3-अयाचक
ब्राह्मणों के भूमिहार, त्यागी आदि विशेषण
... ... ...
यह बात मनु भगवान् के बाद की और पोराणिक काल और बौद्ध काल से पूर्व तथा
मुसलमानों को बाद के समय तक की हैं। इस विषय को अनेक ग्रीक, पालि तथा जैन
ऐतिहासिक ग्रन्थों के (क्योंकि हम लोगों का लिखा इतिहास उस समय का मिलता ही
नहीं), एवं प्राचीन शिला लेखादि के आधार पर बहुत से अंग्रेजी विद्वानों ने
इस प्रकार लिखा हैं कि :
जे. डब्ल्यू. मेक् क्रिण्डिल एम. ए. (J.W. Mc Crindle
M.A.) ने अपनी 'प्राचीन भारत' (Ancient India) नामक अंग्रेजी पुस्तक
में मेगस्थनीज और एरियन (Megasthenes and Arrian) नामक यूनानी (ग्रीक)
यात्रियों के सन् ईस्वी से लगभग 300 वर्ष पूर्व के भारतीय जाति विवरण का
अनुवाद 136 पृष्ठ में इस प्रकार किया हैं कि:
For among the more civilized Indian communities life is spent in great
variety of separate occupations. Some till the soil; some are soldiers;
some traders; the noblest and the richest take part in the direction of
state affairs, administer justice, and sit in council with the kings. A
fifth class devotes itself to the philosophy prevalent in the country,
which almost assumes the form of a religion and the members always put
an end to their lives by a voluntary death on a burning funeral pile.
इसका मर्मानुवाद यह हैं कि ''क्योंकि बहुत ही शिक्षित भारतवासी अपने जीवन
को विविध प्रकार के भिन्न व्यापारों में बिताते हैं। कोई जमीन जोतते
अर्थात् कृषि करते हैं, कोई सिपाही और व्यापारी (वाणिज्यकर्त्ता) होते हैं
और जो सबसे धनी और श्रेष्ठ हैं वे राज्य के सुधार में लगे रहते, न्याय करते
और राजा के साथ राजसभा में बैठते हैं। एक पाँचवाँ दल हैं जो उन दर्शनों
(धर्मशास्त्र और ज्योतिषादि) में संलग्न रहता हैं जो इस समय देश में
प्रचलित हैं और धार्मिक कार्य का एक अंश माने जाते हैं। समाज के बहुत से
लोग सर्वदा स्वच्छन्दतापूर्वक जलती चिता पर आरूढ़ होकर प्राणान्त करते
हैं।''
उसी पुस्तक के 83वें पृष्ठ में लिखा हैं कि :
The philosophers are first in rank, but form the smallest class in point
of number. Their services are employed privately by persons who wish to
offer sacrifices or perform other sacred rites, and also publically by
the king at what is called the great Synod, where-in at the begining of
the new year all the philosophers are gathered to gether before the
kings at the gates, when any philosopher, who may have committed any
useful suggestion to writing or abserved any means for improving the
crops and cattle, of promoting the public interests, declares it
publically.
इसका भाव यह हैं कि ''इस समय दार्शनिकों (मन्त्र, तन्त्र और ज्योतिषादि के
ज्ञाताओं) का दर्जा सबसे ऊँचा हैं, परन्तु वे संख्या में सबसे कम हैं। उनका
काम विशेष रूप से उन लोगों के यहाँ पड़ता हैं, जो कुछ पूजा या धार्मिक कार्य
करना चाहते हैं एवं सर्वसाधारण रूप से राजा के यहाँ भी उन धर्म सभाओं में
उनका काम पड़ा करता हैं जिनमें वर्ष के प्रारम्भ में सभी दार्शनिक राजा के
सामने राजद्वार पर एकत्रित किये जाते हैं। उस समय कोई भी दार्शनिक, जो लेख
के लिए कोई उपयोगी बात सोचे होता, सर्वसाधारण की कृषि या पशुओं की उन्नति
का कोई साधन विचारे होता, अथवा किसी भी सर्वसाधारण के हित को विचारे होता
हैं, उसे सर्वसाधारण के सन्मुख वर्णन करता हैं।'' इससे स्पष्ट हैं कि सन्
ईस्वी से 300 वर्ष पूर्व केवल पुरोहिती आदि से जीविका करने वालों की संख्या
बहुत ही कम थी और ब्राह्मणादि राज-काज, कृषि, वाणिज्यादि में बहुत ही
प्रवृत्त थे। साथ ही, वेदादि का अभ्यास इतना कम हो रहा था कि पुरोहिती करने
और मन्त्र, तन्त्रादि जाननेवालों को भी दार्शनिक कहा करते थे।
महाराज श्री काशिराज की जो वक्तृता सभापति के रूप में काशी में होनेवाली
भूमिहार ब्राह्मण महासभा में यूनानी यात्री अरस्तू (Aristotle) या किसी
अन्य और फाह्यान (Fahian) नामक चीनी यात्री इन दोनों के लेखों के आधार पर
सन् 1900 ई. में हुई थी, वह भी इस सिद्धान्त को पुष्ट करती हैं। वह इस
प्रकार हैं :
In the year 331 B. C. Aristotle visited India in company of Alexandar
the Great, and he wrote that, now the ideas about castes and profession,
which have been prevalent in Hindustan for a very long time, are
gradually dying out, and the Brahmans, neglecting their
education,....live by cultivating the land and acquiring the territorial
possessions, which is the duty of Kshatriyas. If things go on in this
way, then instead of being (विद्यापति) i.e. Master of learning, they
will become (भूमिपति) i.e. Master of land.
अर्थात् ''सन् इस्वी से 331 वर्ष पूर्व सिकन्दर बादशाह के साथ अरस्तू भी
भारतवर्ष में आया था। उसने उस समय भारतवर्ष में घूमकर ऐसा लिखा हैं कि जो
बन्धन जाति और उसके कर्म विषयक भारतवर्ष में बहुत दिनों से प्रचलित थे, वे
अब धीरे-धीरे ढीले होते जाते हैं और ब्राह्मण लोग विद्या विमुख हो पुरोहिती
वृत्ति छोड़कर कृषि और राज्यादि द्वारा अपना जीवन बिताते हैं जो क्षत्रियों
के कर्म समझे जाते हैं। यदि यही दशा रही तो ये लोग विद्यापति होने के बदले
भूमिपति हो जायेगे।'' इसी प्रकार:
In the year 399 A.D. a Chinese traveller named Fahian came to India, and
he wrote in his book on travles, after giving vivid description of
Magadha, that owing to the families of the Kshatriyas being almost
extinct, great disorder has crept in. The Brahmans having given up
asceticism....are ruling here and there in the place of Kshatriyas, and
are called ‘Sang he Kang’, which has been translated by professor
Hoffman as ‘Land seizer’.
अर्थात् ''सन् 399 ईस्वी में फाह्यान नाम का जो चीनी यात्री भारतवर्ष में
आया था, उसने अपने भ्रमण वृत्तान्त में मगध देश का वृत्तान्त वर्णन करते
हुए लिखा हैं कि इस देश में क्षत्रिय वंशों के नष्टप्राय हो जाने से बहुत
ही गड़बड़ी मच गयी हैं। ब्राह्मण लोग दान ग्रहण रूप अपना निजी कर्म छोड़कर
क्षत्रियों की जगह राज्य करते और 'सांग हे कांग' कहे जाते हैं। जिसका
अनुवाद प्रोफेसर 'हाफमन' (Hoffman) ने भूमि छीननेवाला (land seizer) किया
हैं।''
इससे यह भी सिद्ध हैं कि कम-ls-कम दो सहस्र वर्षों से तो अवश्य ही अयाचक
ब्राह्मणों में बहुतेरों की संज्ञा भूमिपति या भूम्यधिकारी हैं। क्योंकि
'लैण्ड सीजर' (Land seizer) शब्द का अर्थ भूमि पर अधिकार जमा लेने वाला
अर्थात् भूम्यधिकारी हैं, कारण, कि अधिकार जमाने या बलात् छीन लेने को ही
अंग्रेजी में सीज (seize) कहते हैं। इस जगह पर लैण्ड सीजर (Land seizer) इस
पद को देख झटपट उसका 'भूमिहार' ऐसा अर्थ करके किसी ने ऐसा अनुमान किया हैं
कि अयाचक ब्राह्मणों की भूमिहार संज्ञा भी दो सहस्र वर्षों से कम की नहीं
हैं। परन्तु यह बात उचित नहीं हैं। क्योंकि जिस मगध देश में ब्राह्मणों के
लिए लैण्ड सीजर (land seizer) शब्द आया हैं वहाँ आज तक भूमिहार शब्द का
प्रयोग हुआ ही नहीं। किन्तु यहाँ तो ब्राह्मण मात्र के लिए ब्राह्मण, अथवा
बाभन या ब्राह्मण शब्द आया करता हैं। हाँ, अब कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मण
महासभा के प्रचार से उसका भी प्रयोग होने लगा हैं। परन्तु जिस बंगदेश में
मगध हैं, उसी में, या उसके आसपास के प्रान्तों में अधिकारी अथवा
भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द अयाचक ब्राह्मण जमींदारों के लिए आया करता हैं।
इसीलिए जयपुर राज्यान्तर्गत फुलेरा स्थान से प्रकाशित 'जात्यन्वेषण' नामक
ग्रन्थ के प्रथम भाग में अकारादि नामवाली जातियों में अधिकारी या
भूम्यधिकारी ब्राह्मणों का भी निरूपण आया हैं। इस विषय का विशेष निरूपण आगे
करेंगे।
अस्तु, इसी प्रकार टी. डब्ल्यू. रियसडेविड्स, एल.एल. डी., पी-एच. डी. (T.
W. Rhys Davids L. L-D. Ph.D.) ने जो अंग्रेजी पुस्तक 'बौद्धकालिक
भारत-राज्यवंश- इतिहास' (The Story of the nations. Buddhist India) नामक
लिखी हैं, उसमें 'जातक' प्रभृति पालि तथा अन्य ग्रन्थों के आधार पर इस
प्रकार लिखा हैं कि :"The carpenters, smiths and potters, for instance,
had villages of their own. So had the Brahmins, whose services were in
request at every domestic events. Khomadussa, for instance, was a
Brahmin settlement." (pages 20-21)
"The Angraja in the Buddha’s time, was simply a wealthy nobleman and we
only know of him as the grantor of a pension to a particular Brahmin."
(Page 24)
"A very old text (Sa. B. 13-7-15) apparently implies that a piece of
ground was given as a sacrificial fee." (Page 47)
"Great importance was attached to these rights of postures and forestry.
The priests claimed to be able, as one result of performing a particular
sacrifice, to ensure that a widet ract of such land should be provided.
(Sat B. 13-3-7). And it is often made a special point, in describing the
grant of a village to a priest, that it contained such commoneand."
(Dialogue of Buddha, Page 48).
"It will have been seen, however, that the mass of the people, the
villagers, occupied a social grade quite different from and for above
our village folk. They held it degradation, to which only dire
misfortune would drive them, to work for hire. They were proud of their
standing, there family, and their village. And they were governed by
headmen of their own class, and village, very probably selected from
themselves in accordance with there own customs and ideals." (Vinaya
Jatakas. Page 51)
"Then came the Brahmins claiming descent from the sacrificing priests,
and though the majority of them followed then other pursuits, they were
equally with the nobles (Chattris), distinguished by high birth and
clear complexion. People could and did change their vocations by
adopting one or other of these and low trades. Thus at Jat 5. 290, a
love lorn Kshatriya works successfully (without any dishonour or
penalty) as a potter, basket-maker, reedworker, garland-maker, and cook.
Also at Jat, 6, 372. a Sethi works as a tailor and as a potter, and
still retains the respect of his high born relations." (Page 57).
"The three upper classes had originally been one; for the nobles and
priests were merely those members of the third class; the Vessas, who
had raised themselves into a higher social rank. And though more
difficult probably than it had been, it was still possible for analogous
changes to take place. Poor men could become nobles, and both could
become Brahmins" (page 55).
"That there was altogether a much freer possibility of change among the
social rank than is usually suppossed is shown by the following
instances of occupation; (1) A Kshstriya, a King’s son, apprentices
himself successively, in pursuance of a love affair, to a potter, a
basket maker, a floorist and a cook, without a word being added as to
loss of caste, when his action becomes known. (Jat. 11.5.290). (2)
Another prince resigns his share in the kingdom in favour of his sister,
and turns trader. (Jat. 4. 84). (3). A third prince goes to live with a
merchant and earns his living by his hands. (Jat. 4. 169). (4) A noble
takes, for a salary, as an archer (Jat. 2. 8). (5) A Brahmin takes to
trade to make money to give away, (Jat. 4. 15). (6) Two other Brahmins
live by trade without any such excuse. (Jat. 5. 22. 47.). (7) A Brahmin
takes the post of an assistant to an archer, who had himself been
previously a weaver. (Jat. 5. 127). (8-9) Brahmins live as hunters and
trappers. (Jat 2. 200, 6, 170). (10) A Brahmin is a wheel-wright. (Jat.
4. 207). Brahmins are also frequently mentioned as engaged in
agriculture and as hiring themselves out as cow-herds and even
goat-herds. These are all instances from the Jatakas" (Page 56).
इस पूर्वोक्त अंग्रेजी ग्रन्थ का भाषानुवाद इस प्रकार हैं-''जैसे बढ़ई,
सोनार और कुम्हारों के गाँव थे, वैसे ही उन ब्राह्मणों को भी गाँव मिले थे
जिनकी आवश्यकता प्रत्येक गृहकार्य में होती थी। दृष्टान्तार्थ खोमडुस्सा
नामक एक ग्राम ब्राह्मणों की जमींदारी थी (पृ. 20-21)। बुद्धदेव के समय में
जो अंग देश का राजा था उसके विषय में हमें इतना ही विदित हैं कि वह केवल एक
धानाढय और प्रतिष्ठित पुरुष था और किसी विशेष ब्राह्मण को पेन्शन देता था
(पृष्ठ 24)। एक प्राचीन ग्रन्थ (शतपथ ब्राह्मण 13। 7। 15) से यह स्पष्ट
विदित होता हैं कि दक्षिणा में कुछ भूमि ब्राह्मणों को दी जाती थी'' (पृ.
47)।
चारागाह और जंगलों के अधिकार की ओर ब्राह्मणों का विशेष ध्यान था। पुरोहित
सर्वदा इस बात का दावा करते थे कि किसी यज्ञादि कराने के बदले उन्हें ऐसी
ही भूमि की प्राप्ति हो। (शतपथ ब्राह्मण 13। 3। 7) दानपत्र लिखने में इस
विषय का विशेष ध्यान रहता था कि इसमें इस प्रकार के एकाध चारागाह या जंगल
भी रहें। (बुद्धदेव के उपदेश, पृ. 48)। देखने से प्रतीत होता हैं कि उस समय
के सामान्य ग्रामीण जनों की सामाजिक अवस्था आधुनिक ग्रामीणों की अवस्था से
बिलकुल ही मिलती-जुलती न थी, प्रत्युत बहुत ही चढ़ी-बढ़ी थी। यदि वे दुर्दैव
वशात् वेतन (तनख्वाह) पर काम करते तो उसमें अपनी हतभाग्यता और अप्रतिष्ठा
समझते थे। उनको अपनी सामाजिक अवस्था, कुटुम्ब और ग्राम का बड़ा गर्व था।
बहुधा उनका शासन वे ही स्वर्गीय तथा स्वग्रामीण नेता करते थे, जिनको वे लोग
अपनी परम्पराप्राप्त रीतियों और सिद्धान्तों के अनुसार अपने में से चुनते
थे।'' (विनय जातक पृ. 51)।
''ब्राह्मण लोग अपने को पुरोहितों के वंशज कहा करते थे। और यद्यपि उस समय
अधिकांश में वे लोग अन्यन्य व्यवसाय किया करते थे, तथापित भद्र पुरुषों
(क्षत्रियों) की भाँति वे भी अपने उच्चवंश और गौरव के लिए प्रसिद्ध थे। लोग
इन बीच व्यवसायों में से किसी को कर लेते और फिर अपने व्यवसाय को बदल सकते
और बदल लेते थे। जैसाकि 'जातक' ग्रन्थ के 5/290 से विदित होता हैं कि एक
स्त्री परित्यक्त क्षत्रिय निरन्तर (बिना किसी मानहानि व दण्ड का भी भागी
हुए) कुम्हार, धारिकार, चाण्डाल, माली तथा रसोईदार का काम करता था। यहाँ तक
कि 'जातक' ग्रन्थ के 6/372 से विदित हैं कि सेठी (श्रेष्ठी या श्रेष्ठ
पुरुष अथवा सेठ दर्जी और कुम्हार का काम करते हुए भी अपने को निज के उच्च
श्रेणी वाले सम्बन्धियों की भाँति गौरवान्वित ही समझते थे''(पृ. 57)।
''पहले द्विजाति लोग एक ही थे, कारण कि तृतीय अर्थात् वैश्य वर्ग में से वे
ही क्षत्रिय और ब्राह्मण (पुरोहित) हो जाते थे जो अपनी सामाजिक अवस्था में
उन्नति कर लेते थे। यद्यपि अब यह बात सम्भवत: प्रथम से कठिन हो गयी थी, फिर
भी ऐसे परिवर्तनों की सम्भावना रहा करती थी। निर्धन लोग क्षत्रिय और दोनों
ही ब्राह्मण हो सकते थे'' (पृ. 55)।
नोट- यहाँ इस विषय को समझ लेना चाहिए कि ''सब द्विज एक ही थे, इस कथन का
तात्पर्य यह नहीं हैं कि वस्तुत: वे लोग एक ही थे, किन्तु उनके व्यवसाय ऐसे
मिले थे और सभी का वेदादि का अभ्यास ऐसा छूटा था कि सभी एक से ही प्रतीत
होते थे। अत: वास्तव में ब्राह्मणों में से ही जो कुछ थोड़ा-बहुत पढ़ लेते
थे, वे और ऐसा प्रतीत होता था कि वे वैश्यों में ही हुए हैं। इसी प्रकार
वास्तव में क्षत्रिय ही बलवान, प्रतिष्ठित और धनी हो जाता था वही क्षत्रिय
प्रतीत होता था, न कि दूसरे उसके जातीय लोग। इसलिए निर्धन से क्षत्रिय और
ब्राह्मण होना लिखा हैं, न कि वास्तव में अन्य जाति अन्य हो सकती थी। इस
कथन से इस बात की पुष्टि होती हैं कि उस समय ब्राह्मणता का चिद्द केवल
पुरोहिती या भिक्षावृत्ति न थी, किन्तु वे लोग पूर्ण धनवान और प्रतिष्ठित
एवं बलवान भी हुआ करते थे।
निम्नलिखित व्यवसाय (व्यापार, काम) सम्बन्धी उदाहरणों से प्रकट होता हैं कि
उस समय सामाजिक दशा में परिवर्तन होने की अधिकांश सम्भावना थी।'' उदाहरणये
हैं:
(1) ''कोई किसी के प्रेम में बँधा हुआ क्षत्रिय राजकुमार धारिकार, माली और
रसोईदार का काम निरन्तर करता हैं, किन्तु उसका यह कर्म लोगों पर प्रकट हो
जाने पर भी जातिच्युत होने का दोष उस पर लगाया नहीं जाता (जातक 2। 5। 290)।
(2) कोई राजकुमार राजपाट का अपना अंश अपनी भगिनी को देकर स्वयं वाणिज्य में
प्रवृत्त हो जाता हैं (जातक 4। 84)।
(3) कोई राजकुमार व्यापारियों के साथ रहता और अपने हाथों कमाकर जीवन बिताता
हैं (जातक 4। 169)।
(4) कोई क्षत्रिय वेतन (तनख्वाह) पर तीर चलाता हैं। (जातक 2। 8)।
(5) एक ब्राह्मण दान देने के लिए व्यापार (वाणिज्य) द्वारा धनोपार्जन करता
हैं (जातक 4। 15)।
(6) दो ब्राह्मण ऐसे मिलते हैं जो बिना किसी विचार या शंका के व्यापार
(वाणिज्य) द्वारा जीविका करते हैं (जातक 5। 22। 47)।
(7) एक ब्राह्मण जो प्रथम कपड़ा बुनता था, किसी तीर चलाने वाले का सहायक
बनता हैं (जातक 5। 127)।
(8, 9) ब्राह्मण लोगव्याधा और शिकारी (जाल फैलाने वाले) का काम करते हैं''
(जातक 2। 200, 6। 170)।
नोट-इस दृष्टान्त से स्पष्ट हैं कि शास्त्राभ्यास की कमी से धार्मिक भाव
बहुत ही शिथिल हो रहा था जिससे ब्राह्मणादि अपने को ही नहीं पहचान सके थे।
(10) ''कोई ब्राह्मण पहिया बनाने का काम करता हैं (जा. 4। 207)। ब्राह्मण
लोग बहुधा कृषि करनेवाले पाए जाते हैं और वेतन पर अहीर और गड़रिये का काम भी
करते हैं। ये सब उदाहरण जातक नामक पालि भाषा के ग्रन्थों से उदधृत हैं।''
(पृ. 6)।
इस पूर्व कथन से यह बात स्पष्ट झलक रही हैं कि बौद्धकाल में ब्राह्मणों में
वैदिक एवं स्र्मात्ता भाव कैसा मन्द हो रहा था और शास्त्रीय ज्ञान से विमुख
हो सभी लोग कैसे स्वेच्छाचारी हो रहे थे। साथ ही, ब्राह्मण लोग भी विशेष
रूप से कृषि वाणिज्य में ही दत्तचित्त थे। यह दशा सनातनधर्म की केवल बौद्ध
धर्म के प्रभाव से ही नहीं हुई थी, किन्तु 'आगमापायिनोनत्या:' अर्थात् सभी
सांसारिक पदार्थ एक से रहने वाले नहीं हैं, इस प्रकृति के अटल नियमानुसार
बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व ही थी। जैसा कि हम कह चुके हैं कि सनातनधर्म का
सोन्मुख हो रहा था। इसी बात को पूर्वोक्त ही अंग्रेजी ग्रन्थ में इस प्रकार
कहा हैं :
And a fortiori-unless it be maintained that Buddhism brought about a
great change in this respect, the state of things must have been even
more lax at the time when Buddhism arose.(Page 56)
इसका भाव यह हैं कि ''पृष्ठ 56 में लिखा हैं कि जब तक प्रबल प्रमाण से यह
मिल न हो जाये कि पूर्वोक्त विषयों में बौद्धधर्म ने बहुत बड़ा उलट-फेर
किया, यह बात अवश्य स्वीकार करनी होगी कि जिस समय बौद्धधर्म भारत में आया
उस समय प्राचीन बातें बहुत ढीली पड़ रही थीं।'' इसके बाद पूर्वोक्त ही
ग्रन्थ के Brahmin Position अर्थात् 'ब्राह्मणों की स्थिति' नामक प्रकरण
में 249वें पृष्ठ में ब्राह्मणों या पुरोहितों के विषय में विशेष रूप से
सन् ईस्वी से 600 वर्ष पूर्व की बात यों लिखी हैं :
In any case there was no central organization of the priest-hood; there
where no permanent temples to their, good, and such sacred shrines as
the people could frequent were the sacred trees or other objects of
veneration belonging to the worship of the local gods and quite apart
from the cults or influence of the priests And the latter were divided
against themselves. They vied with one another for sacrificial fees. The
demand for their services was insufficient, to maintain them all
Brahmins followed, therefore, all sorts of other occupations; and those
of them not continually busied about the sacrifice were often inclined
to views of life, and of religion, different from the views of those who
were, We find Brahmins ranking tappas, self-torture, above sacrifice
(page 249).
इसका अर्थ यह हैं कि ''किसी दशा में भी पुरोहितों की कोई प्रधान संस्था न
थी। उनके देवताओं के निमित्त कोई स्थायी मन्दिर न थे। ऐसे पवित्र देव
स्थान, जहाँ पर लोग प्राय: जाया करते थे, या तो पवित्र वृक्ष थे या स्थानीय
देव पूजा सम्बन्धी पवित्र पदार्थ जो कि पुरोहितों के अन्धविश्वास और
प्रभावों से बिलकुल अलग थे। पुरोहित लोगों में परस्पर विरुद्ध दलबन्दी थी
और वे लोग दक्षिणा के लिए परस्पर एक-दूसरे से स्पधरा रखते थे। पुरोहितों की
चाह इतनी कम थी कि पुरोहिती से सबकी जीविका न हो सकती थी। इसलिए ब्राह्मण
लोग सभी प्रकार के अन्य व्यवसाय (कृषि, वाणिज्यादि) करते थे। उनमें से जो
निरन्तर ही पुरोहिती न करते थे अर्थात् अन्य उपायों द्वारा जीविका करते थे,
उनके धार्मिक और आध्यात्मिक विचार प्राय: उनलोगों के विचारों से विपरीत थे,
जो पुरोहिती में दिन-रात लगे हुए थे। उस समय ऐसे भी ब्राह्मण पाए जाते थे
जो पूजा-पाठ की अपेक्षा तपस्या को श्रेष्ठ समझते थे।''
इसके बाद ही लिखते हैं कि :
Unable, therefore; to stay the progress of newer ideas, the priests
strove to turn the incoming tide into the channels favourable to their
orders.
अर्थात् ''इन पूर्वोक्त नये विचारों की उन्नति रोकने में असमर्थ हो पुरोहित
लोग इन नये विचारों को अपने समाज के अनुकूल परिवर्तित करने के यत्न
करनेलगे।'' तात्पर्य यह हैं कि जिन किसी प्रकार के अन्य विचार वाले
पुरोहितों के फन्दे में आ फँसे उसी का यत्न करने लगे। पुरोहिती की प्रशंसा
करने तथा अन्य व्यवसाय वाले ब्राह्मण दिवर्णों को हर तरह से नीच बनाने का
यत्न करने लगे, जिससे वे लोग उन्हें मानने और पूजने लगें। यही कारण हैं कि
सम्पूर्ण शास्त्र, पुराण निन्दित पुरोहिती भी आज श्रेष्ठ मानी जा रही हैं
और जो उसका न करने वाला हो वह ब्राह्मण ही नहीं समझा जाता। क्योंकि यही
समझने और समझाने लग गये थे और लग गये हैं कि दान लेना ही ब्राह्मणता का
चिद्द हैं। यद्यपि इस विषय का सूत्रापात पूर्वोक्त लेखानुसार बौद्ध काल में
ही हुआ था, परन्तु आते-आते यवन काल में उसकी पुष्टि हो गयी, जिसका निरूपण
आगे करेंगे।
आनरेब्ल मौंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन साहब ने (Hon Mount Stuart Elphinstone)
भी अपने 'भारतवर्ष का इतिहास' (History of India) नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में
मनु भगवान् के बाद से लेकर आज तक के परिवर्तनों का निरूपण इसी प्रकार ग्रीक
तथा पालि आदि ग्रन्थों के आधार पर किया हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक से 54-55
पृष्ठों में मनु भगवान् के बाद से आज तक जो उलट-फेर हमारे रस्म-रिवाजों में
हो गये हैं, उनका वर्णन करते हुए ब्राह्मणों के विषय में लिखा हैं कि :
The Bramins themselves, although they have preserved their own lineage
undisputed, have, in great measure, departed from the rules and
practices or their predecessors. In some particulars they are more than
formerly, being denied the use of animal food, and restrained from
inter-marriages with the inferior class; but in most respects their
practice is greatly relaxed, The whole of the four-fold division of
their life, with all restraints imposed on students, hermits, and
abstracted devotees, is now laid aside as regards the community; though
individuals at their choice. May still adopt some one of the modes of
life which formerly were to be gone through in turn by all.
Bramins now enter into services, and are to be found in all trades and
professions. The number of them supported by charity, according to the
original system, is quite insignificant in proportion to the whole. It
is common to see them as husbandmen, and, still more, as soldiers; and
even of those trades which were expressly forbidden to them under severe
panalties, they only scruple to exercise the most degraded, and in some
places not even those. In the south of India however, their peculiar
secular occupations are those connected with writing and public
business. From the minister of state down to the village accountant the
greater number of situations of this sort are in their hands, as in all
interpretation of the Hindu Law, a large share of the ministry of
religion, and many employments (such as farmers of the revenue & c.)
where a knowledge of writing and business is required. In the parts of
Hindostan where the Moghal system was fully introduced, the use of the
Persian language has thrown public business into the hands of Mussulmans
and Cayets (a caste of sudras). Even in the Nizam's territorries in the
Deckan the same cause has in some degree diminished the employments of
the Bramins, but still they must be admitted to have every where a more
avowed share in the government then in the time of Menu’scode, when one
Brahmin counsellor, together with the judges, made the whole of their
protion in the direct enjoy ment of power.
It might be expected that this worldly turn of their pursuits would
deprive the Bramins of some part of their religious influence; and
accordingly, it is stated by a very high authority (Prof. wilson,
Asiatic Researches) that (in the provinces on the Ganges, at least) they
are nul as a herearchy, and as literary body few and little
countenarced. Even in the direction of consciences of families and of
individuals they have there been supplanted by Gosayens and other
monastic orders.
Yet even in Bengal they appear still to be the objects of veneration and
of profuse liberality to the laity. The ministry of most temples, and
the conduct of religious ceremonies, must still remain with them; and in
some parts of India no diminution whatever can be perceived in their
spiritual authority. Such is certainly the case in the Maratta country
and would appear, to be so like-wise in the west of Hindostan. The
temporal influence derived from their number, affluence, and rank
subsists in all parts; but even where the Bramins have retained their
religious authority they have lost much of their popularity.
इसका मर्मानुवाद यह हैं कि ''यद्यपि ब्राह्मण अपनी वंश परम्परा पर स्थित
हैं, तथापि अपने पूर्वजों की अपेक्षा उनके आचार-व्यवहारों में बहुत भिन्नता
पाई जाती हैं। मांस न खाने और नीचों के साथ विवाह न करने में अपने पूर्वजों
से बढ़ गये हैं, परन्तु बहुत सी बातों में प्रथम की अपेक्षा उनके
आचार-व्यवहार ढीले हो गये हैं। साधारणत: समाज-भर में चारों आश्रमों और उनके
नियमों का पालन नहीं होता। हाँ, कोई-कोई स्वेच्छानुसार किसी-किसी आश्रम का
अनियमित रूप से पालन करता हैं, जिनका पालन पहले सभी क्रमश: करते थे।
ब्राह्मण लोग अब नौकरी एवं अन्य वाणिज्य, व्यापार करनेवाले पाये जाते हैं।
प्राचीन प्रथा के अनुसार दान द्वारा जीवन व्यतीत करनेवालों की संख्या अब
बहुत कम हो गयी हैं। साधारणत: कृषि और युद्ध विद्या वाले पाये जाते हैं, और
वे लोग उन वस्तुओं का भी विक्रय करते हैं जिनका विक्रय प्रथम निषिद्ध और
दण्डनीय समझा जाता था। कहीं-कहीं वे लोग ऐसा करना घृणित समझते हैं और
कहीं-कहीं नहीं। दक्षिण भारत में उन लोगों के काम लिखना और जनसाधारण के
कार्य हैं। मन्त्री पद से लेकर ग्राम कार्यकर्ता तक के पद बहुधा उन्हीं के
हाथों में रहते हैं और जिनमें लिखने और व्यवहार की निपुणता अपेक्षित हैं
ऐसे कार्य भी। जैसे धर्मशास्त्रों के अनुवाद, धार्मिक प्रबन्ध का अधिकांश
और अन्य बहुत से व्यापार, जैसे मालगुजारी का उगाहना आदि। भारतवर्ष के उन
भागों में जहाँ मुगल राज्य पूर्ण तया स्थापित था, फारसी भाषा के प्रचार ने
जन साधारण का कार्य मुसलमानों और कायस्थों (एक प्रकार के शूद्रों) के हाथों
में डाल दिया हैं। इसी प्रकार निजाम सरकार के राज्य में भी इसी कारण ने
ब्राह्मणों के इन व्यवसायों को घटा दिया हैं। तथापि मनु के समय की अपेक्षा
उनको राज्य प्रबन्ध का अधिक भाग मिला हैं इस बात को मानना पड़ेगा। क्योंकि
उस समय ब्राह्मण मन्त्री न्याय कर्ताओं के सहित राज्य के सब अधिकार अपने
अधीन रखते थे। इससे मालूम पड़ता हैं कि ब्राह्मणों की सांसारिक व्यवहार
सम्बन्धिनी प्रवृत्ति ने उनकी धार्मिक प्रवृत्तियों से उन्हें रहित कर दिया
हैं और इसके अनुसार, जैसा कि एक अत्यन्त माननीय लेखक (प्रोफेसर विलसन) ने
(एशिया सम्बन्धी अन्वेषण नामक ग्रन्थ में) लिखा हैं कि (कम-से-कम गंगा के
निकटवर्ती प्रदेशों में) पुरोहितों के रूप में वे लोग नहीं हैं अर्थात्
पुरोहिती नहीं करते और विद्वान् भी बहुत कम हैं। वंशों और व्यक्तियों को
धार्मिक उपदेश उनकी जगह गोसाईं (साधु) लोग करते हैं। तथापि बंगाल में ये
प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं और गृहस्थ इन्हें दान में बहुत उदार
होते हैं।
नोट-'इससे मालूम पड़ता हैं', तथा विलसन की सम्मति आदि सभी कथन इन त्यागी,
भूमिहारादि ब्राह्मणों को ही विशेष रूप से उद्देश्य करके हैं, क्योंकि
ठीक-ठीक यही स्थिति इस समय इनकी हैं और इससे कुछ दिन प्रथम भी थी।
''बहुत से मन्दिरों तथा धर्म सम्बन्धी कार्यों के अधिकार इन्हीं के हाथ में
अब तक हैं और भारत के बहुत से भागों में इनके धार्मिक अधिकार में कुछ भी
कमी नहीं हैं। यही दशा महाराष्ट्र और भारत के पश्चिमी भाग में भी हैं।
भारतवर्ष के सभी भागों में इनकी संख्या, धन और सामाजिक अवस्था के कारण इनकी
सांसारिक प्रतिष्ठा हैं। परन्तु जहाँ ब्राह्मणों का धार्मिक अधिकार जमा हैं
वहाँ भी लोकप्रियता अधिकांश में चली गयी हैं।''
नोट- ये सब बातें विशेषकर अयाचक ब्राह्मण में ही पाई जाती हैं।
इस पूर्व कथन से स्पष्ट हैं कि मनु भगवान् के बाद से आज तक ब्राह्मणों की
दशा में पृथ्वी-आकाश का-सा अन्तर हो गया हैं, सभी रीतियाँ दूसरी ही हो गयी
हैं और ब्राह्मणों में कृषि, वाणिज्यादि करने वाला एक अयाचक दल प्रबल हो
गया हैं, जो आज भी स्पष्ट ही देखने में आ रहा हैं। किसी दल के अन्तर्गत
हमारे प्रकृत अयाचक दल के ब्राह्मण भी हैं।
इसके बाद विशेष रूप से मेगस्थनीज आदि ग्रीक (यूनानी) लेखकों के ही आधार पर
सन् ईस्वी से 300 पूर्व की दशा का ऐसा ही वर्णन पूर्वोक्त ही पुस्तक के
236- 237वें आदि पृष्ठों में इस प्रकार हैं :
They suppose as has been mentioned, that those who were the kings’
councillors and judges formed a separate class. It is evident, also,
that they classed the Brahmins, who exercised civil and military
functions, with the casts to whom those employents properly belonged.
They appear to have possessed separate villages as early as the time of
Alexander; to have already assumed the military character on occasions;
and to have defended themselves with that fury and desperation which
sometime still characteries Hindus. Their interference in politics,
likewise, is exhibited by their instigating Sambus to fly from Alexander
and Musicanus to break the peace he had concluded with that conqueror.
Strabo mentions a sect called Pramnae, who were remarkable for being
disputious, and who derided the Brahmins for their attention to physics
and astronomy. He considers them as a separate class, but they were
probably Brahmins themselves, only attached to a particular school of
Philosophy.
तात्पर्य यह हैं-''वे (यूनानी लेखक) ऐसा समझते थे, जैसा कि लोगों ने कहा
हैं कि जो राजाओं के मन्त्री और न्यायकर्ता थे, उनकी अलग जाति थी। लेकिन यह
बात भी स्पष्ट हैं कि वे लोग (मन्त्री आदि) उन ब्राह्मणों को जो न्याय और
युद्ध कार्य किया करते थे उन जातियों में सम्मिलित करते थे जिनके वे समुचित
धर्म समझे जाते हैं। अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रियादि युद्ध वगैरह किया करते
थे।
ब्राह्मणों के पास पृथक्-पृथक् ग्राम सिकन्दर के समय से ही थे और समय पर वे
लोग युद्ध करते और उस साहस और वीरता के साथ शत्रुओं से अपनी रक्षा करते थे
जो आज भी कभी-कभी हिन्दुओं की प्रशंसा करवाती हैं। राजनीति में भी उनके हाथ
डालने का पता इसी से चलता हैं कि उन्होंने सम्बुस को सिकन्दर और म्यूजिकेनस
के यहाँ से इसीलिए भाग जाने को दबाया कि जिसमें सिकन्दर के साथ उसकी सन्धि
न हो सके। स्ट्रैबो (यूनानी यात्री) ने एक ऐसे दल का वर्णन किया हैं जो
प्रामणी (प्रामाणिक या नैयायिक) कहलाता और अपने झगड़ालू (वाद-विवादासक्त)
स्वभाव के लिए प्रसिद्ध था, और ज्योतिषी तथा वैद्याकादि शारीरिक विज्ञान
में आसक्त ब्राह्मणों की हँसी उड़ाया करता था। वह (स्ट्रैबो) उनकी अलग जाति
समझता था। परन्तु वे लोग ब्राह्मण ही थे। हाँ, केवल भिन्न दर्शन (न्याय के)
अभ्यासी थे।''
अंग्रेज लेखकों की अब तक दी गयी इतनी सम्मतियों से यही बात निर्विवाद रूप
से सिद्ध हो गयी कि मनु भगवान् के पश्चात् बौद्धकाल से लेकर यवन काल तक
ब्राह्मणों के विचारादि पूर्व से बहुत अंशों में एकदम विपरीत हो गये थे और
उनका धार्मिक, शास्त्रीय तथा सामाजिक बन्धन ढीला हो गया था। इसीलिए एक
प्रकार की स्वतन्त्रता (उच्छृंखलता) पिशाची ने उन्हें ग्रस लिया था। साथ
ही, स्वार्थ और परस्परर् ईष्या तथा राग-द्वेष की मात्रा भी बढ़ती गयी और
पुरोहित दल अपने प्रभाव को सभी दूसरे दल वालों पर जमाने के लिए दान लेने
आदि के ही महत्त्व को स्वर को अलापने लगा और तदनुसार ही दान त्यागियों
(अयाचकों) के दबाये जाने की चेष्टा की जाने लगी, इसको भी दिखला चुके हैं।
इतना ही नहीं, बल्कि उस राग-द्वेष की मात्रा इतनी बढ़ गयी कि याचक (पुरोहित)
दलवाले ब्राह्मण अपने-अपने प्रकर्ष के लिए परस्पर ही एक-दूसरे को इतना
दबाने लगे कि एक-दूसरे को नीच बनाते-बनाते यह भी कहने लगे कि हम ही असल
ब्राह्मण हैं। दूसरों का तो कुछ पता ही नहीं हैं, वे लोग तो बनावटी हैं
इत्यादि। यह बात आज तक भी याचक ब्राह्मणों में सभी जगह घूमकर आँखों देखी और
कानों सुनी हैं।
यदि यह बात न होती तो आज सवा लक्खी (125000) बनाये हुए ब्राह्मणों की
किंवदन्ती क्यों मैथिल, कान्यकुब्ज, दाक्षिणात्य और सर्यूपारीणादि सभी
ब्राह्मणों में पाई जाती? क्या सभी जगह वस्तुत: ऐसी ही अन्धेर थी, यह
सम्भावना भी हो सकती हैं? सभी ब्राह्मणों के विषय में ऐसी किंवदन्तियाँ
देखने या सुनने की जिन्हें इच्छा हो वे अंग्रेजों के लिखे हुए सभी देश के
ब्राह्मणों के इतिहासों को पढ़ ले। क्योंकि वे लोग इस देश के हैं नहीं, कि
अपने आप भी बना लेंगे, किन्तु लोगों से जैसा सुना वैसा ही लिख दिया और उसी
आधार अपने इस सिद्धान्त को पुष्ट करने लगे कि हिन्दुओं में भी प्रथम जाति
विभाग न था इत्यादि। क्या ही आश्चर्य हैं कि जरासन्धा वाली जो किंवदन्ती
आजकल इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के विषय में रची गयी हैं और जिसका
विशेष रूप से खण्डन द्वितीय परिच्छेद में करेंगे, वही राजा सेवई सिंह के
नाम पर मैथिलों में शालिवाहन या किसी अन्य के नाम पर सर्यूपारियों में
आदि-आदि, सर्वत्रा ही अविकल रूप से प्रचलित हैं! क्या यह याचक ब्राह्मणों
के पूर्वोक्त प्रचण्ड राग-द्वेष और ईष्या को पुष्ट नहीं कर रही हैं? इससे
आज 10 या 20 वर्षों से इन अयाचक (भूमिहारादि) ब्राह्मणों के इतर ब्राह्मणों
द्वारा बे तरह दबाये जाने का कारण पाठक अवश्य ही समझ गये होंगे।
क्या कारण हैं कि 20 या 25 वर्षों से पूर्व प्राय: जिन अंग्रेजों ने जातीय
इतिहास या मनुष्य गणना की रिपोर्ट लिखी हैं, उन्होंने इन त्यागी, पश्चिम,
भूमिहारादि ब्राह्मणों को साफ-साफ कान्यकुब्जों, मैथिलों, गौड़ों या अन्य
प्रतिष्ठित ब्राह्मणों की ही श्रेणी में रखा हैं, जैसा कि आगे विदित होगा,
और इसके विषय में ईधर प्रचलित किंवदन्तियों का नाम भी न लिया हैं, चाहे
अन्य ब्राह्मणों के विषय में कहीं-कहीं पर कुछ ऐसी किंवदन्तियाँ आ भी गयी
हैं? परन्तु जिस तिथि को भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण सभा का जन्म हुआ उसी
दिन से हवा ही पलट गयी, किंवदन्तियों की झड़ी लग गयी और कहीं-कहीं ईधर के
विदेशी एवं स्वदेशी लेखकों की लेखनी भी विपरीत दिशा में चलने लगी और याचक
(पुरोहित) ब्राह्मणों द्वारा बहुत-सी मिथ्या उपन्यास सदृश पुस्तकेंइनके
विपरीत धड़ाधड़ लिखी जाने और प्रकाशित होने लगीं। जैसी पुस्तकों के 20 वर्ष
पूर्व नाम भी न थे। क्या यह वही बात नहीं हैं जैसा कि पूर्व में
'रियसडेविड्स' (Rhys-Davids) के लेखों से दिखला चुके हैं कि पुरोहित लोग इन
नये विचारों को पसन्द न कर उन सबों को अपने अनुकूल बनाने के लिए बहुत से
यत्न और कल्पनाएँ करने लगे?
अस्तु, इस प्रकार जब शास्त्राभ्यास लुप्तप्राय होकर स्वच्छन्दता और कृषि,
वाणिज्य एवं राज्य तथा भूमि प्रियता ब्राह्मणों में बे तरह बढ़ गयी और
प्रतिग्रहादि की प्रशंसा और उसी के ब्राह्मणता के चिद्द होने की तान
कहीं-कहीं सुनाने लगी, तो जैसा कि भूमिका में ही कह चुके हैं कि जो अयाचक
ब्राह्मण बड़े-बड़े जमींदार और राजे-महाराजे थे, बहुत दिनों बाद उनकी क्रमश:
यह धारण होने लगी कि प्रतिग्रह विशेष रूप से ब्राह्मणता का चिद्द हैं। अत:
प्रतिग्राही ही माननीय ब्राह्मण हैं। हम लोग भी यद्यपि ब्राह्मण ही हैं,
तथापि ब्राह्मणानुचित कर्म राज्य एवं कृष्यादि करने से हमारी स्थिति वैसी
नहीं रह गयी। अत: हम में पूज्यता भी नहीं रह गयी। इस भ्रम में उनका बड़ा
भारी सहकारी शास्त्रों का अज्ञान था जिससे वे स्वयं पवित्र एवं पूज्य
ब्राह्मण शब्द के शुद्ध अर्थ को समझ नहीं सकते थे, किन्तु जो कोई उन्हें
जैसा समझा देता था वैसा ही समझ लेते थे। विशेषकर गुरु तथा पुरोहितों के
वचनों पर उनका पूर्ण विश्वास था और लोग अपने अर्थ की सिद्धि के लिए ऐसा
करते थे। यहाँ तक कि उनके दिन-रात के इस आन्दोलन से प्रकृति में भी यही भाव
भर रहा था, क्योंकि वे लोग ही उपदेष्टा थे।
यद्यपि पुरोहित लोग भी शास्त्राभ्यासी न होने के कारण और स्वार्थवश ही ऐसा
करते थे। तथापि उनमें अपनी पवित्र (पूज्य) ब्राह्मणता के अभिमान के बने
रहने में एक तो उनकी वही धारण कारण थी और दूसरे पुरोहिती के कारण कुछ-न-कुछ
शास्त्रों का सम्पर्क उनके साथ रह गया था अत: उनका वह अभिमान बना रह गया।
परन्तु जो उनके दल से बाहर अयाचक ब्राह्मण थे, उनको अपनी पूज्य ब्राह्मणता
का अभिमान निरवलम्बन होने से क्रमश: जाता रहा। इसी प्रकार होते-होते यवन
(मुसलमान) राज्य काल आ गया, और शास्त्रों का कौन कहे संस्कृत विद्या का भी
अभाव-सा हो गया। प्रत्युत उसकी विरोधिनी फारसी भाषा का साम्राज्य होने लगा।
जिससे राजकार्य में विशेष सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण विशेष रूप से फारसी
के प्रेमी हो गये, जो बात आज तक भी विशेषत: इन अयाचक दल वाले ब्राह्मणों और
पश्चिम भारत के भी प्राय: सभी ब्राह्मणों में पाई जाती हैं। क्योंकि वे लोग
भी बड़े-बड़े जमींदार होने से यवनों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखते थे। इसीलिए उनमें
और इनमें भी यवनों के बहुत से धर्म आ गये। जैसा कि फारसी का पढ़ना, तम्बाकू
पीना और प्रणाम, नमस्कार की जगह सलाम करना इत्यादि। क्योंकि 'राजा
नमनरुवत्तान्ते यथा राजा तथा प्रजा', संसर्गजादोषगुणा भवन्ति', अर्थात्
प्रजा राजा की अनुसारिणी होती हैं और जिसका विशेष संग किया जाये, उसके गुण
और दोष अपने में आ जाया करते हैं', इस नियम को सभी लोग मानते हैं। इसलिए आज
जिन मिथिलादि देशों में पूर्ववत् संस्कृत के ही विद्वान् होने चाहिए, वहाँ
आज जिस ओर देखिये अंग्रेजी का ही साम्राज्य हैं। इस बात को भूमिका में ही
विस्पष्ट रूप से दिखला चुके हैं और यह भी वहीं लिख चुके हैं कि प्राय: इस
देश के पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों में फारसी का विशेष रूप से प्रचार न होकर
क्यों कहीं-कहीं संस्कृत का प्रचार रह गया। क्योंकि जैसा कि आजकल जो ही
अंग्रेजी पढ़े उसी की अंग्रेजी राज्य में प्रतिष्ठा होती हैं, इसलिए सभी
अंग्रेजी पढ़ते हैं, वैसी बात प्रथम न थी। किन्तु जो लोग बड़े-बड़े जमींदार और
राजे-महाराजे थे, उन्हीं की प्रतिष्ठा फारसी पढ़कर भी होती थी। इसीलिए लाचार
होकर और अपनी पुरोहिती को स्थित रखने के लिए भी पुरोहित ब्राह्मण संस्कृत
में ही थोड़ा-बहुत लगे रहते थे।
इस प्रकार जब प्रथम ही अयाचक भूमिपति ब्राह्मण राजाओं, महाराजाओं के प्रसंग
वंश पूछने पर कि ''हम लोग कैसे ब्राह्मण कहे जा सकते हैं? गुरु या पुरोहित
यह कह दिया करते थे कि धर्मावतार! आप तो ब्राह्मण क्या राजा बाबू हैं और हम
लोग भिक्षु हैं। तो इसे सुन वे लोग फूलकर कुप्पा हो जाया करते थे। जब यवन
राज्यकाल में पूर्वोक्त दशा हो गयी तो प्रसंगवश बहुधा उन्हीं गुरुओं तथा
पुरोहितों के बार-बार कहने, अपनी स्थिति के भी वैसी ही होने और फारसी के
प्रचार से भी जिन ब्राह्मणों में प्रथम अयाचक शब्द का प्रयोग होता था और
पीछे भूमिपति या भूम्यधिकारी ब्राह्मण शब्द का। अब उन्हीं के लिए जमींदार
ब्राह्मण शब्द का प्रयोग होने लगा। जो आज तक प्रयागादि प्रान्तों में इन
अयाचक दल वाले ब्राह्मणों और अन्य मैथिल तथा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों में
भी कहीं-कहीं पाया जाता हैं, जैसा कि भूमिका में दिखला चुके हैं। इसके थोड़े
ही दिन बाद जब शास्त्रानभिज्ञता पिशाची जमींदार ब्राह्मणों पर और सवार हो
गयी और उनकी यह धारणा होने लगी कि प्रतिग्रह लेने और पुरोहिती करनेवालों को
ही ब्राह्मण कहते हैं, जैसा कि जमींदार ब्राह्मणों से अन्य ब्राह्मणों में
सभी जगह वे देखते थे, तो निश्चय कर लिया कि ब्राह्मण जाति तो भिक्षु हुआ
करती हैं। परन्तु हम लोग तो धनाढय और जमींदार हैं। क्या हम लोग दूसरों के
घर दान लेने जाते हैं कि अपने को ब्राह्मण कहें? इसलिए हम लोग जमींदार हैं!
बस इसी समय से केवल जमींदार शब्द का प्रयोग अयाचक ब्राह्मणों में होने लगा।
जो आज तक इन अयाचक दल वाले ब्राह्मणों में बहुत जगह केवल स्वतन्त्र रूप से
और बहुत जगह भूमिहार, बाभन, पश्चिम, ब्राह्मण, बाम्हन, तगा या त्यागी
शब्दों के साथ प्रचलित हैं। इसलिए लोग कभी उसका और अन्य शब्दों का भी
कभी-कभी प्रयोग किया करते हैं।
इसी जगह यह बात भी स्मरण रखने योग्य हैं कि यद्यपि अयाचक ब्राह्मणों की
संज्ञा प्रभृति में बहुत-सा उलट-फेर हो गया, तथापि साक्षात् या परम्परा से
अयाचक और याचक ब्राह्मणों के विवाह सम्बन्ध और खान-पान आदि बहुत जगह मिले
हुए थे। हाँ, कहीं-कहीं ढीले पड़ रहे थे। परन्तु एकदम छूट न गये थे और न आज
तक छूट गये ही हैं। इसीलिए पश्चिम के अम्बाला, प्रयागादि प्रान्तों और
पूर्व के मिथिला प्रान्त में अब तक बहुत जगह खान-पान तथा विवाह-सम्बन्ध
परस्पर प्रचलित हैं, जैसा कि आगे मालूम होगा। इन सब व्यवहारों के बने रहने
में कारण यह था कि यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के एक पृथक् दल के
बनने का सूत्रापात अभी हो रहा था-सभी ब्राह्मणों में से, चाहे वे गौड़
देशीय, पंजाबी, कान्यकुब्ज देशीय, अथवा मिथिला देशीय हो, जो अयाचक थे और
जिनके पास बड़ी-बड़ी भूसम्पत्ति या प्रतिष्ठा थी, उनका एक पृथक् दल भविष्य
में बन जायेगा ऐसे चिद्द प्रतीत हो रहे थे-तथापि ऐसे सभी अयाचक ब्राह्मणों
को ब्राह्मण शब्द से घृणा नहीं हो रही थी और न आज तक हुई ही हैं। किन्तु
जहाँ प्रचण्ड अविद्या या राज्य एवं भूमि मद था वहीं पर कहीं-कहीं इसके
लक्षण दिखलाई देते थे। जैसा कि काशी के आसपास के 5, 7 या 10 जिलों में अब
तक प्राय: पाया जाता हैं। परन्तु इससे पूर्व और पश्चिम दोनों तरफ बराबर
अयाचक, जमींदार, त्यागी, महियाल, भूमिहार या पश्चिम शब्द के साथ अथवा केवल
ही ब्राह्मण या बाभन शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। क्योंकि मिथिला
(तिरहुत) में पश्चिम ब्राह्मण, प्रयागादि में जमींदार ब्राह्मण, मगध में
केवल ब्राह्मण या बाभन, मेरठ प्रभृती में त्यागी और झेलम आदि जिलों में
महियाल शब्द अब तक पाया जाता हैं, जो इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के लिए
आता हैं।
इन प्रान्तों में ब्राह्मण शब्द से घृणा न होने, या उसके प्रयोग बने रहने
में बड़े भारी सहकारी वही पुरोहित दलवाले ब्राह्मणों के साथ साक्षात् या
परम्परा या विवाह-सम्बन्ध और खान-पान समझे जाने चाहिए और अन्य किसी भी याचक
ब्राह्मण या दूसरी जातियों के विषय में आजकल ऐसी शंका न होकर कहीं-कहीं इस
अयाचक नामधारी ब्राह्मण जाति के विषय में जो यह उत्तम, मध्यमादि की शंका
उत्पन्न होने लग गयी हैं, उसमें भी यही कारण हैं कि बहुत जगह इस समाज के
लोगों ने अपने को ब्राह्मण कहने से घृणा कर उस शब्द का प्रयोग उठा दिया
हैं। परन्तु फिर भी साक्षात् या परम्परा या अन्य ब्राह्मणों के साथ विवाह
आदि पाये जाते हैं और साथ ही लोगों की यह भी मिथ्या धारणा हो गयी हैं कि
दान लेनेवाले को ही ब्राह्मण कहते हैं और कृष्यादि ब्राह्मणों के धर्म नहीं
हैं। यदि हैं भी तो दान के साथ ही इत्यादि। ये ही दोनों प्रकार की बातें
आजकल की समस्त कुशंकाओं और कुकल्पनाओं की जड़े हैं। ऐसी बात किसी भी समाज
में नहीं पाई जाती कि उसमें जिस जाति का शब्द कहीं न हो उसके साथ भी
खान-पान और विवाह-सम्बन्ध हो और यदि ऐसी बात कहीं हैं, तो उसके विषय में
शंका भी अवश्य हैं या होगी।
कहीं-कहीं केवल जमींदार, भूमिहार, त्यागी (तगा), महियाल या बाभन अथवा
ब्राह्मणादि शब्दों के प्रयोग करने का एक यह भी कारण समझ लेना चाहिए कि
'नामैकदेशेन नामग्रहणम्' अर्थात् ''सम्पूर्ण यौगिक नाम की जगह उसी अर्थ में
उसके एक अंश का प्रयोग भी होता हैं'', ऐसा व्याकरण महाभाष्य में बहुत जगह
लिखा हैं। जिसका दृष्टान्त यह हैं कि 'भीमसेन' की जगह 'भीम', भीष्मपितामह
की जगह 'भीष्म', सत्यभामा की जगह 'सत्या' अथवा 'भामा', रामचरित्रा की जगह
'चरित्रा' इत्यादि। परन्तु इससे कोई यह नहीं का सकता कि भीम का नाम वास्तव
में भीमसेन नहीं हैं, या चरित्रा का रामचरित्रा। इसी बात को महर्षि
कात्यायन ने व्याकरण वाक्तविक में कहा हैं कि 'विनापि प्रत्यय
पूर्वोत्तारयो: पदयोर्लोपो वक्तव्य:'। अर्थात् यौगिक नामों के पूर्व अवस्था
उत्तर भागों का यों ही लोप होकर केवल एक भाग का भी प्रयोग हुआ करता हैं।
इन्हीं सब रीतियों के अनुसार भी लोगों ने कहीं केवल त्यागी (तगा) या
भूमिहार और कहीं केवल बाभन या ब्राह्मण शब्द का प्रयोग करना प्रारम्भ कर
दिया, परन्तु उनके व्यवहार पूर्ववत् ही रह गये।
जब कुछ दिन बाद लोग भ्रमवश ऐसा समझने लगे कि वास्तव में नाम उतने ही बड़े
हैं, तो भूमिहार या त्यागी ब्राह्मण महासभा, या अन्य उपदेशकों ने उन्हें
सिर्फ चिंता-भर दिया। परन्तु उनकी इस अज्ञान निद्रा के खुलने और नूतन
दृष्टि के फिर हो जाने से स्वार्थान्धा और अकारण विद्वेषी रूप चोरों के
लूटने में बाधा उपस्थित होने की सम्भावना होने लगी, कि ऐसा न हो कि कभी
गुरु आई और पुरोहिती से भी हाथ धोना पड़ जाये। क्योंकि उनकी दशा तो ठीक ऐसी
ही हैं, जैसा कि तुलसीदासजी ने कहा हैं कि :
सूख हाड़ ले भाग शठ, श्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेई जिमि जानि जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज॥
और यदि ऐसा कदाचित् हो गया तो हमारी अथवा हमारे वंशजों की बड़ी भारी आमदनी
मारी जायेगी। इसलिए 'अग्रशोची सदा सुखी' इस नियम के अनुसार वे लोग, जैसा कि
बौद्ध काल में 'रियसडेविड्स' के वचन दिखला चुके हैं, आजकल भी इनके विषय में
धड़ाधड़ कल्पित पुस्तकें रचने और प्रकाशित करने लगे और अपनी या अपने अयोग्य
पुरोहित भाइयों की सेवा ही इन लोगों का मुख्य कर्त्तव्य बतलाने लगे। परन्तु
दुर्बुद्धिवश यह नहीं विचार सके, विचार सकते या विचारते, कि जो समाज अनुचित
रीति से बहुत दबाया जाता हैं वह अन्त में उतना ही शीघ्र नल के जल की तरह
ऊँचा उठ खड़ा होता हैं जितना ही दबाया गया हैं और उस दबाव को कुछ नहीं
समझता। और यह भी नहीं विचारते कि इन लोगों ने जब प्रथम से ही इस
प्रतिग्रहादि को तुच्छ और गर्वित समझ उसे त्याग कर स्वात्मावलम्बन किया हैं
तो उस तुच्छ कार्य में क्योंकर प्रवृत्त हो सकते हैं? परन्तु यदि ऐसी ही
दुर्बुद्धि और ऐसा ही दुराग्रह रहा और बारम्बार इतने पर भी यही रटना बना
रहा कि बिना पुरोहिती करवाने के ब्राह्मण कहलाता ही नहीं, तो वह दिन दूर न
होगा जब कि इन दान त्यागी, पश्चिम, जमींदार, भूमिहार, महियाल ब्राह्मणों को
भी हारकर यज्ञादि करवा लेना ही पड़ेगा। क्योंकि अयाचकता और याचकता किसी
विप्र समाज या जाति का धर्म न होकर व्यक्ति का धर्म हैं। जो आज अयाचक हैं
कल वह चाहे तो याचक हो सकता हैं और याचक अयाचक। यद्यपि इस समय याचक और
अयाचक दल हो गये हैं। पर, शास्त्र दृष्टि से ऐसा दल हो नहीं सकता। नहीं तो
फिर अयाचक ब्राह्मण दल और क्षत्रियादि में भेद ही क्या रह जायेगा? इसके
सिवाय श्री तुलसीदासजी की उक्ति हैं कि :
यद्यपि जगत दुसह दुख नाना।
सब से कठिन जाति अपमाना॥
इसलिए यद्यपि ये लोग भरसक प्रतिग्रह तो न लेंगे, किन्तु उस द्रव्य को
विद्यालय और धर्मशाला इत्यादि में लगवा देंगे, तथापि इनमें बहुतेरे
विद्वान् लोग यज्ञ करवाकर दक्षिणा ले लेंगे, क्योंकि वह तो एक प्रकार की
मजदूरी (वेतन) हैं। जैसाकि प्रथम दिखला चुके हैं और अन्यत्रा भी तन्त्ररत्न
नामक मीमांसा ग्रन्थ में श्रीपार्थसारथि मिश्रजी ने मीमांसा दर्शन के
दशमध्याय के तृतीय पाद में लिखा हैं कि :
दक्षिणाशब्दो यं यद्भृतित्वेन दीयते तस्यैव वक्ता।
अर्थात् ''दक्षिणा शब्द यज्ञ कराने के बदले जो भूति (वेतन या मजदूरी) दी
जाती हैं केवल उसी का वाचक हैं।'' और शास्त्रोक्त मजदूरी लेने में
समयानुसार कोई भी हानि नहीं हैं, क्योंकि आजकल सभी लोगों ने पैसे पर काम कर
देना परम धर्म मान रखा हैं। प्रत्युत ऐसा करने से ही जाति रक्षा हो सकेगी,
संस्कृत का प्रचार होगा, और बहुत सी त्रुटियों और कठिनाइयों से बच जाना
होगा, जिनका अनुभव प्रतिदिन विचारशील गृहस्थ किया करते हैं। इसलिए अब मेरी
यही प्रार्थना हैं कि चाहे याचक (पुरोहित) अथवा अयाचक दलवाले ब्राह्मण
दोनों में से कोई भी हो उसे अब सँभाल और विचार कर काम करना चाहिए, जिसमें
भविष्य में पश्चात्ताप करना न पड़े।
अस्तु, यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य हैं कि जिस समय का विचार हम अभी कर
रहे हैं, वह ऐसा था कि जब केवल ब्राह्मण, क्षत्रियादि संज्ञाओं के सिवाय
ब्राह्मणों की जो अवान्तर (बीच की) संज्ञाएँ हैं, जैसे कान्यकुब्ज, गौड़,
अवस्थी, वाजपेयी, राय, सिंह आदि एवं क्षत्रियादि की राठौर, चौहान प्रभृति,
उनका या तो अभी तक प्राय: प्रचार ही नहीं हुआ था, या यदि किसी-किसी का हुआ,
या हो रहा था, तो भी लोगों का उस तरफ विशेष ध्यान न था। यद्यपि प्राचीन
ग्रन्थों या लोगों में केवल 'भट्ट' या 'मिश्र' पदवी पाई जाती हैं, जैसे
भट्टपाद, मण्डनमिश्र, वाचस्पति मिश्र, तथापि ये विशेषण उन लोगों की
प्रगल्भता या प्रतिष्ठा के सूचक हैं। जैसे कि गोमतल्लिकादि शब्दों में
'मतल्लिका' विशेषण प्रभृति और जैसे कि पितृचरण, पितृपादादि में पाद या चरण
शब्द। इसीलिए वाक्तविककार कुमारिल स्वामी वगैरह को कभी-कभी ग्रन्थकार लोग,
वाक्तविककार मिश्र, ऐसा लिखा करते हैं, जैसे 'यथाहुर्वार्त्तिककार मिश्रा:'
अथवा 'वाक्तविककारपादा:'। इसी प्रकार मण्डनमिश्रादि का भी 'मिश्र' विशेषण
हैं। इसलिए दो-एक को छोड़ अन्यत्रा ये मिलते ही नहीं। अत: ऐसे अर्थ में भी
मिश्रादि शब्द उस समय विशेष प्रचलित न थे।
क्योंकि अभी तक प्रत्येक वर्णों में न तो इतने छोटे-छोटे और परस्पर विलक्षण
दल ही बन गये थे, जैसे कि आजकल पाये जाते हैं और न संज्ञाओं तथा पदवियों की
इतनी गिनती या प्रतिष्ठा ही थी, जैसी कि आजकल या इससे कुछ पूर्व थी। उस समय
तो सभी ब्राह्मणों का व्यवहार परस्पर मिला हुआ था एवं क्षत्रियादि का भी।
इसीलिए यद्यपि इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की जमींदारादि संज्ञाएँ प्रचलित
भी हुईं तथापि उनका इतना प्रबल प्रचार उस समय न हुआ, जितना आज हैं क्योंकि
अभी तक चाहे जो कुछ परिवर्तन हुआ था, परन्तु ये लोग हर प्रकार से सभी
ब्राह्मणों में मिले भी थे। लेकिन उसके बाद ही एक ऐसा समय आया जिसको लगभग
6, 7 या 8 सौ वर्षों से अधिक न हुए होंगे, जबकि विशेषकर ब्राह्मणों में
अथवा अन्य सभी जातियों में भी बहुत अवान्तर (छोटे-छोटे) दल तैयार हो गये,
या होने लग गये, जिनका परस्पर खान-पान आदि व्यवहार भी ढीला होने लगा और
जिनमें बहुत सी उपाधियाँ (पदवियाँ) नयी-नयी चल पड़ीं, जिनका प्रथम नाम भी न
सुना गया। उन छोटे-छोटे दलों के अलग-अलग नाम भी पड़ने लगे या पड़ गये। अथवा
जो पूर्व के भी नाम थे, या पदवियाँ थीं उन सभी का प्रबल प्रचार हो उठा,
क्योंकि समय सब की प्रतिष्ठा कभी-न-कभी करा ही देता हैं। आचार-विचारों में
बहुत से भेद पड़ गये। आज जो कहीं था, वही कल कहीं अन्यत्रा जा बसा। जिससे
बहुत दिनों बाद उसके इतिहास का भी पता लगाना कठिन हो गया। धार्मिक उपद्रव
बहुत उठने लगे, जिससे व्यवहारों में अधिक कट्टरता दिखलाने की आवश्यकता पड़ी
और धर्म रक्षार्थ ब्राह्मणादि समाजों के छोटे-छोटे दल बनाने ही पड़े।
क्योंकि बड़े की सर्वात्मना रक्षा का होना असम्भव हो जाता हैं। 'जिसकी लाठी
उसकी भैंस' वाली कहानी की आलाप प्रकृति में गूँज रही थी। साथ ही, प्राचीन
आध्यात्मिक विचार और धर्म की वास्तव कट्टरता ढीली हो रही थी, क्योंकि
शास्त्राभ्यास बिलकुल छूट रहा था। इसलिए ब्राह्मणादि सभी वर्णों को
जमींदारी, प्रतिष्ठा, आधिपत्य और मार-काट की विशेष सूझी और उन सब बातों ने
उनके रूप, स्थिति और अभिमान में एक विशेष परिवर्तन कर दिया।
इस सब कथन का तात्पर्य यह हैं कि जब यवनों (मुसलमान) का राज्य कुछ दिन बीत
गया और उनकी जड़ यहाँ अच्छी तरह जम गयी, या जमने लगी, तो उन्होंने दूर तक
अपने राज्य के विस्तार तथा प्रबन्ध के लिए बड़े-बड़े वीरों और प्रबन्ध कुशलों
एवं रईसों का सम्मान तथा अपनी सेना में और राज्यान्तर्गत विविध पदों का
स्थापित करना और साथ ही, उत्साहित एवं अपनी ओर आकर्षित करने के लिए सिंह,
खाँ, राय, चौधुरी, दीवान और बाबू इत्यादि पदवियों का प्रदान करना प्रारम्भ
कर दिया। जिससे उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और उन्हें देख उनके लिए दूसरे
योग्य लोग भी लालायित हो यत्न करने और प्राप्त करने लगे।
बस अब क्या था, जितने वीर लोग थे, चाहे ब्राह्मण हों या क्षत्रियादि, उनकी
सिंह और खाँ इत्यादि पदवियाँ होने लगीं, जो आजकल प्राय: सभी ब्राह्मणों में
पाई जाती हैं, और जिनको आगे चलकर दिखलायेंगे। और वे लोग उसी में अपने को
कृत-कृत्य मानने लगे। बल्कि जिसको वे उस समय न मिलीं वह अपने को महा अभागी
समझता था। इसी प्रकार जो लोग रईस या प्रबन्धकर्त्ता वगैरह थे उन्हें राय,
चौधुरी और शाह इत्यादि पदवियाँ मिलीं और इसी नूतन पदवी रूप भादों के महाजल
प्रवाह में प्राचीन शर्मा, वर्मा तथा ऋषि प्रभृति पदवी रूप कितने ही
ग्रामादि बहुत जगह से साफ ही हो गये, जिनका आज तक पता ही न लगा। ईधर जब
नवीन पदवियों की प्रतिष्ठा राजदरबारों में होने लगी तो,
'राजानमनरुवत्तान्ते यथा राजा तथा प्रजा' इस पूर्वोक्त नियमानुसार विशेषकर
ब्राह्मणादि रूप प्रजाओं में भी नयी पदवियों की धुन समा गयी। क्योंकि उस
समय की प्रकृति में यही भाव गूँज रहा था, जिससे लोगों को विवश होना पड़ा। बस
जैसे उधर कामों के करने से ही राय, सिंहादि उपाधियाँ मिलती थीं और प्राचीन
काल में भी-
उपनीय तु य: शिष्यं वेदमधयापयेद् द्विज:।
सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥ 140॥
एकादेशं तु वेदस्य वेदांगान्यपि वा पुन:।
योध्यापयति वृत्तयर्थमुपाध्याय: स उच्यते॥ 141॥
निषेकादीनि कर्माणि य: करोति यथाविधि।
संभावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥ 142॥ मनु. अ. 2॥
अर्थात् ''जो ब्राह्मण शिष्य का उपनयन संस्कार करके उसे यज्ञविद्या और
उपनिषदों के सहित वेदों को पढ़ाता हैं उसे आचार्य कहते हैं। जो अपनी जीविका
के लिए शिष्य को वेदों का केवल मन्त्र या ब्राह्मण भाग ही, अथवा व्याकरणादि
अंगों को ही पढ़ाता हैं, उसे उपाध्याय कहते हैं। जो ब्राह्मणरूप पिता पुत्र
का गर्भाधानादि संस्कार करता और उत्पन्न होने पर उसे अन्न वस्त्रादि द्वारा
पालता हैं, उसको ही गुरु कहते हैं, न कि कान फूँकने वाले व×चक को भी'',
इत्यादि व्यवहार था। जिससे काम करने से ही आचार्य, गुरु प्रभृति संज्ञाएँ
हुआ करती थीं। वैसे ही जो अच्छा विवेकी हुआ उसे पाण्डेय1 कहने लगे, चारों
वेदों के ज्ञाता को चतुर्वेदी, तीन के ज्ञाता को त्रिवेदी और दो के जानने
से और पढ़ाने एवं पढ़ने से द्विवेदी एवं थोड़ा-थोड़ा सभी में से जानने और
पढ़ानेवाले को मिश्र, वाजपेय यज्ञ करनेवाले को वाजपेयी, अग्निष्टोमादि करने
वाले को आवसथ्यी, जो बिगड़कर अवस्थी हो गया। क्योंकि अग्निष्टोम के पाँचवें
(अन्तिम) दिन का नाम आवसथ्य दिन हैं। इसी प्रकार जो अन्य छोटे-मोटे यज्ञ
करता था उसे दीक्षित कहते थे। क्योंकि यज्ञारम्भ से प्रथम दीक्षा रूप
संस्कार हुआ करता हैं। जैसा कि 'ब्रह्मा यजमानंदीक्षयति' इत्यादि अर्थात्
'ब्रह्मा नामक ऋत्विक् यजमान की दीक्षा करता हैं', इत्यादि श्रुतियों में
आता हैं और उस संस्कार के बाद ही 'दीक्षणीया' नामक यज्ञ करता हैं। इसलिए
क्षत्रिय भी कहीं-कहीं दीक्षित कहलाते हैं। क्योंकि उनको राजसूय यज्ञ का
अधिकार हैं, इससे उसके करवाने में उनकी
भी दीक्षा होने से वे भी दीक्षित कहलाने लगे, इत्यादि। कुछ दिन में यही
नवीन
उपाधियाँ बिगड़ते-बिगड़ते पाण्डे, चौबे, दूबे इत्यादि कहलाने लगीं, जैसे
ब्राह्मण शब्द
1. क्योंकि पण्डा सदसद्विवेक करने वाली बुद्धि को कहते हैं।
भ्रष्ट होकर बाभन या ब्राह्मन और वाराणसी शब्द बनारस हो गया।
इसीलिए इस बात के कहने वाले नितान्त भूले हुए हैं कि शब्द में विकार होने
से उसके अर्थ में (जाति में) भी विकार हो जाता हैं। जैसा कि मिस्टर बीम्स
वगैरह ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थों में कहीं-कहीं भूमिहार ब्राह्मणों के
प्रसंग में लिखने का साहस किया हैं। क्योंकि ऐसा मानने से सभी तिवारी,
चौबे, राजपूत, बनिया और कायस्थादि की जातियों में फर्क मानना पड़ जायेगा।
कारण ये कि सभी शब्द बिगड़ रहे हैं और ब्राह्मण शब्द की जगह प्राय: सभी लोग,
कुछ पठित व्यक्तियों को छोड़कर, सर्वत्रा ही बाभन या बाम्हन शब्द का प्रयोग
करते हैं। इसलिए यहीं मानना होगा कि धीरे-धीरे काल पाकर शब्द विशेष रूप से
अपने आप ही बदलते जाते हैं।
अस्तु, ये पूर्वोक्त पाण्डे, तिवारी आदि पदवियाँ नवीन ही हैं। अतएव
स्मृतियों और पुराणों में ब्राह्मण, क्षत्रियादि के लिए शर्मा और वर्मा आदि
शब्द ही आये हैं और पूर्वोक्त आचार्यादि शब्द। पुराणों के पश्चात् के
ग्रन्थों में भी ये पाण्डे आदि शब्द नहीं मिलते। यहाँ तक कि बंगदेशीय
ब्राह्मणों के इतिहास में भी जब उस समय के बनाये हुए 'कुलदीपिकादि'
ग्रन्थों में 999 शकाब्द में अर्थात् लगभग आज से 838 वर्ष पूर्व कान्यकुब्ज
देश से पाँच ब्राह्मणों के बंगाल (गौड़देश) में आने का हाल लिखा हैं, तो
केवल भट्ट नारायण प्रभृति उनका नाम ही लिखा हैं। पाण्डेय, तिवारी इत्यादि
उपाधियों का नाम नहीं हैं। हाँ, इतना पता अवश्य हैं कि बंगदेश में आने पर
उनके
घोष, गांगुली इत्यादि पुत्र हुए और प्रत्येक को जो ग्राम महाराज आदि शूर की
ओर से मिले उनके भी वही नाम थे, जिसके पीछे उन ग्रामों में रहने वाली उनकी
सन्तान घोष, गांगुली, बागछी इत्यादि उपाधियों से भूषित हुई। अत: बंगदेशीय
ब्राह्मणों की पदवियाँ भी गांगुली, बागछी वगैरह नूतन और उसी समय की हैं
जिसका हम वर्णन कर रहे हैं उन्हीं वंगीय ब्राह्मणों के इतिहास से यह विदित
होता हैं कि उस समय सभी ब्राह्मण वगैरह अस्त्र, शस्त्रादि धारी हो रहे थे।
क्योंकि आदि शूर महाराज के यज्ञ के लिए कान्यकुब्ज देश से जब महाराज
वीरसिंह ने अपने समय 5 गोत्रों के 5 ब्राह्मण भेजे, तो उस यज्ञ कराने वालों
के वेष का वर्णन 'देवी वरघटक कृत कारिका' में ऐसा हैं कि :
वेदशास्त्रोष्ववगतान्, सर्वास्त्रो च विशारदान्।
गोयानारोहितान्विप्रान् खचर्मादिभिर्युतान्॥
अर्थात् ''वे लोग सब वेदशास्त्रों में और सभी अस्त्र, शस्त्र में भी निपुण,
तलवार और ढाल आदि से सजे हुए और बैलों की गाड़ी पर सवार थे'' इत्यादि। भला
जहाँ यज्ञ करवाने वालों की दशा हैं, वहाँ उनसे अन्यों का क्या कहना हैं?
अस्तु, इससे निर्विवाद सिद्ध हैं कि ब्राह्मणों की ये द्विवेदी प्रभृति
पदवियाँ भी उसी समय की हैं जिस समय की राय, सिंह इत्यादि। इसीलिए इनका
वर्णन यदि कहीं आता हैं तो केवल कान्यकुब्ज और सर्यूपारी प्रभृति की
वंशावलियों में ही। उस समय इतना ही नहीं होता था कि जो जैसा काम करता था
उसे वैसी ही पदवी मिलती थी और उसके पुत्र, पौत्रादि में बराबर चली जाती थी।
किन्तु वे पदवियाँ बदल जाया करती थीं। इसीलिए जो ब्राह्मण पाण्डेय या
तिवारी होते थे, समय पाकर राजदरबार में प्रतिष्ठा होने से उनको राय, सिंह
और चौधुरी आदि की पदवी मिल जाती थी। अथवा उनके लड़कों को ही ये पदवियाँ
भाग्यवश प्राप्त हो जाती थीं। क्योंकि इन्हें आजकल की रायबहादुर और
के.सी.आई.ई. इत्यादि उपाधियों की तरह राजा की दी हुई समझ सभी परम
प्रतिष्ठाजनक समझते और तदनुसार ही उनकी प्राप्ति के लिए महान् यत्न करते
थे, जैसा कि आजकल हो रहा हैं। और जब भाग्यवश ये मिल जातीं तो पूर्व के
पाण्डेय प्रभृति आस्पदों (पदवियों) का प्रयोग छूट जाता था। केवल इतना ही
नहीं कि राज-पदवियों के ही पाने से इनका परित्याग हो, किन्तु कर्म करने से
ही पाण्डेय का पुत्र त्रिवेदी और उसकी सन्तान अवस्थी आदि कहलाती थी।
क्योंकि उस समय उन कर्मों के कर्ताओं के कम होने से जो ही उन्हें करता था
उसी का नाम प्रख्यात हो जाता था और वही उसकी पदवी हो जाती थी जैसा कि
कान्यकुब्ज वंशावली के एक ही काश्यपगोत्र के देखने से स्पष्ट प्रतीत होता
हैं कि मदारपुर के अधिपति भुइंहार (भूमिहार) ब्राह्मणों के बालक गर्भू नामक
ब्राह्मण के पुत्र कुतमऊ के तिवारी और उनके लड़के विनौर के अग्निहोत्री और
आगे चलकर उनके ही पुत्र, पौत्रादि बिनहारपुर के दूबे, कृपालपुर के मिश्र,
भागीर के दीक्षित, विधौली के शुक्ल और मिगलानी के अवस्थी इत्यादि कहलाये।
यह दशा केवल कान्यकुब्ल ब्राह्मणान्तर्गत काश्यप गोत्रीय भूमिहार
ब्राह्मणों की सन्तानों की हैं कि जिनके पूर्वज गर्भू की कोई ऐसी उपाधि
(पदवी) नहीं उसके ही वंशज कितने ही तिवारी आदि हो गये।
इस बात को जिसे देखना हो वह 'हरिप्रसाद भागीरथ' अथवा खेमराज के यहाँ छपी
हुई कान्यकुब्जों की सभी वंशावलियों में देख सकता हैं। यह मदारपुराधिपति
कान्यकुब्ज भूमिहार ब्राह्मणों के वंशज गर्भू की बात अभी बहुत दिनों की
नहीं हैं, किन्तु बाबर बादशाह के समय सन् 1527 ई. में हुई थी। ऐसा उन्हीं
वंशावलियों में लिखा हैं। परन्तु उस समय भी जहाँ-तहाँ उपाधियों का विशेष
रूप से प्रचार न हुआ था। इसलिए ब्राह्मणों की ये कोई शास्त्रीय पदवियाँ
नहीं हैं, जिनके न रहने से ब्राह्मण ही नहीं कहा जा सकता। किन्तु जैसे राय,
सिंह, चौधुरी और खाँ आदि उपाधियाँ ब्राह्मणों आदि की हैं, वैसे ही ये भी।
हाँ, भेद इतना हो सकता हैं कि प्रथमत:वे मुसलमानों द्वारा दी गयी हैं और ये
त्रिवेदी प्रभृति पदवियाँ ब्राह्मणादि हिन्दू समाजों की दी गयी हैं। परन्तु
अशास्त्रीयता दोनों में समान हैं। इस विषय में विशेष बात आगे कहेंगे।
अस्तु, जैसा इन उपाधियों का हाल हैं, वैसा ही ब्राह्मणादि वर्णों में
छोटे-छोटे दम बनने और उनकी नाना संज्ञाएँ पड़ने का भी वृत्तान्त जान लेना
चाहिए। सम्भवत: बहुत से लोगों की यह धारणा हैं, अथवा होगी कि कान्यकुब्ज,
गौड़ इत्यादि ब्राह्मणों के अवान्तर दल और उनके नाम प्राचीन हैं। परन्तु
मेरी समझ से यह बात सरासर मिथ्या हैं। क्योंकि जैसा अभी पदवियों के विषय
में दिखला चुके हैं कि वे आधुनिक हैं, इसीलिए प्राचीन ग्रन्थों में उनका
पता भी नहीं हैं वही दशा ब्राह्मणों और अन्य वर्णों के इन छोटे-छोटे दलों
और उनके नामों की हैं। वे भी उन ग्रन्थों में कहीं नहीं पाये जाते:
सारस्वता: कान्यकुब्जा उत्कला गौड मैथिला:।
पंच गौडा: समाख्याता विंध्यस्योत्तारवासिन:॥
इत्यादि रूप जो श्लोक स्कन्दपुराण के सह्याद्रि खण्ड और भविष्य पुराण के
नाम पर अब मिलने लगे हैं, वे आधुनिक और कल्पित हैं। क्योंकि राठौर, चौहान
वगैरह नाम कहीं न आकर ब्राह्मणों के ही नाम क्यों आए।
इसलिए वे भी उपाधियों की तरह आधुनिक हैं। उनमें से एकाध यदि कुछ दिन प्रथम
से थे भी तो उनका प्रचार न था। या यों कहिये कि लोगों का उनकी तरफ ध्यान
नहीं था। परन्तु कालचक्र ने ही उनकी उत्पत्ति का प्रचार यों करवाया कि जब
यवन राज्य काल में, जैसा कि पूर्व दिखला चुके हैं, शास्त्राभ्यास से रहित
और प्रकृति में भरे हुए मार-काट और राजस, तामस भावों से प्रेरित हो
जहाँ-तहाँ ब्राह्मणादि वर्ण, अस्त्रा, शास्त्रादि से सुसज्जित हो आक्रमण
करने और दुर्बलों के अधिकारों को दबाने लगे। उन लोगों के शारीरिक अभिमान और
युद्धप्रियता बहुत बढ़कर पराकाष्ठा को प्राप्त हो गयी। इसलिए वे उसी अभिलाषा
से बलात अपना एक देश छोड़ दूसरे प्रदेशों (प्रान्तों) में जाने के लिए बाध्य
होने लगे। जहाँ ही दुर्बल
देखा वहाँ ही चढ़ दौड़े। आज यहाँ हैं तो कल कितनी दूर निकल गये इसका पता ही
नहीं।
इसके अतिरिक्त यवनों के अत्याचार हिन्दू धर्म पर कभी-कभी हुआ करते थे। उनकी
नव प्रादुर्भूत शक्ति और नवीन संचारित धर्म हिन्दू धर्म पर बड़े-बड़े आघात
करने लगे। यह बात उस समय के इतिहासवेत्ताओं से छिपी नहीं हैं। जब बलपूर्वक
अन्य धर्मावलम्बियों को मुसलमान बनाना भी वे अपना परम धर्म मानते थे तो
फिर बेचारे अनाथ हिन्दू क्यों सताये जाये? ऐसी दशा में धर्मभीरु ब्राह्मणों
को विशेष
कर और प्राय: कहीं-कहीं क्षत्रियों को भी धर्म रक्षा के लिए छोटे-छोटे दल
बनाने
पड़े। क्योंकि जैसी देखभाल या प्रबन्ध छोटे राज्यों या भूभागों को हो सकता
हैं वैसा बड़े का नहीं। इसीलिए बड़े-बड़े राज्यों को भी सूबों, जिलों और
तहसीलों वगैरह में बाँट देते हैं। बड़े विस्तृत ब्राह्मण साम्राज्य में यह
पता चलना कठिन था कि कौन
प्रदेश अपने धर्म पर स्थित हैं और उसके खान-पान आदि किये जा सकते हैं।
अत: धर्मदृष्टि से छोटे-छोटे विभाग बनाने पड़े और अपने विभाग से बाहर
खान-पान या विवाह सम्बन्ध छोड़ना पड़ा। इसी से यद्यपि पूर्वकाल में सभी
ब्राह्मणों के खान-पान आदि साथ होते थे, परन्तु आज न तो गौड़ों के
कान्यकुब्जों के साथ और न
दोनों के दक्षिणात्यों के साथ, खानपान या विवाह-सम्बन्ध आदि होते हैं।
जब एक देश से दूसरे देश (प्रान्त) में ब्राह्मणादि, पूर्वोक्त कारणों से,
चले जाते थे तो उनका पता लगना उस समय कठिन या असम्भव था, क्योंकि उस समय
आजकल की तरह रेल, तार न थे। इसलिए प्रत्येक दल वाले ब्राह्मणादि जिस देश से
आया करते थे उसी देश के नाम से अपना व्यवहार करते थे। जैसे जो सर्यूपार से
अन्य प्रान्तों में चले गये थे वे अपने सर्यूपार वाले सर्यूपारीण,
सर्यूपारी या सरवरिया इत्यादि कहने लगे। इसी प्रकार जो कान्यकुब्ज देश से
गये थे वे अपने को कनौजिया या कान्यकुब्ज कहने लगे। ऐसे ही मैथिल, गौड़ और
सारस्वतादि नामों को भी जान लेना चाहिए, क्योंकि किसी आदमी या वस्तु के नाम
व ठिकाने की हुलिया तभी होता हैं, जब वहाँ से भागकर अन्यत्रा चला जाता हैं
और उसका पता चलना कठिन हो जाता हैं। और चूँकि पूर्व समय में ब्राह्मणों को
एक स्थान छोड़कर दूसरे स्थान में जाने की प्राय: आवश्यकता न होती थी। केवल
ऋषि, मुनि या तपस्वी लोग ही राक्षस वगैरह के भय अथवा अन्य कारणों से
ईधर-उधर जाया करते थे, क्योंकि उस समय हिन्दू धर्म का प्रबल प्रतापादित्य
द्वादश कलायुक्त था। इसलिए एक देश से दूसरे देश में बिना तीर्थ यात्रादि के
जाने में बहुत बड़ा विचार उपस्थित हो पड़ता था, क्योंकि ऐसी आशाएँ थीं और हैं
कि :
अंग वंग कलिंगेषु सौराष्ट्र मगधोषु च॥
तीर्थ यात्रां विना गत्वा पुन:संसकारमर्हति॥
अर्थात् ''अंग, वंग, कलिंग, सौराष्ट्र और मगधदि देशों में बिना तीर्थयात्रा
के जाने से उसका पुन: यज्ञोपवीतादि संस्कार करना चाहिए'' इत्यादि। परन्तु
जिस समय का वर्णन करते हैं, उस समय न तो इतना धार्मिक भय ही था और न लोगों
को इन उपदेशों का यथावत् ज्ञान ही था। प्रत्युत पूर्वोक्त धर्म रक्षा के
लिए, तथा अन्य प्रयोजनों से भी एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए
बाध्य होना पड़ता ही था। इसलिए यद्यपि जो लोग कान्यकुब्ज प्रभृति देशों से
भाग गये थे, उसके ही नाम कान्यकुब्जादि पड़ने उचित थे, तथापि कान्यकुब्ज
देशों में रहनेवालों और उन भगेड़ों के सम्बन्ध कभी-कभी हो जाया करते थे,
इसलिए एक ही होने से एक देश वाले कहीं भी हों उसी नाम से पुकारे जाते थे।
इससे खान-पान और विवाह-सम्बन्ध में आसानी भी होती थी।
परन्तु एक देश में रहने वाले ब्राह्मण से अन्य भी हो सकते हैं, जैसे
कान्यकुब्ज हलवाई और कान्यकुब्ज कहार भी बोले जाते हैं। इसी प्रकार मैथिल
कायस्थ और मैथिल ब्राह्मण इत्यादि। अथवा देशों के बड़े होने से अमुक देश का
ब्राह्मण हूँ ऐसा कहने से भी पता ठीक न चल सकता था। इसलिए फिर भी परस्पर
व्यवहारों में भी बहुत क्लेश होने लगा, तो गोत्र और डीह के साथ अमुक जगह का
दूबे और अमुक जगह का तिवारी मैं हूँ ऐसा कहने का संकेत किया गया। क्योंकि
एक गोत्र में विवाह नहीं होता, इसलिए गोत्रदि बताने की आवश्यकता थी। इसी
प्रकार अन्य बातों को भी जान लेना चाहिए। अब ऐसा करने से कोई भी ब्राह्मण
कहीं भी हो, जहाँ पिण्डी का
तिवारी या त्रिफला का पाण्डे मैं हूँ ऐसा उसने बताया, वहाँ ही सब कठिनाइयाँ
दूर हो गयीं क्योंकि अन्य सर्यूपारी आदि भी उन्हीं ग्रामों में या उनके पास
के ही रहने वाले होते थे।
इससे यह भी सिद्ध हो गया कि ब्राह्मणों में अपने-अपने डीह (प्राचीन स्थान)
के व्यवहार की प्रभा भी बहुत दिनों से नहीं हैं। इसलिए यह कोई आवश्यक नहीं
हैं कि जिस ब्राह्मण में अपने डीह का व्यवहार किसी कारण से न हो वह इसी
कारण से ब्राह्मण न कहा जाये कि उसका डीह ही नहीं हैं। हाँ, इतने के लिए वह
खान-पान आदि दूसरे दलवाले से न करके अपने ही दल में कर सकता हैं। प्रथम तो
यह बात कहीं पाई नहीं जाती। परन्तु सम्भव होने पर उसके विषय में भूल न हो
इसलिए ऐसा कह दिया हैं। और ऐसा होता भी हैं कि लोग अपने पूर्व डीह को भूल
जाते हैं और दूसरे डीह का नाम लिया करते हैं। जैसे कि निमेज के ओझा और
मचैयाँ पाण्डे अपने डीह निमेज और मचियाँव बतलाते हुए अपने को सर्यूपारी
कहते हैं, परन्तु ये डीह सर्यूपार में न होकर शाहाबाद जिले में पाए जाते
हैं।
अस्तु, अब इसी स्थान पर, भूमिहार, त्यागी, महियाल, पश्चिम आदि संज्ञा व
विशेषण सम्बन्धी विषय का विचार कर लेना चाहिए। अभी कह चुके हैं कि यवन-काल
में ही 5 या 7 सौ वर्ष पूर्व ब्राह्मणों में बहुत से अवान्तर दल कैसे बन
गये यद्यपि दूर-देश में गये हुए ही कान्यकुब्जादि कहे जाने चाहिए, तथापि
सभी एक देश वाले कैसे उसी नाम से कहे जाने लगे। बस, इन्हीं दो बातों के
सम्बन्ध में यह भी एक बात हैं कि जब ब्राह्मणों में पूर्वोक्त कारणों से
छोटे-छोटे दल बनने लगे और कहीं-कहीं अन्य जातियों में भी, तो चूँकि केवल
धर्मरक्षा की दृष्टि से यह काम हुआ, इसलिए दलों के बनाने में इस बात का
पूर्ण तया ध्यान रखा गया कि जिससे धर्म का पालन ठीक-ठीक हो सके। इसके लिए
जो-जो दल बने उनमें ऐसे-ऐसे ब्राह्मण प्रत्येक दल में मिलाये गये जिनके
आचार-विचार या चाल-चलन और खान-पान प्राय: एक प्रकार के थे। इसीलिए
भिन्न-भिन्न प्रदेशों के भिन्न-भिन्न दल बन गये। जैसे गौड़ देश, कान्यकुब्ज,
मिथिला अथवा सरस्वती के पास के प्रदेशों आदि के और एक प्रान्त के
ब्राह्मणों में भी आचार-व्यवहार प्राय: सबके समान न होने से बहुत से
अवान्तर भेद बन गये। जैसे मैथिलों में श्रेत्रिय, योग्य इत्यादि एवं गौड़ों
में आदि गौड़, गूजर गौड़ चमर, गौड़ इत्यादि। इसी प्रकार बंगदेशीयों में राढ़ी
आदि तथा गुजरात के नागरों में सिपाही नागर वगैरह एवं कान्यकुब्जादि में
दूबे, तिवारी, अग्निहोत्री प्रभृति। इसी तरह सर्वत्रा सभी ब्राह्मणों में
जान लेना चाहिए। और जैसे एक देश से दूसरे देश में जाने से उस देश के नाम से
नाम पड़ा, वैसे ही एक दल को दूसरे में बिलगाने के लिए भी अपने-अपने देशों से
अपने-अपने नाम कहे जाने लगे। इसलिए भी एक देश वाले जहाँ कहीं रहे, एक ही
नाम से कहे जाने लगे। इसी तरह अपनी क्रियाओं से भी एक दल के दूसरे दल से
भिन्न-भिन्न नाम होते थे। जैसे त्रिवेदी, द्विवेदी इत्यादि प्रथम ही कह
चुके हैं।
यहाँ पर ध्यान देने की बात हैं कि जैसे मैथिलों में केवल वेद पढ़ने वाले
श्रोत्रीय, और वेदों तथा अन्य कार्यों में योग्यता रखनेवाले 'योग्य'
इत्यादि अपने-अपने कर्मों से भिन्न-भिन्न दल बने और नाम पड़े एवं गौड़ों में
गूजर प्रभृति की पुरोहिती करने से गूजर गौड़ आदि नाम पड़े। नागरों में
लड़ने-भिड़ने वाले सिपाही नगर कहलाने लगे और उनका दूसरे नगरों से पृथक् दल हो
गया और जिस प्रकार से द्विवेदी, त्रिवेदी प्रभृति कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों
के पृथक्-पृथक् दल अपने-अपने कर्मों और आचारों से बने। ठीक उसी प्रकार सबसे
प्रथम कान्यकुब्ज ही ब्राह्मणों में जो दल जमींदारी से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने
वाला, अतएव वीर और राजदरबार में प्रतिष्ठित था और इसीलिए उसके आचार-विचार
में भी कुछ विलक्षणता थी, वह भी उसी समय भूमिहार या भुइंहार नाम से
प्रसिद्ध था।
जैसे एक प्रान्त के सभी ब्राह्मणों का जब उसी प्रान्त के नामानुसार
कान्यकुब्ज या मैथिल नाम पड़ गया, तो फिर उनके छोटे-छोटे दलों के
भिन्न-भिन्न नाम
उस देश के नामानुसार न हो सकने के कारण कर्मानुसार ही द्विवेदी, त्रिवेदी,
श्रेत्रिय और योग्य प्रभृति हुए। उसी प्रकार उन्हीं कान्यकुब्जों में एक दल
अब देश के नामानुसार कहे जा सकने के कारण भूमि के ऊपर अपने बल से या अन्य
प्रकार से अधिकार कर लेने और विशेष रूप से कृष्यादि करने के कारण औरों से
विलक्षण होने से भूमिहार या भुइंहार कहलाने लगा और जितने बलवान् या
श्रीमान् और प्रतिष्ठित राजसी कान्यकुब्ज ब्राह्मण एक आचार वाले थे, वे इसी
नाम से कहे जाने लगे।
यद्यपि इनकी संज्ञा प्रथम जमींदार या जमींदार ब्राह्मण थी। लेकिन एक तो,
जैसा पूर्व कह चुके हैं कि उसका इतना प्रचार न था, दूसरे यह कि जब
पृथक्-पृथक् दल बन गये तो उनके नाम भी ऐसे होने चाहिए जो एक दूसरे के न हो
सकें। परन्तु जमींदार शब्द तो जो ही जाति भूमिवाली हो उसे ही कह सकता हैं।
इसलिए विचारा गया कि जमींदार नाम ठीक नहीं हैं। क्योंकि पीछे से इस नामवाले
इन अयाचक कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के पहचानने में गड़बड़ होने लगेगी। इसलिए ऐसा
न हो कि व्यवहार में गड़बड़ मच जाये। इसी कारण से इन लोगों ने अपने को
भूमिहार या भुइंहार कहना प्रारम्भ कर दिया।
यद्यपि जो जमींदार शब्द का हैं, अर्थात् जमीन का मालिक या उसका रखने वाला,
वही भूमिहार शब्द का भी, जैसा कि अभी विदित हो जायेगा, तथापि जैसा कि
भूमिका में ही कह चुके हैं कि जिस अर्थ में जिस शब्द का संकेत कर लिया, उस
शब्द से वही समझा जाता हैं। जैसे, यद्यपि नमस्कार और प्रणाम शब्दों का अर्थ
एक ही हैं, तथापि ब्राह्मणों ने यह संकेत कर लिया हैं कि हम लोगों में
परस्पर नमस्कार शब्द का ही प्रयोग होना चाहिए। इसलिए नमस्कार शब्द बोलने से
ही विदित हो जाता हैं कि इसका उच्चारण करने वाला ब्राह्मण हैं। परन्तु उसी
के अर्थ में यदि प्रणाम शब्द बोलें तो प्राय: अन्य जाति ही का बोध होता
हैं। मिथिला में तो यहाँ तक देखा जाता हैं कि शूद्र लोग भी ब्राह्मणों को
'प्रणाम' ही कहा करते हैं और कोई भी बुरा नहीं मानता। परन्तु यदि र्कोई
अन्य जाति उसी के अर्थ वाले 'नमस्कार' शब्द का प्रयोग करे, तो फिर लड़ाई
देखिये। ऐसा ही आर्य समाज के नमस्ते और सनातन धर्म के प्रणाम शब्द का हाल
जान लीजिए। यदि किसी सनातनधार्मी के सन्मुख 'नमस्ते' शब्द बोला जाये तो वह
बहुत ही रंज होता हैं, न कि प्रमाणादि शब्दों से। इसका कारण जैसे एकमात्र
संकेत ही हैं। उसी प्रकार, यद्यपि जमींदार और भूमिहार शब्द समानार्थक ही
हैं, तथापि जमींदार शब्द से ब्राह्मण से अन्य भी जातियाँ समझी जाती हैं, या
जा सकती हैं, परन्तु भूमिहार शब्द से साधारणत: प्राय: केवल अयाचक ब्राह्मण
विशेष ही। क्योंकि उसी समाज के लिए उसका संकेत किया गया हैं।
इससे सिद्ध हो गया कि यद्यपि नियत तिथि विदित नहीं हैं, तथापि जैसे यवन
राज्य काल में ही आज से लगभग 6, 7 या 8 सौ वर्ष पूर्व गौड़, कान्यकुब्ज
सर्यूपारी, मैथिल तथा सरस्वतादि एवं दूबे, तिवारी आदि नाम प्राय:
ब्राह्मणों में प्रचलित हुए, वैसे ही भूमिहार या भुइंहार नाम भी सबसे प्रथम
कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के एक अयाचक दल विशेष में प्रचलित हुआ। इसीलिए जैसे
ये सब नाम केवल कान्यकुब्जादि की वंशावलियों में ही पाये जाते हैं, न कि
अन्यत्रा भी। वैसे ही भूमिहार शब्द भी सबसे प्रथम उन्हीं कान्यकुब्ज
वंशावलियों में काश्यप गोत्र के व्याख्यान में मिलता हैं, न कि अन्यत्रा।
जैसा कि 'गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास' के यहाँ छपी हुई और पं. दुर्गादत्ता
त्रिपाठी एवं पं. मुकुन्दराम द्वारा संवत् 1964 में छपवाई हुई कान्यकुब्ज
वंशावली के 105वें पृष्ठ में लिखा कि :
अथ काश्यपमाख्यास्ये गौत्रां तु मुनितम्मतम्।
पूर्ववंशावलिं दृष्ट्वा ज्ञातं षष्टिशतत्रायम्॥ 1॥
मदारादिपुराख्यस्य भुइंहारा द्विजास्तु ये।
तेभ्यश्च यवनेण्दै्रश्च महद्युद्धमभूत्पुरा॥ 2॥
तेभ्यश्चब्राह्मणा: सर्वे परास्ता अभवंस्तत:॥ इत्यादि॥
जिसका अर्थ यह हैं कि जैसा कि 'हरिप्रसाद भागीरथ' के यहाँ छपे हुए
'बृहत्कान्यकुब्जकुलदर्पण' के 117वें पृष्ठ में लिखा हैं कि 'विक्रमीय
संवत् 1584 (सन् 1527) मदारपुर के अधिपति भूमिहार ब्राह्मणों और यवनों से
महायुद्ध हुआ और सब ब्राह्मण परास्त हुए। यह बात 360 वंशावलियों को देखकर
लिखी गयी हैं, इत्यादि यह मदारपुर गंगा के समीप कानपुर जिले में अथवा उस
जिले के समीप ही हैं।
इसके बाद आगे चलकर, जैसा कि दिखला चुके हैं, इन्हीं भूमिहार ब्राह्मणों के
वंशज गर्भू के वंश में कुतमऊ के तिवारी इत्यादि 7 या 8 स्थान वाले तिवारी,
विनौर इत्यादि 5 या 6 स्थानों के अग्निहोत्री, गल्हैया इत्यादि 10 स्थानों
के दूबे, कृपानपुर, नगरा आदि 3 स्थानों के मिश्र, क्यूना, मदारपुरादि 14
स्थानों के दीक्षित, विधौली और रिवाड़ी के शुक्ल, मिगलानी प्रभृति 5 स्थानों
के अवस्थी इत्यादि हुए जो सभी कान्यकुब्जों में पाये जाते हैं। क्योंकि
प्रथम ही यह बात कह चुके हैं कि यद्यपि इन भूमिहार नामधारी ब्राह्मणों के
साथ भी गौड़ादि की तरह अन्य ब्राह्मणों के खान-पान आदि तथा विवाह सम्बन्ध
ढीले पड़ रहे थे तथापि एक देशीय होने से इनके साथ सम्बन्ध एकदम टूट न गया
था। इसलिए पूर्वोक्त तिवारी प्रभृति उसी दल में मिलते गये और आज भी भूमिहार
नामधारी ब्राह्मणों के साथ विवाह सम्बन्ध याचक दलवालों का इसी कारण से बना
हैं। परन्तु गौड़ प्रभृति तो दूर देशीय थे। अत: उनके साथ का सम्बन्ध एकदम
टूट गया।
एक बात यह भी विचारने योग्य हैं कि जैसे कान्यकुब्ज देश में ब्राह्मणों के
कर्मानुसार दूबे, तिवारी प्रभृति संज्ञाएँ हुईं और जब वहाँ से वे लोग अन्य
देशों में फैले तो वहाँ अमुक स्थान में दूबे और तिवारी कहलाने लगे। इसी
प्रकार जब पूर्वोक्त युद्ध में मदारपुर के अधिपति बहुतेरे ब्राह्मण मारे
गये और पं. अनन्तरामजी की एक गर्भणी स्त्री के सिवाय बहुतेरे जान लेकर वहाँ
से एकदम भाग गये। क्योंकि युद्ध में सभी मारे गये, कोई भी न बचा, यह तो
कहीं हुआ नहीं, इसलिए असम्भव हैं। हाँ, बचे-बचाये जान लेकर केवल गर्भू की
माता को छोड़कर, क्योंकि वह पिता के घर थी, सभी भाग गये और वहाँ एक भी न
रहा। इसलिए लोगों ने समझा कि सभी मारे ही गये। परन्तु चूँकि वहाँ कोई न
रहा। इसलिए उस तरफ भूमिहार नामवाले ब्राह्मण पाये नहीं जाते, और भागकर काशी
के आस-पास निरुपद्रव जानकर आ बसे, जैसे दूसरे दूबे, तिवारी प्रभृति आये थे।
इसलिए काशी के आस-पास ही इस ही नाम के ब्राह्मण पाये जाते हैं, और गर्भू की
सन्तानों में ही दूबे, तिवारी हुए प्रथम यह संज्ञा न थी, किन्तु यवन राजाओं
के काल की ये पदवियाँ थीं। इसलिए और पूर्व हेतुओं से भी इस प्रान्त में ये
लोग प्राय: दूबे, तिवारी न कहे जाकर अब तक राय, सिंह इत्यादि पदवियों से ही
पुकारे जाते हैं।
इसके बाद बहुत से अन्य स्थानों के भी कान्यकुब्ज या सर्यूपारी इस देश में
आते गये और जमींदार हो होकर इन्हीं में मिलते गये। जैसा कि सर्यूपार पिपरा
के मिश्र, गौतम गोत्रीय कृष्ण या कित्थू मिश्र के वंशज द्विजराज महाराज
श्री काशिराज और काशी प्रान्त के अन्य गौतम भूमिहार ब्राह्मण। यह बात
विजयागन्द त्रिपाठी कृत पंक्ति पावन परिचय नामक सर्यूपारीण वंशावली और पं.
शिवराज मिश्र कृत गौतम चन्द्रिकादि ग्रन्थों से स्पष्ट हैं। जैसा आगे भी
दिखलाया जायेगा। इसी प्रकार देवकली के वत्सगोत्रीय, पाण्डेय आस्पद वाले
दोनवार ब्राह्मण भी इनमें आ मिले जिनका निरूपण प्रसंगवश आगे करेंगे। इसी
तरह क्यूना के दीक्षित काश्यप गोत्रीय भी इनमें आ मिले जिनका नाम सम्भवत:
क्यूनावार से बिगड़ते-बिगड़ते किनवार हो गया। किनवार शब्द के विषय में आगे
विशेष बात कहेंगे। अस्तु, इन सबों का निरूपण आगे होगा और जो जो ब्राह्मण
मिलते जाते थे, वे अपनी मिश्र, दीक्षित प्रभृति उपाधियों को छोड़ राय, सिंह
वगैरह पदवियों को ही प्रतिष्ठित जानकर ग्रहण करते थे। और जैसे अन्य दल वाले
ब्राह्मण अपने को अमुक स्थान के दूबे, तिवारी इत्यादि बतलाते थे, वैसे ही
इन्होंने भी अपने-अपने स्थान सूचित करने के लिए किनवार या दोनवार आदि कहना
प्रारम्भ कर दिया। जिसका अर्थ क्यूना अथवा ओकनी स्थान वाले इत्यादि हैं।
इसी प्रकार अन्य संज्ञाओं में भी समझना चाहिए। इसका भी विशेष निरूपण आगे
होगा।
इसलिए यह निर्विवाद सिद्ध हैं कि इन प्रकृत अयाचक ब्राह्मणों की यह वर्तमान
भूमिहार संज्ञा या विशेषण यवन काल से ही हैं तथा कान्यकुब्ज, दूबे, तिवारी
प्रभृति संज्ञा समकालिक ही हैं और कान्यकुब्ज, देश में ही इस नाम का भी
जन्म हुआ हैं। इसलिए यदि कोई इस नाम के विषय में विवाद करें कि कब से हुआ
इत्यादि तो या तो प्रथम उसे कान्यकुब्जादि नामों के काल का पता लगाकर इस
विषय में पूछना चाहिए। क्योंकि उन सबों के भी समय निश्चित नहीं हैं, फिर
केवल इसी के लिए झगड़ा क्यों? या हमारे पूर्व कथन से सभी को निश्चित करके
सन्तोष करना चाहिए।
इस भूमिहार संज्ञा विषयक पूर्वोक्त कथन की पुष्टि में भी यह जान लेना
चाहिए कि पूर्व ग्रन्थ में धर्मारण्य में स्थापित और बाड़व शब्द बोधित
ब्राह्मणों का वर्णन कर चुके हैं और उनके विषय में यह भी कह चुके हैं कि वे
भी लोग याजन, अध्यापन और प्रतिग्रह से रहित होकर श्रीरामजी का दिया
धर्मारण्य का राज्य करते थे। जैसा कि धर्मारण्य महात्म्य के 35वें अध्याय
में लिखा हैं कि :
नारदउवाच स्वस्थाने ब्राह्मणस्तत्रा कानि कर्माणि चक्रिरे।
ब्रह्मो : इष्टरापूत्तारता: शान्ता: प्रतिग्रहपरांगमुखा:॥ 3॥
राज्यं चक्रुर्यनस्यास्य पुरोधा द्विजसत्ताम।
उवाच रागपुरतस्तीर्थमहात्म्यमुत्तामम् ॥ 4॥
अर्थात् ''नारद ने ब्रह्मा से पूछा कि धर्मारण्य में रहनेवाले वे सब
ब्राह्मण कौन काम करते थे? ब्रह्मा ने उत्तर दिया कि वे लोग यज्ञदानादि
करने और वापी, कूप तड़ाग वगैरह बनाने में दत्तचित्त थे और प्रतिग्रह से
बिलकुल हटे हुए उस वन का राज्य करते थे। इसके अनन्तर रामजी के पुरोहित
वशिष्ठजी ने उस तीर्थ के और महात्म्य सुनाये।''
इतना और भी जान लेना चाहिए कि जैसा कि पूर्व कह चुके हैं कि हस्तिनापुर से
धर्मारण्य का सम्बन्ध महाभारत के आदिपर्व के द्वितीयाध्याय से सिद्ध होती
हैं। क्योंकि वहाँ 'समन्तपंचक' क्षेत्र के महात्म्य में यही लिखा हैं कि :
त्रोताद्वापरयो: सन्धौ राम: शस्त्राभृतां
वर:।
असकृत्पार्थिवं क्षेत्रां जधानामर्षचोदित:॥ 3॥
स सर्वं क्षत्रामुत्साद्य
स्ववीर्येणानलद्यु ति:।
समन्पंचके पंच चकार रौधिरान् दान्॥ 4॥
तेषां समीपे यो देशो दानां रुधिराम्भसाम्।
समन्तप×चकमिति पुण्यं तत्पररिकीत्तिततम्॥ 11॥
अन्तरे चैव सम्प्राप्तै कलिद्वापरयोरभूत।
समन्तप×चके युध्दं कुरुपाण्डवसेनयो:॥ 13॥ इत्यादि।
अर्थात् ''त्रोता और द्वापर की सन्धि में परशुरामजी ने बहुत क्रोध कर कई
बार क्षत्रियों का नाश करके उनके रक्तों को पाँच कुण्डों में भर कर पितृ
तर्पण किया। तभी से उसके आस-पास का देश समन्तप×चक कहलाया। जिसमें कलि और
द्वापर की सन्धि में कौरव और पाण्डवों का परस्पर युद्ध हुआ।'' और यही बात
जैसा कि पूर्व कह चुके हैं, स्कन्दपुराण में धर्मारण्यान्तर्गत हाटकेश्वर
क्षेत्र के महात्म्य में वर्णित हैं। इसलिए यद्यपि धर्मारण्य का
कुरुक्षेत्र तक कुछ सम्बन्ध प्रतीत होता हैं। तथापि स्कन्दपुराण के
धर्मारण्य महात्म्य नामक भाग के पढ़ने से स्पष्ट होता हैं कि बरेली प्रभृति
प्रान्त सहित कान्यकुब्ज देश वर्तमान कानपुर प्रान्त को लेकर ही प्रधान
धर्मारण्य कहलाता हैं। इसलिए इसी प्रान्त के गाँवों और वहाँ के रहनेवाले
(अधिपति) ब्राह्मणों के गोत्रदि की व्यवस्था धर्मारण्य खण्ड में सविस्तार
निरूपित हैं और यह भी वहीं ग्रन्थान्त में लिखा हैं कि **
कन्नौज का राजा आम
बौद्ध (जैन) मतानुयायी हो गया और अपनी कन्या का विवाह एक जैन (बौद्ध)
मतानुयायी कुमारपाल नामक राजा से किया जो ब्रह्मरावत्ता (बिठूर के पास के
प्रान्त) का निवासी था और जब उसने धर्मारण्य को उसे दायज में दिया तो उसके
दामाद (जमाता) ने वहाँ के पूर्वोक्त वाडवों (ब्राह्मणों) से कर माँगा एवं
अपने देश से चले जाने और उनकी भूमि को (जिसे श्रीरामजी ने दिया था) छीन
लेने की आज्ञा दी और कहा कि आप लोग जाइये, हम ऐसे नहीं मान सकते। परन्तु
यदि अपने राम और हनुमान् को यहाँ लायेंगे, तभी हम आपके धर्म और बातों का
विश्वास करेंगे। उस पार बहुत से वाडव (ब्राह्मण) रामेश्वरजी की ओर
श्रीरामजी की प्राप्ति के लिए गये और अन्त में हनुमान्जी की सहायता से
उन्हें उनकी पूर्व भूमि प्राप्त हुई।
______________
**
यथा, 'इदानीं च कलौ प्राप्ते आमो नाम्ना बभूवह। कान्यकुब्जाधिप:
श्रीमान्धार्मज्ञो नीतितप्तर:॥ 11॥ प्रजानां कलिना तत्रा पापे बुद्धिरजायत।
वैष्णवं धर्ममुत्सृज्य बौद्ध धर्ममुपागत:॥ 35॥ तस्य राज्ञो महादेवी
मामनाम्न्यतिविश्रुता। गर्भं दधार सा राज्ञी सर्व लक्षण संयुता॥ 37॥
सम्पूर्णे दश मे मासि जाता तस्या: सुरूपिणी। रत्नगगेति नाम्ना सा
मणिमाणिक्यभूषिता॥ 39॥ ब्रह्मावत्तराधिपतये कुम्भीपालाय धीमते। रत्नगंगा
महादेवीं ददौतामिति विक्रमी। मोहेरकं ददौ तस्मै विवाहे दैवमोहित:॥ 44॥
धर्मारण्ये समागत्य राजधनी कृता तदा। देवांश्च स्थापयामास
जैनधर्मप्रणीतकान्॥ 45॥ लुप्तशासनका विप्रा लुप्तस्वाम्या अहर्निशम्।
समाकुलितचित्तास्ते नृपमाम समाययु:॥ 48॥ कान्यकुब्जपुरं प्राप्य
कतिभिर्वासरैर्नृप। गंगोपकण्ठे न्यवस×छ्रान्तास्ते मोढवाडबा:॥ 49 अ. 36॥
इत्युक्त्वा हनुमद्दत्ता वामकक्षोद्भवा पुटी। प्रक्षिप्ता चास्य निलये
व्यावृत्ता द्विजसत्तामा:॥ 17॥ अग्निज्वालाकुलं सर्वं संजातं तत्रा चैवहि।
जाद्दवीतीरमासाद्य त्रौविद्येभ्यो ददौ नृप:॥ 18, अ. 37॥ इत्यादि॥
_____________
इस आख्यान से स्पष्ट हैं कि पूर्वोक्त धर्मारण्य के ब्राह्मण गंगा के उत्तर
तट में कान्यकुब्ज देश (कानपुर आदि प्रान्तों में) रहते और इन भूमिहार
कहलाने वाले ब्राह्मणों की तरह यजनादि कर्मों से रहित होकर राज्य या
भूमिपतित्व करते थे। और जिस मदारपुर के भूमिहार ब्राह्मणों का वर्णन आया
हैं वह भी कानपुर जिले में गंगा से उत्तर ही हैं, और धर्मारण्य का नाम
मेहेर भी हैं, क्योंकि लिखा हैं कि :
धर्मारण्यं कृतयुगे त्रोतायां सत्यमंदिरम्।
द्वापरे वेद भवनं कलौ मेहेरकं स्मृतम्॥ 27, अ 40॥
अर्थात् ''सत्ययुग में जिसका नाम धर्माण्य था, उसी का त्रोता में सत्य
मन्दिर, द्वापर में वेदभवन और कलि में मेहेर नाम पड़ा।'' इसीलिए वहाँ उसकी
राजधनी का नाम भी मेहेरपुर लिखा हैं। तात्पर्य यह हैं कि धर्मारण्य में जो
प्रसिद्ध स्थान होता था, उसी का नाम मेहेरपुर होता था। और वाडव ब्राह्मण
वहाँ के राजा थे। अत: जिस राजधनी में वे रहते थे, वह मेहेरपुर
कहलाते-कहलाते मदारपुर कहलाने लगी और चूँकि वे लोग राजा या जबरदस्त थे, इसी
से यवनों ने उनसे युद्ध किया क्योंकि साधारण लोगों से राजा लोग युद्ध नहीं
करते। इसलिए जैसा कि कह चुके हैं कि समय पाकर कुछ ग्रामों में रहने वाले
उन्हीं ब्राह्मणों का नाम भूमिहार ब्राह्मण पड़ गया इसके मानने में कोई
सन्देह नहीं किया जा सकता।
क्योंकि भूमिहार शब्द 'भूमि' शब्द को पूर्व
में रखकर हृर हरणे धातु से 'कर्मण्यण्' (पा. 3। 2। 1) इस पाणिनिसूत्रानुसार
'अण्' प्रत्यय लगाने पर 'भारहार' आदि शब्दों की तरह बना हैं। यह हृ×र धातु
हरण रूप अर्थ का बोधक हैं। जिस हरण का अर्थ पण्डित प्रवर भट्टोजिदीक्षित ने
स्वकृत सिद्धान्त कौमुदी के उत्तारार्ध्द के भ्वादि गण में इसी हृ×र धातु
के प्रकरण में लिखा हैं कि 'हरणं प्रापणं, स्वीकार:, स्तेयं, नाशनं च।'
जिसका तात्पर्य यह हैं कि जिस हरण रूप अर्थ का वाचक 'हृ' धातु हैं, उस हरण
के चार अर्थ हैं-(1) प्राप्त करना अर्थात् पहुँचाना, (2) स्वीकार करना, (3)
चुराना, और (4) नाश करना। इन चारों अर्थों के उदाहरण 'तत्त्वबोधिनी'
प्रभृति ग्रन्थों में ऐसे लिखे हैं कि जैसे-
(1) 'भारं हरति' अर्थात् बोझे को हरण करता
यानी पहुँचाता हैं,
(2) 'भागं हरति' अर्थात् अपने हिस्से को हरण करता या स्वीकार करता हैं,
(3)'सुवर्ण हरति, अर्थात् सोना हरता या चुराता हैं, और
(4) 'हरि हरति पापानि' अर्थात् विष्णु पापों को हरते या उनका नाश करते हैं।
परन्तु जब कि रुपये, पैसे इत्यादि की तरह पृथ्वी की चोरी या नाश हो नहीं
सकता, इसलिए प्रकृत में हृ धातु के दो ही अर्थ हो सकते हैं, प्रापण अर्थात्
पहुँचाना या बल से अधिकार कर लेना और स्वीकार।
इसलिए भूमिहार का यह अर्थ हुआ कि 'भूमिं हरति प्रापयपि बलादधिकरोति
केनचिदुपाएन स्वीकरोति वेति भूमिहार:' अर्थात् जो ब्राह्मण पृथ्वी के ऊपर
अस्त्रा, शस्त्रादि के बल से अधिकार कर ले, अथवा उपयान्तर से प्राप्त
पृथ्वी का स्वीकार कर ले-जैसा कि योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य एम. ए. की भी
सम्मति इस विषय में ग्रन्थ के अन्त में दिखलायेंगे कि जिन ब्राह्मणों ने
जागीर वगैरह में भूमि प्राप्त की, वे भूमिहार कहलाये-उसे भूमिहार कहते हैं।
और ये दोनों बातें धर्मारण्य के पूर्वोक्त ब्राह्मणों में घटती भी हैं।
क्योंकि श्रीरामजी के यज्ञ में दक्षिणा स्वरूप भी पृथ्वी उन्हें यज्ञ
करवाने के बदले मिली थी, और पीछे उस जैनी राजा के तंग करने पर उन्हें उसके
गृह इत्यादि को जलाना और रुद्र-रूप धारण करना पड़ा, जिससे उसकी सब सेनाएँ
नष्ट हो गयीं। यह बात उसी धर्मारण्य महात्म्य ग्रन्थ से विदित होती हैं। और
पश्चात् भी उन्होंने यवन राज्य काल में पृथ्वी पर बहुत सा अधिकार कर लिया
था। इसलिए उसी समय (यवन काल में) ये मदारपुर के अधिपति ब्राह्मण भूमिहार
कहलाये और इसीलिए उन लोगों को यवनों ने बली जान घोर युद्ध किया।
इसी जगह इतना और भी जान लेना चाहिए कि जिस प्रकार अयाचक वीर ब्राह्मण दल के
लिए यह भूमिहार या भुइंहार शब्द आया हैं क्योंकि संस्कृत भूमिहार शब्द के
भूमि शब्द का अपभ्रंश 'भुइं' शब्द हो गया हैं। परन्तु हार शब्द दोनों में
ज्यों का ज्यों पड़ा हैं। उसी प्रकार उसी दल के लिए 'महियाल' और 'तगा' अथवा
दान त्यागी शब्द आते हैं। जिनमें से 'महियाल' शब्द पंचाब प्रान्त निवासी
सारस्वत ब्राह्मणों के एक प्रतिष्ठित दल के लिए आता हैं। जिस दल में काशी
के भूतपूर्व विद्वन्मण्डली मण्डन श्रीयुत् काका राम शास्त्रीजी हो गये हैं।
जिनके सुकर्मपुष्प के कीर्तिगन्ध में आज भी विद्वन्मानस चंचरीक लुब्ध हो
रहा हैं और तगा या दानत्यागी, अथवा त्यागी शब्द प्राय: मेरठ की कमिश्नरी और
उसके समीपवर्ती अन्य प्रान्त निवासी गौड़ ब्राह्मणों के
उसी अयाचक, कर्मवीर दल के लिए आता हैं। इनमें से 'महियाल' शब्द का ठीक वही
अर्थ हैं जो भूमिहार शब्द का। क्योंकि उसका शुद्ध संस्कृत शब्द 'महीवार'
हैं, जो मही (भूमि का पर्याय) पूर्वक वृ×त्त अथवा वृङ् धातु से उसी
पूर्वोक्त 'कर्मण्यण' इस सूत्र से अण् प्रत्यय करने से बना हैं। जिनमें से
वृ×त्त धातु का वरण अर्थात् प्रार्थना या स्वीकार अर्थ हैं, और वृङ् धातु
का भी सम्भक्ति अर्थात् स्वीकार, सम्मान अथवा याद करना अर्थ हैं। अथवा वृ
या वृ×त्त धातु से भी अण प्रत्यय करने से यह शब्द बन सकता हैं। इन दोनों के
भी अर्थ पूर्वोक्त ही हैं और धारण करना (रखना) बन सकता हैं। इसलिए सम्पूर्ण
शब्द का यह अर्थ हुआ कि 'महीं भूमिं वृणोति स्वीकरोति प्राथयते वा, वृणाति
वृणीते स्वीकरोति सम्मानयति धारयति वेति महीवार:' अर्थात् जो भूमि का जागीर
वगैरह की तरह, जैसा कि इस प्रकरण के अन्त में योगेन्द्रनाथ भट्टाचार्य
एम.ए. की सम्मति दिखलायेंगे, स्वीकार या उसके लिए प्रार्थना करे, अथवा उसका
सम्मान या पालन करे, उस अयाचक ब्राह्मण दल का नाम महीवार हैं। यही महीवार
शब्द बिगड़ते-बिगड़ते महीबाल होकर आजकल महियाल हो गया हैं। र, ल, तथा ड
वर्णों का उलट-फेर संस्कृत में भी हुआ करता हैं। जैसे विलार और विडाल। जैसे
जमींदार भूमिहार, ब्राह्मणों में कहीं-कहीं लोगों को ब्राह्मण शब्द कहने से
घृणा होती हैं, जैसे कि प्रथम ही दिखला चुके हैं, वैसे ही महियाल और त्यागी
लोग
भी अपने को ब्राह्मण कहने घृणा करते हैं। केवल महियाल में या त्यागी मात्र
ही कहते और मनुष्य गणनादि के विवरणों में लिखवाते हैं। क्योंकि उनमें तो
संस्कृत का अत्यन्त अभाव-सा हो रहा हैं। इसलिए वे लोग ब्राह्मण शब्द के
पवित्र अर्थ को न जान उसे विपरीत ही समझे हुए हैं। इसलिए उससे घृणा करते
हैं। पंजाब में जमीन खरीदने वगैरह के लिए यह कानून हैं कि जराअत पेशा
(कृषक) जातियाँ ही उसे कर सकती हैं, न कि दूसरे लोग भी और ब्राह्मणों की
गिनती जराअत पेशा कौम में न होने एवं तगे और महियालों की गिनती उनमें होने
से वहाँ के बहुत से गौड़ और सारस्वत अपने को महियाल और तगा ही कहना और
उन्हीं से विवाह करना पसन्द करते हैं।
यही दशा गुजरात देशीय सिपाही नागर संज्ञक ब्राह्मणों की भी हैं। वे लोग भी
बड़ौदा प्रभृति राज्यों में बड़े-बड़े जमींदार रहे हैं और संस्कृत तो प्राय:
जानते ही नहीं। तथापि वाणिज्य, व्यापार में बहुत ही कुशल होने से
लक्ष्मीपात्र हैं और प्राय: बहुत से मजूमदार कहे जाते हैं, जिसका जमींदार
ही अर्थ होता हैं। उनमें भी प्राय: राय अथवा भाई पदवी वाले होते हैं,
अमुकराय, अमुकभाई इत्यादि। वे लोग भी अपने को 'कौन हैं' ऐसा प्रश्न करने पर
केवल 'नागर' कहा करते हैं, बल्कि ब्राह्मण कहने से बुरा भी मानते हैं। हाँ,
अब द्वारिका के गोवर्धन पीठ के श्री शंकराचार्यजी के समझाने से कुछ-कुछ
समझने लगे हैं। यही दशा महियालों की हैं। अन्य सरस्वतों के हजार कहने पर भी
अपने को केवल महियाल ही लिखवाते हैं। हाँ, वे भी अब कुछ-कुछ समझने लगे हैं
उनमें बड़े-बड़े जमींदार और राजे हो गये हैं और हैं, जिनका विशेष विवरण पं.
दुर्गादत्ता जोशी रचित 'सारस्वत ब्राह्मण इतिहास, में मिलता हैं। जो
अंग्रेजी और हिन्दी मिश्रित उर्दू में छपा हैं और एक रुपये में स्थान-हाथी
बड़कला जिला देहरादून में मिलता हैं।
उन्होंने तो उस पुस्तक में जमींदार, भूमिहारादि ब्राह्मणों के सभी दोनवार,
किनवार प्रभृति भेदों को लिखकर और बड़े-बड़े राजों, महाराजों तथा बाबुआनों को
भी जैसे कि महाराज द्विजराज श्रीकाशिराज, महाराज हथुआ एवं बाबुआन जगतगंज,
चितईपुर इत्यादि, लिखकर सभी को सारस्वत ब्राह्मण सिद्ध किया हैं। जिसे
इच्छा हो मँगाकर देख ले। उसी पुस्तक के तृतीय सर्ग (अध्याय, बाबू) के 19वें
से 29वें पृष्ठ तक गोत्र और उपाधियों आदि को बतलाकर युक्ति और प्रमाणों से
यह सिद्ध किया हैं कि महाराज पोरस, जो सन् ईस्वी 300 वर्ष पूर्व हुआ,
सुधाजोझा जो सन् 500 ई. में हुआ, राजा छाच जो सन् 700 ई. में और जयपाल,
आनन्दपाल और सुखपाल जो सन् 1001 ई. में हुए ये सभी महियाल आदि सारस्वत
ब्राह्मण थे। उनके कुरसीनामे को भी वहाँ लिखा हैं और मिलान किया हैं। यहाँ
तक कि उन्होंने 'राजर्षि' शब्द भी उन सारस्वत ब्राह्मणों के लिए रखा हैं,
जिनका वर्णन उस पुस्तक-भर में हैं।
डॉ. विल्सन के 'भारतीय जातियाँ' नामक अंग्रेजी ग्रन्थ में महियालों के विषय
में द्वितीय भाग 134वें पृष्ठ में इतना ही लिखा हैं कि :
Saraswat Brahmans,
"Another class of
the character referred to is that of the Moyals, or Tvoval. They are
extensively scattered over the Punjab."
अर्थात् ''सारस्वत ब्राह्मणों की एक और जाति हैं जो महियाल या मोवाल कहलाती
और सम्पूर्ण पंजाब में फैली हुई हैं।'' उसी जगह तगा ब्राह्मणों के विषय में
लिखा हैं कि:
"Taga Brahmans of
the Punjab are generally cultivators. They belong to the Gauda division
of the Brahman-hood. They care little about religious rites’s of any
kind Yet, as if compensating for their indifference in this matter, they
profess to obstain from flesh and fish.....They are found principally on
the bank of the Saraswati, near Thanesar. Some of the less pure
agricultral Brahmans of these villages are called Taga or Gauda Tagas."
इसका अर्थ यह हैं कि ''पंजाब के तगे ब्राह्मण प्राय: कृषक हैं, वे गौड़
ब्राह्मण दल के हैं और सभी प्रकार के धार्मिक कार्यों पर कम ध्यान देते
हैं। तथापि गोया इसी अपराध के प्रायश्चित्त के लिए, वे लोग मांस, मछली नहीं
खाते....। वे विशेष कर थानेसर के पास सरस्वती नदी के किनारे पाये जाते हैं।
इन ग्रामों में बहुत से जो पक्के कृषक ब्राह्मण नहीं हैं वे तगा या गौड़ तगा
कहलाते हैं।''
अस्तु, इसी प्रकार तगा या त्यागी ब्राह्मणों का विशेष विवरण यों हैं कि
महाराज आदि शूर ने 999 शकाब्द में कान्यकुब्ज देश से पाँच गोत्र के पाँच
ब्राह्मणों को वहाँ बुलाकर यज्ञ करवाया और युक्ति से उन्हें वहाँ स्थापित
किया। जिनके उस बंगदेशान्तर्गत गौड़ देश में (ढाका, राजशाही, मुर्शदाबाद
प्रभृति प्रान्तों का नाम गौड़ देश हैं) कई भिन्न-भिन्न कारणों के वश दो दल
हो गये, जो गंगा के इस और उस पार में बारेन्द्र और राढ़ देश में बसे। इसलिए
बारेन्द्रीय और राढ़ीय कहलाये। उन्हीं में से मनुस्मृति के टीकाकार कुल्लुक
भट्ट बारेन्द्र श्रेणी के ब्राह्मण थे। अतएव अपनी टीका के प्रारम्भ में ही
वे लिखते हैं कि :
गौडे नन्दवासिनाम्नि सुजनैर्वन्द्ये वरेन्दयां कुले।
श्रीमद्भट्टदिवाकरस्य तनय: कुल्लूकभट्टो भवत्॥
जिसका अर्थ यह हैं कि गौड़ देश के वारेन्द्र श्रेणी के ब्राह्मणों के
नन्दवासा नामक कुल में श्रीमद्भट्ट के पुत्र कुल्लूकभट्ट हुए।
जब कन्नौज से इस देश में ब्राह्मण आये तो, उनके विषय में भिन्न-भिन्न मत
हैं कि वे लोग फिर गौड़ देश से कन्नौज में लौटे। परन्तु उनके देशवालों में
मगधऔर बंगादि देशों में जाने के कारण उनका सत्कार न किया। इसलिए फिर लौट
गये और गौड़ देश में ही स्थित हुए। किसी का मत उनके वहाँ ठहरने के विषय में
भिन्न ही हैं और किसी का और ही। यह बात 'गौड़ हितकारी' मासिक पत्र के देखने
से स्पष्ट विदित होती हैं, जो मैनपुरी से निकलता हैं। उसमें 'गौड़ देश में
ब्राह्मण' शीर्षक लेख में जो अप्रैल सन् 1915 ई. से प्रतिमास प्रकाशित होने
लगा हैं, बहुत से प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर इन बातों को दिखलाया हैं।
उसी पत्र के सितम्बर सन् 1915 ई. के अंक के दूसरे पृष्ठ में लिखा हैं कि
''बल्लालसेन के पिता विजयसेन के पश्चात् बल्लालसेन ने राढ़ी एवं वारेन्द्र
श्रेणी विभाग, एवं वारेन्द्र कुल में कौलीन मर्यादा स्थापित की एवं राढ़ीय
श्रेणी में दानत्यागी कुलीन ब्राह्मणों का आदर-सत्कार किया।'' कहते हैं कि
''बल्लालसेन ने एक स्वर्ण निर्मित गोमूर्ति दान की। परन्तु कतिपय राढ़ी
ब्राह्मणों ने इस स्वर्ण निर्मित धेनु के टुकड़े-टुकड़े करके स्वस्वभाव ग्रहण
किया। इससे बल्लालसेन को दु:ख हुआ और दानग्राही ब्राह्मणों को उन्होंने
समाज से बहिष्कृत कर दिया।'' इससे उस समय गौड़ देशीय राढ़ीय ब्राह्मणों का एक
दल दान त्यागी था और दूसरा दानग्राही ऐसा प्रतीत होता हैं। इसके अनन्तर,
ऐसा मालूम होता हैं कि जब यवनों का आधिपत्य बंगदेश में विशेष हुआ जिसके आज
तक अनेक प्रमाण हैं और जो बात इतिहासज्ञों से छिपी नहीं हैं, तब, अथवा अन्य
उन्हीं कारणों से, जिनका वर्णन अन्य ब्राह्मणों के विषय में पूर्व कर चुके
हैं, वे गौड़ देशीय ब्राह्मण गौड़ देश से पश्चिम को चले हैं। परन्तु
कान्यकुब्ज प्रभृति ब्राह्मणों ने बंगादि देशों में जाने और रहने से अपने
पास रहने नहीं दिया हैं। इसलिए और कुरुक्षेत्र के पास के देशों को किसी और
कारण से भी अनुकूल जानकर वे गौड़ देश के दोनों दलवाले दानत्यागी और ग्राही
ब्राह्मण वहीं रह गये हैं। इसमें प्रबल प्रमाण यह हैं कि जहाँ अन्य गौड़ पाए
जाते हैं वहीं तगे लोग भी। 'कान्यकुब्जा द्विजा: सर्वे' यह प्रसिद्ध होने
और उन्हीं के एक दल के पीछे से गौड़ नाम वाला प्रसिद्ध और पंच द्राविणों तक
विस्तृत होने से प्रथम जिन पाँच दलों का नाम कान्यकुब्ज था, वे ही अब गौड़
कहलाये। जैसे सूर्य वंश का नाम पीछे से रघुवंश भी हुआ। इसी से शक्ति संगम
तन्त्र में 'पंचगौड़ा:' इत्यादि लिखा हैं, जिसे लोग सह्याद्रि खण्ड और
भविष्यपुराण का बताते हैं।
अस्तु, बल्लालसेन के समय में दान त्याग से उनका नाम प्रसिद्ध हो गया। इसलिए
वे लोग दान त्यागी कहलाने लगे और दूसरे लोग ज्यों के त्यों कहलाते थे।
परन्तु जब गौड़ देश से कुरुक्षेत्र के आसपास आ बसे, तो अन्य ब्राह्मण तो
पूर्वोक्त नियमानुसार गौड़ देश के नाम से गौड़ कहलाने लगे और दान त्यागी लोग
गौड़ दान त्यागी, जो बिगड़ते-बिगड़ते काल पाकर गौड़ त्यागी होकर फिर त्यागी,
तागी, तगा इत्यादि हो गया। इसलिए अब वे लोग गौड़ तगा या तगा कहलाते हैं। यदि
उनमें भी कहीं ब्राह्मण शब्द से घृणा हैं, तो उसका कारण दिखला ही चुके हैं।
वे लोग बड़े-बड़े जमींदार हैं, और उनके व्यवहार राजसी हो रहे हैं। गौड़ों में
जो आदि गौड़ कहलाते हैं उनका भी यही अर्थ हैं कि जिनको आदि शूर ने गौड़ देश
में बुलाया था अथवा जो प्रथम गौड़ देश में गये, या वहाँ से प्रथम आकर इन
देशों में बसे। इन दान त्यागी गौड़ों के विवाह सम्बन्धदि प्राय: अन्त गौड़ों
के साथ सहारनपुर, अम्बाला आदि जिलों में होते हैं। परन्तु महियाल लोग तो
अन्य सरस्वतों के यहाँ अपने पुत्रों का ही प्राय: विवाह करते, अपने को उनसे
श्रेष्ठ समझते और प्राय: लड़कियाँ उन्हें नहीं देते हैं। इस तरह से उत्तर
भारत के-(1) भूमिहार, (2) दान त्यागी या तगे, (3) महियाल, (4) जमींदार (5)
पश्चिम आदि नामधारी अयाचक ब्राह्मण ही इस समय एक-से हैं और इनके आचार,
विचार, नाम और प्रतिष्ठा इत्यादि भी समान ही हैं।
इसी प्रकार यदि बंगदेशीय ब्राह्मणों को देखिये तो वहाँ भी दो दल हैं, अयाचक
लोग देवशर्मा कहे जाते हैं, तथा याचक दलवाले भट्टाचार्य एवं दक्षिण में
अयाचक लोग प्राय: राव कहलाते हैं तथा याचक दल वाले भट्ट। महाराष्ट्र के
चितपावन लोग, जिनमें लोकमान्य तिलक हुए हैं, अयाचक ही हैं। गुजरात देश के
नागरों का हाल कह ही चुके हैं। उस गुजरात में मुझे बहुत से ऐसे ब्राह्मण
मिले, जिनकी वंश-परम्परा की पदवी अयाची हैं, जिसका अर्थ अयाचक हैं।
कान्यकुब्जों और सर्यूपारियों में भी इन जमींदार और भूमिहार ब्राह्मणों को
छोड़कर और भी प्राय: बहुत से ऐसे ब्राह्मण सर्यूपार और कान्यकुब्ज देश में
अधिकतर पाये जाते हैं, जो प्रतिग्रह से घृणा करते हुए केवल कृषि,
वाणिज्यादि द्वारा ही जीविका करते और कुलीन समझे जाते हैं। मैथिलों में भी
प्राय: श्रेत्रिय तथा अन्य भी बहुत से अयाचक ही हैं एवं उत्कल ब्राह्मणों
में भी बहुत से अयाचक ही हैं, जो जाजपुर स्थान के नाम से जाजपुरी कहे जाते
हैं और पडया भी। इसी तरह इस समय की कान्यकुब्जों में बहुत से दान त्यागी
ब्राह्मण जगद्वंशी और धनंजयी कहलाते हैं।
यद्यपि इन सबों के साथ भूमिहार, जमींदार, तगे और महियाल आदि अयाचक विप्रों
के खान-पान आदि नहीं हैं, तथापि इस कथन का तात्पर्य यह हैं कि जो अनादि काल
से याचक और अयाचक दो प्रकार के ब्राह्मण कहलाते थे, उनका इस समय भी किसी भी
देश या प्रान्त में अभाव नहीं हैं। अत: इनमें से जिनके वंश उज्ज्वल या
आचार-व्यवहार अच्छे हो, उनके साथ खान-पान, विवाह आदि करने में कोई हर्ज
नहीं हैं।
अस्तु, यह बात सिद्ध हो गयी कि ब्राह्मणों की सभी नूतन संज्ञाएँ यवन काल
में प्रचलित हो गयीं। तदनुसार भूमिहार, तगा (दानत्यागी) और महियाल संज्ञाएँ
भी उसी काल में पड़ीं। और यह भी सिद्ध हो गया कि प्रथम भूमिहार और तगा
(दानत्यागी) संज्ञा कान्यकुब्जादि ब्राह्मणों के ही एक-एक दल की हुई और
भूमिहारादि शब्दों के अर्थ भी विदित हो गये। इसलिए जो लोग ऐसी कुकल्पना
करते हैं कि ''जब मदारपुर के ब्राह्मण लोग भूमि को हार गये, तो उनका नाम
भूमिहार पड़ा'' वह अज्ञानपूर्ण हैं क्योंकि व्याकरणादि भी इस अर्थ की
पूर्वोक्त रीति से स्थान नहीं दे सकते। और यदि हारने पर ही नाम पड़ा तो जब
मदारपुर के अधिपति थे उस समय लड़ाई से पूर्व काल में वे लोग क्योंकर भूमिहार
कहे गये? और पीछे भी भूमिहार क्यों कहा गया? क्योंकि आपकी सुबुद्धि में तो
यह असम्भव बात समाई हैं कि सभी मर गये। और गर्भू तो लड़ाई में था ही नहीं,
क्योंकि उसकी माता अपने पिता के घर या अन्यत्र थीं और वह गर्भ में था। क्या
आपको कहीं ऐसा भी मिला हैं कि लड़ाई में सभी मार डाले गये? क्या आजकल के समय
में भी कोई भी कादर न था। इसलिए ये सब कुकल्पना मात्र हैं। वास्तव अर्थ तो
पूर्व में ही दिखला चुके हैं। यदि 'तुष्यतु दुर्जन' न्याय से आपके इस
कल्पित अर्थ को स्वीकार कर भी ले, तो भी भूमिहार ब्राह्मणों के विषय में
कोई हर्ज नहीं हैं। क्योंकि पूर्वोक्त रीति से जो युद्ध में इधर-उधर भाग
गये, वही ब्राह्मण भूमिहार कहलाये। यदि 'भूम्या भूमेर्वा हारा भूमिहार:'
अर्थात् जो भूमि के हार रूप हो वे ब्राह्मण भूमिहार कहलाते हैं। जैसे
भूमिसुर या भूसुर का अर्थ भूमि सम्बन्धी (अर्थात् इस लोक का) सुर यानी
देवता हैं, अत: ब्राह्मण भूसुर कहलाते हैं। जैसे पति स्त्री का भूषण रूप
होने के कारण उसका हार कहलाता हैं, वैसे ही पृथ्वी रूप स्त्री के पति होने
से यह अयाचक ब्राह्मण भी भूमिहार कहलाने लगे, ऐसी कल्पना आप करते, तो आपकी
बुद्धिमानी की प्रशंसा की जाती।
अस्तु, ये भूमिहार ब्राह्मण कन्नौज से पूर्वोक्त मदारपुर वाले युद्ध में
हटकर काशी के आसपास के प्रान्तों में भी फैल गये, क्योंकि वे निकट हैं, न
कि अधिक पूर्व के देश। और अन्य अयाचक ब्राह्मणों के इनमें मिल जाने से जैसा
कि कह चुके हैं, इनकी संख्या बढ़ने लगी। उसी समय जो अयाचक ब्राह्मण बड़े-बड़े
जमींदार, या शक्ति-सम्पन्न और शस्त्राधारी थे, परन्तु अभी तक इस भूमिहार
संज्ञा वा विशेषण से भूषित न थे, और जो बढ़ते-बढ़ते तिरहुत प्रान्त के
मुजफ्फरपुर, दरभंगा प्रभृति जिलों में चले गये, उन्हें मिथिला देश के
निवासी ब्राह्मण प्रभृति अपने को पृथक् रखने के लिए पश्चिम देश से आये हुए
ब्राह्मण जान पश्चिमीय ब्राह्मण कहने लगे। जो शब्द आज तक मिथिला प्रान्त
में बिगड़कर 'पश्चिम ब्राह्मण' इन्हीं अयाचक ब्राह्मणों के लिए कहा जाता
हैं। और इसके साथ ही उस देश के भी जो बहुत से अयाचक ब्राह्मण थे और जिनका
व्यवहार याचक मैथिलों को पसन्द न था और न उनका अयाचक ब्राह्मणों को, वे भी
इन पश्चिम ब्राह्मणों से विवाह आदि करके इनमें मिलने लगे। यह पश्चिम
ब्राह्मणों का मैथिलों के साथ विवाह और परस्पर खाने-पीने की प्रथा आज तक
प्रचलित हैं और बहुत से मैथिल ब्राह्मण मूर्ध्दन्य पश्चिम ब्राह्मणों में
इसी कारण मिलते चले जा रहे हैं, जिनका निरूपण आगे करेंगे। इसलिए पश्चिम
ब्राह्मण का अब अर्थ हो गया कि जो ब्राह्मण पश्चिम के कान्यकुब्जादि देशों
से तिरहुत में आये अथवा जो तिरहुत वाले भी विवाहादि द्वारा उनमें मिलते
गये। साथ ही, इन पश्चिम ब्राह्मणों ने भूमिहार ब्राह्मणों को ही अपने
सम्बन्ध योग्य समझा, इसलिए काशी के समीपवर्ती प्रान्तों में रहने वाले इन
भूमिहार ब्राह्मणों के साथ विवाहादि करना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार से
उनके इन भूमिहार ब्राह्मणों में मिल जाने से भूमिहार ब्राह्मणों का सम्बन्ध
मिथिला प्रदेश में भी यद्यपि हो गया। तथापि इनके लिए वहाँ वही पश्चिम
ब्राह्मण शब्द अब तक प्रचलित हैं। कहीं-कहीं केवल पश्चिम शब्द भी आता हैं।
इस 'पश्चिम ब्राह्मण' शब्द के विशेष प्रचार होने का कारण यह हैं कि जब
मिथिला देश में कायस्थों और ब्राह्मणों को पंजी (मैथिल वंशावली) लिखी जाने
लगी, जिसके अनुसार ही आज की मैथिल सभा केवल मैथिल ब्राह्मणों की ही नहीं
हैं, किन्तु मैथिल कायस्थों की भी हैं और वहाँ ब्राह्मण और कर्ण कायस्थ
दोनों ही अपने को मैथिल ही कहते हैं और पाग (पगड़ी) भी दोनों की प्राय:
एक-सी होती हैं। तो जैसे मैथिल कायस्थों से अन्य कायस्थों को पृथक् करने के
लिए कायस्थ के साथ पश्चिम शब्द लगने से पश्चिम कायस्थ कहलाने लगे, वैसी ही
इन अयाचक ब्राह्मणों को मैथिल ब्राह्मणों से पृथक् करने के लिए ब्राह्मण
शब्द के साथ पश्चिम शब्द लगाकर ये ब्राह्मण पश्चिम कहलाने लगे। अब भूमिहार
ब्राह्मण महासभा के उद्योग से कहीं-कहीं भूमिहार शब्द सुनने में आता हैं।
हाँ मगध और तिरहुत प्रान्त में भी बाभन शब्द का प्रचार हैं। उनमें से मगध
में विशेष रूप से और तिरहुत में भी कहीं-कहीं केवल यह शब्द बोला जाता हैं।
परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि आजकल प्राय: प्रत्येक प्रान्त में ब्राह्मण
मात्र के ही लिए बाभन शब्द का प्रयोग होता हैं। इसका प्रचार तो यहाँ तक हो
गया हैं कि जो लोग संस्कृत पढ़े-लिखे धुरन्धर विद्वान् समझे जाते हैं, वे भी
किसी-किसी विशेष समय को छोड़ अपने या सभी ब्राह्मणों के लिए बाभन शब्द का ही
प्रयोग साधारण बोलचाल में किया करते हैं। जैसा कि 'करिया बाभन गोर चमार,
इनके संग न उतरे पार' इत्यादि किंवदन्तियाँ भी सूचित करती हैं। इसी प्रकार
से मिथिला के मैथिल लोग तो अपनी भाषा के व्यवहार में सभी ब्राह्मणों को
बाभन कहा करते हैं। जैसा कि 'सोतियो बाभन थीक और कंटा हो बाभन थीक, बाभनो
सब तरहक होइछथ' इत्यादि जिसका तात्पर्य यह हैं कि ''श्रेत्रिय भी ब्राह्मण
ही हैं और महापात्रा (प्रेत ब्राह्मण) भी। ब्राह्मण भी सभी तरह के होते
हैं।'' थोड़ा पश्चिम जाने पर भी बाभन या बम्भन शब्द का प्रयोग मिलता हैं,
जैसा कि ''क्यों जी आप तो बम्भन की तरह खटराग करते हैं'' इत्यादि। इसी
प्रकार अन्य देश में भी ''करिया बाभन गोर शुद्दर ताहि देखि डरे रुद्दर।''
तात्पर्य यह हैं कि सभी प्रान्त में बाभन शब्द को ही बाभन का बोधक पाते
हैं, और यह उचित भी हैं। क्योंकि संस्कृत ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश बाभन
शब्द हैं, जैसे वाराणसी का बनारस, चतुर्वेदी का चौबे, त्रिवेदी का तिवारी,
और मार्ग का मग इत्यादि। और आजकल प्राय: अपभ्रंश शब्दों का ही व्यवहार होता
हैं। यह बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द से क्योंकर बिगड़ते-बिगड़ते बना, इसका
विस्तृत विचार पटना प्रान्तान्तर्गत अमहरा ग्राम निवासी श्री काशीचरण
सिंहजी ने 'बाभन' नामक ग्रन्थ में किया हैं। जिसके देखने से इस विषय तथा
अन्य उपयोगी विषयों में ज्ञान प्राप्त हो सकता हैं। वह अवश्य दृष्टव्य हैं।
सारांश यह हैं कि मैथिली भाषा में श्रेत्रिय शब्द की जगह सोतिय अथवा सोत
शब्द का प्रयोग करते हैं, जैसा कि अभी दिखला चुके हैं। श्रेत्रिय शब्द के
दोनों प्रकार उड़ा दिये गये हैं और श्रावण तथा चैत्रादि शब्दों की जगह भी
सावन और चैत शब्द ही बोले जाते हैं। एवं महीष शब्द के मकार की जगह 'भैं'
शब्द बोल कर हृकार, मकार अक्षरों की जगह 'स' भानस शब्द का प्रयोग होता हैं,
जिसका अर्थ रसोईघर हैं। इसीलिए रसोई बनाने वाले को वहाँ के लोग 'भनसिया'
कहा करते हैं। इन दृष्टान्तों से स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार ब्राह्मण
शब्द बिगड़ते-बिगड़ते बाभन हो गया। विशेषकर मैथिल भाषा में इसके विशेष
दृष्टान्त मिलते हैं। इसीलिए उस भाषा में ब्राह्मण शब्द की जगह बाभन ही
होना चाहिए जैसी कि उस भाषा की रीति विदित हो गयी होगी। इसी से
तिरहुतप्रान्त में अन्य ब्राह्मणों के लिए और इस अयाचक दल वाले ब्राह्मणों
के लिए भी बाभन शब्द का प्रयोग होता हैं। क्योंकि 'जैसा देश वैसा भेष' इस
नियमानुसार उस देश में उसी देश की भाषा के शब्द का प्रयोग करना या होना
उचित ही हैं।
मगध देश मिथिला का समीपवर्ती हैं। इसी से पूर्वकाल में भी मगध और उसका
सम्बन्ध बहुत रहा हैं, जैसा कि बौद्ध काल आदि के इतिहासों से विदित होता
हैं। साथ ही, जैसा कि काशी प्रान्त के आचार-विचार से मगध का आचार-विचार
एकदम विपरीत ही हैं, वैसा मिथिला देश से नहीं, किन्तु दोनों देशों के
आचार-विचार प्राय: मिलते हैं। ये भी दोनों देशों के प्राचीन सम्बन्ध को
सिद्ध करते हैं। और जिस बिहार अथवा बंगाल का भाग मगध हैं उसी का तिरहुत भी
हैं। परन्तु काशी उससे पृथक् हैं, क्योंकि प्राय: जिन-जिन प्रान्तों के
आचार इत्यादि एक प्रकार के होते हैं वे ही एक में सम्मिलित किये जाते हैं।
इसलिए यह आज तक देखने में आता हैं कि मिथिला प्रान्त के अयाचक अथवा याचक
ब्राह्मणों के जितने विवाह सम्बन्ध प्रभृति मगध देश में हैं, उतने तिरहुत
से बाहर अन्यत्र काशी प्रभृति प्रान्तों में नहीं हैं। क्योंकि जिन लोगों
की भाषा इत्यादि के समझने में विशेष क्लेश नहीं होता, उनके ही सम्बन्ध
परस्पर होने में आसानी होती हैं। मिथिला की भाषा भी मगध से मिलती-जुलती
हैं। इन्हीं सब कारणों से मगध देश में भी उसी मिथिला देश वाले, अथवा उस
भाषा वाले बाभन शब्द का व्यवहार सभी याचक और अयाचक ब्राह्मणों के लिए आता
हैं। न कि काशी प्रान्त के भूमिहार और प्रयाग के जमींदार शब्द का प्रयोग
अयाचकों के लिए आज तक आया हैं। क्योंकि जिसका सम्बन्ध प्रबल होता हैं वही
अपनी ओर उसे सब तरह से घसीटता हैं। इसीलिए छपरा जिले के पूर्वी भाग में भी
बाभन शब्द ही ब्राह्मणों के लिए आता हैं। क्योंकि वह मिथिला से बहुत निकट
और काशी प्रान्त से बहुत दूर हो गया हैं। अत एव वहाँ के बहुत से आचार-विचार
भी तिरहुत से मिलते हैं।
सबसे बड़ा प्रमाण छपरा, तिरहुत और मगध के प्राचीन सम्बन्ध का यह हैं कि बहुत
से मैथिल और पश्चिम आदि जो ब्राह्मण वहाँ पाये जाते हैं, वे बहुतेरे या तो
छपरा से गये हैं, अथवा मगध देश से। जैसे कि एकसरिया, जैथरिया, दिघवे अथवा
दिघवैत, सहौलिया, दंसवार और कोदरिया प्रभृति छपरा से तिरहुत आदि में गये
हैं, और आरे, सिहुलिया वा सिहोगिया या सोहगौरिया, नैनजोरा इत्यादि मगध से
तिरहुत या छपरा में गये हैं। इसीलिए इन सभी का भाषा इत्यादि में मेल हैं।
इसलिए मिथिला भाषा का ही बाभन शब्द मगध या छपरा में भी बोला जाता हैं,
इसमें सन्देह नहीं हो सकता। इसीलिए जो लोग पाण्डित्य के गर्व में यह
कुकल्पना करते हैं-जैसा कि मि. ई. ए. गेट साहब ने सन् 1901 ई. की
भारतवर्षीय मनुष्यगणना के विवरण की छठवीं जिल्द के 279 पृष्ठ के पैरा 610
के फुटनोट (टिप्पणी) में म. म. हरिप्रसाद शास्त्री की सम्मति लिखी हैं, जो
उन्होंने एशियाटिक सोसाइटी के जर्नल में दिखलाई थी कि जो ब्राह्मण बौद्ध
काल में या तो बौद्ध हो गये थे या उसका प्रभाव उसके ऊपर पड़ गया था, उनके ही
लिए बाभन शब्द प्रयुक्त होता हैं। क्योंकि यह शब्द भी बौद्ध धर्म की पालि
भाषा का हैं इत्यादि। उनकी कल्पना की प्रशंसा जहाँ तक कि जाये सब थोड़ी ही
हैं। क्योंकि इस कुकल्पना से तो प्राय: सभी ब्राह्मण जैसा कि दिखला चुके
हैं पूर्वकाल के बौद्ध सिद्ध हो जायेगे। फिर उनके मत में ब्राह्मण शब्द
किसके लिए होगा? क्या पंजाब प्रान्त तथा प्रयाग के पश्चिम बौद्धधर्म का
प्रभाव न था? अथवा दक्षिणात्य प्रान्तों में बौद्ध धर्म का प्रबल
प्रतापादित्य उदित न हुआ था? यह तो आजकल के पुरातत्त्वविभाग और प्राचीन
इतिहासों से स्पष्ट ही हैं। फिर उन प्रान्तों में आपके मत से किसी भी
ब्राह्मण के लिए बाभन शब्द का प्रयोग आज क्यों नहीं मिलता? इस कल्पना से तो
आप यह भी कह सकते हैं कि आजकल प्राय: जितने अपभ्रंश (पालिभाषा के) शब्द
हिन्दी या देशी भाषाओं में जिन जड़, चेतन सभी वस्तुओं के लिए बोले जाते हैं,
वे सब वस्तुएँ भी बौद्ध हो गयी थीं। जिस तरह मिथिला भाषा का बाभन शब्द
बौद्ध ब्राह्मणों के लिए हैं, उसी प्रकार के 'भानस' आदि शब्द भी बौद्ध
रसोईघर के लिए होने चाहिए। क्योंकि जब मनुष्य बौद्ध होते होंगे, तो उनके
रसोईघर भी उसी धर्म के अनुयायी हो जाते होंगे। अथवा इन शब्दों तथा अन्य
अपभ्रंश बनारस, सावन, भादों, चौबे, दूबे प्रभृति के लिए और उपाय निकालिए।
इसलिए इन सब कुकल्पनाओं का अवकाश यहाँ नहीं हैं।
इसी से मि. जान बीम्स ने जो लिखने का साहस दिखलाया हैं कि
"Bhumihars are
also called Babhans, by which the people say is, meant a Sham Brahman."
अर्थात् भूमिहार लोग बाभन भी कहलाते हैं, जिसका अर्थ लोग यह बतलाते हैं कि
'दोगला ब्राह्मण।' उसका भी खण्डन हो गया क्योंकि इस प्रकार से तो सभी
ब्राह्मण दोगले सिद्ध हो जायेगे, क्योंकि सभी बाभन कहलाते हैं, जैसा कि
दिखला चुके हैं। इसका विशेष विचार आगे होगा। हाँ हम इतना अवश्य स्वीकार
करेंगे कि बाभन शब्द ब्राह्मण शब्द का अपभ्रंश होने से चौबे, दूबे
भूमिहारादि शब्दों की अपेक्षा प्राचीन हैं। इसीलिए पालि लेखों में भी
कहीं-कहीं पाया जाता हैं, और इसीलिए उसका प्रचार भी पुराना हैं न कि इन
शब्दों का समकालीन हैं। चाहे यह बाभन शब्द कैसा हो और कभी का भी हो, परन्तु
पूर्वोक्त युक्तियों से सही मानना पड़ेगा कि उसका विशेष रूप से प्रचार
मिथिला देश से ही और उसी भाषा के अनुरोध से हुआ हैं इस तरह से जिन अयाचक
ब्राह्मणों की स्थिति मगध प्रान्त में थी उन्होंने सदृश और योग्य जमींदार
और भूमिहार ब्राह्मणों अथवा पश्चिम ब्राह्मणों के साथ सम्बन्ध करना
प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार मगध प्रान्त में भी अयाचक ब्राह्मणों की
स्थिति नामान्तर से हो गयी, जैसी कि मिथिला में। इसी प्रकार से प्रयाग और
बाँदा प्रभृति प्रान्तों में पूर्वोक्त रीति से यही लोग अभी तक जमींदार
ब्राह्मण कहलाते हैं। इसलिए निर्विवाद सिद्ध हो गया कि ये अयाचक ब्राह्मण
इन देशों में कहीं भूमिहार ब्राह्मण, कहीं पश्चिम ब्राह्मण, कहीं केवल बाभन
या ब्राह्मण और कहीं जमींदार ब्राह्मण इत्यादि नामों से पुकारे जाते रहे
हैं और बिजनौर, अम्बाला आदि जिलों में तगा या दानत्यागी और झेलम, गुरदासपुर
आदि जिलों में महियाल कहलाते हैं। परन्तु वस्तुत: ये सभी एक ही हैं।
अर्थात् एक आचार वाले अयाचक ब्राह्मण।
इसीलिए मिस्टर क्रुक ने भी अपनी अंग्रेजी पुस्तक 'संयुक्त प्रान्तीय जाति
विवरण।' (The Tribes and Castes of U.P. and Oudh) के द्वितीय भाग के 64वें
पृष्ठ में लिखा हैं कि : Bhuinhar (Sanskrit Bhumi ‘land’ kara (har)
‘maker’). An important tribe and landowners and agriculturists in
eastern districts. They are also known as Babhan, Zamindar Brahman,
Grihastha Brahman, or Pachchima or ‘western' Brahmans.’
जिसका अर्थ यह हैं कि ''भुइंहार शब्द संस्कृत के भूमिहार शब्द का अपभ्रंश
हैं, जिसके भूमि शब्द का पृथ्वी और हार का अधिकार करनेवाला अर्थ हैं। यह एक
प्रसिद्ध जमींदार और खेती करनेवाली जाति हैं, जो संयुक्त प्रान्त के
पूर्वीय जिलों में पाई जाती हैं। भूमिहार लोग बाभन, जमींदार ब्राह्मण,
गृहस्थ ब्राह्मण और पश्चिम ब्राह्मण भी कहे जाते हैं।''
यह सिद्ध कर चुके हैं कि ये अयाचक नामधारी ब्राह्मण प्रथम थोड़े से मदारपुर
के कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, परन्तु धीरे-धीरे इनमें सभी धनी और शक्तिशाली
अयाचक जमींदार मिलते गये, जिससे इनकी संख्या आज बीस-पच्चीस लाख के लगभग हो
गयी हैं। प्रसिद्ध दृष्टान्त ये हैं :
महाराज द्विजराज श्रीकाशीराज और सभी गौतम भूमिहार ब्राह्मण सर्यूपारी हैं।
इसी तरह गाजीपुर के अन्तर्गत करण्डा परगने के पुरैना ग्रामवासी भूमिहार
ब्राह्मण भी सर्यूपारी, गौतम गोत्री, कित्थू मिश्र के वंशज हैं। जिनके
पूर्वज पूरण मिश्र और पुरन्दर मिश्र गोरखपुर जिले के भटनी ग्राम के पास
पिपरा स्थान से लगभग 1740 ई. में आये और अपने ही नाम से पूरैना ग्राम
बसाया, जो पूरणायन से बिगड़कर पुरैना हो गया। वहाँ के राजपूतों के जबरदस्त
होने से महाराज बलवन्त सिंह की तरफ से इन्हें 2400 बीघे की जमींदारी मिली
और उन्होंने ही इन्हें 'राय' की पदवी भी दी। अब तक वहाँ के राजपूत जब पाँच
कोस करण्डा परगने के ब्राह्मणों को खिलाते हैं, तो इन लोगों को भी
निमन्त्रण देते हैं। यद्यपि ये लोग अयाचक होने से अब उनके द्वार पर जाकर
फिर लौट आते हैं, न कि भोजन करते हैं। भूमिहार ब्राह्मण महासभा के
सेक्रेटरी श्री रघुनन्दन प्रसाद सिंहजी कोदरिया मैथिल हैं, जिनका एक भाई आज
तक मैथिल ही हैं। सुरसर के महाराज भी मैथिल ब्राह्मण ही हैं, जिनकी 'झा' की
पदवी आज भी हैं। नरहन इत्यादि के राजा बाबू जो दोनवार कहलाते हैं,
कान्यकुब्ज हैं। वे वत्स गोत्रीय देवकली के पाण्डेय हैं, जिनके ही वंशवाले
जनकपुर के पास हिसार ग्राम और छपरा के बभनगावाँ में आज तक पाण्डेय की ही
पदवी से भूषित हैं। एकसरिया और सहदौलिया जो क्रमश: छपरा के चैतपुर, बगौरा
आदि ग्रामों और दरभंगा के पतौर प्रभृति में पाये जाते हैं और जिनकी पदवी आज
तक दीक्षित और मिश्र हैं, पराशर गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। इसी
प्रकार नैनजोरा लोग, जो आज तक पहलेना घाट तथा नैनीजोर में तिवारी ही कहलाते
हैं, नैनीजोर के तिवारी सर्यूपारी हैं। इसी प्रकार छपरा के बहुत से धनगड़हा,
अटौली प्रभृति ग्रामों में डुमरा के सर्यूपारी ओझा पाये जाते हैं और आज तक
अपने को डुमरैत तथा ओझा ही कहते हैं। दरभंगा के पूसा रोड स्टेशन के पास
'खैंरी' ग्राम के लोग अभी तक पाण्डेय कहलाते हैं और अपने को पराशर गोत्री
और हस्तगामे कहते हैं, जो हस्तगाम के सर्यूपारी पाण्डेय हैं।
इसी प्रकार सिमरी, आरा के पाण्डेय लोग मनेर के पाण्डे मनेरिया कहाते हैं,
ये सर्यूपारी हैं। टेकारी महाराज प्रभृति जिनमें से कहीं-कहीं लोग कारण वश
तिवारी और दूबे भी बोले जाते हैं, दुमटिकार या दुमटेकार के पाण्डेय अथवा
तिवारी हैं। जिनके समाज वाले प्रयाग प्रान्त में इसी नाम वाले अब तक पाये
जाते हैं, जैसा कि आगे विदित होगा। ये लोग भी दुमटेकार ही कहलाते हैं।
कहीं-कहीं लोग भूल से शब्दों का उलट-फेर करके दुमकटार या डोमकटार बोलते
हैं। परन्तु दुमटिकार कहना ही उचित हैं क्योंकि प्रयाग आदि में यही नाम हैं
और वहाँ टिकारा नाम का एक स्थान भी हैं। इसलिए डोमकटार नाम को सुनकर बिना
विचारे अज्ञानमूलक जो कुकल्पनाएँ की जाती हैं वे रद्दी हैं। सकरवार लोग
कन्याकुब्ज ब्राह्मण फतहपुर जिले के फतुहाबाद स्थान के सांकृत गोत्री मिश्र
हैं, जिनके वंशवाले बंगाल के मुर्शिदाबाद प्रभृति जिलों के काँदी इत्यादि
स्थानों में मिश्र ही कहलाते हैं, जैसे मणीन्द्रनारायण मिश्र इत्यादि और
आरा के दुधारचक में भी। इसी प्रकार किनवार लोग क्यूना के दीक्षित काश्यप
गोत्रीय कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। मुजफ्फरपुर के मथुरापुर प्रभृति ग्रामों
के पं. राजनारायण शुक्ल वगैरह मामखोर के शुक्ल गर्ग गोत्रीय सर्यूपारी
ब्राह्मण हैं। आजमगढ़ के सिकरौरा बहादुर पुर आदि ग्रामों एवं गाजीपुर के
धुवार्जुन आदि ग्रामों के केवल भारद्वाज और भरद्वाज गोत्रीय चौधुरी लोग
मचैया पाण्डेय सर्यूपारी हैं एवं टीकापुर, बीबीपुर प्रभृति ग्रामों के श्री
मथुरा प्रसाद सिंह वगैरह भृगुवंशी लोग भार्गव (वत्स) गोत्री कनौजिया पाण्डे
हैं, जिनके ही वंश वाले बस्ती के कोटिया आदि ग्रामों में अब तक पाण्डे
कहलाते हैं। गाजीपुर के दवा नामक ग्राम में काश्यप गोत्रीय जिझौतिया
ब्राह्मण हैं। जो बुन्देलखण्ड के बाँदा, हमीरपुर इत्यादि जिलों में बहुत
पाये जाते हैं और सभी अयाचक और जमींदार होते हैं। जिनमें से बहुतेरे राय,
सिंह इत्यादि कहलाते हैं। जैसा कि चित्रकूट में श्री दर्यावसिंह एक
जागीरदार हैं, जो जिझौतिया ब्राह्मण हैं और बहुत प्रतिष्ठित हैं। ये लोग
कान्यकुब्ज ब्राह्मणों के ही भेद हैं और हमीरपुर इत्यादि प्रान्तों में न
रहने से जिझौतिया कहलाये। क्योंकि उस देश का प्र्राचीन नाम जिझौती था। जैसा
कि मिस्टर क्रुक ने अपने पूर्वोक्त ग्रन्थ के प्रथम भाग के 35वें पृष्ठ में
जिझौतियों के विषय हुए लिखा हैं कि :
"A branch of the
Kanaujia Brahmans. Who take their name from the country of Jajakshuku,
which is mentioned in the Madanpur inscription. Of this General
Cunningham writes:—‘The first point deserving of notice in these two
short but precious records is the name of the country, Jajakshukti,
which is clearly the Jajahauti of Aburihan.’ "
जिसका मर्मानुवाद यह हैं कि ''जिझौतिया (कहीं-कहीं जुजहुतिया भी कहलाते
हैं) ब्राह्मण कान्यकुब्ज ब्राह्मणों की एक शाखा हैं। जिनका यह नाम
जजाक्शुक्ति देश के नाम से पड़ा हैं, जिसका वर्णन मदनपुर (ग्वालियर के पास
एक ग्राम हैं) के प्राचीन लेख में आया हैं। इसके विषय में जनरल कनिंगहम
साहब ने लिखा हैं कि 'मदनपुर के इन दोनों संक्षिप्त परन्तु महत्त्वपूर्ण
लेखों में पहली बात जो ध्यान देने योग्य हैं, वह जजाक्शुक्ति देश का नाम
हैं, जो अबूरिहान के लिखे हुए 'जिझौती' देश का स्पष्ट रूप से दूसरा नाम
हैं।' ''
बलिया जिले के वैरिया ग्राम के प्रसिद्ध कर्मठ 'पाण्डे' को कौन नहीं जानता?
वे भी भूमिहार ब्राह्मण ही हैं। श्रीराम गोपाल सिंह चौधुरी के पिता
पाण्डेजी करके प्रसिद्ध थे। इसीलिए उनके चार पुत्रों में चौधुरी सोना
पाण्डे वैसे ही कहे जाते थे। बनारस के अन्तर्गत कोल परगना वासी कोलहा
भूमिहार ब्राह्मण भी सर्यूपारी ब्राह्मण, कश्यप गोत्री भरसी के मिश्र,
हरिनाथ मिश्र के वंशज हैं। उन महात्मा हरिनाथ मिश्र के दो पुत्रों में से
देवांग मिश्र के वंश में ये लोग और देवशरण मिश्र के वंश में इन लोगों के
पुरोहित हैं। क्योंकि वे लोग भी भरसी के कश्यप गोत्री मिश्र ही हैं।
कहाँ तक गिनाया जाये? समय-समय पर सभी पाठक, चौबे, दूबे, तिवारी, मिश्र,
ओझा, झा इत्यादि ब्राह्मण इस अयाचक नामधारी ब्राह्मण समाज में मिलते गये।
जो आज तक उन्हीं नामों और आस्पदों (पदवियों) से दरभंगा, मुजफ्फरपुर, छपरा,
शाहाबाद, पटना, गया, गोरखपुर और बस्ती एवं प्रयाग प्रभृति प्रान्तों में
पाये जाते हैं। जैसा कि आनापुर प्रभृति ग्रामों में चौधुरी लोग पहितीपुर के
पाण्डेय सर्यूपारी हैं और भरतपुरा वगैरह के अथर्व लोग दक्षिणी ब्राह्मण
हैं।
इसीलिए मिथिला के प्राचीन धुरन्धर विद्वान् मीमांसक महा महोपाध्याय
श्री चित्राधर मिश्रजी का यही कथन हैं कि भूमिहार ब्राह्मण दल में एक
ब्राह्मण नहीं हैं, किन्तु सभी देशों के धनवान अयाचक ब्राह्मण इस दल में
समय-समय पर मिलते गये हैं।
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