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स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली

सम्पादक - राघव शरण शर्मा

खंड-1

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार- 2

मुख्य सूची खंड - 1 खंड-2 खंड - 3 खंड - 4 खंड - 5 खंड - 6

2. ब्राह्मण धर्म
    (ग) कृषि-

    (घ) राज्य और युद्ध-
3-अयाचक ब्राह्मणों के भूमिहार, त्यागी आदि विशेषण

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ब्रह्मर्षि वंश विस्तार

2. ब्राह्मण धर्म

(ग) कृषि- अब ब्राह्मण की प्रशस्त जीविका कृषि का विशेषरूप से विचार करते हैं क्योंकि आजकल अज्ञान, स्वार्थन्धाता और अकारण परद्वेष एवं परोत्कर्षा-सहिष्णुतामूलक बहुत सी कुशंकाएँ इस विषय में हुआ करती हैं। यह स्मरण रखना चाहिए कि कृषि-वाणिज्य और एकनिर्दिष्ट ब्याज पर रुपये देने ये तीनों अथवा प्रथम के दो ही दो प्रकार के होते हैं-(1) स्वयंकृत अर्थात् अपने हाथों से किये गये, और (2) अस्वयंकृत अर्थात् भृत्यादि अन्य पुरुष द्वारा कराये गये। जैसा दिखला चुके हैं, उनमें से प्रथम अर्थात् स्वयंकृत तो आपत्तिकाल में ब्राह्मण द्वारा किये जा सकते हैं। परन्तु क्षत्रियादि उन्हें अनापत्ति काल में भी कर सकते हैं। जिनका वर्णन ब्राह्मण के आपद्धर्म प्रकरण नामक मनुस्मृति के दशम अध्याय के 82, 83 और 84 श्लोकों में हैं। परन्तु दूसरे प्रकार के अर्थात् अस्वयंकृत कृषि आदि को ब्राह्मण अनापत्तिकाल में करे, जिनका वर्णन अनापत्कालिक ब्राह्मण धर्म प्रकरण नामक मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय में किया गया हैं; जैसा कि प्रथम दिखला चुके हैं। इस विषय में गौतमस्मृति की सम्मति देते हुए कुल्लूकभट्ट मनुस्मृति के चतुर्थाध्याय के छठे श्लोक की टीका में लिखते हैं कि:
तेनचैवापि जीव्यतइतिचशब्देनवाणिज्यसमशिष्टत्वात्कुसी दमपि गृह्यतेपूर्वश्लोकोक्ता कृषिरेतच्छलोकोक्ते च कृषिवाणिज्ये
-अनापदीत्यनुवृत्तोरस्वयंकृतान्येतानिबोद्धव्यानि, यथाह गौतम: कृषिवाणिज्ये स्वयं चाकृते कुसीदं च॥

अर्थ यह हैं कि ''इस श्लोक में पठित 'तेन चैव' इस च शब्द से वाणिज्य के साथी सूद का समुच्चय होता हैं। परन्तु जबकि इन सभी श्लोकों में आदि के श्लोक से 'अनापदि' इस पद का सम्बन्ध हैं, जिसका तात्पर्य यह हैं कि ये जीविकाएँ अनापत्तिकालिक हैं। इसलिए पूर्व प्रदर्शित श्लोकोक्त कृषि और इस श्लोक में पठित वाणिज्य और वृद्धि (सूद) ये तीनों यहाँ पर अनापत्ति प्रकरण में अस्वयं कृत ही लिये जाते हैं, जैसा कि गौतमस्मृति में कहा हैं कि अस्वयंकृत कृषि, वाणिज्य और वृद्धि (सूद) भी ब्राह्मण के धर्म हैं।'' इसलिए जहाँ कहीं भी ब्राह्मण के लिए कृषि का विधान हो और स्पष्ट लिखा न हो वहाँ अनापत्ति काल में अस्वयंकृत को ही जानना चाहिए, न कि स्वयंकृत को। और जहाँ उसके ही लिए कृषि का निषेध हो, परन्तु स्पष्ट रूप से व्यवस्था न की गयी हो वहाँ पर सभी जगह केवल स्वयंकृत कृषि आदि का निषेध समझना चाहिए। यही कारण हैं कि लोग विधि निषेध वाक्यों का तात्पर्य न समझकर कहने लग गये और लग जाते हैं कि ब्राह्मण के लिए कृषि का निषेध हैं। हालाँकि, वे भी स्वयं ब्राह्मणता का दम भरते हुए वही कर्म करते हैं। परन्तु इसमें उनका दोष ही क्या हैं? क्योंकि वे विवेकहीन तथा अकारण परछिद्रान्वेषी बन गये हैं। इसलिए ''अर्थात् मूर्ख लोग शास्त्र के तात्पर्य को न समझ अनाप-सनाप बका करते हैं'', 'अज्ञात्वा शास्त्रहृदयं मूढो वक्त्यन्थान्यथा, ''अर्थात् मूर्ख लोग शास्त्र के तात्पर्य को न समझ अनाप-शनाप बका करते हैं'', इस न्याय के ही वे लोग दृष्टान्त हो रहे हैं। मनुस्मृति के दशम अध्याय के, 'कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्यजीविकाम्' अर्थात् आपत्तिकाल में ब्राह्मण कृषि और गोरक्षा करके वैश्यवृत्ति से भी जीविका करें। इस 82वें श्लोक में भी कुल्लूकभट्ट ने स्पष्ट लिख दिया हैं कि-

कृषिगोक्षग्रहणंवाणिज्यप्रदर्शनार्थतयाचविक्रेयाणि वक्ष्यति। स्वयंकृतं चेदं कृष्यादि ब्राह्मणापद्वृत्तिरस्वयं कृतस्यऋतामृताभ्यां जीवेतेत्यनापद्येव विहितत्वात्॥

भाव यह हैं कि 'इस श्लोक में कृषि, गोरक्षा पद से वाणिज्य को भी समझना चाहिए, इसीलिए ब्राह्मण के बेचने योग्य पदार्थों का आगे वर्णन करेंगे। स्वयंकृत ही कृष्यादि आपत्तिकाल में ब्राह्मण की जीविकाएँ हैं; क्योंकि अस्वयंकृत कृष्यादि का तो विधान अनापत्तिकाल में 'ऋतामृताभ्यां' इत्यादि वाक्यों द्वारा चतुर्थाध्याय में कर आये हैं। पराशरस्मृति से भी स्पष्टतया यही प्रतीत होता हैं। क्योंकि वहाँ लिखा हैं कि-

षट्कर्मसहितो विप्र: कृषिकर्म च कारयेत्। 2। 2।
हीनांगं व्याधितं क्लीबंवृषं विप्रो न वाहयेत्॥ 3॥

अर्थात् ''पूर्वोक्त संध्यास्नानादि षट्कर्म करने वाला ब्राह्मण जीविका के लिए कृषिकर्म करवावे। परन्तु रोगी, हाथ या पाँव आदि अंगों से रहित, लँगड़े और नपुंसक बैलों को हल में न जुतवावे।'' इस श्लोक में करवावे और जुतवावे इस अर्थवाले 'कार्यरत' और 'वाहयेत्' शब्दों का प्रयोग करते हुए उन्होंने ब्राह्मण के लिए अस्वयंकृत कृषि का ही विधान किया हैं। इसीलिए आगे चलकर उन्होंने स्वयंकृत कृषि का अनापत्ति में निषेध किया हैं। जैसा कि :

ब्राह्मणश्चेत्कृषिं कुर्यात्तान्महादोषमाप्नुयात्॥ 8॥
संवत्सरेण यत्पापं मत्स्यघाती द्धमात्नुयात्।
अयोमुखेन काष्ठने तदेकाहेन लांगली॥ 11॥
पाशकोमत्स्नघाती च व्याधा: शकुनिकस्तथा।
अदाताकर्षकश्चैव पंचैते समभागिन: ॥ 13॥ 2॥

अर्थ यह हैं कि ''ब्राह्मण अपने हाथों से हल जोतकर कृषि करे तो महापापी हो जाता हैं। मछलियाँ मारनेवाला 1 वर्ष में जितने पाप का भागी होता हैं, उतने ही का हल जोतने वाला एक ही दिन में होता हैं। फन्दे से जन्तुओं को पकड़नेवाला, मत्स्यघाती, बहेलिया, चिड़ीमार और कृपण होकर अपने हाथ खेती करने वाला ये पाँचों बराबर हैं।'' आगे चलकर जो लिखते हैं कि :

वृक्षंछित्वामहींभित्त्वाहत्वा च कृमिकीटकान्।
कर्षक: खलयज्ञेन सर्वपापै: प्र
मुच्यते॥ 16॥

अर्थात् ''अपने हाथ से खेती करने वाला, वृक्षों को काट, पृथ्वी को फार और कृमि, कीटों को मारकर खलयज्ञ नामक कर्म करने से पवित्र होता हैं।' और अन्यत्रा भी जो स्मृति और पुराणों में कृषक को प्रायश्चित्त लिखे गये हैं, और कृषि की निन्दा की गयी हैं वे सभी अपने हाथ से हल जोतने वाले के ही लिए लिखे गये हैं। क्योंकि अस्वयंकृत कृषि को जब शास्त्र ही करने को कहता हैं तो उसमें दोष कहाँ हो सकता हैं? नहीं तो फिर यज्ञादि में भी अवश्य अनेक प्रकार से हिंसाओं के होने के कारण वहाँ भी प्रायश्चित्त करना चाहिए। यदि यज्ञ में भी हिंसादिजन्य पापों के लिए कोई प्रायश्चित्त माना जाये तो फिर अस्वयंकृत कृषि आदि में भी मानने में कोई दोष नहीं हैं। क्योंकि जैसे उस प्रायश्चित्त मात्र के करने से यज्ञ निषिद्ध या अधर्म नहीं समझा जाता, वैसे ही कृषि आदि की भी उस प्रायश्चित्त से निषिद्ध नहीं हो सकते। बल्कि जब पराशर स्मृति के द्वितीय अध्याय भर में, केवल अन्त के श्लोकों को छोड़कर(क्योंकि वहाँ क्षत्रियादि के लिए कृषि का वर्णन हैं) ब्राह्मण के लिए कृषि का वर्णन हैं और अन्त में यह भी लिखा हुआ हैं कि 'चतुर्णामपिवर्णानामेषधर्म: सनातन:।' अर्थात् 'चारों वर्णों के यथोक्त कृषि आदि सनातन धर्म हैं' और मध्य में यहाँ तक लिखा हैं कि:

स्वयंकृष्टे तथा क्षेत्रो धान्यैश्च स्वयमर्जितै:॥
निर्वपेत्पंच यज्ञांश्च क्रतुदीक्षां च कारयेत्॥ 6॥

अर्थात् ''ब्राह्मण अपने से जुतवाये हुए क्षेत्र में स्वयं उपार्जित अन्नों द्वारा पंच यज्ञ और बड़े-बड़े यज्ञ करे या करवावे।'' क्योंकि क्षत्रियादि के लिए आगे चलकर लिखा हुआ हैं कि :

क्षत्रियो पि कृषिं कृत्वा देवान्विप्रांश्च पूजयेत्।
वैश्य:शूद्रस्तथाकुर्यात् कृषिवाणिज्य शिल्पकम्॥ 18॥

अर्थात् ''क्षत्रिय भी खेती करके देवताओं और ब्राह्मणों की पूजा करे। इसी प्रकार वैश्य और शूद्र भी कृषि, वाणिज्य और शिल्पादि का व्यवसाय करें।'' तो फिर यह कहना कि ब्राह्मण के लिए कृषि निन्दित हैं, सरासर भूल हैं। हाँ, 'अनापत्तिकाल' में स्वयंकृता कृषि अर्थात् अपने हाथों हल जोतना और अपने हाथ से वाणिज्य करना निन्दित हैं और उसके करने से ब्राह्मण पाप का भागी अवश्य हो जाता हैं। परन्तु इस समय प्राय: याचक ब्राह्मण दल में ऐसी बहुत जगहें पाई जाती हैं। क्योंकि मैंने अपनी आँखों और कानों कानपुर के पास वाजपेयी प्रभृति उच्च श्रेणी के कान्यकुब्जों को हल जोतते देखा और सुना हैं। यही दशा मथुरा के आसपास और गौड़ों के देश, पंजाब एवं गुजरात में भी पाई जाती हैं। परन्तु कोई भी कान्यकुब्जों या गौड़ों आदि से इसका नाम भी नहीं लेते। केवल अयाचक ब्राह्मणों में मिथ्या दोषारोपण और इन्हें नीचा दिखाने का यत्न करना यही सभी का प्रधान उद्देश्य हो रहा हैं। परन्तु ईश्वरानुग्रह से, चाहे अन्य ब्राह्मणों या अन्य वर्णों में अब तक जो कुछ भी हो गया हैं लेकिन, इस अयाचक ब्राह्मण दल का एक बच्चा भी भारत के एक कोने से दूसरे कोने तक, जहाँ तक किसी-न-किसी रूप में इनकी सत्ता हैं, अपने हाथों हल जोतने का नाम भी नहीं जानता। और यदि कहीं जानता भी होगा तो याचक दलवाले ब्राह्मणों के ही संग थे। कारण, वही गुरु, पुरोहित और उपदेशक हैं। अत: अभी तक इन ब्राह्मणों की इस शुद्धता में, जो सभी अन्य ब्राह्मणों से बढ़कर हैं, कोई कलंक सम्भावित नहीं हैं। इतर ब्राह्मण तो चाहे ऐसा करने से भले ही दोष के पात्र बन गये हैं अथवा नहीं। क्योंकि लिखा हैं कि :

आपत्कल्पेन यो धर्मं कुरुतेनापदि द्विज:।
स नाप्नोति फलं तस्य परत्रोति विचारितम्॥ 28॥
प्रभु: प्रथमकल्पस्य योनुकल्पेनर् वत्ताते।
न सा परायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम्॥ 30॥म 11।

अर्थ यह हैं कि ''जो ब्राह्मणादि आपत्ति के धर्म को अनापत्ति में करते हैं उन्हें उसका फल परलोक में नहीं मिलता। जो अनापत्ति के धर्मों के करने में समर्थ होकर भी आपत्ति धर्म करता हैं उसे पारलौकिक फल से वंचित रहना पड़ता हैं।'' यदि किसी प्रकार से हलवाहे आदि की सामर्थ्य या प्राप्ति न होने से उनके लिए यह भी आपत्तिकाल मान लिया जाये तो किसी तरह गुजारा हो सकता हैं। परन्तु ऐसे कर्मों का जहाँ तक हो सके, त्याग ही श्रेयस्कर हैं।

इस प्रकार से ब्राह्मण के लिए जब कृषि मन्वादि वाक्यों द्वारा सनातन धर्म सिद्ध हो गयी और विशेषकर आजकल जब वेदादि का अभ्यास छोड़ने से प्रतिग्रह की योग्यता न रह गयी अथवा रहने पर भी अनापत्तिकालिक जीविका का संघटन बना हुआ हैं। ऐसी दशा में प्रतिग्रह का अधिकार ही न रहने से जैसा कि अभी कह चुके हैं, कृषि करना बहुत उत्तम जीविका ठहरी। तो मनुस्मृति के दशमध्याय में वा अन्यत्रा जो कृषि का निषेध प्रतीत होता हैं अथवा उसकी निन्दा मात्र प्रतीत होती हैं वह केवल, जैसा कि प्रथम कह चुके हैं, स्वयंकृता कृषि की निन्दा हैं। क्योंकि दशमध्याय आपद्धर्म प्रकरण हैं। इसलिए पूर्वोक्त व्यवस्थानुसार स्वयंकृत कृषि आदि का ही प्रकरण हैं। क्योंकि अस्वयंकृत कृष्यादि को अनापद्धर्म प्रकरण चतुर्थ अध्याय में मनुजी स्वयं ही कह चुके हैं। परन्तु कोई ऐसा न विचार ले, जैसा कि आजकल के बहुतेरे नवशिक्षितों का विचार हो रहा हैं, कि सर्वदा ही अपने हाथ से ब्राह्मण को हल जोतने में कोई हर्ज नहीं हैं'' इसलिए मनुजी उस कृषि को निन्दित और अगतिक गति ठहराते हुए केवल आपत्ति में ही उसे करने की आज्ञा देते हैं। क्योंकि प्रथम यह कहते हैं कि :

उभाभ्यामप्यजीवंस्तु कथंस्यादिति चेद्भवेत्।
कृषिगोरक्षमास्थाय जीवेद्वैश्यस्य जीविकाम्॥मनु ।अ 10॥ 82॥॥

अर्थात् ''यदि यह संशय हो कि आपत्ति में अपनी वृत्ति और क्षत्रिय की भी विशेष वृत्ति न मिल सके तो ब्राह्मण कैसे जीवे? तो उसका समाधान यह हैं कि वैश्य वृत्ति अर्थात् अपने हाथों हल जोतकर कृषि और गोरक्षा एवं वाणिज्य द्वारा जीविका करे''। यदि सामान्यत: सभी प्रकार की कृषि वैश्य के ही लिए होती तो यह क्यों कहते कि वैश्य की वृत्ति रूप जो कृषि और गोरक्षा हैं उनसे जीवे? क्योंकि आप तो सभी को एक-सी ही मानते हैं। परन्तु हमारे मत से तो खेती दूसरे द्वारा कराना ब्राह्मण का भी कर्म हैं। इसलिए वैश्य की वृत्ति रूप खेती कहने से अपने हाथों वाली ही ली जायेगी और वही आपद्धर्म हैं। अब अगले श्लोकों में पूर्वोक्त इस कृषि में से भी विशेष प्रकार की कृषि करने को कहते हैं। क्योंकि लिखते हैं कि :

वैश्यवृत्त्यापि जीवंस्तु ब्राह्मण: क्षत्रियोपि वा।
हिंसाप्रायां पराधीनां कृष्रिं यत्नेन वर्जयेत्॥ मनु. अ. 10॥ 83॥

तात्पर्य यह हैं कि ''अपने हाथ से खेती करके जीने वाले ब्राह्मणादि भी उस कृषि का बहुत यत्न से परित्याग करे जिसमें बहुत ही हिंसा की सम्भावना हो, अथवा जमीन इत्यादि भी अपनी न होने से सभी प्रकार से पराधीनता ही हो। क्योंकि मनुजी प्रथम भी कह चुके हैं कि :

यद्यत्परवशं कर्म तत्ताद्यत्नेन वर्जयेत्।
यद्यदात्मवशंतुस्यात्तात्तात्सेवेत यत्नत:॥मनु.।अ. 4 159॥

अर्थात् ''जो जो काम एकदम पराधीन हो उनका यत्नपूर्वक त्याग और जो स्वाधीन हो उनका सेवन करे। इसके बाद ही लिखते हैं कि :

कृषिं साध्विति मन्यन्तेसा वृत्ति: सद्विगर्हिता।
भूमिं भूमिशयांश्चैव हन्तिकाष्ठमयोमुखम्॥मनु ।अ 10॥ 84॥

इसलिए इसका प्रकरणवश उचित अर्थ यही हैं कि बहुत लोग ऐसा समझते हैं कि स्वयं अर्थात् ''अपने हाथ से हल जोतकर कृषि करना सर्वदा ही उत्तम हैं। परन्तु ऐसी वृत्ति की आपत्तिकाल से भिन्न काल में सत्पुरुष लोग निन्दा करते हैं, क्योंकि फलसहित जो हल का भाग हैं वह भूमि का विदारण और उसमें रहने वाले जीवों का नाश करता हैं। अत: अपने हाथ से हल जोतने वाला हिंसक हो जायेगा।' यही बात पराशरस्मृति में भी प्रथम दिखला चुके हैं। यदि ऐसा अर्थ न मानोगे तो मनुजी की इस सामान्य निन्दा से सभी के लिए कृषि निन्दित समझी जायेगी, क्योंकि इसमें किसी ब्राह्मण आदि का नाम नहीं हैं। ऐसी दशा में जो गीता और मनुस्मृत्यादि ग्रन्थों में सामान्य रूप से लिखा हैं कि:

कृषिगौरक्ष्याणिज्यंवैश्यकर्म स्वभावजम्। गीता॥ 18। 44
शात्रास्त्राभृत्त्वं क्षत्रास्य वणिक्पशुकृषिर्विश: मनु.। 79। ॥ 10॥

अर्थात् ''कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य ये कर्म वैश्यों के स्वाभाविक हैं। शस्त्रा और अस्त्रा धारण करना क्षत्रिय की जीविका हैं और वाणिज्य, कृषि तथा पशुपालन वैश्य की।'' इन सबों का तात्पर्य यह हैं कि स्वयंकृत (अपने हाथ से किये गये) कृषि, वाणिज्य और पशुपालन वैश्यों की स्वाभाविक जीविकाएँ हैं, परन्तु अस्वयंकृत कृष्यादि तो ब्राह्मण की भी जीविकाएँ हैं। नहीं तो उन्हीं मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का पूर्वापर अथवा परस्पर विरोध होगा।

एक बात और ध्यान देने की हैं जैसे ब्राह्मणत्व, ब्राह्मणता या ब्राह्मणण्य यह ब्राह्मण का असाधारण कर्म हैं, अर्थात् ऐसा धर्म हैं जो उसे छोड़कर अन्यत्रा नहीं पाया जा सकता। ऐसी ही क्षत्रियत्वादि की भी दशा जाननी चाहिए। इसी प्रकार यदि कृषि भी करना केवल वैश्य (वणिक्) का ही असाधारण कर्म होता तो वाणिज्य कहने में ही उसका भी बोध हो जाता, क्योंकि त्व, तल और ष्य प्रत्यय जिन शब्दों के आगे लगते हैं उनके प्रतिपाद्य अर्थों के असाधारण धर्मों और कर्मों को कहते हैं। जैसे ष्य प्रत्ययान्त काव्य शब्द कवि के ही असाधारण कर्म (क्रिया) को कहता हैं। इसमें पाणिनि महर्षिजी के 'तस्यभावस्त्वतलौ' (5। 1। 119) गुणवचनब्राह्मणादिभ्य: कर्मणि च' (5। 1। 124) ये दोनों सूत्र प्रमाण हैं और फिर 'कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यम्' इस वाक्य में वाणिज्य से पृथक् कृषि और गोरक्षादि के कथन की आवश्यकता न होती, क्योंकि वाणिज्य शब्द भी ष्य प्रत्ययान्त हैं। इससे स्पष्ट हैं कि कृष्यादि वैश्य के असाधारण धर्म नहीं हैं, किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यादि के साधारण धर्म हैं अर्थात् उन्हें सभी कर सकते हैं। बृहस्पतिस्मृति के प्रारम्भ के बीसों श्लोकों में भूमिदान की बहुत ही प्रशंसा की गयी हैं, जैसा कि :

सुवर्णंरजतं वस्त्रां मणिं रत्नं च वासव।
सर्वमेव भवेद्दत्तां वसुधां य: प्रयच्छति॥ 5॥

अर्थात् ''हे इन्द्र! सोना, चाँदी, वस्त्र, मणि और रत्न इन सभी के दान का फल भूमिदान से प्राप्त होता हैं' इत्यादि और इस भूमिदान का पात्र ब्राह्मण ही हो सकता हैं। बल्कि इस बात को उसी जगह लिख भी दिया हैं कि :

विप्राय दद्याच्च गुणान्विताय तपोनियुक्ताय जितेन्द्रियाय।
यावन्मही तिष्ठतिसागरान्ता तावत्फलंतस्यभवेदनन्तम्॥ 10॥

जिसका अर्थ यह हैं कि ''गुणवान, तपस्वी और जितेन्द्रिय ब्राह्मण को पृथ्वी दान दे जिसका अनन्त फल जब तक सागर पर्यन्त पृथ्वी स्थित रहेगी तब तक होगा।'' अब ब्राह्मण उस पृथ्वी का या तो राजा बने या उसमें कृषि करवावे, तीसरी बात तो हो सकती नहीं। यदि दूसरे को दे देना चाहे सो तो उचित नहीं हैं, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति के 317वें श्लोक के 'पार्थिव:' इस पद को लेकर मिताक्षरा में लिखा हैं कि 'अनेनभूपतेरेव भूमिदानेधिकारो न भोगपतेरिति दर्शितम्'। अर्थात् स्मृति के 'पार्थिव' पद से यह सूचित किया हैं कि राजा को ही भूमिदान का अधिकार हैं, न कि जिन जमींदारादि को केवल भोग के लिए मिली हैं उनको भी। यदि कुछ द्रव्य उसके बदले लेकर उसे बेचना चाहे तो पृथ्वी बेचने का निषेध हैं, क्योंकि यज्ञवल्क्यादि स्मृतियों में लिखा हैं कि :

मृच्चर्म पुष्पकुतपकेशतक्र विषक्षिती:॥ 37॥
वैश्यवृत्यापिजीवन्नोविक्रीणीतकदाचन॥ 39॥ या. प्रा.।
नित्यंभूमिव्रीहियवाजाव्यश्वर्षभधोन्वन डुहश्चैके। गौ. अ. 7।

अर्थात् ''वैश्यवृत्ति से जीविका करनेवाला भी ब्राह्मण मिट्टी, चमड़ा, फूल, कम्बल, चमर, मट्ठा, विष और पृथ्वी का विक्रय कदापि न करे।'' ''सर्वदा ही पृथ्वी, धन, यव, बकरी, भेड़ी, घोड़ा, बैल, धोनु और साँड़ों को बेचना न चाहिए।'' यदि वह भी पृथ्वी का दान करे, तो विरोध होगा, क्योंकि वहाँ तो लिखा हुआ हैं कि :

यथाप्सु पतित: शक्र तैलविन्दु: प्रसर्पति।
एवं भूम्या: कृतं दानं शस्ये शस्ये प्ररोहति॥ 1॥ बृह.।

अर्थात् ''हे इन्द्र! जैसे जल में गिरा हुआ तेल फैलता हैं वैसे ही भूमि का दान ज्यों-ज्यों उसमें अन्न उत्पन्न होकर बढ़ता हैं त्यों-त्यों बढ़ता हैं।'' इससे तो जिसे प्रथम दी गयी हैं वह कृषि करने के लिए बाध्य हैं। यदि वह दान भी करेगा तो ब्राह्मण को ही करेगा। इसलिए यदि प्रथम ने न की तो दूसरा ही कृषि करेगा। अन्ततोगत्वा जब करेगा तो ब्राह्मण ही। और भी आगे स्पष्टरूप से लिखा हैं कि :

त्रीण्याहुरतिदानानि गाव: पृथ्वीसरस्वती।
तारयंतीह दातारं जपवानपदोहमै:॥ 18॥

अर्थात् ''तीन दान अतिदान कहे जाते हैं यानी गौ, पृथ्वी और विद्या, जो क्रमश: दुहने, बोने और जपने से दाता को तार देते हैं''। इससे तो स्पष्ट ही हैं कि पृथ्वी दानग्राही दाता को उसके फल की प्राप्ति के लिए अवश्य उसमें अन्न बोवे अर्थात् कृषि करे। अग्निपुराण के 113वें अध्याय में लिखा हैं कि :

भूमिं दत्वा सर्वभाक् स्यात्सर्वशस्यप्रोहिणीम्।
ग्रामं वाथ पुरं वापि खेटकं वा ददत्सुखी॥ 9॥

अर्थ यह हैं कि ''सब शस्य से युक्त पृथ्वी का दान देने से सब वस्तुओं का भागी होता हैं और गाँव, टोला अथवा खेटक (खेड़ा) इत्यादि देने से भी सुखी होता हैं।'' उसी के 291वें अध्याय में लिखा हैं कि :

संयुक्तहलपंत्तायाख्यं दानं सर्वफलप्रदम्।
पंक्तिर्दशहला प्रोक्ता दारुजा वृषसंयुता॥ 7॥

जिसका अर्थ यह हैं कि ''संयुक्तहलपंक्ति नाम का दान सब फलों का प्राप्त कराने वाला होता हैं। लकड़ी के दस हल जो बैलों के साथ हो उनका नाम पंक्ति हैं।'' भला बैल के साथ हल का दान सिवाय ब्राह्मण के कृषि करने के और किस काम का होगा? अग्निपुराण के ही 125वें अध्याय में लिखा हैं कि :

कृषिगोचरक्ष्वाणिज्यं कुसीदं च द्विचश्चरेत्।
गोरसं गुडलवणलाक्षामांसानि वर्जयेत्॥ 2॥
हलमष्टगवं धार्म्मं षड्गवं जीवितार्थिनाम्।
चतुर्गवं नृशंसानां द्विगवं धर्मघातिनाम्।
ऋतामृताभ्यां जीवेत मृतेन प्रमृतेन वा।
सत्यानृत्याभ्यामपि वा न श्ववृत्तया कदाचन॥ 5॥

अभिप्राय यह हैं कि ''ब्राह्मण कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करे, परन्तु गोरस, गुड़, लवण व लाक्षा और मांस की बिक्री न करे। आठ बैलोंवाला हल धर्मयुक्त, छ: बैलों वाला केवल जीने के लिए चार बैलों वाला हत्यारों को और दो बैलों वाला धर्मनाशकों का कहलाता हैं। ऋत्, अमृत, मृत प्रमृत (कृषि) और सत्यानृत (वाणिज्य) से जीविका करे, परन्तु श्ववृत्ति अर्थात् नौकरी से जीविका कभी भी न करे।'' मत्स्यपुराण के 280वें अध्याय में पंचलांगलक नाम के दान से भी ब्राह्मण का कृषि करना स्पष्टरूप से सिद्ध हैं। वह इस प्रकार हैं :

अर्थात: संप्रवक्ष्यामि महादानमनुत्तामम्।
पंचलांगलकं नाम महापातकनाशनम्॥1॥
पुण्यां तिथिमथासाद्य युगादिग्रहणादिकाम्।
भूमिदानं नरो दद्यात्पंचलांगलकान्वितम्॥2॥
खर्वटं खेटकं वापि ग्रामं वा शस्यशालिनम्।
नरिवत्तानशतं वापि तदर्ध्दं वापि शक्तित:॥3॥
सारदारुमयान्कृत्वा हलान्पंच विचक्षण:।
सर्वोपकरणैर्युक्तानन्यान् पंच च काचनान्॥ 4॥
कुर्यात्पंचपलाद्द्धर्वमासहस्रपलावधि।
वृषान् लक्षणसंयुक्तान्दश चैव धुरन्धारान्।
सुवर्णशृभरणान् मुक्तालांगूलभूषणान्॥5॥
रौप्यपादाग्रतिलकान् रक्तकौशेयभूषणान्।
ग्दामचन्दनयुक्तान् शालायामविवामयेत्॥ 6॥
ततो मंगलशब्देन शुक्लमाल्याम्बरो बुधा:।
आहूय द्विजदाम्पत्यं हेमसूत्रांगुलीयकै:॥ 9॥
कौशेयवस्त्राकटकैर्मणिभिश्चाभिपूजयेत्।
शय्यां सोपस्करां दद्याद्धेनुमेकां पयस्विनीम्॥ 10॥
तत: प्रदक्षिणीकृत्य गृहीतकुसुमाजलि:।
इममुच्चारयेन्मंत्रामथसर्वं निवेदयेत्॥11॥
यस्माद्देवगणा: सर्वे स्थावराणि चराणिच।
धुरन्धारांगे तिष्ठन्ति तस्माद्धिक्ति: शिवे स्तुमे॥12॥
यस्माच्चभूमिदानस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्।
दानान्यन्यानि मे भक्तिर्धर्म एव दृढा भवेत्॥ 13॥
दंडेन सप्तहस्तेन त्रिंशद्दण्डं नरिवत्तानम्।
त्रिभागहीनं गोचर्ममानमाह प्रजापति:॥14॥
मानेनानेन यो दद्यान्नरिवत्तानशतं बुधा:।
विधिनानेन तस्याशु क्षीयते पापसंहति:॥ 15॥
तदर्ध्दमथवा दद्यादपि गोचर्ममात्रकम्।
भवनस्थानमात्रां वा सोपि पापै: प्रमुच्यते॥ 16॥
यावन्ति लांगलकमार्गमुखानिभूमे,
र्भासां पतेर्दुहितुरंगजरोमकाणि।
तावन्तिशंकरपुरे स समाहितिष्ठेद्,
भूमिप्रदानमिह य: कुरुते मनुष्य:॥ 17॥
इन्द्रत्वमप्यधिगतं क्षयमभ्युपैति
नोभूमिलांगलधुरन्धर संप्रदानात्।
तस्मादघौघपटलक्षयकारिभूमे
र्दानविधोयमिति भूमिभवोद्भवाय॥ 19॥

सबका भावार्थ यह हैं कि ''अब पंचालंगलक नामक महादान का वर्णन करते हैं, जो महापातक का नाशक हैं। ग्रहणादि पुण्य तिथि में मनुष्य पाँच हलों सहित भूमिदान करे। वह भूमि चाहे ऊँची, नीची, खेड़ा, शस्य से पूर्ण, ग्राम अथवा सौ नरिवत्तान हो, अथवा यथाशक्ति उसका आधा भी हो। पाँच हल लकड़ी के सार के और पाँच सोने के बनवावे, जिनमें से लकड़ी वाले जोतने की सब सामग्री के सहित हो, परन्तु सोने के तो पाँच पल से लेकर 1000 पल (परिणाम विशेष) तक के बनवावें। लकड़ी के पाँच हलों के लिए दस धुरन्धर (हल की जुआ खींचने वाले), सुवर्ण लगी सींग और मुक्ता लगी पूँछवाले एवं पाँवों के अग्र में चाँदी मढ़े और लाल रेशम ओढ़ाये हुए तथा चन्दन और माला आदि से भूषित बैलों को भी दानशाला में लाकर रखे। उसके बाद शुक्ल वस्त्र और माला पहन मंगलजनक शब्दों से ब्रह्माणी और ब्राह्मण को बुलाकर सोने की करधनी, जनेऊ और आभूषण एवं रेशमी वस्त्र, मणि और कंगनों से उनकी पूजा करे। सब समान के साथ एक शय्या और दूध देने वाली धेनु का दान करे। उसके बाद प्रदक्षिणा कर अंजली में पुष्प लेकर इस अगले मन्त्रों का उच्चारण करके सब वस्तुएँ दे दे। हल की जुआ खींचने वाले बैल के अंगों में सब देवता, स्थावर और जंगम निवास करते हैं, इसलिए मेरी भक्ति शिव में उत्पन्न हो। और अन्य दान भूमिदान के सोलहवें अंश के भी बराबर नहीं होते, इसलिए मेरी दृढ़ भक्ति धर्म में हो। सात हाथों वाले दण्ड से तीस दण्ड नपी भूमि एक नरिवत्तान कहलाती हैं और उसी का तीसरा भाग उसमें घटा देने से वही भूमि गोचर्म प्रमाणवाली कही जाती हैं। इस परिणाम से जो विचारवान 100 नरिवत्तान पूर्वोक्त विधि से दान करता हैं उसका पाप समुदाय नष्ट हो जाता हैं। जो उसका आधा, गोचर्म मात्र अथवा मकान बनाने भर भी देता हैं उसके भी पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य इस प्रकार से हल आदि के सहित भूमि दान करे वह उतने ही वर्ष कैलाश में निवास करता हैं जितनी हराइयाँ उस भूमि पर जोतते समय बार-बार पड़ा करती हैं, अथवा जितने यमुना के रोम (शीकर) हैं। हल और जोतने वाले बैल के सहित भूमिदान करने में प्राप्त इन्द्र पदवी का भी नाश नहीं होता, इसलिए सब पापों का नाशक ऐसा भूमिदान ऐश्वर्य के लिए अवश्य करना चाहिए। जब-जब परशुराम ने पृथ्वी को नि:क्षत्रिया करके उसे कश्यपादि ब्राह्मणों को दिया, जिसका विवरण वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के 75वें सर्ग, स्कन्दपुराण के नागरखण्ड के 67वें अध्याय, ब्रह्मवैवर्तपुराण और महाभारतादि सभी ग्रन्थों में पाया जाता हैं। तो फिर उन लोगों ने भूम्यधिपतित्व (राज्य या जमींदारी) अवश्य ही स्वीकार किया और उनमें से बहुत से कृषि भी करते थे। इसके अतिरिक्त बहुत सा शिष्टाचार भी कृषि में प्रमाणरूप से मिलता हैं। दृष्टान्तार्थ धर्मारण्यस्थ ब्राह्मणों को लीजिए, जिनके याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह के त्याग की बात प्रथम ही कह चुके हैं। उन्हीं के विषय में स्कन्द पुराण के ब्रह्मखण्ड के धर्मारण्यमहात्म्य प्रसंग में ऐसा लिखा हैं कि :

पंचदशसहस्त्राणि मध्ये ये के च वाडवा:॥ 86॥
कृषिकर्मरता आसन् केचिद्यज्ञपरायणा:।
केचिन्मल्लाश्च संजाता: केचिद्वै वेदपाठका:॥99॥
स्वकर्मनिरता: शान्ता: कृषिकर्मपरायणा:।
धर्मारण्यान्नातिदूरे धोनू: संचारयन्ति ते॥ 300॥
बहवस्तत्रा गोपालाबभूवुर्द्विजबालका:।
तेषुग्रामेषु ते विप्राश्चातुर्विद्याद्विजोत्तामा:॥ 301॥ अ. 40

जिसका भावार्थ यह हैं कि ''उन 15 हजार वाडवों ब्राह्मणों में से कोई कृषि करते, कोई यज्ञ में लीन रहते, कोई पहलवानी करते और कोई वेदपाठ करते थे। वे लोग अपने-अपने धर्म में निरन्तर संलग्न हुए शान्त और कृषिकर्म में दत्तचित्त थे। उन ब्राह्मणों के बहुत से बालक गायों की रक्षा करते और धर्मारण्य के पास ही गायें चराया करते थे और रामचन्द्रजी के दिये हुए उन्हीं ग्रामों में चारों वेदों के ज्ञाता सर्वोत्तम वाडव (ब्राह्मण) रहा करते थे। इससे जो कोई ऐसा कहा करते हैं कि कृषि करने और दान आदि त्यागने से अयाचक ब्राह्मण कट्टर ब्राह्मण न रहकर हीन समझे जाने लगे, उनका स्पष्ट रूप से खण्डन हो गया। एक तो जब पूर्वोक्त रीति से कृषि ब्राह्मण का सनातन धर्म हैं, तो फिर उसके करने से कट्टरपना कहाँ चला गया? दूसरे अभी इन और पूर्व के श्लोकों से स्पष्ट ही विदित हुआ हैं कि धर्मारण्यवासी वाडव (ब्राह्मण) प्रतिग्रहादि तीन कर्मों के त्यागी और कृषि तथा गोपालनादि करते हुए यज्ञ दानादि के कर्ता थे और साथ ही, चारों वेदों के ज्ञाता थे न कि मूर्ख, जिससे भूल कर ऐसा करते रहे हों एवं श्रीरामचन्द्र द्वारा वहाँ स्थापित किये गये थे, फिर भी उनको 'द्विजोत्तामा:' अर्थात् सभी ब्राह्मणों से उत्तम कहा हैं। ठीक उनकी सी ही दशा तथा आचार-विचार और कर्म इन अयाचक ब्राह्मणों के भी हैं तो इनकी कट्टर ब्राह्मणता चली गयी और हीन समझे जाने लगे, इसे कहने की जगह 'ये बहुत ही कट्टर और सब ब्राह्मणों से उत्तम ब्राह्मण हैं' यही कहना न्यायसंगत हैं। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड के प्रारम्भ में ही जब दशरथजी ने 'पुत्रोष्टि' नामक यज्ञ कराकर उसकी दक्षिणा में पृथ्वी दान को सर्वोत्तम समझ उसी का देना प्रारम्भ किया हैं तो ब्राह्मणों ने यह कहकर उसका इन्कार किया हैं कि हम लोग तपस्वी आदि हैं, अत: हम लोगों से भूमि का प्रबन्ध नहीं हो सकता। इसलिए उसके बदले अन्न, द्रव्यादि दीजिये। न कि भूलकर भी यह कहा हैं कि भूमिपतित्व अथवा उसमें कृषि करना हम लोगों के लिए शास्त्रनिन्दित हैं। इससे आपकी दी हुई पृथ्वी हमारे किसी काम की न होगी। अत: अन्नादि ही दक्षिणा में दीजिये। इस विषय में जिसे सन्देह हो वह वाल्मीकि रामायण का बालकाण्ड आदि में ही देखकर अपनी तुष्टि कर ले। उसी रामायण के अयोध्याकाण्ड के 32वें सर्ग में जब श्रीरामजी वन जाते हुए अपने महल की सब वस्तुएँ याचकों को देने लगे हैं उस समय उनके पास कुछ द्रव्य प्राप्ति के निर्मित्त आये हुए एक ऐसे ब्राह्मण का वर्णन हैं, जिससे उन युगों में भी कृषि करना ब्राह्मण का उत्तम धर्म सिद्ध होता हैं क्योंकि वहाँ लिखा हैं कि:

क्षत्रावृत्तिर्वने नित्यं फालकुद्दाललांगली।
तत्रासीत्पिंगलो गार्ग्यस्त्रिजटानाम वै द्विज:॥ 29॥

कहीं-कहीं 'क्षतवृति:' ऐसा भी पाठ मिलता हैं। उसका अर्थ यह हैं कि ''उस जगह अथवा उस समय गंगोत्री पीतवर्ण का एक त्रिजट नामवाला ब्राह्मण था, जो अस्त्रादि द्वारा कन्दमूल खोदकर, अथवा फल, कुदाल और हल से अर्थात् कृषि करके नित्य ही वन में रहता हुआ अपनी जीविका करता था। उसी जगह यह भी लिखा हुआ हैं कि जब उसकी स्त्री ने बहुत दु:खी होकर उसे भगवान् रामचन्द्र के पास याचना करने के लिए कहा तो प्रथम उसने वहाँ न जाने के लिए बहुत ही आग्रह किया हैं, परन्तु स्त्री के आग्रह से अन्त में हारकर भगवान् के पास गया हैं और जब वहाँ उसके विलक्षण वेष को देखकर उसकी उत्तम ब्राह्मणता में शंका करके परीक्षार्थ श्रीरामजी ने कहा हैं कि बहुत दूर तक ये गायें खड़ी हैं तुम अपना दण्ड फेंको, जहाँ तक वह पड़ेगा उतनी गायें ले जाना। इस पर उसने उनके भाव समझ दण्ड ऐसा फेंका हैं कि वह कई कोस दूर जाकर पड़ा हैं। इसलिए उसकी शुद्धता देखकर श्रीरामजी बहुत प्रसन्न हुए हैं इत्यादि। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि कृषि करना और अस्त्रादि धारण करना कट्टर ब्राह्मणपने के लक्षण हैं, न कि हीनता के? इस आख्यान से यह भी स्पष्ट हैं कि दान लेना प्रभृति अगतिक गति हैं, और काल पाकर याचक ब्राह्मण अयाचक और अयाचक ब्राह्मण याचक हो सकते हैं और इसी प्रकार अयाचक और याचक ब्राह्मणों के पृथक्-पृथक् दल बनते और घटते-बढ़ते जाते हैं। इसलिए यदि कोई अयाचक ब्राह्मण आवश्यकता पड़ने पर अपनी वंशावली आदि से यह सिद्ध करता हैं कि कुछ दिन पूर्व उनके पूर्वज याचक दल वाले ब्राह्मण थे और अपना विवाह सम्बन्ध याचक दल वालों से सिद्ध करता हैं तो जो विचारविकल पण्डितमानी यह कहकर इसकी हँसी उड़ाते हैं कि 'लो' कहाँ तो अयाचक ब्राह्मण बनते थे, कहाँ अब याचक बनने लगे इत्यादि। उनको पूर्व निर्णीत विषय और आख्यान से अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय कर उस कुशाग्र बुद्धि को इस रसायन द्वारा सुधार लेना चाहिए। महाभारत के सभापर्व के 51वें अध्याय में लिखा हैं कि :

गोवासना ब्राह्मणाश्च दाशनीयाश्च (दर्शनीयाश्च) सर्वश:।
प्रीत्यर्थं ते महाराज धर्मराज्ञो महात्मन:॥ 5॥
त्रिखर्बं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:।
ब्राह्मणा वाटधानाश्च गोमन्त: शतसंघश:॥ 6॥
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयान् शुभान्।
एवं बलिं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च॥ 7॥

इसका भावार्थ यह हैं कि ''जब दुर्योधन युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ से लौट कर गया हैं तो वहाँ उनकी जो सम्पत्ति उसने देखी थी उससे उसे बड़ा सन्ताप हुआ हैं, जिसका कारण पूछने पर शकुनि से इन्हीं सम्पदाओं का वर्णन करता हैं कि 'हे महाराज!पृथ्वी और गाय-बैलों के संस्कारवाले (क्योंकि गो नाम पृथ्वी और गाय-बैलों का भीहैं)अर्थात् बड़े-बड़े राजा और कृषि करनेवाले एवं दर्शनीय अर्थात् दिव्य शरीरवाले अथवा बड़े-बड़े दाता ब्राह्मण युधिष्ठिर महाराज की प्रसन्नता के लिए तीन खर्व द्रव्य बलि(नजर) लिये हुए द्वार पर इसलिए रोके गये हैं कि बाहर ही बलि देकर उसके भीतर जाये।' और वाटधन देश में रहनेवाले पूर्ववत् भूमि और गाय-बैलोंवाले ब्राह्मणों के सैकड़ों झुण्ड यज्ञ के लिए बहुत से सोने के कमण्डलु और दूसरी बलि (नजर) लेकर पूर्वोक्त कारण से भीतर जाने नहीं पाते हैं।'' इससे पूर्व के 49वें अध्याय में कह चुके हैं कि-

ब्राह्मणावाटधनाश्च गोमन्त: शतसंघश:।
त्रिखर्वं बलिमादाय द्वारि तिष्ठन्ति वारिता:॥ 25॥
कमण्डलूनुपादाय जातरूपमयान् शुभान्।
एतद्धनं समादाय प्रवेशं लेभिरे न च॥ 26॥

इसका अर्थ पहले-सा ही हैं। वाटधन देश उत्तर भारत में गान्धार, काश्मीर के पास में महाभारत के युद्धक्षेत्र के पास ही सम्भवत: कहीं था अथवा हैं। क्योंकि महाभारत के सभापर्व के 32वें अध्याय में ही नकुल के दिग्विजय प्रसंग में लिखा हैं कि जब इन्द्रप्रस्थ से पश्चिम की ओर दिग्विजय करने को निकले हैं तो :

तथामध्यमकेयांश्च वाटधनान् द्विजानथ।
पुनश्चपरिवृत्याथ पुष्करारण्यवासिन:॥ 8॥

अर्थात् ''मध्यमक देशवासियों को जीत, वाटधन देश के ब्राह्मणों को जीता। उसके बाद घूमकर पुष्करारण्य वासियों को भी जीता।'' फिर उद्योगपर्व में जब हस्तिनापुर में कौरव सेना को अवकाश न मिला तो ईधर-उधर के उसके पास के ही देशों में
¹क्योंकि सभी बलि (नजर) लानेवाले बड़े-बड़े राजाओं का वर्णन करके अन्त में 52वें अध्याय में लिखा हैं कि:

तत्रास्था द्वारपालैस्ते प्रोच्यन्ते राजशाशनात्।
कृतकाला: सुवलय: ततो द्वारमवाप्स्यथ॥ 19॥

अर्थात् उन सभी को युधिष्ठिर महाराज की आज्ञा से द्वारापालों ने यही कहा कि आप लोग बाहर ही बलि देकर अन्दर जाने पायेंगे। फैल गयी हैं, तो वहाँ पर वह मिला तो वाटधन देश का भी नाम आया हैं। जैसा कि :

तत: पंचनद चैव कृत्स्नं च कुरुजांगलम्॥ 29॥
तथारोहितकारण्यं मरुभूमिश्च केवला।
अहिच्छत्रां कालकूटं गंगाकूलं च भारत॥ 30॥
वारणं वाटधनाश्च यामुनश्चैव पर्वत:।
एष देश: सुविस्तीर्ण: प्रभूतधनधान्यवान्॥ 31॥
बभूव कौरवेयाणां बलेनातीव संवृत:॥32॥

अर्थात् ''हस्तिनापुर में न ऐटने पर पचनद सम्पूर्ण कुरुजांगल, रोहितकारण्य, केवल मरुभूमि, अहिच्छत्रा, कालकूट, गंगातट, वारण, वाटधन और यमुना के उद्गम स्थान का पर्वत इन सुविस्तीर्ण और बहुत धनधान्यवाले देशों को कौरव सेना ने छेंक लिया।'' पण्श्निडतवर नीलकण्ठ ने भी अपने 'भारत भाव प्रदीप' में इस जगह यही लिखा हैं कि 'अहिच्छत्रादय: प्रदेशविशेष:' अर्थात् 'ये अहिच्छत्रादि नाम प्रदेश विशेष के हैं।' मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय में भी ऐसा ही लिखा हैं कि :

वाल्हीका वाटधानाश्च आभीरा: कालतोयका:।
पुरन्धा्रराश्चैव शूद्राश्च पल्लवाश्चात्ताखण्डिका:॥ 40॥
गान्धारा यवनाश्चैव सिन्धुसौवीरमद्रका:।
शका दु्रह्या: पुलिन्दाश्च पारदाहारमूर्त्तिका:॥ 41॥
रामठा कंटकाराश्च कैकेया दशनामका:।
क्षत्रियोपनिवेश्याश्च वैश्या: शूद्रकुलानि च॥ 42॥
अत्रायो थभरद्वाजा: प्रस्थला: सदसेरका:।
लम्पकास्तलगानाश्च सैनिका: सहजागलै:।
एतेदेशाउदीच्यास्तु...........................॥ 43॥

अर्थात् ''वाल्हीक, वाटधान, आभीर, कालतोयक, पुरन्धार, शूद्र पल्लव, आत्तखंडिक, गान्धार, यवन, सिन्धु-सौवीर, मद्रक, शक, दु्रह्य, पुलिन्द, पारदाहारमूर्त्तिक, रामठ, कण्टकार, केकय, दशनामक, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के देश, अत्रि, भरद्वाज, प्रस्थल सदसेरक, लम्पक-तलगान, सैनिक और जंगल ये उत्तर भारत के देश हैं॥

इसी वाटधन देश के राजा और जमींदार (भूमिपति) ब्राह्मण नकुल विजय के बाद बलि लेकर आये थे। गान्धारादि देशों में ब्राह्मण रहते हैं इसमें चीनी यात्री 'हुईसंग' (Hwi Seng) और 'संगयुन' (Sungyun) आदि की भी सम्मत्ति मिलती हैं, जो सन् 517 ई. के लगभग भारत यात्रा को आये थे। यह बात 'फाह्यान और संगयुन की यात्रा’ (Travels of Fah-Hian and Sungyun) नामक पुस्तक में मिलती हैं। उसमें काश्मीर, गान्धार, बुखारा आदि कई देशों में जहाँ-तहाँ ब्राह्मणों का वर्णन करते हुए 197वें पृष्ठ में गान्धार के विषय में लिखा हैं कि “The people of the country belonged entirely to the Brahman caste. They had a great respect for the law of Budha, and loved to read the Sacred books.” अर्थात् गान्धार देशवासी सभी के सभी ब्राह्मण थे और बुद्ध अनुशासन से बहुत प्रेम रखते और पवित्र पुस्तकें पढ़ा करते थे। और यह उचित भी हैं। क्योंकि उन देशों में एक प्रकार के सारस्वत विप्र, जिनकी संज्ञा 'भूमिहार' शब्द के सदृश और इसी अर्थवाली 'महियाल या महीवाल हैं, रहा करते हैं। इसलिए 'भारत भ्रमण' ग्रन्थ के 52वें पृष्ठ में जो पूर्वोक्त मत्स्यपुराण के 113वें अध्याय के नाम पर मिथ्या ही यह लिखा गया कि वाल्हीक, वाटधन, आभीर, कालतोयक यह शूद्रों के देश हैं और पल्लव, आत्तखण्डिक, गान्धार यह यवनों के देश हैं'' वह असंगत हैं। साथ ही, उस 113वें अध्याय का अर्थ भी अभी कर चुके हैं। उसमें इस प्रकार के कहीं भी नहीं लिखा हैं।

अस्तु, उस प्रकृति 'त्रिखर्वं’, 'बलिमादाय' इस श्लोक में जो 'त्रिखर्वं’ यह पद हैं, उसका किसी ने ऐसा भी अर्थ किया हैं कि खर्व शब्द संख्यावाचक न होकर 'खर्वोहस्वश्चवामन:' (अम., 2 का. मनु. 46) इस कोष के अनुसार स्व का वाचक हैं और स्व शब्द छोटे या कम अर्थ में प्रयुक्त होता हैं। अत: 'त्रिखर्व' शब्द का यह अर्थ हुआ कि त्रीणि कर्माणिखर्वाणिस्वाणि न्यूनानि तेषां ते त्रिखर्वा:' अर्थात् जिनके तीन कर्म याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह न्यून यानी छूट गये हैं उनका नाम त्रिखर्व हैं। सारांश, त्रिकर्मा यानी केवल याजन, अध्यायन और दान करनेवाला ब्राह्मण। यद्यपि 'त्रिखर्व' यह शब्द जब बलि का विशेषण होकर संख्यावाचक होता हैं तो जैसा बलि शब्द द्वितीयान्त एकवचन हैं वैसा ही 'त्रिखर्व' यह शब्द भी हैं, अत: अर्थ ठीक बैठता हैं। परन्तु पूर्वोक्त अर्थ में ब्राह्मण:' शब्द का विशेषण होने से 'त्रिखर्वा:' ऐसा होना चाहिए। क्योंकि उसका विशेष्य 'ब्राह्मणा:' यह शब्द प्रथमान्त बहुवचन हैं। तथापि 'त्रीणि कर्माणि खर्वाणि हृस्वानिन्यूनानियस्मिन्कर्मणि तद्यथास्यात्' अर्थात् जिस क्रिया में तीन कर्म न्यून हो उसकी तरह से ऐसा विग्रह करके 'त्रिखर्व' पद को 'तिष्ठन्ति' इस क्रिया पद का विशेषण कर देने से 'सामान्य नपुंसकम्' इस व्याकरण वाक्तविक (कात्यायनवचन) मूलक क्रियाविशेषणानां कर्मत्व क्लीवत्व च' अर्थात् क्रिया-विशेषण वाचक पद नपुंसक द्वितीयान्त हुआ करते हैं। इस न्याय के अनुसार 'व्रिखर्व' यह नपुंसक द्वितीयान्त एकवचन ठीक हो गया और इसका अर्थ भी पूर्वोक्त ही रहा। [नोट- 1 पण्डितवर श्री नीलकण्ठ ही वहाँ पर अपने 'भारत भाव प्रदीप' में लिखते हैं कि 'त्रिखर्वं’ त्रीणियाजनाध्यापनाप्रतिग्रहा: खर्वाणि न्युव्जानि धनलाभरूपफलहीनानि येषां ते त्रिखर्वां याजनादिहीना इत्यर्थ:। इसका तात्पर्य ऊपर ही लिखा गया हैं।]  बल्कि जब 'त्रिखर्व' शब्द को संख्यावाचक मानते हैं तभी त्रि शब्द का खर्वशब्द के साथ कर्मधारय समास नहीं हो सकता। क्योंकि दिक्संख्यसंज्ञायाम्'। (2। 1। 50) इस पाणिनिसूत्रानुसार दिशावाचक और संख्यावाचक शब्दों का कर्मधारय समास तभी होता हैं जब वह समस्त पद किसी प्रसिद्ध वस्तु का नाम हो, जैसे 'सप्तर्षि', 'त्रिगुण' और 'त्रिदेव' आदि प्रसिद्ध वस्तु का नाम हैं। परन्तु त्रिखर्व शब्द तो किसी का नाम नहीं हैं। इसलिए जैसे 'अष्टी ब्राह्मणा:' इस जगह समास नहीं होता वैसे ही यहाँ भी नहीं होना चाहिए। दूसरे इस त्रिखर्व पद में समाहार द्विगु नामक कर्मधारय समाम मानना होगा। क्योंकि संख्यापूर्वो द्विगु: (पा. 2। 1। 52) अर्थात् 'संख्या पूर्वक कर्मधारय समास द्विगु कहलाता हैं, ऐसा पाणिनि का सूत्रा हैं। तो फिर जैसे 'सप्तशती' शब्द स्त्रीलिंग हो गया हैं वैसे ही 'अकारान्तोत्तारपदो द्विगु: स्त्रियामिष्ट:' इस महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि जी के अथवा महर्षि कात्यायन के वचनानुसार 'त्रिखर्व' पद का 'त्रिखर्वी' ऐसा स्त्रीलिंग रूप होना चाहिए। क्योंकि उस वाक्य का ऐसा अर्थ ही हैं कि अकारान्त उत्तर पदवाला द्विगु समास स्त्रीलिंग होता हैं और खर्व शब्द अकारान्त हैं। इसलिए इन सब दोषों के वारण करने के लिए जैसे 'पंचपात', 'त्रिभुवन', चतुर्युग इत्यादि शब्दों में स्त्रीलिंग नहीं होता वैसे ही इसका भी स्त्रीलिंग रूप हटाने के लिए उनकी तरह 'पात्रादि गण' में खर्व शब्द का पाठ मानना पड़ेगा। जिसमें 'पात्राद्यन्तस्य न' यह व्याकरण का वार्तिक स्त्रीलिंग रूप का निषेध करेगा, क्योंकि उसका अर्थ यह हैं कि पात्र आदि शब्द जिस समाहार द्विगुसमास के अन्त में हो उसका स्त्रीलिंग रूप नहीं होता, जैसा कि ऊपर दिखला चुके हैं।

अथवा जैसे 'देवपूजा को ब्राह्मणों देवब्राह्मण:' इस जगह मध्यमपदलोपी समास होता हैं वैसे ही त्रिसहितं त्रिरावृत्तां वा खर्वं त्रिखर्वम्' अर्थात् तीन के सहित अथवा तीन आवृत्ति जिसकी की गयी हो ऐसा जो खर्व उसको त्रिखर्व कहते हैं। इस प्रकार से बड़े कष्ट से 'त्रिखर्व' शब्द की सिद्धि होगी। इसलिए इस अर्थ की अपेक्षा स्ववाला ही अर्थ अच्छा हैं, जिससे सिद्ध होता हैं कि पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मणों की तरह वे भी त्रिकर्मा थे और कृषि करते तथा भूमिपति थे। इस प्रकार से धर्मशास्त्र, पुराण, महाभारत, वाल्मीकीय रामायणादि इतिहास और शिष्टाचार से सिद्ध हैं कि कृषि करनेवाले ब्राह्मण बहुत कट्टर ब्राह्मण होते हैं, क्योंकि वह सनातन धर्म हैं और प्रतिग्रहादि उस हालत में जीविकार्थ के लिए किये जा सकते हैं जब कोई दूसरा उपाय कृष्यादि उसके लिए न हो। अभी आगे भी इस विषय में कुछ कहेंगे।

(शीर्ष पर वापस)

     
(घ) राज्य और युद्ध-
अब हम प्रसंगवश यह भी दिखला देना चाहते हैं कि युद्ध करना और भूमिशासन (प्रजापालन या राज्य) भी ब्राह्मण का धर्म हैं, जिसे स्मृति, पुराण, इतिहास और सदाचार वगैरह सभी करने की आज्ञा देते हैं। साथ ही, यह भी स्मरण रखना चाहिए कि यदि राज करना ब्राह्मण का धर्म सिद्ध हो जायेगा तो फिर उसके लिए युद्ध अपरिहार्य हो जायेगा, क्योंकि राजा का ऐसा धर्म हैं। इसके लिए प्रथम हम यह दिखला देना उचित समझते हैं कि 'राज' शब्द क्षत्रिय मात्र का वाचक नहीं। यदि परम प्रसिद्ध और सर्वमान्य अमरकोष के द्वितीय काण्डान्तर्गत क्षत्रिय वर्ग में देखते हैं तो वहाँ 'क्षत्रिय' और 'राजा' ये दोनों शब्द भिन्न-भिन्न अर्थ वाले मालूम होते हैं। क्योंकि लिखा हैं कि :

मूध्र्दाभिषिक्तो राजन्यो बाहुज: क्षत्रियों विराट्।
राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षित:॥ 1॥

अर्थात् ''मूध्र्दाभिषिक्त, राजन्य, बाहुज, क्षत्रिय और विराट् ये क्षत्रियों के नाम हैं। और राट्, पार्थिव, क्ष्माभृत, नृप, भूप और महीक्षित् ये राजा के पर्याय हैं।'' इससे स्पष्ट हैं कि क्षत्रिय से भिन्न भी राजा होता हैं। आगे चलकर और भी सफाई हैं क्योंकि लिखते हैं कि :

अथ राजकम् 5 राजन्यकंचनृपतिक्षत्रियाणांगणेक्रमात् 6 अर्थात् ''राजक शब्द नृपतिसमूह का वाचक हैं और राजन्यक शब्द क्षत्रिय समूह का''। इससे स्पष्ट हैं कि राजन्य शब्द ही क्षत्रिय मात्र का वाचक हैं, न कि राज शब्द भी। मेदनीकोष में लिखा हैं कि :

राजा प्रभौ च नृपतौ क्षत्रिये रजनीपतौ।

अर्थात् ''राजा प्रभु, नृपति, क्षत्रिय और चन्द्रमा को कहते हैं।'' एक जगह और भी मेदनीकोष में ही लिखा हैं कि ''मूर्दाभिषिक्तो भूपाले मंत्रिणि क्षत्रियेपि च।' अर्थात् ''मूध्र्दाभिषिक्त भूपाल, मन्त्री और क्षत्रिय को कहते हैं।'' इससे जो कोई यह शंका करते हैं कि पूर्वोक्त अमर कोष में जो क्षत्रिय से पृथक् राजा को गिनाया हैं उसका यह तात्पर्य हैं कि सभी क्षत्रियों को राजा नहीं कहते, किन्तु जिन क्षत्रियों का अभिषेक किया जाता हैं और जो नरों के पति होते हैं उन्हें ही कहते हैं। उसका भी खण्डन हो गया हैं। क्योंकि मेदिनीकोष से स्पष्ट हैं कि क्षत्रियमात्र को भी राजा कहते हैं। इसके बाद क्षत्रिय से पृथक् नृपति, भूपाल या राजा को कहते हुए यह झलका रहे हैं कि क्षत्रिय से भिन्न राजा होता हैं। मनुस्मृति के 7वें अध्याय राज धर्म प्रकरण से स्पष्ट लिखा हैं कि :

राजधर्मान्प्रवक्ष्यामि यथा वृत्तो भवेन्नृप:॥ 1॥

अर्थात् ''राजा के धर्मों का अब कथन करते हैं कि नृप यथोचित आचार वाला हो।'' इस श्लोक में राज धर्म को प्रतिज्ञा करके नृप धर्म का कथन करते हुए यह दिखला रहे हैं कि प्रजापालक मात्र ही राजा कहलाता हैं। कुल्लूकभट्ट भी यहाँ पर टीका में लिखते हैं कि :

राजशब्दो नात्रा क्षत्रिय जाति वचन: किंत्वभिषिक्त जनपद
पुरपालयितृपुरुषवचन: अतएवाह यथावृत्तोभवेन्नृपइति।

अर्थ यह हैं कि ''इस श्लोक में राज शब्द क्षत्रिय जाति का वाचक न होकर उस पुरुष मात्र का वाचक हैं जिसका अभिषेक देश, ग्रामादि के पालन के लिए किया जाता हैं। इसीलिए श्लोक में लिखते हैं कि नृप यथोचित आचार वाला हो।'' ऐसा ही मेधातिथि ने भी यहाँ लिखा हैं। परन्तु अगले श्लोक में जो कुल्लूकभट्ट लिखते हैं ''एतेन क्षत्रिय एव राज्याधिकारी नान्य इति दर्शितम्'' अर्थात् ''द्वितीय श्लोक में क्षत्रिय पद से यह सूचित किया हैं कि क्षत्रिय ही राज्याधिकारी हो सकता हैं, न कि दूसरा।'' वह उनकी विचित्र बुद्धि की महिमा हैं, कि अगले और पिछले श्लोकों के अपने लेखों को भूलकर पूर्वापर विरुद्ध बक डालते हैं। उस श्लोक में तो क्षत्रिय पद 'ब्राह्मण वसिष्ठ' न्याय से आदर और विशेष दृष्टि का सूचक हैं। जैसे रामजी ने या किसी अन्य ने ही कह दिया कि ब्राह्मणों को बुला लाइये और गुरु महाराज वसिष्ठजी को बुलाते आइयेगा। तो यद्यपि वसिष्ठजी भी ब्राह्मण ही हैं, अत: उनके लिए पृथक् आज्ञा की आवश्यकता नहीं हैं। तथापि उनका आदर और उन पर विशेष दृष्टि सूचित करने के लिए उनका पृथक् नाम लिया हैं। वैसे ही यद्यपि राजा के कहने से क्षत्रिय राजा भी लिया जा सकता हैं, तथापि जबकि मनु जी स्वयमेव दशमध्याय में, जैसा कि हम पूर्व कह चुके हैं, कहते हैं कि-

वेदाभ्यासो ब्राह्मणस्य क्षत्रियस्य च रक्षणम्॥ 8॥

अर्थात् ''ब्राह्मण का वेदाभ्यास और क्षत्रिय का प्रजा पालन सर्वोत्तम धर्म' हैं। इसलिए उसी विशेषता और आदर की सूचना के लिए पृथक् क्षत्रिय शब्द का उल्लेख हैं। और भी जो कुछ यहाँ पर भट्टजी ने लिखा हैं वह सब कुछ विस्मरण मूलक हैं जिसको हम पहले ही दिखला चुके हैं। 12वें अध्याय में भी मनुजी ने ऐसा ही सूचित किया हैं कि :

राजन: क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिता:।
वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गति:॥ 46॥

अर्थात् ''राजा, क्षत्रिय राजाओं के पुरोहित और दिन-रात शास्त्र में कलह करने वाले ये राजसों में मध्यम कहे जाते हैं। यहाँ भी क्षत्रिय से पृथक् शब्द हैं। ऐसा ही स्मृतियों में बहुत जगह मिला करता हैं। आगे चलकर इसी 12वें अध्याय में मनुजी स्पष्ट लिखते हैं कि :

सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च।
सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥ 100॥

अर्थ यह हैं कि ''सेना-संचालन, राज्य, न्याय और सब लोगों का आधिपत्य वेद, शास्त्रादि का ज्ञाता ही ब्राह्मणादि कर सकता हैं, न कि क्षत्रियादि जाति विशेष।'' यही बात स्पष्ट रूप से भट्टजी ने टीका में लिख दी हैं कि 'एतत्सर्वं वेदात्मकशास्त्रज्ञ एवार्हति' अर्थ वही हैं जो कह चुके हैं। मनुस्मृति के 9वें अध्याय में भी यही लिखा हैं कि :

प्रजापतिर्हिवैश्याय सृष्ट्वापरिददेपशून्।
ब्राह्मणायचराज्ञे च सर्वा:परिददेप्रजा:॥ 327॥

अर्थात् ''ब्रह्मा ने वैश्य को उत्पन्न करके उसके अधिकार में पशु और ब्राह्मण तथा क्षत्रिय के अधिकार में सर्व प्रजा पालन दिया।'' प्रथमाध्याय में भी लिखा हैं कि:

ब्राह्मणोजायमानोहिपृथिव्यामधिजायते।
ईश्वर:सर्वभूतानांधर्मकोशस्य गुप्तये॥ 99॥
सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किंचिज्जगतीगतम्।
श्रेष्ठयेनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणो र्हति॥ 100॥
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्ते स्वं वस्ते स्वं ददाति च।
आनृशंस्याद्ब्राह्मणस्य भुजते हीतरे जना:॥ 101॥

जिसका तात्पर्य यह हैं कि ''राजा के दो काम होते हैं-(1) प्रजारक्षण, (2) कोषरक्षण। इसलिए मनुजी कहते हैं कि उत्पन्न होने के साथ ही ब्राह्मण सब प्राणियों का स्वामी और धर्म रूप कोष का रक्षक होता हैं। जो कुछ इस पृथ्वी पर हैं सभी ब्राह्मण का हैं, क्योंकि ब्रह्मा के सबसे श्रेष्ठ स्थान मुख से उत्पन्न होने से ही वह सबसे बड़ा हैं। इसलिए प्रथम सबका अधिकारी वही हो सकता हैं और उसके अभाव में ही दूसरा (क्योंकि यही उचित हैं कि प्रथम राजा का बड़ा पुत्र ही अधिकारी हो)। जो कुछ ब्राह्मण खाता, पहनता या देता हैं वह उसका ही हैं, बल्कि अन्य लोगों को जो कुछ मिला हैं उसे ब्राह्मण की कृपा ही समझनी चाहिए। महाभारत के शान्ति पर्व के राजधर्मानुशासन भाग में ऐल और वायु देवता के संवाद में 72वें अध्याय में भी यही लिखा हैं कि :

ऐलउवाच : द्विजस्य क्षत्राबंधोर्वा कस्येयं पृथ्वी भवेत्।
धर्मत: सह वित्तोन सम्यग्वायो प्रचक्ष्व मे॥ 9॥
वा. उ.। विप्रस्य सर्वमेवेदं यत्किंचिज्जगतीगतम्।
ज्येष्ठेनाभिजनेनेह तद्धर्मकुशला विदु:॥ 10॥
स्वमेव ब्राह्मणो भुङ्क्तेस्वंवस्तेस्वंददाति च।
गुरुर्हि सर्ववर्णानां ज्येष्ठ: श्रेष्ठश्च वै द्विज:॥ 11॥
पत्यभावे यथैव स्त्री देवरं कुरुते पतिम्।
आनन्तर्यात्तर्था क्षत्रां पृथ्वी कुरुते पतिम् ॥ 12॥
नारी तु पत्यभावे वै देवरं कुरुते पतिम्।
पृथ्वी ब्राह्मणलाभे क्षत्रियं कुरुते पतिम्॥ 13॥

जिसका तात्पर्य यह हैं कि ऐल (पुरूरवा) ने वायु से पूछा कि यह पृथ्वी वास्तव में धर्म दृष्टि से ब्राह्मण की हैं या क्षत्रिय की, इसे स्पष्ट रूप से कहिये। वायु ने उत्तर दिया कि जो कुछ इस पृथ्वी में हैं उसे धर्म ज्ञान में कुशल लोग ब्राह्मण का ही बतलाते हैं, क्योंकि वह सबकी अपेक्षा ज्येष्ठ हैं। ब्राह्मण जो कुछ खाता, पहनता अथवा देता हैं वह सब उसका ही हैं, क्योंकि वह सब वर्णों से ज्येष्ठ, श्रेष्ठ और सबका गुरु हैं। जिस प्रकार पूर्वनिश्चित पति के न रहने पर (मर जाने पर) उस कन्या का देवर से विवाह हो जाता हैं, वैसे ही ब्राह्मण राजा के न रहने पर क्षत्रिय पृथ्वी का पति होता हैं। यही अर्थ बाद के श्लोक का भी हैं। 'पत्यभावे यथैव स्त्री' का यह तात्पर्य भगवान् मनु ने कहा हैं कि :

यस्याम्रियेतकन्याया वाचासत्येकृतेपति:।
तामनेनविधानेन निजोविन्देत देवर:॥ 69॥ अ.9॥
कन्यायांदत्ताशुल्कायां म्रियेतयदिशुल्कद:॥
देवरायप्रदातव्या यदिकन्या नुमन्यते॥ 97॥ अ. 9॥

तात्पर्य यह हैं कि ''जिसके साथ विवाह की बातचीत की गयी हो वह पुरुष (पति) यदि वैवाहिक कार्य सप्तपदी आदि समाप्त होने से प्रथम ही मर जाये तो उसी सामग्री और उसी प्रकार से उसका यथोचित रीति से विवाह देवर (उक्त पति के छोटे भाई) से कर देना चाहिए। यदि किसी ने कन्या के बदले किसी कारण से कुछ ले लिया हो (यद्यपि कन्या विक्रय का निषेध इसी अध्याय के 98वें श्लोक में हैं, जैसा कि :

आददीत न शूद्रो पि शुक्लं दुहितरं ददन्।
शुक्लं हि गृह्णन् कुरुते छन्नं दुहितृविक्रयम्॥

अर्थात् 'शूद्र भी द्रव्य लेकर कन्या न दे, क्योंकि इससे कन्या का विक्रय हो जाता हैं। अथवा आर्य विवाह में 1 या 2 जोड़े बैल लेने की आज्ञा हैं। जैसाकि मनुस्मृति के तृतीय अध्याय में लिखा हैं कि-

एकं गोमिथुनंद्वेवा वरादादाय धर्मत:।
कन्याप्रदानं विधिवार्षो धर्म: स उच्यते॥ 29॥

अर्थात् ''वर से एक या दो जोड़े बैल धर्मपूर्वक लेकर कन्यादान को आर्य विवाह कहते हैं''। परन्तु वे बैल भी विवाह काल में कन्या के पति को देने अथवा आवश्यक विवाह रूप यज्ञ कार्य सम्पादन के ही लिए जाते हैं, न कि अपने काम के लिए। क्योंकि मनुजी ने ही आगे चलकर लिखा हैं कि :

आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुर्मृषैवतत्।
अल्पो प्येवं महान्वापि विक्रयस्तावदेव स:॥ 53 अ. 3॥

अर्थात् ''जो किसी ने आर्ष विवाह में दो बैल लेने को कहा हैं वह मिथ्या ही हैं, क्योंकि ऐसा करने से चाहे थोड़ा हो या बहुत कन्या विक्रय तो हो ही गया।'' इस बात को इसी श्लोक की टीका में कुल्लूकभट्ट ने स्पष्ट कर दिया हैं। ऐसी दशा में यदि उसने बैल ले लिये हों, परन्तु विवाह कृत्य से प्रथम ही भावी पति का शरीर पात हो जाये तो यदि कन्या चाहे तो देवर से उसे ब्याह देना चाहिए।'' इसलिए जो कोई पूर्वोक्त महाभारत के श्लोकों को देखकर अपनी अनभिज्ञता से कटाक्ष करता था कि वे श्लोक सनातन धर्म की दृष्टि से प्रमाण नहीं हो सकते, क्योंकि उनके मानने से विधवा विवाह या नियोग सिद्ध हो जायेगा, उसे इस पूर्व व्याख्यान रूप अंजन से अपने ज्ञानचक्षु के दोषों का मार्जन कर लेना चाहिए। राजधर्म प्रकरण नामक आठवें अध्याय में भी मनुजी ने स्पष्ट ही कह दिया हैं कि :

यदा स्वयं न कुर्यात्तु नृपति:कार्यदर्शनम्।
तदानियुज्याद्विद्वांसं ब्राह्मणं कार्यदर्शने॥ 9॥
सोस्य कार्याणि संपश्येत्सभ्यैरेव त्रिभिर्वृत:।
सभामेव प्रविश्याग्रयामासीन: स्थित एंव वा॥ 10। अ. 8॥

अर्थ यह हैं कि ''जब राजा किसी कारण से राज्य का प्रबन्ध न कर सके तो विद्वान् ब्राह्मण को उस जगह नियुक्त कर दे। वह ब्राह्मण उन कार्यों को तीन सभ्यों के सहित उत्तम सभा में बैठ अथवा खड़ा होकर उचित रीति से करे।'' इसीलिए वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड के 67वें सर्ग में राजा दशरथ के कोप-भवन से न लौटने पर लिखा हैं कि :

व्यतीतायां तु शर्वर्यामादित्यस्योदये तत:।
समेत्य राज्यकर्त्तार: सभामीयुर्द्धिजातय:॥
मार्कण्डेयोथ मौद्गल्यो वामदेवश्च कश्यप:।
कात्यायनो गौतमश्च जावालिश्च महायशा:॥

अर्थात् ''उस दिन रात बीतने पर सूर्योदय समय राज्य करने वाले (राज्य प्रबन्ध करने वाले) सभी महान् ब्राह्मण मार्कण्डेय, मौद्गल्य, वामदेव, कश्यप, कात्यायन और ज्वालि प्रभृति मिलकर सभा में आये।'' इन श्लोकों में 'राज्यकर्त्तार:' लिखा हैं, जिसका अर्थ 'राज्य करने वाले ब्राह्मण' ऐसा होता हैं। इससे स्पष्ट हैं कि मुख्य राज्यकर्ता ब्राह्मण ही हैं। परन्तु उसमें बहुत झंझट और तपस्या तथा विचारादि में विघ्न देखकर जो लोग उससे उपराम हो जाते हैं वे क्षत्रियों के हाथ में उसे सौंप देते हैं। जैसे अपने भृत्यों के हाथ में किसी कार्य का प्रबन्ध सौंप दिया जाता हैं। अथवा आजकल भी बहुत से अन्य देशों में राजा के प्रतिनिधि जैसे शासन करते हैं वैसे ही ब्राह्मण लोग क्षत्रियादि को अपना प्रतिनिधि बनाकर स्वच्छन्द वेदाभ्यासादि करते थे। परन्तु जब किसी कारणवश उनके प्रतिनिधि स्वरूप क्षत्रियादि उसका प्रबन्ध न कर सकते थे तो स्वयं वे विचारशील गौतम और कात्यायनादि जैसे ब्रह्मर्षि उसका प्रबन्ध कर लेते थे। महर्षियों के इस राज्य प्रबन्ध से उस कुकल्पना का भी खण्डन हो गया जो लोग किया करते हैं कि राज्य और युद्ध करने से ही भूमिहारादि ब्राह्मण कट्टर न रहकर हीन हो गये। यदि यह कार्य कट्टर ब्राह्मणता का विरोधी होता तो क्या उन महर्षियों से भी कोई अधिक कट्टर हो सकता हैं जिन्होंने इसे किया हैं? क्या वे शास्त्र ज्ञाता न थे जिससे इसे निन्दित समझकर छोड़ देते? इस विषय में अभी बहुत वक्तव्य हैं।

प्राय: लोगों की यही धारणा हैं कि पुरोहिती ब्राह्मण को अवश्य कर्त्तव्य हैं। यद्यपि शास्त्रों का मत इस विषय में दिखला चुके हैं और दिखलायेंगे भी, तथापि इतना तो निर्विवाद हैं कि यदि किसी दशा में भी पुरोहित हो सकता हैं तो ब्राह्मण ही। क्योंकि मनुस्मृति के दशमध्याय में लिखा हैं कि :

त्रायो धर्मा निवर्तन्ते ब्राह्मणात्क्षत्रियं प्रति।
अध्यापनं याजनं च तृतीयश्च प्रतिग्रह:॥ 77॥
वैश्यं प्रति तथैवैते निवर्तेरन्निति स्थिति:।
न तौ प्रति हि तान्धर्मान्मनुराह प्रजापति:॥ 78॥

अर्थात् ''ब्राह्मण के तीन कर्म याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह क्षत्रिय और वैश्य के लिए नहीं हैं, यही सिद्धान्त हैं, क्योंकि प्रजापति मनुजी ने उनके लिए वे धर्म नहीं बतलाये।'' अत्रि संहिता में भी लिखा हैं कि :

प्रतिग्रहोध्यापनं च तथा विक्रेय:विक्रय:।
याज्यं चतुर्भिरप्येतै: क्षत्राविट्पप्तनम् स्मृतम्॥ 20॥

अर्थात् ''याजन, अध्यापन, प्रतिग्रह और निषिद्ध पदार्थों के विक्रय से क्षत्रिय और वैश्य पतित हो जाते हैं। अब उस पुरोहित के स्वरूप को विचारिये तो उससे भी ब्राह्मण का राज्य सम्बन्ध घनिष्ठ सिद्ध होता हैं। क्योंकि अमरकोष में 'पुरोधास्तुपुरोहित:' अर्थात् पुरोहित का नाम पुरोधा भी हैं, यह क्षत्रिय वर्ग में लिखा हैं, न कि ब्राह्मण वर्ग में और पुरोहित शब्द का अर्थ भी यह हैं कि जो युध्दादि सब व्यवहारों में अग्रणी हो, अर्थात् उसकी सम्मति सभी कार्यों में ली जाये। क्योंकि पुरुष अव्ययपूर्वक 'धा' धातु से 'क्त' प्रत्यय करने पर पुरोहित शब्द सिद्ध होता हैं। जिसमें अव्यय का अर्थ 'आगे' हैं, और 'धा' धातु का अर्थ धारण करना व रखना। अर्थात् जो प्रथम रखा व माना गया हो। राजधर्म प्रकरण में ही मनुजी ने लिखा हैं कि पुरोहितं प्रकुर्वीत' (अ. 7/75) अर्थात् राजा पुरोहित बनावे। और फिर लिखते हैं कि :

सर्वेषां तु विशिष्टेन ब्राह्मणेन विपश्चिता।
मन्त्रयेत्परमं मन्त्रां राजा षड्गुण्यसंयुतम्॥ 58॥
नित्यंतस्मिन्समाश्वस्त: सर्वकार्याणिनिक्षिपेत्।
तेन सार्ध्दंविनिश्चित्य तत:कर्मसमारभेत् ॥ 59॥ 7॥

जिसका अर्थ यह हैं कि ''सर्व मन्त्रियों में श्रेष्ठ पण्डित ब्राह्मण मन्त्री से राजा सन्धि विग्रहादि सम्बन्धी बड़ी-बड़ी सलाह करे। सर्वदा ही उसका विश्वास करके सब काम करे और उसके साथ सलाह करके ही उसके बाद कार्य प्रारम्भ करे।'' याज्ञवल्क्य स्मृति के आचाराध्याय में लिखा हैं कि :

स मंत्रिण: प्रकुर्वीत प्राज्ञान्मौलान्स्थिराञ्‍छुचीन्।
तै: सार्ध्दं चिन्तयेद्राज्यं विप्रेणाथ तत स्वयम्॥ 312॥
पुरोहितं प्रकुर्वीत दैवज्ञमुदितोदितम्।
दण्डनीत्यां च कुशलमथर्वांगिरसे तथा॥ 313॥
अपश्यता कार्यवशाद्वयवहारान्नृपेण तु।
सभ्यै: सहनियोक्तव्यो ब्राह्मण: कार्यदर्शने॥ 3॥ व्यव.॥

अर्थ यह हैं कि ''वह राजा श्रेष्ठ, स्थिर और पवित्र स्वभाववाले मन्त्री रखे। उनके विचारने के बाद ब्राह्मण मन्त्री से विचार कर अपने आप भी कार्य विचार करे। ज्योतिष विद्या जानने वाला, शास्त्रोक्त कर्मकारी, अर्थशास्त्रज्ञ और साम दानादि गुणों से युक्त पुरोहित रूप मन्त्री राजा बनावे। राजा यदि किसी कारण से राज्य कार्य न देख सके तो अन्य सभ्यों सहित ब्राह्मण मन्त्री को उसमें नियुक्त करे।'' बौधायनस्मृति के 10वें अध्याय में लिखा हैं कि :

सर्वतोधुरं पुरोहितं वृणुयात्॥ 10॥

अर्थात् ''राज्य के सर्व कार्यों का करने वाला पुरोहित बनाये।'' अग्निपुराण में लिखा हैं कि :

अभिषिञ्‍चदमात्यानां चतुष्टयमथो घटै:।
पूर्वतो हेमकुम्भेन घृतपूर्णेनब्राह्मण:॥ 18॥ अ. 218॥

अर्थात् ''उसके बाद चारों वर्ण वाले चार मन्त्री राजा का अभिषेक करें। उनमें से प्रथम ब्राह्मण मन्त्री घृतपूर्ण स्वर्ण घट से अभिषेक करे।'' इन सब प्रमाणों से क्या यह सिद्ध नहीं होता कि ब्राह्मणों का राज्य से बहुत सम्बन्ध और उसमें अधिकार पूर्वकाल में भी था। इन अयाचक ब्राह्मणों के पूर्वज प्रथम इसी प्रकार के पुरोहित, ऋत्विक् और मन्त्री भी थे जिससे इनका व्यवहार राजसी था, जैसा कि मनु वाक्यों द्वारा दिखा चुके हैं कि क्षत्रिय, राजा और राज पुरोहित राजस कहलाते हैं और शान्ति पर्व के 76वें अध्याय में भी लिखा हैं कि :

ऋत्विक् पुरोहितो मन्त्री दूतो वार्त्तानुकर्षक:।
एते क्षत्रासमा राजन्ब्राह्मणानां भवन्त्युत॥ 7॥

अर्थात् ''ऋत्विक्, पुरोहित, मन्त्री और दूत इतने ब्राह्मण क्षत्रिय के सदृश राजस होते हैं।'' इस प्रकार वे क्रमश: धनवान, बड़े-बड़े भूमिपति और जमींदार या राजे हो गये, जिससे पीछे उस राजपुरोहिती आदि को भी छोड़कर एकदम अलग हो गये। महाभारत के शान्तिपर्व के 73वें अध्याय राजधार्मनुशासन प्रकरण में लिखा हैं कि:

तञ्‍चैवान्वभिषिञ्‍चेत् तथा धार्मो विधीयते।
अग्रेयं हि ब्राह्मणे प्रोक्तं सर्वस्यैवेह धर्मत:।
पूर्वं हि ब्रह्मण: सृष्टिरिति ब्रह्मविदो विदु:॥ 29॥
ज्येष्ठेनाभिजनेनास्य प्राप्तं पूर्वं यदुत्तारम्।
तस्मान्मान्यश्च पूज्यश्च ब्राह्मण: प्रसृताग्रभुक्॥ 30॥

अर्थ यह हैं कि ''उस पुरोहित का अभिषेक राजा करे, क्योंकि राजपाट सभी का प्रथमाधिकारी धर्म विचार से ब्राह्मण ही हैं। क्योंकि यह वार्त्ता वेदवेत्ता लोग जानते हैं कि प्रथम ब्राह्मण ही उत्पन्न हुआ। इसलिए ज्येष्ठ होने से जो कुछ मिले वह पहले ब्राह्मण का ही हैं, पीछे दूसरे का। इसलिए उसे मानना और पूजना चाहिए, क्योंकि वह सब वस्तुओं का प्रथमाधिकारी हैं।'' स्कन्दपुराण के धर्मारण्य महात्म्य में बाडवों (ब्राह्मणों) के विषय में बहुत सा विवरण ग्राम और गोत्रपूर्वक दिया गया हैं और यह भी लिख दिया गया हैं कि अमुक ग्राम का अधिपति अमुक ब्राह्मण हुआ। साथ ही, स्पष्टतया लिखा गया हैं कि 'राज्यं चक्रुर्वनस्य' अर्थात् उस धर्मारण्य का राज्य बड़ी ब्राह्मण करते थे। महाभारत के आदिपर्व के 113वें अध्याय में स्वपुत्र अश्वत्थामा को दूध पीने के लिए एक गौ की आवश्यकता होने पर वह द्रोणाचार्य को द्रुपद से मित्रता में माँगनी पड़ी हैं। वे चाहते तो आजकल की भाँति उन्हें सहस्रों गायें मिल जातीं। परन्तु उन्हें प्रतिग्रह से डरकर ऐसा करना पड़ा। जब द्रुपद ने कोरा जवाब दिया कि राजा का मित्र भिक्षु (ब्राह्मण) न होकर राजा ही होता हैं, इसलिए आपसे मेरी मैत्री नहीं हो सकती। हाँ एक दिन के लिए भोजन मिल सकता हैं, तो द्रोणाचार्य रुष्ट होकर लौट गये हैं। इसी समय भीष्म पितामह ने उनसे मिल सब हाल जानकर कहा हैं कि :

अपज्यं क्रियतां चापं साधवस्त्रां प्रतिपादय।
भुङ्क्ष्व भोगान् भृशं प्रीत: पूज्यमान: कुरुक्षये॥ 64॥
कुरूणामस्ति यद्वित्तां राज्यंचेदं सराष्ट्रकम्।
त्वमेव परमो राजा सर्वे च कुरवस्तव॥ 65॥

अर्थात् ''आप धनुष रख दीजिये, इन बच्चों को शस्त्रास्त्र विद्या सिखलाइये और कौरवों द्वारा पूजित होकर इनके देश में प्रसन्नतापूर्वक भोग भोगिये। कौरवों का जो धन और राज्य हैं वह सब आप ही का हैं और वे लोग भी आपके ही हैं। इसके बाद जब कौरव-पाण्डवों को युद्ध विद्या में कुशल करके पुराना बदला चुकाने के लिए उन्हें द्रुपद को पकड़ने को भेजा हैं और अर्जुन उसे परास्त करके पकड़ लाये हैं, तब द्रोणाचार्य ने शान्तिपर्व के 140वें अध्याय में कहा हैं कि :

अराजा किल नो राज्ञ: सखा भवितुमर्हति।
अत: प्रयतितं राज्ये यज्ञसेन मया तव॥ 68॥
राजासि दक्षिणे कूले भागीरथ्याहमुत्तारे।
सखायं मां विजानीहि पाञ्‍चाल यदि मन्यसे॥ 69॥
माकन्दीमथ गंगायास्तीरे जमपदायुताम्।
सोध्यावसद्दीनमना: काम्पिल्यं च पुरोत्तामम्॥ 72॥
दक्षिणांश्चापि पाञ्‍चालान्यावच्चर्मण्वतीनदीम्।
अहिच्छत्रां च विषयं द्रोण: समभिपद्यत॥ 75॥
एवं राजन्नहिच्छत्रा पुरी जनपदायुता।
युधि निर्जित्य पार्थेन द्रोणाय प्रतिपादिता॥ 76॥

जिसका अर्थ यह हैं कि ''हे द्रुपद! क्योंकि जो राजा नहीं हैं वह राजा का मित्र नहीं हो सकता, इसलिए ही मैंने तुम्हारा राज्य लेने का यत्न किया हैं। यदि तुम चाहो तो गंगा से दक्षिण के देश का राजा रहो और मैं उत्तर का और मुझे अब से मित्र समझो। इसके बाद वह द्रुपद खिन्न चित्ता होकर गंगा तट में माकन्दी में राजधनी बनाकर रहने लगा, जिसके आश्रित बहुत से प्रान्त थे और काम्पिल्यपुर और दक्षिण पाञ्‍चाल भी चर्मण्वती (वेतवा) नदी तक उसी के अधिकार में था। उत्तर पाञ्‍चाल अर्थात् अहिच्छत्रादि प्रदेशों के राजा द्रोणाचार्य हुए। इस प्रकार से बहुत से प्रदेशों सहित अहिच्छत्रापुरी को अर्जुन ने युद्ध में जीतकर द्रोणाचार्य को उसका राजा बना दिया।
स्कन्दपुराण के नागर खण्ड 68 और 69वें अध्याय में लिखा हैं कि :

सूत उवाच : भार्गवोपि च तं हत्वा रक्तमादाय कृत्स्नश:।
तत्रा संप्रेषयामास यत्रा गर्ताथ पैतृकी ॥ 2॥
न सवालं न वृध्दं च परित्यजति भार्गव:।
यौवनस्थं विशेषण गर्भस्थं वाथ क्षत्रियम्॥ 3॥
प्रत्यक्षं सर्वविप्राणां तथा न्येषां तपस्विनाम्।
प्रतिज्ञां पूरयित्वाथ स विशोको बभूव ह॥ 8॥
ततो नि:क्षत्रिये लोके कृत्वा हयमखं च स:।
प्रायच्छत्सकलामुर्वीं ब्राह्मणेभ्यश्च दक्षिणाम्॥ 9॥
अथ लब्धावराविप्रास्तमूचुर्भृगुसत्तामम्।
नास्मद्भूमौ त्वया स्थेयमेको राजा यत: स्मृत:॥ 10॥
सोपि बाढ़मिति प्रोच्य हर्षेण महतान्वित:।
महीपर्यन्तमासाद्य प्रोवाचाथ नदीपतिम्॥ 11॥
आरोप्य सुमहच्चापमाग्नेयास्त्रां प्रयुज्य च।
त्रिशिखां भृकुटीं कृत्वा कोपेन महतान्वित:॥ 12॥

रामउवाच। मया नि:क्षत्रिया भूमि:कृता शैलवनान्विता।
ब्राह्मणेभ्यस्ततो दत्ता वाजिमेधो महामखे॥ 13॥
तस्मात्वं देहि मे स्थानं कृत्वापसरणं स्वयम्।
नहि दत्तवा ग्रहीष्यामि विप्रेभ्यो मेदिनीं पुन:॥ 14॥
न करोष्यथवा वाक्यं ममाद्य त्वं नदीपते।
स्थलरूपं करिष्यामि वद्द् यस्त्रा परिशोषितम्॥ 15॥

सूत उवाच। तस्य तद्वचनं श्रुत्वा समुद्रो भयसंकुल:।
अपसारं ततश्चक्रे यावत्तास्याभिविञ्‍छतम्॥ 16॥
ततश्चकार तत्रौव वसतिं स भृगुद्वह:।
तपश्चर्या समायुक्त: पितुर्वधामनुस्मरन्॥ 17॥ अ. 68

सूत उवाच। ततो नि:क्षत्रिये लोके क्षत्रिण्यो वंशकारणात्।
क्षेत्रजान् ब्राह्मणेभ्यश्च सुषुबुस्तनयान्वरान्॥ 1॥
ते च वृध्दिं समासाद्य क्षेत्रजा: क्षत्रियोपमा:।
जगृहुर्मेदिनीं वीर्यात्संनिरस्य द्विजोत्तामान्॥ 2॥
ततस्ते ब्राह्मणा: सर्वे परिभूतिपदं गता:।
प्रोचुर्भार्गग्वमभ्येत्य दु:खेन महताविन्ता:॥ 3॥
राम राम महाबाहो यत्तवया वसुधा च न:।
वाजिमेधो मखे दत्ता हृता सा क्षत्रियैर्बलात्॥ 4॥
तस्मान्नो देहि तां भूतो हत्वा तान्क्षत्रियाधामान्।
कुरु श्रेयोभिवृध्दिं तां यद्यस्ति तव पौरुषम्॥ 5॥
ततो राम: क्रुधाविष्टो भूयस्तै: शबरै: सह।
पुलिन्दैर्मेदकैश्चैव क्षत्रियान्ताय निर्ययौ॥ 6॥
तत्रौव क्षत्रियान् हत्वा रक्तमादाय तद्बहु।
तां गत्तरां पूरयामास चकार पितृतर्पणम्॥ 7॥
प्रददौ ब्राह्मणेभ्यश्च वाजिमेधो धारां पुन:।
तैश्च निर्वासितस्तत्रा जगामोदधिसन्निधौ॥ 8॥
एवं तेन कृता पृथ्वी सर्वक्षत्राविवर्जिता।
त्रि:सप्तवारं विप्रेन्दा:! द्विजेभ्यश्चनिवेदिता॥ 9॥ अ. 69

भावार्थ यह हैं कि ''सूतजी ने कहा कि परशुराम ने सहार्जन को मार सब रक्त लेकर जहाँ पितृ तर्पण के लिए कुरुक्षेत्र में पाँच कुण्ड बनाये थे वहाँ भेज दिया। वे बाल, वृद्ध, गर्भस्थ और विशेषकर युवा क्षत्रिय को मारे बिना न छोड़ते थे। इस तरह सब ब्राह्मणों और तपस्वियों के सम्मुख अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर वे शोक रहित हो गये। इस प्रकार लोक को क्षत्रिय शून्य बना अश्वमेधा यज्ञ करके उसमें उन्होंने सब पृथ्वी कश्यप प्रभृति ब्राह्मणों को दक्षिणा दे दी। अब पृथ्वी का राज्य पाने पर उन ब्राह्मणों ने परशुरामजी से कहा कि हमारे राज्य में मत रहिये, क्योंकि एक राज्य में एक ही राजा रह सकता हैं। वे भी बहुत प्रसन्नतापूर्वक अच्छा कह पृथ्वी के किनारे समुद्र तट पर आकर, जिस समय उससे बोले उस समय वे महान् धनुष को चढ़ा, आग्नेयास्त्र का प्रयोग कर और भृकुटी टेढ़ी करके महान् कोपयुक्त हो रहे थे। उन्होंने कहा कि मैंने पर्वत और वन सबके सहित पृथ्वी क्षत्रिय रहित करके अश्वमेधा यज्ञ में ब्राह्मणों को दे दी। इसलिए तुम मुझे वासस्थान दो और यहाँ से हट जाओ, क्योंकि ब्राह्मणों को देकर फिर मैं उनसे भूमि छीन नहीं सकता। यदि तू मेरी बात न मानेगा तो आज ही अग्न्येस्त्र से तुझे सुखाकर स्थलरूप बना दूँगा। समुद्र उनका वचन सुन डरकर उतनी दूर हट गया जितना उन्हें इष्ट था। उसके बाद परशुरामजी उसी जगह वासस्थान बना पिता के वध का स्मरण करते हुए तपस्या करने लगे। इस प्रकार जब पृथ्वी क्षत्रियों से रहित हो गयी तो उनकी स्त्रियों ने ब्राह्मणों द्वारा श्रेष्ठ क्षत्रिय पुत्र उत्पन्न किये, क्योंकि क्षेत्रज भी पुत्र हुआ करते हैं। वे क्षेत्रज बालक क्षत्रिय सदृश हुए और उन्होंने बलपूर्वक उन ब्राह्मणों को निकालकर पृथ्वी दबा ली। उसके बाद ब्राह्मण हार मानकर बहुत दु:खी हो परशुरामजी के पास आकर उनसे कहने लगे कि हे राम! जो पृथ्वी आपने हम लोगों को अश्वमेधा में दक्षिणा दी थी उसे क्षत्रियों ने छीन लिया। इसलिए यदि आपमें बल हैं, तो उन नीच क्षत्रियों को मार हमें पृथ्वी का राज्य पुन: देकर हमारा कल्याण करिये। यह सुनते ही परशुरामजी क्रोध से लाल हो बहुत से शबरों, पुलिन्दों और मेदकों के साथ उन क्षत्रियों का नाश करने के लिए निकले और उसी जगह उन क्षत्रियों को मार उनका रक्त लेकर उन पाँच गर्तों की भर दिया और उसी से पितृतर्पण किया। जब फिर उन्हें ब्राह्मणों ने अपने राज से निकाल दिया तो उसी समुद्र के पास चले गये। इसी प्रकार उन्होंने क्रमश: 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य कर उसका राज्य ब्राह्मणों को दे दिया।''

महाभारत के शान्तिपर्व में भी जहाँ पर पूर्वोक्त परशुरामजी का आख्यान हैं वहीं 49वें अध्याय में सहार्जुन के यज्ञ में भी ब्राह्मणों को पृथ्वी राज्य की प्राप्ति इस प्रकार लिखी हैं कि :

एतस्मिन्नेव काले तु कृतवीर्यात्मजो बली।
अर्जुनो नाम तेजस्वी क्षत्रियो हैंहयाधिप:॥ 35॥
दत्तात्रोय प्रसादेन राजा बाहुसहवान्।
चक्रवर्ती महातेजा विप्राणामाश्वमेधिके॥ 36॥
ददौ स पृथ्वीं सर्वां सप्तद्वीपां सपर्वताम्।
स्वबाह्नस्त्राबलेनाजौ जित्वा परमधर्मवित्॥ 37॥

इसका अर्थ यह हैं कि ''इसी समय (जिस समय परशुरामजी का जन्म हुआ) कृतवीर्य का पुत्र, महाबलवान् और अर्जुन नाम का क्षत्रिय हैंहय देश का राजा था। दत्तात्रेय की कृपा से जिसे सहबाहु मिले थे, ऐसे चक्रवर्ती राजा अर्जुन ने अश्वमेधा यज्ञ में, अपने बाहु और अस्त्र बल से पर्वत सहित सप्तद्वीपर्वती पृथ्वी जीतकर ब्राह्मणों को यज्ञ में दक्षिणा दे दी।'' क्या इन सब आख्यानों से ब्राह्मणों के राजा होने से अब भी कोई सन्देह रह गया? इससे स्पष्ट हैं कि प्रथम जो ब्राह्मण अयाचक दल वाले थे, वे मन्त्री ही और अस्त्र, शस्त्रादि विद्या द्वारा एवं जो याचक दल वाले थे, वे ऋत्विक् और पुरोहित हो बड़े-बड़े राज्याधिकारी और जमींदार होकर एक ही अयाचक दलवाले होते गये और पश्चात् पुरोहिती और यजनादि भी उनका इसीलिए छूटता गया। विष्णुपुराण के चतुर्थांश के 24वें अध्याय में लिखा हैं कि :

मगधयां तु विश्वस्फटिकसंज्ञो न्यान्वर्णान् करिष्यति॥ 61॥
करैवत्तावटुपुलिन्दब्राह्मणान्राज्ये स्थापयिष्यति॥ 63॥

''कलि में मगधपुरी अथवा मगध देश में विश्वस्फटिक नाम का एक प्रतापी पुरुष क्षत्रिय से अन्य वर्ण कैवर्त, वटु, पुलिन्द और ब्राह्मणों को राजा बनायेगा।'' वायुपुराण के 58वें अध्याय में लिखा हैं कि :

गोत्रोण वै चन्द्रमसो नाम्ना प्रमितिरुच्यते।
माधावस्य तु सों शेन पूर्वं स्वायम्भुवे न्तरे॥ 76॥
समा: स विंशतिं पूर्णा: पर्यटन्वै वसुन्धाराम्।
आचकर्ष च वै सेनां सवाजिरथकुञ्‍जराम्॥ 77॥
प्रगृहीतायुधौर्विप्रै: शतशोथ सहश:।
स तदा तै: परिवृतो म्लेच्छान्हन्ति सहम्त्राश:॥ 78॥

अर्थ यह हैं कि ''प्रथम स्वायम्भुव मन्वन्तर में चन्द्र गोत्र में प्रमिति नाम का (कल्कि भगवान् की जगह) विष्णु के अंश से एक ब्राह्मण उत्पन्न हुआ था जिसने पूरे 20 वर्ष पृथ्वी में घूमकर घोड़े और हाथी सहित सेना एकत्रित की और आयुध धारण करने वाले हजारों ब्राह्मणों को साथ ले बहुत से म्लेच्छों का नाश किया।'' फिर 60वें अध्याय में चलकर लिखते हैं कि :

उर्व्यां जातास्तु ये शूद्रा ब्राह्मणानां निवेदिता:।
वृत्तयर्थं ब्रह्मयज्ञार्थं करस्तेषु कृतो महान्॥ 74॥
अनेन विधिना जातं विप्राणां शासनं महत्॥ 75॥

अर्थात् ''उस कलि में जब प्राय: शूद्र ही ब्राह्मणों के अधीन रह गये तो ब्राह्मणों ने जीविका और यज्ञादि के लिए उन्हीं पर कर लगाया। इस प्रकार से पृथ्वी में ब्राह्मणों का राज्य स्थिर हुआ।'' और उसी के 57वें अध्याय में लिखा हैं कि :

श्रूयन्ते हि तप: सिद्धा ब्रह्मक्षत्रमया नृपा:॥ 121॥

अर्थात् ''बहुत से ब्राह्मण और क्षत्रिय राजे तपोबल से सिद्ध हो गये सुने जाते हैं।'' मत्स्यपुराण के 272वें अध्याय में लिखा हैं कि :

ब्राह्मणास्तु चतुर्विंश भविष्यन्ति शतं समा:।
तत: प्रभृत्ययं लोक: सर्वो व्यापत्स्यते भृशम्॥ 44॥
चत्वारिंशद्द्विंजा ह्येते काण्वा भोक्ष्यन्ति वै महीम्।
चत्वारिंशत्पंच चैव भोक्ष्यन्तीमां वसुन्धाराम्॥ 35॥ 271॥

अर्थात् 100 वर्षों तक 24 ब्राह्मण राज्य करेंगे, इसके बाद सम्पूर्ण लोक विपत्तिग्रस्त होगा। कण्ववंशीय 40 ब्राह्मण 45 वर्षों तक इस पृथ्वी का राज्य करेंगे।''

'ब्राह्मण राज परिचय' नामक ग्रन्थ में एक मैथिल परमहंस महोपदेशक ने ब्राह्मणों के राज्यधिकार में श्रुतियाँ भी लिखी हैं। यथा 'ब्रह्मणे प्रथमो गा अविन्दत' (ऋग्वेद) और इस प्रकार उसका अर्थ किया हैं कि ''पृथ्वी का राज्य प्रथम ब्राह्मणों ने प्राप्त किया।'' और भी लिखकर उसका अर्थ बतलाया हैं। यथा 'अस्माकं ब्राह्मणानां राजा' (यजुर्वेद), 'ब्राह्मण एव पतिर्न राजन्यो न वैश्य:' (अथर्ववेद)। अर्थ यह हैं कि ''हम ब्राह्मणों में से वह राजा हैं। राजा ब्राह्मण ही हैं, क्षत्रिय व वैश्य नहीं।'' इस प्रकार से श्रुति, स्मृति, पुराण और सदाचारों से सिद्ध हैं कि ब्राह्मण राजा होते थे और होते हैं तथा यह उनका शास्त्रोचित धर्म हैं। इससे कट्टर ब्राह्मणता में कोई धब्बा नहीं लग सकता। इस विषय में बहुत से नये एवं प्राचीन इतिहास भी दिखलायेंगे।

जब ब्राह्मण का राज्य करना सिद्ध हो गया तो युद्ध तो उसके लिए अर्थ सिद्ध हो गया। क्योंकि राज्य के साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। इसके विषय में प्रथम वायुपुराण का प्रमाण भी दिखला चुके हैं। महाभारत के शान्तिपर्व में किया हैं कि:

ब्राह्मणस्यापि चेद्राजन् क्षत्राधार्मेणर् वत्तात:।
प्रशस्तं जीवितं लोके क्षत्रांहि ब्रह्मसम्भवम्॥ अ.॥ 22॥

जिसका अर्थ यह हैं कि ''अर्जुन ने युधिष्ठिर महाराज से कहा हैं कि हे राजन्! जब कि ब्राह्मण का भी इस संसार में क्षत्रिय धर्म अर्थात् राज्य और युद्धपूर्वक जीवन बहुत ही श्रेष्ठ हैं, क्योंकि क्षत्रिय ब्राह्मणों से ही हुए हैं, तो आप क्षत्रिय धर्म का पालन करके क्यों शोक करते हैं?'' आगे चलकर 78वें अध्याय में लिखा हैं कि :

ब्राह्मणास्त्रिषु वर्णेषु शस्त्रां गृह्णन् न दुष्यति।
एवमेवात्मनस्त्यागान्नान्यं धर्मं विदुर्जना:॥ 29॥
ब्राह्मणस्त्रिषु कालंषु शस्त्रां गृह्णन् न दृष्यति।
आत्मत्राणे वर्णदोषे दुर्दम्यनियमेषु च॥ 34॥
उनर्मय्यादे प्रवृत्तो तु दस्युभि: संगरे कृते।
सर्वे वर्णा न दुष्येषु: शस्त्रावन्तो युधिष्ठिर॥ 18॥

अर्थात् अन्य तीन वर्णों के ऊपर शस्त्र चलानेवाला (युद्धकर्ता) ब्राह्मण दूषित नहीं होता, क्योंकि किसी आवश्यक कार्यवश इस प्रकार आत्मत्याग करने से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं माना जाता। युद्ध करनेवाले ब्राह्मण को तीनों काल में कोई दोष नहीं हैं, विशेषकर अपनी रक्षा, वर्णों की रक्षा और बड़े-बड़े दुष्टों को दबाने के लिए। जब दुष्ट लोगों के युद्ध करने से शस्त्रीय मर्यादा टूटने लगे तो सभी ब्राह्मणादि युद्ध करने से दूषित नहीं होते।'' मत्स्यपुराण के 103वें अध्याय में लिखा हैं कि :

शृणु राजन् प्रवक्ष्यामि क्षत्रीधर्मव्यस्थितिम्।
नैव दुष्टं रणे पापं युध्यमानस्य धीमत:॥ 21॥
किं पुन: राजधार्मेण क्षत्रियस्य विशेषत:॥ 22॥

अर्थात् ''हे राजन् (युधिष्ठिर) क्षत्रिय धर्म की व्यवस्था सुनिये। जबकि किसी भी लड़ाई में युद्ध करनेवाले को पाप नहीं होता, तो राजा होकर युद्ध करने वाले का क्या कहना हैं, उस पर भी विशेषकर क्षत्रिय का?'' मत्स्यपुराण के 214वें अध्याय राजधर्म प्रकरण में लिखा हैं कि :

कुलीन: शीलसम्पन्नो धानुर्वेदविशारद:।
हस्तिशिक्षाश्वशिक्षासु कुशल: शलक्ष्मणभाषिता॥ 8॥
निमित्तो शकुने ज्ञाता वेत्ता चैव चिकित्सिते।
कृतज्ञ: कर्मणां शूरस्तथा क्लेशसहो ऋजु:॥ 9॥
व्यूहतत्त्वविधानज्ञ: फल्गुसारविशेषवित्।
राज्ञा सेनापति: कार्यो ब्राह्मण: क्षत्रियोथवा॥ 10॥

अर्थात् ''कुलीन, शीलवान, धनुर्वेद में निपुण, हस्तियों और अश्वों की शिक्षा में कुशल, मधुरभाषी, शकुनादि तथा चिकित्सा का ज्ञाता, कृतज्ञ, लड़ने में बहादुर, क्लेश सहन करने वाला, सरल स्वभाव, सेना रचना की विधि का ज्ञाता और छोटी-बड़ी बातों का विचार करनेवाला सेनापति ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को रखना राजा के लिए उचित हैं।'' अग्निपुराण के 220वें अध्याय में भी लिखा हैं कि :

सोभिषिक्त: सहामात्यो जयेच्छत्रून्नृपोत्ताम:।
राज्ञा सेनापति: कार्यो ब्राह्मण: क्षत्रियो थवा॥ 1॥

अर्थात् ''अभिषेक के अनन्तर राजा मन्त्रियों सहित होकर शत्रुओं को जीते, जिसके लिए ब्राह्मण अथवा क्षत्रिय को सेनापति बनावे।''

जब कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र का ज्ञान माँगा हैं तो उन्होंने उत्तर दिया हैं कि :

ब्रह्मास्त्रां ब्राह्मणो विद्याद्यथावच्चरितव्रत:।
क्षत्रियो वा तपस्वी योनान्योविद्यात्कथंचन॥ 13॥
स तु राममुपागम्य शिरसाभिप्रणम्य च।
ब्राह्मणो भार्गवो स्मीति गौरवेणाभ्यगच्छत॥ 15 शां॥ 2

अर्थात् ''ब्रह्मास्त्र केवल शास्त्रोक्ताचार वाला ब्राह्मण ही जान सकता हैं, अथवा क्षत्रिय जो तपस्वी हो, दूसरा नहीं। यह सुन वह परशुरामजी के पास, मैं भृगु गोत्री ब्राह्मण हूँ, ऐसा बनकर ब्रह्मास्त्र सीखने गया हैं।'' अन्त में जब उन्हें उसका छल विदित हो गया तो उन्होंने शाप दिया हैं कि :

तस्मादेतन्न ते मूढ ब्रह्मास्त्र प्रतिभास्यति॥ 30॥
अन्यत्रा वधाकालात्तो सदृशेन समेयुष:।
अब्राह्मणे नहि ब्रह्म धु्रवं तिष्ठेत्कथंचन॥ 31॥ शां. 3

अर्थात् ''हे मूढ़, इसलिए ब्रह्मास्त्र का ज्ञान तुझे न रहेगा, केवल उस काल को छोड़कर जब तेरे बराबर वाले से तेरा वध होने लगेगा। क्योंकि यह ब्रह्मास्त्र ब्रह्म ठहरा। इसलिए ब्राह्मण से भिन्न के पास नहीं रह सकता।'' इसके अतिरिक्त परशुराम, द्रोण, कृपाचार्य और अश्वत्थामा विप्र धुरन्धारों के युध्दों को कौन नहीं जानता? इन पूर्वोक्त पुराण और महाभारतादि के वचनों और द्रोणादिक दृष्टान्तों से ऐसा कहने वालों का मत निर्मूल हो गया कि यदि ब्राह्मण को युद्ध करना हैं भी तो केवल आपत्तिकाल में। क्योंकि द्रोणादि के ऊपर कौन-सी आपत्ति थी? और जब राजा का सेनापति ब्राह्मण ही हो सकता हैं, तब तो युद्ध ब्राह्मणों के लिए आपद्धर्म बतलाना नितान्त भूल हैं। किं बहुना, जब उनके लिए राज्य आपद्धर्म नहीं हैं कि तो युद्ध कैसे हो सकता हैं? अतएव मनुस्मृति में स्पष्ट रूप से 8वें अध्याय में लिखा हैं कि :

शस्त्रांद्विजातिभिर्ग्राह्यं धार्मोयत्रोपरुध्यते।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते॥ 348॥
आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन्धार्मेण न दुष्यति॥ 349॥

कुल्लूकभट्ट ने भी टीका में साफ लिखा हैं कि 'ब्राह्मणाद्यैस्त्रिभिर्वर्णै:।' अर्थात् ''जिस समय वर्णाश्रम धर्म में कोई विघ्न उपस्थित हो, कालवश ब्राह्मणादि वर्णों में परम युद्ध छिड़ जाये, अन्नादि द्वारा अपनी जीविका तथा शत्रु से रक्षा करने का अवसर हो, दक्षिणा में प्राप्त गौ प्रभृति को कोई छीनने लग जाये, अथवा चतुर लड़ाकों से काम पड़ जाये, तो ब्राह्मणादि तीनों वर्णवाले सभी युद्ध कर सकते हैं, और धर्म युद्ध से शत्रुओं को मारने में दोष भागी नहीं होते हैं।'' इस पूर्वोक्त मनुवाक्य से जो बुद्धिमान ऐसा अर्थ निकालते हैं कि इतना अवसर गिनाने से युद्ध ब्राह्मण का आपद्धर्म सिद्ध होता हैं, उनकी बुद्धि की बलिहारी हैं। क्योंकि इतने ही तो अवसर युद्ध के लिए क्षत्रियों को भी पड़ते हैं। क्या उनके लिए व्यर्थ भी लड़ने की आज्ञा हैं? गिनाने का तात्पर्य तो केवल यह हैं कि जिसमें कोई भी वर्ण मनमाना हर घड़ी शस्त्रादि लेकर धूम न मचाता रहे।

इस प्रकार जब ब्राह्मण का शास्त्रोक्त धर्म युद्ध सिद्ध हो गया, तो जो कहीं-कहीं महाभारतादि में इसकी नाममात्र की कुछ निन्दा आती हैं, उसका सामान्य रीति से युद्ध को निन्दित ठहराने में तात्पर्य नहीं हैं। किन्तु दशा विशेष के लिए हैं। अर्थात् उसका मुख्य तात्पर्य यह हैं कि ब्राह्मण भी यह न समझ ले कि क्षत्रिय की तरह मेरा भी मुख्य धर्म युद्ध ही हैं। क्योंकि ऐसा समझने से अपने मुख्य धर्म वेदाभ्यास से वंचित हो जायेगा। जैसा जब कृषि, वाणिज्यादि को ब्राह्मणों का सनातन धर्म सिद्ध कर चुके हैं, तो उसके विषय में जो कुछ निन्दा कहीं-कहीं आती हैं कि :

गोरक्षकान्वाणिजिकांस्तथकारुकुशीलवान्।
प्रेष्यान्वाधरुषिकांश्चैव विप्राञ्‍शूद्रवदाचरेत्। 102॥ म. 8॥
कृषिकर्मरतो यश्च गवां च प्रतिपालक:।
वाणिज्यव्यवसायश्च स विप्रोवैश्यउच्यते। 378 अत्रिसंहिता।

अर्थात् ''गोरक्षक, वाणिज्य करनेवाले, नट, दूत और सूदखोर ब्राह्मण के साथ गवाही के समय शूद्रवत् व्यवहार करना चाहिए। कृषि करने वाला, गोपालक और वाणिज्य करनेवाला ब्राह्मण वैश्य कहलाता हैं। इन सभी का तात्पर्य केवल अनापत्ति काल में अपने हाथ में (स्वयंकृत) कृषि, वाणिज्य, गोपालन और कुसीद (सूद का व्यवहार) करने में हैं। यानी अनापत्तिकाल में अपने हाथ से कृत्यादि करने में ब्राह्मण वैश्य या शूद्रवत् हो सकता हैं, परन्तु आपत्तिकाल में तो उसे करने से भी नहीं। क्योंकि अनापत्ति में अस्वयंकृत और आपत्ति में स्वयंकृत कृष्यादि का विधान पूर्वसिद्धकर आये हैं, और विहित कर्म करने से कोई भी दोष भागी या नीच-ऊँच नहीं हो सकता।

अत: यह भी कथन, कि युध्दादि करने के कारण ही ये अयाचक ब्राह्मण अपने समाज में नीचे देखे जाने लगे, सर्वथा असंगत हैं। क्योंकि द्रोण और कृपाचार्य को कौन नीचा देखने वाला था, हैं या होगा? इस प्रकार यदि कोई शास्त्रोक्त करने से समाज में हीन समझा जाये तो सन्ध्या, अग्निहोत्रदि जो कुछ अवशिष्ट हैं वे भी रसातल को ही पहुँच जाये। यदि कोई ब्राह्मण सांसाररिक झंझटों से उपराम हैं तो वह युध्दादि मत करे और उसके लिए वह उचित भी नहीं हैं। परन्तु जो लोग सांसारिक पदार्थों से विरक्त न होकर प्रतिष्ठा, राज्य और लक्ष्मी प्रभृति पदार्थों के अभिलाषी हैं, उनके लिए युद्ध क्यों उचित नहीं और वे उसे क्यों न करें एवं ऐसा करने से हीन क्यों समझे जाये? शास्त्रीय रीति से तो हमें इसमें कोई कारण दीख नहीं पड़ता। अत: निर्विवाद सिद्ध हैं कि इस प्रकार बहुत से अयाचक और याचक दल वाले भी ब्राह्मण युध्दादि द्वारा समय-समय पर राज्य और जमींदारी स्थापित करते और फलत: एक पृथक् दल वाले बनते गये।

(शीर्ष पर वापस)

3-अयाचक ब्राह्मणों के भूमिहार, त्यागी आदि विशेषण

यद्यपि यह वार्ता विविध प्रमाणों और युक्तियों से सिद्ध कर चुके हैं और अभी करेंगे भी कि प्रतिग्रहादि धर्मों से निवृत्त होकर कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करना यही ब्राह्मणों का शास्त्रोचित उत्तम धर्म हैं तथापि 'रुचिनां वैचित्रयात्' अपनी-अपनी रुचि विचित्र होती हैं, इस नियमानुसार सब लोग प्रतिग्रहादि से निवृत्त रहें यह बात कब होने की? जबकि शास्त्रों द्वारा अत्यन्त निषिद्ध और महान् दण्ड योग्य चोरी, द्यूत, मद, हिंसा और व्यभिचारादि से ही लोग निवृत्त नहीं होते, प्रत्युत उन्हीं की संख्या अधिक हैं। क्योंकि 'दुरत्यया प्रकृति:' अर्थात् प्रकृति मिट नहीं सकती। इसी से भगवान् कृष्ण ने कहा हैं कि :

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेज्र्ञानवानपि।
प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥ 3। 33॥

अर्थात् ''जानकार (ज्ञानी) पुरुष भी उत्तम, मध्यम कार्यों के करने से नहीं रुक सकता, क्योंकि सभी प्राणी अपनी-अपनी प्रकृति (स्वभाव) के अधीन हैं, इसलिए वे रुक नहीं सकते।'' भगवान् श्री गौडपादाचार्य ने भी माण्डूक्य कारिका में कहा हैं कि:

तभवत्यमृतं मर्त्यं न मर्त्यममृतं तथा।
प्रकृतेरन्यथा भावो न कथंविचद्भविष्यति (तृती. 21)॥

अर्थात् ''जो अमर हैं उसका नाश नहीं हो सकता और जो नाश होने वाला हैं वह अमर नहीं हो सकता, क्योंकि प्रकृति (स्वभाव) का अन्यथभाव नहीं हो सकता।'' तो फिर चाहे कैसे हुए हों, परन्तु अन्ततोगत्वा जो शास्त्रोक्त धर्म प्रतिग्रहादि हैं उनमें भी लोगों की प्रवृत्ति क्यों न हो? बल्कि स्वभावत: मनुष्य आलसी होने के कारण जिसमें बिना कष्ट द्रव्यादि मिल जाये उसी का करना पसन्द करते हैं, लोक-परलोक का विचार कौन करने लग जाता हैं? यदि कोई करता भी हैं तो विचार कर लेता हैं कि इसके लिए कुछ प्रायश्चित्तादि कर लेंगे। इसीलिए यद्यपि सकाम कर्मों की निन्दा गीता, स्मृतियों एवं पुराणों में बहुत की गयी हैं और साथ ही, निष्काम कर्मों की यहाँ तक प्रशंसा की गयी हैं कि-स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥ गी. अ. 2। 40।

अर्थात् ''थोड़ा भी निष्काम कर्म जन्म-मरण तक के महान् भय को छुड़ा देता हैं।'' तथापि यदि देखा जाये तो 99 प्रति सैकड़े सकाम कर्मों के ही करनेवाले हैं और निष्काम कर्म को करनेवाला तो बड़े क्लेश से एक भी नहीं मिल सकता। इसीलिए यह भी शंका करना मूर्खता मात्र हैं कि यदि प्रतिग्रह को अनुचित समझ सभी दानत्यागी ही हो जाये तो दान कौन लेगा? क्योंकि प्रकृति दुरत्यया हैं। इसलिए सभी दान लेने वालों को शास्त्र नहीं हटा सकता।

इससे यह सिद्ध हो गया कि सृष्टि के प्रारम्भ से ही दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के चले आते हैं-(1) प्रवृत्ति अर्थात् प्रतिग्रह, यजनादि द्वारा जीवन व्यतीत करना, (2) निवृत्ति अर्थात् प्रतिग्रहादि के त्यागपूर्वक शिल, उञ्‍छ, वाणिज्य, कृष्यादि द्वाराजीविका करना। तदनुसार ही ब्राह्मण भी दो प्रकार के तभी से होते आये हैं-(1) प्रवृत्त अर्थात्प्रतिग्रहादि में प्रवृत्तिपूर्वक जीवन बिताने वाले, जिन्हें याचक भी कह सकते हैं, (2) निवृत्त अर्थात् प्रतिग्रहादि की निवृत्तिपूर्वक शिल, उञ्‍छ, कृष्यादि द्वारा यथासम्भव जीवन व्यतीत करने वाले, जिन्हें अयाचक भी कह सकते हैं और इसी दल के प्रकृत भूमिहार ब्राह्मण भी हैं। यद्यपि अयाचक दल में सभी याचक ही नहीं हैं, किन्तु आजकल बहुत से अयाचक भी हैं, एवं अयाचक दल में बहुत से याचक हैं। 1 क्योंकि जैसा कि आगे दिखलाया जायेगा कि ''बहुत से अयाचक ब्राह्मणों का याचक दल के मैथिल, कान्यकुब्ज, सर्यूपारी, गौड़ आदि से विवाह सम्बन्ध हैं। यद्यपि साक्षात् तो जो याचकदल में भी इस समय अयाचक हैं, उन्हीं के साथ हैं, तथापि उनका पुन: याचकों के साथ होने से परम्परया मिल जाता हैं। तो भी इस अयाचक ब्राह्मण दल में प्राधान्या अथवा आधिक्य अयाचकों का ही हैं और याचक (पुरोहित) दल में याचकों का ही और उसमें बहुत से अयाचक समय पाकर अभी हाल में धन के कारण हो गये हैं। हमने इस ग्रन्थ में'भूयसा हि व्यपदेशा भवन्ति' अर्थात् जिस दल में जो अधिक होता हैं उसी के नाम से उसका व्यवहार होता हैं, जैसे जिस ग्राम में ब्राह्मण अधिक होते हैं वह ब्राह्मणों का ग्राम कहलाता हैं। इस महाभाष्योक्त न्यायानुसार पुरोहित दल से विशेष मिले हुए अर्थात् भूमिहार, त्यागी, पश्चिम, जमींदारादि ब्राह्मणों से अतिरिक्त ब्राह्मणों का याचक

1. हजारीबाग के इटखोरी और चतरा थाने के 8-10 कोस में बहुत से भूमिहार, ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और माहुरी आदि की पुरोहिती सैकड़ों वर्ष से करते चले आ रहे हैं और गजरौला, ताँसीपुर के त्यागी राजपूतों की।

पद से व्यवहार किया हैं और भूमिहारादि ब्राह्मणों का अयाचक पद से और यही उचित भी हैं, जैसा कि दिखला चुके हैं और वृद्ध लोग करते भी आये हैं। इसलिए दोनों दल के ब्राह्मणों के लिए क्रमश: याचक और अयाचक शब्द इस ग्रन्थ के ही लिए नहीं, किन्तु बाहर भी प्रयोग करने के लिए हैं और किये जाने चाहिए।

इसी से इन्हीं दो प्रकार के ब्राह्मणों और इनके धर्मों के विचार से मनुजी ने भी दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं जैसा कि :

सुखाभ्युदयिकं चैव नैश्रेयसिकमेव च।
प्रवृत्तां च निवृत्तां च द्विविधां कर्म वैदिकम्॥ 88॥
इहचामुत्रा च काम्यं प्रवृत्तां कर्म करीत्यते।
निष्कामं ज्ञानपूर्वं तु निवृत्तमुपदिश्यते॥ 89॥
अकामोपहतं नित्यं निवृत्तां च विधीयते।
कामतस्तु कृतं कर्म प्रवृत्तामुपदिश्यते॥ मनु. अ.। 12॥

अर्थात् ''स्वर्गादि सांसारिक सुख, ब्रह्म लोकादि और परम्परया मुक्ति प्राप्त कराने वाले कर्म दो प्रकार के होते हैं-(1) प्रवृत्ता, (2) निवृत्त। पूर्वोक्त स्वर्ग, पुत्र एवं धनादि सांसारिक वस्तु तथा ब्रह्मलोकादि की कामनापूर्वक जो कर्म प्रतिग्रह, याजन तथा यज्ञादि किये जाते हैं, वे प्रवृत्ता कहलाते हैं और पूर्वोक्त सुख तथा तदर्थक कर्मों में दोष ज्ञान द्वारा जो निष्काम शिल, उञ्‍छ, कृष्यादि से जीवित करके किये जाते हैं, वे निवृत्त कहलाते हैं। धानादि की कामना छोड़कर केवल धर्म बुद्धि से धर्मार्थ (धर्मसाधानार्थ) जो कर्म किये जाते हैं वे निवृत्त कहलाते और जो धर्म का विचार न करके केवल धनादि के लिए प्रतिग्रहादि किये जाते हैं प्रवृत्ता कर्म कहलाते हैं।'' अग्नि पुराण में इसी अभिप्राय का प्राय: यही श्लोक हैं जैसे :

प्रवृत्तां च निवृत्तां च द्विविधां कर्म वैदिकम्।
काम्यं कर्म प्रवृत्तां स्यान्निवृत्तां ज्ञानपूर्वकम्॥ 16। 24॥

देवलस्मृति में इसको स्पष्ट रूप से कह दिया हैं कि :

द्विविधो गृहस्थो यायावर:शालीनश्च। तयोर्यायावर: प्रवरो यजनाध्यापनप्रति- ग्रहरिक्थसंचयवर्जनात्। षट्कर्माधिष्ठित:प्रेष्य चतुष्पदगृहग्राम धनधान्ययुक्तोलोकानुत्तरीशालीन:।

अर्थ यह हैं कि ''ब्राह्मणादि गृहस्थ दो प्रकार के होते हैं-(1) शालीन, (2) यायावर। इन दोनों में से यायावर श्रेष्ठ होता हैं, क्योंकि वह याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह द्वारा धन संचय नहीं करता। (किन्तु अन्य कृष्यादि उपायों द्वारा) और जो यजनादि अथवा ऋत, अमृतादि षट्कर्मों का करनेवाला और नौकर-चाकर, पशु, गृह, ग्राम (जमींदारी), धन और धान्य युक्त हो उसे शालीन कहते हैं।'' इससे स्पष्ट ही हैं कि यजनादि करने से ब्राह्मण हीन हो जाता हैं और पशुपालन तथा जमींदारी आदि भी करना ब्राह्मण का शास्त्रीय धर्म हैं। साथ ही, यह भी स्पष्ट हैं कि यजनादि करने और न करने वाले, किन्तु कृष्यादि करने वाले ये दो प्रकार के ब्राह्मण अनादिकाल से ही चले आते हैं। इसीलिए वैशेषिक दर्शन के भाष्य में महर्षि प्रशस्त पाद ने धर्म निरूपण प्रकरण में स्पष्ट ही कह दिया हैं कि :

विद्याव्रत स्नातकस्यकृतदारस्यशालीनयायावरवृत्तयुपार्जितैरथैर्मंनुष्यभूतदेवपितृब्रह्माख्यानां महायज्ञानां सायम्प्रातरनुष्ठनम्।

अर्थात् ''जिस ब्राह्मण या क्षत्रियादि गृहस्थ ने ब्रह्मचर्य के नियमों की समाप्ति पूर्वक विवाह किया हैं, उसे पूर्वोक्त शालीन अथवा यायावर की वृत्ति से धानोपार्जन कर उसी से प्रतिदिन सायंकाल और प्रात:काल मनुष्य, भूत, देव, पितृ और ब्रह्म (वेद) इन पाँचों के निमित्त पाँच महायज्ञ करने चाहिए।'' इससे शालीन और यायावर ये दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध होते हैं।

यद्यपि पूर्वोक्त देवलस्मृति में यायावर के लिए केवल प्रतिग्रहादि का निषेध ही स्पष्ट रूप से दिखलाया हैं और कृष्यादि का नाम नहीं लिया हैं, परन्तु शालीन का पशुपालन और जमींदारी आदि करना स्पष्ट शब्दों में कहा हैं। तथापि प्रतिग्रहादि के त्यागने पर अवश्य ही मनुस्मृति के चतुर्थाध्यायोक्त उञ्‍छ, शिल और कृष्यादि करने पड़ेंगे। साथ ही, समय पाकर शालीन की वृत्तियाँ भी जमींदारी प्रभृति यायावरों के हाथ में जा सकती हैं, या चली गयीं। क्योंकि समय-समय पर वृत्तियों या हर प्रकार के धर्मों का विनिमय (उलट-फेर) हुआ ही करता हैं, यह प्रकृति का दृढ़तम नियम हैं। इसीलिए सम्प्रति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन सभी की वृत्तियाँ (जीविकाएँ) प्राय: एक-सी हो गयी हैं और जिस सेवावृत्ति (नौकरी) का ब्राह्मण के लिए अत्यन्त निषेध हैं और था, आज वे प्राय: उसी के करने वाले पाए जाते हैं। इसलिए यायावर ब्राह्मण प्रतिग्रह त्यागी और कृषक हो गये, एवं शालीन प्रतिग्रहादि करनेवाले तथा कृषक हो गये। जो बात आज भी अयाचक ब्राह्मणों और याचक (पुरोहित दल के) ब्राह्मणों में स्पष्ट रूप से पाई जाती हैं। क्योंकि कृषि दोनों ही करते हैं, परन्तु एक (अयाचक या भूमिहार, त्यागी आदि) प्रतिग्रहादि से रहित हैं और दूसरे (याचक) प्रतिग्रहादि करने वाले हैं। इससे स्पष्ट हैं कि प्राय: सभी अयाचक दल के ब्राह्मण देवलस्मृत्युक्त यायावर ब्राह्मण हैं और याचक (पुरोहित) ब्राह्मण शालीन ब्राह्मण हैं।

अथवा यों भी कह सकते हैं कि शालीन ब्राह्मण के लक्षण में जो यह लिखा हैं कि 'षट्कर्माधिष्ठित:' अर्थात् षट् कर्मों का करने वाला। उसके दो अर्थ हो सकते हैं, एक तो यह कि यजनादि षट् कर्मों का कर्ता और दूसरा यह कि उञ्‍छ, शिलादि षट्कर्मों का कर्ता। क्योंकि पूर्व ग्रन्थ में ही यह सिद्ध कर चुके हैं कि यजनादि भी शास्त्रों में षट् कर्म कहे जाते हैं और उञ्‍छ, शिलादि भी, और दोनों के करने वाले ही षट्कर्मा कहे जाते हैं। इसलिए शालीन ब्राह्मणों में ही दो भेद सिद्ध हो गये, एक तो उञ्‍छ, शिल, कृष्यादि पूर्वक जमींदारी और पशुपालन के करने वाले जो कि सम्प्रति प्राय: अयाचक (त्यागी, भूमिहार, पश्चिमदि) ब्राह्मण कहे जाते हैं, और दूसरे प्रतिग्रहादि पूर्वक पशुपालनादि करने वाले, जो कि सम्प्रति याचक (पुरोहित) ब्राह्मण कहे जाते हैं। अत: यह तो निर्विवाद रूप से देवलस्मृति से ही सिद्ध हो गया हैं कि पुरोहित दल वाले ब्राह्मण शालीन कहलाते हैं और इस अयाचक दल के ब्राह्मण यायावर संज्ञक ब्राह्मण हैं। अथवा दो प्रकार के पूर्व निर्दिष्ट शालीन ब्राह्मणों में से ही हैं। साथ ही, याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण सिद्ध हो गये।

अथर्ववेदान्तर्गत आश्रमोपनिषद्, अथवा कात्यायनस्मृति के देखने से भी यही वार्त्ता सिद्ध होती हैं, केवल संज्ञाओं में भेद पाया जाता हैं। क्योंकि लिखा हैं कि: गृहस्था अपि चतुर्विधा भवन्ति, वार्त्ताकवृत्ताय: शालीनवृत्तायो यायावरा घोरसान्यासिकाश्चेति। तत्रा वार्त्ताकवृत्ताय: कृषिगोरक्ष्य-वाणिज्यमगर्वितमुपयुञ्‍जानाश्शत- सम्वत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। शालीनवृत्तायो यजन्तो न याजयन्तोधीयाना नाध्यापयन्तो ददतो न प्रतिगृह्णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। यायावरा यजन्तो याजयन्तोधीयाना अध्यापयन्तो ददत: प्रतिगृह्णत: शतसंवत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मानं प्रार्थयन्ते। घोरसांन्यासिका उध्दृतपरिपूताभिरदि्भ कार्यं कुर्वन्त: प्रतिदिवसमास्तृतोञ्‍छवृत्तिमुपयुञ्‍जाना: शतसंत्सराभि: क्रियाभिर्यजन्त आत्मन प्रार्थयन्ते॥

इस वचन को स्वामी परमानन्द तीर्थ अथवा स्वामी महादेवानन्द तीर्थ ने 'यतिधर्म निर्णय' ग्रन्थ में अथर्ववेद के आश्रमोपनिषद् का बताया हैं। परन्तु पण्डितवर श्रीराम मिश्र शास्त्री ने अपने 'तुरीयमीमांसा' नामक ग्रन्थ में कात्यायनस्मृति का बताया हैं। एक नाम वाली लघु तथा बृहत् वगैरह कितनी ही स्मृतियाँ और संहिताएँ हैं, जैसे लघुविष्णुस्मृति और विष्णुस्मृति प्रभृति और एक ग्रन्थ के वाक्य दूसरे ग्रन्थों में भी पाए जाते हैं, जैसा कि प्रथम 'ऋतामृताभ्यां' इस श्लोक को मनुस्मृति और अग्निपुराण दोनों में दिखला चुके हैं। इसलिए कोई विरोध नहीं हो सकता। अस्तु, पूर्वोक्त उस वचन का अर्थ यह हैं कि ''ब्राह्मणादि गृहस्थ भी चार प्रकार के होते हैं-(1) वार्त्ताकवृत्ति, (2) शालीनवृत्ति, (3) यायावर, और (4) घोर सांन्यासिक। उनमें से वार्त्ताक वृत्ति उनका नाम हैं जो अनिन्दित अर्थात् अस्वयंकृत कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करते हुए सैकड़ों वर्ष में समाप्त होने वाले यज्ञों द्वारा अन्त:करण को शुद्ध करके आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं। जो यज्ञ करते हैं, परन्तु करवाते नहीं, अध्यायन करते हैं, परन्तु अध्यापन नहीं करते और दान देते हैं, परन्तु लेते नहीं और पूर्वोक्त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की इच्छा करते हैं, वे शालीन वृत्ति कहलाते हैं। जो यजन, यजनादि षट्कर्म करके पूर्वोक्त बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान की अभिलाषा करते हैं, उन्हें यायावर कहते हैं और घोर सांन्यासिक वे हैं जो कूप या नदी से जल निकाल उसे शुद्ध कर उसी से नित्यक्रियादि करते हुए प्रतिदिन उञ्‍छ वृत्ति से जीविका करते और उन यज्ञों द्वारा आत्मज्ञान चाहते हैं।''

इससे सिद्ध हैं कि केवल यायावर संज्ञक ब्राह्मण प्रतिग्रहादि करते हैं और शालीनवृत्ति, वार्त्ताकवृत्ति एवं घोर सांन्यासिक ये तीनों प्रतिग्रहादि का नाम न लेकर केवल कृष्यादि द्वारा जीवन व्यतीत करते हैं। यद्यपि देवलस्मृति में प्रतिग्रह शालीन का धर्म और यायावर का धर्म उसका त्याग कहा हैं, परन्तु यहाँ उसके विपरीत शालीन को ही प्रतिग्रह त्यागी और यायावर को प्रतिग्राही कहते हैं। तथापि संज्ञा में विवाद होने पर भी धर्म में विवाद नहीं हैं, जिससे अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण निर्विवाद सिद्ध हो गये। जिनका धर्म यह हैं कि याचक प्रतिग्राही और अयाचक उसका त्याग करके कृष्यादि द्वारा अपनी जीविका करते हैं, जिन्हीं अयाचकों में से यह भूमिहारादि ब्राह्मण हैं, जिन्हें यायावर या शालीन भी प्रथम ही सिद्ध कर आये हैं।

इसी विषय को साफ शब्दों में महाभारत के शान्तिपर्वान्तर्गत मोक्षधर्मपर्व के 199 अध्याय में राजा इक्ष्वाकु और एक अयाचक ब्राह्मण के संवाद द्वारा दिखलाते हुए प्रतिग्रह को बहुत ही हीन बतलाया हैं, जैसा कि :

ब्राह्मणो जापक: कश्चिद्धर्मवृत्तो महायशा:।
षडंगविन्महाप्राज्ञ: पैप्पलादि: स कोशिक:॥ 4॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडंगेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रय:॥ 5॥
सो न्त्यं ब्राह्मणं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन्।
तस्य वर्षसहस्त्रान्तु नियमेन तथा गतम्।
स देव्या दर्शित: साक्षात्प्रीतास्मीति तदा किल॥ 7॥
अथ वैवस्वत: कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपागम्येदब्रुवन्॥ 28॥
तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागत:।
इक्ष्वाकुरगमत्तात्रा समेता यत्रा ते विभो॥ 34॥
सर्वानेव तु राजर्षि: संपूज्यार्थ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत्सर्वेषां राजसत्ताम:॥ 35॥
राजोवाच! राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षटकर्म संस्थित:।
ददानि वसु किंचिते प्रथितं तद्वदस्व मे॥ 38॥
ब्राह्मणउवाच। द्विविधाब्राह्मणाराजन्धार्मश्चद्विविधा: स्मृत।
प्रवृत्ताश्च निवृतोश्च निवृतोहं प्रतिग्रहात्॥ 39॥
तेभ्य: प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किभिष्टं किं ददामि ते॥ 40॥
बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्त: प्रसारित:।
निवृत्तिलक्षणं धर्मपुमासे संहितां जपन्॥ 78॥
निवृत्तां मां चिराद्राजन् विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप॥
तप:स्वाध्यायशीलो हं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात्॥ 79॥

अर्थ यह हैं कि ''पिप्पलाद ऋषि का पुत्र कौशिक गोत्री एक ब्राह्मण था, जो बहुत ही धर्मात्मा, यशस्वी, महाबुद्धिमान और षडंगों का ज्ञाता, एवं चारों वेदों की संहिताओं को जपने (पढ़ने) वाला था। उसे षडंग विषयक अपरोक्ष (प्रत्यक्ष) ज्ञान था और चारों वेदों में भी कुशल होकर हिमालय की तराई में वह रहता था। वह पवित्रतापूर्वक संहिता का जप करता हुआ वेदाध्यायन कालिक कठिन तपस्या करता था। इस प्रकार से नियमपूर्वक उसके सहस्र वर्ष व्यतीत हो गये। इस पर प्रसन्न होकर सरस्वती ने उसे दर्शन दिया और मैं प्रसन्न हूँ ऐसा कहा। इसके बाद यम,काल और मृत्यु ये तीनों उसके पास आ उससे अपने-अपने आने का प्रयोजन कहने लगे। इसी समय तीर्थयात्रार्थ पर्यटन करते हुए राजा इक्ष्वाकु उसी जगह आ गये जहाँ पर वे सब एकत्रित थे। राजर्षि इक्ष्वाकु ने सभी को नमस्कार कर पूजा करके पुन: उनसे कुशलप्रश्न इत्यादि किया। फिर राजा ने उस तपस्वी ब्राह्मण से कहा कि मैं राजा हूँ और आपषट्कर्म करने वाले ब्राह्मण हैं; इसलिए आपको कुछ धन देने की इच्छा हैं। जो आपकी इच्छा हो सो कहिये। ब्राह्मण ने उत्तर दिया कि हे राजन्! प्रतिग्रहादि लेने में प्रवृत्ति और उनसे निवृत्ति ये दो प्रकार के धर्म ब्राह्मणों के हैं, इसलिए ब्राह्मण भी तदनुसार ही दो प्रकार के होते हैं। एक प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त और दूसरे उनसे निवृत्त, उनमें से मुझे प्रतिग्रहादि से निवृत्त जानिये। इसलिए दान उन ब्राह्मणों को दीजिये जो प्रतिग्रहादि में प्रवृत्त हैं, मैं प्रतिग्रह नहीं कर सकता। हाँ आपको क्या चाहिए जो दूँ। यदि मैंने सम्भवत: बाल्यावस्था में भूलकर हाथ पसार दिये हों (दान लिया हो) तो पसार दिये, परन्तु अब वेदों की संहिताओं का पाठ करता हूँ। इसीलिए धर्मसेवन करता हूँ। हे राजन्! मैं बहुत काल से निवृत्ति रूप धर्म का ज्ञाता होकर प्रतिग्रहादि से निवृत्ति रूप धर्म का सेवन करता हूँ। अत: मुझे क्या लालच दिखाते हो? मैं अपने ही सामर्थ्य से उपार्जित अन्नादि द्वारा शरीर यात्रा करने वाले हूँ, आपसे कुछ नहीं चाहता। मैं तो केवल तपस्या करने और वेदादि पढ़ने वाला हूँ और प्रतिग्रह से निवृत्त हूँ।''

इस सम्पूर्ण कथन का सारांश यह हैं कि अयाचक और याचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण सर्वदा से होते चले आये हैं। उनमें से याचक तो प्रतिग्रहादि अवश्य करते थे, परन्तु कृष्यादि करते थे और न भी करते थे। लेकिन अयाचक दल वाले तो प्रतिग्रहादि को गर्वित समझ कृषि, वाणिज्यादि द्वारा ही अपनी जीविका करते थे और करते हैं। साथ ही, जैसे अयाचक लोग शास्त्रभ्यास करते थे वैसे ही अयाचक दल वाले भी। जिन्हीं में से हमारे यह पश्चिम, भूमिहारादि ब्राह्मण हैं। उन दिनों इन अयाचक ब्राह्मणों में त्यागी, पूर्ण शक्ति थी कि कृष्यादि भी करवाते और वेदाध्यायनादि भी करते थे। इसलिए बोधायनस्मृति में पंचमाध्याय में लिखा हुआ हैं कि :

वेद: कृषिविनाशाय कृषिर्वेदविनाशिनी।
शक्तिमाननभयम् कुर्यादशक्तस्तु कृषिं त्यजेत्। 101 प्र. 1।

अर्थात् ''निरन्तर वेदाभ्यास कृषि का विरोधी हैं और निरन्तर कृषि भी वेद की विरोधिनी हैं, इसलिए अपने-अपने समय पर यदि दोनों को साथ करने की सामर्थ्य हो तो साथ-साथ करे। परन्तु दोनों के एक साथ निबाह सकने की शक्ति यदि न हो तो ऐसी दशा में वेद के लोभ से कृषि का परित्याग भले ही कर दे।'' इसीलिए उस स्मृति के तृतीय प्रश्न के प्रथमाध्याय में भी 9 वृत्तियों को गिनाकर द्वितीयाध्याय में उनका लक्षण करते हुए स्पष्ट रूप से कृषि का विधान किया हैं। यदि बिलकुल ही कृषि वेदाभ्यास की विरोधिनी होती तो इससे पूर्व वेदाभ्यासादि पंचमहायज्ञों के विषय में अर्थ मे पंचमहायज्ञा: अर्थात् अब इन स्वाध्याय (वेदाभ्यास) प्रभृति महायज्ञों को कहेंगे, ऐसा कहकर कभी भी कृष्यादि का निरूपण न करते। परन्तु वे तो स्पष्ट लिखते हैं कि:
ता अनुव्याख्यास्याम:॥ 6॥ षण्नरिवर्त्तनी, कौद्दाली, धु्रवा, संप्रक्षालनी, समूह, पालनी, शिलोञ्‍छा, कापोता, सिद्धेच्छेति नवैता:। 7। तृतीयप्रश्नेप्रथमाध्याय:॥ कौद्दालीति।6। जलाभ्याशे कुद्दालेन वा फालेन वा तीक्ष्णकाष्ठेन वा खनति वीजान्यावपति॥ 7॥ कन्दमूलफलशाकौषधीर्निष्पादयति। 8। कुद्दालेनकरोतीति कौद्दाली॥ 9॥ तृतीयेप्रश्नेद्वितीया.॥

अर्थ यह हैं कि ''अब यायावर तथा शालीन प्रभृति की वृत्तियों (जीविकाओं) का निरूपण करते हैं। वे षण्नरिवर्त्तनी, कौद्दाली, धा्रुवा, संप्रक्षालनी, समूहा, पालनी, शिलोञ्‍छा, कापोता और सिद्धेच्छा ये नौ हैं। उनमें से कौद्दाली वृत्ति यह हैं कि जल के समीप (बीज बोने योग्य गीली भूमि में) क़ुदाल, फाल या चोखे काष्ठ से खोदना (भूमि जोतना) और बीज बोकर कन्द, मूल, फल, शाक और अन्नादि को उत्पन्न करना। यह काम कुदाल प्रभृति से ही होता हैं, इसलिए इस जीविका का नाम कौद्दाली हैं'' उसी जगह शालीन और यायावर का अर्थ करके ये वृत्तियाँ गिनाई गयी हैं। वे लिखते हैं कि शालाश्रयत्वाच्छालीनत्वम्। 3। प्यावरयायातीति यायावरत्वम्। 4। अर्थात् ''जो बड़े-बड़े प्रासादों में निवास करे उसे शालीन कहते हैं, और कौद्दाली आदि श्रेष्ठ वृत्तियों द्वारा जो जीवन व्यतीत करता हैं उसे यायावर कहते हैं।

इसी प्रकार याचक ब्राह्मण की प्रतिग्रहादि के साथ कृष्यादि भी करते हुए, या केवल प्रतिग्रहादि करते हुए वेदाभ्यास से चुकते न थे। बहुत दिनों क्या युग-युगान्तरों तक यही बात होती रही। परन्तु कालक्रम से दोनों दलों में वेदादि के अभ्यास का ह्स होने लगा। परन्तु प्रतिग्रहादि तथा कृष्यादि बिना शरीर स्थित ही नहीं हो सकती थी, इसलिए उसका ह्स या त्याग असम्भव था। हाँ उसमें भी कुछ-न-कुछ उलट-फेर अवश्य होने लगा। जहाँ लोग दो-चार बैलों के हल को अनुचित तथा महापाप समझते थे वहाँ उसे ही उचित समझने लगे। आज तक अयाचक (त्यागी, भूमिहारादि) और याचक (पुरोहित) दोनों दलों में ही दो बैलों द्वारा हल का चलाया जाना उसी वेद- शास्त्रादि के अनभ्यास मूलक धर्म के अज्ञान में प्रमाण हो रहा हैं। साथ ही, ब्राह्मणों की आज तक सेवावृत्ति (नौकरी) ये स्वाभाविक प्रवृत्ति भी उसी शास्त्र के सम्यक् ज्ञानाभाव को सूचित कर रही हैं, जिससे अब धर्मज्ञान होने पर भी वह पड़ा हुआ स्वाभाविक अभ्यास नहीं छूटता। यहाँ पर यह बात भी भूलना न चाहिए कि अयाचकों तथा याचकों का सम्बन्ध प्रथम से लेकर उस समय तक भी घनिष्ठ था और परस्पर विवाह सम्बन्ध तथा खान-पान प्राय: हुआ करते थे। कुछ भी रोक-टोक न होकर यह वार्ता प्रत्येक की इच्छा पर निर्भर थी, न कि आजकल की तरह सब सम्बन्ध बहुत ढीला हो रहा था। हाँ कुछ-कुछ मतभेद के विचार इस विषय में अवश्य उठ रहे थे जो आज बहुत बढ़ गये हैं और उन्होंने परस्पर के सम्बन्ध को बहुत स्थलों में अधिक ढीला कर दिया और बहुतेरी जगहों में तो उसका अभाव ही कर दिया हैं और करना चाहते हैं। इसी समय लोग यथार्थ धर्मज्ञान न होने के कारण धनोपार्जन तथा जीविका के लिए अन्यन्य उपायों का भी अवलम्बन करने लग गये।

 

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