ठ, मनु
या पराशर तक अपने बाप-दादों की परम्परा ले जाना नहीं चाहते या ले जाने में
असमर्थ हैं, क्योंकि रूढ़ि की उपासना की लगन ने विचार शक्ति का दीवाला निकाल
दिया है, उनसे भी हमें दो-एक बातें कहनी हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि
आखिर उनकी बाप-दादा वाली इस अनन्य भक्ति का कारण क्या है? क्या वे लोग कोई
ऐसा वसीयतनामा लिख गये हैं कि हमने जो किया है तुम लोग उसे बिना सोच-विचार
के करना? और उस वसीयतनामे को मानना क्या लोगों का कर्तव्य हो गया है? मैं
तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि यह बात नहीं है न तो ऐसा वसीयतनामा ही है और
न उसकी मानना लोग अपना धार्म ही समझते हैं। इसका पता तो तब लगता है जब हम
देखते हैं कि बाप-दादों द्वारा किये गये कमालों की मंसूखी उनके बेटे-पोते
धाड़ाधड़ करते हैं और बाप-दादों को नालायक पागल और बदचलन तक बना डालते हैं!
इसके विपरीत यदि किसी सत्कार्य के लिए कुछ जायदाद की वसीयत बाप-दादे कर गये
हैं तो उसके मानने में कमर टूटती है और सैकड़ों बहाने निकाले जाते हैं। पर,
यहाँ अपनी पतिता और नीचता की-कमजोरी को छिपाने के लिए उन्हीं बाप-दादों के
कामों की ओट ढूँढ़ी जाती है! यह सब क्यों होता है? इसीलिए न, कि हमारी
दृष्टि में एक इंच भूमि और एक कौड़ी की भी कीमत है? अतएव उसको बचाने के लिए
बाप-दादों क्या परमेश्वर तक को भूल जाते हैं। मगर जाति, धर्म और स्वाभिमान
तो हमारे लिए कौड़ी का भी नहीं है!!
ऐसे महापुरुषों से हम पूछना चाहते हैं कि आज से 40, 50 या 100 वर्ष पूर्व
आपके ही बाप-दादे आवश्यकता पड़ने पर हजारों रुपये बिना दस्तावेज, रेहन या
हैंडनोट के ही लोगों को देते थे। तो क्या आप भी अब ऐसा ही करेंगे? यदि नहीं
तो क्यों? इसीलिए न, कि तब और अबके समय में फर्क हो गया है? तब लोग सच्ची
बातों को मानते, पाप से डरते और बेईमानी नहीं करते थे। कोई भी किसी का
रुपया, धर्म या इज्जत डकार जाने की हिम्मत नहीं कर सकता था। मगर अब सभी ऐसा
करते हैं। अब सच्चों का गुजारा नहीं है। फूँक-फँक कर पाँव डालना पड़ता है।
तो फिर यही नियम जाति और धर्म के बारे में भी क्यों नहीं लगा लेते? जैसे
समय देखकर रुपये-पैसे के बारे में लोगों ने बाप-दादों का नियम और व्यवहार
बदल दिया है, ठीक वैसे ही प्रणाम, नमस्कार या पुरोहिती आदि के बारे में भी
क्यों न अब किया जाय? देख ही तो रहे हैं इधर 25-30 वर्षों के ही भीतर आपकी
जाति और धर्म को सीधे डकार जाने के लिए कितने ही षडयन्त्र रचे गये हैं,
बीसियों पुस्तकें और लेख लिखे गये हैं, जब कि पहले एक का भी नाम न था। अब
आपकी सच्चाई और सिधाई का उलटा अर्थ लगाया जा रहा है। इसी से सजग हो जाना
चाहिए। फूँक-फँक कर पाँव देना चाहिए।
सौ बातों की एक बात तो यह है कि न तो बाप-दादे सब बातों में अच्छे ही थे और
न बुरे ही। इसलिए जो काम उन्होंने बुध्दिमानी के किये उनके लिए वे अच्छे और
चतुर कहे जायेंगे और हमें भी उसका गर्व होगा। मगर जो काम उनसे गलती से हो
गये उनके लिए वे अवश्य बुरे या मूर्ख हैं, चाहे हम उनका जिक्र भले ही न
करें। इसीलिए हमें उन कामों का गर्व हो ही नहीं सकता, चाहे कोई लाख कहे। यह
तो कोई बुध्दिमानी नहीं कि जिसके वंश में कई पुश्तों से चोरी या शराबखोरी
चली आती हो वह सिर्फ यह कहकर उसके विरुध्द उपदेश को न माने कि हमारे
बाप-दादों ने ऐसा किया था, हम कैसे छोड़ें? या बाप-दादों की उस काली करतूत
का उसे गर्व हो। यदि हम लोगों के पूर्वजों के रहते ही भारत का राज्य दूसरों
के हाथ गया और चरखे का नाश होकर यह पराधीनता और कपड़े की महँगी रूपिणी चण्डी
भारत में नंगी नाच रही है तो इन बातों के लिए किसे गर्व होगा, या कौन अपने
पूर्वजों की दुहाई देकर चरखे और स्वराज्य प्राप्ति का उपदेश न सुनेगा? यह
तो कोई कह ही नहीं सकता कि हमारे बाप-दादे सारी बुध्दिमानी और सच्चाई के
ठेकेदार थे, इसी से गलती तो कभी कर ही नहीं सकते थे। जब व्यास, वसिष्ठ,
विश्वामित्र, पराशर और सौभरि आदि, यहाँ तक कि ब्रह्मा और शिव आदि भी
गलतियों से न बच सके। हाँ, यह दूसरी बात है कि अपनी सामर्थ्य और तपोबल से
उसका पाप उन्हें न लगा। तो फिर हमारी या बाप-दादों की क्या गिनती है? यह भी
तो नहीं कि व्यास-वसिष्ठादि ने जो मार्ग बताया या बनाया था उसकी सीमा और
रक्षाबन्दी किसी ऐसे पदार्थ से कर दी हो कि कभी भी उसमें बुराई आ ही न सके।
यदि ऐसा हो तो फिर यह संसार ही न कहावे और न समय-समय पर ऋषि-मुनियों या
अवतारों की आवश्यकता ही रह जाय। तो फिर क्या अब हमारा कर्तव्य नहीं हो जाता
कि जब-जब हम व्यास-वसिष्ठादि के मार्गों की तरफ चलें तब-तब यह सोच लें कि
इसमें कोई काँटे, कीड़े, साँप या रोड़े तो नहीं आ गये हैं, या बीच में कोई
उपद्रव तो नहीं हो गया है? और फिर उस काँटे, कीड़े, रोड़े या उपद्रव को छोड़कर
ही हमें चलना चाहिए। हमें बाप-दादों या व्यास-वसिष्ठ की बुध्दि से नहीं
चलना है और न उनके कामों का फल हमें मिलना है। हम तो अपने काम के जिम्मेदार
हैं और उसका फल हमें भोगना ही होगा। ऐसी दशा में किसी की दोहाई देने का
क्या काम? हमें तो अपने ही विचार से काम करना होगा; क्योंकि उसका फल हमें
भोगना है, न कि बाप-दादों को। जंगल से जो गाँव का रास्ता है उस पर हम
इसीलिए ऑंखें मूँद कर न चलेंगे कि हमारे बाप-दादे बराबर इस रास्ते से गये
हैं। बल्कि उनके लाख जाने पर भी हम अपनी ऑंखें खोलकर रास्ता देखते चलेंगे।
नहीं तो ठोकर खाकर गढ़े में पड़ेंगे और मरेंगे। फिर हमारी समझ में नहीं आता
कि कर्तव्य निर्धारण में सब अक्ल, विचार और तर्क को ताक पर रख सिर्फ
बाप-दादों की दुहाई का क्या मतलब है। जब नये अवतार, धर्माचार्य या ऋषि-मुनि
आकर सुधार या चलते धर्म में कुछ परिवर्तन करना चाहते हैं तो क्या केवल यही
कहकर उनकी बातों पर विचार ही न किया जाय कि हमारे बाप-दादे क्यों ऐसा करते
थे? तब तो अवतारों और सुधारकों को खासा उल्लू बनना होगा और वे निरर्थक
सिध्द होंगे। बाप-दादों को धर्म के साक्षात् अवतार मान लेने की यह अनधिकार
चेष्टा अच्छी नहीं। उनके मार्ग से जरा भी हटने का नाम लेते ही काँप उठना या
उनके कामों की डींगें मारना केवल झूठे भय और मिथ्या अभिमान का फल है।
'हमारे पूर्वजों ने संकल्पपूर्वक पुरोहिती का त्याग किया है। उन्होंने
प्रतिज्ञा की है कि हम या हमारे वंशज भविष्य में
कभी पुरोहिती न करेंगे, अत: पुरोहिती करने पर हमें प्रतिज्ञाभंग का दोषभागी
होना पड़ेगा' यह कथन सोलहों आना निर्मूल एवं कपोलकल्पित है। बाप-दादों को न
तो ऐसा करने का अधिकार ही था और न वे इतने उल्लू ही थे कि हमारी ओर से भी
किसी अशास्त्रीय और धर्मविरुध्द बात की प्रतिज्ञा करें। उन्हें क्या हक था
कि हमारे धर्म को बिना कारण और बिना पैसे-कौड़ी के दूसरों को सौंप दें और
हमारी तरफ से उससे बाजीदावा (तिलकनामा) लिख दें? यदि वे जानकार थे तब तो
ऐसा कर ही न सकते थे। और यदि मूर्ख थे तो फिर उनकी मूर्खता को हम क्यों
ढोते फिरें? इसलिए अपनी आत्मदुर्बलता को इस प्रकार बाप-दादों के सिर लादने
का बहाना करना और उसके द्वारा समाज को एक अंग रहित करने का यत्न महाकुत्सित
और निन्दित है।
अब केवल एक शंका रह जाती है जिसका निराकरण जरूरी है। वह यह कि आखिर आजकल
भीख माँगने वालों की जो संख्या है उनमें अधिकांश वर्तमान पुरोहित समाज के
लोगों की है और शेष भी अन्य समाज वाले उन्हीं के अनुकरण से ऐसा कर रहे हैं।
इसका क्या प्रतीकार है? निस्सन्देह यह बात है-वर्तमान पुरोहित समाज
भिक्षावृत्ति प्रधान प्रतीत होता है और देखा जाता है कि ब्रह्मभोजादि के
अवसर पर पाँच के बुलाने से पचीस दौड़े आते हैं, आदि-आदि। पर, इसे देखकर भी
मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आपके समाज को पुरोहिती अवश्य करना चाहिए
जिससे यह भयंकर बुराई दूर हो। क्योंकि यह पुरोहिती का परिणाम नहीं है।
देखने से साफ मालूम होगा कि इन भिक्षावृत्तिजीवी और पाँच की जगह पचीस आने
वालों में अधिकांश वही हैं जिनकी जीविका और इस समय पुरोहिती नहीं है। हाँ,
यह ठीक है कि कुछ पुरोहिती करने वाले भी ऐसा कहीं करते हैं और यह भी सम्भव
है कि जो ऐसे अधिकांश हैं वह भी कभी पुरोहिती करते रहे हों या पुरोहिती कभी
न भी करने पर पुरोहितों के सम्बन्ध से ही उनमें यह आदत आ गयी हो। क्योंकि
एक बार परान्न भोजन की आदत पड़ने पर उसका छूटना कठिन हो जाता है। मगर
विचारना तो यह है कि यह जो कुछ भी हुआ वह सिर्फ इसीलिए कि अब सच्चे पुरोहित
रह नहीं गये। अब तो आप लोगों ने और आपके ही साथ औरों ने भी पुरोहिती और
गुरुवाई को बना दिया है! फल यह हुआ कि गुरु पुरोहित लोग मूर्ख, दुराचारी,
दुश्चरित्र, केवल पेट पूजक और परद्रव्यापहारी हो गये! क्योंकि मौरूसी
जायदाद के लिए माथा मारने का कौन काम? 'जो पढ़तव्यं तो पूजतव्यं, न पढ़तव्यं
तो पूजतव्यं, माथापच्ची क्यों करतव्यं'? वे लोग तो जानते ही हैं कि पढ़े या
न पढ़ें, हम तो पूजे जायेंगे ही, हमारा 'पाँव तो पखारा' जायेगा ही, हमारे
खुरनारविन्द की पूजा तो होगी ही और हमें भरपूर दक्षिणा और पूड़ी तो मिलेगी
ही। फिर क्यों 10-12 वर्ष शास्त्रों के अध्य्यन में मगज मारें? और जब इस
प्रकार शास्त्रों का पढ़ना गया तो उसमें सच्चा स्वाभिमान, आत्मगौरव, कर्तव्य
बुध्दि, प्रतिष्ठा और लज्जा का भाव कैसे आ सकता है? वह कैसे समझ सकते हैं
कि अमुक काम हमारी प्रतिष्ठा, धर्म या गौरव के विपरीत अतएव अपमानजनक है?
क्योंकि 'श्रुतिस्मृती च विप्राणां चक्षुषी देवनिख्रमते। काणस्तत्रौकया
हीनो द्वाभ्यामन्ध: प्रकीत्तात:' (हारीत 1/25) 'वेद और धर्मशास्त्र यही दो
ऑंखें ब्राह्मणों की हैं। इनमें एक के बिना काने और दोनों के बिना अन्धे
होते हैं' के अनुसार वे तो अन्धे ठहरे। फिर उन्हें सच्चा मार्ग सूझे कैसे?
वह कैसे जानें कि यह पूड़ी की हायधुन और भिक्षावृत्ति पाप कर्म है, नीच काम
है? फिर उसमें क्यों न सहर्ष प्रवृत्त हों? साथ ही, खिलाने वालों को भी यह
नशा बना रहता है कि ब्राह्मण नामधारी ज्यादा खिलाये जायँ। फिर तो पतितों को
छोड़ और मिलेगा ही कौन? इस अन्ध ब्राह्मणभक्ति ने तो और भी नाश किया है।
यजमानों की मूर्खता ने पुरोहितों को और भी चौपट बना दिया है। पर, यदि
गुरुवाई, पुरोहिती मौरूसी न होकर योग्यता पर ही रहे, तो फिर यह अनर्थ और
अन्धाधुंध अपने आप मिट जाय। पुरोहित लोग शास्त्रज्ञ, सच्चरित्र, आत्मगौरव
सम्पन्न होने लग जायँ। वे नीच कर्मों से दूर रहें जैसे कि वसिष्ठ, गर्ग और
विश्वरूप आदि रहते थे। जैसे उन्होंने विवश होकर पुरोहिती स्वीकार की थी,
उसी प्रकार जब केवल जाति और धर्म की रक्षाबुध्दि से यह पुरोहिती की जायेगी
तो संसार मंगलमय होगा और भिक्षुकों एवं पेटुओं का नामोनिशान भी न रह
जायेगा, जिससे पुरोहिती कलंकित की जा सके। विशेषकर आपका समाज तो इस कड़वे
अनुभव के बाद जब पुरोहिती में प्रवृत्त होगा तो फिर यथार्थ और उज्ज्वल
पुरोहिती होगी, न कि कलंक कालिमा कलुषिता। यदि आप शुरू से ही इस बात का
ध्यान रखेंगे कि यह वृत्ति कलुषित होकर भिक्षावृत्ति के विस्तार का कारण न
हो जाय और इसकी ताकीद समय-समय पर करते रहेंगे तो सब ठीक ही होगा। जैसे
फेफड़ों की लापरवाही के कारण दमा आदि रोग होने पर जब किसी प्रकार आदमी नीरोग
होकर सजग हो जाता है तो फिर फेफड़ों को बिगड़ने नहीं देता। यही बात यहाँ भी
लागू होगी। इस पुरोहिती में जो विकार इस समय आ गया है वह भी वर्तमान
पुरोहितों के करते दूर नहीं हो सकता। कारण, वे पतित हो चुके हैं। उनकी दशा
तब तक निराशापूर्ण ही रहेगी जब तक दूसरे लोग आदर्श पुरोहिती का चमत्कार
उनकी ऑंखों के सामने पेश न करें, जिससे लालच में आकर वे भी उसके लिए
यत्नशील हों। सारांश, उनका भी उध्दार आपके ही भावी पुरोहितों के हाथ है,
जिन्हें आपका समाज और सभा आप में से ही तैयार करे और जिनके सामने केवल
जाति, धर्म और मानव समाज का उध्दार ही एकमात्र लक्ष्य हो। वैसे ही
पुरोहितों से आपका और देश का मुख उज्ज्वल होगा, आपकी ब्राह्मणता की रक्षा
होगी। उन्हीं के द्वारा आप इन आक्षेपों का सच्चा उत्तर देने में समर्थ
होंगे कि ''आप में ब्राह्मणों के यजन, याजनादि का नितान्त अभाव है' न कि
लेखों, प्रस्तावों और व्याख्यानों द्वारा।'' क्योंकि आत्मगौरव सम्पन्नों की
ओर से तो 'क्रिया केवलमुत्तारम्' 'जो मैं राम तो कुल सहित, कहहि दशानन
जाय'। न कि पुरोहिती के वर्तमान दोषों को देखकर उसका बहिष्कार कथमपि उचित
है। यह तो ऐसा ही है जैसा कि ऊपर भूसी देखकर धन को फेंक देना और भूखों
मरना, या भिखमंगों के भय से रसोई ही न बनाना! दुनिया में कौन-कौन चीज़ें
निर्दोष हैं? 'सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृता:' (गीता,18/48)।
इसलिए दोष से बचने की फिक्र करते हुए अपने स्वाभाविक कर्मों को कभी न छोड़ना
चाहिए, चाहे उनमें दोष भी क्यों न प्रतीत होते हों-'सहज कर्म कौन्तेय
सदोषमपि न त्यजेत्' (गीता 18/48)। अत: इस सिध्दान्त का पुरोहिती का-समाज
में प्रचार करके समाज को स्वावलम्बी, आत्मगौरव सम्पन्न और जीवित बनाने का
संकल्प कर तदनुसार काम करने में प्रवृत्त हो जाना प्रत्येक समाजहितेच्छु का
पवित्र कर्तव्य है। इसमें अब आना-कानी की गुंजाइश है ही नहीं। नहीं तो 'फिर
पछितैहसि अन्त अभागी'। इस काम में ईश्वर आपका साथ देगा।
एक बात और रह जाती है जिस पर प्रकाश डालना अत्यावश्यक है। वंशविस्तर' तथा
'ब्राह्मण समाज की स्थिति' में और इस पुस्तिका के आरम्भ में भी हजारीबाग के
चौपारन और इटखोरी थाने के कुछ भूमिहार ब्राह्मणों का बार-बार
वर्णन आया है कि वे पुरोहिती पहले से ही करते आये हैं और यह काम अब तक
उनमें जारी है। परन्तु इस बात का विशेष विवरण नहीं दिया जा सका है। एतदर्थ
वहाँ स्वयं जा के हमें इसकी जाँच करनी पड़ी है। उसके फलस्वरूप उनका और
उनकी पुरोहिती का संक्षिप्त विवरण देते हैं जो बड़ा मनोरंजक, उपदेशपूर्ण और
काम का है।
गया जिले की सीमा से मिला हुआ हजारीबाग का जो सब-डिवीजन चतरा कहलाता है उसी
के उत्तरी भाग में दो थाने चौपारन और इटखोरी नाम से प्रसिध्द हैं। इन्हीं
दोनों में पुरोहिती को अब तक बराबर करने वाले ये भूमिहार ब्राह्मण प्राय:
बीस ग्रामों में बसते हैं। जो बादशाही सड़क या ग्रैण्ड ट्रंक रोड गया से
होती हजारीबाग जिले में प्रवेश करती और इसरी, नीमिया घाट होती हुई पारसनाथ
पहाड़ के पास से ही कलकत्ता चली जाती है उसी पर चौपारन थाना है और उसी से
दक्षिण इटखोरी। ये दोनों ही चय परगने में हैं और इनकी सीमा लेढ़िया नाम का
नाला या नदी है जिसके दक्षिण इटखोरी और उत्तर चौपारन का इलाका है। दोनों
जगह डाकखाने भी हैं। इटखोरी के पोस्ट मास्टर पं. खेमनारायण पाण्डे हैं
जिनका घर वहीं है और यह भी उन्हीं पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों में एक हैं।
इटखोरी में साल वगैरह लकड़ी का जंगल प्रसिध्द है और दूर-दूर के व्यापारी
कटवा के ले जाते हैं। गया और हजारीबाग के बीच जो लारियाँ चला करती हैं वे
प्राय: एक रुपये में गया से चौपारन पहुँचा देती हैं। हजारीबाग से भी प्राय:
यही किराया लगता है। परन्तु चौपारन जाने के लिए कोडरमा स्टेशन भी ठीक है,
जहाँ से चौपारन होती हुई इटखोरी तक लारियाँ जाया करती हैं। कोडरमा से 11
कोस चौपारन और वहाँ से 4 कोस इटखोरी है। चौपारन से ही एक सड़क इटखोरी, चतरा
को चली जाती है। इटखोरी से दक्षिण 11 कोस चतरा है। कोडरमा से दक्षिण 14 मील
तक एक छोटी सड़क जा के ग्रैण्ड ट्रंक रोड में मिलती है जहाँ से 4 कोस पश्चिम
चौपारन है। कोडरमा और हजारीबाग रोड इन दोनों स्टेशनों से हजारीबाग शहर 42
मील है और कोडरमा से प्राय: 8-10 कोस पूर्व हजारीबाग रोड स्टेशन सरिया
ग्राम में है।
यह तो हुई प्रासंगिक बात। कहते हैं कि गया से पूर्व उसी जिले के फतेहपुर
थानान्तर्गत पहाड़पुर स्टेशन से प्राय: एक कोस पर जयपुर में किसी गौड़
ब्राह्मण राजा का पुराना गढ़ अब भी धवस्त दशा में है। उसका नाम कोई-कोई
जंगरेस बहादुर कहते हैं। उसी गढ़ से मिला हुआ पूर्व और पाण्डेगढ़ नाम का
दूसरा धवस्त गढ़ है जो राजा के आचार्य और पुरोहित ब्राह्मणों का है।
किंवदन्ती है कि चौपारन, इटखोरी के इन पुरोहित भूमिहार ब्राह्मणों के मूल
पुरुष ही उस पाण्डे गढ़ के मालिक एवं राजा के सर्वमान्य थे। कहा जाता है कि
पश्चिम बक्सर की ओर से कौशिक गोत्र दो ब्राह्मण जगन्नाथ की यात्रा करने को
जयपुर आये और अपने विद्या एवं तप के बल से राजा के परम मान्य हो गये। इनके
नाम कोई सागर पाण्डे और वसन्त पाण्डे या राय कहते हैं और कोई कुछ और बताते
हैं। वहाँ से पुरी की यात्रा के बाद एक भाई तो घर गये, पर दूसरे सागर
पाण्डे जयपुर ही रह गये। फिर काल पा के राजा के वंश का लोप हो गया। उसके
प्रिय पात्र मन्त्री और वीर दो बन्दौत क्षत्रिय जागो खाँ तथा ताज खाँ थे।
राजा ने उन्हें अपना राज्य इसी शर्त पर सौंप दिया कि हमारे आचार्य एवं
पुरोहित सागर पाण्डे के ही वंशजों को आचार्य पुरोहित बनाना होगा और जो
तुम्हारे उत्तराधिकारी होंगे वह भी यही करेंगे। इसके बाद वे दोनो बन्दौत
क्षत्रिय हजारीबाग के ताजपुर और जागोडीह में बसे और उनके ही नामों से वे
दोनों नाम पड़े। इनने या इनके वंशधरों ने पीछे से रामगढ़ के खैरवारों से
विवाह सम्बन्ध कर लिया। इस समय जागोडीह पद्मा के ही अधीन है।
सागर पाण्डे के वंशज जयपुर के पाण्डे गढ़ से आ के चौपारन से एक मील पूर्व
बारा में पहले पहल बसे और वहीं से धीरे-धीरे (1) बारा, (2) कुबरी, (3)
दैहर, (4) इंगुनियाँ, (5) पूड़ो, (6) बनौ, (7) फुलवरिया, (8) ककरौला, (9)
ठुट्ठी,
(10) बड़ागाँव, (11) गंभरिया, (12) बेलखोरी, (13) नरियाही, (14) सदाफर,
(15) इटखोरी, (16) सौनियाँ, (17) बलिया, (18) तिलरा, (19) पण्डरिया आदि
गाँवों में जा बसे। इनमें प्रथम के नौ गाँव चौपारन में और शेष इटखोरी में
हैं। इन सभी गाँवों के प्रधान तथा मूल निवासी कौशिक गोत्र ब्राह्मण ही हैं,
जिनका सम्बन्ध गया जिले के नवादा सब-डिवीजन में विशेष रूप से पाया जाता है।
परन्तु इनके सिवाय कहीं-कहीं इनके नातेदार भी धीरे-धीरे उत्तराधिकारी हो के
आ बसे हैं, जो हरितकिया, , दुमटिकार, गौतम, सोनभदरिया, किनवार, मौआर,
दिघवैत कहाते हैं। ये सभी बनौ ग्राम में हैं, सिर्फ दिघवैत पण्डरिया में
बारा में हैं। यद्यपि पुरोहिती प्रधानतया कौशिक गोत्रियों के ही हाथ में
है, फिर भी कहीं-कहीं किनवार वगैरह भी पुरोहित हैं। जैसे बेलखोरी के पं.
हरिलाल पाण्डे, खीरू पाण्डे। इनके प्रधान यजमान बन्दौत हैं। मगर खैरवार भी
कहीं-कहीं हैं और बढ़ई तथा कोइरी भी। माहुरी वैश्य यजमान बताये जाते हैं।
परन्तु बन्दौतों के बाद स्थान कायस्थों का है जो इनके यजमान विशेष रूप से
हैं। यद्यपि इटखोरी से मिले हुए परौका ग्राम के मुंशी जगन्नाथ सहाय बी.ए.
वगैरह इनके यजमान हैं तथा और भी बहुतेरे गाँवों के कायस्थ हैं जो चौपारन
तथा इटखोरी में ही हैं। लेकिन हजारीबाग से एक कोस दक्षिण असधिर के कायस्थ
और गया के फतेहपुर थाना परगना महेर के कवला के भी कायस्थ यजमान हैं। वहाँ
के मुंशी टीकमलाल गया में मुखतार हैं। ठुट्ठी के मुंशी देवकी प्रसाद लाल
वगैरह भी यजमान हैं। बन्दौतों के तो ग्राम पचासों-सैकड़ों हैं। मगर फुलांग
के बाबू गौरी सिंह अच्छे जमींदार हैं और वे बारा के पं. लालधारी पाण्डे,
पं. गोवर्धान पाण्डे, पं. मखौली पाण्डे वगैरह के यजमान हैं। हरपुर,
कसियाँडीह, करमा, एकतारा, पननी,
ढोंढी, मेन्हैनियाँ और हजारीबाग थाने के धावैया के बन्दौत तथा बोंगा,
सिंहपुर, चपटी, केन्दुवा, महुदी, तेतरिया, रानिक, कोल्हुवा, अमझर, मोंगला,
बानाजान, गणेशपुर, देवसर, कुम्हारी, जोकट, परसावा, कोइली, नरचाही, थवई,
पकरिया, बेला, चोरकारी, हड़ाही, खरहुऑं, हारपुर, पथरियाँ, सिरमा, केदली,
पुरैनी, करनी, घूमना, तेंदर आदि गाँव बन्दौतों के प्रसिध्द हैं। महथा तेजो
सिंह, महज्जर सिंह, रूप लाल सिंह, नूनू सिंह, जीवलाल सिंह, ज्ञान सिंह
वगैरह अच्छे बन्दौत हैं। कुबरी के भीखन पाण्डे के यजमान हजारीबाग से पच्छिम
एक मील मण्डई घुघुरिया के मुंशी ठाकुर प्रसाद वगैरह कायस्थ, बन्दौत;
घुघुरिया, सेलहरा के कोइरी, सिरवा के बढ़ई और पण्डरिया वगैरह के खैरवार भी
हैं।
इन ब्राह्मणों को जागोडीह, रामपुर और पद्मा के राजाओं की ओर से पाँच गाँव
ब्रह्मोत्तार में मिले हैं जिनकी मालगुजारी नहीं लगती। ये पाँच गाँव हैं
बारा, बनो, पूड़ो, फुलवरिया और इंगुनियाँ। कहते हैं कि इयुनियाँ वालों के
पूर्वज रामपुर रसोइयादारी करते थे। अत: उस गाँव के दानपत्र में 'रसोइयाँ
ब्राह्मण' और शेष चार गाँव के दानपत्र में 'पुरोहित ब्राह्मण' करके लिखा
गया है। अब भी इनके यजमान बन्दौत वगैरह जब पत्र लिखते हैं तो 'पुरोहितजी या
पाण्डेजी प्रणाम' यही लिखते हैं। हालाँकि ये लोग अब अपने को कहीं-कहीं
पाण्डे की जगह 'सिंह' कहने लगे हैं, यद्यपि पुराने कागजों में 'पाण्डे' ही
लिखा है। बन्दौत लोग इनके घर जाने पर इनकी हाँड़ी का भात बलात् माँग के खाया
करते थे और अब भी करते हैं, हालाँकि अब कहीं-कहीं श्रोत्रियों और
शाकद्वीपियों के बहकाने से इनकार करने लगे हैं। इसी तरह इस इलाके के
शाकद्वीपी, श्रोत्रिय और जोशी लोग इनके घरों की कच्ची रोटी बराबर खाते चले
आते हैं, यद्यपि अब पक्की रोटी खाने का प्रश्न वे लोग भी पैदा करना चाहते
हैं।
गया जिले के भूमिहार ब्राह्मणों के साथ ही इन लोगों का विवाहादि होने के
कारण उन्हीं के दबाव से धीरे-धीरे पाण्डे की जगह सिंह कहने और पुरोहिती
छोड़ने की प्रवृत्ति इनमें भी हो रही थी। मगर अब रुक गयी है। इनमें संस्कृत
तथा अन्य विद्या का वैसा ही अभाव है जैसा कि अन्य पुरोहितों में। फिर भी ये
लोग अपने यजमानों का काम स्वयं कराते हैं। सिर्फ दो-चार लोगों की ओर से
(गुरु) बारा के मीना गुरु शाकद्वीपी और एकाध श्रोत्रिय भी गुमाश्ते का काम
करते हैं और पुरोहिती करवाने के नाते चौथाई दक्षिणा भी लेते हैं। दो-एक ने
अपने यजमान इन्हीं मीना गुरु और रनजीता के गिरधारी पाण्डे श्रोत्रिय को दान
कर दिया है। परन्तु अब भविष्य में कोई ऐसा न करेगा। अब ये तैयार हैं।
पुरोहिती के आन्दोलन ने उन्हें भी उत्साहित और दृढ़ कर दिया। जहाँ पहले वे
लोग इसमें अपमान समझ गैरों के सामने छिपाना चाहते थे, तहाँ अब प्रतिष्ठा
समझने लगे हैं। जिन भूमिहार ब्राह्मणों के अधिक यजमान हैं उनमें इंगुनियाँ
के पं. सीबी पाण्डे, बनौ के पं. चेतलाल पाण्डे, बलिया के पं. बैजू पाण्डे,
इटखोरी के पं. निरंजन पाण्डे, पं. भूहिल पाण्डे, कुबरी के पं. भीखन पाण्डे,
बड़गाँव के पं. झनकू-पाण्डे, वगैरह गंभरिया के पं. लट्टू पाण्डे, बेलखोरी के
पं. भरथू पाण्डे, तिलरा के पं. निरपू पाण्डे और इटखोरी के पं खेमनारायण
पाण्डे वगैरह हैं। इनमें किसी-किसी के 100 से ज्यादा और अधिकांश के 50-60
घर तक यजमान हैं। कुछ के 25-30 घर भी हैं। ये सभी स्वयं पुरोहिती सिर्फ
सीबी पाण्डे और झनकू के दायादा जोबा पाण्डे के गुमाश्ता कराते हैं। सीबी के
मीना और जोबा के कोई श्रोत्रिय हैं। भीखन पाण्डे बड़े उत्साही और तत्पर हैं।
ये लोग यद्यपि साधारण और गरीब हैं, जैसे कि प्राय: अन्य पुरोहित भी
हुआ करते हैं, फिर भी खाने के लिए दुखिया नहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि
साधारण और गरीब होते हुए भी शायद ही कोई अविवाहित हो, जहाँ कि मगध, तिरहुत
और युक्त प्रान्त में अविवाहित भूमिहार ब्राह्मणों की संख्या 30 प्रतिशत से
50 प्रतिशत तक पहुँच गयी है। पुरोहिती के विरोधियों को इसका भी ध्यान रहना
चाहिए। फुलवरिया के वृध्द पं. त्रिलोकी पाण्डे साधारणतया सम्पन्न और इन
सबों के नेता हैं। वे बड़े उत्साही हैं। इसी प्रकार (महुदो) बारा के पं
रामधन पाण्डे भी बड़े तत्पर हैं। बारा ग्राम ग्रैण्ड ट्रंक रोड पर चौपारन से
दो मील पूर्व है।
अन्त में इस पुरोहिती प्रकरण को पूरा करने से पूर्व हमें एक बात और कहनी है
और वह है भी नितान्त आवश्यक। अभी तक इसका आन्दोलन अपने ही समाज तक प्राय:
सीमाबध्द है। जो नये पुरोहित हुए और हो रहे हैं वह अपने ही समाज की
पुरोहिती करते हैं और कहीं कभी शायद ही ऐसा मौका आता है कि क्षत्रियादि की
पुरोहिती करें। इसकी कोई ऐसी आवश्यकता भी नहीं है कि खामख्वाह इस पुरोहिती
को एकमात्र धन और पूड़ी का साधन बना के वर्तमान पुरोहितों की तरह नये
पुरोहित भी उसी के पीछे परेशान रहें। नये पुरोहितों में अनेकानेक की यह
धारणा भी है कि जब तक अन्य समाज की पुरोहिती न की जायेगी और जब तक
क्षत्रियादि भूमिहारों को कान्यकुब्जादि को तरह न पूजेंगे और मानेंगे तब तक
समाज का निस्तार न होगा। यद्यपि इस बात की कोई मनाही नहीं है कि
क्षत्रियादि की पुरोहिती न की जाय, प्रत्युत समयानुसार और आवश्यकतानुसार वह
की ही जाती है जैसा कि हजारीबाग वाले करते ही हैं और जैसा कि 'पुरोहिती पर
काशी राजकुमार' में महाराज कुमार काशी का यह वाक्य है कि 'चाहे स्वजाति की
करें, चाहे अन्य जाति की। यह ब्राह्मण का कर्म है। इसमें कोई क्षति नहीं।'
फिर भी इसका लक्ष्य सदा यही होना चाहिए कि समाज में स्वाभिमान आवे। क्योंकि
जब तक समाज में ब्राह्मणत्व का सच्चा अभिमान न होगा तब तक किसी के भी
द्वारा पूजे जाने से निस्तार नहीं हो सकता। जब भूमिहारों में स्वाभिमान की
मात्रा इतनी हो जायेगी कि वे किसी के भी सामने न झुकेंगे और जब कान्यकुब्ज
मैथिलादि विवश हो के इन्हें सिर नवावेंगे एवं पूजेंगे तभी सच्चा निस्तार
होगा इस पुरोहिती आन्दोलन का यही सच्चा रहस्य है और इसी के लिए सदा प्रयत्न
होना चाहिए।
प्राणनागांकचन्द्राख्ये वैक्रमेऽब्देऽसिते दले।
चतुर्दश्यां बुधो पौषे ग्रन्थोऽसौ पूर्णतामगात्॥1॥
रचित: सहजानन्दसरस्वत्याख्यदण्डिना।
अमुना पार्वतीजानि: प्रीयतां पृथिवीपति:॥2॥
इति वाराणसेयदशाश्वमेधाघट्टस्थमठभूतपूर्वालङ्कार
श्रीमद्विश्वरूपसरस्वतीपूज्यपादविनेयपरम्पराप्रविष्ट
श्रीमत्स्वामिवर्याद्वैतानन्दसरस्वतीपूज्यचरणाम्बुजभृयमाणस्वामि-
सहजानन्दसरस्वतीविरचियोऽयं ग्रन्थ:।
॥ ॐ शम॥
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