ब्रह्मर्षि वंश
विस्तार
निर्भीतिभूषितकरात्स्फटिकाभगात्रा-
दाशाम्बरादरुणपद्मदलाधारोष्ठात्
राकेशसुन्दरमुखात्सरसीरुहाक्षा-
च्छम्भो: परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥ 1 ॥
कले: प्रभावादबलोक्य हानं धर्मस्य देवैर्मुहुरर्द्यमान:।
समावतीर्णोम्बुधिदेश्यवर्गैंर्य: शंकरो धर्मगुपेसनोव्यात्॥ 2 ॥
तस्यैव वैनेयपरम्परायामन्तर्गतोन्त्याश्रमसंज्ञितायाम्।
श्रीविश्वरूपोननुविश्वरूपोयोभूदहंप्रा जलिरानतस्तम्॥ 3 ॥
यस्येति वाक्यात्तात्पादपद्मेभृंगायमाणं तमनन्यभावम्।
तच्छिष्यमानौमि गुरुं गुरोमरें भूमादिमानन्दसरस्वतीं वै॥ 4 ॥
क्रीडन्तमद्वयानन्देऽद्वैतानन्दसरस्वतीम्।
तुर्याश्रमस्थं तुर्यं स्वं देशिकं प्रणमाम्यहम्॥ 5 ॥
क्रियते सहजानन्दसरस्वत्याख्यदण्डिना।
पूर्वार्ध्द-द्विविध ब्राह्मण विचार
ब्राह्मणा द्विविधा राजन् धर्मश्च द्विविधा: स्मृत:।
प्रवृत्ताश्च निवृत्तश्च निवृत्तो हं प्रतिग्रहात्॥ (म. शां.)
(1) ब्राह्मणलक्षण
श्रुति, स्मृति तथा पुराणादि के अवलोकन से स्पष्ट हैं कि मैथुनी सृष्टि से
पूर्व विराट् भगवान् अथवा हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा वा प्रजापति) ने सांकल्पिक
(मानसिक) सृष्टि की और तदनुसार ही ब्राह्मणादि वर्णों को परस्पर विलक्षण
सूचित करने के लिए मुखादि भिन्न-भिन्न अंगों से उत्पन्न किया। जैसा कि
शुक्ल यजुर्वेद के 32वें अध्याय के 12वें मन्त्र से स्पष्ट हैं :
ब्राह्मणो स्य मुखमासीद्बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्ययद्वैश्य: पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥
जिसका तात्पर्य यह हैं कि 'हिरण्यगर्भ वा प्रजापति के मुख से ब्राह्मण,
बाहु से क्षत्रिय, जंघे से वैश्य, और पाँव से शूद्र उत्पन्न हुए।' क्योंकि
इसके बाद के मन्त्र 'चन्द्रमा मनसो जात:' में पंचम्यन्त पद 'मनस:' रखा हैं,
जिसका अर्थ यही हो सकता हैं कि मन से चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई। तदनुसार ही
इस पूर्व मन्त्र में भी अर्थ करना चाहिए। इस स्थान पर जो लोग यह कहा करते
हैं कि ऐसा अर्थ करने से सृष्टि क्रम से विरोध पड़ता हैं, क्योंकि आजकल
मुखादि अंगों से किसी की उत्पत्ति नहीं देखते। उनसे पूछना चाहिए कि अच्छा,
तो फिर सृष्टि प्रारम्भ काल में प्रथम स्त्री-पुरुष थे ही नहीं तो सृष्टि
कैसे हुई? इसलिए यह मानना ही पड़ेगा कि प्रथमत: ईश्वर ने कुछ स्त्री-पुरुषों
को संकल्प से ही उत्पन्न किया। तदनन्तर सृष्टिक्रम उन्हीं से चला जो आज तक
हैं। अत: मानसिक सृष्टि के विषय में, जिसका मानना अत्यावश्यक हैं, यह शंका
हो ही नहीं सकती। मनुजी भी स्पष्ट रूप से प्रथमाध्याय के 31वें श्लोक में
यही बात कहते हैं। जैसा कि लिखा हैं :
लोकानां तु विवृद्धयर्थं मुखबाहूरुपादत:।
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निर्रवत्तायत्॥
इस श्लोक में तो स्पष्ट रूप से 'मुखबाहूरुपादत:' इस पंचम्यन्त पद का प्रयोग
हैं। यदि मुखस्थानपन्न ब्राह्मण हुए इत्यादि रूप अर्थ पर ही आग्रह हो तो भी
हमारा कोई विरोध नहीं हैं। इस मानसिक सृष्टि के बाद उन्हीं उत्पन्न
स्त्री-पुरुष व्यक्तियों द्वारा मैथुनी सृष्टि हुई और यद्यपि मानसिक सृष्टि
में भी वर्णों का विभाग था, जैसा कि अभी कह चुके हैं, अत: उसके अनुसार भी
जातियों का नियम हो सकता हैं, या था। तथापि आजकल के जीवों में मुख आदि से
उत्पत्ति नहीं पाई जाती हैं। इसलिए महर्षियों ने 'मुख से जो उत्पन्न हुआ
उसे ब्राह्मण कहते हैं' इत्यादि जातियों का लक्षण न करके 'ब्राह्मण्यां
ब्राह्मणेनैवमुत्पन्नो ब्राह्मण: स्मृत:' (हारीतस्मृतिं 1, अ. 15) अर्थात्
'ब्राह्मणी के रज और ब्राह्मण के वीर्य से जो विधिवत् उत्पन्न होता हैं उसे
ब्राह्मण कहते हैं, इत्यादि रूप ही लक्षण किया हैं। ऐसी दशा में किसी का यह
कथन कि 'क्योंकि तुम दान नहीं लेते और पुरोहिती नहीं करते हो, अत: ब्राह्मण
नहीं हो केवल मूर्खता हैं। क्योंकि जब उसकी उत्पत्ति ब्राह्मण से हैं तो
उसकी ब्राह्मणता में सन्देह ही क्या हो सकता हैं? हाँ इतना अवश्य हो सकता
हैं कि यदि वह ब्राह्मणोचित कर्म न करेगा तो पतित अथवा हीन ब्राह्मण समझा
जा सकता हैं। परन्तु प्रतिग्रहादि तो ब्राह्मणोचित कर्म नहीं हैं, प्रत्युत
ब्राह्मणतत्त्व को सत्यानाश में मिलानेवाले हैं। जैसा कि मनुजी ने कहा हैं
और अन्यत्रा भी लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहसमर्थो पि प्रसंगं तत्रा वर्जयेत्।
प्रतिग्रहेणह्यस्याशु ब्राह्मं तेज: प्रशाम्यति॥ म. 4/186
पौरोहित्यमहं जाने विगर्ह्यं दूष्यजीवनम्। स्कन्दपु.
अर्थ यह हैं कि 'यदि प्रतिग्रह करने में सामर्थ्य भी रखता हो (अर्थात् उससे
होनेवाले पाप को हटाने के लिए बहुसंख्य गायत्रीजप और तपस्यादिक भी कर सकता
हो) तो भी प्रतिग्रह का नाम भी न ले, क्योंकि उससे शीघ्र ही ब्रह्मतेज
(ब्राह्मणता) का नाश हो जाता हैं। ब्राह्मण कहता हैं कि हम पुरोहिती को
निन्दित और जन्म को दूषित करनेवाली जानते हैं'। जैसा रामायण में स्पष्ट
लिखा हैं कि 'उपरोहिती कर्म अतिमन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा।'
इत्यादि। इसका विस्तारपूर्वक विचार आगे होगा। ऐसी दशा में प्रतिग्रह या
पुरोहिती से रहित किसी-किसी शुद्ध प्राह्मण या ब्राह्मण समाज को ब्राह्मण न
कहना, या हीन ब्राह्मण कहना केवल मूर्खता, द्वेष, नास्तिकता और
धृष्टतामात्र हैं। यदि प्रतिग्रह या पुरोहिती ब्राह्मणोचित कर्म मान भी
लिये जाये तो भी उनका न करनेवाला ब्राह्मण क्यों न कहा जायेगा? क्योंकि
कर्म करने से जाति मानना विधाख्रमयों का सिद्धान्त और अनभिज्ञता हैं। सनातन
धर्म का तो अटल सिद्धान्त हैं कि आम्र के बीज से जो उत्पन्न होगा वह आम्र
ही होगा चाहे उसका सिंचन आदि करिये या न करिये। श्रुति भी यही कहती हैं कि
'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपनयीत तं चाधयापयोत' अर्थात् 8 वर्ष के ब्राह्मण का
उपनयन संस्कार कराकर उसे पढ़ायें।' मनुजी भी कहते हैं कि 'गर्भाष्टमे ब्दे
कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्'। 2 अ., 36। अर्थात् 'गर्भ से आठवें वर्ष
ब्राह्मण का उपनयन करावे।' यद्यपि उपनयन संस्कार से पूर्व उसने कोई भी
ब्राह्मणता-सम्पादक कर्म नहीं किये हैं और न भविष्यत् का ही निश्चय हैं,
तथापि उसे ब्राह्मण ही, स्पष्ट शब्दों में, कह दिया हैं। इसलिए यही
सिद्धान्त हैं कि ब्राह्मणी और ब्राह्मण द्वारा जिसकी उत्पत्ति शास्त्रीय
रीति से हो उसे ही ब्राह्मण कहते हैं। जिसके धर्म-संध्या-वन्दनादि हैं, न
कि पुरोहिती या प्रतिग्रह आदि।
(शीर्ष पर वापस)
ब्राह्मण धर्म
(क) धर्मार्थ कर्म-
अब यहाँ पर यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता हैं कि अच्छा,
ब्राह्मण जाति का यही सामान्य स्वरूप रहे। परन्तु उसमें उत्तम, मध्यम तथा
कनिष्ठ भाव किस प्रकार से हुआ और हो रहा हैं? क्या लोगों की यह धारणा कि
अमुक विप्र उत्तम हैं और अमुक मध्यम इत्यादि, मिथ्या ही हैं? इस प्रश्न के
हल करने का सबसे उत्तम उपाय यही हैं कि ब्राह्मणों के स्वरूप का विचार,
उनके आचार-व्यवहारों की देखभाल और उनके धर्मों के विषय में शास्त्रों की
आज्ञाओं का परिशीलन (मीमांसा पर विचार) कर लिया जाये कि याज्ञवल्क्यादि
महर्षियों के समय से आज तक वे लोग किस मार्ग का अवलम्बन करने से कैसे माने
गये हैं। उन्होंने धर्म और जीविका चलाने के लिए किन-किन कर्मों का आश्रय
लिया हैं, उनमें से किसे उत्तम, मध्यम अथवा हीन समझा हैं और भविष्य के लिए
कौन से शिक्षा रूप बीज बोये हैं। क्योंकि शिष्टों (श्रेष्ठ पुरुषों) के
आचार भी प्रमाण माने जाते हैं। अतएव पूर्व मीमांसा दर्शन के प्रथमाध्याय के
तृतीय पाद के अष्टन् अधिकरण में 'अनुमानव्यवस्थानात्तात्संयुक्तं प्रमाण
स्यात्'॥ 15॥ इत्यादि सूत्रों द्वारा होलिकादि शिष्टाचारों को प्रमाण मानकर
उनके विषय में विशेष विचार किया गया हैं और उसी पाद के 5वें अधिकरण में
दाक्षिणात्य ब्राह्मणों में प्रचलित शिष्टाचार के अनुसार मामा की कन्या के
साथ के विवाह को लोग उचित न समझ लें, इसके लिए :
मातुलस्य सुतामूढ्वा मातृगोत्रां तथैव च।
समान प्रवरां चैव त्यक्त्या चान्द्रायणं चरेत्॥
अर्थात्! मामा की लड़की, माता के गोत्र की लड़की और अपने गोत्र वाली लड़की से
भूलकर ब्याह लेने पर भी उसे छोड़कर चन्द्रायण व्रत करें', इस स्मृति वचन के
विरुद्ध होने से उस आचार को उन्होंने अप्रामाणिक ठहराया हैं। परन्तु आजकल
तो इतनी प्रबल मूर्खता हो गयी हैं कि अज्ञानवश अथवा तृष्णादि में पड़कर
प्राय: सभी ब्राह्मण एवं अन्य जातियाँ अपने और माता के गोत्र में विवाह
करने में नहीं हिचकतीं।
अस्तु, अब देखना चाहिए कि श्रुति तथा मनु आदि महर्षियों की आज्ञाएँ
ब्राह्मणों के प्रति धार्मिक विषयों में-विशेषकर जीविका और धर्म के लिए
किये जाने वाले कर्मों के विषय में कैसी हैं। इस जगह इतना और भी स्मरण रखना
होगा कि सभी धर्म अनापत्कालिक (जो किसी दबाव य मजबूरी के किये जा सकें) और
आपत्कालिक (जो तकलीफ-दबाव पड़ने पर हार कर किये जाये) इन दो प्रकार के हैं।
इससे विषय के विवेचन (निर्णय) में आसानी होगी।
छान्दोग्योपनिषत् के द्वितीय प्रपाठक के 23वें खण्ड में लिखा हैं कि :
त्रयोधर्मस्कन्धा यज्ञो ध्यायनं दानध्मिति प्रथम:।
जिसका भाव यह हैं कि नित्य नैमित्तिकादि धर्म रूप वृक्ष की तीन बड़ी-बड़ी
शाखाएँ, जिनमें पहली शाखा यज्ञ, वेद और शास्त्रों का पढ़ना और दान रूप हैं।'
इन्हीं में सन्ध्या और अग्निहोत्र वगैरह भी आ गये, क्योंकि अग्निहोत्र यज्ञ
का स्वरूप ही हैं और गायत्री का जप भी उससे बाहर नहीं हैं। जैसा कि गीता
में भगवान् श्रीकृष्णजी ने कहा हैं :
द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथा परे। (अ. 4/28)
भावार्थ यह हैं कि 'कोई द्रव्यों (काष्ठ, घृत आदि) से यज्ञ करते, कोई
गायत्री जप एवं व्रतादि रूप जो तप कहलाते हैं उन्हीं यज्ञों को करते और कोई
समाधि रूप ही यज्ञ करते हैं।' यदि अध्यायन को भी यज्ञ में मिला ले तो कोई
हानि नहीं हैं, परन्तु पढ़ने का फल यज्ञ हैं इसलिए उसे श्रुतियों और
स्मृतियों में यज्ञ से पृथक् ही गिनाया हैं। मनुस्मृति में जो लिखा हैं कि
:
अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माण्यग्रजन्मन:॥ 10। 75
अर्थात् 'पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान और प्रतिग्रह ये छह कर्म
ब्राह्मणों के हैं'। उसका भी यही आशय हैं कि अध्यायन (पढ़ना), दान और यज्ञ
करना यही तीन कर्म धर्म के लिए हैं, शेष तीन तो जीविका के लिए हैं। परन्तु
जगदुत्पत्ति प्रकरण प्रथम अध्याय में इन छह कर्मों की उत्पत्ति के साथ ही
कही गयी हैं। इसलिए यहाँ भी सभी का नाम प्राय: उसी उत्पत्ति प्रकरण के
श्लोक द्वारा लिया हैं। वास्तव में तो यह प्रकरण (मनुस्मृति का दसवाँ
अध्याय) उन कर्मों का हैं जो आपत्काल में जीविका के लिए किये जा सकते हैं।
इसीलिए अगले श्लोक में लिख दिया हैं :
षण्णां तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका।
याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्चप्रतिग्रह:॥ म.। 10। 76
अर्थात् 'पूर्वोक्त छह कर्मों में से यज्ञ कराना, पढ़ाना और शुद्ध जनों का
प्रतिग्रह करना ये कर्म तो जीविका के लिए हैं। परन्तु यदि इन्हीं तीनों को
यहाँ लिखने और पढ़ने, यज्ञ करने और दान को छोड़ देते तो जैसा कि लोग फिर भी
आज समझने लग गये हैं; समझने लग जाते कि आपत्ति काल में पढ़ने, यज्ञ करने और
दान देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। क्योंकि मनुस्मृति में उसकी आज्ञा नहीं
हैं। इसलिए मनु भगवान् ने इन तीनों को भी साथ ही लिख दिया हैं। अत्रिजी भी
लिखते हैं कि :
कर्म विप्रस्य यजनं दानमध्यायनं तप:।
प्रतिग्रहो धयापनं च याजनं चेति वृत्ताय:॥ 13॥
तात्पर्य यह हैं कि 'ब्राह्मण के कर्म (धर्म) तो यज्ञ, दान और अध्यायन ये
तीन ही हैं, प्रतिग्रह, पढ़ाना और यज्ञ कराना ये तीन तो जीविकाएँ हैं।
ब्राह्मण के धार्मर्थक कर्म यज्ञ, अध्यायन और दान तीन ही हैं। गीता में भी
लिखा हैं कि :
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्॥ 18॥ 42
अर्थ यह हैं कि 'मन और इन्द्रियों का विषयों से रोकना, तपस्या, आभ्यन्तर और
बाह्य शौच, क्षमा, नम्रता, शास्त्र-ज्ञान और अनुभव रूप (साक्षात्कार रूप)
ज्ञान ब्राह्मणों के स्वाभाविक धर्म हैं। इनमें याजन अथवा अध्यापन के तो
नाम भी नहीं हैं। पराशर स्मृति के प्रथमाध्याय में भी लिखा हैं कि :
संध्या स्नानं जपो होमो देवतानां च पूजनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च षट्कर्माणि दिने दिने॥ 39॥
अर्थात् 'रात और दिन की सन्धि समय में स्नान, गायत्री को जप, अग्निहोत्र,
शिवविष्ण्वादि देवों का पूजन, यथाशक्ति, अतिथि का सत्कार और बलिवैश्यदेव ये
छह कर्म ब्राह्मणों को नित्य करने चाहिए। मनुजी अन्त में भी 12वें अध्याय
में
लिखते हैं :
यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्ताम:।
वेदाभ्यासे शमे च, स्यादात्मज्ञाने च यत्नवान्॥ 92॥
जिसका भाव यह हैं कि ब्राह्मणों के लिए जो बहुत से कर्म बतलाये गये हैं
उनका त्याग भी करके वे वेदाभ्यास, चित्तनिरोधा (समाधि) आत्मज्ञान के लिए
प्रयत्न करें। इससे स्पष्ट ही हैं, कि मनुजी को वेदाभ्यास प्रभृति कर्मों
की ही प्रधानता विवक्षित हैं, जिनके अन्तर्गत संध्या और अग्निहोत्र भी हैं।
याज्ञवल्क्यजी ने भी आचाराध्याय मं कह दिया हैं कि :
जपन्नासीत्सावित्रीं प्रत्यगातारकोदयात्॥ 24॥
संध्यां प्राक्प्रातरेवंहि तिष्ठेदासूर्यदर्शनात्।
अग्निकार्यं तत: कुर्यात् सन्ध्ययोरुभयोरपि॥ 25॥
अर्थात् 'सन्ध्या समय पश्चिम मुख बैठ कर तारा के निकलने तक और प्रात: पूर्व
मुख बैठकर सूर्योदय पर्यन्त गायत्री जप करे। उसके बाद दोनों सन्धिकाल में
अग्निहोत्र करे।' श्रुतियों में यही अनुशासन (आज्ञा) अन्यत्र भी हैं, जैसा
कि शतपथ आदि ब्राह्मण ग्रन्थों में लिखा हैं कि :
'स्वाधयायो ध्येतव्य:' 'अहरह: सन्ध्या-
मुपासीत,' 'अग्निहोत्रीं जुहूयात्'।
अर्थ यह हैं कि 'वेद नित्य पढ़ना और सन्ध्या अग्निहोत्र नित्य करना चाहिए।'
इत्यादि शतश: श्रुति स्मृत्यादि प्रमाणों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों के
लिए धार्मर्थक कर्म केवल अध्यायन, सन्ध्यानुष्ठान, अग्निहोत्र और वैश्वदेव
आदि ही हैं, न कि अध्यापन (पढ़ाना) और याजन (यज्ञ कराना) आदि भी।
याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय के 118वें श्लोक के व्याख्यान मिताक्षरा
में साफ-साफ लिख दिया हैं कि :
तत्रा त्रीणीज्यादीनि धर्मार्थनि त्रीणि प्रतिग्रहादीनि वृत्तयर्थानि।
षण्णान्तु कर्मणामस्य त्रीणि कर्माणि जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्च
प्रतिग्रह: (10/16) इति मनुस्मरणात्, अत इज्यादीन्यवश्यंर् कत्ताव्यानि च
प्रतिग्रहादीनि। द्विजातीनामध्यायनमिज्यादानं ब्राह्मणस्याधिका:
प्रवचनयाजनप्रतिग्रहा: पूर्वेषु नियम: (10 अ.) इति गौतमस्मरणात्। जिसका अर्थ यह हैं कि 'छह कर्मों में से यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीनों
धर्म के लिए और याजन, अध्यापन एवं प्रतिग्रह ये तीनों केवल जीविका (पेट
पालने) के लिए हैं, क्योंकि मनुजी ने कहा हैं कि छह कर्मों में से विशुद्ध
प्रतिग्रह आदि तो केवल जीविका के निर्मित्त हैं। इसलिए यज्ञ, अध्यायन और
दान अवश्य करने चाहिए, न कि प्रतिग्रह वगैरह भी, क्योंकि गौतमस्मृति के दशम
अध्याय में लिखा हैं कि द्विज मात्र के लिए यज्ञ, अध्यायन और दान ये तीन
कर्म हैं, और ब्राह्मणें के लिए यद्यपि याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह भी हैं,
तथापि उनका करना आवश्यक नहीं हैं, किन्तु यज्ञ आदि का ही।' यह मिताक्षरकार
की सम्मति इस विषय में हैं।
हाँ, जीविका के लिए प्रतिग्रह कर सकते हैं। परन्तु सो भी आपत्काल में जब
उछ, शिल, कृषि और वाणिज्यादि एक भी न हो सके जैसा कि आगे चलकर विदित होगा।
इतने पर भी प्रतिग्रह के बाद प्रायश्चित अवश्य ही करना होगा। क्योंकि
मनुस्मृति चतुर्थ अध्याय में लिखा हैं कि :
अतपास्त्वनधीयान: प्रतिग्रहरुचिर्द्विज:।
अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥ 190॥
अर्थात् 'जो ब्राह्मण वेदादि शास्त्रों को पढ़ने और तपस्या करने वाला नहीं
हैं वह यदि प्रतिग्रह करे तो प्रतिग्रह के साथ ही उसका नाश वैसे ही हो जाता
हैं जैसे पत्थर की नाव चढ़ने वाले के साथ डूब जाती हैं। इसका विशेष विचार
फिर करेंगे। एक बात और भी विचारने योग्य हैं। वह यह कि किसी भी प्रसंग में
सबसे प्रथम प्रधान वस्तु का ही नाम लिया जाता हैं, जैसे सभा में सभापति का
इत्यादि। अब यदि इन षट् कर्मों के बतलाने वाले वाक्यों को देखते हैं तो सभी
में प्रथम यजन, अध्यायन और दान के नाम आते हैं, पश्चात् याजन, अध्यापन और
प्रतिग्रह के। इतनी बात अवश्य हैं कि अध्यापन (पढ़ाना) तीन प्रकार के होते
हैं। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा हैं :
अध्यापनं च त्रिविधां धर्मार्थ मृक्थ कारणात्।
शुश्रूषाकरणं चेति त्रिविधां परिकीर्त्तितम्॥ 18॥
अर्थ यह हैं कि 'अध्यापन' तीन प्रकार के होते हैं, (1) धर्म के लिए, (2)
सेवा कराने के लिए, (3) धन प्राप्ति के लिए। अत: प्रथम के दो अंशों को लेकर
अध्यापन भी याजन (यज्ञ कराने) और प्रतिग्रह की अपेक्षा उत्तम हैं। इसीलिए
कहीं-कहीं अध्यापन को भी प्रथम लिख देते हैं। जैसा कि-
अध्यापनमध्यायनं यजनं याजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥-मनु
यदि यज्ञ भी केवल परोपकारार्थ कराया जाये न कि दक्षिणा लेकर, तो वह भी किसी
प्रकार अच्छा कहा जा सकता हैं। अतएव कहीं-कहीं एकाध स्थल में उसका नाम भी
प्रथम लिया हैं। जैसा कि हारीतस्मृति के प्रथम अध्याय में लिखा हैं :
अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव षट् कर्माणीति प्रोच्यते॥ 18॥
परन्तु प्रतिग्रह का नाम तो कहीं भी प्रथम नहीं आया हैं। इसलिए वह
महानिकृष्ट हैं। अध्यायन, यजन और दान इन तीनों में से भी अध्यायन (पढ़ना)
सर्वोच्च हैं क्योंकि उससे परमात्मा के ज्ञान द्वारा मुक्ति मिल सकती हैं
और शास्त्र एवं कर्मों के ज्ञान से यज्ञादि का अनुष्ठान भी हो सकता हैं।
इसीलिए यज्ञ उससे मध्यम ठहरा, क्योंकि यह उसका फल हैं। यज्ञ में दान भी
होता हैं और जप, हवन आदि भी। अतएव यज्ञ का एक भाग होने के कारण दान यज्ञ से
भी मध्यम अर्थात् कनिष्ठ हुआ। इस तरह से ये अध्यायन, यज्ञ और दान उत्तम,
मध्यम और कनिष्ठ धर्म हैं। इसी से पूर्वोक्त श्लोकों में प्रथम अध्यायन,
बाद यज्ञ और उसके अनन्तर ही दान का नाम आया हैं। इस प्रकार तीन प्रकार के
धर्मों के हो जाने पर अब चौथे प्रकार का धर्म कहाँ से आ सकता हैं? क्योंकि
संसार की सभी वस्तुएँ या तो उत्तम या मध्यम, अथवा कनिष्ठ इन तीनों ही
प्रकारों की होती हैं। इसलिए जो धर्म होंगे उनका इन्हीं तीन अध्यायन आदि
में अन्तर्भाव (मिलाव) करना होगा। परन्तु प्रतिग्रह वगैरह तो इन तीनों में
से किसी में भी मिल नहीं सकते। अत: वे सब कर्म धर्म के लिए नहीं हो सकते।
अतएव मनु भगवान् ने कहा हैं कि :
वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्।
वार्ता कर्मैव वैश्यस्य विशिष्टानि स्वकर्मसु॥ 108॥
इसका तात्पर्य यह हैं कि ''ब्राह्मण के कर्मों में वेदाभ्यास सबसे उत्तम
हैं। एवं क्षत्रिय के कर्मों में रक्षा करना और वैश्य के कर्मों में
व्यापार सर्वश्रेष्ठ हैं। अर्थात् इस तीन ब्राह्मणादि वर्णों को क्रम से
वेदाभ्यास आदि तीनों में विशेष ध्यान देना चाहिए''। अतएव अब इस शंका का भी
अवसर न रहा कि यदि ब्राह्मण के भी तीन कर्म हैं और क्षत्रिय, वैश्य के भी
तीन ही, तो फिर उनमें भेद ही क्या रहा? क्योंकि यद्यपि तीनों के लिए
अध्यायन आदि समान ही धर्म हैं तथापि ब्राह्मण का प्रधान धर्म वेदाभ्यास
हैं, क्षत्रियों का तीनों से अतिरिक्त रक्षा ही प्रधान धर्म हैं, एवं वैश्य
का व्यापार। क्योंकि यदि क्षत्रिय रक्षक और वैश्य वाणिज्यकर्ता न हो तो
विविध उपद्रव और धन की कमी से सब धर्म ही मिट्टी में मिल जाये। इसलिए
क्षत्रिय और वैश्यों के लिए इन्हें ही प्रधान कर्म बतलाना बहुत ही
युक्तिसंगत हैं और इन प्रधान कर्मों के भेद से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय और
वैश्य की परस्पर विलक्षणता हो गयी। दूसरी बात यह हैं कि यदि ये धर्मार्थक
कर्म तीनों के समान भी हो जाये तो भी जीविका के कर्म तीनों के भिन्न-भिन्न
हैं। अत: उन्हीं के भेद से तीनों का परस्पर भेद हो सकता हैं। क्योंकि
ब्राह्मणों के ही लिए शिल, उछादि बतलाये गये हैं, न कि क्षत्रिय और वैश्यों
के लिए भी वे जीविकाएँ हैं। बल्कि हमारी समझ में ऐसी शंका करना ही न चाहिए।
क्योंकि हम लोग (सनातनधर्मानुयायी) जन्म से ही जाति-भेद मानते हैं, न कि
कर्मों से। नहीं तो ब्राह्मण और क्षत्रियों की एकता न हो जाये इस डर से यदि
ब्राह्मणों के षट् कर्म अवश्य माने जाये, तो यह पूछ सकते हैं कि अस्तु, यही
बात रहे, परन्तु क्षत्रियों और वैश्यों में परस्पर भेद कैसे रहेगा? क्योंकि
उन दोनों के लिए तो धार्मिक कर्म अध्यायन, यजन और दान तीन ही हैं। अत: ऐसी
शंका करना अनभिज्ञता मात्र हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति के आचाराध्याय में भी
लिखा हैं कि :
प्रधानं क्षत्रिये कर्म प्रजानां परिपालनम्।
कुसीदकृषिवाणिज्यं पाशुपाल्यं विश: स्मृतम्॥ 119॥
अर्थात् ''क्षत्रिय का प्रधान कर्म प्रजारक्षण और वैश्य के प्रधान कर्म सूद
पर रुपया देना, कृषि, वाणिज्य एवं पशुपालन हैं''। इसी जगह मिताक्षरा में
लिखा हैं कि :
क्षत्रियस्य प्रजापालनं प्रधानं कर्म धर्मार्थं वृत्यर्थं च। वैश्यस्य
कुसीदकृषिवाणिज्य
पशुपालनानि वृत्यर्थानि कर्माणि।
अर्थात् ''क्षत्रिय का प्रजापालन ही प्रधान कर्म हैं जो धर्म और जीविका
दोनों के लिए हैं एवं वैश्य के सूद पर रुपये देने, कृषि, वाणिज्य और
पशुपालन प्रधान कर्म हैं। इससे यह भी सूचित होता हैं कि कृषि वाणिज्यादि
ब्राह्मणों के अप्रधान कर्म अवश्य हैं, हाँ वे प्रधान नहीं हो सकते यह
दूसरी बात हैं। इन वाक्यों तथा गीता के 18वें अध्याय के 42, 43 और 44
श्लोकों में भी लिखे गये ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के धर्मों को देखकर
मूर्ख से भी मूर्ख को यह शंका नहीं हो सकती कि ''ब्राह्मणों के तीन ही कर्म
मानने से क्षत्रिय और वैश्यों से उनका भेद न रह जायेगा।'' इसलिए ब्राह्मणों
को त्रिकर्मा कहना बहुत ही युक्ति-युक्त हैं, न कि जीविका के कर्मों को
मिलाकर षट्कर्मा। क्योंकि ऐसी दशा में शतकर्मा या सहस्रकर्मा क्यों न कहना
चाहिए? क्योंकि मनुस्मृति चतुर्थाध्याय के अनुसार, जैसा अभी जीविकार्थक
कर्मों के प्रकरण में दिखलायेंगे, शिल, उछ, कृषि, वाणिज्य और सूद पर रुपये
देने भी ब्राह्मणों की अनापत्ति काल की जीविकाएँ हैं। बल्कि प्रतिग्रह
वगैरह ही आपत्ति काल की जीविकाएँ हैं, जैसा कि वहीं विदित होगा। एवं पुराण,
इतिहास तथा पराशर आदि स्मृतियों और शिष्टाचारों द्वारा भी राज्य, कृषि
सेनापति के कार्य और युध्दादि भी ब्राह्मणों के कर्म बतलाये जायेगे। यदि
जीविका के कर्म भी परस्पर या धर्मार्थक माने जाये, तो स्नान तथा
मल-मूत्रादि के त्याग प्रभृति भी उसी में आ जायेगे, जिससे बलात् षट्कर्मा
मानने के बदले शत या सहस्र कर्मा मानना ही पड़ जायेगा। अत: यह निर्विवाद
सिद्ध हैं कि वास्तव में ब्राह्मण त्रिकर्मा ही होते हैं, जैसे कि आजकल
अयाचक (भूमिहार, पश्चिम, तगे या दान-त्यागी, महियाल, नागर, प्राय:
कान्यकुब्ज और बहुत से पंक्तिबद्ध सर्यूपारी) ब्राह्मण पाए जाते हैं। अथवा
यों कहना चाहिए कि सभी प्रान्तों में किसी-न-किसी नाम या रूप में त्रिकर्मा
अथवा अयाचक ब्राह्मण पाए जाते हैं।
यदि षट्कर्मा ही मानने में आग्रह हो तो सच्चे षट्कर्मा क्यों नहीं मानते?
जैसे कि अयाचक ब्राह्मण भी पाए जाते हैं। क्योंकि मनुजी ने चतुर्थाध्याय के
प्रारम्भ में शिल, उछ, याचित, अयाचित, कृषि और वाणिज्य रूप छह जीविकाओं को
ब्राह्मणों के निमित्ता गिनाकर कहा हैं कि :
षट्कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्रवर्त्तते
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रोण जीवति॥ 9॥
अर्थ यह हैं कि 'इन पूर्वोक्त चतुर्विधा ब्राह्मणों में कोई तो षट्कर्मा
होता हैं अर्थात् पूर्वोक्त शिल, उ×छ आदि छह जीविकाएँ करता हैं, कोई प्रथम
के शिल आदि तीन ही, कोई दो ही और कोई शिल और उ×छ में से एक ही करता हैं, इस
वचन के अनुसार षट्कर्मा भी मानिये, हमें त्रिकर्मा ही मानने में आग्रह नहीं
हैं। क्योंकि ये छह कर्म याचक और अयाचक ब्राह्मणों में समान ही हैं, किसी
में कुछ भी कमी नहीं हैं।
अथवा पराशरस्मृति में कहे गये सन्ध्या-स्नान आदि छह कर्मों को जिनका वर्णन
प्रथम कर चुके हैं जो केवल धर्मार्थक ही हैं, लेकर भी दोनों प्रकार के
(अयाचक और याचक) ब्राह्मण षट्कर्मा कहे जा सकते हैं क्योंकि यह नियम भी हैं
कि 'कलौ पाराशरा: स्मृता:' अर्थात् ''कलियुग में पराशरस्मृति में कहे गये
धर्म ही माने जा सकते हैं, और उन्होंने स्पष्ट रूप से 'षट्कर्माणि दिने
दिने' अर्थात् सन्ध्या-स्नानादि छह कर्म प्रतिदिन करने चाहिए'' ऐसा लिख
दिया हैं। इसलिए इन धार्मिक षट् कर्मों को लेकर ही षट्कर्मा मानना बहुत ही
उचित होगा जैसा कि दिखला चुके हैं। अत: अयाचक ब्राह्मण त्रिकर्मा या
षट्कर्मा दोनों ही कहे जा सकते हैं और, साथ ही, अन्य ब्राह्मण भी। इस विषय
का अवशिष्ट विवेचन अगले ग्रन्थ में चलकर होगा। उपसंहार में हम केवल इतना और
कह देना चाहते हैं कि जब मनुजी स्वयं लिख देते हैं कि 'धर्मस्तु
दानमध्यायनं यजि:' (10/79) अर्थात् 'धर्मार्थक अथवा स्वयं धर्म स्वरूप कर्म
तो दान, यज्ञ और अध्यायन (पढ़ना) ये तीन ही हैं, तो फिर इस विषय में विवाद
ही क्या हैं? क्या इनमें कुछ ऐसी विशेषता हैं कि क्षत्रियादि के लिए ये
धर्म हो न कि ब्राह्मणों के लिए? क्या किसी विचारहीन के केवल कथन मात्र ही
से प्रतिग्रह आदि भी अपने वास्तव कलुषित स्वरूप को (जैसा कि सभी जानते और
मानते हैं) छिपाकर धर्म बन जायेगे? क्या लोग नहीं जानते हैं कि धर्म के नाम
पर प्रतिग्रह लेना केवल फिर से धोने के लिए पंक में पाँव को घुसेड़ना हैं और
धर्मशास्त्रकार चिल्ला-चिल्लाकर उन्हें रोकते हैं कि ऐसा न करो? क्या कोई
भी विचारवान् और नैष्ठिक ब्राह्मण प्रतिग्रह को उचित समझता हैं?
इस विषय में एक बात और कहकर इस प्रकरण की समाप्ति और जीविकार्थक कर्मों के
विचार के प्रकरण का आरम्भ करेंगे। वह यह कि अध्यापन (पढ़ना), याजन (यज्ञ
कराना) आदि कर्म काम्य हैं, अर्थात् इच्छा रहने पर ही किये जा सकते हैं।
परन्तु अध्यायन (पढ़ना) आदि तो नित्य हैं, अर्थात् उनके करने की इच्छा न
रहने पर भी उन्हें करना ही पड़ेगा। इसीलिए अध्यापन आदि करने के लिए शास्त्र
बाधित नहीं कर सकता, बल्कि अपनी इच्छा के अनुसार ही लोग उसे कर सकते हैं या
नहीं। क्योंकि काम्य कर्मों से यथानुष्ठान-शक्ति का नियम हैं, जिसका
तात्पर्य यह हैं कि जिस काम्य कर्म करने की इच्छा हो उसके सांगोपांग
अनुष्ठान और प्रायश्चित्त वगैरह करने की शक्ति यदि हो तो उसे करे, नहीं तो
उसे न करे। परन्तु नित्य कर्मों को तो अवश्य करना ही होगा। इसलिए उनके विषय
में यथाशक्त्यनुष्ठन का नियम हैं; जिसका भाव हैं कि नित्य कर्मों को
जीवनपर्यन्त करना आवश्यक हैं। परन्तु जीवन-भर सब अंगों सहित करने की शक्ति
नहीं रह सकती क्योंकि जरावस्था में स्नान या प्राणायाम आदि नहीं कर सकते।
इसलिए प्रधानकर्म को न छोड़कर उसके करते हुए स्नान प्रभृति उसके अंगों को
यथाशक्ति करना चाहिए। इसीलिए यद्यपि नित्य और काम्य दोनों प्रकार के कर्मों
के फल होते हैं, तथापि दोनों में भेद होता हैं। इसी बात को श्री पार्थ
सारथि मिश्र ने अपने मीमांसा ग्रन्थ 'न्यायरत्नमाला' में इस प्रकार लिखा
हैं कि :
काम्ये तु निमित्तावाक्यस्य कश्चिद्विरोधो नास्तीत्यंगान्य
पेक्षितान्युपसंहियन्ते इति निखिलांग युक्तस्यैव प्रयोग:, नित्ये तु
यथोक्तन्यायेनांगानां यथाशत्क्युपसंहार इति॥
तात्पर्य यह हैं कि जब कि काम्यकर्मों के सांगोपांग का ही अनुष्ठान करने
में किसी भी निमित्त के साथ कोई विरोध नहीं हैं, (क्योंकि जीवन रूपं
निमित्त तो वहाँ हैं ही नहीं, कि जीवन-भर अंगों के न कर सकने से विरोध
होगा, और कामना रूप निमित्त तो आवश्यक नहीं हैं, क्योंकि यदि सांगोपांग
कर्म को नहीं कर सकते तो कामना को छोड़ भी सकते हैं) इसलिए सभी अपेक्षित
अंगों को करना ही पड़ता हैं, न कि उन्हें छोड़कर भी। परन्तु नित्य कर्म तो
पूर्वोक्त प्रकार से जीवन-भर सब अंगों सहित लोग नहीं ही कर सकते हैं; अंगों
के लिए प्रधान कर्म का भी त्याग उचित भी नहीं हैं और जीवन रूप निमित्त
अपरिहार्य हैं। अत: वहाँ यथाशक्ति ही अंग किये जाते हैं। इससे तो स्पष्ट ही
हैं कि अध्यापन आदि कर्म उसी दशा में किये जा सकते हैं, जब उनके करने की
सामर्थ्य और कामना हो, न कि उनके करने के लिए शास्त्र अवश्य बाधित कर सकते
हैं। जैसा कि स्वामी चित्सुखाचार्यजी अपने 'चित्सुखी' (तत्त्व प्रदीपिका)
ग्रन्थ में स्पष्ट ही लिख दिया हैं कि :
किंच तमध्यायपयीतेति च नायमध्यापने विधिर्वृत्तयर्थत्वेनाध्यापनस्य
याजनवत्, प्राप्तत्वात् उक्तं हि षण्णांतु कर्मणामस्य त्रीणिकर्माणि
जीविका। याजनाध्यापने चैव विशुध्दाच्च प्रतिग्रह इति, तस्मात्
यथैतयान्नाद्यकामं याजयेदित्यादिषु याजनं न विधीयते,
किन्त्वेतयान्नाद्यकामो यजेतेति वाक्यार्थस्तथेहाप्यवर्षो ब्राह्मण
उपगच्छेत्, सोधीयीतेति वाक्यार्थ: स्वीकार्य इति॥
इसका अर्थ यह हैं कि 'अष्टवर्षं ब्राह्मणमुपयीत तमध्यापयीत' इस श्रुति में
उपनयन संस्कार करवाने और पढ़ाने की आज्ञा नहीं हैं, क्योंकि जैसे यज्ञ
करवाना जीविका हैं, इसलिए उसका करना लोगों के लिए स्वत: (आप ही आप) सिद्ध
हैं, न कि उसके लिए शास्त्रज्ञा की आवश्यकता हैं, वैसे ही अध्यापन (पढ़ाना)
भी जीविका के ही लिए हैं, क्योंकि मनुजी ने कहा हैं कि छह कर्मों में से
अध्यापन आदि तीन कर्म तो केवल ब्राह्मणों की जीविकाएँ हैं। इसलिए जैसे
'एतयान्माद्यकामं याजयेत्' इस श्रुति में यह आज्ञा नहीं हैं कि अन्नादि
चाहने वाले से 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करवावे, क्योंकि यज्ञ करवाना तो बिना
कहे ही सिद्ध हैं, किन्तु वहाँ यज्ञ करने की ही आज्ञा हैं कि अन्नादि चाहने
वाला 'अवेष्टि' नामक यज्ञ करे, यज्ञ करवाने की आज्ञा केवल ऊपर से प्रतीत
मात्र ही होती हैं। उसी प्रकार यहाँ भी यही आज्ञा हैं कि 8 वर्ष का
ब्राह्मण गुरु के पास जाये और विद्या पढ़े, न कि गुरुओं के लिए पढ़ाने की
आज्ञा हैं, वह तो प्रतीत मात्र होती हैं।
इसी 'चित्सुखी' ग्रन्थ की टीका 'नयनप्रसादिनी' में उसी जगह स्पष्ट शब्दों
में लिख दिया हैं कि :
यथाहि न तावद्यथाश्रुति याजनं विधातुं शक्यं वृत्तयर्थ त्वेन तत्रा स्वत:
एवप्रवृत्तात्वात्, अतो प्राप्तप्रयोज्यरूपसाक्षात् कर्तृव्यापारयागपरो
विधिस्तथेहाप्यन्तो प्राप्तप्रयोज्यमाण वकव्यापारावुपगमनाध्यायने विधीयेते
इत्यर्थ:॥
जिसका अर्थ यह हैं कि जैसे 'अवेष्टि यज्ञ करवाने की आज्ञा नहीं हो सकती,
क्योंकि वह तो जीविका हैं, इसलिए बिना कहे ही उसे लोग कर सकते हैं। किन्तु
यज्ञ करने की ही वहाँ आज्ञा हैं। ठीक वैसे ही गुरु को अपने पास विद्यार्थी
लाने और उसके पढ़ाने की आज्ञा शास्त्रों में नहीं दी गयी हैं। क्योंकि बिना
शास्त्राज्ञा के ही गुरु लोग ऐसा करने में जीविका के लिए तत्पर होते हैं,
किन्तु विद्यार्थी स्वयं गुरु के पास जाये और पढ़े, यही वेद की आज्ञा हैं।
क्योंकि ऐसी आज्ञा के बिना कोई पढ़ नहीं सकता, जबकि हजार शास्त्राज्ञा के
होते भी शास्त्र का पढ़ना दु:साध्य हो रहा हैं। पढ़ाना जीविका हैं इसे तो
बहुत अच्छी तरह दिखला चुके हैं।
परन्तु यदि कोई यह कहे कि पढ़ाना या यज्ञ करवाना आदि काम्य कर्म नहीं हैं,
तो उसके लिए भी 'चित्सुखाचार्यजी' ने पूर्वोक्त प्रसंग में ही लिखा हैं कि
:
तंत्रा संमाननोत्स जनाचार्यकरणेतिसूत्रोणाचार्यकरणे नयतेरात्मनेपदविधानात्,
उपनयीत तमध्यापयीतेतिचोप नयनाध्यापन योरेकप्रयोगतावगमादुपनय
पूर्वकाध्यापनसाध्याचार्यत्वप्रतीतौ तत्कामिनो नियोज्यत्वावगमात्। अपि
चाध्यायनं नित्यं, 'योनधीत्य द्विजोवेदानन्यत्रा कुरुते श्रमम्। स जीवन्नेव
शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वय' इत्यादिना करणेप्रत्यवायस्मरणात्, अध्यापनं
चानित्यंकाम्यत्वात्।
जिसका भावार्थ यह हैं कि 'उपनयीत' इस क्रियापद में जो 'आत्मनेपद'
संज्ञकप्रत्यय लगा हैं वह 'संमाननोत्स जनाचार्यकरण ज्ञानभृतिविगणनव्ययेषु
निय:। 1। 3। 26' इस पाणिनीय सूत्रा के अनुसार आचार्यता सम्पादन के अर्थ में
हुआ हैं। जिसका तात्पर्य यह हैं कि विद्यार्थी के उपनयन संस्कारपूर्वक
पढ़ाने से वह पुरुष उसका आचार्य हो सकता हैं, क्योंकि उपनयन और अध्यापन
(पढ़ाना) ये दोनों एक ही पुरुष केर् कर्त्तव्य प्रतीत होते हैं। अत: जिसको
गुरु (आचार्य) बनने की इच्छा हो वही शिष्य का उपनयन संस्कार और अध्यापन कर
सकता हैं और भी बात हैं कि अध्यायन (पढ़ाना) नित्य कर्म हैं, क्योंकि उसके न
करने से मनुस्मृति में यह दोष लिखा हैं कि जो ब्राह्मण वेदों को न पढ़कर
दूसरे विषय में परिश्रम करता हैं वह जीता ही सपरिवार शूद्र सदृश हो जाता
हैं और नित्य कर्मों के ही न करने में दोष हुआ करता हैं, क्योंकि उनका
लक्षण ही यही हैं कि जिनके न करने में दोष हो। परन्तु अध्यापन तो नित्य
नहीं हैं, क्योंकि उसे कामना रहने पर ही कर सकतेहैं।
इससे सिद्ध हो गया कि ब्राह्मण के लिए अध्यायन (पढ़ना), यजन (यज्ञ) और दान
ही धर्म हैं। उन्हीं का करने वाला श्रेष्ठ समझा जा सकता हैं। प्रतिग्रह,
याजन (यज्ञ करवाने) और अध्यापन (पढ़ाने) के लिए शास्त्रों की आज्ञाएँ तो
नहीं हैं, हाँ जो चाहे वह जीविका के लिए उन्हें उस दशा में कर सकता हैं जब
अन्य कृषि आदि उपाय न हों। इसी से वैसा करने में उत्तम न होकर मध्यम या
कनिष्ठ (हीन) ही हो सकता हैं, जैसा कि विदित हो गया और होगा भी कि उनमें
प्रायश्चित्त वगैरह के बखेड़े लगे हुए हैं, जिनका कर सकना प्राय: सब
प्रतिग्रहियों के लिए असम्भव हैं। और यह भी विदित हो गया कि इन्हीं
प्रतिग्रह आदि तीन कर्मों के न करने और करने से दो प्रकार के ब्राह्मण
सृष्टिकाल से ही चले आते हैं, एक निवृत्त और दूसरे प्रवृत्त, अथवा अयाचक और
याचक। क्योंकि 'रुचीनां वैचित्रयात्' अर्थात् 'सबकी रुचि एक प्रकार की नहीं
हो सकती', इस नियम के अनुसार बहुत से विचारशील और शास्त्र तत्त्व के जानने
वाले पुरुष पुरोहिती और प्रतिग्रह वगैरह से अलग होने लगे, जैसी इच्छा
प्रथमत: वसिष्ठ और विश्वरूपजी ने भी प्रकट की थी और अब तक भी अलग होते जाते
हैं, जिन अयाचकों में ही पश्चिम, भूमिहार, त्यागी, जमींदार आदि ब्राह्मणों
को भी समझना चाहिए। इसके विपरीत बहुत से ब्राह्मण लोग विचार और शास्त्र से
काम न लेकर लोभ और आलस्यवश उन्हीं पुरोहिती और प्रतिग्रह वगैरह कर्मों में
प्रवृत्त हो गये और हो रहे हैं, जिसमें से ही आजकल के भिक्षुक याचक या
पुरोहित दलवाले ब्राह्मण हैं। इसका विशेष विवरण आगे के प्रकरणों में
मिलेगा।
(शीर्ष पर वापस)
2- ब्राह्मण धर्म
(ख) जीविकार्थक कर्म - अब प्रसंगवश इस विषय का विचार करना हम उचित समझते हैं कि
ब्राह्मण किस जीविका को किस दशा में कर सकता हैं और साधारणत: कौन-कौन-सी
जीविकाएँ श्रेष्ठ हैं।
यहाँ पर इस बात के स्मरण रखने से प्रकृत विषय के समझने में सुगमता होगी कि
मनुष्य मात्र के, अतएव ब्राह्मण के भी, सभी धर्म दो प्रकार के होते हैं, एक
आपत्कालिक और दूसरा अनापत्कालिक। इसका तात्पर्य यह हैं कि कुछ धर्म ऐसे
होते हैं जिन्हें मनुष्य उसी दशा में कर सकते हैं जब दूसरा कोई भी उचित
उपाय न मिले, अर्थात् उनके किये बिना किसी प्रकार भी काम न चल सके। जैसे,
यद्यपि सन्ध्या करने के लिए स्नान आदि का करना आवश्यक हैं, तथापि,
रोगावस्था में बिना जल स्नान के भी सन्ध्या का करना आपत्कालिक धर्म हैं।
दूसरे प्रकार के धर्म वे हैं जो बिना किसी रोक-टोक, दबाव या शर्त के ही
सर्वदा किये जा सकते हैं, जैसे अध्यायन (पढ़ना) या सन्ध्यानुष्ठान वगैरह।
इन्हें अनापत्कालिक धर्म कहते हैं। बस, इसी तरह जीविका के लिए भी जिन
उपायों को शास्त्रों में बताया हैं, उनके भी आपत्कालिक और अनापत्कालिक ये
दो विभाग किये गये हैं जो सर्वमान्य मनु भगवान् द्वारा मनुस्मृति के चतुर्थ
और दशम अध्यायों में क्रमश: सुस्पष्टरीति से वर्णित हैं। वे चतुर्थ अध्याय
के प्रारम्भ में ही लिखते हैं कि :
चतुर्थमायुषोभागमुषित्वाद्यं गुरौ द्विज:।
द्वितीयमायुषोभागंकृतदारो गृहे वसेत्॥ 1॥
अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुन:।
या वृत्तिस्तां समास्थायविप्रीजीवेदनापदि॥ 2॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ब्राह्मण अपने सम्पूर्ण आयु का प्रथम चतुर्थांश
ब्रह्मचर्य आश्रम द्वारा गुरु के पास बिताकर, द्वितीय चतुर्थांश में विवाह
करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे और ऐसी दशा में जबकि उसके ऊपर किसी प्रकार
की आपत्ति या दबाव न हो, अर्थात् ''अनापत्काल में (जैसा कि ऊपर दिखला चुके
हैं) ऐसे-ऐसे उपायों द्वारा जीविका करे जिनसे अन्य प्राणियों को या तो पीड़ा
ही न हो, या हो भी तो बहुत थोड़ी।'' क्योंकि शिल और उ×छ आदि में भी
प्राणियों की पीड़ा अनिवार्य हैं। फिर लिखते हैं कि :
यात्रामात्रप्रसिद्धयर्थं स्वै: कर्मभिरगर्हितै:।
अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्॥ 3॥
''अर्थात् शरीर यात्रा के लिए ऐसे विहित उपायों द्वारा धन एकत्र करे जिनसे
बहुत क्लेश न हो, (क्योंकि प्रतिग्रह आदि लेने में प्रायश्चित्त करने पड़ते
हैं, जिनसे शारीरिक क्लेश होता हंा और अपने हाथों से ही हल जोतने में भी)
और जिनका धर्म शास्त्रों में निषेधन हो, (क्योंकि अपने हाथों हल जोतकर कृषि
करने और प्रतिग्रह इत्यादि का निषेध हैं। जैसा कि विदित होगा)।'' प्रथम के
दो श्लोकों में जिन उपायों का सामान्य रूप से वर्णन किया हैं उन्हीं को मनु
भगवान् इन अगले श्लोकों में विशेष रूप से गिनाते हैं। जैसा कि :
ऋतामृताभ्यां जीवेत्तु मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥ 4॥
अर्थ यह हैं कि ''अनापत्काल में ब्राह्मण ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और
सत्यानृत नामक उपायों द्वारा शरीर यात्रा करे, परन्तु श्व (श्वान) वृत्ति
नामक जीविका का तो कभी भी अवलम्बन न करे।'' फिर भी मनुजी ने यह विचारा कि
कदाचित् ऋत आदि शब्दों के अर्थ लोग व्याकरण आदि के बल से मनमाना करने लग
जाये (जैसी कि कुल्लूकभट्ट प्रभृति टीकाकारों ने फिर भी टाँग अड़ाई हैं),
इसलिए अगले श्लोकों में आप ही उन शब्दों के अर्थ बतलाते हुए यह सूचित करते
हैं कि वे ऋत और अमृत आदि नाम वैसे ही हैं, जैसे अश्वगन्धा, शालपर्णी
मण्डप, ओदनपाकी और गदहपूर्णा वगैरह नाम औषधियों आदि के हैं, न कि यौगिक
हैं। अर्थात् उनके अक्षरों से अर्थ निकाले नहीं जा सकते, ऐसा करना नितान्त
भूल हैं क्योंकि गद्हपूर्णा का यह अर्थ कभी नहीं हो सकता कि गद्हों से भरी
हुई, या मण्डप शब्द का अर्थ 'माँड़ पीने वाला' नहीं हो सकता। वे श्लोक ये
हैं :
ऋतमु छशिलं ज्ञेयमतृतं स्यादयाचितम्।
मृतं तु याचितं भैक्ष्यं प्रमृतं कर्षणं मतम्॥ 5॥
सत्यानृतं तु वाणिज्यं तेन चैवापि जीव्यते।
सेवाश्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्॥ 6॥
तात्पर्य यह हैं कि 'ऋत नाम उ×छ और शिल वृत्तियों का हैं, (^m×छ: कणश आदानं
कणिशाद्यर्जनं शिलम्' इस वृद्ध वचन के अनुसार अन्न विक्रय के स्थान तथा
खेतों में जाकर पड़ी हुई बालों और दानों के चुनने को उ×छ और शिल कहते हैं)
बिना माँगे यदि कुछ अन्न केवल भोजनार्थ मिल जाये तो उसे अमृत, भ्रमर की तरह
द्वार-द्वार पर जाकर माँगने से जो मिले उसे मृत, और कृषि (खेती) को प्रमृत
कहते हैं। वाणिज्य अर्थात् व्यापार और उचित सूद पर रुपये देने को सत्यानृत
कहते हैं। ये सभी जीविका के उपाय ब्राह्मणों के लिए हैं। परन्तु श्व
(श्वान) वृत्ति तो नौकरी का नाम हैं, अत: उसका परित्याग कर देना चाहिए। इन
पाँच नामवाली अनापत्कालिक पाँच जीविकाओं में से जिसे चाहे उसे ही ब्राह्मण
जब चाहे तभी कर सकता हैं, इनमें से किसी के भी करने से उत्तम या मध्यम नहीं
समझा जा सकता। क्योंकि आगे चलकर मनु भगवान् ही स्पष्ट रूप से लिखते हैं :
अतोन्यतमयावृत्या जीवंस्तु स्नातको द्विज:।
स्वर्गायुष्ययशस्यानि व्रतानीमानिधारयेत्॥ 13, अ. 4॥
अर्थात् ''इसलिए गृहस्थ ब्राह्मण पूर्वोक्त पाँच जीविकाओं में से मनचाहे
जिसे करता हुआ (क्योंकि इस श्लोक में 'अन्यतम' शब्द का प्रयोग हैं, जो ऐसी
जगह बोला जाता हैं जहाँ पर बहुत सी बराबर वस्तुओं में से जिसे दिल चाहे उसे
स्वीकार कर सकें। हिन्दी में इसकी जगह 'इनमें कोई' ऐसा बोला जाता हैं)
स्वर्ग, आयु और यश देने वाले आगे कहे गये व्रतों का पालन करें।'' हाँ इतनी
बात अवश्य हैं कि जो प्राचीन महर्षियों (क्योंकि ऋषि लोग भी संन्यासी न थे,
प्रत्युत गृहस्थ ही थे, कारण सन्तान वाले थे) की तरह उपराम रहना पसन्द करें
एवं अहर्निश शास्त्र चिन्ता तथा अरण्य निवास को ही रुचिकर और सुखद समझें,
उनके लिए उस दृष्टि से शिल, उ×छ आदि ही श्रेयस्कर (कल्याण साधक या उत्तम)
हो सकते हैं, यह दूसरी बात हैं। परन्तु जो संसार में प्रवृत्ता हैं उनके
लिए तो सभी बराबर हो सकते हैं और हैं भी।
यहाँ इतना और समझ लेना चाहिए कि प्रवृत्त वाले जो ब्राह्मण कृषि, वाणिज्य
आदि करते हैं और जो निवृत्ति वाले केवल उ×छ, शिल वगैरह ही करते हैं उन
दोनों में से किसी अंश को लेकर प्रथम श्रेणी के श्रेष्ठ हैं और किसी अंश
में द्वितीय श्रेणी के। परन्तु प्रवृत्ति वाले होकर भी केवल शिल, उ×छ करने
वाले तो किसी भी गिनती में नहीं हैं। इसीलिए भगवान् मनु ने चतुर्थ अध्याय
में ही लिखा हैं कि :
कुसूलधान्यको वा स्यात् कुम्भीधान्यक एव वा।
त्रयहैंहिको वापि भवेदश्वस्तनिक एव वा॥ 7॥
चतुर्णामपि चैतेषां द्विजानां गृहमेधिनाम्।
ज्यायान्पर: परो ज्ञेयो धर्मतो लोकजित्ताम:॥ 8॥
याज्ञवल्क्य स्मृति के आचाराध्याय में लिखा हैं कि :
कुसल: कुम्भीधान्यो वा त्रयाहिकोश्वस्तनोपि वा।
जीवेद्वापि शिलो×छेन श्रेयानेषां पर: पर:॥ 128॥
सब वाक्यों का तात्पर्य यह हैं कि गृहस्थ ब्राह्मण चार प्रकार के होते हैं,
कोई 3 वर्षों तक के लिए बड़े-बड़े कोठों में अन्न एकत्रित रखते हैं, कोई बारह
या छह मासों के लिए, कोई तीन दिनों के ही लिए और कोई एक दिन के लिए भी
नहीं। इन चारों में से जो एक-दूसरे से बड़े हैं वे श्रेष्ठ हैं। क्योंकि वे
धर्म के द्वारा स्वर्ग आदि लोकों या ब्रह्मलोक को प्राप्त कर सकते हैं।
इसके दो अभिप्राय हैं। एक तो यह हैं कि 7वें श्लोक में गिनाए हुए
ब्राह्मणों के प्रकार 8वें श्लोक की अपेक्षा ज्यों-ज्यों दूर होते गये हैं
त्यों-त्यों श्रेष्ठ हैं। अर्थात् एक दिन के लिए भी न रखने वाले से 3 वर्ष
वाले। क्योंकि जिसके पास जितना ही अधिक धन होगा वह उतना ही दान और यज्ञ
वगैरह अधिक करें स्वर्ग आदि लोकों में जायेगा तथा ज्योतिष्टोम आदि विशाल
यज्ञों द्वारा भी वही उन विलक्षण-विलक्षण लोकों को प्राप्त कर सकेगा।
क्योंकि लिखा हैं कि :
त्रैवार्षिकाधिकान्नो य: स हि सोम पिवेद्द्विज:।
प्राक्सौमिकी: क्रिया: कुर्याद्यस्यान्नं वार्षिकंभवेत्॥ 124 या.॥
यस्य त्रौवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्ताये।
अधिकं वापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति॥ 7॥ म. अ. 11
त्रौवार्षिकाधिकान्नस्तुपिवेत्सोममतन्द्रित:॥ 16॥ शं. अ. 5
''जिसका अर्थ यह हैं कि जिस ब्राह्मण के पास 3 वर्षों या उससे अधिक तक के
लिए भोजन वगैरह के सामान अन्न आदि हो वह ज्योतिष्टोम यज्ञ करे। परन्तु
जिसके पास एक ही वर्ष के लिए हो वह केवल अग्निहोत्र तथा दर्शपूण्रा मास आदि
कर्म करे।'' यही अर्थ दूसरे और तीसरे महर्षि वचन रूप श्लोकों का भी हैं।
दर्श पूर्णमास या ज्योतिष्टम यंज्ञ करने से स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति
होती हैं, इस बात में बहुत सी स्मृतियाँ और दर्श पूर्णमासाभ्यां स्वर्ग
कामो यजेत् 'ज्योष्टोमेन स्वर्ग कामो यजेत्' अर्थात् ''स्वर्ग की इच्छा
करने वाला पुरुष दर्शपूर्ण मास और ज्योतिष्टोम यज्ञ करे'' इत्यादि
श्रुतियाँ भी प्रमाण हैं। इस प्रकार से बहुत धनी कृषि और वाणिज्य आदि करने
वाला गृहस्थ ब्राह्मण ही उत्तम हुआ।
दूसरा अभिप्राय उन पूर्वोक्त वाक्यों का यह हैं कि जो एक के बाद दूसरे उस
श्लोक में लिखे हुए हैं वे क्रमश: श्रेष्ठ हैं। अर्थात् 3 वर्ष वालों से छह
मास वाले, उनसे तीन दिन वाले और उनसे भी, जिनके पास एक दिन के लिए भी अन्न
वगैरह नहीं हैं, वे श्रेष्ठ हैं। इसी अर्थ को कुल्लूकभट्ट नामक टीकाकार ने
पसन्द किया हैं। परन्तु जब उनके ऊपर यह संकट आ पड़ा हैं कि ऐसे लोग उन
स्वर्ग आदि लोकों को कैसे प्राप्त कर सकते हैं। जिनके प्राप्त करने से ही
मनुजी ने इन्हें उत्तम बतलाया हैं? क्योंकि आप जिन्हें श्रेष्ठ बताते हैं
वे तो क्रमश: बिलकुल ही धनहीन हैं। तो उन्होंने कहीं से कुछ प्रमाण न देकर
(जैसा कि पूर्व के अर्थ में स्वयं मनुजी के वचन ही प्रमाण स्वरूप दिखलाये
गये हैं और अन्य ऋषियों के भी) वहाँ पर केवल इतना ही लिख दिया हैं कि
'वृत्तिसंकोचधार्मेण स्वर्गादिलोकजित्तामो भवति'। जिसका भाव यह हैं कि ''वह
जीविका के संकोच रूप धर्म के बल से स्वर्ग आदि लोगों को प्राप्त कर सकता
हैं''। परन्तु इनसें तो काम चल सकेगा नहीं; क्योंकि केवल भीख माँगने से
स्वर्ग मिलता हैं इस बात में तो भगवान् मनु तथा अन्य महर्षियों की सम्मति
कहीं भी नहीं पाई जाती। इसीलिए यह दूसरे अभिप्राय वाला पक्ष दुर्बल और
प्रथम ही पक्ष प्रबल अथवा ठीक हैं। यदि दूसरे अभ्रिप्राय को भी मानने में
आग्रह हो तो केवल कुल्लूकभट्ट के कथन से काम न चलेगा। हाँ, इतना अवश्य होगा
कि जब जीविका का संकोच होते-होते ब्राह्मण चतुर्थ प्रकार का हो जायेगा,
अर्थात् उसके पास एक दिन के लिए भी भोजन आदि का सामान न रहेगा, तो जैसा कि
छान्दोग्योपनिषद् के पंचम प्रपाठक के 9वें खण्ड में लिखा हैं कि :
तद्यइत्थं विदुर्येचेमे रण्ये श्रध्दातप इत्यपासते,
ते र्चिषमभिसम्भवन्ति...ब्रह्मगमयति इत्यादि॥
जिसका भावार्थ यह हैं कि ''जो गृहस्थ शास्त्रभ्यासी और पूर्वोक्त पंचाग्नि
विद्या के उपासक होते हैं, तथा जो वानप्रस्थ एवं ब्रह्मचारी आदि जंगलों में
श्रध्दापूर्वक तप करते हैं, वे अर्चिरादि मार्ग (उत्तरायण) द्वारा क्रमश:
ब्रह्मलोक में जाते हैं।''
अथवा जैसा कि शतपथ ब्राह्मण में लिखा हैं कि 'स घृतकुल्या पितृंस्तर्पयति'
इत्यादि। अर्थात् ''नियमपूर्वक प्रतिदिन वेदादि का अभ्यास करने वाला सभी
कर्मों के फल प्राप्त कर लेता हैं,'' इसके अनुसार वही प्रथम प्रकार का
ब्राह्मण ब्रह्मलोकादि प्राप्त कर सकता हैं, न कि दूसरे और तीसरे भी।
इसीलिए यद्यपि इस द्वितीय अभिप्राय के वर्णन में मनुजी के भाव का संकोच
अवश्य होता हैं, तथापि हम इस अभिप्राय को भी स्वीकार कर लेने में कोई बाधा
उपस्थित नहीं करते। अत: सिद्ध हो गया कि कृषि आदि के करने वाले भी ब्राह्मण
न करने वालों से किसी प्रकार से हीन नहीं हैं। किन्तु दोनों समान हैं। उ×छ,
शिल आदि करने वाले विशेष रूप से शास्त्रभ्यास और उसके द्वारा उत्तम-उत्तम
फल प्राप्त कर सकते हैं यह दूसरी बात हैं। एतावता वह जीविका मन्त्रदि
महर्षियों की दृष्टि में मध्यम नहीं हैं।
जब यह विचार उठा कि पूर्वोक्त चतुर्विध ब्राह्मण किन-किन उपायों द्वारा
अन्न संग्रह कर सकते हैं, तो मनुजी स्वयं उत्तर देते हैं कि :
षट्कर्मैको भवत्येषां त्रिभिरन्य: प्रवर्त्तते।
द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रेण जीवति॥ 9॥
इसका अर्थ मेधातिथि ने ऐसा लिखा हैं कि :
कुसूलधान्यादीनां मध्यादेक: कुसूलधान्यक: प्रकृतैरु×छशिलायाचितया-
चितकृषिवाणिज्यै: षट्कर्मा भवति षड्भिर्जीवति। अन्योद्वितीय: कुम्भीधान्यक:
कृषिवाणिज्ययोर्निन्दितत्वात् तत्तयाग उ×छ शिलायाचितयाचितानां
मध्यादिच्छातास्त्रिभरिर्वत्ताते। एकस्त्रयहैंहिको याचित लाभं
विहायो×छशिलायाचितानां मध्यादिच्छया द्वाभ्यांर् वत्ताते। चतुर्थ:
पुरनश्वस्तनिको ब्रह्मसत्रोण जीवति। ब्रह्मसत्रांशिलो×छयोरन्यतरावृत्ति-
र्ब्रह्मणोब्राह्मणस्यसततभवत्वात्सत्राम्।
इसका मर्मानुवाद यह हैं कि :
''कुसूलधान्यादि संज्ञक चार प्रकार के
ब्राह्मणों में से कुसूलधान्यक पूर्वोक्त उ×छ, शिल, अयाचित, याचित, कृषि और
वाणिज्य से जीविका करता हुआ षट्कर्मा कहलाता हैं। कुम्भी धान्यक कृषि और
वाणिज्य को छोड़कर शेष चार में से तीन ही करता हैं, क्योंकि अपने हाथों उनके
करने का निषेध हैं (और अन्य द्वारा करवाने में पराधीनता होती और द्रव्य
व्यय होता हैं) जैसा कि आगे विदित होगा। तीसरा त्रयहैंहिक नाम वाला याचित
को अच्छा न समझ अवशिष्ट तीन में से दो ही करता हैं और अश्वस्तनिक नाम का तो
केवल शिल अथवा उ×छ करता हैं, जिनका नाम ब्रह्मसत्रा हैं, क्योंकि वे ब्रह्म
अर्थात् ब्राह्मण के लिए सतत (सदा) होते हैं। यह मेधातिथि का ही अर्थ यहाँ
पर उचित हैं। क्योंकि इस श्लोक के अन्त में जब उनके मत से शिल, उ×छ का
वर्णन आया हैं, तभी अगले श्लोक के साथ संगति (सम्बन्ध) भी होती हैं। कारण
उस श्लोक में भी शिल, उ×छ का नाम लेते हुए उसके साथ कुछ विशेष बातें कही गई
हैं, जैसाकि :
वर्तयंश्च शिलो×छाभ्यामग्निहोत्रापरायण:।
इष्टी: पार्वायनान्तीया: केवल निर्वपेत्सदा॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''शिल, उ×छ वाले के पास बहुत धन न होने से वह बडे-बड़े
यज्ञ नहीं कर सकता। इसलिए वह केवल अग्निहोत्र और दर्श पूर्णमास तथा आग्रायण
यज्ञ करे।''
पूर्वोक्त षट्कर्मैको इत्यादि श्लोक के अर्थ में कुल्लूकभट्ट ने जो याजन,
अध्यापन और प्रतिग्रह का नाम लिया हैं वह उनका अकाण्डताण्डव मात्र हैं।
क्योंकि याजन आदि का तो चतुर्थ अध्याय में प्रसंग ही नहीं हैं। उनकी यह आशा
कि ''अद्रोहेणैव इत्यादि श्लोक से इनकी सिद्धि हो सकती हैं, निराशा मात्र
हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि इस 'अद्रोहेणैव' श्लोक में याजन आदि का भी
सामान्य रूप से संग्रह हैं। यदि ऐसी बात न होती और केवल आगे कही हुई मात्र
जीविकाओं का सामान्य रूप से इस श्लोक में कथन होता तो फिर इस श्लोक की
आवश्यकता ही क्या थी? परन्तु विचारने की बात तो यह हैं कि यदि इस युक्ति से
इस श्लोक से ऋत आदि से भिन्न याजन आदि की सिद्धि मानी जाये तो इससे अगले
'यात्रामात्र प्रसिद्धयर्थ' इस श्लोक से भी किसी और जीविका की सिद्धि होनी
चाहिए। परन्तु इस श्लोक में तो वे भी यही मानते हैं कि आगे कहे हुए उपायों
का साधारण रूप से कथन हैं।
अतएव टीका में आप ही लिखते हैं कि 'कै:कर्मभिरित्यत्राहऋतामृताभ्यामिति।'
अर्थात् पूर्व श्लोकों में जो 'कर्मभि' यह पद पड़ा हैं उससे किन-किन कर्मों
को लेना चाहिए इस तात्पर्य से मनुजी 'ऋतामृताभ्यां' यह अलग श्लोक पढ़ते हैं।
इससे स्पष्ट हैं कि 'अद्रोहेणैव' इस श्लोक में भी केवल ऋत आदि का सामान्य
रूप से कथन करते हुए यह शिक्षा दी गयी हैं कि प्राणियों की पीड़ा का ध्यान
सर्वदा रखना चाहिए और 'यात्रामात्र' इस श्लोक में 'अगर्हितै:' यह विशेषण
देकर निन्दित अर्थात् अपने हाथों हल जोतकर खेती करने आदि को मना किया हैं।
बस, इतनी ही विशेषता इन दोनों श्लोकों के पृथक् बनाने में हैं। यह भी स्मरण
रखना चाहिए कि शास्त्रकारों का यह नियम सर्वदा रहता हैं कि प्रथम सामान्य
रूप से वस्तु को कहते हैं फिर विशेष रूप से। क्योंकि सामान्य ज्ञान बिना
उसके विशेष की जिज्ञासा ही नहीं होती। जो आम को ही नहीं जानता वह कभी भी यह
प्रश्न नहीं कर सकता कि वे कितने प्रकार के होते हैं। इसीलिए सृष्टि प्रकरण
में प्रथम सामान्य रूप से यह कह दिया हैं कि :
मांवित्तास्य सर्वस्यस्रष्टारं द्विजसत्तामा:। 1 अ., 33, म.।
अर्थात् ''मुझे इस सम्पूर्ण सृष्टि का कर्ता जानो।'' फिर उसी बात को विशेष
रूप से कहने लगे कि 'अहं प्रजा: सिसृक्षुस्तु' इत्यादि। अर्थात् 'मैं
सृष्टि की इच्छा से' इत्यादि। इसी प्रकार से न्याय आदि दर्शनों में प्रथम
द्रव्य, गुण आदि पदार्थों को सामान्य रूप से कहकर फिर द्रव्य आदि के विशेष
पृथ्वी और जल आदि को कहा हैं, न कि प्रथम सामान्यतया द्रव्य कहने से पृथ्वी
आदि से भिन्न ही कोई वस्तु समझी जाती हैं।
दूसरी बात यह हैं कि अध्यापन आदि आपद्धर्म हैं। क्योंकि मनुस्मृति भर में
दो ही जगह इनके नाम आये हैं, प्रथम और दशम अध्यायों में। उनमें भी प्रथम
अध्याय में तो उनके करने की आज्ञा नहीं हैं, किन्तु उत्पत्ति प्रकरण होने
से उनकी उत्पत्ति मात्र लिख दी गयी हैं। इसीलिए आज्ञावाचक शब्द का प्रयोग
भी नहीं हैं, किन्तु केवल उनको उत्पन्न कर दिया ऐसा लिखा हैं। जैसा कि :
अध्यापनमध्यायनं याजनं यजनं तथा।
दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥ 1। 8॥
अर्थात् 'अध्यापन आदि षट्कर्मों को उत्पन्न कर दिया।' यही बात इस श्लोक की
टीका में कुल्लूकभट्ट ने भी लिखी हैं, जैसा कि-
अध्यापनादीनामिह सृष्टिप्रकरणेसृष्टिविशेषतया
भिधानं विधिस्तेषामुत्तारत्रा भविष्यति॥
अर्थात् 'इस सृष्टि प्रकरण में सृष्टि विशेष होने से ही अध्यापन आदि का कथन
किया गया हैं, उनके करने की विधि तो आगे चलकर दसवें अध्याय में होगी। पुन:
दशम अध्याय आपद्धर्म प्रकरण में इनके नाम लिये हैं और वहाँ पूर्व के ही
श्लोक में आज्ञा दे दी हैं कि
ते सम्यगुपजीवेयु: षट्कर्माणि यथाक्रमम्। 10। 74।
अर्थात् 'वे ब्राह्मण आगे कहे हुए षट्कर्मों द्वारा जीवें। तदनन्तर 75वें
श्लोक में उन कर्मों के गिना लेने पर जब यह शंका हुई कि यज्ञ, अध्यायन और
दान ये तीन क्यों कर जीविकायें हो सकती हैं? क्या इन्हें भी आपत्ति काल में
ही करना चाहिए? तो 'षण्णांतुकर्मणामस्य' इस 76वें श्लोक में दिखला दिया कि
तीन ही कर्म जीविकाएँ हैं और उन्हें ही आपत्काल में करना चाहिए। शेष तीन तो
धर्मार्थक कर्म नित्य के हैं (जैसा प्रथम ही कह चुके हैं)। परन्तु जबकि
उत्पत्ति प्रकरण में इन छहों को साथ ही इसी श्लोक में पढ़ दिया था, अत: उसी
श्लोक को यहाँ भी पढ़ मात्र दिया हैं, न कि छहों को ही आपत्तिकाल में ही
करने में तात्पर्य हैं। इसके अतिरिक्त चौथे ही अध्याय में मनु भगवान् लिखते
हैं कि :
राजतो धनमन्विच्छेत् संसीदन् स्नातक: क्षुधा।
याज्यान्तेवा सिनोर्वापि न त्वन्यत इतिस्थिति:॥ 33॥
अर्थ यह हैं कि ''जब ब्राह्मण क्षुधातुर हो तभी राजा के धन का प्रतिग्रह
करे अथवा पढ़ा और यज्ञ कराकर जीविका (धनप्राप्ति) क़रे और आपत्तिकाल में भी
जब तक इन तीन उपायों से धन प्राप्त कर सके तब तक अन्यों से न करे।'' यद्यपि
चतुर्थ अध्याय आप धर्मों का प्रकरण नहीं हैं, तथापि इस श्लोक का तो स्पष्ट
रूप से ही अर्थ हैं, और यह स्नातक के व्रत का प्रकरण था, इसीलिए व्रत के
अन्तर्गत होने से यह बात भी यहाँ कहनी पड़ी। इसीलिए अगले श्लोक में स्पष्ट
कह देते हैं कि यह आपद्धर्म हैं। क्योंकि लिखते हैं कि :
न सीदेत् स्नातको विप्र: क्षुधा शक्त: कथंचन।
न जीणमलव द्वासा भवेच्च विभवे सति॥ 34॥
अर्थात् ''जब तक सामर्थ्य रहे तब तक गृहस्थ ब्राह्मण भूखों न मरे और धन
रहने पर पुराने एवं मैले वस्त्रा न पहने।'' इससे तो स्पष्ट ही हैं कि तभी
भूखों मरेगा जब कोई दूसरा उपाय न हो और जब यह बात हुई तो उसके ऊपर आपत्ति आ
गयी। इसलिए उस दशा में याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह से जीविका करेगा। इसी
तरह जब तक इन तीनों उपायों से धन मिलेगा तब तक और उपाय न करेगा। परन्तु
इनके भी न होने पर दशम अध्याय में लिख दिया हैं कि 'सर्वत:
प्रतिग्रह्णीयात्' अर्थात् 'सभी से प्रतिग्रह करे' और क्षत्रिय एवं वैश्य
कर्मों को भी करने की आज्ञा दे दी गयी हैं। इसीलिए वहाँ पर जो अन्य का
निषेध किया हंर वह तीन उपायों के होने की दशा में हैं, न कि सदा के लिए।
अत: 'सर्वत: प्रतिगृह्णीयात्' के साथ इसका कोई भी विरोध नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त अध्याय के अन्त में भी लिखा हैं कि :
एते चतुर्णां वर्णानामापद्धर्मा: प्रकीर्त्तिता:।
यान् सम्यगनुतिष्ठन्तो व्रजन्ति परमां गतिम्॥ 10। 130
जिसका तात्पर्य यह हैं कि ''इस अध्याय में पूर्वोक्त चारों वर्णों के
आपद्धर्म कहे गये हैं, जिनको अच्छी तरह से करने वाले ज्ञान द्वारा मुक्ति
प्राप्त कर लेते हैं।'' यदि मनुजी को यह विदित होता कि अध्यापन आदि
अनापत्तिकाल के धर्म हैं, तो चौथे अध्याय में इनके नाम क्यों न लेते? जैसा
कि कृषि आदि को कहा हैं। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि वे धर्म ब्राह्मणों के
लिए आपत्तिकाल में ही हो सकते हैं। हाँ, जिन क्षत्रिय आदि के किसी भी धर्म
को प्रथम नहीं कहा हैं उनके प्रजापालनादि धर्म जो दशम अध्याय में कहे गये
हैं उनको यदि अनापत्तिकालिक मान ले और उनका यह कथन प्रसंगवश कहे तो उचित भी
हैं। परन्तु ब्राह्मण धर्मों के विषय में यह बात नितान्त असम्भव हैं,
क्योंकि उनके मुख्य कर्मों को चौथे अध्याय में ही कह चुके हैं। यदि
प्रसंगवश यहाँ कहना भी माने तो फिर सभी को क्यों न गिनाया? किन्तु जिन्हें
कह चुके थे उन्हें कहा ही नहीं, बल्कि विलक्षण कर्मों को ही कहा। इससे इनके
आपद्धर्म होने में कोई भी आपत्ति नहीं की जा सकती। याज्ञवल्क्यजी भी इस
विषय में उदासीन हैं। क्योंकि उन्होंने सामान्यत: इन धर्मों को गिना भर
दिया हैं, उन्हें आपद् या अनापद्धर्म नहीं कहा हैं। प्रत्युत
प्रायश्चित्तध्याय के 35वें श्लोक में लिखते हैं कि :
क्षात्रेण कर्मणा जीवेद्विशां वाप्यापदिद्विज:।
अर्थात् ''आपत्तिकाल में ब्राह्मण क्षत्रियों और वैश्यों के कर्मों द्वारा
भी जीयें। इस जगह 'भी' के अर्थ में जो 'अपि' शब्द हैं उससे अनुक्त याजन आदि
का भी समुच्चय उनको इष्ट हैं, जैसी कि रीति स्मृतियों में सर्वत्रा ही हैं।
अत: जब तक कृषि आदि हो सके तब तक याजन आदि से जीविका ब्राह्मण न करे।
क्योंकि अनापत्तिकाल में आपत्तिकालिक जीविका का निषेध मनुजी ने 11वें
अध्याय के 28 और 30 श्लोकों में किया हैं। यदि हम 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय
से यह भी मान ले कि याजन आदि को आपत्तिकाल से भिन्न काल में भी कर सकते
हैं, तो भी कृषि वाणिज्यादि की तुलना ये कभी कर ही नहीं सकते। क्योंकि इनका
निषेध मनु आदि महर्षि बहुत ही करते हैं, जैसा कि उनके 'अतपास्त्वनधीयान:'
और 'प्रतिग्रह समर्थोपि' इत्यादि श्लोकों का अर्थ करते हुए दिखला चुके
हैं।''
'प्रतिग्रह समर्थोपि' इस श्लोक में एक और विचित्रता हैं। वह यह कि जो
प्रतिग्रह में समर्थ भी हो यह भी उसका नाम तक न ले, इस कथन से स्पष्ट हैं
कि प्रतिग्रहादि का करना आवश्यक नहीं हैं। क्योंकि आवश्यक और नित्य कर्मों
में सामर्थ्य नहीं देखते, बल्कि उनके न करने से पातक होता हैं। हाँ, काम्य
कर्मों में सामर्थ्य की आवश्यकता हैं जैसा कि प्रथम लिख चुके हैं। इसलिए
प्रतिग्रह करना शास्त्र प्रेरित न होकर अपनी इच्छानुसार हैं, चाहे करे या न
करे। परन्तु यदि करे तो उससे होने वाले पापों के प्रायश्चित की सामर्थ्य
होनी चाहिए। इसलिए जो इस प्रकार की तप आदि सामर्थ्य से हीन हो वह तो इच्छा
होने पर भी नहीं कर सकता। सारांश यह हैं कि 'प्रक्षालनाद्धि पंकस्य
दूरादस्पर्शनं वरम्' अर्थात् कीचड़ में पाँव डालकर धोने से उसका न डालना ही
उत्तम हैं, ''इस न्यायानुसार प्रतिग्रहादि का न करना ही अच्छा हैं। अतएव
पार्थ सारथि मिश्रजी ने कुमारिल स्वामी रचित मीमांसा दर्शन वाक्तविक की
टुप्टीका की टीका तन्त्ररत्न के चतुर्थाध्याय के द्वितीयाधिकरण के
'यस्मिन्प्रीति: पुरुषस्य तस्य लिप्सार्थलक्षणा' इस सूत्र में लिखा हैं कि,
किमिदानीं प्रतिग्रह: प्रत्यवायक्षयकर:? यद्ये यमजस्त्रामेव यथाशक्ति
प्रतिग्रहीतव्यं स्यात्, तन्न, प्रतिग्रहसमर्थोपि प्रसंगं तत्रा
वर्जयेदितिप्रतिषेधात्, तेन दायशिलो×छायाचिताभावे यथा कथंचिद्
द्रव्योपादानेवश्वम्भाविनि प्राप्ते पतिग्रहादिनैव कुर्वतोदृष्टसिद्धिरिति
कल्प्यते।''
जिसका भावार्थ यह हैं, ''इस ग्रन्थ में प्रथम यह विचार हो चुका हैं कि जैसे
सन्ध्यादि के न करने से जो पाप होते हैं वे उनके करने से होते ही नहीं हैं।
उसी तरह से अन्य अविहित उपायों से द्रव्यार्जन में जो पाप हो सकते हैं वे
प्रतिग्रहादि करने से उत्पन्न ही नहीं होते। इसी पर यह शंका उठी कि तो क्या
अब प्रतिग्रह को पाप का नाशक समझना चाहिए? यदि ऐसी बात हो तो नित्य जहाँ तक
हो सके अवश्य प्रतिग्रह करना चाहिए। इसका उत्तर देते हैं कि यह बात नहीं
हैं, क्योंकि 'प्रतिग्रह समर्थोपि' इस वाक्य द्वारा मनुजी ने उसका निषेध
किया हैं। इसलिए पूर्व कथन का तात्पर्य यह हैं कि जब ऐसी आपत्ति का समय आ
जाये कि दायभाग (पितादि की जमींदारी या धन आदि) शिल, उ×छ और अयाचितादि कोई
भी उपाय धनप्राप्ति के हो न सके और किसी भी प्रकार से धानार्जन
अत्यन्तावश्क हो तो यदि प्रतिग्रहादि द्वारा प्राप्त किया जाये तभी उससे
यज्ञादि करने से अदृष्ट (पुण्य) हो सकता हैं।'' क्या इस कथन से यह स्पष्ट
नहीं हैं कि प्रतिग्रहादि नहीं करने चाहिए, क्योंकि वे आपत्तिकाल के धर्म
हैं इत्यादि? इस विषय में गौतमस्मृति और मितक्षराकार की सम्मति प्रथम ही
दिखला चुके हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति आचाराध्याय में लिखा हैं कि :
विद्यातपोभ्यां हीनेन नतु ग्राह्य: प्रतिग्रह:।
गृह्णन्प्रदातारमधो नयत्यात्मानमेव च॥ 202॥
प्रतिग्रहसमर्थोपि नादत्ता य: प्रतिग्रहम्।
ये लोकादानशीलानांसतानाप्नोतिपुष्कलान्॥ 213॥
अर्थ यह हैं कि ''जो विद्या और तप रहित हो वह कभी न प्रतिग्रह करे, क्योंकि
ऐसा करने से अपने आप और दाता दोनों को नरक में ले जाता हैं। जो प्रतिग्रह
करने में सामर्थ्यवान होकर भी उसे नहीं करता वह उन बड़े-बड़े लोकों में जाता
हैं जिनमें दान वाले जाया करते हैं।'' इसका तात्पर्य स्पष्ट ही हैं।
लघुविष्णुस्मृति में लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहं न गृहृणीयात्परेषांकिंचिदात्मवान्।
दाता चैव भवेन्नित्यं श्रद्दधान: प्रियंवद:॥ 8। अ. 3॥
अर्थात् ''विचारशील और आत्मज्ञानी किसी का प्रतिग्रह न करे और प्रिय वचन
तथा श्रध्दापूर्वक दूसरों को नित्य ही कुछ दे।'' अत्रिस्मृति में भी यही
लिखा हैं कि:
पावका इव दीपयन्ते जपहोमैर्द्विजोत्तामा:।
प्रतिग्रहेण नश्यन्ति वारिणा इव पावक:॥ 141॥
तान्प्रतिग्रहजान्दोषाप्राणायामैद्विजोत्तामा:।
नाशयन्ति हि विद्वांसो वायुर्मेघानिबाम्बरे॥ 142॥
भावार्थ यह हैं कि श्रेष्ठ ब्राह्मण जप और अग्निहोत्रादि करने से अग्निवत्
तेजस्वी हुआ करते हैं। परन्तु प्रतिग्रह से ऐसे निस्तेज हो जाते हैं जैसे
पानी से अग्नि। इसलिए कदाचित् प्रतिग्रह कर लेने से जो पाप हो जाते हैं
उनका नाश प्राणायाम द्वारा विद्वान् ब्राह्मण ऐसे ही कर डालते हैं जैसे
प्रचण्ड वायु आकाश में रहने वाले बादलों का नाश कर देता हैं। श्रीमद्भागवत
में भी प्रसंगवश 11वें स्कन्धा के 17वें अध्याय में लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहं मन्यमानस्तपस्तेजोयशोनुदम्।
अन्याभ्यामेवजीवेतशिलैर्वादोषदृक्तयो:॥ 41॥
सीदन्विप्रोवणिग्वृत्तयापण्यैरेवापदं तरेत्।
खड्गेनवापदामन्तो नश्ववृत्तया कदाचन॥ 47॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''आपत्तिकाल में भी प्रतिग्रह को तप, तेज और यश का
नाशक समझ ब्राह्मण याजन और अध्यापन से ही जीविका करे, अथवा उनको भी दुष्ट
समझकर शिल आदि वृत्तियों से ही शरीर यात्रा करे और वाण्श्निाज्यवृत्ति से
पदार्थों को बेचकर क्षत्रिय धर्म से तलवार लेकर अर्थात् युद्ध करके भी
जीविका करे, परन्तु नौकरी कभी न करें।'' जब विश्वरूप को देवताओं ने
बृहस्पति के रुष्ट होने पर अपनी पुरोहिती करने को कहा तो उन्होंने उसकी
बहुत ही निन्दा की और कहा कि :
अकिंचनानां हि धनं शिलो×छनं तेनेह नरिर्वत्तात साधुसत्क्रिय:। कथं
विगर्ह्यं तु करोम्यधीश्वरा: पौराधासं हृष्यति येन दुर्मति:॥ श्रीमद्भागवत।
6। 7। 36
अर्थ यह हैं कि ''हे देवगण! दरिद्र ब्राह्मण के भी धन शिल और उ×छादि ही
हैं, जिनसे मैं अच्छी तरह से अपने शरीर का निर्वाह करता हूँ, इसलिए
पुरोहिती क्यों करूँ? क्योंकि उससे तो केवल मूर्ख लोग ही प्रसन्न होते हैं।
अध्यात्मरामायण के अयोध्याकाण्ड में वसिष्ठजी ने रामजी के प्रति कहा हैं कि
'पौरोहित्यमहं जानेविगर्ह्य द्ष्यजीवनम्।' 2। 28। जिसका अर्थ यह हैं कि मैं
पुरोहिती को धर्मशास्त्रनिन्दित और जीवन को दूषित करने वाली समझता हूँ।''
जिसको गोस्वामी तुलसीदासजी ने स्पष्ट कर दिया हैं कि उपरोहिती कर्म अति
मन्दा। वेद पुराण स्मृति कर निन्दा॥ वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड के छठें सर्ग
में अयोध्यावासी तथा रामराज्यवासी ब्राह्मणों के आचारों का वर्णन करते हुए
महर्षि लिखते हैं कि :
स्वकर्मनिरतानित्यं ब्राह्मणाविजितेन्द्रिया:।
दानाध्यायन शीलाश्च संयताश्च प्रतिग्रहे॥
जिसका अर्थ यह हैं कि ''जितेन्द्रिय ब्राह्मण लोग अपने-अपने धर्मों में सदा
स्थित होकर दान और अध्यायनादि करते और प्रतिग्रह नहीं लेते हैं। इसीलिए
मनुजी ने दशमध्याय में लिखा हैं कि :
प्रतिग्रहाद्याजनाद्वा तथैवाध्यपनादपि।
प्रतिग्रह: प्रत्यवर: प्रेत्य विप्रस्य गर्वित:॥ 109॥
जपहोमैरपैत्येनो याजनाध्यापनै: कृतम्।
प्रतिग्रहनिमित्तां तु त्यागेन तपसैव च॥ 111॥
अर्थ यह हैं कि इन ''याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह तीनों में से प्रतिग्रह
अत्यन्त ही निन्दित और परलोक में ब्राह्मण के लिए दु:खद हैं। याजन और
अध्यापन से जो पाप होते हैं वे जप और अग्निहोत्रदि द्वारा निवृत्त हो जाते
हैं। परन्तु प्रतिग्रह के पाप तो उस द्रव्य के त्यागने और कृ×छादिरूप तप
करने से ही निवृत्त होते हैं।'' इससे यह स्पष्ट हैं कि यदि सामान्य रीति से
ये शास्त्रीय धर्म होते तो जैसे शिल, उ×छादि करने से पाप नहीं लिखा, वैसे
इनके करने से भी पाप न लिखते; क्योंकि शास्त्रविहित कार्य करने में पाप हो
ही नहीं सकते। यदि कोई ऐसा अनुचित आग्रह करे कि सामान्य प्रतिग्रह से होने
वाले पापों का वर्णन इन श्लोकों में नहीं हैं, किन्तु निन्दित प्रतिग्रह की
ही हीनता यहाँ दिखलाई गयी हैं, तो उसको एक तो यह विचारना चाहिए कि इन
श्लोकों में प्रतिग्रह मात्र लिखा हैं। दूसरे जब मनुजी यह भी प्रथम ही इसी
अध्याय में कह चुके हैं कि 'विशुध्दाच्च प्रतिग्रह:।' अर्थात् शुद्ध
प्रतिग्रह करना चाहिए। तो फिर अनुचित प्रतिग्रह का प्रसंग ही क्या हैं? और
'प्रतिग्रहसमर्थोपि' इत्यादि वाक्यों द्वारा सभी प्रतिग्रहों का निषेध किया
हैं, जैसा कि अभी पार्थसारथि मिश्रादि की सम्मति इस विषय में दिखला चुके
हैं। वाल्मीकि रामायण में जो उस समय के ब्राह्मणों का आचार दिखलाया गया हैं
वहाँ जब यह लिखा हैं कि वे अपने कर्मों में स्थित हैं, तो फिर असत्
प्रतिग्रह कैसे कर सकते थे? अत: सामान्य रूप से सभी प्रकार के प्रतिग्रह वे
लोग भी नहीं करते थे। मत्स्यपुराण के 111वें अध्याय में युधिष्ठिर के प्रति
कृष्णजी का उपदेश हैं कि :
प्रतिग्रहादुपावृत्ता: सन्तुष्टो नियत: शुचि:।
अहंकारनिवृत्तश्च स तीर्थफलमश्नुते॥ 10॥
अर्थात् ''जो प्रतिग्रह से रहित, सन्तोषी नियमी, पवित्र और अभिमानशून्य हो
वह सम्पूर्ण तीर्थ स्नानादि के फलों को प्राप्त कर लेता हैं।''
स्कन्दपुराणान्तर्गत ब्रह्मखण्ड के धर्मारण्यमहात्म्य प्रकरण में वाडवों
(ब्राह्मणों) के आचार इस प्रकार से वर्णित हैं:
चा. उ.।
पूर्वंहिवृत्तिमस्माकंरामोवैदत्तावान् द्विजा:।
चातुर्विद्या महासत्त्वा: स्वधर्मप्रतिपालका:॥ 141॥
याजनाध्यापनायुक्ता: काजेशेन विनिर्मिता:।
दानं दत्त्वा तु रामेण उक्तं हि भवतां पुन:॥ 142॥
स्थानं त्यक्वा न गंतव्यमितं नियम: कृत:॥ 149॥
त्यक्तप्रतिग्रहा: शान्ता: सत्यव्रतपरायणा।
संध्यामुपासते नित्यं त्रिकालं चैकमानसा:॥ 150।36।
जिसका भावार्थ यह हैं कि ''उन्हीं ब्राह्मणों में से चारों वेदों के ज्ञाता
एक ने कहा कि हे ब्राह्मणो! रामजी ने प्रथम ही हम लोगों के लिए वृत्ति नियत
कर दी हैं और हम लोग चारों वेदों के ज्ञाता और अपने धर्म के पालक हैं। याजन
और अध्यापन नहीं करते और हम लोगों को यहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने
स्थापित किया हैं इत्यादि। 'वहाँ रहने वाले वाडव प्रतिग्रहादि से रहित और
शान्त थे और त्रिकाल सन्ध्या एकाग्रचित्ता होकर करते थे।''
यदि हम अध्यापनादि के स्वरूपों का विचार करते हैं तो उन ब्राह्मणों का इनसे
पृथक् रहना और स्मृतियों के निषेध ये दोनों बहुत ही उचित प्रतीत होते हैं।
क्योंकि जो दान देने वाला होता हैं वह, जैसे बच्चे को गुड़ खिलाकर कर्णच्छेद
कराते हैं वैसे ही, दान द्वारा अपने पातक को द्वितीय व्यक्ति के ऊपर रखता
हैं। या यों कहना चाहिए कि जैसे तृण खिलाकर गौ दुही जाती हैं वैसे ही वह
दान द्वारा ब्राह्मण का तप दुह लेता हैं। क्योंकि जैसे प्रज्वलित अग्नि तृण
का नाश कर आप शान्त होती हैं वैसे ही ब्राह्मण की तपरूप दाता के पातक को
भस्मीभूत करके आप भी समाप्त हो जाती हैं। इसलिए यदि दानग्राही तपस्वी न
होगा तो दाता का दान व्यर्थ हो जायेगा और ग्रहण करने वाला तो पतित होगा ही,
जैसा कि प्रथम मन्वादि के वाक्यों द्वारा दिखला चुके हैं। यदि दान अपने
पातक को दूसरे के सिर मढ़ने के लिए नहीं होता हैं तो और कौन किस काम के लिए
होता हैं? यदि ऐसा नहीं, तो ब्रह्महत्यादि का प्रतिग्रह करने में लोग डरते
क्यों हैं? और जब अन्न पर ही बुद्धि निर्भर हैं, तो फिर जैसा अन्न होगा
वैसी ही बुद्धि बनेगी, क्योंकि छान्दोग्योपनिषद् के षष्ठ प्रपाठक में लिखा
हैं कि 'अन्नमशितं त्रोधा विधीयते यदणिष्ठं तन्मनो भवति' अर्थात् 'भोजन
किये गये अन्न के स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतर तीन अंशों में से सूक्ष्मतर
अंश से मन (बुद्धि) बनता हैं। इसीलिए महाभारतादि ग्रन्थों में चोरी का अन्न
भक्षण करने से महात्माओं की भी बुद्धियों के विकृत हो जाने का वर्णन प्राय:
आया करता हैं। इसीलिए शिष्य अथवा यज्ञकर्ता अध्यापन और याजन के बदले जो
दक्षिणा देगा वह यद्यपि मजदूरी ठहरी तथापि अपनी बुद्धि पर उसका प्रभाव
अवश्य आयेगा। वह अन्न या द्रव्य उसने उत्तम रीति से ही कमाया हैं, यह कभी
हो ही नहीं सकता। क्योंकि मनुष्य की स्वभाव सिद्ध विपरीत प्रवृत्तियों का
बदल जाना एकदम असम्भव हैं। इसीलिए मनुजी ने श्राद्ध प्रकरण में :
याजयन्तिचयेपूगांस्तांश्च श्राद्धेनभोजयेत्। 3। 151।
भृतकाध्यापकोयश्च भृतकाध्यापितस्तथा॥ 3। 156।
अर्थात् ''जो बहुतों के यज्ञ कराने वाले, वेतन लेकर पढ़ाने और पढ़ने वाले हैं
उनको श्राद्ध में न खिलावें।'' इन वाक्यों द्वारा ऐसों को श्राद्ध में
निन्दित ठहराया हैं। ऐसे ही याज्ञवल्क्यादि ने भी कहा हैं। इसीलिए याजनादि
अगतिक गति और आपद्धर्म कहलाते हैं जिनका वाडवों (ब्राह्मणों) ने साम्प्रतिक
पश्चिम, त्यागी, महियाल, भूमिहार ब्राह्मणों की तरह सर्वथा परित्याग या
निरादर किया था। क्योंकि जैसा कि आगे विदित होगा कि वे भी इन्हीं लोगों की
तरह बड़े-बड़े भूम्यधिपति (जमींदार)थे।
हाँ, इस बात में कोई विवाद या शंका नहीं हैं कि याजन और अध्यापन ये दोनों,
जैसा कि प्रथम 'अध्यापनं च त्रिविधां' इस श्लोक में कह चुके हैं, यदि केवल
परोपकारबुद्धि से किये जाये जैसा कि प्राचीन ऋषि, महर्षि दयार्द्रचित्ता
होकर किया करते थे और किसी-किसी स्थान में आज भी देख सकते हैं, तो बहुत ही
उत्तम और अवश्य कर्त्तव्य हैं, जिन्हें अयाचक और याचक दोनों प्रकार के
ब्राह्मण करें और तद्द्वारा प्राप्त दक्षिणा न लेकर उसे भी यदि परोपकार और
अनाथपालनादि में व्यय करा दिया जाये और सर्वसाधारण का जिसमें उपकार हो सके
ऐसे कार्य उससे करवा दिये जाये, जैसे कि ब्रह्मचर्याश्रम, गोशालाएँ,
धर्मशालाएँ और औषधालय आदि तो दक्षिणा सहित होने से यज्ञादि भी पूर्ण हो
जाये, क्योंकि सम्भवत: लोगों की यह धारणा हो कि भगवान् कृष्ण ने गीता में
'मन्त्रहीनमदक्षिणम्' अर्थात् ''मन्त्र और दक्षिणाहीन यज्ञ को तामस यज्ञ
कहते हैं'' इत्यादि वाक्यों द्वारा दक्षिणा बिना सद्यज्ञसिद्धि का निषेध
किया हैं, तो वह भी धारणा पूरी हो जाये और कार्य भी चला जाये, जिससे करने
वाले निष्कलंक ही रह जाये।
वस्तुत: तो गीता में जो यज्ञों की दक्षिणा का वर्णन हैं उसका तात्पर्य यह
हैं कि सामान्य रीति से यज्ञादि में ऋत्विज वगैरह दक्षिणा ही के लोभ से आते
हैं। क्योंकि यदि यह बात न होती तो मीमांसा दर्शन के प्रथमाध्याय के तृतीय
पाद के तृतीय अधिकरण में 'हेतुदर्शनाच्च' इस सूत्रा पर भाष्यकार
श्रीशबरस्वामी तथा माधावाचार्य 'वैसर्जनहोमीयं वासोधवर्युर्गृह्णति'
अर्थात् ''वैसर्जनहोम सम्बन्धी वस्त्रा को अधवर्यु नाम का ऋत्विक् लेता
हैं।'' इस स्मृति को अप्रामाणिक ठहराते हुए यह कभी न कहते कि :
कदाचित्कश्चिदधवर्युर्लोभादेतद्वासा जग्राह, तन्मूलैवैपास्मृतिरित्यपि
कल्पना संभवति
दृष्टानुसारिणी चैषा कल्पना, दक्षिणयापरिक्रीतानामृत्विजां लोभदर्शनात्॥
अर्थात् कभी किसी अधवर्यु ने लोभ से इस वस्त्र को ले लिया होगा, तन्मूलक ही
यह स्मृति भी बन गयी होगी यह भी कल्पना हो सकती हैं, और यह कल्पना
प्रत्पक्षानुसारिणी भी हैं। क्योंकि दक्षिणा देकर लाये गये ऋत्विजों को लोभ
होता रहता हैं। और इस अधिकरण की आवश्यकता भी न होती। इसलिए यदि यजमान के
लिए यज्ञ में दक्षिणा की आज्ञा न हो तो बेचारों की मजदूरी ही मारी जाये और
धर्म के बदले वहाँ अधर्म ही होने लग जाये। इसीलिए यज्ञ प्रकरण में सर्वत्रा
ही दक्षिणा पर जोर दिया गया हैं। परन्तु यदि यज्ञ कराने वाला धर्म प्रिय और
निर्लोभ हो, जैसाकि पूर्व कह चुके हैं, तो उनके लिए दक्षिणा की कोई
आवश्यकता नहीं हैं। हाँ, यज्ञ कराने वाला दक्षिणार्थ संगृहीत द्रव्य का उन
ऋत्विजों की अनुमति से सद्वयय कर सकता हैं। इनसे यह शंका भी निर्मूल हो गयी
कि यदि याजन आदि छोड़ दिये जाये तो फिर सब यज्ञ और अध्यायनादि का लोप ही हो
जायेगा। जो कथा स्कन्द पुराण के नाम से अनादि पुरवासी ब्राह्मणों के विषय
में 'ब्राह्मणोत्पत्ति मार्तण्ड' नामक ग्रन्थ में दी गयी हैं और जिसकी
सविस्तार समालोचना प्रसंगवश यदि हो सका तो आगे करेंगे, वह भी इस बात को
पुष्ट कर रही हैं कि यज्ञ में दक्षिणादि लेने में विचारशील ब्राह्मणों की
प्रवृत्ति न करते थे। अतएव यद्यपि दूसरे बहुत से ब्राह्मणों ने दक्षिणा
सहर्ष स्वीकार की, परन्तु वाडवों (ब्राह्मणों) ने उससे साफ इन्कार किया।
इस स्थान पर इस बात का ध्यान रखना भी आवश्यक होगा कि जो लोग इस बात के कहने
वाले और साथ ही पाण्डित्य का दम भरने वाले हैं कि यदि सभी ब्राह्मण
प्रतिग्रह से रहित हो जाये तो फिर दान लेने वाला कौन होगा? फलत: दान रूप
धर्म का ही लोप हो जायेगा। उनको यह विचारना चाहिए कि प्रथमत: तो यह कहा ही
नहीं जाता हैं कि कोई भी दान लेगा ही नहीं, बल्कि हमारा तो यह कथन हैं कि
जो विद्या और तपोबल सम्पन्न होने से दान लेने में समर्थ हो वह अपनी
इच्छानुसार उसे ले सकता हैं, न कि गायत्री तक का भी नाम न जानकर धर्म
भ्रष्ट और पतित शूद्रादि के प्रतिग्रह से ही पेट पालने वाला दान का कभी भी
अधिकारी हो सकता हैं। हम केवल यही चाहते हैं कि पात्रपात्रा के विचार बिना
ही जैसी अन्धापरम्परा आज चल पड़ी हैं वह एकदम शास्त्रविरुद्ध होने से सर्वथा
अनादरणीय हैं। दूसरी बात यह हैं कि केवल द्रव्य और अन्नादि के ही दान तो
शास्त्रों में हैं नहीं, जिससे दानग्राही के न रहने से दान क्रिया का लोप
हो जायेगा। क्या विद्या और सदुपदेशादि के दानों का लोप होने का भी कोई भय
हो सकता हैं? तीसरी बात यह हैं कि यदि दान के योग्य ब्राह्मण न हो तो
उन्हें लेने का अधिकार क्या बलात् हो जायेगा? ऐसी दशा में दान के पदार्थों
को अन्य सदुपयोगों में लगा सकते हैं जिनकी नितान्त आवश्यकता हैं। देखते हैं
कि लोग गोशालाएँ और ब्रह्मचर्याश्रम के लिए चिल्लाते रह जाते हैं, पर कुछ
होता नहीं। यदि दान के सभी पदार्थ ऐसे कार्यों में लगा दिये जाये तो क्या
कोई अनुचित कार्य होगा? क्या इससे भी बढ़कर कोई दान के लिए अवसर मिल सकता
हैं? मैं तो समझता हूँ कि जैसे अयाचक ब्राह्मण समाज के लोग दान ग्रहण के
निकट उसे निन्दित समझ कर नहीं जाते और शास्त्रोक्त कृष्यादि द्वारा अपनी
जीविका करते हैं, वैसे ही यदि इतर (याचक) ब्राह्मण भी (क्योंकि वे भी तो
कृषि इत्यादि करते ही हैं) करने लग जाये तो भारतवर्ष की गोहत्या बिना
प्रयत्न उसी द्रव्य से बन्द हो जाये। जिन द्रव्यों से वे अपना पेट पालते
हैं उन्हीं से इस पुण्यभूमि में सरस्वती की पावन धारा अनवरत प्रवाहित होकर
इस भूमि के सब कल्मषों को दूर कर दे और गोरक्षा द्वारा देश की निर्धनता और
व्याधियों का भी विलय हो जाये। इसीलिए अग्निपुराण में लिखा हैं कि :
दैंवे कर्मणि पित्रये च ब्राह्मणो नैव लभ्यते।
तदन्नं तु गवे दद्यादथवा निक्षिपेज्जले॥
अर्थात् ''यदि देव और पितृ कर्म में योग्य ब्राह्मण न मिलें तो उस अन्न का
द्रव्य गो निमित्त प्रदान कर दे, अथवा जल में फेंक दे।'' किं बहुना, जिस
दानग्रहण से स्कन्दपुराण के ब्रह्मोत्तर खण्ड के छठे अध्याय में किसी
ब्रह्मणी के पुत्र की दरिद्रता शाण्डिल्य ऋषि ने दिखलाई हैं, जैसा कि :
एष ते तनय: पूर्वजन्मनि ब्राह्मणोत्ताम:।
प्रतिग्रहैंर्वयो निन्ये न यज्ञाद्यै: सुकर्मभि:॥ 80॥
अतो दारिद्रयमानपन्न: पुत्रस्ते द्विजभामिनि।
तद्दोषपरिहारार्थ शरणं यातु शंकरम्॥ 81॥
अर्थ यह हैं कि ''महर्षि शाण्डिल्य ने उस ब्राह्मणी से कहा कि हे
द्विजभामिनि! यह तेरा पुत्र पूर्व जन्म में बहुत उत्तम ब्राह्मण था, परन्तु
यज्ञादि न करके केवल प्रतिग्रह से ही जन्म बिताता था, इसलिए इस जन्म से
दरिद्र हो गया हैं। अत: इस दोष की निवृत्ति के लिए महादेवजी की शरण जाये।''
और जिस प्रतिग्रह से अग्निहोत्र ब्राह्मण को भी श्मशान काष्ठ तुल्य अपवित्र
मत्स्यपुराण के 204 अध्याय में ठहराया हैं, जैसा कि :
अहिताग्निर्द्विजो यस्तु तद्देयं तस्य पार्थिव:॥ 3॥
तत्प्रतिग्रहविद्विद्वानाहिताग्निर्द्विजोत्ताम:।
स्नातो वस्त्रायुगाच्छन्न: स्वशक्त्या चाप्यलंकृत:॥ 20॥
अनेन विधिना दत्वा यथावत्कृष्णमार्गकम्।
न स्पृश्योसौ द्विजो राजन् चितियूपसमो हि स:॥ 23॥
तं दाने श्राद्धकाले च दूरत: परिवर्जयेत्।
स्वगृहात्प्रेष्य तं विप्रं मंगलस्नानमाचरेत्॥ 24॥
भावार्थ यह हैं कि ''हे राजन! जो ब्राह्मण अग्निहोत्री हो उसे ही कृष्ण मृग
का चर्म देना चाहिए। प्रतिग्रह को जाननेवाला वह विद्वान्, अग्निहोत्री
ब्राह्मण स्नान करके दो वस्त्रों के साथ-साथ यथाशक्ति भूषण धारण किया हो।
इस प्रकार से उसको विधिवत् कृष्ण मृगचर्म देकर उसे स्पर्श न करे क्योंकि वह
उस समय चिता के काष्ठ के सदृश हो जाता हैं। इसलिए उस ब्राह्मण को दान और
श्राद्धकाल में दूर से ही त्याग दे और अपने घर से उसे बिदा करके मंगल स्नान
करे।'' ऐसे प्रतिग्रह से सर्वथा दूर रहकर कृषि वाणिज्यादि द्वारा जीवन
बिताने में ही कल्याण हैं।
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