(13)गया
के किसानों की करुण कहानी
पहले
कहा जा चुका है कि सन्
1931
ई. में प्रान्तीय कांग्रेस ने गया जिले के प्रमुख किसान सेवकों के
आग्रह से वहाँ और पटने में भी किसानों की दयनीय दशा की जाँच की थी।
मगर उसका फल क्या हुआ यह आज तक पता न चला। न तो उन लोगों ने कोई
रिपोर्ट ही प्रकाशित की और न अखबारों में ही एक अक्षर भी उसके
सम्बन्ध
में लिखा। असल में प्रान्तीय कांग्रेस नेताओं की तो सदा से ही यह
चाल रही है कि मौके पर किसानों से काम ले लेना,
उनके दु:खों को हटाने के लिए सब कुछ करने का
आश्वासन दे देना, और अन्त में चुप्पी मार
जाना।
जिस प्रकार
पहली जाँच का कोई फल न निकला और पीछे बहाना ढूँढ़ निकाला गया कि सन्
1932
के सत्याग्रह संग्राम में पुलिस वे सब कागजात
ऑफिस से ले गयी और वापस न कर सकी। ठीक उसी प्रकार दूसरी लम्बी जाँच
का भी नतीजा कुछ न हुआ, हालाँकि,
इस बार तो कागजों के चले जाने का बहाना भी न था।
ये बातें आगे आयेंगी।
अब सन्
1933
ई. की गर्मियों के बीतते-न-बीतते प्रान्तीय किसान-सभा की कार्यकारिणी
(किसान कौंसिल) की एक मीटिंग पटने में हुई। उसमें तय पाया कि गया के
किसानों के दु:ख-दर्द की पूरी जाँच करके उसकी रिपोर्ट किसान-सभा
छपवाये और उचित कार्यवाही करे। उसके लिए एक जाँच-कमिटी भी पाँच
सदस्यों की बनी,
जिसमें
मैं,
पं. यमुना
कार्यी,
पं. यदुनन्दन
शर्मा,
डॉ. युगल किशोर सिंह
और बाबू बदरी नारायण सिंह यही लोग थे। कार्यी जी
मन्त्री
और संयोजक थे।
बरसात सिर पर
थी। मगर यह भी सोचा गया कि जाँच में देर न हो। उसका काम खामख्वाह
शुरू होई जाय।
फलत:,
जिले में चारों ओर खबर देने,
कहाँ-कहाँ
जाये
यह ठीक करने,
किसानों को पहले से ही वहाँ जमा करने,
सभा करने और प्रोग्राम को ठीक-ठीक पूरा करने के
लिए
प्रबन्ध
करने आदि का भार पं. यदुनन्दन शर्मा पर डाला गया। उन्होंने अपनी
स्वभावसिध्द तत्परता से यह काम ऐसा ठीक किया कि हम सब हैरत में थे।
बरसात के समय में भी घोर देहात का एक प्रोग्राम भी सफल होने बिना न
रहा। ऐसी कामयाबी हुई कि हम दंग रह गये। जहाँ पहुँचते वहाँ आगे के
लिए पहले से ही सवारी आदि का
प्रबन्ध
रहता। सोलह-सोलह,
बीस-बीस मील तक के फासले पर विकट देहात में
लगातार जाना पड़ा! यह भी नहीं कि बीच में एकाध दिन विश्राम हो। वर्षा
के दिनों में पालकी, घोड़ी आदि ही सवारियाँ
हो सकती थीं और उनका पूरा
प्रबन्ध
रहता था।
पाँच सदस्यों
में बदरी बाबू तो आये ही नहीं। हम समझ भी न सके कि गया के दोस्तों ने
उनका नाम क्यों दिलवाया था?
शुरू
से अन्त तक न तो वे जाँच में ही या कमिटी की बैठक में ही आये और न
पत्रादि के द्वारा कोई कारण ही बताया। मगर शेष चार जाँच में शामिल
रहे। डॉ. युगल किशोर सिंह बीच-बीच में गैरहाजिर भी रहे। मगर मैं,
कार्यी
जी और शर्मा जी ये तीनों शुरू से अन्त तक साथ रहे,
यहाँ
तक कि पीछे विचारने और रिपोर्ट की तैयारी के समय भी। लेकिन रिपोर्ट
तो मैंने और कार्यी जी ने ही तैयार की।
जहाँ तक मुझे
याद है,
ता.
15
जुलाई को हमने जाँच का काम शुरू किया। हम चारों ही जहानाबाद स्टेशन
से उतरकर उससे पूर्व और उत्तर के इलाके के धनगाँवा आदि गाँवों के दो
केन्द्रों में दो दिन रहे। उसके बाद मखदुमपुर के इलाके में महम्मदपुर
गये। वह कुर्था थाने में पड़ता है। उसके बाद,
जब कि
पानी पड़ रहा ही था,
हम
मझियावाँ (पं. यदुनन्दन शर्मा के गाँव) के लिए सवेरे ही रवाना हो गये
और भीगते-भीगते पैद ही वहाँ पहुँचे। रास्ते वाले नाले में गर्दन भर
पानी था। उसमें घुसकर ही उसे पार किया। मझियावाँ की दशा वर्णनातीत
थी। फिर टेकारी थाने में भोरी गये। वहाँ से परसावाँ और परैया जाना
पड़ा। उसके बाद फतहपुर थाने में खास फतहपुर गये।
जाँच की
बात तो, 'गया
के किसानों की करुण कहानी' के रूप में
पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। वह पढ़ने ही लायक है।
वे बातें
यहाँ नहीं लिखी जा सकती हैं। लेकिन दो-चार खास बातें लिखेंगे।
हमने प्राय:
दस दिन लगाये?
इस बीच
ज्यादातर मौजे टेकारी राज के ही मिले जो अब सोलहों आने राजा अमावाँ
के ही हाथ में हैं। उनके साठ मौजे हमने देखे। वहाँ किसानों के लिखित
बयानों के सिवाय गवाहियाँ भी लीं। दूसरे छोटे-मोटे जमींदारों के और
खास महाल के भी कुछ मौजे खासकर परैया में हमें मिले। टेकारी के जो
मौजे श्रीमती शहीदा खातून को मिले हैं,
उन्हें
भी देखा। अमावाँ के एक पटवारी ने हमसे कहा कि यहाँ तो हम बेमुरव्वती
से लगान वसूलते हैं। मगर हमारे घर पर लगान में ही हमारी जमीन बिक
गयी। क्योंकि ज्यादा होने से दे न सके और पैदावार भी मारी गयी थी।
अमावाँ राज के
ऐसे भी गाँव मिले जहाँ किसान की जमीन जबर्दस्ती छीनकर राज की कचहरी
उसी पर बना ली गयी थी। मगर लगान किसान से उस जमीन का लिया जाता ही
था।
ईकिल में एक
नाई ने कहा कि हम जमींदार (अमावाँ राज) के बराहिल (नौकर) को रोजाना
रात में तेल लगाया करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वह कहीं चले गये थे।
अत: हम राज की कचहरी में न गये। लौटने पर उनने पता लगाया और बुलवा कर
हमें गैरहाजिरी के लिए सजा दी। हमने जब कहा कि आप थे ही न,
फिर
आते क्यों?
तो
उत्तर मिला कि आते और इस खम्भे में तेल लगा कर चले जाते। क्योंकि आने
और तेल लगाने की आदत तो बनी रहती।
कई जगह यह
शिकायत आयी कि जमींदार के अमले किसानों के बकरों के गले में लाल धागा
बँधावा देते हैं। फिर तो वह उनका हो जाता है। किसान पालपोस के सयाना
करता है। पीछे चार आने देकर उसे ले जाते हैं?
कहीं
गड़बड़ हुई तो दण्ड होता है।
पैंतालीस
प्रकार की गैरकानूनी वसूलियों का पता लगा।
धनगाँवा
में पास ही पास के दो खेतों को देखा तो पता चला कि एक का लगान साल
में पूरे साढ़े बारह रुपये और दूसरे का साढ़े तीन ही है। दूसरा पुराना
था और पहला हाल का बन्दोबस्त किया हुआ। हालाँकि,
जमीन एक ही तरह की और पैदावार भी बराबर ही थी।
मझियावाँ में
कंकड़ीदार खेत का लगान फी बीघा साढ़े तेरह रुपया पाया! उसमें पाँच मन
पैदा होना भी असम्भव था! हजार रुपये साल में लगान देने वाले किसान का
घर पाखाने से भी बदतर था। वह खाने बिना तबाह था! परसामा में नदी के
किनारे निरी बालू वाली जमीन हमने ऑंखों देखी। उसमें जंगली बेर लगे
थे। मगर लगान सम्भवत: पूरे ग्यारह या तेरह रुपया फी बीघा! परैया के
इलाके में देखा कि खास महाल में मिट्टी दिलाने और आब पाशी का प्रबन्ध
होता है। मगर पास ही में अन्य जमींदार कुछ नहीं करते। कई गाँवों में
खास महाल और टेकारीराज की शामिल ही जमींदारी मिली। उसमें खास महाल का
लगान नगद पाया और जमींदार की भावली। जहाँ किसानों के साथ ही जमींदार
की भी खेती (जिरात) होती है,
वहाँ
का जुल्म देखा कि किसानों के हल-बैल मौके पर जमींदार बेगार में ले
जाते हैं। फलत:,
किसानों की खेती बिगड़ जाती है। धान के लिए पानी पहले जमींदार लेता है
और बचने पर ही किसान पाता है। नहीं तो उसका धान सूख जाता है।
इस प्रकार
जाँच करके हम लोग पटने लौट आये। इस जाँच से किसानों की भीतरी जर्जर
दशा की और जमींदारों के जुल्मों की भी प्रत्यक्ष जानकारी तो हुई ही।
साथ ही,
हमने किसानों
को जो स्वयं मुस्तैदी से हमारी जाँच-सभा और अन्य बातों का प्रबन्ध
करते देखा उससे हमारे दिल पर पहले पहल यह असर हो गया कि यदि कोशिश हो
तो किसान जल्द जग पड़ेंगे। क्योंकि क्षेत्र तैयार है। हमें चट्टान से
सिर टकराना या निरे मुर्दों को जगाना नहीं है। हमारा अन्दाज हुआ कि
समय के धक्के से उनकी नींद टूटी है। वे आलस्य में पड़े हैं। किसी
जगाने वाले की प्रतीक्षा में हैं। यह उसी समय की हमारी धारणा है जो
ज्यों की त्यों याद है।
लौटकर एक तरफ
तो हम विस्तृत रिपोर्ट की तैयारी में लगे। दूसरी ओर राजा अमावाँ को
एक पत्र लिखा। वह मसूरी गये थे। वहीं पत्र भेजा। पत्र और उसके उत्तर
दोनों ही सुरक्षित हैं। कई वर्षों के बाद जब एक दिन अकस्मात् वह पत्र
मुझे मिल गया और मैंने पढ़ा तो मुझे अपार आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि
मैं वही हूँ या दूसरा,
मैं
बदल गया या दुनिया ही बदली। पत्र की भाषा और बातें ऐसी हैं कि आज
मुझे उसे पढ़ने में शर्म आती है और यदि उसे कोई आज का साथी,
जो
प्रगतिशील विचार वाला है,
देखे
तो मुझे पक्के दकियानूसी के सिवाय दूसरा समझ सकता ही नहीं। फलत: या
तो मुझ पर और मेरी बातों पर आज सहसा विश्वास ही न करेगा,
या यह
मानेगा कि यह स्वामी सहजानन्द सरस्वती कोई और है,
न कि
उस पत्र का लेखक। फिर भी बात ऐसी नहीं है।
असल में उन
दिनों मेरे विचार वैसे ही थे। मैं ईमानदारी से मानता था कि जमींदारों
को समझाकर तथा उनसे मिल-मिलाकर किसानों के कष्ट दूर किये जा सकते
हैं। उसके आगे न तो मैंने कुछ जाना था और न सोचा ही था। इसी भाव से
मैंने राजा सूर्यपुरा से भी समझौते की कोशिशें की थीं। पर विफल रहा।
इसी भाव से एक बार मैंने राजा अमावाँ को पहले भी समझाया था कि बेगार
और दूध-दही वगैरह वसूलना बन्द करें। वे ऐसा न करें कि उनके ग्वाले
(यादव) किसान अपने को अपमानित समझें। मेरे पास बिहार शरीफ की एक
शिकायत यादव-सभा के मन्त्री ने लिखी थी कि राजा अमावाँ के अमले
यादवों के स्त्री-पुरुषों के सिर पर दही की हँड़ियाँ रखवा कर उन्हें
दही पहुँचाने को बुलाते हैं। यह आत्मसम्मान के खिलाफ है।
उसी भाव से
मैंने सन् 1933
के उत्तरार्ध में मसूरी पत्र भी लिखा कि मेरे सामने अंधेरा है कि
क्या करूँ,
कोई
रास्ता नहीं सूझता कि किसानों के कष्ट कैसे दूर करूँ। मेरा खयाल है
कि सारी बातें जानकर आपका दिल अवश्य द्रवीभूत होगा और उनके कष्ट आप
दूर कर देंगे। आपके यहाँ से निराश होने पर ही दूसरा उपाय ढूँढ़येगा जो
अभी तो कतई नजर आता ही नहीं। भला इससे ज्यादा दकियानूसीपन और क्या
चाहिए?
लेकिन यह ठीक
है। मैंने अपने हृदय के सच्चे भाव लिखे थे। क्योंकि
'मन
में आन और मुख में आन'
वाली
बात मैंने आज तक जानी ही नहीं। पर इसका परिणाम क्या हुआ सो तो आज
सबों के सामने ही है।
राजा अमावाँ
का उत्तर लेकर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी और मेरे पुराने परिचित पं.
रामबहादुर शर्मा एम. ए. आये। राजा साहब भी तो पुराने परिचित ही थे।
शायद इसीलिए ऐसा हुआ। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा भी कि मैं
आपको पहले से ही जानता हूँ। इसलिए आपकी बात में मुझे विश्वास है,
अधिक
विश्वास दिलाने की जरूरत नहीं,
जैसा
कि पत्र के द्वारा आपने किया है आदि-आदि। मगर उन्होंने पूरी रिपोर्ट
की एक प्रति माँगी ताकि अपने ऑफिस में भेज कर सारी बातों की जाँच
पहले से करवा लें और अफसरों एवं अमलों से कैफियत पूछ लें। उन्होंने
यह भी लिखा कि इस बीच में यह करके सितम्बर में पटने में आपसे मुलाकात
तथा बातें करूँगा।
आखिर,
हमें
रिपार्ट की दो प्रतियाँ लिखनी पड़ीं। बहुत बड़ी चीज थी। मगर करते क्या?
जल्द-से-जल्द एक प्रति उनके पास भेजी गयी। उसके बाद सितम्बर में जब
वे पटने लौटे तो चौधारी टोले वाले टेकारी के मकान में ठहरे। वहीं
मिलने के लिए मेरे पास सन्देश गया। मैं गया और पूरे साढ़े तीन घण्टे
तक बातें होती रहीं। मगर नतीजा कुछ न निकला। बातचीत के समय उनके
मैनेजर बाबू केदारनाथ सिंह भी मौजूद थे। राजा साहब की अजीब हालत थी।
कभी तो इलजामों को मानते और कहते कि हो सकता है ऐसा होता हो और कभी
कहते कि इतना बड़ा इन्तजाम है। इसमें स्थायी नौकरों पर विश्वास करना
ही पड़ता है। उसके बिना काम चल नहीं सकता।
मैंने जो कुछ
आरोप लगाये थे वह तो मौके पर जा के देखने के बाद ही। मैंने यह भी कहा
कि अगर कभी-कभी अचानक किसी मौके पर आप खुद पहुँच जायें और किसान को
एकान्त में बुलाकर उसके सुख-दु:ख पूछें तो बहुत कुछ पता लग जाय कि
मेरी बातें सही हैं या नहीं। इससे यह भी होगा कि आपके अमले थर्राते
रहेंगे। मैंने फिर कहा कि यदि किसानों का विश्वास अपने ऊपर लाना या
कायम रखना है तो मजिस्ट्रेट वगैरह के कहने से दस-बीस हजार रुपये
अस्पताल में देने की अपेक्षा,
अपनी
जमींदारी के गाँवों में हैजे आदि के समय दस ही पाँच रुपये की दवा
किसानों में अपनी ओर से बँटवाइये और उसका असर देखिये। बातें तो ठीक
थीं और थीं उन्हीं के काम की। मगर इन्हें स्वीकार करना उनके लिए
असम्भव था।
मैंने कहा,
आपके
जो नौकर दस-बीव रुपये महीना पाते हैं जरा उनका ठाटबाट देखें। वह तो
सैकड़ों कमाने वालों को मात करता है। फिर ये रुपये आते कहाँ से हैं
यदि वे जुल्म नहीं करते?
उनके
पास इसका उत्तर क्या था,
सिवाय
मौन हो जाने के?
मैंने
फिर कहा,
जमींदारी आपकी
खराब होगी या बिक जायगी। इसमें नौकरों की क्या हानि है?
वह तो
उसी के यहाँ नौकरी करेंगे जो आपकी जमींदारी खरीदेगा। इसलिए उसकी
फिक्र आप नहीं करें,
और उस
नौकर से उमीद करें यह तो आपकी भूल है। मगर वे चुपचाप सुनते रहे।
फिर मैनेजर
साहब ने कोशिश की कि सारा प्रबन्ध दूध का धोया सिध्द करें और यह
बतायें कि मैं ही भ्रम में हूँ। इसलिए उनने बहुत भूमिका बाँधी। अन्त
में कहा कि आप दूसरे दिन फिर बातें करें तो मैं कागज वगैरह लाकर अपना
पक्ष साबित करूँगा और आपको विश्वास दिलाऊँगा,
“I shall convince you”
कि कोई
गड़बड़ी नहीं है। मैंने
उत्तर
दिया कि जो बातें ऑंखों देख आया,
उन्हें सोलहों आना गलत और भ्रम मान लूँ,
यह तो अजीब बात है! यह दूसरी बात है कि सौ
इलजामों में दस-पाँच या दो-चार को भी आप सही मान लें तो आगे बातें कर
सकता हूँ। मगर सभी गलत मान कर बातें करने की उम्मीद मुझसे आप करें,
या चाहें कि मुझे विश्वास दिलायेंगे,
यह ठीक नहीं। मैं ऐसी बात के लिए तैयार नहीं।
यकीन रखिये, आपके द्वारा ऐसे यकीन को
प्राप्त करने के लिए मैं हर्गिज तैयार नहीं,
“I am not going to be convinced by
you”
ऐसी दशा
में और बातें करना बेकार है। यही कह के मैं चला आया और फिर कभी आज तक
उन लोगों से मिला ही नहीं।
मुझे आश्चर्य
हुआ कि ये लोग कितने बेशर्म और पक्के हैं। जरा भी टस से मस होने को
तैयार नहीं। उलटा मुझे ही बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे थे! मगर मेरी
ऑंखों का तो पर्दा ही खुल गया। सारी आशाओं पर पानी फिर गया। मुझे साफ
दीखा कि ये लोग लाइलाज मर्ज में फँसे हैं। अब समझौते से शायद काम न
चलेगा। उसकी कोई आशा ही नहीं। अब तो कोई दूसरा रास्ता सोचना ही
पड़ेगा। मुझे ताज्जुब हुआ कि मैंने किस भाव से और किन शब्दों में
उन्हें लिखा था और उसका नतीजा क्या हुआ! असल में मुझे यही अनुभव हुआ
है कि जो लोग इन्हें दबायें उनके सामने तो ये झुकते हैं। मगर जो
दोस्ताना ढंग से इनसे बातें करके इन्हें समझाना और मनाना चाहें
उन्हें उलटे ये लोग उल्लू बनाने की कोशिशें करते हैं। ऐसे मौके अनेक
मिले हैं,
जिनसे मेरी यह
धारणा हुई है। खैर,
उस
बातचीत के बाद पहला काम मैंने यह किया कि उस रिपोर्ट की सभी प्रमुख
बातें लेकर 'गया
के किसानों की करुण कहानी'
लिखी
और फौरन छपवा डाली।
(शीर्ष पर वापस)
(14)आन्दोलन,
टेनेन्सी बिल आदि
सन्
1933
ई. के बीतने के पहले कई बातें हुईं। एक तो हमने
ऐसा घोर आन्दोलन किया कि जमींदार और सरकार दोनों ही को घबराहट
हुई। उनके मददगार नामधारी नेता कुछ न कर सके। कई जगह उनकी
मीटिंगें हो न सकीं। खुल के किसी सभा में वे लोग अपना समर्थन कर न
सके।
दरभंगा जिले
के फूलपरास (थाने) में एक विचित्र घटना हो गयी जिसने
श्री
शिवशंकर झा और उनके दोस्तों को निराश कर दिया। जाड़े के दिन थे।
दरभंगा जिले में मेरा दौरा था। कमतौल की मीटिंग के बाद अगली मीटिंग
फूलपरास में थी। उसी दिन रात की ट्रेन से मुझे पटना लौटना भी जरूरी
था। क्योंकि अगले दिन देहात में वहाँ सभा थी।
प्रोग्राम के
मामले में मैं इतना पक्का रहता हूँ कि मर-जी के चाहे जैसे हो उसे
पूरा करता ही हूँ। मैंने किसानों और कार्यकर्ताओं को कह रखा है कि जो
मीटिंग मैं ठीक करूँगा उसमें या तो जिन्दा पहुँचूँगा,
नहीं
तो,
मेरी लाश तो
जरूर ही पहुँचेगी! इसीलिए चाहे देर भले ही हो,
मगर
उन्हें सर्वत्र विश्वास रहता है कि मैं जरूर पहुँचूँगा। आज तक मैं
ऐसी एक भी मीटिंग में पहुँचे बिना न रहा।
इसीलिए
फूलपरास भी जाना जरूरी था और पटना पहुँचना भी,
मगर
बिना मोटर के उस दिन समय पर रेल पकड़ना असम्भव था। सवा सौ माईल की दौड़
लगा के समस्तीपुर गाड़ी पकड़नी थी। मोटर का प्रबन्ध पहले था नहीं।
फूलपरास जाने की इसी से आशा भी न थी। मगर मैं तो संकल्प किये बैठा
था। खैर,
पं. यमुना
कार्यी के दोस्त एक मुसलमान सज्जन ने अचानक मोटर दी और कमतौल से
लहेरियासराय आ के पेट्रोल लिया गया। फिर हम लोग फूलपरास चले। मैं था
और कार्यी जी।
वह तो शुरू
से लेकर आज तक मेरे साथी रहे हैं। किसान-सभा में अभी तक वे मेरे सबसे
पुराने साथी हैं।
आगे जाने पर
जहाँ मधुवनी वाली सड़क हमारी सड़क में मिली वहीं एक मोटर मधुवनी की ओर
से आकर आगे चली गयी। हमने सोचा,
कौन
है। पीछे अन्दाज लगा कि बाबू शिवशंकर झा शायद उसी सभा में अपने पक्ष
के समर्थन में जा रहे हैं। फूलपरास के निकट जाने पर तो ठीक ही हो गया
कि अपने मित्र श्री कपिलेश्वर शास्त्री के साथ विजय का सेहरा अपने
माथे बाँधने झा जी आये हैं। उन्हें शास्त्री ने कहा था कि वह मेरा
इलाका है और वहाँ मैथिली ही अधिकांश बसते हैं। इसलिए आज स्वामी जी को
जरूर पछाड़ा जाय। लोग खामख्वाह हमारी बात मान लेंगे। हमें भी कुछ
घबराहट हुई कि यह अचानक हमला हुआ। खैर,
डाकबँगले में जाकर ठहरे। सभा में काफी भीड़ हुई। हम खाने-पीने में
लगे। मगर कार्यी जी से कहा कि सभा में पहले ही चलना चाहिए। नहीं तो
कहीं,
वही उस पर दखल
जमा ले तो बुरा होगा। मगर जब तक हम लोग वहाँ जाने ही को थे तभी तक
श्री शिवशंकर झा और उनके दोस्त जाकर जम गये और अपने ही एक मित्र को
सभापति भी चटपट बना लिया! हम तो बुरी तरह छके। यद्यपि हमने सभा बुलाई
थी,
इसलिए उन्हें
ऐसा करना उचित न था। मगर वह तो युध्द करके विजयी बनने आये थे और
युध्द में औचित्य की क्या बात?
वहाँ
तो घात लगने की ही बात असल है और घात उन्होंने लगा ही लिया। खैर,
खबर पा
के हम लोग भी फौरन जा पहुँचे।
अजीब
परिस्थिति थी। हम दोनों ही आमने-सामने डँटे थे। मगर सभा पर उनका दखल
था। सभापति उनके अपने थे। बात उठी कि पहले कौन बोलेगा। मैं चुप रहा।
झा ने कहा कि पहले स्वामी जी ही बोलें। वह समझते थे कि पीछे वह
बोलेंगे और मेरी बातों को काट छाँटकर परिस्थिति अपने अनुकूल बना
लेंगे। मैं भीतर ही भीतर खुश हुआ। मगर कार्यी जी कुछ बोलना चाहते थे
कि पहले झा ही बोलें। मैंने उन्हें धीरे से रोक दिया। अन्त में
सभापति ने तय कर दिया कि पहले स्वामी जी ही अपनी बात कहें। मैंने
देखा कि अब तो सभापति की आज्ञा हो जाने पर यह बात टलेगी नहीं। तब
मैंने कहा कि मैं आपकी आज्ञा मानूँगा। मगर जो पहले बोलता और प्रस्ताव
लाता है उसे पीछे उत्तर देने का हक होता है। झा और उनके दोस्त चौंके।
मगर करते क्या?
अन्त
में मानना ही पड़ा कि पीछे मैं उत्तर दूँगा।
इसके बाद
मैंने लोगों को सारी चीजें समझाईं। खास तौर से बकास्त और जिरात तथा
सर्टिफिकेट वाली धाराओं के खतरे लोगों के सामने रखे। जिस तरीके से यह
समझौता किया गया उसकी भी पोल खोली और बताया कि अगर आज यह समझौता
किसानों के पूरे फायदे का हो तब भी इसे मानना भूल होगी। किसानों की
पीठ के पीछे फिर कभी ऐसे ही समझौते के द्वारा ये सभी चीजें छीनी जा
सकती हैं और किसानों का गला काटा जा सकता है। तब हमें बोलने का मुँह
न रहेगा। क्योंकि
'मीठा-मीठा
गप्प,
कड़वा-कड़वा थू'
कर
नहीं सकते। फिर झा जी बोलने उठे तो उन्हें कुछ उत्तर तो देना था। कुछ
बेसिर-पैर की बातें बोलने के बाद लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए
उन्हें उभाड़ने और कलह की बातें बोलने लगे। मुझे ताज्जुब हुआ जब
उन्होंने खुदकास्त और बकाश्त को दो चीजें माना और वकील होकर ऐसी मोटी
गलती की। मैंने टोका भी। मगर कुछ बेशर्मों की सी बात करते रहे।
इसके बाद जब
मैं उत्तर देने उठा तो सभापति से कहलवाया कि पाँच मिनट से ज्यादा
वक्त न लें,
खैर,
मैंने
मान लिया और इस प्रकार कहना शुरू किया कि किसानों के दिल में बातें
धँस गयीं। पाँच मिनट होने पर जब सभापति ने इशारा किया कि समय हो गया
तो श्रोताओं ने तूफान किया कि और बोलिए,
और
बोलिए। सभापति जी मजबूर हो गये और मेरी धारा चली। जब कुछ देर के बाद
फिर रोकना चाहा तो सभी लोग उन्हीं पर बिगड़ गये। नतीजा हुआ कि सभापति
और झा जी को तथा उनके दोस्तों को मामला बदरंग नजर आया। तब उनने सोचा
कि बीच में ही उठ चलें और सभा में हुल्लड़ मचा कर उसे तोड़ दें। फलत:,
वे लोग
बीच में ही उठे। मगर उनके दुर्भाग्य से उनके साथ शायद ही दस-बीस लोग
उठे हों। बाकी मन्त्र मुग्धावत् सुनते रहे। फिर वे बाहर जाकर अपनी
मोटर से देर तक गरगराहट की आवाज निकालते रहे। लेकिन जब इतने पर भी
कुछ होते न देखा तो धीरे से मोटर पर चढ़ के निकल भागे। फिर तो हमारी
विजय हुई। सभा के बाद मैं भी खुशी-खुशी मोटर से भागा। क्योंकि ट्रेन
पकड़नी थी बहुत दूर जाकर रात के ग्यारह बजे ठेठ समस्तीपुर में। ट्रेन
पकड़ी भी।
इस सभा से दिल
पर पहलेपहल जबर्दस्त असर हुआ और मुझे विश्वास हो गया कि
अब ये अपढ़
और सीधे-सादे
किसान ज्यादा दिनों तक ठगे नहीं जा सकते। जहाँ मैं जीवन में पहली ही
बार गया और किसान-सभा की जहाँ चर्चा तक न थी,
यहाँ तक कि जहाँ के लोगों से खास परिचय भी हमारा
न था, वहीं बाघ अपनी माँद में पछाड़ा गया।
झा जी की बातें न सुनकर किसानों ने हमारी बातें सुनीं यह घटना किसी
की भी ऑंखें खोल सकती थीं, श्री शिवशंकर
झा के दिल पर क्या गुजरी यह कौन बताये?
इसका और इस
बढ़ते आन्दोलन का नतीजा यह हुआ कि वह टेनेन्सी बिल लटकता रहा। किसी की
हिम्मत नहीं हुई कि वह पास किया जा सके। प्राय: दो वर्ष के बाद सिर्फ
सर्टिफिकेट की धारा रख के जिरात वाली निकाल दी गयी। दूसरे भी अनेक
सुधार करके तब कहीं वह सन्
1934
ई. के अन्त में कानूनी जामा पहन सका। जिरात के बारे में अन्तिम बार
बिहारी जमींदार हारे और सदा के लिए हारे। युगों से इसका आन्दोलन कर
रहे थे। मगर आखिर में निराश हो गये। इसी आन्दोलन का फल हुआ कि इधर
आकर सर्टिफिकेट की धारा भी खत्म हो गयी। अनेक और बातें भी उसी समय
हुईं। फलत: बिहार का काश्तकारी कानूनी सभी प्रान्तों से अपेक्षाकृत
कहीं अच्छा है।
सन्
1933
ई. के अन्त में जेल से बाहर आने पर बाबू श्री कृष्ण सिंह ने हमारे
आन्दोलन की सराहना करते हुए एक सभा में साफ कह दिया कि
''प्रान्त
ने आन्दोलन करके बता दिया है कि वह जीवित है और सब कुछ कर सकता है।''
इतना
ही नहीं। युनाइटेड पार्टी को तो हमने दफना ही दिया। कुछ लोगों ने जो
उसके बड़े हामी थे,
थोड़े
दिनों बाद ही ऐसी गर्म आहें उसके नाम पर अखबारों में भरी थीं कि दया
सी आ जाय। पीछे तो हमें यह भी मालूम हुआ कि प्रान्त के दो-एक
प्रसिध्द कांग्रेसी नेताओं ने,
जिनकी
दोस्ती जमींदारों के साथ गहरी थी और है,
इशाराभी किया था कि हाँ,
इस
समझौते के आधार पर बना हुआ बिल कानून बन सकताहै! इसीलिए तो जमींदारों
को हिम्मत थी और देर तक डटे रह के मजबूरन पीछे हटे।
उस समय एक बात
और हुई। प्रान्त के एक डिक्टेटर ने जहाँ मेरी मदद शुरू में करनी चाही
थी वहाँ पीछे दूसरे डिक्टेटर श्री सत्य नारायण सिंह ने ऐसी एक नोटिस
छपवा दी कि कोई कांग्रेसी कांग्रेस के सिवाय और किसी भी आन्दोलन में
इस समय भाग न ले। इससे कांग्रेस और उसकी लड़ाई कमजोर होगी। इसका सीधा
अर्थ था किसान आन्दोलन से रोकने का और जमींदारों की हिम्मत बढ़ाने का।
इन भलेमानसों ने इतना भी न समझा कि उनकी हरकतों के करते न सिर्फ
रद्दी सा कानून बन के किसानों को सतायेगा,
प्रत्युत इससे युनाइटेड पार्टी सदा के लिए मजबूत होकर कांग्रेस की जड़
खोदेगी। यदि इसे राजनीतिक दिवालियापन कहें तो?
(शीर्ष पर वापस)
(15)प्रथम
प्रान्तीय किसान कॉन्फ्रेंस और वाद
आगे
बढ़ने के पूर्व पहली बिहार प्रान्तीय किसान कॉन्फ्रेंस की बात कह देना
जरूरी है। वह सन्
1933
ई. की बरसात में बिहटा में ही हुई।
मैं ही
उसका सभापति था। उसमें बाबू सुधाकर प्रसाद सिंह,
मुजफ्फरपुर ने मेरी बहुत सहायता की। हालाँकि वे
रायबहादुर श्यामनन्दन सहाय के पक्के दोस्त थे और सहाय जी नये
टेनेन्सी बिल और युनाइटेड पार्टी के असली स्तम्भ थे। एक तो हमारी सभा
की प्रारम्भिक दशा थी। दूसरे कांग्रेस के भीतर और बाहर जो स्वार्थों
का संघर्ष चल रहा था उसके फलस्वरूप भी उनने मेरी सहायता की थी और
अन्त तक करते रहे। हालाँकि शीघ्र ही उनका देहान्त हो गया। वे
कॉन्फ्रेंस में शामिल भी हुए। मगर दूसरे ऐसे लोग भी शामिल थे जो
किसानों के कागजी लीडर कभी बन चुके थे और उस समय भी दावा करते थे।
बहुत बड़ी रुकावट और बाधा की परवाह न करके सुधाकर बाबू आये थे। एक ही
दिन में कॉन्फ्रेंस का काम पूरा हुआ। आश्रम के पास ही श्री नारायण
साहु के गोले में वह हुई थी।
हमने पीछे
अनुभव किया कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और कौंसिल की मेम्बरी में मदद मिलने
के खयाल से ही कितने लोग हमारी सभा में उस समय मिले थे। दलबन्दी और
किसी जमींदार के साथ लड़ाई हो जाने पर उसे बदनाम करने और बदला चुकाने
के लिए भी कुछ शामिल हुए। यह भी देखा कि कांग्रेस के लीडरों ने
टेनेन्सी बिल का सवाल हल हो जाने पर लोगों को किसान-सभा से यह कह के
रोका और उसका विरोध किया कि वह तो सिर्फ टेनेन्सी बिल के विरोध के
लिए बनी थी अब उसकी जरूरत ही क्या है?
इधर निरा यह
रवैया था कि आगे बढ़ते जाना। लेकिन उसी के साथ प्रान्त के ख्यातनामा
नेताओं से कोई भी विरोध न होने देना। मेरी बराबर कोशिश थी कि सभा के
बारे में उन लोगों के दिल में कोई बदगुमानी कभी होने न पाये। इसीलिए
कभी एक शब्द भी ऐसा न बोला और न भरसक बोलने दिया जिससे वे लोग
खुलम-खुल्ला चिहुँक जाये। क्योंकि मैं जानता था कि कुछ लीडर ऐसे हैं
जो शुरू से ही इसे नहीं चाहते। ऐसी हालत में अगर उन्हें जरा भी मौका
मिला तो तूफान खड़ा करके हमें आगे बढ़ने न देंगे इसीलिए ऐसे कामों और
शब्दों से उनका हाथ अनजान में ही सही मजबूत करने के बजाय हमें ऐसा
व्यवहार करना चाहिए कि मुँह खोलने का मौका ही उन्हें न मिले। फलत: वे
इक्के-दुक्के ही रह जाये। अपने साथी बढ़ा न सकें। मुझे आनन्द है कि इस
काम में मुझे पूरी सफलता मिली और वे लोग विरोध करने के लिए तब खड़े
हुए जब किसान-सभा काफी मजबूत हो चुकी थी।
सन्
1934-35
में ऐसे भी मौके आये जब मेरे साथियों ने जमींदारी मिटाने के प्रस्ताव
किसान कौंसिल और किसान सम्मेलन में कई बार पेश किये। मगर मैंने सख्त
विरोध किया और वे गिर गये। लेकिन एक बार तो जवानों ने जोश में आकर
किसान कौंसिल में सन्
1934
ई. में पास भी कर दिया बहुमत से एक प्रस्ताव। तब मैंने कहा कि
सभापतित्व से मेरा इस्तीफा ले लीजिये। मैं मेम्बर रहूँगा सही। मगर इस
प्रस्ताव पर अमल करने की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। इसके बाद फिर उन
लोगों ने मेरी बात मान ली और इस प्रस्ताव को फिर से लाकर गिरा गया।
मैं यह बात कह दूँ कि उन जवानों में प्राय: सभी ऐसे ही थे जो तुरन्त
ही सभा में शामिल हुए थे। कुछ ने तो पहले खुद सभा की ही मुखालफत की
थी कि उसकी जरूरत नहीं है और कुछ पीछे इससे न सिर्फ हटे ही,
वरन्
आज इसके सख्त शत्रु हैं और इसके गिराने के लिए कोई भी कुकर्म कर सकते
हैं।
जेल से रिहा
होने के बाद सन्
1934
ई. की जनवरी में बाबू श्री कृष्ण सिंह ने मुझसे कहा कि
''स्वामी
जी,
किसान-सभा में
हमारे भी कुछ आदमी रखियेगा या नहीं।''
मैंने
कहा सभा तो आपकी है। आज भी इसे आपको सुपुर्द करने को तैयार हूँ। फिर
तय पाया कि इसके बारे में तथा आगे कैसे काम हो इसके सम्बन्ध में भी
बातें की जाये। मगर जरा निश्चित रूप से बैठकर इस तरह कुछ लोगों के
मन में
इस सभा को लेकर जो शक हैं वह दूर किये जाये। मैं तैयार हो गया। ता.
13-1-34
को दोपहर के बाद हरिजन संघ के कार्यालय,
कदमकुऑं,
पटना में
बातें करने का निश्चय हुआ और तय पाया कि बाबू ब्रज किशोर प्रसाद और
श्री बद्रीनाथ वर्मा भी बातचीत में रहेंगे। इन्हीं लोगों को ज्यादा
शक था। पहले महानुभाव ने तो शुरू में ही अपना नाम किसान-सभा से हटवा
लिया था।
इसी निश्चय के
अनुसार 13
जनवरी को हम लोग ठीक समय पर वहीं मिले। श्री शाúर्र्धार
प्रसाद सिंह भी थे। देर तक बातें होती रहीं। उन लोगों को जो कुछ
पूछना था उन्होंने पूछा और मैंने साफ-साफ
उत्तर
दिया। मैंने कुछ छिपाया नहीं। छिपाने की कोई बात भी तो हो। मैंने फिर
कहा कि अब तक मैंने सभा चलाई और जहाँ तक बन पड़ा उसे मजबूत किया। आप
लोग तो जेल में थे। इसीलिए मुझ से जो हो सका किया। मगर अब बाहर आ
गये। लीजिये,
आज ही इसे आपको सौंपता हूँ। खुद थोड़ा विश्राम
करने जाता हूँ। क्योंकि बहुत हैरान हुआ हूँ। लेकिन इस काम में सदा
साथ दूँगा।
इस पर श्री
बाबू आदि ने कहा कि नहीं,
नहीं,
सभा की
जिम्मेदारी तो आप ही के ऊपर रहेगी। हाँ,
हम लोग
और हमारे आदमी भी उसमें रहेंगे। इसके बाद कुछ काम की बातें और एक
वक्तव्य निकालने का निश्चय हुआ,
ताकि
काम तेज हो और मुझसे कहा गया कि ये सभी बातें और वक्तव्य लिख कर हम
लोगों के पास शीघ्र भेज दें। फिर मैं बिहटा चला गया।
सन्
1934
ई. की पन्द्रहवीं जनवरी कभी भूलने की नहीं। उसी दिन दोपहर को बिहार
में ऐसा भूकम्प आया कि
'न
भूतो न भविष्यति'
मैंने
ठीक उसी दिन भूकम्प से पहले उन लोगों के कहने के मुताबिक सारी बातों
को और वक्तव्य को भी लिखा था। आश्रम के मकान में बैठ कर उसी पत्र के
लिफाफे पर गोंद लगा के चिपका ही रहा था जिसमें यह बातें लिख कर भेजी
जाने को थीं,
कि
एकाएक धरती हिल गयी और मैं बाहर भाग आया। वह चिट्ठी तो खटाई में ही
पड़ी रह गयी और एक दूसरा ही तूफान सामने आ गया। अब चिट्टी की परवाह
किसे थी?
नहीं कह सकता
उस वक्तव्य और पत्र का हमारी सभा पर क्या असर पड़ता। वक्तव्य तो प्रेस
में जाने वाला था,
सो भी
सबों की राय से और सबों की ओर से। उसमें यह दैवी बाधा आ गयी। फलत:,
वह
रुका ही रह गया। सभा में एक नया कदम बढ़ रहा था। शायद आगे इसका परिणाम
अच्छा न होता। इसीलिए यह विघ्न आया,
या
क्या बात थी कौन बताये?
मेरी इस नीति
का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि भूकम्प के बाद जब पटने की पीली कोठी में
रिलीफ कमिटी का ऑफिस था तो महाराजा दरभंगा ने चाहा कि श्री राजेन्द्र
बाबू से बातें करके टेनेन्सी बिल का प्रश्न ऊपर ही ऊपर हल कर लें और
किसान-सभा ताकती ही रह जाय। वह बातचीत हुई भी। मगर राजेन्द्र बाबू ने
महाराजा और जमींदारों से कहा कि मैं किसान-सभा के नेताओं से बातें
करके ही आपको कोई जवाब दे सकता हूँ कि क्या हो क्या न हो। उन्होंने
हम लोगों से खास तौर से बातें की भी। अन्त में हमारा दृष्टिकोण जानकर
उन्होंने इस झमेले में पड़ने से इनकार करते हुए महाराजा को जो पत्र
इसके सम्बन्ध में लिखा था उसमें और बातों के सिवाय यह साफ ही लिखा था
कि ''असल
कठिनाई इस झमेले के सुलझाने में यह है कि आप लोग बिहार प्रान्तीय
किसान-सभा के संचालकों को किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले मानने
को तैयार नहीं!''
यह
पत्र अखबारों में उसी समय निकला था। राजेन्द्र बाबू उसी के बाद सन्
1934
ई. में ही कांग्रेस के सभापति चुने गये थे। इस प्रकार उनके द्वारा
हमारी सभा के बारे में यह कहा जाना हमारी बड़ी भारी नैतिक जीत थी।
(शीर्ष पर वापस)
(16)गांधी
जी से बातें-मैं
गांधी
जी से अलग
हाँ,
तो भूकम्प के बाद तो सारी बातें भूल गयीं। हम सभी
जनता को मदद देने में लग गये। मैं चटपट चारों ओर दौड़ गया।
उत्तर
बिहार में जो भयंकर दुर्दशा थी उसका पता देहातों में जाकर लगाया। कुछ
पैसे भी बिहटा के इलाके से वसूले। जगह-जगह सहायता भी पहुँचाता रहा।
चीनी की मिलों के खराब हो जाने से किसानों की ऊख जो खेतों में पड़ी रह
गयी। उसका गुड़ बने इसके लिए अच्छी और सस्ती कलें बनवाने का काम बिहटा
में श्री भत्ता मिस्त्री
के द्वारा मैंने ही बिहार रिलीफ कमिटी की ओर से शुरू किया और कलें
उत्तर
बिहार में पहुँचाई गयीं।
भूकम्प के बाद
मुझे ऐसे मौके मिले जब निराश्रय गरीबों को देहातों में सहायता देने
के समय कुछ जमींदार ऐसा कहते पाये गये कि यदि इन्हें खाना मिल जायगा
तो ये हमारा काम न करेंगे! उनका मतलब था नाममात्र को कुछ देकर सारे
दिन उन्हें खटाने से और भूकम्प ने उन्हें इसका अच्छा मौका दिया था!
सिर्फ हमीं लोग इन निराश्रयों को सहायता देकर इन बाबुओं के इस रास्ते
में बाधक हो रहे थे!
मैंने देखा कि
लाखों किसान बर्बाद हैं। उनके झोंपड़े और घर गिर गये हैं। घरों में
पड़ा थोड़ा-बहुत अन्न जमीन की दरारों में घुस गया है। खेतों में बालू
आने से वे खराब हो गये हैं। खलिहान में ही पड़ा गल्ला जमीन में धंस
गया है और खेत में ही खड़ा बालू के नीचे चौपट है। वे दाने-दाने को
मुहताज हैं। फिर जमींदारों के द्वारा बेमुरव्वती से लगान की वसूली
बची-बचाई लोटा-थाली,
बकरी,
मवेशी
आदि बेचवाकर और कर्ज लिवाकर जैसे हो जारी है। यहाँ तक कि रिलीफ कमिटी
से या सरकार के द्वारा खेतों से बालू हटाने के लिए जो भी पैसे
किसानों को मिलते हैं वह फौरन ही उसी जगह जमींदारों के अमलों द्वारा
छीने जा रहे हैं। मैंने एक जमींदार का ऐसा ही हुक्मनामा पकड़कर उसे
अखबारों में छपवा दिया भी था। उसमें उसने अपने अमलों को लिखा था कि
रिलीफ या बालू वाले कर्ज के मिलने पर किसानों से लगान वसूली का अच्छा
मौका है। उसे हर्गिज गँवाया न जाय। झोंपड़ों को फिर से छाने के लिए
लकड़ी,
बाँस,
फूस
आदि किसानों को जमींदार लेने न देते थे। रोक देते थे। इसके लिए हमें
बड़ा हो-हल्ला मचाना पड़ा।
इन सब बातों
को देखकर मेरे दिल में खयाल आया कि एक ओर तो दो-चार,
दस-बीस
या कुछ ज्यादे रुपये से हम किसानों को सहायता देते हैं। दूसरी ओर
जमींदार उनकी जमीनें और पशु आदि धाड़ाधड़ नीलाम करवा रहे हैं। सहायता
के पैसे भी तो छीन ही लेते हैं। इसलिए यह तो धोखा है। फलत: जब तक हम
किसानों की सभायें जगह-जगह करके धूम न मचायें तब तक उनकी खैरियत
नहीं। हम देख ही चुके थे कि आन्दोलन से ही वे लोग दबते हैं। मगर
दिक्कत यह थी कि सभी लोग रिलीफ के काम में फँसे थे। फिर सभाएँ कौन
करे?
इसलिए सोचा कि
रिलीफ के कार्यकर्ताओं से ही इस काम में मदद ली जाय तभी ठीक होगा।
मगर इसमें नेताओं की मंजूरी चाहिए और राजेन्द्र बाबू ने साफ कहा कि
गांधी जी की आज्ञा के बिना यह हो नहीं सकता। इसलिए मैंने तय किया कि
गांधी जी से ही बातें करके हुक्म ले लूँ। वे तो दरिद्रनारायण के सेवक
ठहरे ही। अत: यह आज्ञा सहर्ष देंगे। बात करने की तारीख और समय भी ठीक
हो गये। वह पटने में ही बिहार रिलीफ कमिटी के ऑफिस,
पीलीकोठी में ही उस समय ठहरे थे।
आखिर,
बातें
हुईं और मुझे भयंकर निराशा हुई। जब मैंने सारी बातें उनसे कह सुनाईं
तो बोले कि आर्डिनेन्स के करते मीटिंगें नहीं हो सकती हैं। उन्हें यह
पता क्या था कि हमने गत दो वर्षों में मीटिंगों के द्वारा जमींदारों
के नाकों दम कर दिया था! मैंने कहा कि हम करेंगे और सरकार रोकेगी तो
देखेंगे। फिर बोले,
चुपके
से नहीं करना होगा,
किन्तु
नोटिसें बाँट के। मैंने कहा,
जी हाँ,
नोटिसें जरूर बँटेंगी और खूब बँटेंगी। तब कहने लगे कि सच्ची शिकायतें
ही सामने लाई जायें। मैंने उत्तर दिया कि झूठी क्यों लायेंगे?
सच्ची
ही इतनी ज्यादा हैं कि सबको ऊपर कर नहीं सकते। कहने लगे,
लेकिन
हरेक शिकायत की खूब जाँच हो ले। तब कुछ कहा जाय। मैंने कहा,
कार्यकर्ता जाँचकर बतायेंगे। तब कहने लगे कि वह गलती कर सकते हैं।
मैंने इस पर साफ कह दिया कि लाखों-करोड़ों शिकायतें हैं। अगर सत्य की
ऐसी फिक्र में हम पड़ें कि खुद जाँचें तो असम्भव है। ऐसी दशा में
किसानों को फायदा पहुँचा नहीं सकते। फलत:,
कार्यकर्ताओं पर तो विश्वास करना ही होगा।
फिर उन्होंने
कहा कि ये शिकायतें यदि महाराजा दरभंगा को मालूम हो जाये तो (क्योंकि
मैंने उनका ही नाम लिया था) मुझे विश्वास है,
वे
जरूर इन्हें दूर करेंगे। श्री गिरीन्द्रमोहन मिश्र उनके मैनेजर हैं।
वे कांग्रेसी हैं। मैंने कहा,
देखूँगा। मैं तो चाहता ही हूँ कि वह दूर कर दें। फिर कह उठे कि
गोल-मोल बातें न करके किस किसान को क्या कष्ट है यह नाम-ब-नाम बताना
होगा। इस पर मैंने कह दिया कि मैं हर्गिज ऐसा कर नहीं सकता। क्योंकि
दो-चार किसानों के नाम मिलते ही वह उनके कष्ट तो क्या दूर करेंगे,
उलटे
उन्हें ऐसा दबायेंगे कि फिर कोई किसान शिकायतों का नाम भी न लेगा।
मैं जमींदारों के हथकण्डे और तरीके खूब जानता हूँ। बस,
बात
यहीं पर खत्म हो गयी।
इस वार्तालाप
से मुझे बड़ा धक्का लगा! इससे मेरी ऑंखें खुल गईं। उनके
''जमींदार
किसानों के कष्ट दूर करेंगे। उनके मैनेजर कांग्रेसी हैं। इसलिए
कष्टों को जरूर हटा देंगे,''
इत्यादि बातों से पता चला कि जमींदारी मशीनरी कैसे काम करती है इसका
पता उन्हें कतई नहीं था!
किसानों को वह कैसे रौंदती है वह जानते तक न थे। कांग्रेसी होकर क्या
कोई मशीन को बदल देगा?
वह तो
उसका एक पुर्जा बनेगा,
यह
मोटी बात भी वह समझते न थे। हमने तो हजारों कांग्रेसियों को किसानों
को बर्बाद करते देखा। मगर उन्हें यह मालूम ही नहीं। सत्य की फिक्र
उन्हें इतनी कि उसके करते काम असम्भव हो जाने का उन्हें खयाल तक
नहीं। यदि जमींदार या उनके नौकर शिकायत करने वालों का सुराग पा जाये
तो उन पर झपट पड़ते हैं,
यह
मामूली बात भी वे नहीं जानते थे। जो किसानों को निर्दयता के साथ आज
भी लूटता है और उन्हें भूखों मार के अपनी मोटर दौड़ाता है वही उनके
दुख दूर करेगा,
यह
उनकी धारणा मुझे आश्चर्यचकित करने वाली थी। मेरे दिल ने पुकारा कि
क्या यही दरिद्रनारायण के सेवक हैं?
मेरी धारणा हो
गयी कि ये चीजें गांधी जी जरा भी नहीं जानते,
हालाँकि,
जानकारी की
बातें बहुत करते हैं। उस दिन की बात के बाद उन पर मेरी अश्रध्दा हो
गयी और उसी दिन से मैं सदा के लिए उनसे अलग हो गया। उस भूकम्प के बाद
ही यह दूसरा मानसिक भूकम्प मुझमें हुआ। एक धक्का तो मुसलिम नेताओं के
सम्बन्ध के पत्र के उनके उत्तर से लग ही चुका था। यह दूसरा और आखिरी
धक्का था। पीछे पता लगा कि मधुबनी में जाने पर एक सभा में लोगों ने
उनसे जब जमींदार महाराजा दरभंगा के अत्याचार की बात कही तो वही उत्तर
उन्होंने दिया जो मुझे दिया था। खैर,
अच्छा
ही हुआ। प्राय: चौदह वर्षों की बनी-बनाई गांधी भक्ति आज खत्म हुई।
(शीर्ष पर वापस)
(17)जीवन
की तीन घटनाएँ
जमींदारों
की लूट और
गांधी
जी के सत्य की पुकार के प्रसंग में मैं यहाँ अपने जीवन को तीन
महत्त्व
पूर्ण घटनाएँ लिख देना चाहता हूँ जिन्होंने मेरे हृदय पर अमिट छाप
डाली,
बहुत अंशों में मेरे जीवन को पलटा,
और मुझे उग्रपन्थी बनाया। पहली घटना सन्
1917 ई. की है, जब मैं
गाजीपुर जिले के विश्वम्भरपुर गाँव में रहता था। वहाँ सुखी जमींदार
रहते हैं। उनके मौजे मौरा में जो 3-4 मील
पर है, मैंने जाड़ों में एक हलवाहे को मरा
देखा। 60-70 साल का रहा होगा। टूटी झोंपड़ी
में जमीन पर पड़ा था। इनफ्लुएंजा से मौत हुई थी। यह बीमारी और जाड़े का
दिन। मगर कमर में सिर्फ एक लँगोटी थी! ओढ़ने को कुछ नहीं! कहीं से एक
फटा बोरा मिला था। उसी में सिर और टाँगें डाल के पड़ा-पड़ा मर गया! पीठ
और चूतड़ खुले ही थे! बिस्तर, चारपाई,
दवा वगैरह की तो बात ही नदारद! मेरा दिल रोया।
मैंने सोचा कि इसने इन 60-70 वर्षों में
लाखों आदमियों की खुराक का गेहूँ, चावल,
दूध, घी पैदा किया
होगा और अपार धन कमाया होगा! मगर दुनिया कैसी जल्लाद और लुटेरी है कि
इसने शायद ही जीवन-भर में कभी गेहूँ, घी
खाया हो, अच्छा कपड़ा पहना हो! और मरने के
समय नंगा ही रह गया, सो भी जाड़े में। टूटी
खाट भी नहीं। अब इसे कफन भी देने वाला कोई नहीं! यह दुनिया डूब जाय!
ऐसा घोर अन्याय! यह अन्धोर! ऐसी निर्दयता! यह लूट!!
दूसरी घटना
सन् 1935
ई. की है। मुंगेर जिले में चकाय थाना है,
ठेठ
पहाड़ों में। वहाँ से संथाल परगना और हजारीबाग जिले निकट हैं। वहाँ
देहातों में काले-काले प्राय: नंगे और बिष्टी पहने पहाड़ी संथाल वगैरह
रहते हैं। वहीं एक-दो दिन रहना पड़ा। शाम को देहातों में टहलने जाया
करता था। जब उन नग्नप्राय गरीब और परिश्रमी किसानों को दशा की पूछताछ
की तो पता चला कि पहाड़ और जंगल काट के खेत बनाते और धान उपजाते हैं।
मगर कभी एक आना पैसा और कभी सेर भर चावल दे के दोई चार साल में सारे
खेत बनिये लिखवा लेते हैं। फलत: वे या तो बनियों के हलवाहे बन जाते
या कहीं और जाकर फिर उसी तरह खेत बनाते,
जिन्हें पुनरपि बनिये ले लेते हैं। यही क्रिया सैकड़ों वर्षों से चालू
है। वे इतने परिश्रमी,
सच्चे
और सीधे हैं! इसी से लुट जाते हैं और बराबर नंगे ही रहते हैं! मेरे
दिल से आवाज आई कि इस दुनिया में सत्य और न्याय कहाँ है?
अहिंसा
कहाँ है?
दीनबन्धु
भगवान् कहाँ हैं?
इनसे
बढ़ के दीन कौन है?
इनका
सत्य तो इन्हें लुटवाता है और बनिये का जाल और छल उसे हलवा देता है।
क्या भगवान्,
सत्य,
न्याय
नाम की कोई वस्तु सचमुच है?
तीसरी घटना
मुंगेर के बेगूसराय इलाके की है,
सन्
1937
ई. की। मैंने रास्ते में देखा कि एक मुर्दे को टूटी खाट में सुलाये
और चिथड़ा ओढ़ाये कुछ लोग गंगा की ओर लिये जा रहे हैं। उनके पास न तो
मुर्दा जलाने के लिए लकड़ी है और न दूसरा ही सामान। एक मुट्ठी या
मामूली सी रद्दी लकड़ी है। मेरे दिल ने पुकारा कि ओह यह जुल्म! यह
लूट! यह हृदय हीनता! जिसने जीवन में धानियों तथा सत्ताधारियों के लिए
भोग-विलास का सामान और लाखों के खाने के लिए गेहूँ,
मलाई
पैदा की उसकी ही यह दशा कि कफन तक नदारद! ऐसा तपस्वी और त्यागी कि
दूध,
गेहूँ पैदा
करके भी स्वयं न खाया,
किन्तु
मदमत्तो को दिया। उन्हीं का इसके प्रति ऐसा व्यवहार! इस समाज को
मिटाना होगा। यही सबसे बड़ा धर्म,
सबसे
बड़ी अहिंसा,
सबसे
बड़ा सत्य है। इन्हीं गरीबों की सेवा करते-करते मरना होगा। इन्हें छोड़
मेरे दिल में भगवान् कहाँ?
मेरे
भगवान् तो यही हैं!
(शीर्ष पर वापस)
(18)सरकार
से भिड़न्त-पहली
बार
144
एक
महत्त्व
पूर्ण बात
छूट गयी। उसका जिक्र जरूरी है। सन्
1929
के बाद जो सस्ती शुरू हुई और उसके चलते तो बर्बादी किसानों की हुई वह
वर्णानातीत है। हमने लगान घटाने का आन्दोलन तभी से जोरों से चलाया
था। भूकम्प के चलते उसके लिए और भी कारण मिल गया। हमने तो भूकम्प के
बाद जमींदारों की मालगुजारी में भी कमी करानी कुछ काल के लिए जरूर ही
चाही। मगर उन लोगों ने, जरूरत होते हुए भी,
इसका
विरोध
किया। क्योंकि उन्हें डर था कि यदि हमने कमी करा ली तो परमानेंट
सेट्लमेंट (दमामी बन्दोबस्त) टूट जायगा और जरूरत होने से पीछे हमारी
जमा सरकार बढ़ा भी सकेगी।
लेकिन किसानों
के बारे में तो हमें कोई ऐसा खतरा था नहीं?
साथ ही
हम तो 1933
से ही इस पर जोर दे रहे थे जब भूकम्प आया था नहीं। इस पर सरकार ने
कमिश्नरों की मीटिंग करके उनकी राय माँगी। मीटिंग हुई और हमने
अखबारों में पढ़ा कि जब तक किसानों में बहुत ज्यादा असन्तोष
‘A serious type of unrest’
नहीं होता
तब तक लगान घटाने का सवाल नहीं हो सकता। यह बात हमें बुरी तरह खटकी।
अतएव,
हमने फौरन ही सरकार को ललकारा कि हम इस भयंकर
असन्तोष का प्रमाण दिये देते हैं। सन् 1933
के अगस्त में ही हमने पं. यदुनन्दन शर्मा वगैरह
से राय करके एक नोटिस छपवाई। उसे गया जिले में बाँट कर लाखों किसानों
को गया शहर में जमा होने का ऐलान किया। जहाँ तक याद है, 15
अगस्त इसके लिए नियत किया गया। हमारा यह पहला ही प्रयत्न इस तरह के
जमाव के लिए था।
लेकिन जिले के
कोने-कोने में बिजली दौड़ गयी और हमारे आश्चर्य की सीमा न रही। जब
हमने देखा कि सचमुच लाखों किसान जमा हो गये। गया शहर की गलियों में
चारों ओर किसान ही किसान नजर आते थे। गया वालों ने आश्चर्यचकित
नेत्रों से देखा कि बिना पितृपक्ष के ही यह कैसी भीड़!
यह
कैसा निराला पितृपक्ष! लेकिन उन्हें क्या पता कि आज सरकार को
किसान-सभा की शक्ति का प्रमाण दिया जा रहा है! वे जानते क्या थे कि
लगान की अधिकता आदि सैकड़ों जुल्मों से कराहने वाले किसान अपनी सभा की
एक पुकार पर अपने भयंकर असन्तोष का ज्वलन्त प्रमाण देने आये हैं?
आश्विन
का महीना था। कई दिनों से लगातार पानी पड़ रहा था। हवा भी तेज चल रही
थी। जगह-जगह नदी-नाले एकाएक भर गये थे। नावें न थीं कि पार हो सकें।
रेलों के लिए सरकार की मनाही से टिकट मिलते न थे! बसें और दूसरी
सवारियों पर भी रोक थी कि किसानों को यहाँ ला नहीं सकते। जगह-जगह
थानों में पुलिस का दल किसानों को रोकता और डरवाता था कि मत जाओ।
वहाँ गोली चलेगी। गया शहर के बाहर चारों ओर पुलिस की सेना गश्त लगाकर
सबों को आने से रोक रही थी। पास में वस्त्रा नहीं कि पानी और हवा के
संयोग से पैदा होने वाली कँपकँपी से तन को किसान बचा सकें। हजारों
जगह जमींदारों के नौकर अलग ही रोकते और धमकाते थे।
फिर भी
जैसे-तैसे बिना टिकट के ही रेल पर चढ़ के,
पैदल,
बैलगाड़ी से,
नदी
नाले तैर कर सचमुच ही लाखों किसान पहुँचे। सरकार चकित और स्तब्धा थी।
हमने कचहरी में जमा होने के लिए नोटिस में लिखा था। इसलिए कचहरी के
चारों ओर संगीन लिये लाल पगड़ी ही नजर आती थी। हमने दूसरे दूसरे लोगों
से पूछा कि कितने लोग होंगे। सबों ने साठ हजार से लेकर एक लाख तक
बताया। सो भी घर बैठे नहीं। घूम के,
देख के,
जाँच
के कहा।
पं. यमुना
कार्यी के साथ मैं उस दिन सवेरे की ट्रेन से पटने से गया पहुँचा था।
स्टेशन के पास के धर्मशाले में पहली बार ठहरा। तब से तो वहाँ सैकड़ों
बार ठहरने का मौका लगा है। सरकार बेचैन थी। उसके हवास दुरुस्त न थे।
डरती थी कि कहीं कचहरी और खजाना न लूट लें। उसे भय था कि यदि मैं कुछ
बोला तो आफत हो जायगी। बस,
सदल-बल
पुलिस धर्मशाले में पहुँची और दफा
144
की नोटिस मुझे दे गयी। यह पहला ही मौका था,
जब
144
का ताला लगाकर हमारा मुँह बन्द करने की कोशिश सरकार ने की।
अब हमारे
सामने गम्भीर प्रश्न उठा कि क्या करें। स्वभाव के अनुसार मजिस्ट्रेट
की इस हरकत से झल्लाहट हुई और चाहा कि,
फौरन
इस नोटिस की धज्जियाँ उड़ायें और जरूर उड़ायें। मगर दूसरी ओर देखा कि
लाखों किसान जमा हैं। ऐसी हालत में इसे तोड़ने पर धर-पकड़ होगी। फिर तो
किसान खामख्वाह उत्तेजित होंगे। न भी हों तो सरकार कोई बहाना लगाकर
कहीं गोली चलवा दे तो?
तब तो
जिले भर में आतंक छा जायगा और उसका असर प्रान्त में भी फैले बिना
रहेगा नहीं। सरकार इस मौके पर कुछ-न-कुछ चाल चलेगी,
ताकि
किसानों की बढ़ती हुई लहर दब जाय। फिर तो हमें पछताना होगा।
इस प्रकार
दोनों विचारों की चक्की में मैं पिस रहा था। बड़ी बेचैनी थी। आत्म
प्रतिष्ठा मजबूर कर रही थी कि दबना ठीक नहीं। जुलूस में चलो और सभा
करो। नतीजा कुछ भी हो। साथियों से भी सलाह की। वह भी अजीब घपले में
थे। अन्त में,
बहुत
सोच-विचार के बाद मैंने तय कर लिया कि आज
144
को तोड़ना भूल होगी। इसमें खतरा है। फिर जीवन भर पछताना होगा। साथियों
ने भी समर्थन किया। मगर पुलिस बेचैन थी। उसका आना-जाना दौड़-धूप जारी
थी।
मगर किसान
किसी की सुनने वाले थोड़े ही थे। उन्होंने कचहरी में मेरी पूछताछ की।
जब पता लगा कि धर्मशाले में हूँ तो कुछ देर प्रतीक्षा करके एक दल
मेरे पास आया और बाहर ही से डाँटकर बोला कि हमें बुलाकर यहाँ क्यों
बैठे हैं?
बाहर आना,
जुलूस
ले चलना और सभा करना ही होगा। ठीक ही था। वह तो मेरे मालिक ही ठहरे।
मेरे भगवान् ठहरे। उनकी आज्ञा तो वैसी चाहिए ही। मैं भीतर-ही-भीतर
खुश हुआ कि ये किसी को भी छोड़ने वाले नहीं। देखिये,
आज
मेरे पर भी बिगड़ रहे हैं। ठीक है,
जब तक
नेता लोगों की छाती पर भी चढ़ने और उन्हें तमाचे लगाने की जरूरत होने
पर ये तैयार न होंगे तब तक इनका निस्तार होगा। इसलिए उस दिन की उनकी
इस मनोवृत्ति का,
इस
गुस्से का मैंने हृदय से स्वागत किया और भीतर बुला कर समझाना चाहा।
लेकिन यह काम आसान नहीं था। ऐसी पेचीदगी वे क्या जानने गये?
बड़ी
कोशिश और घण्टों की मेहनत के बाद तब कहीं कुछ लोगों को समझा पाया।
फिर दूसरा,
तीसरा,
चौथा
जत्था-एके
बाद दीगरे आता ही रहा। अन्त में सबों ने समझा। इसलिए मुझे छोड़ बाकी
लोग जुलूस एवं मीटिंग में गये और सब काम किया। मैं क्यों न आया यह भी
उनने ही सबों को समझाया। इस प्रकार वह रैली,
वह
पहला जमाव सफल हुआ और सरकार को तमाचे लगे।
लेकिन मैंने
जो इस बार 144
धारा को मान लिया इससे जमींदारों की,
मजिस्ट्रेट की और पुलिस की हिम्मत बढ़ गयी। फलत:,
सन्
1934
ई. में और 1935
में कुछ समय तक-सब
मिलाकर प्राय: 2
वर्ष तक-गया
जिले में मेरी मीटिंगें उनने असम्भव कर दीं। जभी ऐसा हो,
तभी 144 का ताला लग
जाय और मैं चुप रह जाऊँ। एक बार तो यहाँ तक कर दिया कि न तो मैं
जहानाबाद के इलाके में गया ही और न मेरा प्रोग्राम ही बना। फिर भी वह
धारा लगायी गयी। पढ़ के क्रोध और ताज्जुब हुआ। सरकार की नादानी पर
हँसी भी आयी।
जमींदार लोगों
को तो अब खासा बहाना ही मिल गया कि स्वामी जी तो यहाँ अब आने ही न
पायेंगे। आखिरी नोटिस सन्
1934
ई. के अन्त में अरवल में हुई,
जब एक
बड़ी सभा में वहीं भाषण देने के लिए बिहटा से ही नहर के रास्ते मोटर
से आ रहा था। एकाएक अरवल से पहले ही पुलिस ने मोटर रोक के नोटिस
तामिल की। फलत:,
वहाँ
की सभा का सभापतित्व कर न सका। जाकर चुपचाप बैठा रहा। मगर मैंने तय
कर लिया कि इसके बाद अब न मानूँगा। और अगर फिर नोटिस हुई तो उसे जरूर
तोडेगा। इसीलिए कुछ दिनों के बाद जब फिर अरवल में ही सभा की गयी तो
जमींदारों ने तूफान मचाया और प्रचार किया कि स्वामी जी आने न
पायेंगे। क्योंकि उन पर तो
144
की नोटिस
तामील हो गयी। मगर मैं पहुँचा और इस प्रचार का पता लगने पर सभा में
ही कह दिया कि यदि फिर कभी सरकार ने
144
की हिम्मत की
तो उसकी धज्जियाँ उड़ेंगी,
याद
रहे। लेकिन तब से आज तक यह मौका लगा ही नहीं।
(शीर्ष पर वापस)
(19)सोशलिस्ट
दोस्त किसान-सभा में
सन्
1934
में ही बिहार में ही आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की
बैठक हुई और अन्तिम बार पूर्ण रूप से सत्याग्रह स्थगित किया गया।
हालाँकि, व्यक्तिगत सत्याग्रह भी कुछ सफल
न रहा और एक प्रकार से उसे पहले से ही बन्द कहना चाहिए। मगर बाकायदा
अन्त्येष्टि वहीं की गयी जाड़े के दिनों में। साथ ही कौंसिल और
असेम्बली का प्रश्न पुनरपि कांग्रेस में उठा। अखिल भारतीय सोशलिस्ट
पार्टी की स्थापना और कॉन्फ्रेंस भी उसी समय हुई। असेम्बली में
प्रवेश और उस पार्टी का जन्म ये दोनों चीजें परस्पर
विरोधी
सी हैं। मगर दोनों ही शाखाएँ कांग्रेस से ही निकलीं सत्याग्रह बन्द
होने पर ही। खैर,
सत्याग्रह के बाद कौंसिलें तो पहले भी आयी थीं।
मगर सोशलिस्ट पार्टी नयी चीज थी। यों तो सोशलिस्ट पार्टी बिहार में
पहले से ही थी। मगर भारत भर में उसी समय बनी। उसी वक्त बिहार के कुछ
सोशलिस्ट
मित्रो
ने,
जिन्होंने पहले किसान-सभा का
विरोध
किया था,
मुझसे एक-दो बार कहा कि क्या हमें किसान-सभा में
शामिल न कीजियेगा? मैंने कहा कि सदा
'स्वागतम्' है।
आइये भी तो। मैं तो
गांधी
वादियों के
लिए सदा ही हाजिर रहा। फिर सोशलिस्टों की क्या बात?
ठीक याद नहीं, शायद
1934 के बीतते-न-बीतते ही वे लोग
किसान-सभा में आ गये। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि मेरा भार हल्का हुआ।
अब ये लोग काम सँभालेंगे। उन्होंने खूब उत्साह दिखाया भी।
गांधी जी की
एक बात का पहले ही जिक्र कर चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि मुझे पता
लगा है कि मेरे कुछ विश्वसनीय लोगों ने भी जेल के नियम न माने और जेल
के काम छोड़ कर पढ़ते रहे। इसीलिए सत्याग्रह का समय नहीं रहा। क्योंकि
ऐसी कमजोरियाँ सत्याग्रह की विरोधिनी हैं। मुझे हँसी आयी और आश्चर्य
भी हुआ कि उनके जैसा अनुभवी आदमी इस मोटी तथा सर्वप्रसिध्द बात को,
जो सन्
1921
से ही न सिर्फ
चालू है वरन् उत्तरोत्तार वृध्दि पर है,
आज तक
नहीं जाना। लेकिन गांधी जी महात्मा ठहरे और लाला जी के शब्दों में
'वह
सबों को महात्मा ही मानते हैं!'
मुझे सन्
1934
ई. की उनकी एक और चीज भी समझ में नहीं आयी। बिहार रिलीफ कमिटी की
मीटिंग थी। उसमें उन्होंने रिलीफ (भूकम्प में सहायता) के लिए सरकार
से सहयोग का प्रस्ताव किया। यह तो ठीक ही था। मगर
'सम्मानपूर्वक
सहयोग'
(Respectful Cooperation)
में जो
उन्होंने 'सम्मानपूर्वक'
(Respectful)
विशेषण
लगाया वह मुझे बुरी तरह खटका। मुझे याद है कि नागपुर के डॉ. खरे भी
मेम्बर थे। उन्हें भी खटका था। मैंने पीछे
पत्र
लिख के
गांधी
जी के पास भेजा और लिखा कि जिस सरकार के प्रति सम्मान का और ससम्मान
सहयोग के अभाव का पाठ आपने
14
वर्ष तक पढ़ाया उसी के प्रति आज सम्मान कैसा?
उसका सम्मान तो हम भूल ही गये। यहाँ तो उसकी
जरूरत भी नहीं थी। केवल 'सहयोग'
शब्द ही काफी था। उन्होंने
उत्तर
दिया कि यह तो शिष्टाचार मात्र है। पर यह चीज मैं समझ न सका और इसी
कारण एक
पत्र
लिख के मैंने उस कमिटी से इस्तीफा भी दे दिया। बिना जरूरत और बेमौके
ऐसा शिष्टाचार मेरे लिए बराबर पहेली ही रही है। मगर अब पता लगा है
कि
गांधी
जी की अहिंसा के भीतर यह भी आता है और इसी की घूँट हमें बराबर बच्चों
की तरह वे जबर्दस्ती पिलाते रहे हैं। हालाँकि फल,
कुछ न हुआ है। जिसे उन्होंने बराबर शैतान कहा उसी
के प्रति सम्मान की बात वही बोल सकते हैं। यह बात साधारणजनों के तो
सामर्थ्य से बाहर की ही चीज है।
सन्
1934
की गर्मियों के बीतने पर गया में कुछ नये सोशलिस्टों के क्षणिक जोश
के करते किसान-सभा में एक नयी बात होने वाली थी। बिहार के एक ऐसे ही
सज्जन,
जो प्राय:
सोशलिज्म की बातें करते और श्री जवाहर लाल का जिक्र बार-बार करते थे,
ऐसा
स्वप्न देख रहे थे कि आल इण्डिया किसान-सभा बने और
श्री
पुरुषोत्ताम दास जी टण्डन
के साथ इसी
सिलसिले में वे भारत भर की यात्रा करें। शायद अखिल भारतीय सभा के
मन्त्री
बनने की भी उनकी लालसा थी। टण्डन जी तो सभापति होते ही।
इधर
मैं उसका सख्त दुश्मन था। मेरी धारणा थी कि अभी उसका समय नहीं है। तब
तक,
जब तक प्रान्तों में किसान-सभाएँ नहीं बन जाती
हैं। क्योंकि ऐसी दशा में उस सभा में गलत आदमी आ
जायेगे,
जिन्हें हम जानते तक नहीं और जिनके बारे में कह
नहीं सकते कि आया वे किसान-सेवक सचमुच हैं या अपने मतलब के यार!
प्रान्तों में सभाएँ बन जाने पर सभी जगह असली किसान-सेवक निकल आयेंगे,
और उनके कामों से हम उन्हें जान लेंगे। तब कहीं
भारतीय किसान-सभा के संगठन का मौका आयेगा। नहीं तो
धोखा
होगा और
हम गलत रास्ते पर
जायेगे,
यही डर है। मगर टण्डन जी की तो एक केन्द्रीय
किसान-सभा उस समय भी थी। या यों कहिये कि उसका एक ऑफिस उनने
खोल रखा था। उनकी तरफ से सन् 1935 में
हमें समझाने के लिए पटने में श्री मोहनलाल गौतम भी एक बार आये थे।
मगर हमारी किसान कौंसिल का रवैया देख चुपके से चले गये।
हाँ,
तो वे
सज्जन यह भी समझते थे कि बिना हमारे सहयोग के कुछ हो नहीं सकता।
क्योंकि हमारी ही सभा पुरानी और काम करने वाली है। वह भी हमारी सभा
में आ गये थे। न जाने किस प्रकार
श्री
पुरुषोत्ताम दास टण्डन को उन्होंने द्वितीय बिहार प्रान्तीय किसान
सम्मेलन का सभापति अखबारों में घोषित करवा दिया।
क्योंकि
नियमानुसार न तो वह चुने ही गये और न हमारी किसान-सभा ने इस बारे में
कोई राय ही दी। हम बड़े पसोपेश में पड़े।
विरोध
करना भी ठीक न था। गया में सम्मेलन था और वह हजरत गया में घूमकर कुछ
कार्यकर्ताओं
से सट्टा-पट्टा कर चुके थे। हम चुप रहे। सम्मेलन की तैयारी हुई।
टण्डन जी आये। सभापति बने। भाषण हुआ। यहाँ तक तो ठीक।
मगर जब
जमींदारी प्रथा मिटाने की बात उठी और उसका एक प्रस्ताव टण्डनजी की
राय से उक्त सज्जन तथा दूसरों ने तैयार किया तो दिक्कत पैदा हुई।
टण्डनजी जमींदारी प्रथा को मुआवजा या दाम देकर मिटाने के पक्ष में
थे। ऐसा ही प्रस्ताव भी लिखा गया। इधर हमारी किसान-सभा अभी तक
जमींदारी प्रथा हटाने के पक्ष में न थी। यह सिध्दांत की तथा बड़ी बात
थी। मेरा व्यक्तिगत खयाल यह था कि जमींदारी अगर मिटानी हो तो फिर
उसका दाम कैसा?
यों ही
छीन ली जानी चाहिए। मगर अभी वह सवाल उठाने का समय मेरे जानते नहीं
आया था।
नतीजा यह हुआ
कि हमारे सभी साथी इस बात के विरोधी बन गये। उसके और भी कारण थे
जिनका उल्लेख यहाँ करना ही चाहता। अन्त में प्रस्ताव तो विषय समिति
में ही पास न हो सका। मगर टण्डन जी इसके बारे में बोल तो चुके ही थे।
इसलिए दूसरे दिन मैंने भाषण किया और किसान-सभा की एवं अपनी स्थिति
स्पष्ट कर दी। मैंने साफ-साफ कह दिया कि व्यक्तिगत रूप से मैं क्या
चाहता हूँ और क्यों?
टण्डन
जी को मेरा भाषण सुनके आश्चर्य हुआ और लोगों से उनने कहा भी कि यह
विचित्र संन्यासी है। एक और तो जमींदारी छीनना चाहता है और दूसरी ओर
अभी दाम देकर भी उसे मिटाने की बात किसान-सभा में आने देने को रवादार
नहीं। लेकिन मेरा पहला विरोध सुनकर जो धारणा मेरे बारे में उन्हें
पहले हुई थी,
वह तो
मिट गयी। क्योंकि किसान-सभा में यह प्रश्न न लाने का कारण भी मैंने
स्पष्ट कर दिया था।
मुझे खयाल है
कि गौतम जी से मैंने वहीं एकान्त में पूछा था कि क्या टण्डन जी भी
अन्त तक क्रान्ति में साथ देंगे?
उनने
कहा कि गणतन्त्रा क्रान्ति
(Democratic revolution)
तक तो साथ
देंगे ही। लेकिन सच बात तो यह कि मैं क्रान्ति की भीतरी बातें जानता,
समझता ही न था। खैर,
सम्मेलन हो गया और टण्डन जी वगैरह इलाहाबाद चले भी गये। मगर उसका
विवरण हमारे पास लिखा ही न गया। शायद उक्त गड़बड़ियों के ही करते। फलत:,
अखबारों में जो छपा,
वही रहा।
सन्
1934
के अन्त में बम्बई अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और मैं पहली
बार बम्बई गया। जहाँ वर्ली में कांग्रेस थी,
वहीं
पास की एक ठाकुरबाड़ी में बम्बई के मित्रो ने मेरे लिए स्थान नियत
किया था। क्योंकि मुझे तो कूप-जल चाहिए था। और वहाँ सुन्दर बावड़ी थी।
बाबू राजेन्द्र प्रसाद उस अधिवेशन में सभापति थे। उसी के बाद गांधी
जी कांग्रेस से अलग हो रहे थे। इसीलिए चर्खा संघ के सिवाय
ग्रामोद्योग संघ को वहीं उनने जन्म दिया। ताकि,
इधर से
छुट्टी पाकर उसके काम वह चलाते रहें। मगर आज तक का इतिहास बताता है
कि
वस्तुत:
कांग्रेस से अलग हुए या और भी उसे अपने हाथ में कर लिया। खूबी तो यह
कि उसके चवनियाँ सदस्य तक नहीं हैं। यह भी एक पहेली ही है। लोगों ने
पीछे उन्हें यह बातें लिखीं भी और उन्होंने अपने पक्ष का समर्थन भी
किया कि ऐसा क्यों करते हैं। मगर हमारे जैसे आदमी तो उनकी यह महिमा
और यह अपरम्पार माया समझ न सके। हमारे जैसों के समझने की यह बात है
भी नहीं! फलत:,
हम इस माथापच्ची में नाहक क्यों मरें?
उसी कांग्रेस
में असेम्बली प्रवेश की भी बात आयी। कांग्रेस में उसे स्थान भी मिला।
साथ ही,
गांधी जी की
राय से ही वह बात आयी। समय में कितना अन्तर हो गया! कहाँ तो वे पहले
उसके कट्टर शत्रु थे और कहाँ आज उसके समर्थक बन गये!
कांग्रेस
का विधान भी वहीं ढाला गया। इस प्रकार स्थिर स्वार्थ वाले जमींदारों
और पूँजीपतियों की जड़ कांग्रेस में जमाने का सूत्रपात वहीं हुआ।
मैं आल
इंडिया कांग्रेस कमिटी का सदस्य था। अत: विषयसमिति में मैंने इस बात
का
विरोध
किया और यह खतरा सुझाया। मैं पहली बार वहीं कांग्रेस में बोला। मैंने
कहा कि अब जब चार आने पैसे देकर बने-बनाये मेम्बर ही कांग्रेस पर
अधिकार जमा सकते हैं,
तो किसानों और गरीबों को उसमें कहाँ गुंजाइश होगी?
वह तो जमींदारों और धनियों के हाथ में चली जायगी।
क्योंकि मालदार लोग अपने पास से रुपये खर्च करके नकली मेम्बर ज्यादा
बना लेंगे और इस तरह कांग्रेस पर कब्जा कर लेंगे। पूने के एक सदस्य
ने मेरी इस बात को समझा और अपने भाषण में इसका उल्लेख भी किया। मगर
सुनता कौन था? बात वही हुई जो
गांधी
जी ने चाही।
लोगों ने यह
भी सोचा,
गांधी जी जब
कांग्रेस छोड़ ही रहे हैं,
तो यह
आखिरी बार उनकी बात मान ही ली जाय। मगर तब से मेरी यह धारणा बराबर
दृढ़ होती गयी कि
''परतेहुँ
बार कटक संहारा''।
आज तो कांग्रेस उन्हीं के हाथ की चीज है जो न क्रान्ति चाहते,
न
किसान-सभा को फूटी ऑंखों देख सकते और न मजदूर सभा को बर्दाश्त कर
सकते। हाँ,
नकली
किसान-मजदूर सभाएँ अवश्य चाहते हैं। क्योंकि समय की पुकार जो ठहरी।
इससे जनता आसानी से भुलावे में पड़ सकती है। इसीलिए मेरा डर अक्षरश:
सही निकला। मैंने अनुभव के बल से ही यह आशंका की थी।
अन्त में यहाँ
पर सन् 1935
ई. के शुरू की एक महत्त्व पूर्ण घटना कह के दूसरे खण्ड में पदार्पण
करना है। महीना तो ठीक याद नहीं। पटने की ही बात है। बिहार प्रान्तीय
किसान कौंसिल की एक महत्त्व पूर्ण बैठक थी। उसमें हमारे सोशलिस्ट
दोस्तों के सिवाय वह सज्जन भी,
जो
अखिल भारतीय किसान-सभा बनाने के लिए उतावले थे,
सदस्य
की हैसियत से हाजिर थे। विचारणीय विषयों में कई बातों के सिवाय
जमींदारी प्रथा मिटाने का प्रश्न भी था। इसलिए सभी तैयार होकर आये
थे। बहुत बहस हुई। सबने अपना दृष्टिकोण रखा। मैंने भी रखा। इसका
विरोध करते हुए मैंने कहा कि मेरे जानते अभी समय नहीं आया है कि हम
यह बात उठायें। क्योंकि किसान-सभा की बात है। जब हम निर्णय करेंगे तो
सारी शक्ति से उसमें पड़ना होगा। मगर मैं उसके सामान दुर्भाग्य से अभी
नहीं देखता और न परिस्थिति ही अनुकूल पाता हूँ। लेकिन यदि आप लोग या
बहुमत चाहे तो मैं खामख्वाह अड़ंगा नहीं डाल सकता। अन्त में राय ली
गयी और बहुमत आया जमींदारी मिटाने के पक्ष में।
मैंने कहा ठीक
है। मुझे खुशी है,
आप
लोगों ने यह निर्णय किया। मगर इसका उत्तरदायित्व भी लीजिये। मैं तो
ले नहीं सकता जैसा कि कह चुका हूँ,
हाँ,
इसमें
आप लोगों की सहायता जरूर करूँगा। इसलिए कौंसिल का सदस्य तो जरूर
रहूँगा। मगर सभापति नहीं रह सकता। तब तो जवाबदेही लेनी होगी। सभापति
किसी और को बनाइये। इस पर सन्नाटा हो गया। कोई भी तैयार न हुआ कि
सभापति बने। मुझे ताज्जुब हुआ कि मेरे विरोध पर भी प्रस्ताव पास करना
और जवाबदेही न लेना यह निराली बात है। फलत:,
मित्रो
को विवश हो के यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। मैंने उन्हें दिल से इसके
लिए धन्यवाद दिया। पर क्या पता था कि इसी सन्
1935
ई. के बीतने से पहले ही मैं स्वयं बिना एक पैसा दिये ही इस जमींदारी
पिशाची का नाश करने का प्रस्ताव करूँगा?
|